आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
|
भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादिक गे अति अभीष्ट बर पाइ।।35।।
ब्रह्म भवन सनकादिक गे अति अभीष्ट बर पाइ।।35।।
प्रेमसहित बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा अपना अत्यन्त
मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को गये।।35।।
चौ.-सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए।।
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं।।1।।
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं।।1।।
सनकादि मुनि ब्रह्मलोकको चले गये। तब भाइयोंने श्रीरामजीके
चरणोंमें सिर नवाया। सब भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं। [इसलिये] सब
हनुमान् जी की ओर देख रहे हैं।।1।।
सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होई सकल भ्रम
हानी।।
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना।।2।।
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना।।2।।
वे प्रभु के श्रीमुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर
सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अन्तर्यामी प्रभु सब जान गये और पूछने
लगे-कहो, हनुमान्! क्या बात है?।।2।।
जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता।।
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।3।।
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।3।।
तब हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले-हे दीनदयालु भगवान्! सुनिये। हे
नाथ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मनमें सकुचा रहे हैं।।3।।
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ।।
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।4।।
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।4।।
[भगवान् ने कहा-] हनुमान्! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो।
भरत के और मेरे बीचमें कभी भी कोई अन्तर (भेद) है? प्रभुके वचन सुनकर
भरतजीने उनके चरण पकड़ लिये [और कहा-] हे नाथ! हे शरणागतके दुःखोंको
हरनेवाले! सुनिये।।4।।
दो.-नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।
हे नाथ! न तो कुछ सन्देह है और न स्वप्नमें भी शोक और मोह है।
हे कृपा और आनन्दके समूह! यह केवल आपकी ही कृपाका फल है।।36।।
चौ.-करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई।।
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई।।1।।
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई।।1।।
तथापि हे कृपानिधान! मैं आपसे एक धृष्टता करता हूँ। मैं सेवक
हूँ और आप सेवक को सुख देनेवाले हैं [इससे मेरी धृष्टताको क्षमा कीजिये और
मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सुख दीजिये]। हे रघुनाथजी! वेद पुराणों ने संतों
की महिमा बहुत प्रकार से गायी है।।1।।
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि
प्रीति अधिकाई।।
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन।।2।।
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन।।2।।
आपने भी अपने श्रीमुखसे उनकी बड़ाई की है और उनपर प्रभु (आप)
का प्रेम भी बहुत है। हे प्रभो! मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ। आप कृपाके
समुद्र हैं और गुण तथा ज्ञानमें अत्यन्त निपुण हैं।।2।।
संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।3।।
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।3।।
हे शरणागत का पालन करनेवाले! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके
मुझको समाझकर कहिये। [श्रीरामजीने कहा-] हे भाई! संतों के लक्षण (गुण)
असंख्य है, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं।।3।।
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।4।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।4।।
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चन्दन का
आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है [क्योंकि उसका
स्वभाव या काम ही वृक्षोंको काटना है]; किन्तु चन्दन [अपने् स्वभाववश] अपना
गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ीको) सुगन्ध से सुवासित कर देता है।।4।।
दो.-ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।
इसी गुणके कारण चन्दन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत्
का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुखको यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में
जलाकर फिर घन से पीटते हैं।।37।।
चौ.-बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।1।
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।1।
संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणोंकी
खान होते है। उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे
[सबमें, सर्वत्र, सब समय] समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है,
वे मदसे रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भयका त्याग
किये हुए रहते हैं।।1।।
कोमलचित दीनन्ह पर दया। मन बच क्रम मम भगति अमाया।।
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।2।।
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।2।।
उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनोंपर दया करते हैं तथा
मन, वचन और कर्मसे मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान
देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे
प्राणोंके समान हैं।।2।।
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।3।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।3।।
उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते हैं।
शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नताके घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता,
सबके प्रति मित्रभाव और ब्राह्मणके चरणोंमें प्रीति होती है, जो धर्मों को
उत्पन्न करनेवाली है।।3।।
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।4।।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।4।।
हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा
संत जानना। जो शम (मनके निग्रह), दम, (इन्द्रियों के निग्रह), नियम और नीति
से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते;।।4।।
दो.-निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।
जिन्हें निन्दा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे
चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे
प्राणों के समान प्रिय हैं।।38।।
चौ.-सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।।
तिंन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि धालइ हरहाई।।1।।
तिंन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि धालइ हरहाई।।1।।
अब असंतों (दुष्टों) का स्वभाव सुनो; कभी भूलकर भी उनकी संगति
नहीं करनी चाहिये। उनका संग सदा दुःख देनेवाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी
जातिकी) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गायको अपने संग से नष्ट कर डालती है।।1।
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी।।
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।।2।।
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।।2।।
दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई
सम्पत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निन्दा सुन
पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्तेमें पड़ी निधि (खजाना) पा
ली हो।।2।।
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।।
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।।3।।
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।।3।।
वे काम क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल
और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं।
जो भलाई करता है उसके साथ भी बुराई करते हैं।।3।।
झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा।।4।।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा।।4।।
उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन
होता है और झूठा ही चबेना होता है। (अर्थात् वे लेने-देनेके व्यवहारमें
झूठका आश्रय लेकर दूसरो का हक मार लेते हैं अथा झूठी डींग हाँका करते हैं
कि हमने लाखों रुपये ले लिये, करोड़ों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते है
चनेकी रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आये। अथवा चबेना चबाकर रह जाते
हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजन से वैराग्य है, इत्यादि। मतलब यह कि वे
सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं)। जैसे मोर [बहुत मीठा बोलता है,
परन्तु उस] का हृदय ऐसा कठोर होता है कि वह महान् विषैले साँपोंको भी खा
जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं [परन्तु हृदय के बड़े ही
निर्दयी होते हैं।।4।।
दो.-पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।।39।।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।।39।।
वे दूसरों से द्रोह करते हैं और परायी स्त्री
पराये धन तथा परायी निन्दा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य
नर-शरीर धारण किये हुए राक्षस ही हैं।।39।।
चौ.-लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्रोदर पर जमपुर त्रास न।।
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।।1।।
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।।1।।
लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात् लोभही
से सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुनके ही परायण
होते हैं, उन्हें यम पुर का भय नहीं लगता। यदि किसीकी बड़ाई सुन पाते हैं,
तो वे ऐसी [दुःखभरी] साँस लेते हैं, मानो जूड़ी आ गयी हो।।1।।
जब कहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती।।
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।।2।।
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।।2।।
और जब किसीकी विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो
जगत् भर के राजा हो गये हों। वे स्वार्थपरायण, परिवारवालोंके विरोधी काम और
लोभके कारण लंपट और अत्यन्त क्रोधी होते हैं।।2।।
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं।।
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।।3।।
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।।3।।
वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते। आप तो
नष्ट हुए ही रहते हैं, [साथ ही अपने संगसे] दूसरोंको भी नष्ट करते हैं।
मोहवश दूसरोंसे द्रोह करते हैं। उन्हें न संतोंका संग अच्छा लगता है, न
भगवान् की कथा ही सुहाती है।।3।।
अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी।।
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा।।4।।
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा।।4।।
वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदों के
निन्दक और जबर्दस्ती पराये धनके स्वामी (लूटनेवाले) होते हैं। वे दूसरों से
द्रोह तो करते ही हैं; परन्तु ब्राह्मण-द्रोह विशेषतासे करते हैं। उनके
हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परन्तु वे [ऊपरसे] सुन्दर वेष धारण किये
रहते हैं।।4।।
|
लोगों की राय
No reviews for this book