आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।40।।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।40।।
ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते
द्वापर में थोड़े-से होगें और कलियुगमें तो इनके झुंड-के-झुंड होंगे।।40।।
चौ.-पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।1।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।1।।
हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों
को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात! समस्त पुराणों
और वेदोंका यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बात को
पण्डित लोग जानते हैं।।1।।
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।।
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।2।।
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।2।।
मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरोंको दुःख पहुँचाते हैं,
उनको जन्म-मृत्यु के महान् संकट सहने पड़ते हैं। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण
होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है।।2।।
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल
दाता।।
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने।।3।।
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने।।3।।
हे भाई! मैं उनके लिये कालरूप (भयंकर) हूँ और उनके अच्छे और
बुरे कर्मों का [यथायोग्य] फल देनेवाला हूँ! ऐसा विचार कर जो लोग परम चतुर
हैं, वे संसार [के प्रवाह] को दुःखरूप जानकर मुझे ही भजते हैं।।3।।
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि
नायकू।।
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे।।4।।
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे।।4।।
इसी से वे शुभ और अशुभ फल देनेवाले कर्मों को त्याग कर देवता,
मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। [इस प्रकार] मैंने संतों और
असंतोंके गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणोंको समझ रक्खा है, वे जन्म-मरण के
चक्कर में नहीं पड़ते ।।4।।
दो.-सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।41।।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।41।।
हे तात! सुनो, माया से ही रचे हुए अनेक (सब) गुण और दोष हैं
(इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में हैं कि दोनों ही न
देखे जायँ, इन्हें देखना यही अविवेक है।।41।।
चौ.-श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई।।
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा।।1।।
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा।।1।।
भगवान् के श्रीमुख से ये वचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गये।
प्रेम उनके हृदय में समाता नहीं। वे बार-बार विनती करते हैं। विशेषकर
हनुमान् जी के हृदय में अपार हर्ष है।।1।।
पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए।।
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं।।2।।
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं।।2।।
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी अपने महलको गये। इस प्रकार वे नित्य
नयी लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्या में बार-बार आते हैं और आकर
श्रीरामजी के पवित्र चरित्र गाते हैं।।2।।
नित नव चरित देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।।
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।3।।
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।3।।
मुनि यहाँ से नित्य नये-नये चरित्र देखकर जाते हैं और
ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्माजी सुनकर अत्यन्त सुख मानते
हैं [और कहते हैं-] हे तात! बार-बार श्रीरामजीके गुणोंका गान करो।।3।।
सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।
सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।4।।
सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।4।।
सनकादि मुनि नारद जी सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि)
मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परन्तु श्रीरामजीका गुणगान सुनकर वे भी अपनी
ब्रह्मसमाधिको भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे [रामकथा
सुननेके] श्रेष्ठ अधिकारी हैं।।4।।
दो.-जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।42।।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।42।।
सनकादि मुनि-जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान
(ब्रह्मसमाधि) छोड़कर श्रीरामजीके चरित्र सुनते हैं। यह जानकर कर भी जो
श्रीहरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय [सचमुच ही] पत्थर [के समान]
हैं।।42।।
चौ.-एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए।।
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन।।1।।
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन।।1।।
एक बार श्रीरघुनाथजीके बुलाये हुए गुरु वसिष्ठजी, ब्राह्मण और
अन्य सब नगरनिवासी सभामें आये। जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन
यथा योग्य बैठ गये, तब भक्तोंके जन्म-मरणको मिटानेवाले श्रीरामजी वचन
बोले-।।1।।
सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।2।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।2।।
हे समस्त नगर निवासियों! मेरी बात सुनिये। यह बात मैं हृदय
में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीति की बात ही करता हूँ और न इससे
कुछ प्रभुता ही है इसलिये [संकोच और भय छोड़कर ध्यान देकर] मेरी बातों को
सुन लो और [फिर] यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उनके अनुसार करो!।।2।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।3।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।3।।
वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने। हे
भाई! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक
देना।।3।।
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही
कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन
का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
दो.-सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।43।।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।43।।
वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा
[अपना दोष न समझकर] काल पर, कर्म पर और ईश्वरपर मिथ्या दोष लगाता है।।43।।
चौ.-एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत
दुखदाई।।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।1।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।1।
हे भाई! इस शरीर को प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है। [इस
जगत् के भोगों की तो बात ही क्या] स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अन्त
में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा
देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं।।1।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।2।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।2।।
जो पारसमणि को खोकर बदलेमें घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई
भला (बुद्धिमान्) नहीं कहता। यह अविनाशी जीव [अण्डज, स्वेदज, जरायुज और
उद्भिज्ज] चार खानों और चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है।।2।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।3।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।3।।
माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ
(इनके वशमें हुआ) यह सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करनेवाले ईश्वर
कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्यका शरीर देते हैं।।3।।
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।4।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।4।।
यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है। मेरी
कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं।
इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज
ही) उसे प्राप्त हो गये हैं,।।4।।
दो.-जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।44।।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।44।।
जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और
मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है।।44।।
चौ.-जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़
गहहू।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।1।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।1।।
यदि परलोक में और [यहाँ दोनों] सुख जगह चाहते हो, तो मेरे वचन
सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़तासे पकड़ रक्खो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का
मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है।।1।।
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका।।
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ।।2।।
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ।।2।।
ज्ञान अगम (दुर्गम) है, [और] उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न
हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मनके लिये कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट
करनेपर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होनेसे मुझको प्रिय नहीं
होता।।2।।
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं
प्रानी।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।3।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।3।।
भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है। परन्तु सत्संग
(संतोके संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते। और पुण्यसमूहके बिना संत
नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरणके चक्र) का अन्त करती है।।3।।
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।।
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा।।4।।
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा।।4।।
जगत् में पुण्य एक ही है, [उसके समान] दूसरा नहीं। वह है-मन,
कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणोंकी पूजा करना। जो कपटका त्याग करके
ब्राह्मणों की सेवा करता है उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं।।4।।
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लोगों की राय
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