आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।
इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष श्रीरामजी का गुण-गान करते हैं
और कृपानिधान श्रीरामजी सदा सबपर अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं।।30।।
चौ.-जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।1।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।1।।
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे पक्षिराज गरुड़जी! जबसे
रामप्रतापरूपी अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ, तब से तीनों लोकों में
पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतों के मनमें शोक
हुआ।।1।।
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।2।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।2।।
जिन-जिनके शोक हुआ, उन्हें मैं बखानकर कहता हूँ [सर्वत्र
प्रकाश छा जाने से] पहले तो अविद्यारूपी रात्रि नष्ट हो गयी। पापरूपी उल्लू
जहाँ-तहाँ छिप गये और काम-क्रोधरूपी कुमुद मुँद गये।।2।।
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा।।3।।
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा।।3।।
भाँति-भाँति के [बन्धनकारक] कर्म, गुण, काल और स्वभाव-ये चकोर
हैं, जो [रामप्रतापरूपी सूर्यके प्रकाशमें] कभी सुख नहीं पाते। मत्सर (डाह)
मान, मोह और मदरूपी जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल
पाता।।3।।
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना।।
सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका।।4।।
सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका।।4।।
धर्मरूपी तालाबों में ज्ञान, विज्ञान- ये अनेकों प्रकार के
कमल खिल उठे। सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक-ये अनेकों चकवे शोकरहित हो
गये।।4।।
दो.-यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़िहिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास।।31।।
पछिले बाढ़िहिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास।।31।।
यह श्रीरामप्रतापरूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता
है, तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है, वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख,
संतोष, वैराग्य और विवेक) बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है,
वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि)
नाश को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं।।31।।
चौ.-भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय
पवनकुमारा।।
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए।।1।।
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए।।1।।
एक बार भाइयोंसहित श्रीरामचन्द्रजी परम प्रिय हनुमान् जी को
साथ लेकर सुन्दर उपवन देखने गये। वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नये
पत्तोंसे युक्त थे।।1।।
जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए।।
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना।।2।।
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना।।2।।
सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आये, जो तेजके पुंज सुन्दर गुण और
शीलसे युक्त तथा सदा ब्रह्मानन्द में लवलीन रहते हैं। देखने में तो वे बालक
लगते हैं; परंतु हैं बहुत समय के ।।2।।
रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा।।
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं।।3।।
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं।।3।।
मानो चारों वेद ही बालकरूप धारण किये हों। वे मुनि समदर्शी और
भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ
श्रीरघुनाथजी की चरित्र-कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं।।3।।
तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी।।
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।।4।।
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।।4।।
[शिवजी कहते हैं-] हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गये थे (वहीं
से चले आ रहे थे) जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्रीअगस्त्य जी रहते थे। श्रेष्ठ
मुनि ने श्रीरामजी की बहुत-सी कथाएँ वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने
में उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है।।4।।
दो.-देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।
सनकादि मुनियोंको आते देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने हर्षित होकर
दण्डवत् की और स्वागत (कुशल) पूछकर प्रभुने [उनके] बैठने के लिये अपना
पीताम्बर बिछा दिया है।।32।।
चौ.-कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई।।
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।1।।
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।1।।
फिर हनुमान् जी सहित तीनों भाइयों ने दण्डवत् की, सबको बड़ा
सुख हुआ। मुनि श्रीरघुनाथजी की अतुलनीय छवि देखकर उसीमें मग्न हो गये। वे
मन को रोक न सके।।1।।
स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन।।
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।2।।
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।2।।
वे जन्म-मृत्यु [के चक्र] से छुड़ानेवाले, श्यामशरीर, कमलनयन,
सुन्दरता के धाम श्रीरामजी को टकटकी लगाये देखते ही रह गये, पलक नहीं
मारते। और प्रभु हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं।।2।।
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्रवत नयन जल पुलक सरीरा।।
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।3।।
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।3।।
उनकी [प्रेमविह्लल] दशा देखकर [उन्हीं की भाँति] श्रीरघुनाथजी
के नेत्रों से भी [प्रेमाश्रुओंका] जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया।
तदनन्तर प्रभु ने हाथ पकड़कर श्रेष्ठ मुनियों को बैठाया और परम मनोहर वचन
कहे-।।3।
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।4।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।4।।
हे मुनीश्वरों! सुनिये, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से
[सारे] पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती
है, जिससे बिना ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है।।4।।
दो.-संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ।।33।।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ।।33।।
संतका संग मोक्ष (भव-बन्धनसे छूटने) का और कामीका संग
जन्म-मृत्युके बन्धनमें पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पण्डित तथा
वेद-पुराण [आदि] सभी सद्ग्रन्थ ऐसा कहते हैं।।33।।
चौ.-सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति
अनुसारी।।
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।।1।।
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।।1।।
प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से
स्तुति करने लगे-हे भगवान् आपकी जय हो। आप अन्तरहित, पापरहित अनेक
(सब रूपोंमें प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं।।1।
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर।।
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर।।2।।
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर।।2।।
हे निर्गुण ! आपकी जय हो। हे गुणों के
समुद्र! आपकी जय हो, जय हो। आप सुख के धाम
[अत्यन्त] सुन्दर और अति चतुर हैं। हे लक्ष्मीपति! आपकी जय हो। हे पृथ्वी
के धारण करनेवाले! आपकी जय हो। आप उपमारहित अजन्मा अनादि और
शोभाकी खान हैं।।2।।
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद।।
तग्य कृतम्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।3।।
तग्य कृतम्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।3।।
आप ज्ञान के भण्डार, [स्वयं] मानरहित और [दूसरों को] मान
देनेवाले हैं। वेद और पुराण आपका पावन सुन्दर यश गाते हैं। आप तत्त्व के
जाननेवाले, की हुई सेवा को मानने वाले और अज्ञान का नाश करने
वाले हैं। हे निरंजन (मायारहित)! आपके अनेकों (अनन्त) नाम हैं और
कोई नाम नहीं है (अर्थात् आप सब नामों के परे हैं)।।3।।
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय।।
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।4।।
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।4।।
आप सर्वरूप हैं, सबमें व्याप्त हैं और सब के हृदयरूपी
घरमें सदा निवास करते हैं; [अतः] आप हमारा परिपालन कीजिये।
[राग-द्वेष,अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि] द्वन्द्व, विपत्ति और
जन्म-मृत्यु के जाल को काट दीजिये। हे रामजी! आप हमारे हृदय में बसकर काम
और मद का नाश कर दीजिये।।4।।
दो.-परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।
आप परमानन्दस्वरूप कृपाके धाम और मनकी कामनाओंको परिपूर्ण
करनेवाले हैं। हे श्रीरामजी! हमको अपनी अविचल प्रेमा भक्ति दीजिये।।34।।
चौ.-देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप
नसावनि।
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।1।।
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।1।।
हे रघुनाथजी! आप हमें अपनी अत्यन्त पवित्र करनेवाली और तीनों
प्रकार के तापों और जन्म-मरणके क्लेशों का नाश करनेवाली भक्ति दीजिये। हे
शरणागतोंकी कामना पूर्ण करने के लिये कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो!
प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिये।।1।।
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक।।
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।2।।
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।2।।
हे रघुनाथजी! आप जन्म-मृत्युरूप समुद्र को सोखने के लिये
अगस्त्य मुनिके समान हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के
देनेवाले हैं हे दीनबन्धों! मन से उत्पन्य दारुण दुःखोंका नाश कीजिये और
[हममें] समदृष्टि का विस्तार कीजिये।।2।।
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक।।
भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।3।।
भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।3।।
आप ]विषयोंकी] आशा, भय और ईर्ष्या आदि के निवारण
करनेवाले हैं तथा विनय, विवेक और वैराग्य विस्तार करनेवाले हैं।
हे राजाओं के शिरोमणि एवं पृथ्वी के भूषण श्रीरामजी! संसृति (जन्म-मृत्युके
प्रवाह) रूपी नदीके लिये नौकारूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिये।।3।।
मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित संकर।।
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक।।4।।
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक।।4।।
हे मुनियों के मन रूपी मानसरोवर में निरन्तर निवास करनेवाले
हंस ! आपके चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी द्वारा वन्दित हैं। आप रघुकुलके
केतु, वेदमर्यादा के राक्षक और काल कर्म स्वभाव तथा गुण [रूप
बन्धनों] के भक्षक (नाशक) हैं।।4।।
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन।।5।।
आप तरन-तारन (स्वयं तरे हुए और दूसरोंको तारनेवाले) तथा
सब दोषोंको हरनेवाले हैं। तीनों लोकोंके विभूषण आप ही तुलसीदास के स्वामी
हैं।।5।।
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लोगों की राय
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