आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार।।25।।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार।।25।।
जो [बौद्धिक] ज्ञान, वाणी और इन्दियों से परे और अजन्मा
हैं तथा माया, मन और गुणोंके परे हैं, वही सच्चिदादन्घन भगवान् श्रेष्ठ
नर-लीला करते हैं।।25।।
चौ.-प्रातकाल सरजू करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज
सज्जन।।
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि जब जानहिं।।1।।
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि जब जानहिं।।1।।
प्रातः काल सरयू में स्नान करके ब्राह्मणों और सज्जनोंके साथ
सभा में बैठते हैं। वसिष्ठजी वेद और पुराणों की कथाएँ वर्णन करते हैं और
श्रीरामजी सुनते हैं, यद्यपि वे सब जानते हैं।।1।।
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं।।
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई।।2।।
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई।।2।।
वे भाइयों को साथ लेकर भोजन करते हैं। उन्हें देखकर सभी
माताएँ आनन्द से भर जाती है। भरतजी और शत्रुघ्नजी दोनों सहित हनुमान् जी
सहित उपवनों में जाकर।।2।।
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा।।
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं।।3।।
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं।।3।।
वहाँ बैठकर श्रीरामजी के गुणोंकी कथाएँ पूछते हैं औऱ हनुमान्
जी अपनी सुन्दर बुद्धिसे उन गुणोंमें गोता लगाकर उनका वर्णन करते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी के निर्मल गुणोंकोसुनकर दोनों भाई अत्यन्त सुख पाते हैं और
विनय करके बार-बार कहलवाते हैं।।3।।
सब कें गृह गृह होहिं पुराना। राम चरित पावन बिधि नाना।।
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।।4।।
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।।4।।
सबके यहाँ घर-में पुराणों और अनेक प्रकार के पवित्र
रामचरित्रों की कथा होती है। पुरुष और स्त्री सभी श्रीरामचन्द्रजी का
गुणगान करते हैं और इस आनन्दमें दिन-रातका बीतना भी नहीं जान पाते।।4।।
दो.-अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज।।26।।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज।।26।।
जहाँ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी स्वयं राजा होकर विराजमान हैं,
उस अवधपुरी के निवासियों के सुख-सम्पत्ति के सुमुदायका वर्णन हजारों शेषजी
भी नहीं कर सकते।।26।।
चौ.-नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा।।
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं।।1।।
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं।।1।।
नारद आदि और सनक आदि मुनीश्वर सब कोसलराज श्रीरामजीके दर्शनके
लिये प्रतिदिन अयोध्या आते हैं और उस [दिव्य] नगरको देखकर वैराग्य भुला
देते हैं।।1।।
जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं।।
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर।।2।।
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर।।2।।
[दिव्य] स्वर्ण और रत्नों से भरी हुई अटारियाँ हैं।
[मणि-रत्नोंकी] अनेक रंगोंकी सुन्दर ढली हुई फर्शे हैं। नगर के चारों ओर
अत्यन्त सुन्दर परकोटा बना है, जिसपर सुन्दर रंग-बिरंगे कँगूरे बने
हैं।।2।।
नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई।।
महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा।।3।।
महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा।।3।।
मानो नवग्रहों ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर
लिया हो। पृथ्वी (सड़कों) पर अनेकों रंगों के (दिव्य) काँचों (रत्नों) की
गच बनायी (ढाली) गयी है, जिसे देखकर श्रेष्ठ मुनियोंके भी मन नाच उठते
हैं।।3।।
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत।।
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं।।4।।
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं।।4।।
उज्ज्वल महल ऊपर आकाशको चूम (छू) रहे हैं। महलों पर के कलश
[अपने दिव्य प्रकाशसे] मानो सूर्य, चन्द्रमाके प्रकाशकी भी निन्दा
(तिरस्कार) करते हैं। [महलोंमें] बहुत-सी मणियोंसे रचे हुए झरोखे सुशोभित
हैं और घर-घरमें मणियोंके दीपक शोभा पा रहे हैं।।4।।
छं.-मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची।।
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे।।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची।।
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे।।
घरों में मणियों के दीपक शोभा दे रहे हैं। मूँगों की बनी हुई
देहलियाँ चमक रही हैं। मणियों (रत्नों) के खम्भे हैं। मरकतमणियों (पन्नों)
से जड़ी हुई सोने की दीवारें ऐसी सुन्दर हैं मानो ब्रह्मा ने खास तौर से
बनायी हों। महल सुन्दर, मनोहर और विशाल हैं। उनमें सुन्दर स्फटिक के आँगन
बने हैं। प्रत्येक द्वार पर बहुत-से खरादे हुए हीरों से जड़े हुए सोने के
किवाड़ हैं।।
दो.-चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ।।27।।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ।।27।।
घर-घर में सुन्दर चित्रशालाएँ हैं, जिनमें श्रीरामजी के
चरित्र बड़ी सुन्दरता के साथ सँवार-कर अंकित किये हुए हैं। जिन्हें मुनि
देखते हैं, तो वे उनके भी चित्त को चुरा लेते हैं।।27।।
चौ.-सुमन बाटिका सबहिं लगाईं। बिबिध भांति करि जतन
बनाईं।।
लता ललित बहु जाति सुहाईं। फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।1।।
लता ललित बहु जाति सुहाईं। फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।1।।
सभी लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की पुष्पोंकी वाटिकाएँ यत्न
करके लगा रक्खी हैं, जिनमें बहुत जातियों की सुन्दर और ललित लताएँ सदा
वसंतकी तरह फूलती रहती हैं।।1।।
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिधि सदा बह सुंदर।।
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए।।2।।
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए।।2।।
भौरें मनोहर स्वर से गुंजार करते हैं। सदा तीनों प्रकार की
सुन्दर वायु बहती रहती है। बालकों ने बहुत-से पक्षी पाल रक्खे हैं, जो मधुर
बोली बोलते हैं और उड़ने में सुन्दर लगते हैं।।2।।
मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर शोभा अति पावत।।
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं।।3।।
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं।।3।।
मोर, हंस, सारस और कबूतर घरोंके ऊपर बड़ी ही शोभा पाते हैं।
वे पक्षी [मणियोंकी दीवारोंमें और छतमें] जहाँ-तहाँ अपनी परछाई देखकर [वहाँ
दूसरे पक्षी समझकर] बहुत प्रकारसे मधुर बोली बोलते और नृत्य करते हैं।।3।।
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक।।
राज दुआर सकल बिधि चारु। बीथीं चौहट रुचिर बजारू।।4।।
राज दुआर सकल बिधि चारु। बीथीं चौहट रुचिर बजारू।।4।।
बालक तोता-मैना को पढ़ाते हैं कि कहो-राम रघुपति जनपालक।
राजद्वार सब प्रकारसे सुन्दर है। गलियाँ, चौराहे और बाजार सभी सुन्दर
हैं।।4।।
छं.-बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए।।
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे।।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए।।
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे।।
सुन्दर बाजार है, जो वर्णन नहीं करते बनता; वहाँ वस्तुएँ बिना
ही मूल्य मिलती हैं। जहाँ स्वयं लक्ष्मीपति राजा हों, वहाँ की सम्पत्ति का
वर्णन कैसे किया जाय? बजाज (कपड़ेका व्यापार करनेवाले), सराफ (रुपये-पैसेका
लेन-देन करनेवाले) आदि वणिक् (व्यापारी) बैठे हुए ऐसे जान पड़ते हैं मानो
अनेक कुबेर हों। स्त्री, पुरुष, बच्चे और बूढ़े जो भी हैं, सभी सुखी,
सदाचारी और सुन्दर हैं।
दो.-उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।28।।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।28।।
नगर के उत्तर दिशा में सरयूजी बह रही हैं, जिनका जल निर्मल और
गहरा है। मनोहर घाट बँधे हुए हैं, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है।।28।।
चौ.-दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज
ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।1।।
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।1।।
अलग कुछ दूरी पर वह सुन्दर घाट है, जहाँ घोड़ों और हाथियों के
ठट्ट-के-ठट्ट जल पिया करते हैं। पानी भरने के लिये बहुत-से [जनाने] घाट
हैं, जो बड़े ही मनोहर हैं; वहाँ पुरुष स्नान नहीं करते।।1।।
राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपवन सुंदर।।2।।
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपवन सुंदर।।2।।
राजघाट सब प्रकारसे सुन्दर और श्रेष्ठ हैं, जहाँ चारों
वर्णोंके पुरुष स्नान करते हैं। सरयूजीके किनारे-किनारे देवताओंके मन्दिर
हैं, जिनके चारों ओर सुन्दर उपवन (बगीचे) हैं।।2।।
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि
सन्यासी।।
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।3।।
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।3।।
नदी के किनारे कहीं कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि और
संन्यासी निवास करते हैं। सरयूजीके किनारे-किनारे सुंदर तुलसी के
झुंड-के-झुंड बहुत से पेड़ मुनियों ने लगा रक्खे हैं।।3।।
पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई।।
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा।।4।।
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा।।4।।
नगर की शोभा तो कुछ कही नहीं जाती। नगर के बाहर भी परम
सुन्दरता है। श्रीअयोध्यापुरी के दर्शन करते ही सम्पूर्ण पाप भाग जाते हैं।
[वहाँ] वन उपवन बावलियाँ और तालाब सुशोभित हैं।।4।।
छं.-बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहिं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहिं।।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहिं।।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।
अनुपम बावलियाँ, तालाब और मनोहर तथा विशाल कुएँ शोभा दे रहे
हैं, जिनकी सुन्दर [रत्नोंकी] सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता और मुनितक
मोहित हो जाते हैं। [तालाबोंमें] अनेक रंगोंके कमल खिल रहे हैं, अनेकों
पक्षी पूज रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं। [परम] रमणीय बगीचे कोयल आदि
पक्षियोंकी [सुन्दर बोली से] मानो राह चलनेवालों को बुला रहे हैं।।
दो.-रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।29।।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।29।।
स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन
किया जा सकता है? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-सम्पत्तियाँ
अयोध्यामें छा रही हैं।।29।।
चौ.-जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परस्पर इहइ
सिखावहिं।।
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।1।।
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।1।।
लोग जहाँ-तहाँ श्रीरघुनाथजी के गुण गाते हैं और बैठकर एक
दूसरे को यही सीख देते हैं कि शरणागतका पालन करने वाले श्रीरामजी को भजो;
शोभा, शील, रूप और गुणोंके धाम श्रीरघुनाथजी को भजो।।1।।
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि।।
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।2।।
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।2।।
कमलनयन और साँवले शरीरवाले को भजो। पलक जिस प्रकार नेत्र की
रक्षा करते हैं, उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करने वाले को भजो। सुन्दर
बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले को भजो। संतरूपी कमलवनके [खिलानेके] लिये
सूर्यरूप रणधीर श्रीरामजी को भजो।।2।।
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि।।
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।3।।
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।3।।
कालरूपी भयानक सर्पके भक्षण करनेवाले श्रीरामरूप गरुड़जीको
भजो। निष्कामभावसे प्रणाम करते ही ममताका नाश करनेवाले श्रीरामरूप किरातको
भजो। कामदेवरूपी हाथी के लिये सिंहरूप तथा सेवकोंको सुख देनेवाले
श्रीरामजीको भजो।।3।।
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि।।
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।4।।
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।4।।
संशय और शोकरूपी घने अन्धकार के नाश करनेवाले श्रीरामरूप
सूर्यको भजो। राक्षसरूपी घने वनको जलाने वाले श्रीरामरूप अग्नि को भजो।
जन्म-मृत्युके भय को नाश करनेवाले श्रीजानकीजीसमेत श्रीरघुवीर को क्यों
नहीं भजते?।।4।।
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अजद अबिनासिहि।।
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।।5।।
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।।5।।
बहुत-सी वासनाओं रूपी मच्छरोंको नाश करनेवाले श्रीरामरूप
हिमराशि (बर्फके ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और अविनाशी
श्रीरघुनाथजीको भजो। मुनियोंको आनन्द देनेवाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले
और तुलसीदास के उदार (दयालु) स्वामी श्रीरामजीको भजो।।5।।
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लोगों की राय
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