रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


दो.-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।120क।।

ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मन्दराचल है और संत देवता हैं। जो उस समुद्रको मथकर अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है।।120(क)।।

बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।120ख।।

वैराग्यरूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोहरूपी वैरियोंको मारकर जो विजय-प्राप्त करती है, वह हरिभक्ति ही है; हे पक्षिराज! इसे विचार कर देखिये (भक्ति अर्थात् मनुष्य का ध्यान जिस पर बार-बार जाये, चाहें जीवन में कितनी ही अन्य बातें अथवा परिस्थितियाँ हों, वह बारम्बार परमात्मा का ध्यान कर पाये)।।120(ख)।।

चौ.-पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बिचारी।।2।।

पक्षिराज गरुड़जी फिर प्रेमसहित बोले-हे कृपालु! यदि मुझपर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखानकर कहिये।।1।।

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधारा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।2।।

हे नाथ! हे धीरबुद्धि! पहले तो यह बताइये कि सबसे दुर्लभ कौन-सा शरीर है? फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिये।।2।।

संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।3।।

संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिये। फिर कहिये कि श्रुतियोंमें प्रसिद्ध सबसे महान पुण्य कौन-सा है और सबसे महान् भयंकर पाप कौन है।।3।।

मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।4।।

फिर मानस रोगों को समझाकर कहिये। आप सर्वज्ञ हैं और मुझपर आपकी कृपा भी बहुत है [काकभुशुण्डिजीने कहा-] हे तात! अत्यन्त आदर और प्रेमके साथ सुनिये। मैं यह नीति संक्षेप में कहता हूँ (मानस रोग अर्थात् मन की व्यथाएँ)।।4।।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।5।।

मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। यह मनुष्य-शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देनेवाला है।।5।।

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं।।6।।

ऐसे मनुष्य-शरीरको धारण (प्राप्त) करके जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयोंमें अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदलेमें काँचके टुकड़े ले लेते हैं।।6।।

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।

जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षिराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।

संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला।।8।।

संत दूसरोंकी भलाईके लिये दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिये। कृपालु संत भोजके वृक्षके समान दूसरों के हित के लिये भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खालतक उधड़वा लेते हैं)।।8।।

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी।।9।।

किंतु दुष्ट लोग सनकी भाँति दूसरों को बाँधते हैं और [उन्हें बाँधनेके लिये] अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! सुनिये; दुष्ट बिना किसी स्वार्थके साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं।।9।।

पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।10।।

वे परायी सम्पत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम केतू के उदय की भाँति जगत् के दुःख के लिये ही होता है ।।10क।।

संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।11।।

और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिये सुख दायक है। वेदोंमें अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है।।1।।

हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।12।।

शंकरजी और गुरुकी निंदा करनेवाला मनुष्य [अगले जन्ममें] मेढक होता है और वह हजार जन्मतक वही मेढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निन्दा करनेवाला व्यक्ति बहुत-से नरक भोगकर फिर जगत् में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है।।12।।

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।13।।

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निन्दा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतोंकी निन्दा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोहरूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिये बीत गया (अस्त हो गया) रहता है।।13।।

सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।14।।

जो मूर्ख मनुष्य सबकी निन्दा करते हैं, वे चमगीदड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस-रोग सुनिये, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं।।14।।

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।

प्रीति करहिं जौं तीनउ भाई। उपजई सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।16।।

प्रीति कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जायँ) दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्नय होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होनेवाले जो विषयोंके मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) है; उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)।।16।।

ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।17।।

ममता दाद, और ईर्ष्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले की रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्टमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराये सुखको देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मनकी कुटिलता ही कोढ़ है।।17।।

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्णा उदरबुद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी।18।।

अहंकार अत्यन्त दुःख देनेवाला डमरू (गाँठका) रोग है। दम्भ, कपट मद, और मान नहरुआ (नसोंका) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदरवृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजोरी हैं।।18।।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।।19।।

मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ।।19।।

दो.-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121क।।

एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत-से असाध्य रोग हैं ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शान्ति) को कैसे प्राप्त करे?।।121(क)।।

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।121ख।।

नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों ओषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते।।121(ख)।।

चौ.-एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए।।1।।

इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोगके दुःखसे और भी दुखी हो रहे हैं। मैंने ये थोड़े-से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाये हैं कोई विरले ही (मनुष्य अपने जीवन में इन सभी को अपने कष्ट के लिए संभावित कारण भी नहीं मानता, यही आश्चर्य है, तब इनका उपचार सोचना तो बहुत बड़ी बात होगी!)।।1।।

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।।2।।

प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिये जानेसे कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं; परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषयरूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदयों में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं।।2।।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।

यदि श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ। सद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।4।।

श्रीरघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवाके साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।।4।।

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई।।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई।।5।।

हे गोसाईं! मनको निरोग हुआ तब जानना चाहिये, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाय, उत्तम बुद्धिरूपी भूख नित नयी बढ़ती रहे और विषयों की आशारूपी दुर्बलता मिट जाय।।5।।

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई।।
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद।।6।।

[इस प्रकार सब रोगों से छूटकर] जब मनुष्य निर्मल ज्ञानरूपी जलमें स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचारमें परम निपुण जो मुनि हैं।।6।।

सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा।।
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।7।।

हे पक्षिराज! उन सब का मत यही है कि श्रीरामजी के चरणोंकमलों में प्रेम करना चाहिये। श्रुति पुराण और सभी ग्रन्थ कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीकी भक्ति के सुख नहीं है।।7।।

कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा।।
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।।8।।

कछुए की पीठपर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाशमें भले ही अनेकों फूल खिल उठें; परंतु श्रीहरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता।।8।।

तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना।।
अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै।।9।।

मृगतृष्णाके जलको पीने से ही प्यास बुझ जाय, खरगोशके भले ही सींग निकल आवें, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे; परंतु श्रीराम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता।।9।।

हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई।।10।।

बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाय (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जायँ), परंतु श्रीरामसे विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता।।10।।

दो.-बारि मथें घृत बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।122क।।

जलको मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाय और बालू [को पेरने] से भले ही तेल निकल आवे; परंतु श्रीहरि के भजन बिना संसाररूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता यह सिद्धान्त अटल है।।122(क)।।

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन।।122ख।।

प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचारकर चतुर पुरुष सब सन्देह त्यागकर श्रीरामजीको ही भजते हैं।।122(ख)।।

श्लोक-विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते।।122ग।।

मैं आपसे भलीभाँति निश्चित किया हुआ सिद्धान्त कहता हूँ-मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं है कि जो मनुष्य श्रीहरिका भजन करते हैं, वे अत्यन्त दुस्तर संसारसागरको [सहज ही] पार कर जाते हैं।।122(ग)।

चौ.-कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा।।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी।।1।।

हे नाथ! मैंने श्रीहरि का चरित्र अपनी बुद्धिके अनुसार कहीं विस्तारसे और कहीं संक्षेपसे कहा। हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! श्रुतियोंका यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्रीरामजीका भजन करना चाहिये।।1।।

प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही।।
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा।।2।।

प्रभु श्रीरघुनाथजीको छोड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाय, जिनका मुझ-जैसे मूर्खपर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ! आप विज्ञानरूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझपर बड़ी कृपा की है।।2।।

पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि।।
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।3।।

जो आपने मुझे से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजीके मनको प्रिय लगनेवाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसारमें घड़ीभरका अथवा पलभरका एक-बारका भी सत्संग दुर्लभ है।।3।।

देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी।।
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन।।4।।

हे गरुड़जी! अपने हृदय में विचार कर देखिये, क्या मैं भी श्रीरामजी के भजनका अधिकारी हूँ? पक्षियोंमें सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूँ। परंतु ऐसा होनेपर भी प्रभुने मुझको सारे जगत् को पवित्र करनेवाला प्रसिद्ध कर दिया। [अथवा प्रभुने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया]।।4।।

दो.-आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन।।123क।।

यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी मैं आज धन्य हूँ, अत्यन्त धन्य हूँ, जो श्रीरामजीने मुझे अपना निज जन जानकर संत-समागम दिया (आपसे मेरी भेंट करायी)।।123(क)।।

नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ।।123ख।।

हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रक्खा। [फिर भी] श्रीरघुवीरके चरित्र समुद्रके समान हैं; क्या उनकी कोई थाह पा सकता है?।।123(ख)

चौ.-सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना।।
महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई।।1।।

श्रीरामचन्द्रजीके बहुत से गुणसमूहोंका स्मरण कर-करके सुजान भुशुण्डिजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं। जिनकी महिमा वेदों ने नेति-नेति कहकर गायी है; जिनका बल, प्रताप और प्रभुत्व (सामर्थ्य) अतुलनीय है;।।1।।

सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई।।
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ।।2।।

जिन श्रीरघुनाथजी के चरण शिवजी औऱ ब्रह्माजी द्वारा पूज्य हैं, उनकी मुझपर कृपा होनी उनकी परम कोमलता है। किसीका ऐसा स्वभाव कहीं न सुनता हूँ, न देखता हूँ। अतः हे पक्षिराज गरुड़जी! मैं श्रीरघुनाथजीके समान किसे गिनूँ (समझूँ)?।।2।।

साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी।।3।।

साधक, सिद्ध, जीवन्मुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान्, कर्म [रहस्य] के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पण्डित और विज्ञानी-।।3।।

तरहि न बिनु सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी।।
सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी।।4।।

ये कोई भी मेरे स्वामी श्रीरामजीका सेवन (भजन) किये बिना नहीं तर सकते। मैं उन्हीं श्रीरामजीको बार-बार नमस्कार करता हूँ। जिनकी शरण जानेपर मुझे-जैसे पापराशि भी शुद्ध (पापरहित) हो जाते हैं, उन अविनाशी श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ।।4।।

दो.-जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।124क।।

जिनका नाम जन्म मरण रूपी रोग की [अव्यर्थ] औषध और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरनेवाला है, वे कृपालु श्रीरामजी मुझपर और आपपर सदा प्रसन्न रहें।।124(क)।।

सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह।।124ख।।

भुशुण्डिजीके मंगलमय वचन सुनकर और श्रीरामजीके चरणों में उनका अतिशय प्रेम देखकर सन्देहसे भलीभाँति छूटे हुए गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले।।124(ख)।।

चौ.-मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी।।
राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई।।1।।

श्रीरघुवीर के भक्ति-रस में सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया। श्रीरामजीके चरणोंमें मेरी नवीन प्रीति हो गयी और मायासे उत्पन्न सारी विपत्ति चली गयी।।1।।

मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए।।
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा।।2।।

मोहरूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिये आप जहाज हुए। हे नाथ! आपने मुझे बहुत प्रकार के सुख दिये (परम सुखी कर दिया)। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदलें में उपकार) नहीं हो सकता। मैं तो आपके चरणोंकी बार-बार वन्दना ही करता हूँ।।2।।

पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।3।।

आप पूर्णकाम हैं और श्रीरामजीके प्रेमी हैं। हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी-इन सबकी क्रिया पराये हितके लिये ही होती है।।3।।

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।4।।

संतोंका हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियोंने कहा है; परंतु उन्होंने [असली] बात कहना नहीं जाना; क्योंकि मक्खन तो अपनेको ताप मिलनेसे पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरोंके दुःखसे पिघल जाते हैं।।4।।

जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ।।
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर।।5।।

मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया। आपकी कृपासे सब सन्देह चला गया। मुझे सदा अपना दास ही जानियेगा। [शिवजी कहते हैं-] हे उमा! पक्षिश्रेष्ठ गरुड़जी बार-बार ऐसा कह रहे हैं।।5।।

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