रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर।।125क।।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर।।125क।।
उन (भुशुण्डिजी) के चरणों में प्रेमसहित सिर नवाकर और हृदय
में श्रीरघुवीरको धारण करके धीरबुद्धि गरुड़जी तब वैकुण्डको चले
गये।।125(क)।।
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।125ख।।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।125ख।।
हे गिरिजे! संत-समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है। पर वह
(संत-समागम) श्रीहरिकी कृपाके बिना नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते
हैं।।125(ख)।।
चौ.-कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव
पासा।।
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा।।1।।
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा।।1।।
मैंने यह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही
भवपाश (संसारके बन्धन) छूट जाते हैं और शरणागतों को [उनके इच्छानुसार फल
देनेवाले] कल्पवृक्ष तथा दया के समूह श्रीरामजीके चरणकमलोंमें प्रेम
उत्पन्न होता है।।1।।
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई।।
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई।।2।।
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई।।2।।
जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और
कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थयात्रा आदि बहुत-से
साधन, योग, वैराग्य और ज्ञानमें निपुणता,-।।2।।
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना।।
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई।।3।।
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई।।3।।
अनेकों प्रकार के कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम, दम,
जप, तप और यत्र प्राणियोंपर दया, बाह्मण और गुरु की सेवा; विद्या, विनय और
विवेककी बड़ाई [आदि]-।।3।।
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई।।4।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई।।4।।
जहाँ तक वेदोंने साधन बतलाये हैं, हे भवानी! उन सबका फल
श्रीहरिकी भक्ति ही है। किंतु श्रुतियोंमें गायी हुई वह
श्रीरघुनाथजीकी भक्ति श्रीरामजीकी कृपासे किसी एक (विरले) ने ही पायी है।।4।।
दो.-मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास।।126।।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास।।126।।
किंतु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरन्तर सुनते हैं, वे
बिना ही परिश्रम उस मुनिदुर्लभ हरिभक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।।126।।
चौ.-सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित
दाता।।
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता।।1।।
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता।।1।।
जिसका मन श्रीरामजीके चरणोंमें अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ (सब
कुछ जाननेवाला) है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है। वही पृथ्वीका भूषण, पण्डित
और दानी है। वही धर्मपरायण है और वही कुलका रक्षक है।।1।।
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं
जाना।।
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।2।।
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।2।।
जो छल छोड़कर श्रीरघुवीरका भजन करता है, वही नीति में निपुण
है, वही परम बुद्धिमान् है। उसीने वेदों के सिद्धान्तको भलीभाँति जाना है।
वही कवि, वही विद्वान् तथा वही रणधीर है।।2।।
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी।।
धन्य सो भूपु नीति जो करइ। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।।3।।
धन्य सो भूपु नीति जो करइ। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।।3।।
वह देश धन्य है जहाँ श्री गंगाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो
पातिव्रत-धर्मका पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और
ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता।।3।।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।
वह धन धन्य है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय
होता है।) वही बुद्धि धन्य और परिपक्य है जो पुण्य में लगी हुई है। वही
घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मणकी अखण्ड
भक्ति हो।।4।। [धनकी तीन गतियाँ होती है-दान भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग
मध्यम है और नाश नीच गति है जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन को
तीसरी गति होती है।]
दो.-सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।।127।।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।।127।।
हे उमा! सुनो। वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और
परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष
उत्पन्न हो।।127।।
चौ.-मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि
राखी।।
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई।।1।।
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई।।1।।
मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको
छिपाकर रक्खा था। जब तुम्हारे मनमें प्रेमकी अधिकता देखी तब मैंने
श्रीरघुनाथजीकी यह कथा तुमको सुनायी।।1।।
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि।।
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।।2।।
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।।2।।
यह कथा उनसे न कहनी चाहिये जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभावके
हों और श्रीहरिकी लीलाको मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामीको, जो
चराचरके स्वामी श्रीरामजीको नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिये।।2।।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप
जबहूँ।।
राम कथा के तेइ अधिकारी जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी।।3।।
राम कथा के तेइ अधिकारी जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी।।3।।
ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वे देवराज (इन्द्र) के समान
ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा कभी नहीं सुनानी चाहिये। श्रीरामजीकी
कथाके अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यन्त प्रिय है।।3।।
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई।।
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई।।4।।
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई।।4।।
जिनकी गुरुके चरणों में प्रीति हैं, जो नीति परायण और
ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी है। और उसको तो यह कथा बहुत ही
सुख देनेवाली है, जिनको श्रीरघुनाथजी प्राणके समान प्यारे हैं।।4।।
दो.-राम चरन रति जो चहि अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान।।128।।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान।।128।।
जो श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम चाहता हो या मोक्ष पद चाहता
हो, वह इस कथा रूपी अमृतको प्रेमपूर्वक अपने कानरूपी दोनेसे पिये।।128।।
चौ.-राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी।।
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी।।1।।
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी।।1।।
हे गिरिजे! मैंने कलियुगके पापों का नाश करनेवाली और मनके
मलको दूर करनेवाली रामकथाका वर्णन किया। यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी
रोगके [नाशके] लिये संजीवनी जड़ी है, वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते
हैं।।1।।
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई।।2।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई।।2।।
इसमें सात सुन्दर सीढ़ियाँ हैं, जो श्रीरघुनाथजीकी भक्ति को
प्राप्त करनेके मार्ग हैं। जिसपर श्रीहरि की अत्यन्त कृपा होती है, वही इस
मार्ग पर पैर रखता है।।2।।
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा।।
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।3।।
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।3।।
जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामनाकी
सिद्धि पा लेते हैं। जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे
संसाररूपी समुद्र को गौके खुर से बने हुआ गड्ढेकी भाँति पार कर जाते
हैं।।3।।
सुनि सब कथा हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई।।
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा।।4।।
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा।।4।।
[याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-] सब कथा सुनकर श्रीपार्वतीजीके हृदय
को बहुत ही प्रिय लगी और वे सुन्दर वाणी बोलीं-स्वामीकी कृपा से मेरा
सन्देह जाता रहा और श्रीरामजी के चरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया।।4।।
दो.-मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस।।129।।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस।।129।।
हे विश्वनाथ! आपकी कृपासे अब मैं कृतार्थ हो गयी। मुझमें दृढ़
रामभक्ति उत्पन्न हो गयी और मेरे सम्पूर्ण क्लेश बीत गये (नष्ट हो
गये)।।129।।
चौ.-यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा।।
भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा।।1।।
भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा।।1।।
शम्भु-उमाका यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करने वाला और
शोक का नाश करनेवाला है। जन्म-मरणका अन्त करने वाला, सन्दहों का नाश
करनेवाला, भक्तोंको आनन्द देनेवाला और संत पुरुषोंको प्रिय है।।1।।
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु
नाहीं।।
रघुपति कृपाँ जथामति रावा। मैं यह पावन चरित सुहावा।।2।।
रघुपति कृपाँ जथामति रावा। मैं यह पावन चरित सुहावा।।2।।
जगत् में जो (जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस राम कथा के
समान कुछ भी प्रिय नहीं है। श्रीरघुनाथजीकी कृपासे मैंने यह सुन्दर और
पवित्र करनेवाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है।।2।।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप,
व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना,
श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना
चाहिये।।3।।
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।
पतितोंको पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है-ऐसा
कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं-रे मन! कुटिलता त्याग कर उन्हींको भज।
श्रीरामजीको भजने से किसने परम गति नहीं पायी?।।4।।
छं.-पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।
अरे मूर्ख मन! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको
भजकर किसने परमगति नहीं पायी? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से
दुष्टों को उन्होंने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि
जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो
जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।
जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्रीरामजीका यह चरित्र कहते हैं,
सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुगके पाप और मन के मलको धोकर बिना ही
परिश्रम श्रीरामजीके परम धामको चले जाते हैं। [अधिक क्या] जो मनुष्य
पाँच-सात चौपाईयों को भी मनोहर जानकर [अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ
पंच (कर्तव्याकर्तव्यका सच्चा निर्णायक) जानकर उनको] हृदय में धारण कर लेता
है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्रीरामजी हरण
कर लेते हैं, (अर्थात् सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात
चौपाइयोंको भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी
अविद्याजनित सारे क्लेश श्रीरामचन्द्रजी हर लेते हैं)।।2।।
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम
करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ)
हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र
कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके
समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।
दो.-मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।
हे श्रीरघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई
दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे
जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।
जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा
लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी! हे राम जी! आप निरन्तर मुझे प्रिय
लगिये।।130(ख)।।
श्लोक-यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।
श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी,
श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये
रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः
करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध
किया।।1।।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।
यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा
कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला,
परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक
इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड
किरणोंसे नहीं जलते।।2।।
मासपारायण, तीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, नवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।
कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह सातवाँ सोपान समाप्त हुआ। (उत्तरकाण्ड समाप्त)
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लोगों की राय
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