रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर।।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर।।115क।।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर।।115क।।
परंतु जो वैराग्यवान् और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को
त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष जो विषयों के वश में है। (उनके गुलाम
हैं) और श्रीरघुवीरके चरणों से विमुख हैं।।115(क)।।
सो.-सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट।।115ख।।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट।।115ख।।
वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के
चन्द्रमुखको देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़जी! साक्षात्
भगवान् विष्णुकी की माया ही स्त्रीरूप से प्रकट है।।115(ख)।।
चौ.-इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ।।
मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा।।1।।
मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा।।1।।
यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत
(सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक
स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती।।1।।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।2।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।2।।
आप सुनिये, माया और भक्ति-ये दोंनों ही स्त्रीवर्ग हैं; यह सब
कोई जानते हैं। फिर श्रीरघुनाथजी को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो
निश्चय ही नाचने वाली (नटिनीमात्र) है।।2।।
भगतहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी।।3।।
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी।।3।।
श्रीरघुनाथजी भक्तिके विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया
उससे अत्यन्त डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमा रहित और उपाधिरहित
(विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है;।।3।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी।।4।।
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी।।4।।
उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी
नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे सभी सुखों
की खनि भक्ति की ही याचना करते हैं (माया अर्थात् अज्ञान, अन्य
शब्दों में कहें तो सही वस्तु को वह जैसी है वैसा न जानकर कुछ और समझना,
इस अज्ञान को ज्ञान में बदलने के लिए सतत् प्रयत्न आवश्यक है, लगभग वैसे
ही जैसे कि यदि कोई व्यक्ति किसी काम में पूरे ध्यान और निष्ठा से लगा हो
तो कहते हैं कि वह बड़े ही भक्ति-भाव से काम कर रहा है। इसलिए दोनों ही
आवश्यक हैं, क्योंकि यदि समस्या का हल न मिले तो धीरे-धीरे व्यक्ति की उस
समस्या में रुचि कम हो जाती है, भगवान के दर्शन अंततः जब होते हैं और उसे
इस बात का पता न चले अर्थात् ज्ञान ही न हो तो वह कैसे जानेगा कि उसे,
उसके साध्य के दर्शन हो रहे हैं)।।4।।
दो.-यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ।।116क।।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ।।116क।।
श्रीरघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान
पाता। श्रीरघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह
नहीं होता।।116(क)।।
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन।।116ख।।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन।।116ख।।
हे सुचतुर गरुड़जी! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिये,
जिसके सुनने से श्रीरामजी के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो
जाता है।।116(ख)।।
चौ.-सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।
हे तात! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिये। यह समझते ही बनती
है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन,
निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।
सो मायावश भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।2।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।2।।
हे गोसाईं! वह माया के वशी भूत होकर तोते और वानरों की भाँति
अपने-आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रन्थि (गाँठ) पड़ गयी।
यद्यपि वह ग्रन्थि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है (जीव
के जन्म के समय उसकी बुद्धि अत्यंत सीमित होती है और उसे बहुत ही कम समझ
होती है, जैसे-जैसे उसकी बुद्धि परिपक्व होती है, तब प्रभु की कृपा होने
पर किंचित लोगों को इस माया का बोध होता है और वे अत्यंत भक्ति भाव
से माया के बंधन काटने में लग जाते हैं, तब मात्र उन्हें ही इस माया से
छुटकारा मिल पाता है)।।2।।
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।3।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।3।।
तभी से जीव संसारी (जन्मने-मरनेवाला) हो गया। अब न तो गाँठ
छूटती है और न वह सुखी होता है। वेदों और पुराणों ने बहुत-से उपाय बतलाये
हैं, पर वह (ग्रंथि) छूटती नहीं वरं अधिकाधिक उलझती ही जाती है।।3।।
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई।।4।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई।।4।।
जीव के हृदय में अज्ञान रूप अन्धकार विशेष रूप से छा रहा है,
इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा
आगे कहा जाता है) उपस्थित कर देते हैं तब भी वह कदाचित् ही वह (ग्रन्थि)
छूट पाती है।।4।।
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस
आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।5।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।5।।
श्रीहरि की कृपा से यदि सात्त्विकी श्रद्धारूपी सुन्दर गौ
हृदयरूपी घरमें आकर बस जाय; असंख्यों जप, तप, व्रत, यम और नियमादि शुभ धर्म
और आचार (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं,।।5।।
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा।।6।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा।।6।।
उन्हीं [धर्माचाररूपी] हरे तृणों (घास) को जब वह गौ चरे और
आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक
विषयोंसे और प्रपंच से हटना) नोई (गौके दुहते समय पिछले पैर बाँधने की
रस्सी) है, विश्वास [दूध दूहनेका] बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं
अपना दास है। (अपने वशमें है), दुहनेवाला अहीर है।।6।।
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै।।7।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै।।7।।
हे भाई! इस प्रकार (धर्माचारमें प्रवृत्त सात्त्विकी श्रद्धा
रूपी गौ से भाव, निवृत्ति और वश में किये हुए निर्मल मन की यहायता से) परम
धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्नि पर भलीभाँति औटावे। फिर क्षमा
और संतोष रूपी हवा से उसे ठंडा करे और धैर्य तथा शम (मनका निग्रह) रूपी
जामन देकर उसे जमावे।।7।।
मुदिताँ मथै बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।8।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।8।।
तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्त्वविचाररूपी
मथानीसे दम (इन्द्रिय-दमन) के आधार पर (दमरूपी खम्भे आदि के सहारे) सत्य और
सुन्दर वाणीरुपी रस्सी लगाकर उसे मथे और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुन्दर
और अत्यन्त पवित्र बैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले।।8।।
दो.-जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ।।117क।।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ।।117क।।
तब योग रुपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मरूपी
ईंधन लगा दे (सब कर्मोको योगरूपी अग्निमें भस्म कर दे)। जब [वैराग्यरूपी
मक्खन का] ममता रूपी मल जल जाय, तब [बचे हुए] ज्ञानरूपी घी को
निश्चियात्मिका] बुद्धि ठंडा करे।।117(क)।।
तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।।
चित्त दिया भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ।।117ख।।
चित्त दिया भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ।।117ख।।
तब विज्ञानरूपिणी बुद्धि उस [ज्ञानरूपी] निर्मल घी को पाकर
चित्तरूपी दियेको भरकर, समता की दीवट बनाकर उसपर उसे दृढ़तापूर्वक (जमाकर)
रक्खे।।117(ख)।।
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि।।117ग।।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि।।117ग।।
[जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति] तीनों अवस्थाएँ और [सत्त्व, रज
और तम] तीनों गुणरूपी कपाससे तुरीयावस्थारूपी रूईको निकालकर और फिर उसे
सँवारकर उसकी सुन्दर कड़ी बत्ती बनावें।।117(ग)।।
सो.-एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।।117घ।।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।।117घ।।
इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावे, जिसके समीप
जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जायँ।।117(घ)।।
चौ.-सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम
प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।1।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।1।।
सोऽहमस्मि ब्रह्म मैं हू) यह जो अखण्ड (तैलधारावत् कभी न
टूटनेवाली) वृति है, वही [उस ज्ञानदीपककी] परम प्रचण्ड दीपशिखा (लौ) है।
[इस प्रकार] जब आत्मानुभवके सुखका सुन्दर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल
भेद रूपी भ्रमका नाश हो जाता है।।1।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृँह बैठि ग्रंथि निरुआरा।।2।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृँह बैठि ग्रंथि निरुआरा।।2।।
और महान् बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अन्धकार
मिट जाता है। तब वही (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि [आत्मानुभवरूप] प्रकाश को पाकर
हृदयरूपी घरमें बैठकर उस जड़-चेतन की गाँठ को खोलती है।2।।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्र अनेक करइ तब माया।।3।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्र अनेक करइ तब माया।।3।।
यदि वह (विज्ञानरूपिणी बुद्धि) उस गाँठको खोलने पावे, तब यह
जीव कृतार्थ हो। परंतु हे पक्षिराज गरुड़जी! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर
अनेकों विघ्न करती है।।3।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं
आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।4।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।4।।
हे भाई! वह बहुत-सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती
है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती है। और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल
और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञानरूपी दीपकको बुझा देती
हैं (जीव के परमात्म भाव को प्राप्त होने से पहले उसे कई प्रकार
भ्रम होते हैं, जीवन के कई गूढ़ रहस्य समझ में आते हैं, यहाँ तक कि
कभी-कभी ये जीव को अपने लक्ष्य से भटका भी देते हैं)।।4।।
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जौं तेहि बिघ्र बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।5।।
जौं तेहि बिघ्र बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।5।।
यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को
अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी और ताकती नहीं। इस प्रकार यदि माया के विघ्नों
से बुद्धि को बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं।।5।।
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी।।6।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी।।6।।
इन्द्रियों के द्वारा हृदय रूपी घरके अनेकों झरोखे हैं
वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखेपर) देवता थाना किये (अड्डा जमाकर) बैठे हैं।
ज्यों ही वे विषयरूपी हवाको देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते
हैं।।6।।
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।7।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।7।।
ज्यों ही वह तेज हवा हृदयरूपी घरमें जाती है, त्यों ही वह
विज्ञानरूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभवरूप)
प्रकाश भी मिट गया। विषयरूपी हवासे बुद्धि व्याकुल हो गयी (सारा किया-कराया
चौपट हो गया)।।7।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति
सदाई।।
विषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।8।।
विषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।8।।
इन्द्रियों और उनके देवताओंको ज्ञान [स्वाभाविक ही] नहीं
सुहाता; क्योंकि उनकी विषय-भोगोंमें सदा ही प्रीति रहती है। और बुद्धिको भी
विषयरूपी हवाने बावली बना दिया। तब फिर (दुबारा) उस ज्ञानदीपकको उसी प्रकार
से कौन जलावे?।।8।।
दो.-तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।118क।।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।118क।।
[इस प्रकार ज्ञानदीपक के बुझ जानेपर] तब फिर जीव अनेकों
प्रकार से संसृति (जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है। हे पक्षिराज! हरिकी माया
अत्यन्त दुस्तर है, वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती।।118(क)।।
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।118ख।।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।118ख।।
ज्ञान कहने (समझने) में कठिन, समझनेमें कठिन और साधनेमें भी
कठिन है। यदि घुणाक्षरन्यायसे (संयोगवश) कदाचित् यह ज्ञान हो भी जाय, तो
फिर [उसे बचाये रखनेमें] अनेकों विघ्न हैं (साधक किंचित अवसरों पर
तर्क से परमात्मा को समझना चाहते हैं, इस प्रक्रिया को गुणा-भाग और
अक्षरज्ञान से प्रेरित हुआ जाना जाता है, इस प्रकार प्राप्त हुआ ज्ञान
प्रतिकूल तर्क के सामने हथियार डाल देता है और जीव को भ्रमित कर देता है)
।।118(ख)।।
चौ.-ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।1।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।1।।
ज्ञान का मार्ग कृपाण (दुधारी तलवार) की धारके समान है। हे
पक्षिराज! इस मार्गसे गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्गको निर्विघ्न निबाह
ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपदको प्राप्त करता है (मात्र
बौद्धिक तर्क से व्यक्ति कभी-कभी गलत मार्ग पर भी चला जाता है। बुद्धि के
द्वारा जीव इस व्यक्त जगत के विभिन्न क्रिया-कलापों को जानता है और आगे
भी जानता रहेगा, परंतु इस प्रकार सूक्ष्म हुई बुद्धि स्वयं को ही
सर्वेसर्वा समझने लगती है, जिस प्रकार हीनयान बौद्ध या
याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद में गार्गी का हस्र हुआ है)।।1।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भगत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं।।2।।
राम भगत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं।।2।।
संत, पुराण, वेद और [तन्त्र आदि] शास्त्र [सब] यह कहते हैं कि
कैवल्यरूप परमपद अत्यन्त दुर्लभ है; किंतु गोसाईं! वही [अत्यन्त दुर्लभ]
मुक्ति श्रीरामजी को भजने से बिना इच्छा किये भी जबरदस्ती आ जाती है।।2।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ भगति बिहाई।।3।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ भगति बिहाई।।3।।
जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करो़ड़ों
प्रकारके उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षिराज! सुनिये, मोक्षसुख भी
श्रीहरिकी भक्तिको छोड़कर नहीं रह सकता।।3।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।4।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।4।।
ऐसा विचारकर बुद्धिमान् हरिभक्त भक्तिपर लुभाये रहकर मुक्तिका
तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करनेसे संसृति (जन्म-मृत्युरूप संसार) की जड़
अविद्या बिना ही यत्न और परिश्रम के (अपने-आप) वैसे ही नष्ट हो जाती
है,।।4।।
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।5।।
असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।5।।
जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्तिके लिये और उस भोजनको
जठराग्नि अपने-आप (बिना हमारी चेष्टाके) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख
देनेवाली हरिभक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा?।।5।।
दो.-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।119क।।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।119क।।
हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे
सेव्य (स्वामी) हैं, इस भावके बिना संसाररूपी समुद्रसे तरना नहीं हो सकता।
ऐसा सिद्धात विचारकर श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलोंका भजन कीजिये (सेवक
जीव है और स्वामी परमात्मचेतना)।।119(क)।।
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य।।119ख।।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य।।119ख।।
जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे
समर्थ श्रीरघुनाथजीको जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं।।119(ख)।।
चौ.-कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै
प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।1।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।1।।
मैंने ज्ञानका सिद्धान्त समझाकर कहा। अब भक्तिरूपी प्रभुता
(महिमा) सुनिये। श्रीरामजीकी भक्ति सुन्दर चिन्तामणि है। हे गरुड़जी! यह
किसके हृदयके अंदर बसती है।।1।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।2।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।2।।
वह दिन-रात [अपने-आप ही] परम प्रकाशरूप रहता है। उसको दीपक,
घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिये। [इस प्रकार मणिका एक तो स्वाभाविक प्रकार
रहता है] फिर मोहरूपी दरिद्रता समीप नहीं आती है [क्योंकि मणि स्वयं धनरूप
है]; और [तीसरे] लोभरूपी हवा उस मणिमय दीपको बुझा नहीं सकती [क्योंकि मणि
स्वयं प्रकाशरूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से नहीं प्रकाश करती]।।2।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामदि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।3।।
खल कामदि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।3।।
[उसके प्रकाशसे] अविद्या का प्रबल अन्धकार मिट जाता है। मदादि
पतंगोंका सारा समूह हार जाता है। जिसके हृदयमें भक्ति बसती है, काम, क्रोध
और लोभ आदि दुष्ट तो पास भी नहीं आते जाते।।3।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस जीव दुखारी।।4।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस जीव दुखारी।।4।।
उसके लिये विष अमृतके समान और शत्रु मित्र के समान हो जाता
है। उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े मानस-रोग, जिसके वश होकर
सब जीव दुखी हो रहे हैं, उसको नहीं व्यापते।।4।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
चतुर सिरेमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।5।।
चतुर सिरेमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।5।।
श्रीरामभक्तिरूपी मणि जिसके ह्ररदयमें बसती है, उसे स्वप्नमें
भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत् में वे ही मनुष्य चतुरोंके शिरोमणि हैं
जो उस भक्तिरूपी मणि के लिये भलीभाँति यत्न करते हैं।।5।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटभेरे।।6।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटभेरे।।6।।
यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना
श्रीरामजीकी कृपाके उसे कोई पा नहीं सकता। उनके पाने के उपाय भी सुगम ही
हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं।।6।।
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।7।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।7।।
वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्रीरामजीकी नाना प्रकारकी कथाएँ
उन पर्वतों में सुन्दर खानें हैं। संत पुरुष [उनकी इन खानोंके रहस्यको
जाननेवाले] मर्मी हैं और सुन्दर बुद्धि [खोदनेवाली] कुदाल है। हे गरुड़जी!
ज्ञान और वैराग्य- ये दो उनके नेत्र हैं।।7।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मान सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।8।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।8।।
जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता हैं, वह सब सुखों की खान इस
भक्तिरूपी मणिको पा जाता है। हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि
श्रीरामजी के दास श्रीरामजीसे भी बढ़कर हैं।।8।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।9।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।9।।
श्रीरामचन्द्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं।
श्रीहरि चन्दनके वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनों का फल सुन्दर हरि
भक्ति ही है। उसे संतके बिना किसी ने नहीं पाया।।9।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहिं सुलभ
बिहंगा।।10।।
ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़जी! उसके
लिये श्रीरामजीकी भक्ति सुलभ हो जाती है।।10।।
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