रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग।।110क।।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग।।110क।।
गुरुजीके वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्रीरामजीके चरणों में
लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्रीरघुनाथजीका यश
गाता फिरता था।।110(क)।।
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन।।110ख।।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन।।110ख।।
सुमेरुपर्वतके शिखरपर बड़ी छाया में लोमश मुनि बैठे थे।
उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यन्त दीन वचन
कहे।।110(ख)।।
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज।।110ग।।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज।।110ग।।
हे पक्षिराज! मेरे अत्यन्त नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु
मुनि मुझसे आदरके साथ पूछने लगे-हे ब्राह्मण! आप किस कार्य से यहाँ आये
हैं।।110(ग)।।
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान।।11घ।।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान।।11घ।।
तब मैंने कहा हे कृपानिधि! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान है। हे
भगवान्! मुझे सगुण ब्रह्मकी आराधना [की प्रक्रिया] कहिये।110(घ)।।
चौ.-तब मुनीस रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा।।
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी।।1।।
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी।।1।।
तब हे पक्षिराज! मुनीश्वर ने श्रीरघुनाथजी के गुणों की कुछ
कथाएँ आदर सहित कहीं। फिर वे ब्रह्मज्ञानपरायण विज्ञानवान् मुनि मुझे परम
अधिकारी जानकर-।।1।।
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा।।
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।।2।।
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।।2।।
ब्रह्मका उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण
है और हृदय का स्वामी (अन्तर्यामी) है। उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं
सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभवसे जानने योग्य, अखण्ड और
उपमारहित है,।।2।।
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी।।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा।।3।।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा।।3।।
वह मन और इन्द्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार,
सीमारहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है (तत्त्वमसि),
जल और जल की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है।।3।।
बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न
आवा।।
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा।।4।।
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा।।4।।
मुनिने मुझे अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे
हृदय में नहीं बैठा। मैंने फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर कहा-हे
मुनीश्वर! मुझे सगुण ब्रह्म की उपासना कहिये।।4।।
राम भगति जन मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना।।
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया।।5।।
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया।।5।।
मेरा मन राम भक्तिरूपी जलमें मछली हो रहा है [उसीमें रम रहा
है]। हे चतुर मुनीश्वर! ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया
करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिये जिससे मैं श्रीरघुनाथजीको अपनी आँखोंसे
देख सकूँ।।5।।
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।।
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा।।6।।
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा।।6।।
[पहले] नेत्र भरकर श्रीअयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुणका
उपदेश सुनूँगा। मुनिने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मतका खण्डन करके
निर्गुण का निरूपण किया।।6।।
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी।।
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा।।7।।
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा।।7।।
तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुणका
निरूपण करने लगा। मैंने उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनिके शरीरमें क्रोध
के चिह्न उत्पन्न हो गये।।7।।
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के
हिएँ।।
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई।।8।।
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई।।8।।
हे प्रभो! सुनिये, बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में
क्रोध उत्पन्न हो जाता है यदि कोई चन्दन की लकड़ी को बहुत अधिक रगड़े, तो
उससे भी अग्नि प्रकट हो जायगी।।8।।
दो.-बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान।।111क।।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान।।111क।।
मुनि बार-बार क्रोध सहित ज्ञानका निरूपण करने लगे। तब मैं
बैठा-बैठा अपने मनमें अनेकों प्रकारके अनुमान करने लगा।।111(क)।।
क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।।111ख।।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।।111ख।।
बिना द्वैतबुद्धिके क्रोध कैसा और बिना अज्ञानके क्या
द्वैतबुद्धि हो सकती है?माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या
ईश्वर के समान हो सकता है?।।111(ख)।।
चौ.-कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस
मनि जाकें।।
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।।1।।
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।।1।।
सबका हित चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है? जिसके पास
पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है? दूसरे से द्रोह करनेवाले
क्या निर्भय हो सकते हैं? और कामी क्या कलंकरहित (बेदाग) रह सकते हैं?।।1।।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरुपहिं
चीन्हें।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।2।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।2।।
ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है? स्वरूपकी
पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या [आसक्तिपूर्वक] कर्म हो सकते हैं?
दुष्टोंके संगसे क्या किसीके सुबुद्धि उत्पन्न हुई है? परस्त्रीगामी क्या
उत्तम गति पा सकता है?।।2।।
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ
हरिनिंदक।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें।।3।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें।।3।।
परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण [के चक्कर] में पड़
सकते हैं? भगवान् की निन्दा करनेवाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने
क्या राज्य रह सकता है? श्रीहरिके चरित्र वर्णन करनेपर क्या पाप रह सकते
हैं?।।3।।
पावन जस कि पुन्य होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।।4।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।।4।।
बिना पुण्य के क्या पवित्र यश [प्राप्त] हो सकता है? बिना
पापके भी क्या कोई अपयश पा सकता है? जिसकी महिमा वेद संत और पुराण गाते हैं
उस हरि-भक्ति के समान क्या कोई दूसरा भी है?।।4।।
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना।।5।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना।।5।।
हे भाई! जगत् में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि
मनुष्य का शरीर पाकर भी श्रीरामजीका भजन न किया जाय? चुगलखोरी के समान क्या
कोई दूसरा पाप है? और हे गरुड़जी! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म
है?।।5।।
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर
सुनऊँ।।
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा।।6।।
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा।।6।।
इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के
साथ मुनिका उपदेश नहीं सुनता था। जब मैंने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित
किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले-।।6।।
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि।।
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही।।7।।
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही।।7।।
अरे मूढ़! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तू भी तो उसे
नहीं मानता और बहुत-से उत्तर प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता है। मेरे सत्य
वचन पर विस्वास नहीं करता! कौए की भाँति सभी से डरता है।।7।।
सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला।।
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई।।8।।
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई।।8।।
अरे मूर्ख! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है अतः
तू शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। मैंने आनन्द के साथ मुनि के श्राप को
सिर पर चढ़ा लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आयी।।8।।
दो.-तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ।।112क।।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ।।112क।।
तब मैं तुरन्त ही कौआ हो गया। फिर मुनि के चरणों में सिर
नवाकर और रघुकुलशिरोमणि श्रीरामजीका स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़
चला।।112(क)।।
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।112ख।।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।112ख।।
[शिव जी कहते है-] हे उमा! जो श्रीहरिके चरणों के प्रेमी हैं,
और काम, अभिमान तथा क्रोध से रहित हैं, वे जगत् को अपने प्रभु से भरा हुआ
देखते हैं, फिर वे किससे वैर करें।।112(ख)।।
चौ.-सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस
बिभूषन।।
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी।।1।।
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी।।1।।
[काकभुशुण्डिजीने कहा-] हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिये, इसमें
ऋषिका कुछ भी दोष नहीं था। रघुवंशके विभूषण श्रीरामजी ही सबके हृदय में
प्रेरणा करनेवाले हैं। कृपासागर प्रभु ने मुनिकी बुद्धिको भोली करके
(भुलावा देकर) मेरे प्रेम की परीक्षा ली।।1।।
मन बच क्रम मोहि जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना।।
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी।।2।।
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी।।2।।
मन, वचन और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना दास जान लिया तब
भगवान् ने मुनि की बुद्धि फिर से पलट दी। ऋषिने मेरा महान् पुरुषोंको-सा
स्वभाव (धैर्य, अक्रोध विनय आदि) और श्रीरामजीके चरणोंमें विशेष विश्वास
देखा।।2।।
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह
बोलाई।।
मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा।।3।।
मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा।।3।।
तब मुनि ने बहुत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक
बुला लिया। उन्होंने अनेकों प्रकार से मेरा सन्तोष किया और तब हर्षित होकर
मुझे राममन्त्र दिया।।3।।
बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना।।
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा।।4।।
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा।।4।।
कृपानिधान मुनि ने मुझे बालकरूप श्रीरामजीका ध्यान (ध्यान की
विधि) बतलाया। सुन्दर और सुख देनेवाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह
ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ।।4।।
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा।।
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई।।5।।
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई।।5।।
मुनि ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रक्खा। तब उन्होंने
रामचरित मानस वर्णन किया। आदरपूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे
सुन्दर वाणी बोले।।5।।
रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा।।
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी।।6।।
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी।।6।।
हे तात! यह सुन्दर और गुप्त रामचरितमानस मैंने शिवजी की कृपा
से पाया था। तुम्हें श्रीरामजी का ‘निज भक्त’ जाना, इसीसे मैंने तुमसे सब
चरित्र विस्तार के साथ कहा।।6।।
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह
पाहीं।।
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा।।7।।
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा।।7।।
हे तात! जिनके हृदय में श्रीरामजी की भक्ति नहीं है, उनके
सामने इसे कभी नहीं कहना चाहिये। मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया। तब
मैंने प्रेम के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाया।।7।।
निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा।।
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें।।8।।
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें।।8।।
मुनीश्वर ने अपने कर-कमलोंसे मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित
होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपासे तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम-भक्ति
बसेगी।।8।।
दो.-सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान।।113क।।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान।।113क।।
तुम सदा श्रीरामजीको प्रिय होओ और कल्याण रूप गुणोंके धाम,
मानरहित इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ, इच्छामृत्यु (जिसकी शरीर
छोड़नेकी इच्छा करने पर ही मृत्यु हो, बिना इच्छाके मृत्यु न हो), एवं
ज्ञान और वैराग्य के भण्डार होओ।।113(क)।।
जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत।।113ख।।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत।।113ख।।
इतना ही नहीं, श्रीभगवान् को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम
में निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया-मोह) नहीं
व्यापेगी।।113(ख)।।
चौ.-काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहिस
काऊ।।
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना।।1।।
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना।।1।।
काल, कर्म, गुण दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको
कभी नहीं व्यापेगा। अनेकों प्रकार से सुन्दर श्रीरामजीके रहस्य (गुप्त मर्म
के चरित्र और गुण) जो इतिहास और पुराणोंमें गुप्त और प्रकट हैं (वर्णित और
लक्षित हैं)।।1।।
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।2।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।2।।
तुम उन सबको भी बिनाही परिश्रम जान जाओगे। श्रीरामजीके
चरणोंमें तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो। अपने मनमें तुम जो कुछ इच्छा करोगे,
श्रीहरिकी कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी।।2।।
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा।।
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी।।3।।
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी।।3।।
हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनिये, मुनिका आशीर्वाद सुनकर आकाशमें
गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो।
यह कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है।।3।।
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ।।
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई।।4।।
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई।।4।।
आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो
गया और मेरा सब सन्देह जाता रहा। तदनन्तर मुनिकी विनती करके, आज्ञा पाकर और
उनके चरणकमलों में बार-बार सिर नवाकर-।।4।।
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर
पायउँ।।
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा।।5।।
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा।।5।।
मैं हर्षसहित इस आश्रममें आया। प्रभु श्रीरामजीकी कृपासे
मैंने दुर्लभ वर पा लिया। हे पक्षिराज! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प
बीत गये।।5।।
करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना।।
जब जब अवधपुरी रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।।6।।
जब जब अवधपुरी रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।।6।।
मैं यहाँ सदा श्रीरघुनाथजीके गुणोंका गान किया करता हूँ और
चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं। अयोध्यापुरीमें जब-जब श्रीरघुवीर
भक्तों के [हितके] लिये मनुष्यशरीर धारण करते हैं,।।6।।
तब तब जाइ राम पुर रहउँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ।।
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा।।7।।
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा।।7।।
तब-तब मैं जाकर श्रीरामजी की नगरी में रहता हूँ और प्रभु की
शिशु लीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ। फिर हे पक्षिराज! श्रीरामजीके
शिशुरूपको हृदय में रखकर मैं अपने आश्रममें आ जाता हूँ (सामान्यतः
शिशुओं को देखकर प्रत्येक व्यक्ति के मन में वात्सल्य, प्रेम और स्नेह का
भाव आते हैं, जो कि सभी को अच्छे लगते हैं)।।7।।
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई।।
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी।।8।।
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी।।8।।
जिस कारण से मैंने कौए की देह पायी, वह सारी कथा आपको सुना
दी। हे तात! मैंने आपके सब प्रश्नों के उत्तर कहे। अहा! राभक्तिकी बड़ी
भारी महिमा है।।8।।
दो.-ताते यह प्रन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह।।114क।।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह।।114क।।
मुझे अपना यह काक शरीर इसिलिये प्रिय है कि इसमें मुझे
श्रीरामजीके चरणोंका प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीर से मैंने अपने प्रभु के
दर्शन पाये और मेरे सब सन्देह जाते रहे (दूर हुए) ।।114(क)।।
मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।।114ख।।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।।114ख।।
मैं हठ करके भक्तिपक्ष पर अड़ रहा, जिससे महिर्ष लोमश ने मुझे
शाप दिया। परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुलर्भ है, वह वरदान
मैंने पाया। भजनका प्रताप तो देखिये!।।114(ख)।।
चौ.-जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम
करहीं।।
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी।।1।।
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी।।1।।
जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल
ज्ञान के लिये श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर पड़ी हुई कामधेनु को
छोड़कर दूध के लिये मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं।।1।
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई।।
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।।2।।
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।।2।।
हे पक्षिराज! सुनिये, जो लोग श्री हरिकी भक्ति छोड़कर दूसरे
उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनीवाले (अभागे) बिना ही जहाजके
तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं।।2।।
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी।।
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं।।3।।
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं।।3।।
[शिव जी कहते हैं] हे भवानी! भुशुण्डिके वचन सुनकर गरुड़जी
हर्षित होकर कोमल वाणीसे बोले-हे प्रभो! आपके प्रसादसे मेरे हृदय में अब
सन्देह, शोक, मोह और भ्रम कुछ भी नहीं रह गया।।3।।
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ
बिश्रामा।।
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही।।4।।
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही।।4।।
मैंने आपकी कृपा से श्रीरामचन्द्रजीके पवित्र गुणों समूहों को
सुना और शान्ति प्राप्त की। हे प्रभो! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ, हे
कृपासागर! मुझे समझाकर कहिये।।4।।
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान
समाना।।
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं।।5।।
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं।।5।।
संत मुनि वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ
कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनिने आपसे कहा; परंतु आपने भक्तिके
समान उसका आदर नहीं किया।।5।।
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता।।
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना।।6।।
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना।।6।।
हे कृपा धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्तिमें कितना अन्तर है? यह
सब मुझसे कहिये। गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजीने सुख माना और
आदरके साथ कहा-।।6।।
भगतिहि ग्यानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा।।
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर।।7।।
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर।।7।।
भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से
उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इसमें कुछ अंतर बतलाते
हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिये।।7।।
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना।।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती।।8।।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती।।8।।
हे हरिवाहन! सुनिये ; ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान-ये सब
पुरुष हैं; पुरुषका प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया)
स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है।।8।।
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