रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


दो.-भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग।।100क।।

कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गये। वे पाप करते हैं और [उनके फलस्वरुप] दुःख, भय, रोग, शोक और [प्रिय वस्तुका] वियोग पाते हैं।।100(क)।।

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।।100ख।।

वेद तथा सम्मत वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उसपर नहीं चलते और अनेकों नये-नये पंथोंकी कल्पना करते हैं।।100(ख)।।

छं.-बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही।।1।।

संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान् हो गये और गृहस्थ दरिद्र । हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती।।1।।

कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती।।
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं।।2।।

कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घरमें दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखायी पड़ा।।2।।

ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें।।
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं।।3।।

जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तबसे कुटुम्बी शत्रुरूप हो गये। राजा लोग पापपरायण हो गये, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही [बिना अपराध] दण्ड देकर उसकी विडम्बना (दुर्दशा) किया करते हैं।।3।।

धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।।
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।।4।।

धनी लोग मलिन (नीच जाति के होनेपर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विजका चिह्न जनेऊमात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं।।4।।

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी।।
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।।5।।

कवियों के तो झुंड हो गये, पर दुनिया में उदार (कवियोंका आश्रय-दाता)सुनायी नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं है। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुखी होकर मरते हैं।।5।।

दो.-सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड।।101क।।

हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिये, कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्ड भरमें व्याप्त हो गये (छा गये)।।101(क)।।

तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान।।101ख।।

मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि मर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इन्द्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं।।101(ख)।।

छं.-अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा।।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता।1।।

स्त्रियों के बाल ही भूषण है (उनके शरीरपर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है; उनमें कोमलता नहीं है।।1।।

नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं।।
लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा।।2।।

मनुष्य रोगों से पीड़ित है, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्षका थोड़ा-सा जीवन है; परन्तु घमंड ऐसा है मानो कल्पान्त (प्रलय) होनेपर भी उनका नाश नहीं होगा।।2।।

कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।।
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता।।3।।

कलिकालने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला । कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। [लोगोंमें] न सन्तोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगनेवाले हो गये।।3।।

इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता।।
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए।।4।।

ईर्ष्या (डाह) कड़वे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गयी। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम-धर्मके आचारण नष्ट हो गये।।4।।

दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी।।
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे।।5।।

इन्द्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। ‘मूर्खता और दूसरों को ठगना यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो परायी निन्दा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं।।5।।

दो.-सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार।।102क।।

हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! सुनिये, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है। किन्तु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबन्धनसे छुटकारा मिल जाता है।।102(क)।।

कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग।।102ख।।

सतयुग, त्रेता और द्वापरमें जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं।।102(ख)।।

चौ.-कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।।
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं।।1।।

सतयुगमें सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु के समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं।।1।।

द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा।।
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा।।2।।

द्वापर में श्रीरघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्रीहरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं।।2।।

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना।।
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि।।3।।

कलियुग में न तो योग यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्रीरामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्रीरामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है।।3।।

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।4।।

वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। नामका प्रताप कलियुगमें प्रत्यक्ष है। कलियुगका एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर [मानसिक] पाप नहीं होते।।4।।

दो.-कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।103क।।

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। [क्योंकि] इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणोंसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार [रूपी समुद्र] से तर जाता है।।103(क)।।

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।।103ख।।

धर्म के चार चरण (सत्य, दया तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक [दानरूपी] चरण ही प्रधान है। जिस-किसी प्रकारसे भी दिये जानेपर दान कल्याण ही करता है।।103(ख)।।

चौ.-नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे।।
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना।।1।।

श्रीरामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मनका प्रसन्न होना, इसे सत्यसुग का प्रभाव जाने।।1।।

सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा।।
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस।।2।।

सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजो गुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमों गुण हो, मनमें हर्ष और भय हों, यह द्वापर का धर्म है।।2।।

तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा।।
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं।।3।।

तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पण्डित लोग युगों के धर्म को मन में जान (पहिचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म से प्रीति करते हैं।।3।।

काल धर्म नहिं व्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही।।
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया।।4।।

जिसका श्रीरघुनाथजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षिराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इन्द्रजाल) देखनेवालों के लिये बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती है।।4।।

दो.-हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं।।104क।।

श्रीहरि की माया द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्रीहरि के भजन के बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचारकर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्कामभावसे) श्रीहरि का भजन करना चाहिये।।104(क)।।

तेहिं कलिकाल बरस बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस।।104ख।।

हे पक्षिराज! उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षोंतक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब मैं बिपत्ति का मारा विदेश चला गया।।104(ख)।।

चौ.-गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी।।
गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई।।1।।

हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिये, मैं दीन, मलिन (उदास), दरिद्र और दुखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर कुछ सम्पत्ति पाकर फिर मैं वहीं भगवान् शंकर की आराधना करने लगा।।1।।

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहिं काजु न दूजा।।
परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक।।2।।

एक ब्राह्मण देवविधि से सदा शिवजीकी पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थके ज्ञाता थे। वे शम्भुके उपासक थे, पर श्रीहरि की निन्दा करनेवाले न थे।।2।।

तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता।।
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं।।3।।

मैं कपटपूर्वक उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बड़े ही दयालु और नीति के घर थे। हे स्वामी! बाहर से नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्र की भाँति मानकर पढ़ाते थे।।3।

संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा।।
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई।।4।।

उन ब्राह्मणश्रेष्ठ ने मुझको शिवजी का मन्त्र दिया और अनेकों प्रकार के शुभ उपदेश किये। मैं शिवजी के मन्दिर में जाकर मन्त्र जपता। मेरे हृदय में दम्भ और अहंकार बढ़ गया।।4।।

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