रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


सौ.-पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित।।95क।।

हे गरुड़जी! वेदों में मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यन्त नीच से भी प्रेम करना चाहिये।।95(क)।।

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम।।95ख।।

रेशम कीड़े से होता है, उससे सुन्दर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीड़े को भी सब कोई प्राणों के समान पालते हैं।।95(ख)।।

चौ.-स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा।।
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा।।1।।

जीव के लिये सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से श्रीरामजी के चरणोंमें प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुन्दर है जिस शरीर को पाकर श्रीरघुवीर का भजन किया जाय।।1।।

राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही।।
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी।।2।।

जो श्रीरामजीके विमुख है वह यदि ब्रह्माजी के समान शरीर पा जाय तो भी कवि और पण्डित उसकी प्रशंसा नहीं करते। इसी शरीर से मेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न हुई। इसी से हे स्वामी! यह मुझे परम प्रिय है।।2।।

तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना।।
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा।।3।।

मेरा मरण अपनी इच्छा पर है, परन्तु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता; क्योंकि वेदोंने वर्णन किया है कि शरीरके बिना भजन नहीं होता। पहले मोहने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्रीरामजीके विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं सोया।।3।।

नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना।।
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं।।4।।

अनेकों जन्मों में मैंने अनेकों प्रकार के योग जप तप यज्ञ और दान आदि कर्म किये। हे गरुड़जी! जगत् में ऐसी कौन योनि है, जिसमें मैंने [बार-बार ] घूम फिरकर जन्म न लिया हो।।4।।

देखउँ करि सब करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं।।
सुधि मोहि नाथ जनम बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी।।5।।

हे गोसाईं! मैंने सब कर्म करके देख लिये, पर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ! मुझे बहुत-से जन्मों की याद है। [क्योंकि] श्रीशिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि को मोह ने नहीं घेरा।।5।।

दो.-प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस।।96क।।

हे पक्षिराज! सुनिये, अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कहता हूँ, जिन्हें सुनकर प्रभु के चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे सब क्लेश मिट जाते हैं।।96(क)।।

पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलियुग मल मूल।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल।।96ख।।

हे प्रभो! पूर्वके एक कल्प में पापोंका मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपरायण और वेद के विरोधी थे।।96(ख)।।

चौ.-तेहिं कलिजुग कोलसपुर जाई। जमन्त भयउँ सूद्र तनु पाई।।
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी।।1।।

उस कलियुग में मैं अयोध्या पुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मन वचन और कर्म से शिवजीका सेवक और दूसरे देवताओंकी निन्दा करनेवाला अभिमानी था।।1।।

धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला।।
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी।।2।।

मैं धन के मद से मतवाला बहुत ही बकवादी और उग्रबुद्धिवाला था; मेरे हृदय में बड़ा भारी दम्भ था। यद्यपि मैं श्रीरघुनाथजी की राजधानीमें रहता था, तथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी।।2।।

अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा।।
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई।।3।।

अब मैंने अवध का प्रभाव जाना। वेद शास्त्र और पुराणों ने ऐसा गाया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता है, वह अवश्य ही श्रीरामजी के परायण हो जायगा।।3।।

अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी।।
सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी।।4।।

अवधका प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करनेवाले श्रीरामजी उसके हृदय में निवास करते हैं। हे गरुड़जी! वह कलिकाल बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पापपरायण (पापोंमें लिप्त) थे।।4।।

दो.- कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।।
दंभिन्ह निज गति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।।97क।।

कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रन्थ लुप्त हो गये। दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत-से पंथ प्रकट कर दिये।।97(क)।।

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म।।97ख।।

सभी लोग मोह के वश हो गये, शुभकर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भण्डार! हे श्रीहरिके वाहन! सुनिये, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ।।97(ख)।।

चौ.-बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।।
द्विज श्रुति बेचक भूपप्रजालन कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।1।।

कलियुग में न वर्ण धर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब स्त्री पुरुष वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता।।1।।

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहु संत कहइ सब कोई।।2।।

जिसको जो अच्छा लग जाय, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पण्डित है। जो मिथ्या आरम्भ करता (आडम्बर रचता) है और जो दम्भमें रत हैं, उसीको सब कोई संत कहते हैं।।2।।

सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी।।
जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलियुजु सोई गुनवंत बखाना।।3।।

जो [जिस किसी प्रकार से] दूसरे का धन हरण करले, वही बुद्धिमान् है। जो दम्भ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान् कहा जाता है।।3।।

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।4।।

जो आचारहीन है और वेदमार्ग के छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लम्बी-लम्बी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है।।4।।

दो.-असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।।98क।।

जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-अभक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं।।98(क)।।

सो.-जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ।।98ख।।

जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करनेवाले हैं, उन्हें ही बड़ा गौरव होता है। और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकनेवाले) है, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं।।98(ख)।।

नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।।1।।

हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह [उनके नचाये] नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं।।1।।

सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी।।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।।2।।

सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुन्दर पति को छोड़कर परपुरुष का सेवन करती हैं।।2।।

सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना।।
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।3।।

सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नये श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का-सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरुके उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं, (उसे ज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं है)।।3।।

हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई।।
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।।4।।

जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकोंको बुलाकर वहीं धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे।।4।।

दो.-ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहि न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात।।99क।।

स्त्री-पुरुष ब्रह्म ज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिये ब्राह्मण और गुरुओं की हत्या कर डालते हैं ।।99(क)।।

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।।99ख।।

शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं [और कहते हैं] कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। [ऐसा कहकर] वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं।।99(ख)।।

चौ.-पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने।।
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।।1।

जो परायी स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेद वादी (ब्रह्म और जीवको एक बतानेवाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा।।1।।

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं।।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका।।2।।

वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं; जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद भी निन्दा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं।।2।।

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।।3।।

तेली, कुम्हार, चाण्डाल भील कोल और कलवार आदि जो वर्णमें नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं।।3।।

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं।।
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।4।।

वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण, अनपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्याभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं।।4।।

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना।।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा।।5।।

शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यासगद्दी) पर बैठकर पुराण करते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता।।5।।

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