रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


दो.-बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।।90क।।

बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्तिके बिना श्रीरामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्रीरामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पाता।।90(क)।।

सो.-अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद।।90ख।।

हे धीरबुद्धि! ऐसा विचार कर सम्पूर्ण कुतर्कों और सन्देहों को छोड़कर करुणा की खान सुन्दर और सुख देनेवाले श्रीरघुवीर का भजन कीजिये।।90(ख)।।

चौ.-निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई।।
कहउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।1।।

हे पक्षिराज! हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभुके प्रताप और महिमाका गान किया। मैंने इसमें कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कहीं है यह सब अपनी आँखों देखी कही है।।1।।

महिमा नाम रुप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा।।
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं।।2।।

श्रीरघुनाथजी की महिमा, नाम, रुप और गुणों की कथा सभी अपार और अनन्त है तथा श्रीरघुनाथजी स्वयं अनन्त हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीहरि के गुण गाते हैं। वेद, और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते। भगवान् का वास्तविक स्वरूप तत्त्वज्ञानी भी अपने अपने ढंग से प्राप्त करते हैं, इसी कारण वे भी वास्तविक रूप को बखानने के लिए विभिन्न विधियाँ अपनाते हैं।।2।।

तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा।।3।।

आपसे लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाशमें उड़ते हैं, किन्तु आकाश का अन्त कोई नहीं पाते। इसी प्रकार हे तात! श्रीरघुनाथजीकी महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?।।3।।

रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा।।4।।

श्रीरामजीका अरबों कामदेवोंके समान सुन्दर शरीर है। वे अनन्त कोटि दुर्गाओंके समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इन्द्र के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशोंके समान उनमें अनन्त अवकाश (स्थान) है।।4।।

दो.-मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास।।91क।।

अरबों पवन के समान उनमें महान् बल है और अरबों सूर्यों के समान प्रकाश है। अरबों चन्द्रमाओं के समान वे शीतल और संसारके समस्त भयों का नाश करनेवाले हैं।।91(क)।।

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत।।91ख।।

अरबों कालों के समान वे अत्यन्त दुस्तर, दुर्गम और दुरन्त हैं। वे भगवान् अरबों धूमकेतुओं (पुच्छल तारों) के समान अत्यन्त प्रबल हैं।।91(ख)।।

चौ.-प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला।।
तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन।।1।।

अरबों पातालों के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजोंके समान भयानक हैं। अनन्तकोटि तीर्थों के समान वे पवित्र करनेवाले हैं। उनका नाम सम्पूर्ण पापसमूह का नाश करनेवाला है।।1।।

हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।2।

श्रीरघुवीर करोड़ों हिमालयोंके समान अचल (स्थिर) हैं और अरबों समुद्रों के समान गहरे हैं। भगवान् अरबों कामधेनुओं के समान सब कामनाओं (इच्छित पदार्थों) के देनेवाले हैं।।2।।

सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता।।3।।

उनमें अनन्तकोटि सरस्वतियोंके समान चतुरता हैं। अरबों ब्रह्माओं के समान सृष्टिरचनाकी निपुणता है। वे करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करनेवाले और अरबों रुद्रों के समान संहार करनेवाले हैं।।3।।

धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।4।।

वे अरबों कुबेरों के समान सृष्टि धनवान और करोड़ों मायाओं के समान के खजाने हैं। बोझ उठाने में वे अरबों शेषोंके समान हैं [अधिक क्या] जगदीश्वर प्रभु श्रीरामजी [सभी बातोंमें] सीमारहित और उपमारहित हैं।।4।।

छं.-निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।

श्रीरामजी उपमारहित हैं, उनकी कोई दूसरी उपमा है ही नहीं। श्रीरामके समान श्रीराम ही हैं, ऐसा वेद कहते हैं। जैसे अरबों जुगुनुओंके समान कहने से सूर्य [प्रशंसाको नहीं वरं] अत्यन्त लघुता को ही प्राप्त होता है (सूर्य की निन्दा ही होती है)। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धिके विकासके अनुसार मुनीश्वर श्रीहरिका वर्णन करते हैं किन्तु प्रभु भक्तों के भावमात्र को ग्रहण करनेवाले और अत्यन्त कृपालु हैं। वे उस वर्णनको प्रेमसहित सुनकर सुख मानते हैं।

दो.-रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।92क।।

श्रीरामजी अपार गुणोंके समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? संतों से मैंने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुनाया।।92(क)।।

सो.-भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।92ख।।

सुख के भण्डार, करुणाधाम भगवान् (प्रेम) के वश हैं। [अतएव] ममता, मद और मनको छोड़कर सदा श्रीजानकीनाथजी का ही भजन करना चाहिये।।92(ख)।।

चौ.-सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए।।
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना।।1।।

भुशुण्डिजीके सुन्दर वचन सुनकर पक्षिराजने हर्षित होकर अपने पंख फुला लिये। उनके नेत्रोंमें [प्रेमानन्द के आँसुओं का] जल आ गया और मन अत्यन्त हर्षित हो गया। उन्होंने श्रीरघुनाथजी का प्रताप हृदय में धारण किया।।1।।

पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना।।
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा।।2।।

वे अपने पिछले मोहको समझकर (याद करके) पछताने लगे कि मैंने अनादि ब्रह्मको मनुष्य करके माना। गरुड़जी बार बार काकभुशुण्डिजी के चरणों पर सिर नवाया और उन्होंने श्रीरामजी के ही समान जानकर प्रेम बढ़ाया।।2।।

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।3।।

गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकरजीके समान ही क्यों न हो। [गरुड़जीने कहा-] हे तात! मुझे सन्देहरूपी सर्पने डस लिया था और [साँपके डसनेपर जैसे विष चढ़नेसे लहरें आती है वैसे ही] बहुत-सी कुतर्करूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं।।3।।

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।4।।

आपके स्वरुप रूपी गारुड़ी (साँपका विष उतारनेवाले) के द्वारा भक्तोंको सुख देनेवाले श्रीरघुनाथजीने मुझे जिला लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह नाश हो गया और मैंने श्रीरामजी का अनुपम रहस्य जाना।।4।।

दो.-ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि।।93क।।

उनकी (भुशुण्डिजीकी) बहुत प्रकार से प्रशंसा करके, सिर नवाकर और हाथ जोड़कर फिर गरुड़जी प्रेमपूर्वक विनम्र और कोमल वचन बोले-।।93(क)।।

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि।।93ख।।

हे प्रभो! हे स्वामी! मैं अपने अविवेकके कारण आपसे पूछता हूँ। हे कृपाके समुद्र! मुझे अपना ‘निज दास’ जानकर आदरपूर्वक (विचारपूर्वक) मेरे प्रश्न का उत्तर कहिये।।93(ख)।।

चौ.-तुम्ह सर्बग्य तग्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा।।
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा।।1।।

आप सब कुछ जानने वाले हैं, तत्त्वके ज्ञाता हैं, अन्धकार (माया) से परे, उत्तम बुद्धि से युक्ति, सुशील, सरल, आचरणवाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञान करके धाम और श्रीरघुनाथीजी के प्रिय दास हैं।।1।।

कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई।
राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी।।2।।

आपने यह काक शरीर किस कारण से पाया? हे तात! सब समझाकर मुझसे कहिये। हे स्वामी! हे आकाशगामी! यह सुन्दर रामचरित मानस आपने कहाँ पाया, सो कहिये।।2।।

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं।।
मुधा बचन नहिं ईश्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई।।3।।

हे नाथ! मैंने शिवजीसे ऐसा सुना है कि महाप्रलयमें आपका नाश नहीं होता और ईश्वर् (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहीं। वह भी मेरे मन में संदेह है।।3।।

अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी।।4।।

[क्योंकि] हे नाथ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत् कालका कलेवा है। असंख्य ब्रह्माण्डोंका नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है।।4।।

सो.-तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल।।94क।।

[ऐसा वह] अत्यन्त भयंकर काल आपको नहीं व्यापता (आपपर प्रभाव नहीं दिखलाता)- इसका कारण क्या है? हे कृपालु! मुझे कहिये, यह ज्ञान का प्रभाव है या योग का बल है?।।94(क)।।

दो.-प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग।।94ख।।

हे प्रभो! आपके आश्रममें आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गया। इसका क्या कारण है? हे नाथ! यह सब प्रेमसहित कहिये।।94(ख)।।

चौ.- गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा।।
धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्र तुम्हारि मोहि अति प्यारी।।1।।

हे उमा! गरुड़जी की वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी हर्षित हुए और परम प्रेम से बोले-हे सर्पों के शत्रु! आपकी बुद्धि धन्य है! धन्य है! आपके प्रश्न मुझे बहुत ही प्यारे लगे।।1।।

सुनि तव प्रस्र सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई।।
सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई।।2।।

आपके प्रेम युक्त सुन्दर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत जन्मोंकी याद आ गयी। मैं अपनी सब कथा विस्तार से कहता हूँ। हे तात! आदरसहित मन लगाकर सुनिये।।2।।

जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना।।
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा।।3।।

अनेक जप, तप, यज्ञ, शम (मनको रोकना), दम (इन्द्रियों के रोकना), व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग, विज्ञान आदि सबका फल श्रीरघुनाथजी के चरणोंमें प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता।।3।।

एहिं तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।।
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।4।।

मैंने इसी शरीर से श्रीरामजी की भक्ति प्राप्त की है। इसी से इसपर मेरी ममता अधिक है। जिससे अपना कुछ स्वार्थ होता है, उस पर सभी कोई प्रेम करते हैं।।4।।

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