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श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


दो.-एसिअ प्रस्र बिहंगपति कीन्हि काग सन जाइ।
सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ।।55।।

पक्षिराज गरुड़जीने भी जाकर काकभुशुण्डिजीसे प्रायः ऐसे ही प्रश्न किये थे। हे उमा! मैं वह सब आदरसहित कहूँगा, तुम मन लगाकर सुनो।।55।।

चौ.-मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि।।
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा।।1।।

मैंने जिस प्रकार वह भव (जन्म-मृत्यु) से छुड़ानेवाली कथा सुनी, हे सुमुखी! हे सुलोचनी! वह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था।।1।।

दच्छ जग्य तव भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना।।
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा।।2।।

दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुमने अत्यन्त क्रोध करके प्राण त्याग दिये थे और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर दिया था। वह सारा प्रसंग तुम जानती ही हो।।2।।

तब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें।।
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा।।3।।

तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और हे प्रिये! मैं तुम्हारे वियोग से दुखी हो गया। मैं विरक्तभाव से सुन्दर वन, पर्वत, नदी, और तालाबों का कौतुक (दृश्य) देखता फिरता था।।3।।

गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुंदर भूरी।।
तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए।।4।।

सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में, और भी दूर, एक बहुत ही सुन्दर नील पर्वत है। उसके सुन्दर सुवर्णमय शिखर हैं, [उनमेंसे] चार सुन्दर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे।।4।।

तिन्ह पर एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला।।
सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।5।।

उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुन्दर तालाब शोभित है; जिसकी सीढ़ियाँ देखकर मन मोहित हो जाता है।।5।।

दो.-सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मंजुल भृंग।।56।।

उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है; उसमें रंग-बिरंगे बहुत-से कमल खिले हुए हैं। हंसगण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुन्दर गुंजार कर रहे रहे हैं।।56।।

चौ.-तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।1।।

उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुण्डि) बसता है। उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता। मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक।।1।।

रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं।।
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।2।।

जो सारे जगत् में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास भी कभी नहीं फटकते। वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काक हरि को भजता है, हे उमा! उसे प्रेमसहित सुनो।।2।।

पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई।।
आँब छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।3।।

वह पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्रीहरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है।।3।।

बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहि अनेक बिहंगा।।
राम चरित बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।4।।

बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को अनेकों प्रकार से प्रेमसहित आदरपूर्वक गान करता है।।4।।

सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।।
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा।।5।।

सब निर्मल बुद्धिवाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैंने वहाँ जाकर यह कौतुक (दृश्य) देखा, तब मेरे हृदय में विशेष आनन्द उत्पन्न हुआ।।5।।

दो.-तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास।।57।।

तब मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्रीरघुनाथजी के गुणों को आदरसहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया।।57।।

चौ.-गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा।।
अस सो कथा सुनहु जेहि हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू।।1।।

हे गिरिजे! मैंने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुण्डि के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षिकुल के ध्वजा गरुड़जी उस काक के पास गये थे।।1।।

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।
इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।2।।

जब श्रीरघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करनेसे मुझे लज्जा होती है-मेघनाद के हाथों अपने को बँधा लिया- तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा।।2।।

बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा।।
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती।।3।।

सर्पों के भक्षक गरुड़जी बन्धन काटकर गये, तब उनके हृदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बन्धन को स्मरण करके सर्पों के शुभ गरुड़जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे-।।3।।

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं।।4।।

जो व्यापक, विकाररहित, वाणी के पति और माया-मोहसे परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत् में उन्हीं का अवतार है। पर मैंने उस (अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा (इस जगत् में परमात्मा की सत्ता चेतना के शीर्ष रूप में मनुष्यों में अभिव्यक्त होती है, इसीलिए मनुष्य भी कुछ अंश में परमात्मा का अवतार है, परंतु यदि हम परमात्मा की चेतना की अपेक्षा जीव की बुद्धि को ही सर्वोच्च सत्ता समझने लगें तो हमें भी इस प्रकार का संशय उत्पन्न हो सकता है)।।5।।

दो.-भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम।।58।।

जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बन्धन से छूट जाते हैं उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया।।58।।

चौ.-नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।1।।

गरुड़जी ने अनेक प्रकार से अपने मन को समझाया। पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, हृदय में भ्रम और भी अधिक छा गया। [सन्देहजनित] दुःखसे दुखी होकर, मनमें कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गये।।1।।

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया।।2।।

व्याकुल होकर वे देवर्षि नारदजीके पास गये और मनमें जो सन्देह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारद को अत्यन्त दया आयी। [उन्होंने कहा-] हे गरुड़! सुनिये! श्रीरामजी की माया बड़ी ही बलवती है।।2।।

जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआईं बिमोह मन करई।।
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही।।3।।

जो ज्ञानियों के चित्त को भी भलीभाँति हरण कर लेती है और उनके मन में जबर्दस्ती बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षिराज! वही माया आपको भी व्याप गयी है।।3।।

महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें।।
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा।।4।।

हे गरुड़! आपके हृदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरंत नहीं मिटेगा अतः हे पक्षिराज! आप ब्रह्माजीके पास जाइये और वहाँ जिस काम के लिये आदेश मिले, वही कीजियेगा।।4।।

दो.-अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान।।59।।

ऐसा कहकर परम सुजान देवर्षि नारदजी श्रीरामजीका गुणगान करते हुए और बारंबार श्रीहरि की मायाका बल वर्णन करते हुए चले।।59।।

चौ.-तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ।।
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा।।1।।

तब पक्षिराज गरुड़ ब्रह्माजीके पास गये और अपना सन्देह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजी ने श्रीरामचन्द्रजी को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके अन्दर अत्यन्त प्रेम छा गया।।1।।

मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता।।
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा।।2।।

ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी मायाके वश हैं। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझतक को अनेकों बार नचाया है।।2।।

अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा।
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई।।3।।

यह सारा चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब पक्षिराज गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य [की बात] नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुन्दर वाणी बोले-श्रीरामजीकी महिमाको महादेवजी जानते हैं।।3।।

बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू।।
तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी।।4।।

हे गरुड़! तुम शंकरजीके पास जाओ। हे तात! और कहीं किसी से न पूछना। तुम्हारे सन्देह का नाश वहीं होगा। ब्रह्माजीका वचन सुनते ही गरुड़ चल दिये।।4।।

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