आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन।।50।।
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन।।50।।
उसी अवसर पर नारद मुनि हाथ में वीणा लिये हुए आये। वे
श्रीरामजी की सुन्दर और नित्य नवीन रहनेवाली कीर्ति गाने लगे।।50।।
चौ.-मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन।।
नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि।।1।।
नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि।।1।।
कृपापूर्वक देख लेनेमात्र से शोक के छुड़ानेवाले हे कमलनयन!
मेरी ओर देखिये (मुझपर भी कृपादृष्टि कीजिये) हे हरि! आप नीलकमल के समान
श्यामवर्ण और कामदेवके शत्रु महादेवजीके हृदयकमल के मकरन्द (प्रेम-रस) के
पान करनेवाले भ्रमर हैं।।1।।
जातुधान बरुथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन।।
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक।।2।।
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक।।2।।
आप राक्षसों की सेना के बल को तोड़नेवाले हैं। मुनियों और
संतजनों को आनन्द देनेवाले और पापों के नाश करनेवाले हैं। ब्राह्मणरूपी
खेती के लिये आप नये मेघसमूह हैं और शरणहीनों को शरण देनेवाले तथा दीन जनों
को अपने आश्रय में ग्रहण करनेवाले हैं।।2।।
भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित।।
रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर।।3।।
रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर।।3।।
अपने बाहुबल से पृथ्वी के बड़े भारी बोझ को नष्ट करनेवाले,
खर-दूषन और विराधके वध करने में कुशल, रावण के शत्रु, आनन्दस्वरूप, राजाओं
में श्रेष्ठ और दशरथजी के कुलरूपी कुमुदिनी के चन्द्रमा श्रीरामजी! आपकी जय
हो।।3।।
सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम।।
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन।।4।।
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन।।4।।
आपका सुन्दर यश पुराणों, वेदों में और तन्त्रादि शास्त्रों
में प्रकट है! देवता, मुनि और संतों के समुदाय उसे गाते हैं। आप करुणा
करनेवाले और झूठे मद का नाश करनेवाले, सब प्रकार से कुशल (निपुण) और
श्रीअयोध्याजी के भूषण ही है।।4।।
कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत
जन।।5।।
आपका नाम कलियुग के पापों को मथ डालनेवाला और ममता को
मारनेवाला है। हे तुलसीदास के प्रभु! शरणागत की रक्षा कीजिये।।5।।
दो.-प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।
सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम।।51।।
सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम।।51।।
श्रीरामचन्द्रजी गुणसमूहों का प्रेमपूर्वक वर्णन करके मुनि
नारदजी शोभा के समुद्र प्रभुको हृदय में धरकर जहाँ ब्रह्मलोक है, वहाँ चले
गये।51।।
चौ.-गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा।।
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा।।1।।
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा।।1।।
[शिवजी कहते हैं-] हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा
जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। श्रीरामजी के चरित्र सौ करोड़
[अथवा] अपार हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते।।1।।
राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी।।
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं।।2।।
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं।।2।।
भगवान् श्रीराम अनन्त हैं; उनके गुण अनन्त हैं; जन्म कर्म और
नाम भी अनन्त हैं। जल की बूँदे और पृथ्वी के रज-कण चाहे गिने जा सकते हों,
पर श्रीरघुनाथजी के चरित्र वर्णन करने से नहीं चुकते।।2।।
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होई सुनि अनपायनी।।
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई।।3।।
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई।।3।।
यह पवित्र कथा भगवान् के परमपद को देने वाली है। इसके सुनने
से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा! मैंने वह सब सुन्दर कथा कही जो
काकभुशुण्डिजीने गरुड़जी को सुनायी थी।।3।।
कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी।।
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी।।4।।
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी।।4।।
मैंने श्रीरामजी के कुछ थोड़े-से गुण बखानकर कहे हैं। हे
भवानी ! सो कहो, अब और क्या कहूँ? श्रीरामजी की मंगलमयी कथा सुनकर
पार्वतीजी हर्षित हुईं और अत्यन्त विनम्र तथा कोमल वाणी बोलीं।।4।।
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय
हारी।।5।।
हे त्रिपुरारि! मै धन्य हूँ, धन्य-धन्य हूँ, जो मैंने
जन्म-मृत्यु के हरण करनेवाले श्रीरामजी के गुण (चरित्र) सुने।।5।।
दो.-तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह।।52क।।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह।।52क।।
हे कृपाधाम! अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गयी। अब मुझे
मोह नहीं रह गया। हे प्रभु! मैं सच्चिदानन्दघन प्रभु श्रीरामजी के प्रताप
को जान गयी।।52(क)।।
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर।।52ख।।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर।।52ख।।
हे नाथ! आपकी मुखरूपी चन्द्रमा श्रीरघुवीर की कथारूपी अमृत
बरसाता है। हे मतिधीर! मेरा मन कर्णपुटों से उसे पीकर तृप्त नहीं
होता।।52(ख)।।
चौ.-राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह
नाहीं।।
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ।।1।।
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ।।1।।
श्रीरामजी के चरित्र सुनते-सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर
देते हैं), उन्होंने तो उसका विशेष रस जाना ही नहीं। जो जीवन्मुक्त महामुनि
हैं, वे भी भगवान् के गुण निरन्तर सुनते रहते हैं।।1।।
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा।।
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा।।2।।
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा।।2।।
जो संसाररूपी सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिये तो
श्रीरामजी की कथा दृढ़ नौका के समान है। श्रीहरि के गुणसमूह तो विषयी लोगों
के लिये भी कानों को सुख देनेवाले और मनको आनन्द देनेवाले हैं।।2।।
श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं।।
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती।।3।।
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती।।3।।
जगत् में कान वाला ऐसा कौन है जिसे श्रीरघुनाथजी के चरित्र न
सुहाते हों। जिन्हें श्रीरघुनाथजी की कथा नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो
अपनी आत्मा की हत्या करनेवाले हैं।।3।।
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख
पावा।।
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभुसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।4।।
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभुसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।4।।
हे नाथ! आपने श्रीरामचरितमानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने
अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुन्दर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी
से कही थी-।।4।।
दो.-बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह।।53।।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह।।53।।
सो कौए का शरीर पाकर भी काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान और
विज्ञान में दृढ़ हैं, उनका श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम है और
उन्हें श्रीरघुनाथजी की भक्ति भी प्राप्त है, इस बात का मुझे परम सन्देह हो
रहा है।।53।।
चौ.-नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म
ब्रतधारी।।
धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।1।।
धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।1।।
हे त्रिपुरारि! सुनिये, हजारों मनुष्यों में कोई एक धर्म के
व्रत का धारण करनेवाला होता है और करोड़ों धर्मात्माओं में कोई एक विषय से
विमुख (विषयों का त्यागी) और वैराग्यपरायण होता है।।1।।
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।।
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ।।2।।
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ।।2।।
श्रुति कहती है कि करोड़ों विरक्तों में कोई एक ही सम्यक्
(यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करता है और करोड़ों ज्ञानियों में कोई एक ही
जीवन्मुक्त होता है। जगत् में कोई विरला ही ऐसा (जीवन्मुक्त) होगा।।2।।
तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्म लीन
बिग्यानी।।
धर्मशील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।3।।
धर्मशील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।3।।
हजारों जीवन्मुक्त में भी सब सुखों की खान, ब्रह्म में लीन
विज्ञानवान् पुरुष और भी दुर्लभ है। धर्मात्मा, वैराग्यवान्, ज्ञानी,
जीवन्मुक्त और ब्रह्मलीन।।3।।
सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।।
सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।4।।
सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।4।।
इन सबमें भी हे देवाधिदेव महादेवजी! वह प्राणी अत्यन्त दुर्लभ
है जो मद और मायासे रहित होकर श्रीरामजी की भक्तिके परायण हो। विश्वनाथ!
ऐसी दुर्लभ हरिभक्त को कौआ कैसे पा गया, मुझे समझाकर कहिये।।4।।
दो.-राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर।।54।।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर।।54।।
हे नाथ! कहिये, [ऐसे] श्रीरामपरायण, ज्ञानरहित, गुणधाम और
धीरबुद्धि भुशुण्डिजी ने कौए का शरीर किस कारण पाया?।।54।।
चौ.-यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ
पावा।।
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी।।1।।
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी।।1।।
हे कृपालु! बताइये, उस कौएने प्रभु का यह पवित्र और सुन्दर
चरित्र कहाँ पाया! और हे कामदेव के शत्रु! यह भी बताइये, आपने इसे किस
प्रकार सुना? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है।।1।।
गरुड़ महाग्यनी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।।2।।
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।।2।।
गरुड़जी तो महानज्ञानी, सद्गुणोंकी राशि श्रीहरिके सेवक और
उनके अत्यन्त निकट रहनेवाले (उनके वाहन ही) हैं। उन्होंने मुनियों के समूह
को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी?।।2।।
कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा।।
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई।।3।।
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई।।3।।
कहिये, काकभुशुण्डि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत
किस प्रकार हुई? पार्वतीजी की सरल, सुन्दर वाणी सुनकर शिवजी सुख पाकर आदरके
साथ बोले-।।3।।
धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी।।
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।।4।।
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।।4।।
हे सती! तुम धन्य हो; तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त पवित्र है।
श्रीरघुनाथजी के चरणों में तुम्हारा कम प्रेम नहीं है (अत्याधिक प्रेम है)।
अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो
जाता है।।4।।
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं
प्रयासा।।5।।
तथा श्रीरामजीके चरणोंमें विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य
बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्र से तर जाता है।।5।।
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लोगों की राय
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