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श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


दो.-परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास।।60।।

तब बड़ी आतुरता (उतावली) से पक्षिराज गरुड़ मेरे पाय आये। हे उमा! उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलास पर थीं।।60।।

चौ.-तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा।।
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी।।1।।

गरुड़जी ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना सन्देह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा-।।1।।

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही।।
तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।2।।

हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हें किस प्रकार समझाऊँ? सब सन्देहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ कालतक सत्संग (सतसंग का अर्थ सत्य के विषय में चर्चा) किया जाय।।2।।

सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई।।
जेहिं महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।3।।

और वहां (सत्संग में) सुन्दर हरि कथा सुनी जाय, जिसे मुनियोंने अनेकों प्रकारसे गाया है और जिसके आदि, मध्य और अन्त में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं।।3।।

नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई।।
जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा।।4।।

हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब सन्देह दूर हो जायगा और तुम्हें श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम होगा।।4।।

दो.-बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।61।।

सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गये बिना श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता।।61।।

चौ.-मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।1।।

बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्रीरघुनाथजी नहीं मिलते। [अतएव तुम सत्संग के लिये वहाँ जाओ जहाँ] उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं।।1।।

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।
राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।2।।

वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं, और बहुत काल के हैं। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदरसहित सुनते हैं।।2।।

जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी।।
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई।।3।।

वहाँ जाकर श्रीहरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा। मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया।।3।।

ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा।।
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना।।4।।

हे उमा! मैंने उसको इसीलिये नहीं समझाया कि मैं श्रीरघुनाथजीकी कृपासे उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान (गरुड़ को अभिमान किस बात का? गरुड़ भगवान को साधारण मनुष्य अर्थात् मात्र "वनवासी राम" समझने लगे हैं। वे इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि जो कुछ उनकी आँखों ने देखा और उनकी आँखों (इंद्रियों) को संचालित करने वाली बुद्धि ने निष्कर्ष निकाला है, वही उनका अंतिम सत्य हो गया है। अर्थात् बुद्धि उनके लिए सर्वोच्च सत्ता हो गयी है, न कि बुद्धि को संचालित करने वाली चेतना) किया होगा, जिसको कृपानिधान श्रीरामजी नष्ट करना चाहते हैं और यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि गरुड़जी की चेतना जो कि सर्वत्र व्याप्त चेतना का ही अंश है, वास्तविक सत्ता है, न कि किसी जीव के शरीर और उसकी सोच को संचालित करने वाली बुद्धि।।4।।

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा।।
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।5।।

फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रक्खा कि पक्षी ही पक्षी की बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया [बड़ी ही] बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?।।5।।

दो.-ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान।।62क।।

जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं।।62(क)।।

मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम


सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।
अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान।।62ख।।

यह माया जब शिव जी और ब्रह्माजी को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा क्या चीज है? जी में ऐसा जानकर ही मुनिलोग उस माया के स्वामी भगवान् का भजन करते हैं।।62(ख)।।

चौ.-गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा।।
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ।।1।।

गरुड़जी वहाँ गये जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्तिवाले काकभुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और [उसके दर्शनसे ही] सबसे माया, मोह तथा सोच जाता रहा (प्रकृति में कुछ स्थान ऐसे हैं, जहाँ पहुँचते ही मन निर्मल और प्रसन्न हो जाता है, विशेषकर यदि वह क्षेत्र सामान्य मनुष्य की पहुँच से दूर हो, मानवीय जीवन की कृत्रिमता से प्रभावित न हुआ हो, तब तो वहाँ इस चराचर जगत् में ईश्वर की सर्वत्र अनुभूति सरल और स्पष्ट हो जाती है और जीव अपने व्यष्टि भाव से निकल कर समष्टि में एकात्म कर लेता है, गरुड़जी के साथ भी यही हुआ)।।1।।

करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना।।
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए।।2।।

तालाब में स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्त से वटवृक्ष के नीचे गये। वहाँ श्रीरामजी के सुन्दर चरित्र सुनने के लिये बूढ़े-बूढ़े पक्षी आये हुए थे।।2।।

कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा।।
आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा।।3।।

भुशुण्डिजी कथा आरम्भ करना ही चाहते थे कि उस समय पक्षिराज गरुड़जी वहाँ जा पहुँचे। पक्षियों के राजा गरुड़जी को आते देखकर काकभुशुण्डिजीसहित सारा पक्षिसमाज हर्षित हुआ।।3।।

अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा।।
करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा।।4।।।

उन्होंने पक्षिराज गरुड़जी का बहुत ही आदर-सत्कार किया और स्वागत (कुशल) पूछकर बैठने के लिये सुन्दर आसन दिया फिर प्रेमसहित पूजा करके काकभुशुण्डिजी मधुर वचन बोले-।।4।।

दो.-नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहिं काज।।63क।।

हे नाथ! हे पक्षिराज! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें, मैं अब वही करूँ। हे प्रभो! आप किस कार्य के लिये आये हैं?।।63(क)।।

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।।63ख।।

पक्षिराज गरुड़जीने कोमल वचन कहे-आप तो सदा ही कृतार्थरूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से की है।।63(ख)।।

चौ.-सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

हे तात! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकार के भ्रम सब जाते रहे।।1।।

अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनयउँ प्रभु तोही।।2।।

अब हे तात! आप मुझे श्रीरामजीकी अत्यन्त पवित्र करने वाली, सदा सुख देनेवाली और दुःखसमूह का नाश करनेवाली कथा आदरसहित सुनाइये। हे प्रभो! मैं बार-बार आपसे यही विनती करता हूँ।।2।।

सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।।
भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा।।3।।

गरुड़जी की विनम्र, सरल, सुन्दर, प्रेमयुक्त, सुखप्रद और अत्यन्त पवित्रवाणी सुनते ही भुशुण्डिजी के मनमें परम उत्साह हुआ और वे श्रीरघुनाथजी के गुणों की कथा कहने लगे।।3।।

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी।।
पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा।।4।।

हे भवानी! पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेम से रामचरितमानस सरोवर का रूपक समझाकर कहा। फिर नारद जी का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा।।4।।

प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई।।5।।

फिर प्रभु के अवतारकी कथा वर्णन की। तदनन्तर मन लगाकर श्रीरामजीकी बाललीलाएँ कहीं।।5।।

दो.-बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन महँ परम उछाह।।
रिषि आवगन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह।।64।।

मन में परम उत्साह भरकर अनेकों प्रकार की बाललीलाएँ कहकर, फिर ऋषि विश्वामित्रजी का अयोध्या आना और श्रीरघुवीरका विवाह वर्णन किया।।64।।

चौ.-बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा।।1।।

फिर श्रीरामजीके राज्याभिषेक का प्रसंग, फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेकके आनन्द) में भंग पड़ना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और श्रीराम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा।।1।।

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।।2।।

श्रीराम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्रीरामजीका मिलन और जैसे भगवान् चित्रकूटमें बसे, वह सब कहा।।2।।

सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना।।
करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।3।।

फिर मन्त्री सुमन्त्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का [ननिहालसे] अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजाकी अन्त्येष्टि क्रिया करके नगरवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गये, जहाँ सुख की राशि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे।।3।।

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी।।4।।

फिर श्रीरघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया; जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आये, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दिग्राम में रहने की रीति, इन्द्रपुत्र जयन्त की नीच करनी और फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी और अत्रिजी का मिलाप वर्णन किया।।4।।

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