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श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


दो.-औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।45।।

और भी एक गुप्त मत है, मैं सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।।45।।

चौ.-कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।

कहो तो, भक्तिमार्ग में कौन-सा परिश्रम है? इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ जप तप और उपवास की! [यहाँ इतना ही आवश्यक है कि] सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो जो कुछ मिले उसी में सदा सन्तोष रक्खे।।1।।

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा।।
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई।।2।।

मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है? (अर्थात् उसकी मुझपर आस्था बहुत ही निर्बल है, और ऐसा व्यक्ति मुझे भूलकर अन्य मनुष्यों से जिनमें गुण-अवगुण भरे हुए हैं उनसे परमार्थ की आशा रखता है)। बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूँ? भाइयों! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ।।2।।

बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा।।
अनारंभ अनिकेत अमानी।। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी।।3।।

न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रक्खे, न भय ही करे। उसके लिये सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरम्भ (फलकी इच्छासे कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घरमें ममता नहीं है); जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो [भक्ति करनेमें] निपुण और विज्ञानवान् है। (सत्यासत्य का विवेक करने में निपुण और विशेष ज्ञान वाला व्यक्ति परमात्मा को अनादि, एक घर अथवा एक स्थान विशेष में न होकर सर्वत्र व्याप्त जानता है, इस कारण से वह मान-अपमान, पाप-पुण्य और मोह-क्रोध से कालांतर में निस्पृह हो जाता है, इस निस्पृहता के कारण वह न किसी से वैर करता है, और न वैमनस्य रखता है, न ही किसी प्रकार की आशा रखता है, जिसके फलस्वरूप उसे निराशा भी नहीं होती। इन सभी मानसिक समस्याओं से मुक्त हो जाने के कारण उसे इनके फलस्वरूप होने वाला भय भी नहीं व्यापता और वह निर्भय होकर सदा सुखी हो जाता है) ।।3।।

प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा।।
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।4।।

संतजनो के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँतक कि स्वर्ग और मुक्तितक [भक्तिके सामने] तृणके समान हैं, जो भक्तिके पक्षमें हठ करता है, पर [दूसरेके मतका खण्डन करनेकी] मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है। (परमात्म ज्ञान को स्पष्टतया जान लेने के बाद उसे ऐसे ही अन्य ज्ञानियों अथवा संत जनों से स्वाभाविक प्रेम होता है, तथा इन संतजनों के संसर्ग से उसे स्वर्ग और मुक्ति की अनर्थकता सिद्ध हो जाती है, वह इनकी सतसंग चर्चा में अपने सभी कुतर्कों का हल ढूँढ़ लेता है। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति स्थिर होकर अनन्य भक्ति भाव को धारण करता है, परंतु अन्य उन सभी लोगों को जिन्हें अभी यह अवस्था नहीं प्राप्त हुई है उनके मत का खण्डन करने में अपना समय नहीं व्यतीत करता, क्योंकि यह अनुभव तो हर व्यक्ति को स्वयं प्राप्त करना होता है)।।4।।

दो.-मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परमानंद संदोह।।46।।

जो मेरे गुणसमूहों के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोहसे रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो [परमात्मारूप परमानन्दराशिको प्राप्त है (जो "मैं और मेरा" भाव, ज्ञानाभिमान, और चराचर जगत् की वस्तुओं से मोह रहित होकर अपने सारे प्रश्नों का संदोह कर चुका है, इस प्रकार परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर हर समय उसी में अपना चित्त स्थिर रखता है वह सदा के लिए सुखी हो जाता है) ।।46।।

चौ.-सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के।।
जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे।।1।।

श्रीरामचन्द्रजीके अमृत के समान वचन सुनकर सबने कृपाधामके चरण पकड़ लिये। [और कहा-] हे कृपानिधान! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं।।1।।

तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी।
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ।।2।।

और हे शरणागत के दुःख हरने वाले रामजी! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार के हित करनेवाले हैं। ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता [हितैषी हैं फिर भी अपने स्वार्थवश ऐसी शिक्षा नहीं देते] ।।2।।

हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं।।3।।

हे असुरों के शत्रु! जगत् में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करनेवाले तो दो ही हैं-एक आप, दूसरे आपके सेवक। जगत् में [शेष] सभी स्वार्थ मित्र हैं। हे प्रभो! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है।।3।।

सब के बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने।।
निजद निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई।।4।।

सबके प्रेमरस में सने हुए वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी हृदय में हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुन्दर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गये।।4।।

दो.-उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप।।47।।

[शिव जी कहते हैं-] हे उमा! अयोध्यामें रहनेवाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थस्व रूप हैं; जहाँ स्वयं सच्चिदानन्दघन ब्रह्म श्रीरघुनाथजी राजा हैं।।47।।

चौ.-एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।1।।

एक बार मुनि वसिष्ठजी वहाँ आये जहाँ सुन्दर सुखके धाम श्रीरामजी थे। श्रीरघुनाथजी ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया।।1।।

राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी।।
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा।।2।।

मुनिने हाथ जोड़कर कहा-हे कृपासागर श्रीरामजी! मेरी विनती सुनिये! आपके आचरणों (मनुष्योचित चरित्रों) को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है।।2।।

महिमा अमिति बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना।।
उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा।।3।।

हे भगवान्! आपकी महिमा की सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते। फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूँ? पुरोहिती का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निन्दा करते हैं (आश्चर्य है कि वशिष्ठ मुनि स्वयं को पुरोहित कहते हुए पुरोहितों के कर्म की निन्दा करते हैं, यहाँ तक कि साक्ष्य के रूप में वेद, पुराण और स्मृति का भी उदाहरण देते हैं)।।3।।

जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही।।
परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा।।4।।

जब मैं उसे (सूर्यवंश की पुरोहितीका काम) नहीं लेता था, तब ब्रह्माजीने मुझे कहा था-हे पुत्र! इससे तुमको आगे चलकर बहुत लाभ होगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुकुल के भूषण राजा होंगे।।4।।

दो.-तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन।।48।।

तब मैंने हृदय में विचार किया कि जिसके लिये योग, यज्ञ, व्रत और दान किये जाते हैं उसे मैं इसी कर्म से पा जाऊँगा; तब तो इसके समान दूसरा कोई धर्म ही नहीं है।।48।।

चौ.-जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।1।।

जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने [वर्णाश्रमके] धर्म श्रुतियोंसे उत्पन्न (वेदविहित) बहुत-से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इन्द्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँतक वेद और संतजनों ने धर्म कहे हैं [उनके करनेका]-।।1।।

आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।
तव पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर।।2।।

[तथा] हे प्रभो! अनेक, तन्त्र वेद और पुराणोंके पढ़ने और सुनने का सर्वोतम फल एक ही है और सब साधनों का भी यही एक सुन्दर फल हैं कि आपके चरणकमलों में सदा-सर्वदा प्रेम हो।।2।।

छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ।।
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।3।।

मैल से धोने से क्या मैल छूटता है? जल के मथने ये क्या कोई घी पा सकता है? [उसी प्रकार] हे रघुनाथजी! प्रेम-भक्तिरूपी [निर्मल] जल के बिना अन्तःकरण का मल कभी नहीं जाता।।3।।

सोइ सर्बग्य तग्य सोई पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित।।
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई।।4।।

वही सर्वज्ञ है, वही तत्त्वज्ञ और पण्डित है, वही गुणोंका घर और अखण्ड विज्ञानवान् हैं; वही चतुर और सब सुलक्षणोंसे युक्त है, जिसका आपके चरणकमलों में प्रेम हैं।।4।।

दो.-नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु।।49।।

हे नाथ! हे श्रीरामजी! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिये। प्रभु (आप) के चरणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मान्तर में भी कभी न घटे।।49।।

चौ.-अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए।।
हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता।।1।।

ऐसा कहकर मुनि वसिष्ठ जी घर आये। वे कृपासागर श्रीरामजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। तदनन्तर सेवकों सुख देनेवाले श्रीरामजी ने हनुमान् जी तथा भरतजी भाइयों को साथ लिया।।1।।

पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए।।
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह तिन्ह तेइ चाहे।।2।।

और फिर कृपालु श्रीरामजी नगर के बाहर गये और वहाँ उन्होंने हाथी, रथ और घो़ड़े मँगवाये। उन्हें देखकर, कृपा करके प्रभुने सबकी सराहना की और उनको जिस-जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दिया।।2।।

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई।।
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई।।3।।

संसार के सभी श्रमों को हरनेवाले प्रभु ने [हाथी, घोड़े आदि बाँटनेमें] श्रमका अनुभव किया और [श्रम मिटाने को] वहाँ गये जहाँ शीतल अमराई (आमोंका बगीचा) थी। वहाँ भरत जी ने अपना वस्त्र बिछा दिया। प्रभु उसपर बैठ गये और सब भाई उनकी सेवा करने लगे।।3।।

मारुतसुत तब मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई।।
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोऊ राम चरन अनुरागी।।4।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई।।5।।

उस समय पवन पुत्र हनुमान् जी पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमे [प्रेमाश्रुओंका] जल भर आया। [शिवजी कहने लगे-] हे गिरिजे! हनुमान् जी के समान न तो कोई बड़भागी है और न कोई श्रीरामजी के चरणों का प्रेमी ही है, जिनके प्रेम और सेवा की [स्वयं] प्रभुने अपने श्रीमुख से बार-बार बड़ाई की है।।4-5।।

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