आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
श्रीराम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण
जाइ जनकपुर आइअ देखी।
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं ।
प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥
लक्ष्मणजीके हृदयमें विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें। परन्तु प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका डर है और फिर मुनिसे भी सकुचाते हैं। इसलिये प्रकटमें कुछ नहीं कहते; मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं ॥१॥
भगत बछलता हिय हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई ।
बोले गुर अनुसासन पाई॥
[अन्तर्यामी] श्रीरामचन्द्रजीने छोटे भाईके मनकी दशा जान ली, [तब] उनके हृदयमें भक्तवत्सलता उमड़ आयी। वे गुरुकी आज्ञा पाकर बहुत ही विनयके साथ सकुचाते हुए मुसकराकर बोले- ॥२॥
प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।
जौं राउर आयसु मैं पावौं ।
नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥
हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और संकोचके कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही [वापस] ले आऊँ।।३।।
कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता ।
प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥
यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्रजीने प्रेमसहित वचन कहे-हे राम! तुम नीतिकी रक्षा कैसे न करोगे; हे तात! तुम धर्मकी मर्यादाका पालन करनेवाले और प्रेमके वशीभूत होकर सेवकोंको सुख देनेवाले हो॥४॥
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥२१८॥
सुखके निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुन्दर मुख दिखलाकर सब [नगर-निवासियों के नेत्रोंको सफल करो॥२१८॥
चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बूंद देखि अति सोभा ।
लगे संग लोचन मनु लोभा।
सब लोकोंक नेत्रोंको सुख देनेवाले दोनों भाई मुनिके चरणकमलोंकी वन्दना करके चले। बालकोंके झुंड इन [के सौन्दर्य] की अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गये। उनके नेत्र और मन [इनकी माधुरीपर] लुभा गये ॥१॥
चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी ।
स्यामल गौर मनोहर जोरी॥
दोनों भाइयोंके] पीले रंगके वस्त्र हैं, कमरके [पीले] दुपट्टोंमें तरकस बँधे हैं। हाथोंमें सुन्दर धनुष-बाण सुशोभित हैं। [श्याम और गौर वर्णक] शरीरोंके अनुकूल (अर्थात् जिसपर जिस रंगका चन्दन अधिक फबे उसपर उसी रंगके) सुन्दर चन्दनकी खौर लगी है। साँवरे और गोरे [रंग] की मनोहर जोड़ी है ॥ २ ॥
उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन ।
बदन मयंक तापत्रय मोचन।
सिंहके समान (पुष्ट) गर्दन (गलेका पिछला भाग) है; विशाल भुजाएँ हैं। [चौड़ी] छातीपर अत्यन्त सुन्दर गजमुक्ताकी माला है। सुन्दर लाल कमलके समान नेत्र हैं। तीनों तापोंसे छुड़ानेवाला चन्द्रमाके समान मुख है ॥ ३॥
ितवत चितहि चोरि जनु लेहीं।
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी ।
तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥
कानोंमें सोनेके कर्णफूल [अत्यन्त] शोभा दे रहे हैं और देखते ही [देखनेवालेके] चित्तको मानो चुरा लेते हैं। उनकी चितवन (दृष्टि) बड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं सुन्दर हैं। [माथेपर] तिलककी रेखाएँ ऐसी सुन्दर हैं मानो [मूर्तिमती] शोभापर मुहर लगा दी गयी है ॥ ४॥
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥२१९॥
सिरपर सुन्दर चौकोनी टोपियाँ [दिये] हैं, काले और धुंघराले बाल हैं। दोनों भाई नखसे लेकर शिखातक (एड़ीसे चोटीतक) सुन्दर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिये वैसी ही है ॥ २१९॥
समाचार पुरबासिन्ह पाए।
धाए धाम काम सब त्यागी ।
मनहुँ रंक निधि लूटन लागी।
जब पुरवासियोंने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखनेके लिये आये हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री [धनका] खजाना लूटने दौड़े हों ।।१।।
होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबती भवन झरोखन्हि लागी ।
निरखहिं राम रूप अनुरागीं।
स्वभावही से सुन्दर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रोंका फल पाकर सुखी हो रहे हैं। युवती स्त्रियाँ घरके झरोखोंसे लगी हुई प्रेमसहित श्रीरामचन्द्रजीके रूपको देख रही हैं ॥२॥
सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं ।
सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥
वे आपसमें बड़े प्रेमसे बातें कर रही हैं-हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवोंकी छबिको जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियोंमें ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती ॥३॥
बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ न आही।
यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥
भगवान विष्णुके चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजीके चार मुख हैं, शिवजीका विकट (भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है जिसके साथ इस छबिकी उपमा दी जाय॥४॥
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥२२०॥
इनकी किशोर अवस्था है, ये सुन्दरताके घर, साँवले और गोरे रंगके तथा सुखके धाम हैं। इनके अङ्ग-अङ्गपर करोड़ों-अरबों कामदेवोंको निछावर कर देना चाहिये॥ २२०॥
जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी ।
जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥
हे सखी! [भला] कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा जो इस रूपको देखकर मोहित न हो जाय (अर्थात् यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करनेवाला है)। [तब] कोई दूसरी सखी प्रेमसहित कोमल वाणीसे बोली-हे सयानी ! मैंने जो सुना है उसे सुनो- ॥१॥
बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे ।
जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।
ये दोनों [राजकुमार] महाराज दशरथजीके पुत्र हैं! बाल राजहंसोंका-सा सुन्दर जोड़ा है। ये मुनि विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करनेवाले हैं, इन्होंने युद्धके मैदानमें राक्षसोंको मारा है॥२॥
जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी ।
नामु रामु धनु सायक पानी॥
जिनका श्याम शरीर और सुन्दर कमल-जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहुके मदको चूर करनेवाले और सुखकी खान हैं और जो हाथमें धनुष-बाण लिये हुए हैं, वे कौसल्याजीके पुत्र हैं; इनका नाम राम है ॥३॥
कर सर चाप राम के पाछे॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता।
सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥
जिनका रंग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुन्दर वेष बनाये और हाथमें धनुष-बाण लिये श्रीरामजीके पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं; उनका नाम लक्ष्मण है। हे सखी! सुनो, उनकी माता सुमित्रा हैं ।।४।।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥२२१॥
दोनों भाई ब्राह्मण विश्वामित्रका काम करके और रास्तेमें मुनि गौतमकी स्त्री अहल्याका उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आये हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं। २२१॥
जोगु जानकिहि यह बरु अहई।
जी सखि इन्हहि देख नरनाहू ।
पन परिहरि हठि करइ बिबाहू ॥
श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी-यह वर जानकीके योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोड़कर हठपूर्वक इन्हींसे विवाह कर देगा॥१॥
मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई ।
बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥
किसीने कहा-राजाने इन्हें पहचान लिया है और मुनिके सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया है। परन्तु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोड़ता। वह होनहारके वशीभूत होकर हठपूर्वक अविवेकका ही आश्रय लिये हुए है (प्रणपर अड़े रहनेकी मूर्खता नहीं छोड़ता)॥२॥
सब कह सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू ।
नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥
कोई कहती है-यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो जानकीजीको यही वर मिलेगा। हे सखी! इसमें सन्देह नहीं है॥३॥
तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें।
कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥
जो दैवयोगसे ऐसा संयोग बन जाय, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जायँ। हे सखी! मेरे तो इसीसे इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आवेंगे॥४॥
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥२२२॥
नहीं तो (विवाह न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो सकता है जब हमारे पूर्वजन्मोंके बहुत पुण्य हों ।। २२२ ॥
एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह संकर चाप कठोरा ।
ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥
दूसरीने कहा-हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाहसे सभीका परम हित है। किसीने कहा-शङ्करजीका धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीरके बालक हैं ॥१॥
यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कह कोउ कोउ अस कहहीं ।
बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥
हे सयानी! सब असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणीसे कहने लगी-हे सखी! इनके सम्बन्धमें कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखनेमें तो छोटे हैं, पर इनका प्रभाव बहुत बड़ा है ॥२॥
तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें ।
यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥
जिनके चरणकमलोंकी धूलिका स्पर्श पाकर अहल्या तर गयी, जिसने बड़ा भारी पाप किया था, वे क्या शिवजीका धनुष बिना तोड़े रहेंगे। इस विश्वासको भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिये ॥३॥
तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं ।
ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानी॥
जिस ब्रह्माने सीताको सँवारकर (बड़ी चतुराईसे) रचा है, उसीने विचारकर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणीसे कहने लगीं-ऐसा ही हो॥४॥
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥२२३॥
सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ समूह-की-समूह हृदयमें हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनन्द छा जाता है॥२२३॥
जहँ धनुमख हित भूमि बनाई।
अति बिस्तार चारु गच ढारी ।
बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥
दोनों भाई नगरके पूरब ओर गये; जहाँ धनुषयज्ञके लिये [रंग] भूमि बनायी गयी थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुन्दर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिसपर सुन्दर और निर्मल वेदी सजायी गयी थी॥१॥
रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछे समीप चहुँ पासा ।
अपर मंच मंडली बिलासा॥
चारों ओर सोनेके बड़े-बड़े मंच बने थे, जिनपर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानोंका मण्डलाकार घेरा सुशोभित था ।। २ ।।
बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए।
धवल धाम बहुबरन बनाए।
वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकारसे सुन्दर था, जहाँ जाकर नगरके लोग बैठेंगे। उन्हींके पास विशाल एवं सुन्दर सफेद मकान अनेक रंगोंके बनाये गये हैं, ॥ ३ ॥
जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना ।
सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥
जहाँ अपने-अपने कुलके अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर देखेंगी। नगरके बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको [यज्ञशालाकी] रचना दिखला रहे हैं ॥ ४॥
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥२२४॥
सब बालक इसी बहाने प्रेमके वश होकर श्रीरामजीके मनोहर अङ्गोंको छूकर शरीरसे पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयोंको देख-देखकर उनके हृदयमें अत्यन्त हर्ष हो रहा है ॥ २२४ ।।
प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई ।
सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥
श्रीरामचन्द्रजीने सब बालकोंको प्रेमके वश जानकर [यज्ञभूमिके] स्थानोंकी प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। [इससे बालकोंका उत्साह, आनन्द और प्रेम और भी बढ़ गया, जिससे] वे सब अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और [प्रत्येकके बुलानेपर] दोनों भाई प्रेमसहित उनके पास चले जाते हैं ॥१॥
कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया ।
रचइ जासु अनुसासन माया॥
चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं ।
जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।
वही दीनोंपर दया करनेवाले श्रीरामजी भक्तिके कारण धनुषयज्ञशालाको चकित होकर (आश्चर्यके साथ) देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे गुरुके पास चले। देर हुई जानकर उनके मनमें डर है॥३॥
भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं।
किए बिदा बालक बरिआईं।
जिनके भय से डर को भी डर लगता है, वही प्रभु भजनका प्रभाव [जिसके कारण ऐसे महान् प्रभु भी भयका नाट्य करते हैं] दिखला रहे हैं। उन्होंने कोमल, मधुर और सुन्दर बातें कहकर बालकोंको जबर्दस्ती विदा किया ॥४॥
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥२२५॥
फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोचके साथ दोनों भाई गुरुके चरणकमलोंमें सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥ २२५ ॥
सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी ।
रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥
रात्रिका प्रवेश होते ही (सन्ध्याके समय) मुनिने आज्ञा दी, तब सबने सन्ध्यावन्दन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुन्दर रात्रि दो पहर बीत गयी॥१॥
लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी ।
करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
तब श्रेष्ठ मुनिने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे जिनके चरणकमलोंके [दर्शन एवं स्पर्शके] लिये वैराग्यवान् पुरुष भी भाँति-भाँतिके जप और योग करते हैं, ॥२॥
गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही ।
रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥
- वे ही दोनों भाई मानो प्रेमसे जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजीके चरणकमलोंको दबा रहे हैं। मुनिने बार-बार आज्ञा दी, तब श्रीरघुनाथजीने जाकर शयन किया॥३॥
सभय सप्रेम परम सचु पाएँ।
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता ।
पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥
श्रीरामजीके चरणोंको हृदयसे लगाकर भय और प्रेमसहित परम सुखका अनुभव करते हुए लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने बार-बार कहा-हे तात! [अब] सो जाओ। तब वे उन चरणकमलोंको हृदयमें धरकर लेट रहे॥४॥
गुर ते पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥२२६॥
रात बीतनेपर, मुर्गेका शब्द कानोंसे सुनकर लक्ष्मणजी उठे। जगतके स्वामी सुजान श्रीरामचन्द्रजी भी गुरुसे पहले ही जाग गये ॥ २२६ ॥
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