आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति।।15।।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति।।15।।
वानर सब ब्रह्मानन्द में मगन हैं। प्रभु के चरणों में सबका
प्रेम हैं! उन्होंने दिन जाते जाने ही नहीं और [बात-की-बातमें] छः महीने
बीत गये।।15।।
चौ.-बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन
माहीं।।
तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए।।1।।
तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए।।1।।
उन लोगों को अपने घर भूल ही गये।] जगत् की तो बात ही क्या]
उन्हें स्वप्न में भी घरकी सुध (याद) नहीं आती, जैसे संतोंके मनमें दूसरों
से द्रोह करनेकी बात कभी नहीं आती। तब श्रीरघुनाथजीने सब सखाओंको बुलाया।
सबने आकर आदर सहित सिर नवाया।।1।।
परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे।।
तुम्ह अति कीन्हि मोरि सेवकाई। मुख पर केहिं बिधि करौं बड़ाई।।2।।
तुम्ह अति कीन्हि मोरि सेवकाई। मुख पर केहिं बिधि करौं बड़ाई।।2।।
बड़े ही प्रेम से श्रीरामजीने उनको पास बैठाया और भक्तों को
सुख देने वाले कोमल बचन कहे- तुमलोगोंने मेरी बड़ी सेवा की है। मुँहपर किस
प्रकार तुम्हारी बड़ाई करूँ?।।2।।
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख
त्यागे।।
अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही।।3।।
अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही।।3।।
मेरे हित के लिये तुम लोगों ने घरों को तथा सब प्रकारके सुखों
को त्याग दिया। इससे तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय लग रहे हो। छोटे भाई,
राज्य, सम्पत्ति, जानकी, अपना शरीर, घर, कुटुम्ब और मित्र-।।3।।
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह
बाना।।
सब कें प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती।।4।।
सब कें प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती।।4।।
ये सभी मुझे प्रिय हैं, परन्तु तुम्हारे समान नहीं। मैं झूठ
नहीं कहता, यह मेरा स्वभाव है। सेवक सभीको प्यारे लगते हैं, यह नीति (नियम)
हैं। [पर] मेरा तो दासपर [स्वभाविक ही] विशेष प्रेम है।।4।।
दो.-अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।16।।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।16।।
हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ; वहाँ दृढ़ नियम से मुझे
भजते रहना मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करनेवाला जानकर
अत्यन्त प्रेम करना है।।16।।
चौ.-सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए।।
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे।।1।।
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे।।1।।
प्रभु के वचन सुनकर सब-के-सब प्रेममग्न हो गये। हम कौन
है और कहाँ है? यह देह की सुध भी भूल गयी। वे प्रभु के सामने हाथ
जोड़कर टकटकी लगाये देखते ही रह गये। अत्यन्त प्रेमके कारण कुछ कह नहीं
सकते।।1।।
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिधि बिधि ग्यान
बिसेषा।।
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं।।2।।
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं।।2।।
प्रभु ने उनका अत्यन्त प्रेम देखा, [तब] उन्हें अनेकों
प्रकार से विशेष ज्ञान का उपदेश दिया। प्रभु के सम्मुख वे कुछ
नहीं कह सकते। बार-बार प्रभु के चरणकमलों को देखते हैं।।2।।
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए।।
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए।।3।।
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए।।3।।
तब प्रभु ने अनेकों रंग के अनुपम और सुन्दर गहने-कपड़े
मँगवाये। सबसे पहले भरतजी ने अपने हाथ से सँवारकर सुग्रीवको वस्त्राभूषण
पहनाये।।3।।
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए।।
अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।4।।
अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।4।।
फिर प्रभु की प्रेरणा से लक्ष्मणजीने विभीषणको गहने-कपड़े
पहनाये, जो श्रीरघुनाथजी के मनको बहुत ही अच्छे लगे। अंगद बैठे ही रहे, वे
अपनी जगह से हिलेतक नहीं। उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभुने उनको नहीं
बुलाया।।4।।
दो.-जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17क।।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17क।।
जाम्बवान् और नील आदि सबको श्रीरघुनाथजीने स्वयं भूषण-वस्त्र
पहनाये। वे सब अपने हृदयों में श्रीरामचन्द्रजीके रूपको धारण करके उनके
चरणोंमें मस्तक नवाकर चले।।17(क)।।
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि।।17ख।।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि।।17ख।।
तब अंगद उठकर सिर नवाकर, नेत्रोंमें जल भरकर और हाथ जोड़कर
अत्यन्त विनम्र तथा मानो प्रेमके रसमें डुबोये हुए (मधुर) वचन
बोले।।17(ख)।।
चौ.-सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो।
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोछें घाली।।1।।
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोछें घाली।।1।।
हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुख के समुद्र! हे दीनों पर दया
करनेवाले! हे आर्तोंके बन्धु! सुनिये। हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि
मुझे आपकी ही गोदमें डाल गया था!।।1।।
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।2।।
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।2।।
अतः हे भक्तों के हितकारी! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद
करके मुझे त्यागिये नहीं। मेरे तो स्वामी, गुरु, माता सब कुछ आप ही हैं
आपके चरणकमलोंको छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ?।।2।।
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।3।।
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।3।।
हे महाराज! आप ही विचार कर कहिये, प्रभु (आप) को छोड़कर घर
में मेरा क्या काम है? हे नाथ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन
सेवकको शरणमें रखिये।।3।।
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाहीं। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।4।।
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाहीं। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।4।।
मैं घर की सब नीची-से-नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलोंको
देख-देखकर भवसागरसे तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्रीरामजीके चरणोंमें गिर पड़े
[और बोले-] हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिये! हे नाथ! अब यह न कहिये कि तू घर
जा।।4।।
दो.-अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव।।18क।।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव।।18क।।
अंगद के विनम्र वचन सुनकर करुणाकी सीमा प्रभु श्रीरघुनाथजीने
उनको उठाकर हृदय से लगा लिया। प्रभुके नेत्रकमलोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल
भर आया।।18(क)।।
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ।।18ख।।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ।।18ख।।
तब भगवान् ने अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के
आभूषण) बालि-पुत्र अंगद को पहनाकर और बहुत प्रकार से समझाकर उनकी बिदाई
की।।18(ख)।।
चौ.-भरत अनुज सौमित्रि समेता। पठवन चले भगत कृत चेता।।
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा।।1।।
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा।।1।।
भक्त की करनी को याद करके भरतजी छोटे भाई शत्रुघ्नजी और
लक्ष्मणजी सहित उनको पहुँचाने चले। अंगदके हृदय में थोड़ा प्रेम नहीं है
(अर्थात् बहुत अधिक प्रेम है)। वे फिर-फिर कर श्रीरामजी की ओर देखते
हैं।।1।।
बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा।।
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी।।2।।
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी।।2।।
और बार-बार दण्डवत् प्रणाम करते हैं। मन में ऐसा आता है कि
श्रीरामजी मुझे रहने को कह दें। वे श्रीरामजी के देखने की, बोलने की, चलने
की तथा हँसकर मिलने की रीति को याद कर-करके सोचते हैं (दुखी होते हैं)।।2।।
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी।।
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए।।3।।
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए।।3।।
किन्तु प्रभुका रुख देखकर, बहुत-से विनय-वचन कहकर तथा हृदय
में चरण-कमलों को रखकर वे चले। अत्यन्त आदर के साथ सब वानरों को पहुँचाकर
भाइयोंसहित भरतजी लौट आये।।3।।
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना।।
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा।।4।।
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा।।4।।
तब हनुमान जी ने सुग्रीव के चरण पकड़कर अनेक प्रकार से विनती
की और कहा- हे देव! दस (कुछ) दिन श्रीरघुनाथजीकी चरणसेवा करके फिर मैं आकर
आपके चरणों के दर्शन करूँगा।।4।।
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा।।
अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता।।5।।
अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता।।5।।
[सुग्रीव ने कहा-] हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो [जो
भगवान् ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया]। जाकर कृपाधाम श्रीरामजी की सेवा
करो ! सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े। अंगद ने कहा- हे हनुमान्!
सुनो-।।5।।
दो.-कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि।।19क।।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि।।19क।।
मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु मेरी दण्डवत् कहना और
श्रीरघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना।।19(क)।।
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवंत।।19ख।।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवंत।।19ख।।
ऐसा कहकर बालि पुत्र अंगद चले, तब हनुमान् जी लौट आये और आकर
प्रभु से उनका प्रेम वर्णन किया। उसे सुनकर भगवान् प्रेममग्न हो
गये।।19(ख)।।
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।19ग।।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।19ग।।
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे गरुड़जी! श्रीरामजीका चित्त
वज्र से भी अत्यन्त कठोर और फूल से भी अत्यन्त कोमल है। तब कहिये, वह किसकी
समझ में आ सकता है?।।19(ग)।।
चौ.-पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन
प्रसादा।।
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।1।।
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।1।।
फिर कृपालु श्रीरामजीने निषादराजको बुला लिया और उसे भूषण,
वस्त्र प्रसादमें दिये। [फिर कहा-] अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते
रहना और मन, वचन तथा धर्म के अनुसार चलना।।1।
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।।
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।2।।
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।2।।
तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो। अयोध्या में सदा
आते-जाते रहना। यह वचन सुनते ही उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ। नेत्रोंमें
[आनन्द और प्रेमके आँसुओंका] जल भरकर वह चरणों में गिर पड़ा।।2।।
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।।
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।3।।
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।3।।
फिर भगवान् के चरणकमलों को हृदय में रखकर वह घर आया और आकर
अपने कुटुम्बियों को उसने प्रभु का स्वभाव सुनाया। श्रीरघुनाथजी का यह
चरित्र देखकर अवध-पुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की राशि श्रीरामचन्द्रजी
धन्य हैं।।3।।
राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता सोई।।4।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता सोई।।4।।
श्रीरामचन्द्रजीके राज्य पर प्रतिष्ठित होनेपर तीनों लोक
हर्षित हो गये, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता।
श्रीरामचन्द्रजी के प्रताप से सबकी बिषमता (आन्तरिक भेदभाव) मिट गयी।।4।।
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लोगों की राय
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