आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
|
भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- बालक बृद्ध बिहाइ गृहँ, लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय, प्रथम दिवस रघुनाथ॥८४।।
तमसा तीर निवासु किय, प्रथम दिवस रघुनाथ॥८४।।
बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब लोग साथ हो लिये। पहले दिन श्रीरघुनाथजी ने तमसा नदी के तीर पर निवास किया॥ ८४॥
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी।
सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी।
करुनामय रघुनाथ गोसाँई।
बेगि पाइअहिं पीर पराई॥
सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी।
करुनामय रघुनाथ गोसाँई।
बेगि पाइअहिं पीर पराई॥
प्रजा को प्रेमवश देखकर श्रीरघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दुःख हुआ। प्रभु श्रीरघुनाथजी करुणामय हैं। परायी पीड़ा को वे तुरंत पा जाते हैं (अर्थात् दूसरे का दु:ख देखकर वे तुरंत स्वयं दुःखित हो जाते हैं)॥१॥
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए।
बहुबिधि राम लोग समुझाए।
किए धरम उपदेस घनेरे।
लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥
बहुबिधि राम लोग समुझाए।
किए धरम उपदेस घनेरे।
लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥
प्रेमयुक्त कोमल और सुन्दर वचन कहकर श्रीरामजी ने बहुत प्रकार से लोगों को समझाया और बहुतेरे धर्मसम्बन्धी उपदेश दिये; परन्तु प्रेमवश लोग लौटाये लौटते नहीं॥२॥
सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई।
असमंजस बस भे रघुराई॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई।
कछुक देवमायाँ मति मोई॥
असमंजस बस भे रघुराई॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई।
कछुक देवमायाँ मति मोई॥
शील और स्नेह छोड़ा नहीं जाता। श्रीरघुनाथजी असमञ्जस के अधीन हो गये (दुविधामें पड़ गये)। शोक और परिश्रम (थकावट) के मारे लोग सो गये और कुछ देवताओं की माया से भी उनकी बुद्धि मोहित हो गयी॥३॥
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती।
राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता।
आन उपायँ बनिहि नहिं बाता।
राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता।
आन उपायँ बनिहि नहिं बाता।
जब दो पहर रात बीत गयी, तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक मन्त्री सुमन्त्र से कहा हे तात! रथ के खोज (चिह्नों को मिटा कर) मारकर (अर्थात् पहियोंके चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार) रथको हाँकिये। और किसी उपायसे बात नहीं बनेगी॥४॥
दो०- राम लखन सिय जान चढ़ि, संभु चरन सिरु नाइ।
सचिवें चलायउ तुरत रथु, इत उत खोज दुराइ॥८५॥
सचिवें चलायउ तुरत रथु, इत उत खोज दुराइ॥८५॥
शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथपर सवार हुए। मन्त्री ने तुरंत ही रथ को, इधर-उधर खोज छिपाकर चला दिया।। ८५॥
जागे सकल लोग भएँ भोरू।
गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥
रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं।
राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥
गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥
रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं।
राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥
सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि श्रीरघुनाथ जी चले गये। कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब 'हा राम ! हा राम!' पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं॥१॥
मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू।
भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥
एकहि एक देहिं उपदेसू।
तजे राम हम जानि कलेसू॥
भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥
एकहि एक देहिं उपदेसू।
तजे राम हम जानि कलेसू॥
मानो समुद्र में जहाज डूब गया हो, जिससे व्यापारियों का समुदाय बहुत ही व्याकुल हो उठा हो। वे एक-दूसरेको उपदेश देते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी ने, हम लोगों को क्लेश होगा, यह जानकर छोड़ दिया है।॥ २॥
निंदहिं आपु सराहहिं मीना।
धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा।
तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥
धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा।
तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥
वे लोग अपनी निन्दा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं। [कहते हैं-] श्रीरामचन्द्रजी के बिना हमारे जीने को धिक्कार है। विधाता ने यदि प्यारे का वियोग ही रचा,तो फिर उसने माँगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी !॥३॥
एहि बिधि करत प्रलाप कलापा।
आए अवध भरे परितापा।
बिषम बियोगु न जाइ बखाना।
अवधि आस सब राखहिं प्राना।
आए अवध भरे परितापा।
बिषम बियोगु न जाइ बखाना।
अवधि आस सब राखहिं प्राना।
इस प्रकार बहुत-से प्रलाप करते हुए वे सन्ताप से भरे हुए अयोध्याजी में आये। उन लोगोंके विषम वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। [चौदह सालकी] अवधि की आशा से ही वे प्राणों को रख रहे हैं॥४॥
|
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
- अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
- अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
- अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
- अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी पर स्वामिभक्ति दिखाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का निश्चय दृढृ करवाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का सहमना
अनुक्रम
लोगों की राय
No reviews for this book