आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- सिख सीतलि हित मधुर मृदु, सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदिनि लगत, जनु चकई अकुलानि॥७८॥
सरद चंद चंदिनि लगत, जनु चकई अकुलानि॥७८॥
यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुननेपर सीताजीको अच्छी नहीं लगी। [वे इस प्रकार व्याकुल हो गयीं] मानो शरद् ऋतुके चन्द्रमाकी चाँदनी लगते ही चकई व्याकुल हो उठी हो॥ ७८॥
सीय सकुच बस उतरु न देई।
सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी।
आगे धरि बोली मृदु बानी॥
सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी।
आगे धरि बोली मृदु बानी॥
सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देती। इन बातोंको सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियोंके वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि) और बर्तन (कमण्डलु आदि) लाकर श्रीरामचन्द्रजीके आगे रख दिये और कोमल वाणीसे कहा---॥१॥
नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा।
सील सनेह न छाडिहि भीरा॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ।
तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥
सील सनेह न छाडिहि भीरा॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ।
तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥
हे रघुवीर! राजा को तुम प्राणों के समान प्रिय हो। भीरु (प्रेमवश दुर्बल हृदयके) राजा शील और स्नेह नहीं छोड़ेंगे! पुण्य, सुन्दर यश और परलोक चाहे नष्ट हो जाय, पर तुम्हें वन जाने को वे कभी न कहेंगे॥२॥
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा।
राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥
भूपहि बचन बानसम लागे।
करहिं न प्रान पयान अभागे।
राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥
भूपहि बचन बानसम लागे।
करहिं न प्रान पयान अभागे।
ऐसा विचारकर जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो। माताकी सीख सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने [बड़ा] सुख पाया। परन्तु राजाको ये वचन बाणके समान लगे। [वे सोचने लगे] अब भी अभागे प्राण [क्यों नहीं] निकलते!॥३॥
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू।
काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई।
चले जनक जननिहि सिरु नाई॥
काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई।
चले जनक जननिहि सिरु नाई॥
राजा मूर्छित हो गये, लोग व्याकुल हैं। किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। श्रीरामचन्द्रजी तुरंत मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिये॥४॥
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