आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- करि केहरि निसिचर चरहिं, दुष्ट जंतु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत, सुभग सजीवनि मूरि॥५९॥
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत, सुभग सजीवनि मूरि॥५९॥
हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव-जन्तु वन में विचरते रहते हैं। हे पुत्र! क्या विष की वाटिका में सुन्दर सञ्जीवनी बूटी शोभा पा सकती है?॥ ५९॥
बन हित कोल किरात किसोरी।
रची बिरंचि बिषय सुख भोरी।
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ।
तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥
रची बिरंचि बिषय सुख भोरी।
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ।
तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥
वन के लिये तो ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जाननेवाली कोल और भीलोंकी लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थरके कीड़े-जैसा कठोर स्वभाव है। उन्हें वनमें कभी क्लेश नहीं होता।। १॥
कै तापस तिय कानन जोगू।
जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती।
चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥
जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती।
चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥
अथवा तपस्वियोंकी स्त्रियाँ वनमें रहने योग्य हैं, जिन्होंने तपस्याके लिये सब भोग तज दिये हैं। हे पुत्र! जो तसवीर के बन्दर को देखकर डर जाती हैं वे सीता वनमें किस तरह रह सकेंगी?॥२॥
सुरसर सुभग बनज बन चारी।
डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥
अस बिचारि जस आयसु होई।
मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥
डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥
अस बिचारि जस आयसु होई।
मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥
देवसरोवर के कमलवन में विचरण करने वाली हंसिनी क्या गडैयों (तलैयों) में रहनेके योग्य है ? ऐसा विचारकर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकीको वैसी ही शिक्षा दूँ॥३॥
जौं सिय भवन रहै कह अंबा।
मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा।।
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी।
सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥
मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा।।
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी।
सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥
माता कहती हैं-यदि सीता घर में रहें तो मुझको बहुत सहारा हो जाय। श्रीरामचन्द्रजी ने माता की प्रिय वाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेहरूपी अमृत से सनी हुई थी,॥४॥
दो०- कहि प्रिय बचन बिबेकमय, कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि, प्रगटि बिपिन गुन दोष॥६०॥
लगे प्रबोधन जानकिहि, प्रगटि बिपिन गुन दोष॥६०॥
विवेकमय प्रिय वचन कहकर माता को सन्तुष्ट किया। फिर वनके गुण-दोष प्रकट करके वे जानकीजीको समझाने लगे॥६०॥
मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम
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- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
- अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
- अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
- अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
- अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी पर स्वामिभक्ति दिखाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का निश्चय दृढृ करवाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
अनुक्रम
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