आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- पिता जनक भूपाल मनि, ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन, बिधु गुन रूप निधानु॥५८॥
पति रबिकुल कैरव बिपिन, बिधु गुन रूप निधानु॥५८॥
इनके पिता जनकजी राजाओं के शिरोमणि हैं; ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुलरूपी कुमुदवन को खिलानेवाले चन्द्रमा तथा गुण और रूप के भण्डार हैं। ५८॥
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई।
रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई।
राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई।
रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई।
राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई।
फिर मैंने रूपकी राशि, सुन्दर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पायी है। मैंने इन (जानकी)को आँखोंकी पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं॥१॥
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली।
सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा।
जानि न जाइ काह परिनामा॥
सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा।
जानि न जाइ काह परिनामा॥
इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरहसे बड़े लाड़-चावके साथ स्नेहरूपी जलसे सींचकर पाला है। अब इस लता के फूलने-फलनेके समय विधाता वाम हो गये। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा॥२॥
पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा।
सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ।
दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥
सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ।
दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥
सीता ने पर्यपृष्ठ (पलंगके ऊपर), गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वीपर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा सञ्जीवनी जड़ी के समान [सावधानीसे] इनकी रखवाली करती रही हूँ! कभी दीपक की बत्ती हटानेको भी नहीं कहती॥३॥
सोइ सिय चलन चहति बन साथा।
आयसु काह होइ रघुनाथा॥
चंद किरन रस रसिक चकोरी।
रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी॥
आयसु काह होइ रघुनाथा॥
चंद किरन रस रसिक चकोरी।
रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी॥
वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे क्या आज्ञा होती है? चन्द्रमाकी किरणोंका रस (अमृत) चाहने वाली चकोरी सूर्य की ओर आँख किस तरह मिला सकती है॥ ४॥
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- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
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अनुक्रम
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