आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

श्रीराम-कौसल्या-संवाद



दो०-- नव गयंदु रघुबीर मनु, राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि, उर अनंदु अधिकान॥५१॥

श्रीरामचन्द्रजीका मन नये पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथीके बाँधने की काँटेदार लोहे की बेड़ी के समान है। 'वन जाना है' यह सुनकर, अपने को बन्धन से छूटा जानकर, उनके हृदयमें आनन्द बढ़ गया है। ५१॥


रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा।
मुदित मातु पद नायउ माथा॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे।
भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥

रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजीने दोनों हाथ जोड़कर आनन्दके साथ माताके चरणोंमें सिर नवाया। माताने आशीर्वाद दिया, अपने हृदयसे लगा लिया और उनपर गहने तथा कपड़े न्यौछावर किये॥१॥


बार बार मुख चुंबति माता।
नयन नेह जलु पुलकित गाता॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए।
स्त्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥


माता बार-बार श्रीरामचन्द्रजीका मुख चूम रही हैं। नेत्रोंमें प्रेमका जल भर आया है और सब अङ्ग पुलकित हो गये हैं। श्रीरामको अपनी गोदमें बैठाकर फिर हृदयसे लगा लिया। सुन्दर स्तन प्रेमरस (दूध) बहाने लगे॥२॥


प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई।
रंक धनद पदबी जनु पाई॥
सादर सुंदर बदनु निहारी।
बोली मधुर बचन महतारी॥


उनका प्रेम और महान् आनन्द कुछ कहा नहीं जाता। मानो कंगालने कुबेरका पद पा लिया हो। बड़े आदरके साथ सुन्दर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं--॥३॥


कहहु तात जननी बलिहारी।
कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई।
जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥


हे तात! माता बलिहारी जाती है, कहो, वह आनन्द-मङ्गलकारी लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुखकी सुन्दर सीमा है और जन्म लेनेके लाभकी पूर्णतम अवधि है;॥४॥


दो०- जेहि चाहत नर नारि सब, अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित, बृष्टि सरद रितु स्वाति॥५२॥


तथा जिस (लग्न) को सभी स्त्री-पुरुष अत्यन्त व्याकुलतासे इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्याससे चातक और चातकी शरद्-ऋतुके स्वातिनक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं॥५२॥


तात जाउँ बलि बेगि नहाहू।
जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ।
भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ।


हे तात ! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गयी है, माता बलिहारी जाती है॥१॥


मातु बचन सुनि अति अनुकूला।
जनु सनेह सुरतरु के फूला॥
सुख मकरंद भरे श्रियमूला।
निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥


माता के अत्यन्त अनुकूल वचन सुनकर-जो मानो स्नेहरूपी कल्पवृक्षके फूल थे, जो सुखरूपी मकरन्द (पुष्परस) से भरे थे और श्री (राजलक्ष्मी) के मूल थे-ऐसे वचनरूपी फूलोंको देखकर श्रीरामचन्द्रजीका मनरूपी भौंरा उनपर नहीं भूला॥२॥


धरम धुरीन धरम गति जानी।
कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू।
जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥


धर्मधुरीण श्रीरामचन्द्रजीने धर्मको गतिको जानकर मातासे अत्यन्त कोमल वाणीसे कहा-हे माता! पिताजीने मुझको वनका राज्य दिया है, जहाँ सब प्रकारसे मेरा बड़ा काम बननेवाला है॥३॥


आयसु देहि मुदित मन माता।
जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें।
आनँदु अंब अनुग्रह तोरें।


हे माता! तू प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वनयात्रा में आनन्द-मङ्गल हो। मेरे स्नेहवश भूलकर भी डरना नहीं। हे माता! तेरी कृपासे आनन्द ही होगा॥४॥

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    अनुक्रम

  1. अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
  2. अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
  3. अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
  4. अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
  5. अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
  6. अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
  7. अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
  8. अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
  9. अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
  10. अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
  11. अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
  12. अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
  13. अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
  14. अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
  15. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
  16. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
  17. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
  18. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
  19. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
  20. अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
  21. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
  22. अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
  23. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी पर स्वामिभक्ति दिखाना
  24. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का निश्चय दृढृ करवाना
  25. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
  26. अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
  27. अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
  28. अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना

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