आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- सीय कि पिय सँगु परिहरिहि, लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूजब भरत पुर, नृपु कि जिइहि बिनु राम॥४९॥
राजु कि भूजब भरत पुर, नृपु कि जिइहि बिनु राम॥४९॥
क्या सीताजी अपने पति (श्रीरामचन्द्रजी) का साथ छोड़ देंगी?
क्या लक्ष्मणजी श्रीरामचन्द्रजीके बिना घर रह सकेंगे? क्या भरतजी
श्रीरामचन्द्रजीके बिना अयोध्यापरीका राज्य भोग सकेंगे? और क्या राजा
श्रीरामचन्द्रजीके बिना जीवित रह सकेंगे? (अर्थात् न सीताजी यहाँ रहेंगी, न
लक्ष्मणजी रहेंगे, न भरतजी राज्य करेंगे और न राजा ही जीवित रहेंगे; सब उजाड़
हो जायगा)॥ ४९॥
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू।
सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू।
कानन काह राम कर काजू॥
सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू।
कानन काह राम कर काजू॥
हृदयमें ऐसा विचारकर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलङ्क की कोठी मत
बनो। भरतको अवश्य युवराजपद दो, पर श्रीरामचन्द्रजीका वनमें क्या काम है !॥१॥
नाहिन रामु राज के भूखे।
धरम धुरीन बिषय रस रूखे।
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू।
नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
धरम धुरीन बिषय रस रूखे।
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू।
नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
श्रीरामचन्द्रजी राज्य के भूखे नहीं हैं। वे धर्म की धुरी को
धारण करनेवाले और विषय-रस से रूखे हैं (अर्थात् उनमें विषयासक्ति है ही
नहीं)। [इसलिये तुम यह शंका न करो कि श्रीरामजी वन न गये तो भरत के राज्य में
विघ्न करेंगे; इतने पर भी मन न माने तो] तुम राजा से दूसरा ऐसा (यह) वर ले लो
कि श्रीराम घर छोड़कर गुरुके घर रहें॥२॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे।
नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई।
तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई।
तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा।
यदि तुमने कुछ हँसी की हो तो उसे प्रकट में कहकर जना दो [कि मैंने दिल्लगी की
है]॥३॥
राम सरिस सुत कानन जोगू।
काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई।
जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई।
जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
राम-सरीखा पुत्र क्या वनके योग्य है? यह सुनकर लोग तुम्हें
क्या कहेंगे! जल्दी उठो और वही उपाय करो जिस उपायसे इस शोक और कलङ्कका नाश
हो॥४॥
छं०- जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
जिस तरह [नगरभरका] शोक और [तुम्हारा] कलङ्क मिटे, वही उपाय करके
कुलकी रक्षा कर। वन जाते हुए श्रीरामजीको हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न
चला। तुलसीदासजी कहते हैं-जैसे सूर्यके बिना दिन, प्राणके बिना शरीर और
चन्द्रमाके बिना रात [निर्जीव तथा शोभाहीन हो जाती है], वैसे ही
श्रीरामचन्द्रजीके बिना अयोध्या हो जायगी; हे भामिनी! तू अपने हृदयमें इस
बातको समझ (विचारकर देख) तो सही।
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