आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥४२॥
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥४२॥
रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के स्वभाव से ही सीधे
वचनों को दुर्बुद्धि कैकेयी टेढ़ा ही करके जान रही है; जैसे यद्यपि जल समान
ही होता है, परन्तु जोंक उसमें टेढ़ी चाल से ही चलती है॥४२॥
रहसी रानि राम रुख पाई।
बोली कपट सनेहु जनाई।
सपथ तुम्हार भरत कै आना।
हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥
बोली कपट सनेहु जनाई।
सपथ तुम्हार भरत कै आना।
हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥
रानी कैकेयी श्रीरामचन्द्रजीका रुख पाकर हर्षित हो गयी और
कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली-तुम्हारी शपथ और भरतकी सौगन्ध है, मुझे राजाके
दुःखका दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है॥१॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता।
जननी जनक बंधु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू।
तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
जननी जनक बंधु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू।
तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
हे तात! तुम अपराधके योग्य नहीं हो (तुमसे माता-पिताका अपराध
बन पड़े, यह सम्भव नहीं)। तुम तो माता-पिता और भाइयोंको सुख देनेवाले हो। हे
राम! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सत्य है। तुम पिता-माताके वचनों [के पालन] में
तत्पर हो॥२॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई।
चौथेपन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे।
उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
चौथेपन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे।
उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूँ, तुम पिताको समझाकर वही बात कहो
जिससे चौथेपन (बुढ़ापे) में इनका अपयश न हो। जिस पुण्यने इनको तुम-जैसे पुत्र
दिये हैं उसका निरादर करना उचित नहीं॥३॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे।
मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए।
जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।
मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए।
जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।
कैकेयी के बुरे मुख में ये शुभ वचन कैसे लगते हैं जैसे मगध देश
में गया आदिक तीर्थ! श्रीरामचन्द्रजीको माता कैकेयीके सब वचन ऐसे अच्छे लगे
जैसे गङ्गाजीमें जाकर [अच्छे-बुरे सभी प्रकारके] जल शुभ, सुन्दर हो जाते
हैं॥४॥
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- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
- अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
- अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
- अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
- अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी पर स्वामिभक्ति दिखाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का निश्चय दृढृ करवाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
अनुक्रम
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