आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- सुत सनेहु इत बचनु उत, संकट परेउ नरेस।
सकहु त आयसु धरहु सिर, मेटहु कठिन कलेसु॥४०॥
सकहु त आयसु धरहु सिर, मेटहु कठिन कलेसु॥४०॥
इधर तो पुत्रका स्नेह है और उधर वचन (प्रतिज्ञा); राजा इसी धर्मसंकटमें पड़ गये हैं। यदि तुम कर सकते हो, तो राजाकी आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेशको मिटाओ॥ ४०॥
निधरक बैठि कहइ कटु बानी।
सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना।
मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना।
मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है जिसे सुनकर स्वयं
कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन बहुत-से तीर हैं और मानो
राजा ही कोमल निशानेके समान हैं॥१॥
जनु कठोरपनु धरे सरीरू।
सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई।
बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई।
बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
[इस सारे साज-सामानके साथ] मानो स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीरका
शरीर धारण करके धनुषविद्या सीख रहा है। श्रीरघुनाथजीको सब हाल सुनाकर वह ऐसे
बैठी है, मानो निष्ठुरता ही शरीर धारण किये हुए हो॥२॥
मन मुसुकाइ भानुकुल भानू।
रामु सहज आनंद निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन।
मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
रामु सहज आनंद निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन।
मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
सूर्यकुलके सूर्य, स्वाभाविक ही आनन्दनिधान श्रीरामचन्द्रजी मन
में मुसकराकर सब दूषणोंसे रहित ऐसे कोमल और सुन्दर वचन बोले जो मानो वाणीके
भूषण ही थे-॥३॥
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी।
जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माताके वचनोंका
अनुरागी (पालन करनेवाला) है। [आज्ञा-पालनके द्वारा] माता-पिताको सन्तुष्ट
करनेवाला पुत्र, हे जननी! सारे संसारमें दुर्लभ है॥४॥
दो०- मुनिगन मिलनु बिसेषि बन, सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि, संमत जननी तोर॥४१॥
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि, संमत जननी तोर॥४१॥
वनमें विशेषरूपसे मुनियोंका मिलाप होगा, जिसमें मेरा सभी
प्रकारसे कल्याण है। उसमें भी, फिर पिताजीकी आज्ञा और हे जननी! तुम्हारी
सम्मति है।। ४१।।
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू।
बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा।
प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा।
प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
और प्राणप्रिय भरत राज्य पावेंगे। [इन सभी बातोंको देखकर यह
प्रतीत होता है कि] आज विधाता सब प्रकारसे मुझे सम्मुख हैं (मेरे अनुकूल
हैं)। यदि ऐसे कामके लिये भी मैं वनको न जाऊँ तो मूर्खों के समाजमें सबसे
पहले मेरी गिनती करनी चाहिये॥१॥
सेवहिं अरंडु कलपतरु त्यागी।
परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं।
देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं।
देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
जो कल्पवृक्षको छोड़कर रेंडकी सेवा करते हैं और अमृत त्यागकर
विष माँग लेते हैं, हे माता! तुम मनमें विचारकर देखो, वे (महामूर्ख) भी ऐसा
मौका पाकर कभी न चूकेंगे॥२॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी।
निपट बिकल नरनायकु देखी।
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी।
होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
निपट बिकल नरनायकु देखी।
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी।
होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
हे माता! मुझे एक ही दुःख विशेषरूपसे हो रहा है, वह महाराजको
अत्यन्त व्याकुल देखकर। इस थोड़ी-सी बातके लिये ही पिताजीको इतना भारी दुःख
हो, हे माता! मुझे इस बातपर विश्वास नहीं होता॥ ३॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू।
भा मोहि तें कछु बड़ अपराधू॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ।
मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
भा मोहि तें कछु बड़ अपराधू॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ।
मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
क्योंकि महाराज तो बड़े ही धीर और गुणोंके अथाह समुद्र हैं।
अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण महाराज मुझसे कुछ नहीं
कहते। तुम्हें मेरी सौगन्ध है, माता! तुम सच-सच कहो॥४॥
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