आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- तुम्हहि न सोचु सोहाग बल, निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृपु, राउर सरल सुभाउ॥१७॥
मन मलीन मुह मीठ नृपु, राउर सरल सुभाउ॥१७॥
तुमको अपने सुहाग के [झूठे] बलपर कुछ भी सोच नहीं है; राजा को
अपने वश में जानती हो। किन्तु राजा मन के मैले और मुँहके मीठे हैं! और आपका
सीधा स्वभाव है (आप कपट-चतुराई जानती ही नहीं)॥१७॥
चतुर गँभीर राम महतारी।
बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें।
राम मात मत जानब रउरें॥
बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें।
राम मात मत जानब रउरें॥
रामकी माता (कौसल्या) बड़ी चतुर और गम्भीर है (उसकी थाह कोई
नहीं पाता)। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को ननिहाल भेज
दिया, उसमें आप बस रामकी माताकी ही सलाह समझिये!॥१॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें।
गरबित भरत मातु बल पी कें॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई।
कपट चतुर नहिं होइ जनाई।
गरबित भरत मातु बल पी कें॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई।
कपट चतुर नहिं होइ जनाई।
[कौसल्या समझती है कि] और सब सौतें तो मेरी अच्छी तरह सेवा करती
हैं, एक भरतकी माँ पति के बलपर गर्वित रहती है! इसी से हे माई! कौसल्या को
तुम बहुत ही साल (खटक) रही हो। किन्तु वह कपट करने में चतुर है; अतः उसके
हृदय का भाव जानने में नहीं आता (वह उसे चतुरता से छिपाये रखती है)॥२॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी।
सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रचि प्रपंचु भूपहि अपनाई।
राम तिलक हित लगन धराई॥
सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रचि प्रपंचु भूपहि अपनाई।
राम तिलक हित लगन धराई॥
राजा का तुमपर विशेष प्रेम है। कौसल्या सौत के स्वभाव से उसे
देख नहीं सकती। इसीलिये उसने जाल रचकर राजा को अपने वश में करके, [भरतकी
अनुपस्थिति में] राम के राजतिलक के लिये लग्न निश्चय करा लिया॥३॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका।
सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।
आगिलि बात समुझि डरु मोही।
देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।
आगिलि बात समुझि डरु मोही।
देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
राम को तिलक हो, यह कुल (रघुकुल) के उचित ही है और यह बात सभीको सुहाती है; और मुझे तो बहुत ही अच्छी लगती है। परन्तु मुझे तो आगे की बात विचार कर डर लगता है। दैव उलटकर इसका फल उसी (कौसल्या) को दे॥४॥
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