शब्द का अर्थ
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श्रृंग :
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पुं० [सं०√श्रृं (हिंसा करना)+गननुट्] १. पशुओं का सींग। २. चोटी। शिखर। जैसे—पर्वत श्रृंग। ३. कँगूरा। ४. सिंगी नामक बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है। ५. कमल। ६. जीवक नामक ओषधि। ७. सोंठ। ८. अदरक। आदी। ९. अगरू। १॰. कामवासना। ११. चिन्ह। निशान। १२. स्त्री की छाती। स्तन। १३. प्रधानता। प्रमुखत। १४.पानी का फुहारा। १४. दे० ‘ऋप्यश्रृंग’ (ऋषि) वि० तीक्ष्ण। तेज। |
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श्रृंग-घर :
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पुं० [सं० ष० त० स०] पर्वत। पहाड़। |
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श्रृंग-नाद :
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पुं० [सं०] श्रृंगी या सिंगी नाम का बाजा। उदाहरण—सूने गिरि पथ में गुंजारित श्रृंगनाद की ध्वनि चलती।—प्रसाद। |
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श्रृंगकंट :
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पुं० [सं० ब० स०] सिघांड़ा। |
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श्रृंगज :
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पुं० [सं० श्रृंग√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. अगर। अगरू। २. तीर। बाण। वि० श्रृंग से उत्पन्न। |
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श्रृंगनाम :
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पुं० [सं० ब०स०] एक प्रकार का विष। |
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श्रृंगरेवपुर :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] इलाहाबाद जिले में गंगा तट पर स्थित सिंगरौर नामक स्थान जो प्राचीन काल में निषाद राजा गुह की राजधानी थी। |
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श्रृंगला :
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स्त्री० [सं० श्रृंग√ला (लेना)+क] मेढ़ासिंगी। |
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श्रृंगवान् (वत्) :
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वि० [सं० श्रृंग+मतुप्-म=व-नम्-दीर्घ, नलोप] श्रृंगवाला। पुं० पर्वत। पहाड़। |
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श्रृंगवेर :
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पुं० [सं० ब० स०] १. आदी। अदरक। २. सोंठ। ३. दे० ‘श्रृंगवेरपुर’। |
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श्रृंगवेरिका :
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स्त्री० [सं० श्रृंगवेर+कन्-टाप्, इत्व] गोभी। |
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श्रृंगसुख :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] सिंगी या सिंघा नामक बाजा। |
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श्रृंगसोर :
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पुं० [सं० उपमि० स०] सोर नामक मछली। |
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श्रृंगाट :
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पुं० [सं० श्रृंग√अट् (प्राप्त होना)+अच्] १. सिघाड़ा। २. गोखरू। ३. विककंत। कँटाई। ४. चौमुहानी या चौराहा। ५. कामरूप देश का एक पर्वत। |
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श्रृंगाटक :
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पुं० [सं० श्रृंगाट+कन्] १. सिंघाड़ा। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो मांस से बनाया जाता था। ३. तीन चोटियोंवाला पर्वत। ४. चौमुहानी। ५. दरवाजा। ६. वैद्यक में शरीर का एक मर्मस्थान जो मस्तक में उस स्थान पर माना जाता है, जहाँ नाक, कान, आँख और जीभ से संबंध रखनेवाली चारों शिराएँ है। |
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श्रृंगार :
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पुं० [सं० श्रृंग√ऋ (गमन करना आदि)+अण्] १. मूर्ति, शरीर आदि में ऐसी चीजें जोड़ना या लगाना जिनसे उनकी शोभा का सौन्दर्य और भी बढ़ जाय, और वे अधिक आकर्षक तथा प्रिय-दर्शन बन जाएँ। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा तत्त्व या गुण जिससे किसी की शोभा बढती तथा सौन्दर्य निखरता है। जैसे—लज्जा स्त्री का श्रृंगार है। ३. स्त्रियों की वह क्रिया जो वे सुन्दर कपड़े, गहन आदि लगाकर अपने आप को अधिक आकर्षक तथा सुन्दर बनाने के लिए करती है। सजावट। ४. वे सब पदार्थ जिनके योग से किसी चीज की शोभा या सौन्दर्य बढ़ता हो। प्रसाधन-सामग्री। सजावट का सामान। ५. साहित्य का नौ रसों में से एक रस जिसमें प्रेमी और प्रेमिका के पारस्पिक प्रेमपूर्ण व्यवहारों की चर्चा होती है। विशेष-श्रृंगार का मूल शब्दार्थ ही है-ऐसी स्थिति जिसमें काम वासना की प्राप्ति या वृद्धि हो। मनुष्य की काम-वासना से सम्बद्ध बातों से मिलनेवाला आनन्द या सुख ही इस रस का मूल आधार है, और यह सब रसों में प्रधान माना गया है। इसके दो मुख्य विभाग किए गए है। संयोग और वियोग श्रृंगार। ५. उक्त के आधार पर भक्ति का वह पक्ष जिसमें भक्त अपने इष्टदेव को पति तथा अपने आपको उसकी पत्नी मानकर उसकी आराधना करता है। ६. मैथुन। रति। संभोग। ७. सिंधूर जो स्त्रियों के सौभाग्य का मुख्य चिन्ह है। ८. लौंग। ९. अदरक आदी १॰. चूर्ण। ११. काला अगर। १२. सोना। स्वर्ण। |
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श्रृंगार-जन्मा (न्मन्) :
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पुं० [सं० ब० स०] कामदेव। |
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श्रृंगार-सामग्री :
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स्त्री० [ष० त०] अनेक प्रकार के सुगंधित चूर्ण तेल आदि ऐसे पदार्थ जिनका उपयोग कुछ लोग विशेषतः स्त्रियाँ अपने अंग, बालों शरीर की रंगत आदि का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए करती है। अंगराग (कास्मेटिक्स)। |
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श्रृंगारक :
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पुं० [सं० श्रृंगार+कन्] १. प्रेम। प्रीति। २. सिंधूर। ३. लौंग। ४. अदरक। आदी। ५. काला अगर। वि० श्रृंगार करनेवाला। |
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श्रृंगारण :
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पुं० [सं०√श्रृंगार√नी (ढोना)+ड] कामवासना से प्रेरित होने पर किया जानेवाला प्रेम प्रदर्शन। |
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श्रृंगारना :
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स० [हिं० श्रृंगार+हिं० ना (प्रत्यय)] श्रृंगार करना। सजाना। सँवारना। |
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श्रृंगारभूषण :
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पुं० [सं० ष० त] १. सिंधूर। २. हरताल। |
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श्रृंगारयोनि :
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पुं० [सं० ष० त०] कामदेव। |
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श्रृंगारवेग :
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पुं० [सं० ष० त०] वह सुन्दर वेग जिसे धारण करके प्रेमी अपनी प्रेमिका के पास जाता है, अथवा प्रेमिका अपने प्रेमी के पास जाती है। |
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श्रृंगारहाट :
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स्त्री० [सं० श्रृंगार+हिं० हाट] वह हाट या बाजार जिसमें मुख्यतः वेश्याएँ रहती हों। चकला। |
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श्रृंगारिक :
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वि० [सं० श्रृंगार+ठक्—इक] १. श्रृंगार संबंधी। श्रृंगार का। जैसे—श्रृंगारिक सामग्री। २. श्रृंगार रस से संबंध रखनेवाला। जैसे—श्रृंगारिक काव्य। |
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श्रृंगारिणी :
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स्त्री० [सं०] १. श्रृंगार करनेवाली स्त्री० २. वह स्त्री जिसका यथेष्ठ श्रृंगार हुआ हो। ३. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। ४. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में चार रगण (।ऽऽ) होते हैं। उसको ‘स्वाग्विणी’ ‘कामिनी’ ‘मोहन’ ‘लक्षीधरा’ और ‘लक्ष्मीधरा’ भी कहते हैं। |
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श्रृंगारित :
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भू० कृ० [सं० श्रृंगार+हिं० इया (प्रत्यय)] १. वह जो श्रृंगार करने की कला में निपुण हो। २. देव-मूर्तियों का श्रृंगार करनेवाला व्यक्ति। ३. बहुरूपिया। |
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श्रृंगारी :
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वि० [सं० श्रृंगारिन्] १. श्रृंगार संबंधी। श्रृंगार का। २. श्रृंगार रस का प्रेमी। ३. किसी के प्रेमपाश में बँधा हुआ। अनुरक्त। पुं० १. वेश-भूषा और सजावट आदि। २. हाथी। ३. चुन्नी या मानिक नामक रत्न। ४. सुपारी। |
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श्रृंगालिका :
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स्त्री० [सं० श्रृंगाल+कन्-टाप्-इत्व] १. गीदड़ की माता। गीदड़ी। २. लोमड़ी। ३. विदारी कंद। |
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श्रृंगाली :
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स्त्री० [सं० श्रृंगाल-ङीष्] १. ताल-मखाना। २. विदारी कंद। ३. मादा सियार। |
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श्रृंगाह्व :
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पुं० [सं० ब० स०] १. जीवक नामक ओषधि। २. सिंघाड़ा। |
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श्रृंगाह्वा :
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स्त्री० [सं० श्रृंगाह्व-टाप्] श्रृंगाह्व। |
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श्रृंगि :
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पुं० [सं० श्रृंग+इति] सिंघी मछली। वि० श्रृंगी। |
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श्रृंगिक :
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पुं० [सं० श्रृंगी+कन्] सिंगिया नामक विष। |
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श्रृंगिका :
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स्त्री० [सं० श्रृंगिक—टाप्] १. सिंघी नामक बाजा। अतीस। २. काकड़ा-सिंगी। ३. मेढ़ा सिंगी। ४. पीपल। |
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श्रृंगिणी :
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स्त्री० [सं० श्रृंग+इनि-ङीष्] १. गाय। गौ। २. मोतिया। ३. माल-कंगनी। ४. अतीस। |
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श्रृंगी गिरि :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्राचीन पर्वत जिस पर श्रृंगी ऋषि तप किया करते थे। |
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श्रृंगु-पुर :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] ‘श्रृंगवेरपुर’। |
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श्रृंगेरी :
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पुं० [सं०] मैसूर राज्य में स्थित शंकराचार्य के मतानुयायी संन्यासियों का एक प्रसिद्ध मठ। |
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श्रृंगोन्नति :
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स्त्री० [सं० ष० त० स०] ज्योतिष में ग्रहों, नक्षत्रों आदि की एक प्रकार की गति। |
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