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शब्द का अर्थ

य  : वि० [सं०] ईरान, पारस या फारस देश संबंधी। पुं० कुंकुम।
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य  : वि० [सं०] ईरान, पारस या फारस देश संबंधी। पुं० कुंकुम।
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य  : हिं० वर्णमाला का २६वाँ व्यंजन जो भाषा विज्ञान में स्थिति भेद के अनुसार अंतस्थ, स्थान भेद के अनुसार तालव्य यत्न भेद के अनुसार घोष प्राणभेद के अनुसार अल्पप्राण तथा प्रयत्न भेद के अनुसार ईषत्स्पृष्ट है। पुं० [सं०√या (गति)+ड] १. यश। २. योग। ३. यान। सवारी। ४. संयम। ५. यव। जौ। ६. यम। ७. त्याग। ८. प्रकाश। रोशनी। ९. छन्द शास्त्र में यगण का संक्षिप्त रूप।
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यक  : वि० [सं० एक से फा०] एक। विशेष—‘यक’ के यौं के लिए ‘एक’ के यौ०।
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यक-जा  : अव्य० [फा०] [भाव० यक जाई] एक ही स्थान में एकत्र। इकट्ठा।
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यक-जाई  : वि० [फा०] १. एक में मिला हुआ। २. सदा एक ही पक्ष में या एक के साथ रहनेवाला।
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यक-बयक  : अव्य० [फा०]=एकाएक।
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यक-सर  : वि० =एक-सर।
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यकअंगी  : वि० =एकांगी।
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यककलम  : अव्य० [फा०] १. एक ही बार कलम चलाकर। एक ही बार लिखकर। २. पूरी तरह से। बिलकुल ३. अचानक।
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यकता  : वि० [फा०] [भाव० यकताई] अद्वितीय। अनुपम।
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यकताई  : स्त्री० [फा०] १. अद्वितीयता। २. अद्वैत।
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यकसाँ  : वि० [फा०] १. समान। २. समतल। ३. एक ही तरह का। एक-रस।
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यकायक  : अव्य०=एकाएक।
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यकार  : पुं० [सं० य+कार] ‘य’ नामक वर्ण।
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यकीन  : पुं० [अ० यकीन] प्रतीति। विश्वास। एतबार।
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यक़ीनन  : अव्य० [अ०] १. निश्चित रूप से। निःसंदेह। २. अवश्य=जरूर।
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यकीनी  : वि० [अ० यक़ीनी] असंदिग्ध। अव्य०=यकीनन।
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यकृत  : पुं० [सं०√यज्+ऋतिन्, कुत्व] १. पेट में दाहिनी ओर की एक थैली जिसमें पाचन रस रहता है और जिसकी क्रिया से भोजन पचता है। जिगर। तिल्ली। (लीवर) २. एक प्रकार का रोग जिसमें उक्त अंग दूषित होकर बढ़ जाता है। वर्मजिगर। ३. पक्वाशय।
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यकृल्लोम  : पुं० [सं०] आधुनिक कालपी, कौंच, जालौन आदि के आस-पास के प्रदेश का प्राचीन नाम।
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यक्ष  : पुं० [सं० यक्ष (पूजा)+घञ्] १. एक प्रकार की देवयोनि जो कुबेर के गणों में और उनकी निधियों की रक्षक कही गयी है २. कुबेर।
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यक्ष-कर्दम  : पुं० [सं० मध्य० स०] कपूर, अगर, कस्तूरी, कंकोल आदि के योग से बननेवाला एक प्राचीन अंगराग।
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यक्ष-ग्रह  : पुं० [सं० कर्म० स०] पुराणानुसार एक प्रकार का कल्पित ग्रह। २. प्रेत बाधा।
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यक्ष-तरु  : पुं० [मध्य० स०] वट वृक्ष। बड़ का पेड़।
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यक्ष-धूप  : पुं० [मध्य० स०] १. एक प्रकार का धूप। २. देवदारु वृक्ष का गोंद।
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यक्ष-नायक  : पुं० [ष० त०] १. यक्षों के स्वामी, कुबेर। २. जैनों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के अर्हत् के चौथे अनुचर का नाम।
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यक्ष-पति  : पुं० [ष० त०] यक्षों के स्वामी कुबेर।
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यक्ष-पुर  : पुं० [ष० त०] कुबेर की राजधानी, अलकापुरी।
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यक्ष-राज  : पुं० [ष० त०] यक्षों के राजा, कुबेर।
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यक्ष-रात्रि  : स्त्री० [ष० त०] दीवाली (उत्सव)।
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यक्ष-लोक  : पुं० [ष० त०] वह लोक जिसमें यक्षों का निवास माना जाता है।
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यक्ष-वित्त  : वि० [ब० स०] जो धनवान् तो हो पर कुछ भी व्यय न करता हो। कंजूस।
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यक्ष-स्थल  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
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यक्षण  : पुं० [सं० यक्ष+ल्युट-अन] १. पूजन करना। २. भक्षण करना। खाना।
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यक्षाधिप, यक्षाधिपति  : पुं० [यक्ष-अधिप, यक्ष-अधिपति]=यक्षपति।
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यक्षावास  : पुं० [सं० यक्ष-आवास] वट-वृक्ष।
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यक्षिणी  : स्त्री० [सं० यक्ष+इनि—ङीष्] १. यक्ष जाति की पत्नी। २. कुबेर की पत्नी। ३. दुर्गा की एक अनुचरी।
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यक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० यक्ष+इनि] यक्षों की आराधना करनेवाला। स्त्री०=यक्षिणी।
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यक्षु  : पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ करता हो। २. प्राचीन वक्षु (आधुनिक बदख्शां) का पुराना नाम। ३. उक्त जनपद का निवासी।
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यक्षेद्र  : पुं० [यक्ष-इंद्र, ष० त०] यक्षों के स्वामी, कुबेर।
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यक्षेश्वर  : पुं० [यक्ष-ईश्वर, ष० त०] यक्षों के स्वामी, कुबेर।
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यक्ष्मग्रह  : पुं० [सं० उपमित स०] यक्ष्मा (रोग)।
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यक्ष्मध्नी  : स्त्री० [सं० यक्ष्मन्√हन् (हिंसा)+टक्-ङीष्] अँगूर। दाख।
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यक्ष्मा (क्ष्मन्)  : स्त्री० [सं०√यक्ष+मनिन्] क्षयी नामक रोग। दे० ‘क्षयी’।
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यक्ष्मी (क्ष्मिन्)  : वि० [सं० यक्ष्मन्+इनि] यक्ष्मा से ग्रस्त।
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यख  : वि० [फा० यख] बहुत अधिक ठंढा। पुं० बरफ। हिम।
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यखनी  : स्त्री० [फा० यख़्नी] १. आवश्यकता के लिए एकत्र किया हुआ अन्न। २. उबले हुए मांस का रसा जो बहुत अधिक पौष्टिक होता है। ३. तरकारी आदि का रसा। शोरबा।
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यगण  : पुं० [सं० पं० त०] छंदःशास्त्र में आठ गणों में से एक। यह एक लघु और दो गुरु (।ऽऽ) मात्राओं का होता है। इसका संक्षिप्त रूप ‘य’ है।
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यगानगी  : स्त्री० [फा०] १. यगाना होने की अवस्था या भाव। आत्मीयता। २. समीपता। ३. अपने वर्ग में अकेले और अनुपम होने की अवस्था या भाव।
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यगानत  : स्त्री०=यगानगी।
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यगाना  : वि० [फा० यगानः] १. जो बेगाना न हो। आत्मीय। २. अपने ही कुल या वंश का दूसरा। ३. अकेला। एकाकी। ४. अनुपम। बेजोड़। पुं० १. नातेदार। भाई-बंद। २. परम आत्मीय या घनिष्ट मित्र।
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यगूर  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जिसकी लकड़ी का रंग अन्दर से काला निकलता है। सेसी। २. उक्त वृक्ष की लकड़ी।
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यग्ग  : पुं० =यज्ञ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यच्छ  : पुं० =यक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यच्छिनी  : स्त्री०=यक्षिणी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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यज-मानी  : स्त्री० [सं० यजमान+हिं०+ई (प्रत्यय)] १. यजमान होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. यजमानों के यहाँ कर्मकाँड आदि कराने तथा उनसे दान-दक्षिणा आदि लेने की ब्राह्मणों की वृत्ति। ३. वह स्थान जहाँ किसी विशेष पुरोहित के यजमान रहते हों।
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यजत  : पुं० [सं० यजत्] १. ऋत्विका। २. ऋग्वेद के एक मंत्र के द्रष्टा एक ऋषि।
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यजति  : पुं० [सं०√यज् (पूजा)+अति]=यज्ञ।
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यजत्र  : पुं० [सं०√यज्+अक्त्रन्] १. अग्निहोत्री। २. याज्ञिक।
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यजन  : पुं० [सं०√यज्+ल्युट-अन] १. वेद-विधि के अनुसार होता और ऋत्विक आदि के द्वारा काम्य और नैमित्तिक कर्मों का विधिपूर्वक अनुष्ठान करना। यज्ञ करना। २. यज्ञ भूमि। यज्ञ-स्थल।
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यजन-कर्ता (त्)  : वि० [सं० ष० त०] यज्ञ या हवन करनेवाला।
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यजमान  : पुं० [सं०√यज्+शानच्, मुक्-आगम] १. यज्ञ करनेवाला व्यक्ति। २. वह व्यक्ति जो किसी ब्राह्मण से यज्ञ-कर्म करवाता हो और उसे दक्षिणा या पुरस्कार देता हो। ३. ब्राह्मण की दृष्टि से वह व्यक्ति जिसके धार्मिक कृत्य वह स्वयं करता हो। ४. वह जो किसी ब्राह्मण को भरण-पोषण के लिए अन्न-धन देता हो। ५. शिव की एक मूर्ति।
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यजमान-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] वह लोक जिसमें यज्ञ करके मरने वालों का निवास माना जाता है।
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यजमानता  : स्त्री० [सं० यजमान+तल्-टाप्] यजमान होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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यजि  : पुं० [सं० यजि+इनि] वह जो यज्ञ करता हो। यज्ञ करनेवाला।
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यज़ीद  : पुं० [अ०] उम्मिया खानदान का दूसरा खलीफा जिसने करबला का वह युद्ध कराया था जिसमें इमाम हुसेन शहीद हुए थे।
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यजुः (स्)  : पुं० [सं०√यज्+उसि] १. बलिदान आदि के समय की जानेवाली प्रार्थना और तत्सम्बन्धी विशिष्ट कृत्य। २. बलिदान और यज्ञ करने के समय कहे जानेवाले गद्य मंत्र जिनका पाठ अध्वयु करता था और जिनका संग्रह यजुर्वेद में हैं। ३. दे० ‘यजुर्वेद’।
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यजुर्विद  : पुं० [सं० यजुस√विद् (जानना)+क्विप्, उप० स०] यजुर्वेद का ज्ञाता और पंडित।
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यजुर्वेद  : पुं० [सं० ष० त० या कर्म० स०] भारतीय आर्यों के चार प्रसिद्ध वेदों में से दूसरा वेद जिसमें यज्ञ-कर्मों का विस्तृत विवेचन और यज्ञ संबधी गद्य मंत्रों का संग्रह है, और इसीलिए जो वेदत्रयी का आधार माना जाता है। विशेष—यह वेद दो शाखाओं में विभक्त है—(क) तैतिरीय या कृष्ण यजुर्वेद और (ख) वाजसनेयि या शुक्ल यजुर्वेद। पुराणों में वेद के अधिपति शुक्र और वक्ता वैशम्पायन कहे गये हैं।
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यजुर्वेदी (दिन्)  : पुं० [सं० यजुर्वेद+इनि] १. वह जो यजुर्वेद का ज्ञाता हो। २. यजुर्वेद के विधानों का अनुयायी। वि० यजुर्वेद-संबंधी।
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यजुष्पति  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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यजुष्य  : वि० [सं० यजृस्-यत्] यज्ञ-संबंधी। यज्ञ का।
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यज्ञ  : पुं० [सं० यज्ञ+नङ्] १. बलिदान और उससे संबंद रखनेवाले धार्मिक कृत्य। २. उपासना, पूजा आदि से संबंध रखनेवाले कोई धार्मिक कृत्य। जैसे—पंच महायज्ञ। ३. वैदिक काल में प्राचीन भारतीय आर्यों का एक प्रसिद्ध धार्मिक कृत्य जो कुछ विशिष्ट उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अथवा कुछ विशिष्ट अवसरों पर होता था, और जिसमें मुख्य रूप से हवन होता था, और मांगलिक प्रार्थनाएँ करके आचार्य से (जो उन दिनों ब्राह्मण कहलाता था) आशीर्वाद प्राप्त किये जाते थे। ऋतु। मख। याग। विशेष—आगे चलकर इन यज्ञों के सैकड़ों भेद और रूप हो गये थे, जिनके साथ अनेक प्रकार के विस्तृत कर्मकांडीय कृत्य भी संबंध हो गये थे इनके लिए बहुत बड़े-बड़े हवनकंड बनने लगे थे, और ये कई कई दिनों या महीने तक होने लगे थे। धनवान् या राजा-महाराजा जो बड़े-बड़े यज्ञ कराते थे, उनमें चार प्रधान ऋत्विज् होते थे। यथा—(क) होता जो प्रार्थनाएँ करके यज्ञ में भाग लेने के लिए देवताओं को आहूत करता था। (ख) उदगाता जो यज्ञ-कुंड में सोम की आहुति देने के समय साम-गान करता था। (ग) अध्वर्यु जो वैदिक मंत्रों का पाठ करता हुआ यज्ञ संबंधी अन्याय मुख्य कृत्य करता था और (घ) ब्रह्मा जो सबसे बड़ा पुरोहित होता था और जो सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करता था। यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी होती थी। पर आगे चलकर जब लोग बलिदानों की अधिकता से घबरा गये, तब इनका प्रचार धीरे-धीरे कम होता गया। आर्यों की ईरानी शाखा में इसी यज्ञ का कुछ परिवर्तन रूप ‘यश्न’ के नाम से प्रचलित था जिससे आज-कल का जश्न (या जश्न) शब्द बना है। ३. आधुनिक ग्राम्य समाज में कोई बड़ा धार्मिक कृत्य। जैसे—ब्राह्मण भोजन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि। ४. किसी प्रकार का शुभ अनुष्ठान या काम (यौं० के अन्त में)। जैसे—वेदयज्ञ=वेदपाठ। ५. विष्णु का एक नाम।
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यज्ञ-कर्ता  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ करनेवाला। याचक। यजमान।
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यज्ञ-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. यज्ञ करने का समय। २. यज्ञ करने के लिए उपयुक्त या निर्दिष्ट समय। ३. पूर्णमासी।
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यज्ञ-कीलक  : पुं० [सं० ष० त०] वह खूँटा जिससे बलि-पशु बाँधा जाता था।
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यज्ञ-कुंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. हवन करने की वेदी या कुंड।
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यज्ञ-कोप  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जो यज्ञ से द्वेष करता हो। २. रावण की सेना का एक राक्षस।
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यज्ञ-क्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. यज्ञ के काम। २. कर्मकांड।
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यज्ञ-त्राता (त्)  : वि० [सं० ष० त०] यज्ञ की रक्षा करनेवाला। पुं० विष्णु।
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यज्ञ-दत्तक  : पुं० [सं० तृ० त०+कन्] यज्ञ के फल के रूप में प्राप्त होनेवाला पुत्र।
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यज्ञ-द्रुह्  : पुं० [सं० यज्ञ√द्रुह+क्विप्, उप० स०] राक्षस।
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यज्ञ-धर  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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यज्ञ-नेमि  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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यज्ञ-पति  : पुं० [ष० त०] १. विष्णु। २. यज्ञ करनेवाला। यजमान।
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यज्ञ-पत्नी  : स्त्री० [ष० त०] यज्ञ की स्त्री, दक्षिणा।
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यज्ञ-पशु  : पुं० [च०त०] १. वह पशु जो यज्ञ में बलि दिया जाने को हो। २. घोड़ा। ३. बकरा।
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यज्ञ-पात्र  : पुं० [ष० त०] काठ आदि के वे पात्र जिनसे हवन आदि किया जाता है।
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यज्ञ-पुरुष  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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यज्ञ-फलद  : पुं० [यद-फल, ष० त०√दा (देना)+क] यज्ञ का फल देनेवाला। विष्णु।
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यज्ञ-भाग  : पुं० [ष० त०] १. यज्ञ का अंश, जो देवताओं को दिया जाता है। २. इन्द्र आदि के वे देवता जिन्हें उक्त अंश या भाग मिलता है।
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यज्ञ-भाजन  : पुं० [ष० त०] यज्ञपात्र दे०।
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यज्ञ-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] यज्ञ करने के लिए उद्दिष्ट या नियत स्थान।
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यज्ञ-भूषण  : पुं० [ष० त०] कुश।
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यज्ञ-भोक्ता (क्तृ)  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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यज्ञ-मंडप  : पुं० [ष० त०] यज्ञ करने के लिए बनाया हुआ मंडप।
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यज्ञ-मंडल  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जो यज्ञ करने के लिए घेरा गया हो।
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यज्ञ-मंदिर  : पुं० [ष० त०] यज्ञशाला।
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यज्ञ-यूप  : पुं० [ष० त०] दे० ‘यज्ञ-कीलक’।
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यज्ञ-योग्य  : पुं० [स० त०] गूलर का पेड़।
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यज्ञ-रस  : पुं० [ष० त०] सोम।
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यज्ञ-राज  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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यज्ञ-वराह  : पुं० [मध्य० स०] विष्णु।
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यज्ञ-वल्क  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि जो प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य ऋषि के पिता थे।
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यज्ञ-वल्ली  : स्त्री० [ष० त०] सोमलता।
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यज्ञ-वाह  : पुं० [सं० यज्ञ√वह्+अण्, उप० स०] १. यज्ञ करनेवाला। याज्ञिक। २. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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यज्ञ-वाहन  : पुं० [ष० त०] १. ब्राह्मण। २. विष्णु। ३. शिव। ४. यज्ञवाही। याज्ञिक।
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यज्ञ-वीर्य  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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यज्ञ-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] १. वट-वृक्ष। २. विकंकत।
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यज्ञ-शत्रु  : पुं० [ष० त०] राक्षस।
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यज्ञ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] यज्ञ करने का स्थान। यज्ञमंडप।
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यज्ञ-शास्त्र  : पुं० [मध्य० स०] वह शास्त्र जिसमें यज्ञों और उनके कृत्यों आदि का विवेचन हो। मीमांसा।
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यज्ञ-शील  : पुं० [ब० स०] १. वह जो यज्ञ करता हो। २. ब्राह्मण।
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यज्ञ-शूकर  : पुं० =यज्ञ-वराह (विष्णु)।
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यज्ञ-सदन  : पुं० [ष० त०]=यज्ञशाला।
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यज्ञ-संस्तर  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ यज्ञ-मंडप बनाया जाय। यज्ञभूमि। यज्ञ-स्थान।
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यज्ञ-साधन  : पुं० [यज्ञ√साध्+णिच्+ल्यु-अन, उप० स०] १. वह जो यज्ञ की रक्षा करता हो। २. विष्णु।
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यज्ञ-सार  : पुं० [स० त०] गूलर का वृक्ष।
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यज्ञ-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] जनेऊ। यज्ञोपवीत।
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यज्ञ-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह खंभा जिसमें यज्ञ के समय बलि देने के लिए पशु बाँधा जाता था।
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यज्ञ-स्थल  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ यज्ञ होता हो या हो रहा हो।
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यज्ञ-स्थाणु  : पुं० =यज्ञ-स्तंभ।
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यज्ञ-हृदय  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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यज्ञ-होता (तृ)  : पुं० [ष० त०] १. यज्ञ में देवताओं का आवाहन करनेवाला, ऋत्विज। होता। २. मनु के एक पुत्र का नाम।
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यज्ञकर्म (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ-संबंधी सब प्रकार के काम या कृत्य।
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यज्ञकारी (रिन्)  : पुं० [सं० यज्ञ√कृ (करना)+णिनि, उप०, स०] यज्ञ करनेवाला।
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यज्ञमय  : पुं० [सं० यज्ञ+मयट्] विष्णु।
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यज्ञवाही (हिन्)  : वि० [सं० यज्ञ√वह्+णिनि, उप० स०] यज्ञ का सब काम करनेवाला। पुं० याज्ञिक।
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यज्ञसेन  : पुं० [ब० स०] १. विष्णु। २. द्रुपद देश के राजा और द्रौपदी के पिता।
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यज्ञांग  : पुं० [यज्ञ-अंग, ष० त०] १. यज्ञ की सामग्री। २. विष्णु। ३. गूलर। ४. खदिर। खैर।
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यज्ञांगा  : स्त्री० [यक्ष√अंग+अण्-टाप्] समोलता।
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यज्ञागार  : पुं० [यज्ञ-आगार, ष० त०] यज्ञ-स्थान। यज्ञशाला।
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यज्ञाग्नि  : स्त्री० [यज्ञ-अग्नि, ष० त०] यज्ञ की अग्नि जो परम पवित्र मानी जाती है।
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यज्ञात्मा (त्मन्)  : पुं० [यज्ञ-आत्मन्, ष० त०] विष्णु।
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यज्ञाधिपति  : पुं० [यज्ञ-अधिपति, ष० त०] यज्ञ के स्वामी, विष्णु।
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यज्ञारि  : पुं० [यज्ञ-अरि, ष० त०] १. शिव। २. राक्षस।
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यज्ञिक  : पुं० [सं० यज्ञदत्त+ठच्-इक, दत्त शब्द का लोप] १. यज्ञ के प्रसाद स्वरूप प्राप्त पुत्र। २. पलास का पेड़।
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यज्ञीय  : वि० [सं० यज्ञ+छ-ईय] १. यज्ञ-सम्बन्धी। यक्ष का। २. यज्ञ में होनेवाला। पुं० गुलर का पेड़।
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यज्ञेश्वर  : पुं० [यज्ञ-ईश्वर, ष० त०] विष्णु।
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यज्ञोपवीत  : पुं० [यज्ञ-उपवीत, मध्य० स०] १. हिन्दुओं विशेषतः ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों का एक संस्कार जिसमें बालक को पहले-पहल तीन तारोंवाला मण्डलाकार सूत पहनाया जाता है। उपनयन। जनेऊ। व्रत-बन्ध। २. तीन तागों या तारोंवाला वह सूत्र जो उक्त अवसर पर बालक को पहले-पहल पहनाया जाता है। जनेऊ। यज्ञसूत्र। ३. बालक को उक्त सूत्र पहनाने के समय होनेवाला उत्सव या कृत्य।
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यज्यु  : पुं० [सं०√यज् (पूजा आदि)+युच्] १. यजुर्वेदी ब्राह्मण। २. यजमान। वि० १. यज्ञ करने-वाला। २. पवित्र। पुनीत।
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यज्वा (ज्वन्)  : पुं० [सं० यज्+ङवनिप्] वैदिक ऋचाओं के अनुसार यज्ञ करनेवाला।
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यडर  : पुं० [देश] एक प्रकार का पक्षी।
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यत  : वि० [सं० यम् (नियमन)+क्त] १. नियंत्रित। २. नियमित। ३. जिसका दमन हुआ हो। ४. रोका हुआ।
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यंत (ा)  : पुं० [सं० यंतृ] १. सारथी। (डि०) २. चालक। वि० =निर्यता।
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यत-व्रत  : वि० [सं० ब० स०] संयम से रहनेवाला संयमी।
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यतन  : पुं० [सं० यत् (प्रयत्न)+ल्युट-अन] [वि० यतनीय] यत्न करने की क्रिया या भाव। पुं० =यत्न।
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यतनीय  : वि० [सं०√यत्+अनीयर] जिसके सम्बन्ध में यत्न करना आवश्यक हो अथवा यत्न किया जाने को हो।
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यतमान  : वि० [सं०√यत्+शानच्] १. यत्न करता हुआ। कोशिश में लगा हुआ। २. जो अनुचित विषयों का त्याग करके शुभ कार्यों की ओर प्रवृत्त होने का प्रयत्न करता हो।
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यतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० यत्-आत्मन्, ब० स०] यत-व्रत। संयमी।
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यंति  : स्त्री० [सं०√यम् (निवृत्ति)+क्तिच्] दमन।
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यति  : पुं० [सं०√यत्+इन्] १. वह व्यक्ति जिसने अपनी इन्द्रियों तथा मनोविकारों को वश में कर लिया हो। फलतः जो संन्यास धारण कर सांसारिक प्रपंचों से दूर रहता हो तथा ईश्वर का भजन करता हो। २. ब्रह्मचारी। ३. विष्णु। ४. भागवत के अनुसार ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम। ५. नहुष का एक पुत्र। ६. छप्पय छन्द के ६६वें भेद का नाम। स्त्री० [सं० यम्+क्तिन्+ङीष्] १. रोक। रुकावट। २. मनोविकार। ३. सन्धि। ४. विधवा। स्त्री। ५. शालक राग का एक भेद। ६. मृदंग का एक प्रकार का प्रबन्ध या बोल। ७. छन्द शास्त्र के अनुसार कविता या पद्य के चरणों में वह स्थान जहाँ पड़ते समय उनकी लय ठीक रखने के लिए थोड़ा-सा विश्राम होता है। विश्राम। विराम।
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यति-चांद्रायण  : पुं० [सं० ष० त०] यतियों के लिए विहित एक प्रकार का चांद्रायण व्रत।
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यति-धर्म  : पुं० [सं० ष० त०] सन्यास।
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यति-भंग  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० यति-भ्रष्ट] काव्य का लय सम्बन्धी एक दोष जो उस समय गाया जाता है। जब पढ़ते समय किसी उद्दिष्ट या नियत स्थान पर विश्राम नहीं होता, बल्कि उसके कुछ पहले या पीछे होता है।
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यति-भ्रष्ट  : वि० [सं० ब० स०] ऐसा चरण या छन्द जिसमें यति अपने उपयुक्त स्थान पर न पड़कर कुछ आगे या पीछे पड़ी हो। यति भंग दोष से युक्त। (छंद)।
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यतित्व  : पुं० [सं० यति+त्व०] यति होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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यतिनी  : स्त्री० [सं० यत+इनि+ङीष्] १. संन्यासिनी। २. विधवा।
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यती (तिन्)  : पुं० [सं० यत्+इनि] [स्त्री० यतिनी] १. यति। संन्यासी। २. जितेंद्रिय। ३. स्वेताम्बर जैन साधु।
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यतीम  : पुं० [अ०] १. ऐसा बालक जिसके माता पिता मर गये हों। अनाथ। २. ऐसा बड़ा मोती जो सीप में एक ही होता हो। ३. अनुपम और बहूमूल्य रत्न।
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यतीम-खाना  : पुं० [अ० यतीम+फा० खानः] वह स्थान जहाँ यतीम अर्थात अनाथ बालकों का लालन-पोषण होता है। अनाथालय।
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यतीमी  : स्त्री० [अ०] यतीम होने की अवस्था या भाव। अनाथता।
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यतुका  : पुं० [सं० यच्+उक्+टाप्] चकवँड़ का पौधा। चक्रमर्द।
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यतेंद्रिय  : वि० [सं० यत-इंद्रिय, ब० स०] जितेंद्रिय।
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यत्  : सर्व० [सं०√यज्+आदि, डित्, डित्त्वाट्टिलोप] जो।
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यत्किंचित  : अव्य० [सं० द्वन्द स०] थोड़ा सा। जरा सा। कुछ।
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यत्न  : पुं० [सं० यत+नङ] १. किसी काम या बात के लिए किया जानेवाला उद्योग। कोशिश। प्रयत्न। २. किसी चीज को अच्छी तरह और सुरक्षित रखने की क्रिया या भाव। ३. उपाय। युक्ति। तदबीर। ४. रोग आदि दूर करने के लिए किया जानेवाला इलाज या उपचार। चिकित्सा। ५. कठिनता। दिक्कत। ६. न्यायशास्त्र में रूप आदि २४ गुणों के अन्तर्गत एक गुण जो तीन प्रकार का कहा गया है। यथा—प्रवृत्ति, निवृत्ति और जीवन योनि। ७. साहित्य में रूपक की पाँच अवस्थाओं में से दूसरी अवस्था, जिसमें फल-प्राप्ति के लिए अच्छी तरह और जल्दी कुछ काम किये जाते हैं, और विघ्न-बाधाओं की चिंता छोड़ दी जाती है। ८. व्याकरण में स्वरों तथा व्यंजनों का उच्चारण करते समय किया जानेवाला प्रयत्न जो अघोष और घोष दो प्रकार का होता है।
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यत्नवान् (वत्)  : वि० [सं० यत्न+मतुप्] [स्त्री० यत्नवती] यत्न में लगा हुआ यत्न करनेवाला।
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यंत्र  : पुं० [सं०√यम् (निवृत्ति)+अच्] १. वह चीज बात या शक्ति जो किसी दूसरी चीज या बात को अच्छी तरह बाँध या रोककर नियंत्रित संघटित तथा सम्बन्द्ध रखती हो। जैसे—डोरी, ताला, फीता, बेड़ी, हथकड़ी आदि। २. प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा में काम आनेवाला ऐसा उपकरण जिसमें धार न हो अथवा नाम मात्र की भुथरी धार हो। जैसे—नस पकड़ने की सँड़सी, हडडी तोड़ने की हथौड़ी आदि। (शस्त्र से भिन्न) ३. विशेष प्रकार से बना हुआ कोई ऐसा उपकरण जो किसी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए अथवा कोई चीज बनाने के लिए काम आता हो। औजार। ४. आजकल लोहे आदि का बना हुआ वह उपकरण जिसमें अनेक प्रकार के कल-पुरजे हों और जो बहुत सी चीजें बनाने के लिए एक साथ विशेष युक्ति से काम में लाया जाता हो। कल। (मशीन) जैसे—कपडे बुनने या कुएँ से पानी निकालने का यंत्र, छापे का यंत्र आदि। ५. किसी प्रकार का बाजा। वाद्य। ६. बाजों के द्वारा होनेवाला संगीत। ७. बीन या वीणा नाम का बाजा। ८. तांत्रिक क्षेत्रों में रेखाओं आदि के द्वारा कोष्ठकों आदि के रूप में बनी हुई वे विशिष्ट आकृतियाँ जिनमें कुछ विशिष्ट शक्तियों का निवास माना जाता है और जिनका उपयोग जादू-टोने के लिए कुछ विशिष्ट प्रभाव या फल उत्पन्न करने के लिए होता है। ९. उक्त प्रकार के कोष्ठकों का वह रूप जो नाश, अनिष्ट आदि से रक्षा के लिए धारण किया जाता है। जंतर। जैसे—(क) तिजारी या चौथिया ज्वर दूर करने का यंत्र, किसी को वश में करने का यंत्र। पद—यंत्र-मंत्र (देखें)।
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यत्र  : अव्य० [सं० यद्+यत्] १. जिस जगह। जहाँ। २. जिस समय। जब। ३. जब यह बात है तो। इस कारण से। यतः। पुं० =सत्र (यज्ञ)।
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यंत्र-करंडिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] बाजीगरों का पिटारा जिसकी सहायता से वे अनेक प्रकार के खेल करते हैं।
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यंत्र-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन भारत में वह स्थान जहाँ अपराधियों को बाँधकर रखा जाता था तथा उन्हें यातनाएँ दी जाती थीं। २. वेधशाला। ३, यंत्रशाला।
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यत्र-तत्र  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. जहाँ-तहाँ। इधर-उधर। २. कुछ यहाँ कुछ वहाँ। ३. यहाँ-वहाँ सभी जगह। अनेक स्थानों पर। जगह-जगह।
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यंत्र-नाल  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह नल जिसकी सहायता से कुएँ से जल निकाला जाता है।
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यंत्र-पेषणी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] चक्की।
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यंत्र-मंत्र  : पुं० [सं० द्व० स०] ऐसी क्रिया जिसमें तंत्र-शास्त्र और तत्-सम्बन्धी मंत्रों आदि का प्रयोग होता है। जादू-टोना।
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यंत्र-मातृका  : स्त्री० [सं० ष० त०] चौंसठ कलाओं में से एक जिसके अन्तर्गत अनेक प्रकार के यंत्र या कलें आदि बनाने और उनसे काम लेने की विद्याएँ आती हैं।
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यंत्र-मानव  : पुं० [सं०] प्रायः मनुष्य के आकार का वह यंत्र जो कई तरह के काम बहुत कुछ आदमियों की तरह करता है।
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यंत्र-राज  : पुं० [सं० ष० त०] ज्योतिष में एक प्रकार का यंत्र जिसमें ग्रहों और तारों की गति जानी जाती है।
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यंत्र-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०]=यंत्रशास्त्र।
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यंत्र-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०]=यंत्र-विज्ञान।
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यंत्र-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ चीजें बनाने के यंत्र आदि हों। यंत्रों की सहायता से जहाँ उत्पादन होता हो। यंत्रगृह। २. वेधशाला।
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यंत्र-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह कला या विज्ञान जिसमें अनेक प्रकार के यंत्र आदि बनाने और चलाने तथा अनेक प्रकार की संरचनाएँ प्रस्तुत करने का विवेचन होता है (इंजीनियरिंग) विशेष— इसकी बहुत सी शाखाएँ हैं जैसे—वस्तु-निर्माण, यंत्र-निर्माण, सिंचाई, नदी-नियंत्रण, धात्विक संरचना आदि।
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यंत्र-समुच्चय  : पुं० [ष० त०] संयंत्र (दे०)
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यंत्र-सूत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह सूत्र या तागा जिसकी सहायता से कठपुतली नचाई जाती है।
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यंत्रक  : पुं० [सं०√यन्त्र+कन्] १. घाव पर बाँधी जानेवाली पट्टी। (सुश्रुत) २. दे० ‘यंत्रकार’। वि० १. यंत्रण करनेवाला। २. वश में करनेवाला। ३. वशीकरण करनेवाला।
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यंत्रकार  : पुं० [सं० यंत्र√कृ (करना)+अण्] वह जो यंत्रों का परिचालन करता हो तथा यंत्र विद्या में दक्ष हो। (मैकेनिक)
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यंत्रकारी  : पुं० [हिं०] १. यंत्रकार का काम या पद। २. वह प्रक्रिया जिसके अनुसार किसी यंत्र या कल के पुरजे अपना काम करते और एक-दूसरे को चलाते हैं। (मैकेनिज़्म)
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यंत्रण  : पुं० [सं०√यंत्र+ल्युट-अन] १. बाँधकर तथा रोक में रखने की क्रिया। २. नियम, विधान आदि के द्वारा नियंत्रित रखना। ३. यंत्र आदि की सहायता से दबाने, पेरने आदि की क्रिया। ४. दे० ‘यंत्रणा’।
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यंत्रणा  : स्त्री० [सं०√यंत्र+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. दे० ‘यंत्रण’। २. बहुत अधिक तीव्र कष्ट या पीड़ा।
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यंत्रविद्  : पुं० [सं० यंत्र√विद् (जानना)+क्विप्] अभियंता। (दे०)
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यंत्रापीड़  : पुं० [यंत्र-आपीड़ा, ब० स०] वैद्यक में एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिससे शरीर में बहुत अधिक पीड़ा होती है और रोगी का लहू पीले रंग का हो जाता है।
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यंत्रालय  : पुं० [यंत्र-आलय, ष० त०] १. वह स्थान जहाँ यंत्रों अर्थात् उपकरणों, औजारों आदि का निर्माण होता है। २. वह स्थान जहाँ कलें या यंत्रादि हों। ३. छापाखाना। मुद्रणालय। प्रेस।
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यंत्रिका  : स्त्री० [सं०√यंत्र+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] १. छोटा यंत्र। २. ताला। ३. पत्नी की छोटी बहन। छोटी साली। ४. छोटा ताला।
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यंत्रित  : भू० कृ० [सं०√यंत्र+णिच्+क्त] १. बाँध तथा रोककर रखा हुआ। २. नियमों आदि से जकड़ा हुआ। ३. जिस पर ताला लगाया गया हो। ४. जिसे यंत्रणा मिली हो।
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यंत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० यंत्र+इनि] १. यंत्र-मंत्र करनेवाला। तांत्रिक। २. बाजा बजानेवाला। ३. नियंत्रण करनेवाला।
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यत्रु  : स्त्री० [सं० जत्रु] छाती के ऊपर और गले के नीचे मंडलाकार हड्डी। हँसली।
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यथा  : अव्य० [सं० यद (प्रकार)+थाल्] एक अव्यय जिसका प्रयोग नीचे लिखे आशय या भाव प्रकट करने के लिए होता है—(क) जिस प्रकार या जैसे कहा या बतलाया गया हो, उस प्रकार या वैसे। जैसे—यथा—विधि। (ख) जिसका उल्लेख हुआ हो, उसके अनुसार। जैसे—यथा—मति। (ग) उदाहरण के रूप में। जैसे—यथा विश्वामित्र। (घ) नीचे लिखे अनुसार या निम्न क्रम से। जैसे—यजुर्वेद की दो शाखाएँ है, यथा—कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। विशेष—कुछ अवस्थाओं में इसका साथ नित्य सम्बन्धी ‘तथा’ आता है। जैसे—यथा नाम तथा गुण।
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यथा-तथ  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जैसा हो, वैसा। २. ऐसा वैसा, निकम्मा रद्दी या वाहियात।
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यथा-तथ-शैली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] काव्य, चित्रकला, मूर्तिकला आदि में वह शैली जिसमें हर एक चीज ज्यों की त्यों और अपने मूल रूप में अंकित या चित्रित की अथवा गढ़ी जाती है।
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यथा-तथा  : अव्य० [सं० द्व० स०] जैसे का तैसे।
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यथा-तथ्य  : वि० [सं० अव्य० स०] जैसे का तैसा। ज्यों का त्यों। हू-बहू।
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यथा-मति  : अव्य० [सं० अव्य० स०] मति अर्थात् बुद्धि के अनुसार।
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यथा-मूल्य  : अव्य० [सं०] एक पद जिसका प्रयोग आयात और निर्यात पर लगाने वाले करों के सम्बन्ध में उस दशा में होता है जब कर-निर्धारण उन वस्तुओं के मूल्य के आधार पर होता है (एडवैलोरम)।
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यथा-योग्य  : अव्य० [सं० अव्य० स०] जैसा चाहिए, ठीक वैसा। उपयुक्त। यथोचित्त। मुनासिब। पुं० पत्र-व्यवहार में इस आशय का सूचक पद कि बड़ों को हमारा नमस्कार, बराबरवालों को प्रेमपूर्ण अभिवादन और छोटों को आशीर्वाद।
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यथा-शक्ति  : अव्य० [सं० अव्य० स०] शक्ति के अनुसार। भरसक।
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यथा-शक्य  : अव्य० [सं० अव्य० स०] शक्ति के अनुसार। भरसक।
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यथा-शास्त्र  : अव्य० [सं० अव्य० स०] जो कुछ शास्त्रों में बतलाया गया हो, उसी के अनुसार। शास्त्रों के अनुकूल या मुताबिक।
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यथा-संभव  : अव्य, [सं० अव्य० स०] जहाँ तक या जितना संभव हो।
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यथा-समय  : अव्य० [सं० अव्य० स०] १. ठीक या नियत समय आने पर । २. जब जैसा समय हो,तब उसके अनुसार।
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यथा-साध्य  : अव्य० [सं० अव्य० स०] यथाशक्ति। भरसक।
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यथा-सूत्र  : अव्य० [सं० अव्य० स०] जहाँ से सूत्र चलता हो, वहाँ से। प्रारम्भ से। शुरू से।
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यथा-स्थान  : अव्य० [सं० अव्य० स०] ठीक जगह पर। अपने उचित या उपयुक्त स्थान पर। ठीक जगह पर।
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यथा-स्थित  : वि० [सं०] [भाव० यथास्थिति] जिस रूप या स्थिति में अब तक चला आ रहा हो, और अब तक चल रहा हो।
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यथा-स्थिति  : स्त्री० दे० यथापूर्व स्थिति। अव्य० [सं० अव्य० स०] जब जैसी स्थिति हो तब उसी के अनुसार।
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यथा—कृत  : वि० [सं० सुप्सुपा० स०] जैसा आरम्भ में बना हो, वैसा ही। जैसे—यथाकृत वस्त्र=अर्थात् बिना सीया हुआ कपड़ा।
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यथा—क्रम  : अव्य० [सं० अव्य० स०] ठीक और निश्चित क्रम से। क्रमानुसार।
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यथा—नियम  : अव्य० [सं० अव्य० स०] नियमानुसार
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यथाकाम  : पुं० [सं० अव्य० स०] १. मनमाना आचरण। २. यथा—कामी।
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यथाकामी (मिन्)  : पुं० [सं० यथा√कम् (चाहना)+णिनि] मनमाना आचरण करनेवाला। स्वेच्छाचारी।
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यथाकारी (रिन्)  : पुं० [सं० यथा√कृ(करना)+णिनि] मनमाना काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी।
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यथाख्यात-चरित्र  : पुं० [सं० यथा—ख्यात, अव्य० स० यथाख्यात-चरित्र, कर्म० स०] ऐसे साधुओं का चरित्र जिन्होंने सब कषायों (काम, क्रोधादि पातकों) का क्षय कर दिया हो। (जैन)।
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यथाजात  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] जो जब भी वैसा ही (अज्ञानी) हो, जैसा जन्म के समय था, अर्थात् बहुत बड़ा नासमझ, मूर्ख या नीच।
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यथानुक्रम  : अव्य० [सं० यथा—अनुक्रम, अव्य० स०] यथा—क्रम।
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यथापूर्व  : अव्य० [सं० अव्य० स०] १. जैसा पहले था, वैसा ही। पहले की तरह। पूर्ववत। २. ज्यों का त्यों।
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यथापूर्व स्थिति  : स्त्री० [सं०] किसी बात या विषय की वह स्थिति जो किसी विशिष्ट समय में वर्तमान रही हो अथवा प्रस्तुत समय में वर्तमान हो। (स्टेटस् को)।
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यथाभाग  : अव्य० [सं० अव्य० स०] १. अपने अपने अंश या भाग के अनुसार जितना चाहिए उतना। हिस्से के मुताबिक। २. यथोचित।
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यथारथ  : अव्य०=यथार्थ।
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यथारुचि  : अव्य० [सं० अव्य० स०] रुचि के अनुसार।
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यथार्थ  : अव्य० [सं० यथा—अर्थ, अव्य० स०] १. जो अपने अर्थ (आशय, उद्देश्य, भाव आदि) आदि के ठीक अनुरूप हो। ठीक। वाजिब। उचित २. जैसा होना चाहिए, ठीक वैसा। विशेष—यथार्थ और वास्तविक का अन्तर जानने के लिए दे० ‘वास्तविक’ का विशेष। ३. सत्यपूर्वक।
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यथार्थतः (तस्)  : अव्य० [सं० यथार्थ+तस्] १. अपने यथार्थ रूप में। वास्तव में। वस्तुतः। सचमुच। २. दे० ‘वस्तुतः’।
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यथार्थता  : स्त्री० [सं० यथार्थ+तल्—टाप्] १. यथार्थ होने की अवस्था या भाव। २. सचाई। सत्यता। २. दे० ‘वास्तविकता’।
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यथार्थवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. दार्शनिक क्षेत्र में, प्लेटो द्वारा प्रवर्तित यह मर्त किसी पद से जिस अमूर्त कि या मूर्त बात या वस्तु का बोध होता है, वह स्वतंत्र सत्तावाली इकाई होती है। २. आज-कल साहित्यिक क्षेत्र में, (आदर्शवाद से भिन्न) यह मत या सिद्धान्त कि प्रत्येक घटना या बात अपने यथार्थ रूप में अंकित या चित्रित की जानी चाहिए (रियालिज्म)। विशेष— इसमें आदर्शों का ध्यान छोड़कर उसी रूप में कोई चीज या बात लोगों के सामने रखी जाती है, जिस रूप में वह नित्य या प्रायः सबके सामने आती रहती है। इसमें कर्ता न तो अपनी ओर से टीका-टिप्पणी करता है न अपना दृष्टिकोण बतलाता है और निष्कर्ष निकालने का काम दर्शकों या पाठकों पर छोड़ देता है।
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यथार्थवादी (दिन्)  : वि० [सं० यथार्थवाद+इनि] १. यथार्थवाद से सम्बन्ध रखनेवाला। २. यथार्थवाद के अनुरूप होनेवाला। ३. सत्यवादी। पुं० यथार्थवाद के सिद्धान्तों का समर्थक।
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यथालब्ध  : अ० य० [सं० अव्य० स०] जितना प्राप्त हो उसी के अनुसार। पुं० जैनियों के अनुसार जो कुछ मिल जाय उसी से संतुष्ट रहने की वृत्ति।
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यथालाभ  : अव्य० [सं० अव्य० स०] जो कुछ मिले, उसी के अनुसार।
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यथावत्  : अव्य० [सं० यथा+वति] १. ज्यों का त्यों। जैसे का तैसा। २. जैसा होना चाहिए वैसा। अच्छी या पूरी तरह से।
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यथावस्थित  : अव्य० [सं० यथा-अवस्थित, अव्य० स०] १. जैसा था, वैसा ही। २. सत्य। ३. अचल। स्थिर।
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यथाविधि  : अव्य० [सं० अव्य० स०] निश्चित की अथवा बतलाई हुई विधि के अनुसार। विधिपूर्वक।
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यथाविहित  : अव्य, [सं० अव्य० स०] विधान या विधि के अनुसार।
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यथांश  : अव्य० [सं० यथा—अंश, अव्य० स०] प्रत्येक के अंश या भाग के अनुसार। जिसका जितना अंश हो, उसे उतना। पुं० किसी के लिए निश्चित किया हुआ अंश या हिस्सा जो उसे दिया जाय या उससे लिया जाय (कोटा)।
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यथासंख्य  : पुं० [सं० अव्य० स०] क्रम नामक अलंकार का दूसरा नाम।
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यथासवर  : अव्य० [सं० यथा-अवसर] अवसर के अनुसार।
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यथेच्छ  : अव्य० [सं० यथा—इच्छा, अव्य० स०] १. जितना या जैसा इच्छित या अभीष्ट हो, उतना या वैसा। २. इच्छा के अनुसार मनमाने ढंग से।
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यथेच्छचारी (रिन्)  : वि० [सं० यथेच्छाचार+इनि] १. मनमाना आचार करनेवाला। यथेच्छाचार करनेवाला। २. मनमौजी।
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यथेच्छाचार  : वि० [सं० यथेच्छ-आचार, कर्म० स०] जो जी में आवे, वही करना। मन-माना काम करना। स्वेच्छाचार।
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यथेच्छित  : वि० [सं० यथेष्ट] जितना या जैसा चाहा गया हो। मन चाहा।
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यथेष्ट  : वि० [सं० यथा—इष्ट, अव्य० स०] [भाव० यथेष्टता] १. जितना इष्ट या अभीष्ट हो। २. उतना जितने से काम अच्छी तरह चल सकता हो। विशेष—पर्याप्त की तरह इसका प्रयोग भी केवल ऐसी चीजों के सम्बन्ध में होना चाहिए जो अभीष्ट या प्रिय हों। जैसे—यथेष्ट भोजन। अनभीष्ट या अप्रिय बातों के सम्बन्ध में इसका प्रयोग ठीक नहीं जान पड़ता। यह कहना ठीक नहीं होगा—मुझे यथेष्ट कष्ट (या चिंता) है।
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यथेष्टाचरण  : पुं० [सं० यथेष्ट-आचरण, कर्म० स०] मनमाना आचरण। स्वेच्छाचार।
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यथेष्टाचार  : पुं० =यथेष्टाचरण।
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यथेष्टाचारी (रिन्)  : पुं० [सं० यथेष्ट-आ√चर् (गति)+णिनि] मनमाना आचरण या व्यवहार करनेवाला।
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यथोक्त  : अव्य०[सं० यथा—उक्त, अव्य० स०] कहे हुए के अनुसार। जैसा कहा जा चुका हो, वैसे।
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यथोक्तकारी (रिन्)  : वि० [सं० यथोक्त√कृ (करना)+णिनि] १. शास्त्रों में जो कुछ कहा गया हो, वही करनेवाला। २. आज्ञाकारी।
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यथोचित  : वि० [सं० यथा—उचित, अव्य० स०] जैसा चाहिए, वैसा जैसा उचित या मुनासिब हो, वैसा।
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यथोपयुक्त  : वि० [सं० यथा-उपयुक्त, अव्य० स०]=यथायोग्य।
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यंद  : पुं० [सं० इंद्र] १. इन्द्र। २. स्वामी। मालिक। (डि०) पुं० [सं० इंद्रु] चंद्रमा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यदपि  : अव्य०=यद्यपि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यदा  : अव्य० [सं० यद्+दा] १. जिस समय। जिस वक्त। जब। २. जहाँ।
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यदा-कदा  : अव्य० [सं०] जब-तब। कभी-कभी।
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यदि  : अव्य० [सं० यद्+णिच्+इन्-णिलोप] अमुक अवस्था हो तो। अगर। जो।
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यदिच, यदिचेत  : अव्य० [सं० द्व० स०] यद्यपि। अगरचे।
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यदीय  : वि० [सं० यद+छ-ईय] जिसका।
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यदु  : पुं० [सं०√यज्+उ, पृषो० जस्य० द०] १. देवयानी के गर्भ से उत्पन्न राजा ययाति का सबसे बड़ा पुत्र। २. एक प्राचीन राज्य जो मथुरा के समीप था। ३. यदुवंश।
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यदु-नंदन  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्णचंन्द्र।
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यदु-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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यदु-पति  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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यदु-भूप  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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यदु-वर  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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यदु-वंश  : पुं० [सं० ष० त०] यदु का वंश।
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यदु-वीर  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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यदुराई  : पुं० [सं० यदु+हिं० राई=राजा] श्रीकृष्ण।
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यदुराज, यदुराट  : पुं० [सं० ष० त०] यदुकुल के राजा श्रीकृष्ण।
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यदुवंश मणि  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्णचन्द्र।
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यदुवंशज  : पुं० [सं० यदुवंश√जन् (उत्पत्ति)+ड०] श्रीकृष्ण।
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यदुवंशी (शिन्)  : वि० [सं० यदुवंश+इनि] जिसने यदुवंश में जन्म लिया हो। पुं० श्रीकृष्ण।
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यदृच्छया  : अव्य० [सं० यदृच्छा का तृतीयान्त रूप] १. अकस्मात्। अचानक। २. इत्तफाक से। दैवयोग से। ३. मनमाने ढंग से।
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यदृच्छयाभिज्ञ  : पुं० [सं० यदृच्छया-अभिज्ञ, व्यस्त पद या अलुक सं०] स्मृतियों के अनुसार कृतसाक्षी के पाँच भेदों में से एक। वह साक्षी जो घटना के समय आप से आप या अकस्मात् आ गया हो।
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यदृच्छा  : स्त्री० [सं० यद्√ऋच्छ+अ-टाप्] १. केवल अपनी इच्छा के अनुसार किया जानेवाला व्यवहार। स्वेच्छाचरण। मनमानापन। २. आकस्मिक संयोग। इत्तफाक।
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यदृत्तम  : पुं० [सं० यदु-उत्तम, स० त०] श्रीकृष्ण।
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यद्यपि  : अव्य० [सं० यदि-अपि, द्वन्द्व० स०] यदि ऐसी है भी। अगर ऐसा है भी। विशेष—इसके साथ प्रायः इसका नित्य-संबंधी ‘तथापि’ भी प्रयुक्त होता है।
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यद्वातद्वा  : अव्य० [सं० व्यस्त० पद] १. जब-तब। २. कभी-कभी। ३. जैसे—तैसे। किसी प्रकार।
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यंबुक  : पु० [सं०] एक तरह की मक्खी।
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यम  : वि० [सं०√यम् (नियंत्रण करना)+अच्] जुड़वाँ। पुं० १. जुड़वाँ बच्चे। यमल। २. उक्त के आधार पर दो की संख्या। ३. रोक। नियंत्रण। ४. अपने ऊपर किया जानेवाला नियंत्रण। ५. कोई बहुत बड़ा धार्मिक या नैतिक कर्तव्य। ६. भारतीय आर्यों के एक प्रसिद् देवता जो सूर्य के पुत्र तथा दक्षिण दिशा के दिकपाल कहे गये हैं, और आजकल मृत्यु के देवता माने जाते है। काल। कृतान्त। ७. चित्त को धर्म में स्थिर रखनेवाले कर्मों का साधन ८. कौआ। ९. शनि। १॰. विष्णु। ११. वायु।
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यम-कीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] केचुआ।
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यम-घंट  : पुं० [सं० यम√घंट् (शब्द करना)+णिच् (स्वार्थ)+अण्] १. फलित ज्योतिष में एक प्रकार का दुष्ट योग जो रविवार को मघा या पूर्वा फाल्गुनी सोमवार को पुष्य या श्लेषा, मंगलवार को ज्येष्ठा, अनुराधा, भरणी या अश्विनी, बुधवार को हस्त या आर्द्रा, बृहस्पति को पूर्वाषाढ़ा, रेवती या उत्तराभाद्रपद, शुक्र को स्वाती या रोहिणी और शनिवार को शतभिषा या श्रवण नक्षत्र के पड़ने पर माना जाता है। २. कार्तिक शुक्ला प्रतिपाद।
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यम-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] यमराज का शस्त्र।
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यम-दंष्ट्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. यम की दाढ़। २. वैद्यक के अनुसार आश्विन, कार्तिक और अगहन के लगभग का कुछ विशिष्ट काल जिसमें रोग और मृत्यु आदि का विशेष भय रहता है
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यम-दूत  : पुं० [सं० ष० त०] १. यमराज का दूत। २. कौआ। ३. नौ समिधों में से एक।
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यम-दूतिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] इमली।
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यम-देवता  : स्त्री० [सं० ब० स०] भरणी नक्षत्र, जिसके देवता यम माने जाते हैं।
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यम-द्रुम  : पुं० [सं० उपमित० स०] सेमर का पेड़। (वृक्ष)।
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यम-द्वितीया  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कार्तिक शुक्ला द्वितीया। भाई-दूज।
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यम-धार  : पुं० [सं० ब० स०] एक तरह की दुधारी तलवार।
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यम-नक्षत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] भरणी नक्षत्र, जिसके देवता यम माने जाते हैं।
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यम-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] यम के रहने का स्थान। यमलोक। मुहावरा—(किसी को) यमपुर पहुँचाना=मार डालना। प्राण ले लेना।
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यम-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. यमराज। २. यम के दूत।
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यम-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] वट (वृक्ष)।
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यम-भगिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] यमुना नदी।
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यम-यातना  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] पुराणानुसार मरने के समय यम के दूतों की दी हुई पीड़ा।
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यम-रथ  : पुं० [सं० ष० त०] यम की सवारी, भैंसा।
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यम-राज  : पुं० [सं० कर्म० स० टच्, प्रत्यय] यमों के राजा धर्मराज, जो प्राणी के मरने के उपरान्त उसके कर्मों का विचार कर उसे दंड अथवा शुभ फल देते हैं। (पुराणों में इनकी संख्या १४ मानी गई है)।
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यम-राज्य, यम-राष्ट्र  : पुं० [सं० ष० त०] यमलोक।
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यम-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह लोक जहाँ मरने के उपरान्त मनुष्य जाते हों। यमपुरी। २. नरक।
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यम-वाहन  : पुं० [सं० ष० त०] यम की सवारी। भैंसा।
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यम-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] राजा का धर्म जिसके अनुसार उसे यमराज की भाँति निष्पक्ष होकर सब को दंड देना चाहिए। राजा का दंडनियम।
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यम-सदन  : पुं० [सं० ष० त०] यमपुर।
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यमक  : पुं० [सं० यम√कै (प्राप्ति)+क] साहित्य में एक शब्दालंकार जो उस समय माना जाता है जब किसी चरण में एक ही शब्द दो या अधिक बार आता है और हर बार अलग-अलग अर्थ में आता है। जैसे—कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।—बिहारी।
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यमकात, यमकातर  : पुं० [सं० यम+हिं० कातर] १. यम का छुरा या खाँड़ा। २. एक प्रकार की तलवार।
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यमज  : वि० [सं० यम√जन् (उत्पत्ति)+ड] जुड़वाँ। यमल। पुं० १. जुड़वाँ बच्चे। २. ऐसा घोड़ा जिसका एक ओर का अंग हीन और दुर्बल हो और दूसरी ओर का वही अंग ठीक हो। ३. अश्वनीकुमार।
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यमजित्  : वि० [सं० यम√जि (जय)+क्विप्, तुक्-आगम] मृत्यु को जीतनेवाला। मृत्यंजय। पुं० शिव।
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यमत्व  : पुं० [सं० यम+त्व०] यम का धर्म, पद या भाव।
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यमदग्नि  : पुं० [सं० जमदग्नि]=जमदग्नि (परशुराम के पिता)।
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यमदंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. यम के हाथ में रहनेवाला डंडा। २. वह दंड जो यम से प्राप्त होता है।
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यमदुतिया  : स्त्री०=यम-द्वितीया (भैया दूज)।
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यमदूतक  : पुं० [सं० यमदूत+कन्] १. यम का दूत। २. कौआ।
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यमनाह  : पुं० [सं० यमनाह, प्रा० जमनाह] यमों के स्वामी, धर्मराज। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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यमनिका  : स्त्री०=यवनिका (रंगमंच का परदा)।
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यमनी  : वि० [अ० यमन] यमन देश-संबंधी। पुं० १. यमन देश का निवासी। २. यमन देश की कृति या वस्तु।
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यमपुरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] यमलोक। यमपुर।
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यमल  : वि० [सं० यम√ला (आदान)+क] जुड़वाँ। युग्म। पुं० ऐसी दो सन्तानें जो एक साथ उत्पन्न हुई हों।
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यमलार्जुन  : पुं० [सं० म-अर्जुन, कर्म० स०] कुबेर के नलकूबर और मणिग्रीव नामक दोनों पुत्र जो शाप वश अर्जुन वृक्ष हो गए थे और जिन्हें श्रीकृष्ण ने शाप से मुक्त किया था।
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यमली  : स्त्री० [सं० यमल+ङीष्] १. एक में मिली हुई दो चीजें। जोड़। जोड़ी। २. स्त्रियों के घाघरे और चोली की जोड़ी।
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यमसू  : पुं० [सं० यम√सू (प्रसूति)+क्विप्] सूर्य। वि० स्त्री० जिसे एक साथ दो सन्तानों हुई हों।
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यमहंता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] काल का नाश करनेवाले शिव।
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यमांतक  : पुं० [सं० यम-आतंक, ष० त०] शिव।
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यमानिका  : स्त्री० [सं० यमानी+क+टाप्] अजवायन।
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यमानी  : स्त्री० [सं० यम+ल्युट-अन० पृषो० सिद्धि] अजवायन।
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यमानुजा  : स्त्री० [सं० यम-अनुजा, ष० त०] यमराज की छोटी बहन, यमुना।
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यमारि  : पुं० [सं० यम-अरि, ष० त०] विष्णु।
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यमालय  : पुं० [सं० यम-आलय, ष० त०]=यमपुर।
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यमित  : भू० कृ० [सं० यम] १. संयत। २. दबाया हुआ। ३. बँधा हुआ।
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यमी  : स्त्री० [सं० यम+ङीष्] यम की बहन, यमुना (नदी) (पुराण)। पुं० यम नियम आदि का पालन करनेवाला व्यक्ति। संयमी।
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यमुना  : स्त्री० [सं० यम+उनन+टाप्०] १. दुर्गा। २. यम की बहन यमी जो बाद में नदी के रूप में अवतरित हुई थी। (पुराण) ३. उत्तरी भारत की एक प्रसिद्ध बड़ी नदी जो हिमालय के यमुनोत्तरी नामक स्थान से निकलकर प्रयाग के पास गंगा में मिलती है।
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यमुना-कल्याणी  : स्त्री० [सं० उपमित० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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यमुनाभिद्  : पुं० [सं० यमुना√भिद् (विदारण)√क्विप्] कृष्ण के भाई बलराम जिन्होंने अपने हल से यमुना के दो भाग किये थे।
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यमुनोत्तरी  : स्त्री० [सं० यमनोत्तर] हिमालय में गढ़वाल के पास का एक पर्वत जिससे यमुना नदी निकली है।
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यमेश  : पुं० [सं० यम-ईश, ब० स०] भरणी नक्षत्र।
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यमेश्वर  : पुं० [सं० यम-ईश्वर, ष० त०] शिव।
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ययाति  : पुं० [सं०] १. राजा नहुष के पुत्र तथा राजा पुरु के पिता जिनका विवाह शुक्राचार्य की कन्या देवयानी के साथ हुआ था। शुक्राचार्य द्वारा अभिशप्त होने पर इन्हें अकालिक वृद्धावस्था प्राप्त हुई थी। बाद में इन्होंने अपनी वृद्धावस्था अपने पुत्र पुरु को देकर उससे उसका यौवन लिया था और इस प्रकार १००० वर्षों तक सुख भोग किया था। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा व्यक्ति जो शरीर से वृद्ध परन्तु मन से युवा हो।
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ययावर  : पुं० =यायावर।
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ययी (यित्)  : पुं० [सं०√या+ई, द्वित्व] १. शिव। २. किसी यज्ञ विशेषतः अश्वमेघ यज्ञ में बलि चढ़ाया जानेवाला घोड़ा। ३. घोड़ा। ४. मार्ग। पथ। रास्ता। ५. बादल।
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ययु  : पुं० [सं० या+उ, द्वित्व] ययी (घोड़ा)।
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यरकान  : पुं० [अ० यरकान] कमल (रोग)।
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यरकानी  : पुं० [अ० यरकानी] कमल रोग से ग्रस्त व्यक्ति।
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यलधीस  : पुं० [इलाधीश] राजा (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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यलनाथ  : पुं० =यलधीस (राजा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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यला  : स्त्री० [सं० इला] पृथ्वी (डिं०) स्त्री०=एला (इलायची)।
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यलाइंद  : पुं० [सं० इला-इंद] राजा (डि०)
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यलापत  : पुं० [सं० इला+पति] राजा (डिं०)
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यव  : पुं० [सं०√यु (मिश्रण)+अप्] १. जौ नामक एक प्रसिद्ध अन्न जिसका पिसान, सत्तू आदि मनुष्य खाते हैं। २. उक्त अन्न का पौधा। ३. प्राचीन काल की एक तौल जो जौ के एक दाने अथवा सरसों के बारह दानों के बराबर होती थी। ४. लंबाई की एक नाप जो एक इंच की एक तिहाई होती है। ५. सामुद्रिक में हथेली आदि में होनेवाला एक शुभ लक्षण जो जौ के दाने की आकृति का होता है। ६. कोई ऐसी वस्तु जो दोनों ओर उन्नतोदर हो।
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यव-क्रीत  : पुं० [सं० तृ० त०] भरद्वाज के पुत्र एक ऋषि।
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यव-क्षार  : पुं० [मध्य० स०] जवाखार (दे०)।
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यव-चतुर्थी  : स्त्री० [मध्य० स०] वैशाख शुक्ला-चतुर्थी।
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यव-तिक्ता  : स्त्री० [उपमित० स०] शंखिनी (लता)।
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यव-दोष  : पुं० [सं० ष० त०] कुछ रत्नों में होनेवाला जौ के आकार का चिन्ह जिसकी गिनती दोषों में होती है।
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यव-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] जावा (द्वीप)।
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यव-नाश्व  : पुं० [सं०] मिथिला के एक प्राचीन राजा जो बहुलाश्व का पिता था।
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यव-फल  : पुं० [सं० ब० स०] १. इंद्र जौ। २. कुटज। ३. प्याज। ४. बाँस। ५. जटामासी। ६. पाकर नामक वृक्ष।
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यव-बिंदु  : पुं० [सं० ब० स०] वह हीरा जिसमें बिन्दु सहित यवरेखा हो।
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यव-मंड  : पुं० [सं० मध्य० स०] जौ का माँड़ जो पथ्य रूप में कुछ विशिष्ट प्रकार के रोगियों को दिया जाता है।
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यव-मंथ  : पुं० [सं० ष० त०] जौ का सत्तू।
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यव-मद्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] सडा़ये हुए जौ के खमीर से बनी हुई शराब।
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यव-मध्य  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का चांद्रायण व्रत। २. पाँच दिनों में समाप्त होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ। ३. एक प्राचीन नाप।
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यव-रस  : पुं० [सं०] जौ आदि अनाजों के दानों को पानी में फुलाकर उनसे निकाला जानेवाला सार भाग जिसका प्रयोग मादक द्रव्य प्रस्तुत करने में होता है और औषधों में जिसका प्रयोग पौष्टिक तत्त्व के रूप में होता है। (माल्ट)।
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यव-लास  : पुं० [सं० ब० स०] जवाखार।
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यव-वर्णाभ  : पुं० [सं० यव-वर्ण, ष० त० यववर्ण-आभा, ब० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का जहरीला कीड़ा।
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यव-शर्करा  : स्त्री० [सं०] रासायनिक प्रक्रिया से जौ से बनाई जानेवाली चीनी (माल्टोज)
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यव-शूक  : पुं० [सं० ष० त०+अच्] जवाखार।
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यव-श्राद्ध  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का श्राद्ध जो वैशाख के शुक्ल पक्ष में कुछ विशिष्ट दिनों और योगों में तथा विषुव संक्रांति अथवा अक्षय तृतीया के दिन होता है। इनमें जौ के आटे का व्यवहार होता है।
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यवक  : पुं० [सं० यव+कन्] जौ।
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यवक्य  : वि० [सं० यवक+यत्] (खेत) जो जौ की बोआई के लिए उपयुक्त हो।
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यवज  : पुं० [सं० यव√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. जवाखार। २. गेहूँ का पौधा। ३. अजवायन। वि० यव से उत्पन्न या प्राप्त होनेवाला।
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यवन  : पुं० [सं०√यु+युच्] [स्त्री० यवनी] १. वेग। तेजी। २. तेज चलनेवाला घोड़ा। ३. प्राचीन भारत में यूनान से आये हुए लोगों की संज्ञा। ४. परवर्ती भारत में मुसलमानों की संज्ञा। ५. कालयवन नामक म्लेच्छ राजा जो कृष्ण से कई बार लड़ा था।
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यवन-प्रिय  : पुं० [ष० त०] मिर्च।
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यवनाचार्य  : पुं० [यवन-आचार्य, ष० त०] एक प्रसिद्ध यवन ज्योतिषाचार्य। ताजिकशास्त्र, रमलामृत आदि ग्रन्थों के रचयिता।
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यवनानी  : स्त्री० [सं० यवन+ङीष्, आनुक] १. यूनान की भाषा। २. प्राचीन भारत में, यवनों की लिपि।
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यवनारि  : पुं० [यवन-अरि, ष० त०] श्रीकृष्ण, जो कालयवन के शत्रु थे।
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यवनाल  : स्त्री० [ब० स०] १. ज्वार का पौधा। २. ज्वार के दाने। ज्वार। ३. जौ के सूखे डंठल जो पशुओं को चारे के रूप में खिलाये जाते हैं
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यवनालज  : पुं० [सं० यव-नाल, ष० त०√जन्+ड] जवाखार। यवक्षार।
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यवनिका  : पुं० [सं०√यु+ल्युट-अन, ङीष्+कन्, टाप्, इत्व] १. कनात। २. परदा। ३. रंगमंच का परदा।
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यवनी  : स्त्री० [सं०√यु+ल्युट-अन+ङीष्] १. यूनान देश की स्त्री। २. यवन जाति की स्त्री। ३. विशेषतः मुसलमान स्त्री।
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यवनेष्ट  : पुं० [सं० यवन-इष्ट, ष० त०] १. सीसा। २. मिर्च। ३. गाजर। ४. शलजम। ५. प्याज। ६. लहसुन। ७. नीम।
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यवमती  : स्त्री० [सं० यव+मतुप+ङीष्] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके विषम चरणों में क्रमशः रगण, जगण और जगण तथा सम चरणों में क्रमशः जगण, रगण और गुरु होता है।
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यवस  : पुं० [सं०√यु+असच्] १. घास। २. भूसा।
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यवागू  : पुं० [सं० यु+आगूच्] १. जौ अथवा किसी अन्य उबाले हुए अन्न की माँड़। २. उक्त माँड़ की काँजी।
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यवाग्र  : पुं० [सं० यव-अग्र, ष० त०] जौ का भूसा।
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यवाग्रज  : पुं० [सं० यवाग्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. यवक्षार। २. अजवायन।
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यवास (क)  : पुं० [सं०√यु+आस] जवासा (क्षुप)।
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यविष्ठ  : पुं० [सं० युवन्+इष्ठन्, यवादेश] १. छोटा भाई २. अग्नि। आग। ३. ऋग्वेद के एक मंत्रद्रष्टा ऋषि। अग्नियविष्ठ। वि० १. सबसे छोटा। कनिष्ठ। २. नौजवान। युवा।
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यवीनर  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार (क) अजमीढ़ का एक पुत्र। (ख) द्विमीढ़ का एक पुत्र।
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यवीयान् (यस्)  : पुं० वि० [सं० युवन्+ईयसुन्, यवादेश]=यविष्ठ। वि० [सं०] १. यव, संबंधी। यवका २. यव या जौ से बना हुआ।
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यव्य  : पुं० [सं० यव+यत्]=यव-रस।
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यश (स्)  : पुं० [सं०√अश् (व्याप्ति)+असुन, युट्, आगम] १. किसी संप्रदाय या समाज में होनेवाली किसी गुणी, भले व्यक्ति आदि की नेकनामी तथा ख्याति। मुहावरा—यश कमाना या लूटना=बहुत अधिक ख्याति तथा नेककाम होना। २. कोई काम विशेषतः किसी अच्छे काम के करने का श्रेय। बड़ाई। महिमा। क्रि० प्र०—पाना।—मिलना।—लेना। मुहावरा—(किसी का) यश गाना=हर जगह किसी की बड़ाई करते फिरना। (किसी का) यश मानना=कृतज्ञता पूर्वक किसी का उपकार करना।
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यशद लौह  : पुं० [सं०] ऐसा लोहा जिस पर विद्युत की धारा की सहायता से जस्ते का पानी या ऐसा ही और कोई रासायनिक द्रव्य लगा हो, और इसीलिए जिस पर जल्दी मोरचा न लगता हो।
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यशदी, करण  : पुं० [सं० यशद] लोहे आदि धातुओं पर विद्युत-धारा की सहायता से जस्ते का पानी या ऐसा ही और कोई रासायनिक द्रव्य लगाना जिससे उस पर मोरचा न लग सके। (गैल्वनाइजेशन)।
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यशब  : पुं० [अ० यश्ब] एक प्रकार का हरा पत्थर जो चीन और लंका में बहुत अधिक होता है। संगे-यशब।
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यशम  : पुं० =यशब।
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यशस्कर  : वि० [सं० यशस्√कृ+ट] जिससे यश बढ़ता हो या मिलता हो। यश दायक।
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यशस्काम  : वि० [सं० ब० स०] (वह) जो यशस्वी होना चाहता हो। यश की कामना करनेवाला।
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यशस्य  : वि० [सं० यशस्+यत्]=यशस्कर।
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यशस्वान्  : वि० [सं० यशस्+मतुप्] [स्त्री० यशस्वती] यशस्वी।
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यशस्विनी  : स्त्री० [सं० यशस्+विनि+ङीष्] १. गंगा। २. बन-कपास। ३. महा-ज्योतिष्मती। वि० यशस्वी का स्त्री।
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यशस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० यशस्+विनि] [स्त्री० यशस्विनी] जिसका यश चारों ओर फैला हो। कीर्तिमान्।
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यशी  : वि० =यशस्वी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यशील  : वि० [सं० यशस्√दा (दान)+क] पारा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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यशुमति  : स्त्री० दे० ‘यशोदा’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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यशोदा  : पुं० [सं० यशस्√दा (दान)+क] पारा।
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यशोदा  : स्त्री० [सं० यशोद+टाप्] १. नंद की स्त्री जिन्होंने श्रीकृष्ण का लालन-पालन किया था। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं।
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यशोदा-नंदन  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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यशोधर  : पुं० [सं० यशस्+धर, ष० त०] १. कृष्ण का एक पुत्र जो रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। २. उत्सर्पिणी के एक अर्हत् का नाम। (जैन)। ३. श्रावण मास का पाँचवाँ दिन।
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यशोधरा  : स्त्री० [सं० यशोधर√टाप्] १. गौतम बुद्ध की पत्नी और राहुल की माता का नाम। २. सावन मास की चौथी रात।
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यशोधरेय  : पुं० [सं०] यशोधरा का पुत्र, राहुल।
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यशोमति, यशोमती  : स्त्री०=यशोदा।
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यशोमत्य  : पुं० [सं०] एक जाति (मार्कंडेय पुराण)।
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यशोमाधव  : पुं० [सं० यशस्-माधव, मध्य० स०] विष्णु।
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यष्टव्य  : वि० [सं०√यज् (देवपूजा)+तव्यत्] यज्ञ में बलि चढ़ाये जाने के योग्य।
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यष्टि  : स्त्री० [सं० यज्+ति] १. किसी प्रकार की छड़ी, डंडा या लाठी। २. पताका का डंडा। ध्वज। ३. पेड़ की टहनी। डाल। शाखा। ४. मुलेठी। ५. ताँत। ६. बेल। लता। ७. बाँह। भुजा। ८. गले में पहनने का एक प्रकार का मोतियों का हार।
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यष्टि-मधु  : पुं० [सं० ब० स०] जेठी मधु। मुलेठी।
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यष्टि-यंत्र  : पुं० [सं०] जमीन में गाड़ी हुई वह खूँटी या छड़ी जिसकी छाया से समय का अनुमान किया जाता है।
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यष्टिक  : पुं० [सं० यष्टि+कन्] १. तीतर पक्षी। २. छड़ी, डंडा या लाठी। २. मंजीठ।
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यष्टिका  : स्त्री० [सं० यष्टिक+टाप्] १. हाथ में रखने की बड़ी या छोटी लाठी। २. मुलेठी। ३. बावली। बापी ४. एक प्रकार की मोतियों की माला।
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यष्टिका-भरण  : पुं० [सं० ष० त०] सुश्रुत के अनुसार जल को ठंडा करने का उपाय।
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यष्टी  : स्त्री० [सं० यष्टि+ङीष्] १. गले में पहनने का एक प्रकार का हार। २. मुलेठी।
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यस्क  : पुं० [सं०√यस् (प्रयत्न)+क्विप्+कन्] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि जो यास्क के पिता थे।
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यह  : सर्व० [सं० इदं बहु रूप से] किसी ऐसी वस्तु, विचार या व्यक्ति (संज्ञा) के लिए प्रयुक्त होनेवाला शब्द जो समीप हो, वर्तमान काल का हो, अभी सोचा गया हो अथवा जिसका अभी-अभी उल्लेख हुआ हो ‘वह’ का विरुद्धार्थक। जैसे—यह तो सबेरे से यहाँ बैठा है। वि० जो वर्तमान या समीप हो अथवा जिसका अभी-अभी उल्लेख किया गया हो।
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यह-वह  : पुं० [हिं०] इधर-उधर की या टाल-मटोल की बात-चीत। जैसे—मुझसे यह वह मत करो, अपना काम देखो।
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यहाँ  : अव्य० [सं० इह] १. (वक्ता की दृष्टि से) इस स्थान पर। २. किसी विशिष्ट स्थान या क्षेत्र के आसपास या चारों ओर। पद—हमारे यहाँ=जहाँ हम रहते हैं, वहाँ। हमारे देश में। हमारे पास। जैसे—हमारे यहाँ नौकर नहीं हैं।
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यहि  : सर्व० [हिं० यह] १. ‘यह’ का वह रूप जो पुरानी हिन्दी में उसे कोई विभक्ति लगने से प्राप्त होता है। २. ‘ए’ का विभक्ति युक्त रूप, जिसका व्यवहार आगे चलकर कर्म और सम्प्रदाय में ही प्रायः होने लगा था। इसको। इसे।
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यहिज  : सर्व० [हिं०] १. यही। २. उसी।
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यहिया  : पुं० [इब० यहया] एक यहूदी पैगम्बर जिसने ईसा के आविर्भाव की पूर्व-सूचना दी थी और जो अन्त में मार डाला गया था।
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यही  : अव्य० [हिं० यह+ही (प्रत्यय)] निश्चित रूप से यह। यह ही। जैसे—यही तो मैं भी कहता हूँ।
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यहूद  : पुं० [इब] यहूदी लोग।
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यहूदी  : पुं० [इब, ] [स्त्री० यहूदिन] १. यहूद देश का निवासी। २. उक्त देश की जाति जो अब सारे संसार में फैल गई है। ३. अर्थ-पिशाच व्यक्ति। वि० यूहद देश का। यहूद देश संबंधी। स्त्री०=यहूद देश की भाषा।
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यहूयहू  : पुं० [अनु०] कबूतर की एक जाति।
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याँ  : अव्य०=यहाँ।
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या  : स्त्री० [सं०√या (गति)+क्विप्] १. योनि। २. गति। चाल। ३. गाड़ी। रथ। ४. अवरोध। रुकावट। ५. मनाही। वारण ६. ध्यान। ७. प्राप्ति। लाभ। अव्य० [सं० वा से फा०] १. विकल्प सूचक शब्द। अथवा। वा। २. संबोधन का शब्द। सर्व० १. यह। (व्रज) उदाहरण—दै गति बिना विवेक एक या और कुचाली।—दीनदयाल गिरि। २. यह का वह रूप जो उसे ब्रजभाषा में कारक चिन्ह लगाने से पहले प्राप्त होता है। ३. इस। उदाहरण—यों मोहन के मैं रूप लुभानी।—मीराँ।
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याक  : पुं० [तिब्बती, ग्याक, सं० गावक] तिब्बत तथा मध्य एशिया में होनेवाला जंगली भैंसा जिसकी पूँछ का चँवर बनता है। कुछ लोग इसको पालकर इस पर बोझ भी ढोते हैं। वि०=एक (संख्या सूचक)।
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याकूत  : पुं० [अ० याक़ूत] एक प्रकार का लाल रंग का बहुमूल्य रत्न। लाल।
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याकूती  : वि० [अ० याक़ूती] याकूत सम्बन्धी। याकूत का। स्त्री० यूनानी चिकित्सा प्रणाली में एक प्रकार का। पौष्टिक अवलेह या ओषधि जिसमें याकूत की भस्म मिलाई गई होती है।
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याक्ष्मिक  : वि० [सं० यक्ष्मा+ठक्+इक] यक्ष्मा नामक रोग से संबंध रखनेवाला। यक्ष्मा का।
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याक्ष्मिकी  : स्त्री० [सं० याक्ष्मिक+ङीप्] आधुनिक चिकित्सा की वह शाखा जिसमें विशिष्ट रूप से यक्ष्मा रोग के कीटाणुओं आदि का नाश करने के उपायों और सिद्धान्तों का विवेचन होता है। (थाइसियॉलोजी)
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याग  : पुं० [सं०√यज्+घञ्] यज्ञ।
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याचक  : वि० [सं०√याच् (याचना)+ण्वुल्-अक] [स्त्री० याचिका, भाव० याचकता] १. जो माँगता हो। माँगनेवाला। २. प्रार्थी। पुं० भिक्षुक। भिखमंगा।
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याचकता  : स्त्री० [सं० याचक+तल्-टाप्] १. याचक होने की अवस्था या भाव। २. भिक्षावृत्ति भिखमंगी।
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याचन  : पुं० [सं०√याच्+ल्युट-अन] १. भीख मांगने की क्रिया या भाव। २. नम्रतापूर्वक कुछ माँगने की क्रिया या भाव।
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याँचना  : स्त्री० =याचना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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याचना  : स्त्री० [सं०√याच्+णिच् (स्वार्थ)+युच्-अन, टाप्] कुछ मांगने के लिए किसी से नम्रतापूर्वक की जानेवाली प्रार्थना। स० याचना करना। माँगना।
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याचमान  : वि० [सं०√याच्+शानच्, मुक्, आगम] याचक।
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याँचा  : स्त्री० [सं० याचना] माँगने की क्रिया। प्रार्थनापूर्वक माँगना। याचना।
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याचिका  : स्त्री० [सं० याचक+टाप्, इत्व] १. आवेदन पत्र। प्रार्थना-पत्र। अर्जी। २. आज-कल विशिष्ट रूप से वह प्रार्थना पत्र जो न्यायालय के सामने उपस्थित किया जाता है। (पिटिशन)।
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याचित  : भू० कृ० [सं०√याच्+क्त] (बात) जिसके सम्बन्ध में याचना की गई हो। जो कुछ माँगा गया हो।
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याचितक  : पुं० [सं० याचित+कन्] वह चीज या बात जिसके सम्बन्ध में याचना की गई हो।
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याचिष्णु  : वि० [सं०√याच्+इष्णुचु] जो प्रायः याचनाएँ करता रहता हो।
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याच्य  : वि० [सं०√याच्+ण्यत्] (बात) जिसके सम्बन्ध में याचना की गई हो या की जा सकती हो।
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याजक  : पुं० [सं०√यज्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. यज्ञ-विधियों का वह ज्ञाता जो यज्ञ करता हो। २. यज्ञ करानेवाला। ३. राजा का हाथी। ४. मस्त हाथी।
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याजन  : पुं० [सं०√यज्+णिच्+ल्युट-अन] यज्ञ करने या करानेवाला।
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याजि  : पुं० [सं०√यज्+इञ्] यज्ञ करनेवाला।
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याजी (जिन्)  : पुं० [सं०√यज्+णिनि] यज्ञ करनेवाला।
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याजुष  : वि० [सं० याजुष+अण्] [स्त्री० याजुषी] यजुर्वेद-सम्बन्धी। पुं० यजुर्वेद का ज्ञाता अथवा उसका अनुयायी।
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याजूज  : पुं० [अ०] कुरान में वर्णित एक प्राचीन जाति।
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याजूज, माजूज  : पुं० [अ० याजूजो, माजूज] १. याजूज और माजूज नाम के दो भाई जो हजनूह के वंशज कहे जाते हैं, और जिनकी संतान आगे चलकर इसी नाम की एक जाति के रूप में प्रसिद्ध हुई थी। कहते हैं कि लोग बहुत ही विकट शक्तिशाली होते थे और आस-पास की जातियों पर भीषण अत्याचार करते थे। चीन की दीवार इन्हीं लोगों के आक्रमण से बचने के लिए बनाई गई थी। २. दो बहुत ही उपद्रवी और परम दुष्ट व्यक्तियों का जोड़ा।
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याज्ञ  : वि० [सं० यज्ञ+अण्] यज्ञ-सम्बन्धी। यज्ञ का।
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याज्ञदत्ति  : पुं० [सं० यज्ञदत्ति+इञ्] कुबेर।
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याज्ञवल्क्य  : पुं० [सं०√वल्क (बोलना)+अच्, यज्ञ-वल्क, ष० त०+यञ्] १. एक प्रसिद्ध ऋषि जो वैशम्पायन के शिष्य थे। २. एक ऋषि जो राजा जनक के दरबार में रहते थे और जो योगीश्वर याज्ञवल्क्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। मैत्रेयी और गार्गी इन्हीं की पत्नियाँ थी। ३. योगीश्वर यात्रवल्क्य के वंशज एक स्मृतिकार।
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याज्ञसेनी  : स्त्री० [सं० यज्ञसेन+अण्-ङीष्] यज्ञसेन की पुत्री। द्रौपदी।
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याज्ञिक  : पुं० [सं० यज्ञ+ठक्—इक] १. यज्ञ करने या करानेवाला व्यक्ति। २. गुजराती ब्राह्मणों की एक जाति।
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याज्य  : वि० [सं०√यज्+ण्यत्] १. यज्ञ कराने योग्य। २. जो यज्ञ में किसी रूप में दिया जाने को हो अथवा यज्ञ के काम में आने को हो। पुं० वह दक्षिणा जो यज्ञ में मिली हो।
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यात-याम  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके महत्त्वपूर्ण दिन बीत चुके हों। २. जो पुराना पड़ने के कारण इतना निरर्थक और महत्त्वहीन हो चुका हो कि प्रस्तुत काल में उसका कोई उपयोग न हो सकता हो। गतावधि। ‘अद्यतन’ का विपर्याय। (आउट आफ डेट) उदाहरण—‘भारतेन्दु’ में कुछ लेख ऐसे भी निकले थे, जो आज भी यात-याम नहीं हुए हैं।—रायकृष्णदास।
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यातन  : पुं० [सं०√यत् (प्रयत्न)+णिच्+ल्युट—अन] १. परिशोध। बदला। २. इनाम। पारितोषिक।
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यातना  : स्त्री० [सं०√यत्+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. घोर शारीरिक कष्ट। २. वह कष्ट जो नरक में भुगतना पड़ता है। ३. हिंसा।
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यातव्य  : वि० [सं०√या (जाना)+तव्य] (पड़ोशी शत्रु) जिस पर सहज में आक्रमण किया जा सकता हो। (कौ०)
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याता (तृ)  : स्त्री० [सं०√यत्+तृन्] पति के भाई की स्त्री। जेठानी या देवरानी। वि० [√या+तृच्] १. जानेवाला। २. रथ चलानेवाला। ३. मार डालने या हत्या करनेवाला।
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यातायात  : पुं० [सं०√या+क्त (भावे)=यात-आयात, द्व० स०] [वि० यातायातिक] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर आते-जाते रहने की क्रिया या भाव। आना-जाना। गमनागमन। २. वह साधन जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाया जाता है। (कम्यूनिकेशन)।
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यातु  : वि० [सं०√या+तु] १. आनेवाला। २. रास्ता चलनेवाला। पथिक। पुं० १. काल। २. राक्षस। ३. वायु। ४. अस्त्र। ५. यातना।
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यातुधान  : पुं० [सं० यातु√धा (पोषण)+युच्—अन] राक्षस।
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यातुध्न  : पुं० [सं० यातु√हन् (हिंसा)+टक्] गुग्गुल।
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यात्निक  : पुं० [सं० यत्न+ठक्-इक] एक बौद्ध सम्प्रदाय।
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यात्रा  : स्त्री० [सं०√या+त्रन्—टाप्] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया। सफर। २. कहीं जाने के लिए चलना या निकलना। प्रयाण प्रस्थान। ३. धार्मिक भाव से किसी तीर्थ या देव-मंदिर की ओर दर्शन, पूजन आदि के उद्देश्य से जाने की क्रिया। ४. उत्सव। ५. व्यवहार। ६. आज-कल बंग देश में प्रचलित एक प्रकार का धार्मिक अभिनय, जिसमें नाचना और गाना भी रहता है।
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यात्रा-भत्ता  : पुं० [सं० +हिं] यात्रा करनेवाले व्यय के बदले अर्थात् कहीं आने-जाने के समय किये जानेवाले व्यय के बदले में अधिकारियों, कर्मचारियों आदि को मिलनेवाला भत्ता (ट्रेवेलिंग एलाउन्स)।
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यात्राधिदेय  : पुं० [सं० यात्रा-अधिदेय, सुप्सुपा०स०] दे० ‘यात्रा-भत्ता’।
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यात्रावाल  : पुं० [सं० यात्रा+हिं०वाला (प्रत्यय)] तीर्थयात्रियों को अपने यहाँ टिकाने तथा देवदर्शन करानेवाला पंडा।
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यांत्रिक  : पुं० [सं० यन्त्र+ठक्-इक] मशीनों का रहस्य जाननेवाला। उनके कलपुरजों का यथा स्थान बैठानेवाला और उनकी मरम्मत आदि करनेवाला कारीगर। (मेकैनिक)। वि० १. यंत्र संबंधी। २. यंत्र के रूप में होनेवाला अथवा उसके कल-पुरजों से संबंध रखनेवाला। ३. यंत्र की भाँति एक चाल से चलने या होनेवाला। यंत्रवत् चलनेवाला (मेकैनिकल)।
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यात्रिक  : पुं० [सं० यात्रा+ठक्—इक] १. यात्रा का प्रयोजन। कहीं जाने का अभिप्राय या उद्देश्य। २. यात्रा करनेवाला व्यक्ति। यात्री। ३. यात्रा के समय साथ ले जाने की सामग्री। सफर का सामान। वि० यात्रा-संबंधी। यात्रा का। २. जो बहुत दिनों से चलता चला आ रहा हो। परम्परा-गत।
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यांत्रिकी  : स्त्री० [सं० यांत्रिक से] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें अनेक प्रकार के यंत्र बनाने चलाने, सुधारने आदि के उपायों तथा रीतियों का विवेचन होता है। (मैकेनिज्म)
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यात्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० यात्रा+इनि] १. वह जो यात्रा कर रहा हो। २. देवदर्शन अथवा तीर्थाटन के उद्देश्य से घर से निकला हुआ व्यक्ति।
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याथातथ्य  : पुं० [सं० यथातथ्य+ष्यञ्] यथातथ होने की अवस्था या भाव। यथार्थता।
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याद  : स्त्री० [फा०] १. स्मरण करने की क्रिया या भाव। २. स्मरण शक्ति। स्मृति। क्रि० प्र०—करना। दिलाना।—पड़ना।—रखना।—रहना।—होना। पुं० [सं० यादस्] मछली, मगर आदि जल-जंतु।
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यादगार  : स्त्री० [फा०] १. चिन्हानी। २. स्मारक।
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याददाश्त  : स्त्री० [फा०] १. स्मरण-शक्ति। स्मृति। २. संस्मरण।
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यादःपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण।
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यादव  : पुं० [सं० यदु+अण्] [स्त्री० यादवी] १. यदु के वंशज। २. श्रीकृष्ण। वि० यदु सम्बन्धी। यदु का।
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यादवी  : स्त्री० [सं० यादव+ङीप्] १. यदु कुल की स्त्री। २. दुर्गा।
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यादवीय  : वि० [सं० यादव+छ—ईय] यादव सम्बन्धी। पुं० किसी जाति या देश के लोगों में आपस में होनेवाला लड़ाई-झगड़ा।
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यादृच्छिक-आधि  : स्त्री० [सं०] गिरवी या रेहन रखी हुई वह चीज जो बिना ऋण चुकाये लौटाई न जा सके।
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यादृश  : वि० [सं० यत्√दृश्+कञ्, आकार आदेश] जिस प्रकार का। जैसा।
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यान  : पुं० [सं०√या+ल्युट-अन] १. वह उपकरण या साधन जिस पर सवार होकर यात्रा की जाती अथवा माल ढोया जाता है। जैसे—गाड़ी, छकड़ा, रथ, साइकिल आदि। २. आकाश-यान। विमान। ३. शत्रु देश पर की जानेवाली सैनिक चढ़ाई। ४. गति। चाल।
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यान-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा मार्ग जिससे आदमी और सवारियाँ आती-जाती हों। जैसे—सड़क।
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यानी  : अव्य० [अ०] अर्थ या आशय यह है कि। अर्थात्।
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याने  : अव्य०=यानी।
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यापन  : पुं० [सं०√या+णिच्, पुक्+युच्—अन] [भू० कृ० यापित, वि० याप्य] १. चलाना। २. समय आदि के सम्बन्ध में, व्यतीत करना। गुजारना। बिताना। जैसे—काल-यापन। ३. काम-काज के सम्बन्ध में पूरा करना। निपटाना। ४. परित्याग करना। छोड़ना।
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यापना  : स्त्री० [सं०√या+णिच्, पुक्+युच्—अन, टाप्] १. वाहन या सवारी चलाना। हाँकना। २. वह धन जो किसी को जीविका-निर्वाह के लिए दिया जाय। ३. बरताव। व्यवहार। ४. दे० ‘यापन’।
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यापनीय  : वि० [सं०√या+णिच्, पुक्+अनीयर] १. यापन किये जाने के योग्य। याप्य। २. महत्त्वहीन । तुच्छ।
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याप्य  : वि० [सं०√या+णिच्, पुक्+यत्] १. जिसका यापन हो सके या होने को हो। यापनीय। २. छिपाये जाने के योग्य। गोपनीय। ३. तुच्छ और निंदनीय। ४. रक्षित रखने के योग्य। रक्षणीय। पुं० कोई ऐसा असाध्य रोग जिसमें दीर्घकाल तक रोगी को कष्ट भोगना पड़ता है।
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याफ्त  : स्त्री० [फा० याफ़्त] १. प्राप्ति। २. आय। ३. लाभ। ४. किसी प्रकार से अथवा किसी रूप में होनेवाली ऊपरी आमदनी। ५. रिश्वत।
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याफ्तनी  : वि० [फा० याफ्तनी] १. मिलनेवाला। प्राप्य। २. प्राप्त करने के योग्य। किये जाने के योग्य।
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याफ्ता  : वि० [फा० याफ़्तः] १. पाया हुआ। जैसे—सजा याफ्ता। २. जिसने कोई विशेष अनुभव या ज्ञान प्राप्त किया हो। जैसे—तालीम याफ्ता, सोहबत याफ्ता।
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याब  : प्रत्य० [फा०] १. प्राप्त होनेवाला या मिलनेवाला जैसे—दस्तयाब=हस्तगत। २. प्राप्त करनेवाला। पानेवाला। जैसे—फतहयाब=फतह पानेवाला।
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याबी  : स्त्री० [फा०] प्राप्त करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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याबू  : पुं० [तु०] १. छोटे डील-डौल का घोड़ा जो प्रायः बोझ ढोने के काम आता है। २. ट्टटू।
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याभ  : पुं० [सं०√यभ् (मैथुन+घञ्] मैथुन।
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याम  : पुं० [सं०√यम् (नियंत्रण)+घञ्] १. दिन मान का आठवाँ अंश। तीन घंटे का समय। पहर। २. काल। समय। ३. एक प्रकार के देवगण जो संख्या में बारह कहे गये हैं। वि० यम-सम्बन्धी। यम का। स्त्री० यामि (रात)।
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याम-घोष  : पुं० [सं० ब० स०] १. मुर्गा। २. श्रृंगाल। २. पहरों की सूचना देनेवाला घंटा। घड़ियाल।
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याम-घोषा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] वह घंटा जो समय की सूचना देने के लिए बजता हो घड़ियाल।
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याम-नाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] समय बतानेवाली पुरानी चाल की घड़ी।
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याम-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. रात के समय चौकसी करने या पहरा देने का काम। २. उक्त काम का पारिश्रमिक।
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यामकिनी  : स्त्री०=यामि।
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यामल  : पुं० [सं० यमल+अण्] १. जुड़वाँ बच्चे। यमल। २. तन्त्र शास्त्र का एक ग्रन्थ।
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यामवती  : स्त्री० [सं० याम+मतुप्, +ङीष्] रात। निशा।
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यामाता  : पुं० =जामाता (दामाद)।
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यामायन  : पुं० [सं० यम+फक्, -आयन] वह जो यम के गोत्र में उत्पन्न हो।
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यामार्द्ध  : पुं० [सं० याम-अर्द्ध, ष० त०] याम अर्थात् पहर का आधा भाग। डेढ़ घंटे का समय।
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यामि  : स्त्री० [सं०√या+मि] १. कुल-वधू। कुल स्त्री। २. बहन। भगिनी। ३. रात्रि। रात। ४. पुत्री। बेटी। पुत्र-वधू। ६. दक्षिण दिशा। ७. धर्म की एक पत्नी।
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यामिक  : पुं० [सं० याम+ठक्—इक] रात के समय चौकसी करने या पहरा देनेवाला व्यक्ति।
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यामिका  : स्त्री० [सं० यामिक+टाप्] रात।
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यामिका-पति  : पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कर्पूर।
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यामित्र  : पुं० [सं० जामित्र] जन्म-कुण्डली में लग्न से सातवाँ स्थान।
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यामित्र-वेध  : पुं० [सं० जामित्रवेध] वेधशाला।
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यामिन (नि)  : स्त्री०=यामिनी।
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यामिनी  : स्त्री० [सं० याम+इनि+ङीष्] १. रात्रि। रात। २. हलदी।
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यामिनी-चर  : पुं० [सं० यामिनी√चर्+ट] १. राक्षस। निशाचर। २. उल्लू। ३. गुग्गुल।
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यामुन  : वि० [सं० यमुना+अण्] १. यमुना-संबंधी। २. यमुना में रहने या होनेवाला। पुं० यमुना के किनारे बसने वाले लोग। २. एक प्राचीन तीर्थ। ३. एक प्राचीन पर्वत। ४. एक प्राचीन जनपद। ५. एक प्राचीन वैष्णव आचार्य। ६. आँख में लगाने का अंजन या सुरमा।
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यामुनेष्टक  : पुं० [सं० यामुन-इष्टक, उपमित स०] सीसा।
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यामेय  : पुं० [सं० यामि+ढक्—एय] १. यामिका पुत्र। २. बहन का लड़का। भाँजा।
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याम्य  : वि० [सं० यम+ष्यञ्] १. यम-संबंधी। यम का। २. दक्षिण दिशा का। दक्षिणी। पुं० [यामी+यत्] १. विष्णु। २. शिव। ३. यमदूत। ४. अगस्त्य ऋषि का एक नाम। ५. चन्दन। ६. भरणी (नक्षत्र)।
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याम्य-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] सेमल का पेड़।
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याम्या  : स्त्री० [सं० या्म्य+टाप्] १. दक्षिण दिशा। २. भरणी नक्षत्र।
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याम्यायन  : पुं० [सं० याम्य+अयन, कर्म० स०] दक्षिणायन।
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याम्योत्तर  : वि० [सं० याम्य-उत्तर, सुप्सुपा स०] जो दक्षिण से उत्तर की ओर या उक्त लंब में हो।
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याम्योत्तर-दिगंश  : पुं० [सं० कर्म० स०] लंबांश। दिगंश। (भूगोल, खगोल)।
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याम्योत्तर-रेखा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] खगोल और भूगोल में वह कल्पित रेखा जो किसी विशिष्ट स्थान (जैसे—प्राचीन भारत में उज्जयिनी और आज-कल इंग्लैड के ग्रीनविच नगर) के ख-स्वस्तिक से चलकर सुमेरु और कुमेरु को पार करती हुई पृथ्वी का पूरा वृत्त बनाती है। (मेरीडियन)
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याम्योत्तर-वृत्त  : पुं० [सं० मध्य० स०] याम्योत्तर रेखा से बननेवाला वृत्त। (मेरीडियन)
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यायावर  : पुं० [सं०√या (गति)+य़ङ्+वरच्] १. अश्वमेघ का घोड़ा। २. वह साधु या संन्यासी जो किसी एक स्थान पर टिककर न रहता हो, बराबर घूमता-फिरता हो। ३. उक्त प्रकार के मुनियों का एक गण या वर्ग। ४. वह जिसके रहने का कोई निश्चित स्थान न हो और जो खान-पान आदि के सुभीते के विचार से अपना डेरा कभी कहीं और कभी कहीं लगाता हो। खाना-बदोश। (नोमड) ५. जरत्कारु मुनि का एक नाम। ६. याचना। ७. वह ब्राह्मण जिसके यहाँ गार्हपत्य अग्नि बराबर रहती हो। साग्नि ब्राह्मण।
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यायी (यिन्)  : वि० [सं०√या+णिनि, युक्, आगम] [स्त्री० यायिनी] जानेवाला। जो जा रहा हो। गमनशील।
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यार  : पुं० [फा०] [भाव० यारी] १. मित्र। दोस्त। २. किसी स्त्री के विचार से उसका प्रेमी या उपपत्ति।
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यार-बाज  : वि० [फा०] [भाव० यार-बाजी] यारवाश। (दे०)
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यार-बाश  : वि० [फा०] [भाव० यारबाशी] १. जिसके बहुत से मित्र हों तथा जो मित्रों में ही अधिक समय बिताता हो। २. मित्रों में रहकर अपना जीवन हँसी-खुशी से बितानेवाला। ३. जो सब के साथ मित्रता स्थापित कर लेता हो।
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यार-बाशी  : स्त्री० [फा०] यार-बाश होने की अवस्था या भाव।
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यार-मार  : पुं० [फा+हिं०] [भाव० यार-मारी] मित्र को समय पर धोखा देने अथवा उससे अनुचित लाभ उठानेवाला व्यक्ति।
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यारकंद  : पुं० [तु० यारकंद] १. चीनी तुर्किस्तान का एक प्राचीन नगर। २. एक प्रकार का बेल-बूटा जो कालीन में बनाया जाता है।
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यारमंद  : पुं० [फा०] [भाव० यारमंदी] निष्ठापूर्वक मित्रता का निर्वाह करनेवाला व्यक्ति। सच्चा मित्र।
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यारमंदी  : स्त्री० [फा०] सच्ची मित्रता।
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याराना  : पुं० [फा० यारनः] १. यार होने की अवस्था, धर्म या भाव। मित्रता। मैत्री। दोस्ती। २. पर-स्त्री और पर-पुरुष का अनुचित सम्बन्ध या प्रेम। क्रि० प्र०—गाँठना।—लगाना। वि० मित्रों का सा। मित्रता का।
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यारि  : स्त्री० [फा० यार] प्रियतमा। प्रेयसी। उदाहरण—हरति ताप सब द्यौस को उर लगि यारि बयारि।—बिहारी।
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यारी  : स्त्री० [फा०] १. यार होने की अवस्था या भाव। मैत्री। मित्रता। २. पर-स्त्री और पर-पुरुष का अनुचित प्रेम या संबंध। क्रि० प्र० गाँठना।—जोड़ना।
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याल  : स्त्री० [तुं०] १. गरदन। २. घोड़े की गरदन के ऊपर के लंबे बाल। अयाल।
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याव  : वि० [सं०√यु (मिश्रण)+अप्+अण्] १. यव-सम्बन्धी। यव का। २. यव या जौ से बना या बनाया हुआ। पुं० १. जौ का सत्तू। २. लाक्षा। लाख। ३. महावर। वि० [सं०√यु+अप्+अव] १. जितना। २. पूरा। सब। अव्य० १. जब तक। २. जहाँ तक।
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यावक  : पुं० [सं० याव+कन्] १. जौ। २. जौ का सत्तू। ३. जौ की बनाई हुई कोई चीज। ४. बोरो धान। ६. उड़द। ७. लाक्षा। लाख ८. महावर।
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यावज्जीवन  : अव्य० [सं० यावत्-जीवन, अव्य० स०] जब तक जीवन रहे या हो तब तक। जन्म-भर। आजीवन।
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यावत्  : वि० [सं० यद्-वतुप, आत्व] १. जितना २. सब। अव्य० [यद्+डावतु] जहाँ तक। (इसका नित्य संबंधी तावत् है।)
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यावन  : वि० [सं० यवन+अण्] [स्त्री० यावनी] १. यवन संबंधी। यवनों का। २. मुसलमानों का। पुं० लोबान।
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यावनक  : पुं० [सं० यावन+कन्] लाल रेंड़। रक्त एरंड।
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यावनाल  : पुं० [सं० यवनाल+अण्] ज्वार या मक्का नामक अन्न।
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यावनाली  : स्त्री० [सं० यावनाल+ङीष्] मक्के से बनाई हुई चीनी ज्वार की शक्कर।
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यावनी  : स्त्री० [सं० यावन+ङीष्] करंकशालि नामक ईख। रसाल। वि० ‘यावन’ का स्त्री०।
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यावर  : वि० [फा०] [भाव० यावरी] १. सहायक। मददगार। २. पोषक।
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यावरी  : स्त्री० [फा०] १. यावर अर्थात् सहायक होने की अवस्था या भाव। २. पोषण।
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यावशुक  : पुं० [सं० यवशूक+अण्] जवा-खार।
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यावस  : पुं० [सं० यवस्+अण्] घास, डंठलों आदि का ढेर या पूला।
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यावा  : वि० [तु० यावः] अनर्गल। बेहूदा।
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यावास  : पुं० [सं० यावस+अण्] यवास से बनाया हुआ। मद्य। जवा से की शराब। वि० यावस संबंधी। जवासे का।
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यावी  : स्त्री० [सं० याव+ङीष्] १. शंखिनी। २. यवतिक्ता नाम की लता।
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याष्टीक  : पुं० [सं० यष्टि+ईकक्] लाठी बाँधनेवाला योद्धा। लठैत।
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यास  : पुं० [सं०√यास् (प्रयास)+घञ्] लाल धमासा। स्त्री० [अव्य] १. निराशा। २. निराश होने पर मन में उत्पन्न होने वाला खेद। स्त्री० [फा०] चमेली।
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यासमन  : स्त्री० [फा० यासमीन] चमेली का फूल।
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यासमीन  : स्त्री० [फा०] चमेली का फूल।
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यासु  : सर्व०=जासु।
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यास्क  : पुं० [सं० यस्क+अण्] १. यास्क ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति। २. वैदिक निरुक्त के रचयिता एक प्रसिद्ध ऋषि।
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यास्कायनि  : पुं० [सं० यास्क+फिञ्-आयन] यास्क के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
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याहि  : सर्व० [हिं० या+हिं] इसको। इसे। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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याहू  : पद० [फा०] ऐ खुदा। हे ईश्वर। पुं० एक प्रकार के कबूतर जो प्रायः याहू-याहू शब्द करता है।
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यियक्षु  : वि० [सं०√यज् (देवपूजा)+सन्+उ] पूजा या यज्ञ की इच्छा करनेवाला।
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यियप्सु  : वि० [सं०√यभ् (मैथुन)+सन्+उ] मैथुन या संभोग की इच्छा रखनेवाला। संभोगेच्छुक।
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यियासा  : स्त्री० [सं० या (जाना)+सन्+अ+टाप्] जाने की इच्छा।
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यीशु  : पुं० =ईसू (ईसा मसीह)।
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युक्त  : वि० [सं०√युज्+क्त] [भाव० युक्ति] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। २. मिश्रित। सम्मिलित। ३. नियुक्त। मुकर्रर। ४. पूरा किया हुआ। सम्पन्न। ५. उचित। ठीक। वाजिब। पुं० १. वह योगी जिसने योग का अभ्यास कर लिया हो। २. रैवत मनु का एक पुत्र। ३. चार हाथ लंबी एक पुरानी नाप।
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युक्त-रसा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. गंधनाकुली। नाकुल कंद। २. रासना।
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युक्त-विकर्ष  : पुं० [सं० ष० त०] भाषा-विज्ञान में शब्दों के उच्चारण में होनेवाली वह प्रक्रिया जिससे शब्दों में रहनेवाली कोई श्रुति (दे०) किसी नए कर्म का रूप धारण करती है।
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युक्ता  : स्त्री० [सं० युक्त+टाप्] १. एलापर्णी। २. एक प्रकार का वृत्त जिसमें दो नगण और एक मगण होता है।
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युक्ताक्षर  : वि० [सं० युक्त-अक्षर, कर्म० स०] संयुक्त वर्ण। मिलित वर्ण।
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युक्तार्थ  : वि० [सं० युक्त-अर्थ, ब० स०] ज्ञानी।
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युक्ति  : स्त्री० [सं०√युज्+क्तिन्] १. युक्त अर्थात् मिले हुए होने की अवस्था या भाव। मिलन। योग। २. कोई कठिन काम सरलतापूर्वक करने का उपाय या ढंग। तरकीब। ३. किसी तत्त्व का खंडन या मंडन करने के लिए कही जानेवाली कोई बुद्धिसंगत बात। दलील (रीजन)। ४. प्रथा। रीति। ५. कारण। ६. कौशल। चातुरी। ७. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी उपाय या कौशल से अपनी कोई चेष्टा या रहस्य दूसरे से छिपाने का उल्लेख या वर्णन होता है।
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युक्ति-युक्त  : वि० [सं० तृ० त०] जो युक्ति की दृष्टि से ठीक हो। युक्ति-संगत। ठीक। वाजिब।
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युक्ति-शास्त्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] तर्क-शास्त्र।
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युक्तिकर  : वि० [सं० युक्ति√कृ (करना)+ट]=युक्ति-युक्त।
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युक्तिवाद  : पुं० [सं० ष० त०]=बुद्धिवाद।
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युग  : पुं० [सं०√युज् (जोड़ना)+घञ्, नि० सिद्धि] [वि० युगीन] १. एकत्र दो वस्तुएँ। जोड़ा। युग्म। २. ऋद्धि और सिद्धि नाम की दो औषधियाँ। ३. चौसर या पासे का खेल में एक साथ एक घर में बैठी हुई दो गोटियाँ। ४. वंश के अनुक्रम में कोई स्थान। पीढ़ी। पुरुष। ५. बैलों के कंधों पर रखा जानेवाला जुआ। ६. काल। समय। जैसे—पूर्व युग। मुहावरा—युग-युग=बहुत दिनों तक अनंत काल तक। ७. काल गणना के विचार से कल्प के चार उप-विभागों में से प्रत्येक सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि (पुराण) ८. वह समय विभाग जिसमें कुछ विशिष्ट प्रकार की घटनाओं, प्रवृत्तियों आदि की बहुलता रहती है। जैसे—भारतेन्दु युग, गान्धी युग, लौह युग आदि। ९. पाँच वर्ष का वह काल जिसमें बृहस्पति एक राशि में स्थित रहता है। वि० जो गिनती में दो हो।
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युग-कीलक  : पुं० [सं० ष० त०] वह लकड़ी या खूँटा जो बम और जूए के मिले हुए शब्दों में डाला जाता है। सैल। सैला।
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युग-धर्म  : पुं० [सं० ष० त०] कोई ऐसा काम जो किसी विशिष्ट युग में प्रायः सभी लोग साधारण रूप में करते हों। जैसे—चोरी, झूठ, बेईमानी तो आज-कल के युग-धर्म से जान पड़ने लगे हैं।
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युग-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. कोविदार। कचनार २. युग्मपत्र नामक वृक्ष। ३. पहाड़ी आबनूस।
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युग-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्+टाप्, इत्व] शीशम का पेड़।
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युग-पुरुष  : पुं० [सं० ष० त०] अपने युग या समय का बहुत बड़ा महापुरुष।
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युग-बाहु  : वि० [सं० ब० स०] जिसके हाथ बहुत लंबे हों। दीर्घबाहु
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युगंकर  : वि० [सं०] नया युग उपस्थित करनेवाला। युगप्रवर्तक जैसे—युगंकर रवीन्द्रनाथ टैगोर।
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युगति  : स्त्री०=युक्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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युगंधर  : वि० [सं० युग√धृ (धारण)+णिच्, खच्, मुम्] १. पंजाब का एक प्राचीन नगर जिसका वर्णन महाभारत में आया है। २. एक प्राचीन पर्वत। ३. गाड़ी का बम। ४. बैलगाडी का वह लंबा बाँस जिसमें जूआ लगाया जाता है।
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युगपत् (द्)  : अव्य० [सं० युग√पद् (गति)+क्विप्] एक ही समय में। एक ही क्षण में। साथ-साथ। वि० एक ही समय में और एक साथ होनेवाला। (साइमल्टेनिअस)।
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युगम  : वि० पुं, ०=युग्म। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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युगल  : पुं० [सं०√युज्+कलच्, कुत्व] एक साथ और एक ही गर्भ से उत्पन्न होनेवाले दो जीव। युग्म।
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युगलक  : पुं० [सं० युगल√कै (प्रतीत होना)+क] साहित्य में वह कुलक (गद्य) जिसमें दो श्लोकों या पद्यों का एक साथ मिलकर अन्वय करना पड़ता हो।
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युगलाख्य  : पुं० [युगल-आ√ख्या (प्रकथन)+क] बबूल का पेड़।
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युगांत  : पुं० [सं० युग-अंत, ष० त०] १. प्रलय। युग का अंत। २. युग का अन्तिम काल या समय। ३. प्रलय।
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युगांतक  : पुं० [सं० युगांत+कन्] १. प्रलय-काल। २. प्रलय।
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युगांतर  : पुं० [सं० युग-अंतर, मयू० स०] १. प्रस्तुत युग के उपरान्त आनेवाला दूसरा युग। २. कुछ और ही प्रकार का जमाना, युग या समय। मुहावरा—युगांतर उपस्थित करना=समय का प्रवाह पूरी तरह से बदल देना। पुरानी प्रथा की जगह नई प्रथा या रीति चलाना।
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युगादि  : पुं० [सं० युग-आदि, ष० त०] १. सृष्टि का प्रारम्भ। २. युग का आरम्भ। स्त्री० [ब० स०] दे० ‘युगाद्या’। वि० १. युग के आरम्भिक काल का। २. बहुत पुराना।
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युगादिकृत्  : पुं० [सं० युगादि√कृ (करना)+क्विप्, तुक-आगम] शिव।
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युगाद्या  : स्त्री० [सं० युग-आद्या, ष० त०] वह तिथि जिससे युग का आरम्भ होना माना जाता है। जैसे—वैशाख शुक्ल तृतीया, कार्तिक शुक्ल नवमी, भाद्र कृष्ण त्रयोदशी और पूस की अमावस्या जो क्रमात् सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग की आरम्भ की तिथियाँ हैं।
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युगावतार  : पुं० [सं० युग-अवतार, ष० त०] युग का अवतारी महान् पुरुष। युग-स्वरूप पुरुष।
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युंगाशक  : पुं० [सं० युग-अंशक, ष० त०] वस्तर। वर्ष। वि० युग का विभाजक।
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युगेश  : पुं० [सं० युग-ईश, ष० त०] फलित ज्योतिष में, बृहस्पति के वर्ष के राशि चक्र में गति के अनुसार पाँच-पाँच वर्ष के युगों के अधिपति।
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युगोपरि  : वि० [सं० युग-उपरि, ष० त०] अपने युग या समय के विचार से जो सबसे बढ़कर हो।
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युग्म  : पुं० [सं०√युज् (योग)+मक्, कुत्व] १. एक ही तरह की ऐसी दो चीजें जो प्रायः या सदा साथ आती या रहती हों। जोड़ा। युग। २. ऐसी दो बातें या वस्तुएँ जो मुख्यतः एक दूसरे पर अवलम्बित या आश्रित हों। ३. ज्योतिष में मिथुन राशि। ४. दे० ‘युगलक’।
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युग्म-धर्मा (धर्मन्)  : वि० [सं० ब० स०,+अनिच्] १. जो स्वभावतः मिलता हो। मिलनशील। २. मैथुन करना जिसका धर्म हो।
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युग्म-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. कचनार का पेड़। २. भोजपत्र का पेड़। ३. छितवन। ४. ऐसा पेड़ जिसकी शाखा में आमने-सामने दो-दो पत्ते एक साथ होते हों। युग्मपर्ण।
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युग्म-पर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] १. लाल कचनार। २. छतिवन। ३. दे० ‘युग्मपत्र’।
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युग्म-पर्णा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] वृश्चिकाली।
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युग्म-फला  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] वृश्चिकाली।
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युग्मक  : पुं० [सं० युग्म+क०] १. युग्म। जोड़ा। २. युगलक।
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युग्मज  : पुं० [सं० युग्म√जन् (उत्पत्ति)+ड] एक साथ एक ही गर्भ से उत्पन्न होनेवाले दो जीव। वि० (ऐसे दो) जो एक साथ उत्पन्न हुए हों।
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युग्मन  : पुं० [सं० युगम्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० युग्मित] १. दो चीजों को आपस में जोड़, बाँध या मिलाकर एक साथ करने की क्रिया या भाव। (कपलिंग)। २. युग्म बनाने की क्रिया या भाव। (कॉनजुगेशन)
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युग्मांजन  : पुं० [सं० युग्म-अंजन, कर्म० स०] स्रोतांजन और सौवीरांजन इन दोनों का समूह।
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युग्मेच्छा  : स्त्री० [सं० युग्म-इच्छा, ष० त०] मैथुन या संभोग की इच्छा।
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युग्य  : पुं० [सं० युग+यत् वा√युज्+क्यप्, नि०] १. वह गाड़ी जिसमें दो घोड़े या बैल जोते जाते हैं। जोड़ी। २. वे दो पशु जो एक साथ गाड़ी में जोते जाते हों। जोड़ी। वि० जो (गाड़ी आदि) में जोते जाने के योग्य हो या जोता जाने को हो।
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युग्याह  : पुं० [सं० युग्य+वह (ढोना)+णिच्+अण्, उप० स०] १. युग्य (दो बैलों या दो घोड़ोंवाली गाड़ी) हाँकनेवाला। २. किसी प्रकार की गाड़ी हाँकनेवाला व्यक्ति। गाड़ीवान।
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युंजान  : पुं० [सं०√युंज् (योग)+शानच्] १. सारथी। २. ब्राह्मण। विप्र। ३. दो प्रकार के योगियों में से वह योगी जो अभ्यास कर रहा हो, पर मुक्त न हुआ हो।
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युंजानक  : पुं० [सं० युंजान+क] युंजान नामक योगी। दे० ‘युंजान’।
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युत  : भू० कृ० [सं०√यु (मिश्रण)+क्त] १. किसी से मिलाया मिलाया हुआ। युक्त। सहित। जैसे—श्रीयुक्त। २. जुड़ा या सटा हुआ। पुं० १. प्राचीन काल की चार हाथ की एक नाप। २. एक योग जो चन्द्रमा के पाप-ग्रह के साथ होने पर होता है। (फलित ज्योतिष)
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युतक  : पुं० [सं० युत+क] १. जोड़ा। युग्म। २. कपड़े आदि का आँचल। ३. सन्देह। शक। ४. किसी को अपना मित्र बनाना। मैत्रीकरण। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार का पहनावा। ६. सूप के दोनों ओर के किनारे जो ऊपर उठे हुए होते हैं और पीछे के उठे हुए भाग से जोड़कर बाँधे रहते हैं।
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युति  : स्त्री० [सं० यु+क्तिन्] १. एक चीज का दूसरी चीज के साथ मिलना, लगना या सटना। २. गणित में, दो या अधिक संख्याओं का जोड़। ३. वह स्थिति जिसमें दो ग्रह या दो नक्षत्र इतने आस-पास या आमने-सामने होते हैं कि दोनों एक जान पड़ने लगते हैं। ‘योग’ से भिन्न। जैसे—चंद्रमा और रोहिणी की युति। विशेष—ग्रहों की ‘युति’ और ‘योग’ का अन्तर जानने के लिए देखें ‘योग’ का विशेष।
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युद्ध  : पुं० [सं०√युध् (प्रहार)+क्त] १. अस्त्र-शस्त्रों की सहायता से शत्रु सैनिकों में होनेवाली लड़ाई। रण। संग्राम। २. किसी प्रकार के साधन से आपस में होनेवाली लड़ाई। जैसे—गदा-युद्ध, मुष्टि-युद्ध, वाक युद्ध। मुहावरा—युद्ध माँड़ना=लड़ाई करना।
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युद्ध सन्नाह  : पु० [सं०]
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युद्ध-गांधर्व  : पुं० [सं० मध्य० स०] युद्ध के समय सैनिकों को उत्साहित करने के लिए गाये जाने वाले गीत।
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युद्ध-पोत  : पुं० [सं० ष० त०] वह बहुत बड़ा समुद्री जहाज जिस पर से सैनिक युद्ध करते हैं। (वारशिप)
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युद्ध-प्राप्त  : वि० [सं० स० त०] युद्ध या लड़ाई में पकड़ा या पाया हुआ। जैसे—युद्ध-प्राप्त सामग्री। पुं० युद्धवंदी।
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युद्ध-बंदी  : पुं० [सं०] वह सैनिक जो युद्ध में जीतकर बंदी बना लिया गया हो। लड़ाई का कैदी। (प्रिजनर आफ़ वार)।
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युद्ध-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] लड़ाई का मैदान। रणक्षेत्र।
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युद्ध-रंग  : पुं० [सं० ब० स०] १. कार्तिकेय स्कंद। २. युद्धस्थल। रण-क्षेत्र।
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युद्ध-लिप्त  : वि० [सं० स० त०] [भाव० युद्धलिप्तता] (दल या राष्ट्र) जो सदा किसी न किसी दल या राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध ठाने रहता हो (बेलीजरेंट)।
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युद्ध-विराम  : पुं० [सं०] चलता हुआ युद्ध इस उद्देश्य से रोकना कि दोनों पक्ष आपस में संधि की बात-चीत या शर्ते तै कर सकें (सीज-फ़ायर)।
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युद्ध-सार  : पुं० [सं० ष० त०] घोड़ा।
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युद्धक  : पुं० [सं० युद्ध+क] युद्ध। लड़ाई। जैसे—युद्धक विराम।
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युद्धकारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० युद्धकारिणी] जो किसी से युद्ध कर रहा हो अथवा किसी युद्ध में किसी पक्ष से सम्मिलित हो। युद्ध रत (बेलिजरेन्ट)।
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युद्धबंदी  : पुं० =युद्धबंदी। स्त्री० [सं०+फा०] युद्ध का बंद होना। लड़ाई। बंदी।
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युद्धमय  : वि० [सं० युद्ध=मयट्] १. युद्ध संबंधी। २. युद्ध-प्रिय।
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युद्धमान  : वि० [सं० युद्धमान] =युद्धकारी जो किसी न किसी से प्रायः युद्ध करता रहता हो। युद्ध में रत रहनेवाला।
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युद्धस्थगन  : पुं० [सं० ष० त०] विभिन्न पक्षों का अनिश्चित काल के लिए युद्ध बंद करना जिसके फलस्वरूप उनमें समझौते की बात-चीत हो सके (सीज़-फायर)।
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युद्धाचार्य  : पुं० [सं० युद्ध-आचार्य, ष० त०] वह जो सैनिकों को युद्ध विद्या की शिक्षा देता हो।
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युद्धोन्मत्त  : वि० [सं० युद्ध-उन्मत्त, च० त०] १. जो युद्ध करने के लिए उतावला हो रहा हो। जिसके सिर पर युद्ध करने का भूत सवार हो। २. जो युद्ध कर रहा हो।
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युद्धोपकरण  : पुं० [सं० युद्ध-उपकरण, ष० त०] लड़ाई का सामान। जैसे—गोला, बारुद, तोप-बंदूक, तीर-कमान, ढाल-तलवार आदि।
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युधाजित्  : पुं० [सं०] १. केकय राजा के पुत्र का नाम। २. श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
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युधान  : पुं० [सं०√युध+आनच्] १. योद्धा-जाति का व्यक्ति। योद्धा। २. दुश्मन। शत्रु।
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युधामन्यु  : पुं० [सं०] एक राजा। (महा०)
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युधिष्ठिर  : पुं० [सं० युधि-स्थिर, स० त०] हस्तिनापुर के राजा पांडु के सबसे बड़े पुत्र जो परम धर्म-परायण और सत्य तथा न्यायवादी थे। महाभारत के युद्ध के बाद ये हस्तिनापुर के राजा बने थे। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव इनके छोटे भाई थे।
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युध्म  : पुं० [सं०√युध्+मक्] १. संग्राम। युद्ध। २. धनुष। ३. बाण। ४. अस्त्र-शस्त्र। ५. योद्धा। ६. शरभ।
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युध्य  : वि० [सं० योध्य] जिससे युद्ध किया जा सके। युद्ध के योग्य।
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युनिवर्सिटी  : स्त्री० [अं०] =विश्वविद्यालय।
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युप्य  : पुं० [सं० यूप+यत्] पलास।
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युयु  : पुं० [सं०√या+यङ्+डु] घोड़ा।
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युयुक्षमान  : वि० [सं०√युज्+सन् (द्वित्वादि+शान्च)] १. मिलन या संयोग चाहनेवाला। २. परमात्माओं में लीन होने की कामना रखनेवाला। मोक्ष का अभिलाषी।
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युयुत्मु  : वि० [सं०√युध्+सन्, द्वित्वादि] जिसके मन में युद्ध करने की इच्छा हो। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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युयुत्सा  : स्त्री० [सं०√युध+सन्, द्वित्वादि,+टाप्] १. युद्ध करने की प्रबल इच्छा। लड़ने की अभिलाषा। २. दुश्मनी शत्रुता। ३. वैर-विरोध।
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युयुधान  : पुं० [सं०√युध्+कानच्, द्वित्वादि] १. द्वंद्व। २. योद्धा। ३. क्षत्रिय। ४. सात्यकि का एक नाम।
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युरोप  : पुं० [अं०] पूर्वी गोलार्द्ध के तीन महाद्वीपों में से एक जो एशिया के पश्चिम में काकेशस और यूराल पर्वतों के उस पार से आरम्भ होकर इँग्लैड और पुर्तगाल तक विस्तृत है।
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युरोपियन  : वि० [अं०] युरोप का। युरोप संबंधी। पुं० युरोप का निवासी।
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युव-गंड  : पुं० [सं० ष० त०+अच्] मुहाँसा।
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युव-जन  : पुं० [सं०] युवकों और युवतियों का वर्ग, समाज या समूह। जैसे—देश का सारा भविष्य हमारे युवजनों पर ही अवलम्बित है।
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युवक  : पुं० [सं० युवन्+कन्] नौजवान व्यक्ति विशेषतः १६ से ३५ वर्षों के बीच की अवस्था का व्यक्ति। जवान आदमी।
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युवति  : स्त्री० [सं० युवन्+ति]=युवती।
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युवती  : वि० स्त्री० [सं०√यु+शतृ√ङी्ष्] प्राप्त-यौवना। जवान (स्त्री)। स्त्री० १. जवान स्त्री। २. प्रियंगुलता। ३. सोनजुही। ४. हलदी।
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युवतीष्टा  : स्त्री० [सं० युवती-इष्टा, ष० त०] स्वर्ण-यूथिका। सोनजुही।
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युवनाश्व  : पुं० [सं०] १. एक सूर्यवंशी राजा जो प्रसेनजित् का पुत्र था तथा मांधाता का पिता था २. रामायण के अनुसार धुंधुसार के पुत्र का नाम।
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युवराई  : स्त्री० [हिं० युवराज] युवराज का पद या भाव। पुं०=युवराज। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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युवराज  : पुं० [सं० कर्म० स० समासान्त-टच्] [स्त्री० युवराजी] वह सबसे बड़ा राजकुमार जो अपने पिता के राज्य का वास्तविक अधिकारी होता है।
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युवराजत्व  : पुं० [सं० युवराज+त्व] युवराज का भाव या धर्म। युवराज्य।
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युवराजी  : स्त्री० [सं० युवराज+हिं० ई (प्रत्यय)] युवराज का पद। युवराज्य।
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युवा (वन्)  : वि० [सं०√यु (मिश्रण)+कनिन्] [स्त्री० युवती] जिसकी अवस्था सोलह से लेकर पैतीस वर्ष के अंदर तक हो। जवान।
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युष्मदीय  : वि० [सं० युष्मद्+छ-ईय] तुम लोगों का।
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यूँ  : अव्य०=यों।
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यूक  : पुं० [सं०√यु+कन्, दीर्घ] ढील। चीलर।
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यूका  : स्त्री० [सं० यूक+टाप्] १. एक प्रकार का पुराना परिमाण जो एक यव का आठवाँ भाग और एक लिक्षा का अठगुना होता था। २. जूँ नाम की कीड़ा। ३. खटमल। ४. अजवायन। ५. गूलर।
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यूति  : स्त्री० [सं०√यु+क्तिन्, नि० दीर्घ] मिलाने की क्रिया। मिश्रण। मेल।
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यूथ  : पुं० [सं०√यु+थक्, नि० दीर्घ] १. एक स्थान पर इकट्ठे होकर या मिलकर चरने, घूमने-फिरने वाले आदि पशुओं का समूह। २. मनुष्यों का जत्था। ३. सैनिकों का दल। ४. फौज। सेना।
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यूथ-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. यूथ का स्वामी। सरदार। २. सेनापति।
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यूथ-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. झुंड या दल का नेता। २. सेना नायक। सेनापति।
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यूथक  : पुं० [सं० यूथ+कन्] दल। समूह।
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यूथग  : पुं० [सं० यूथ्√गम् (गति)+ड] चाक्षुष मन्वतंर के एक प्रकार का देवता। वि० यूथ या झुँड़ में चलने या रहनेवाला।
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यूथप  : पुं० [सं० यूथ√पा (रक्षण)+क] १. यूथ का प्रधान सरदार। २. सेनापति।
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यूथपाल  : पुं० [सं० यूथ√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्]=यूथपति।
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यूथिका  : स्त्री० [सं० यूथ+ठन्-इक, टाप्०] १. एक प्रसिद्ध पौधा जो लता के रूप में भी होता है और जिसके सफेद रंग के छोटे-छोटे फूल बहुत ही सुगंधित होते हैं। जूही। २. उक्त पौधे या लता का फूल।
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यूथी  : स्त्री० [सं० यूथ+अच, ङीष्] यूथिका।
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यूनक  : पुं० [?] गरी की खली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यूनान  : पुं० [अ० ग्रीक, आयोनिया] युरोप का एक दक्षिणी राज्य जो प्राचीन काल में अपनी सभ्यता, शिल्प, कला, साहित्य, दर्शन आदि के लिए प्रसिद्ध था।
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यूनानी  : वि० [अ०] १. यूनान देश से संबंध रखनेवाला। २. यूनान देश में होनेवाला। यूनान के लोगों का। पुं० यूनान का निवासी। स्त्री० १. यूनान की भाषा। २. यूनान की एक प्रसिद्ध चिकित्सा प्रणाली। हकीमी।
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यूनियन  : स्त्री० [अं०] दे० ‘संघ’।
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यूनिवर्सिटी  : स्त्री० [अं०]=विश्वविद्यालय।
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यूनीफार्म  : पुं० [अं०] वरदी।
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यूप  : पुं० [सं०√यू+प, दीर्घ] १. यज्ञ का वह खंभा जिसमें बलि-पशु बाँधा जाता है। २. वह स्तम्भ जो किसी विजय अथवा कीर्ति आदि की स्मृति में बनाया गया हो।
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यूप-कटक  : पुं० [सं० ष० त०] यूप में लगा रहनेवाला लोहे का कड़ा या छल्ला।
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यूप-कर्ण  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ के यूप का वह भाग जो घी से अभिषिक्त किया जाता था।
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यूप-ध्वज  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ।
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यूपक  : पुं० [सं० यूप+क] १. यूप। २. लड़कियों के भेद या प्रकार।
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यूपद्रु  : पुं० [सं० च० त०] खर। (वृक्ष)
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यूपा  : पुं० [सं० द्यूत] जुआ। द्यूत कर्म। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यूपांग  : पुं० [सं० यूप-अंग] यूप-संबंधी कोई वस्तु।
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यूपाहुति  : स्त्री० [सं० यूप-आहुति, च० त०] यज्ञ के यूप की स्थापना के समय का एक कृत्य जिसमें यूप के उद्देश्य से आहुति दी जाती थी।
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यूरप  : पुं० =युरोप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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यूराल  : पुं० १. एक बहुत बड़ा पहाड़ जो एशिया और युरोप के बीच में है। २. उक्त पर्वत के आसपास का प्रदेश। स्त्री० उक्त पर्वत से निकलनेवाली एक नदी।
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यूरेनियम  : पुं० [अं०] शुभ्र धातु-तत्त्व जो पानी से १८०७ गुना भारी होता है तथा जो आण्विक शक्ति के उत्पादन में काम आता है।
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यूरेमस  : पुं० [ग्री०] १. एक ग्रीक देवता। २. हमारे सौर जगत् का एक ग्रह।
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यूरेशियन  : पुं० [अं० यूरोप+एशिया] वह जिसके माता-पिता में से कोई एक यूरोप का और दूसरा एशिया का हो।
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यूरोप  : पुं० =यूरोप।
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यूरोपीय  : वि० [अं० यूरोप+हिं० ईय (प्रत्यय)] यूरोप संबंधी यूरोप का।
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यूष  : पुं० [सं०√यूष् (हत्या)+क] १. पकाई हुई दाल का जूस या रस। २. शहतूत का पेड़।
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यूसुफ  : पुं० [अ० युसुफ] याकूब के एक पुत्र जिनकी गिनती पैगम्बरों में होती है। ये बहुत ही सुन्दर थे अतः ईर्ष्यावश इन्हें भाइयों ने दास बनाकर बेच दिया था।
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यूह  : पुं० =यूथ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ये  : सर्व० [‘यह’ का बहु] निर्दिष्ट समीपस्थ वस्तुएँ या व्यक्ति। वि० दो या अधिक समीपस्थ वस्तुओं आदि का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होनेवाला विशेषण। जैसे—ये लोग।
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येई  : वि० सर्व०=यही। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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येऊ  : अव्य० [हिं० ये+ऊ (प्रत्यय)] यह भी।
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येती  : पुं० [ने] एक प्रकार का कल्पित जन्तु जिसके अस्तित्व का अभी तक पता नहीं चला है। यह बहुत ही भीषण और विशाल माना जाता है, और आजकल हिम मानव के नाम से प्रसिद्ध है।
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येतो  : वि०=एतो (इतना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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येन  : सर्व० [सं०] जिससे। पद—ऐन-केन प्रकारेण=किसी न किसी प्रकार। जैसे हो सके, वैसे। पुं० [जा] एक प्रकार का जापानी सिक्का।
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येमन  : पुं० [सं०] जीमना। खाना।
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येहू  : सर्व०=यह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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येहू  : अव्य० [हिं० यह+हू] यह भी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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यों  : अव्य० [सं० एवमेव, प्रा० एमेअ, अप० एनि] १. इस तरह से। इस प्रकार से। इस भाँति। ऐसे। जैसे—यों काम न चलेगा। २. साधारण अवस्था या रूप में। जैसे—यों देखने में यह सफेद ही मालूम होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
यो  : सर्व०=यह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
यों-ही  : अव्य, [हिं० यों+ही] १. इसी ढंग, तरह या प्रकार से इसी भाँति। २. बिना किसी आवश्यक या प्रयोजन के। निरर्थक। व्यर्थ। जैसे—यह कोठरी यों ही बंद कर दी गई हैं।
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योक्तव्य  : वि० [सं०√युज् (जोड़ना)+तव्यत्] १. युक्त किये जाने अथवा जोड़े जाने के योग्य। २. नियुक्त किये जाने के योग्य।
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योक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० =युज्+तृच्] १. जोड़ने मिलाने या बाँधने वाला। २. उभाड़नेवाला। उत्तेजक। पुं० गाड़ीवान।
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योक्त्र  : पुं० [सं०√युज्+ष्ट्रन्] १. रस्सी। २. वह रस्सी जिससे गाड़ी का बैल जूए में बँधा हो। ३. रस्सी बाँधने का पेंच या औजार।
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योग  : पुं० [सं०√युज्+घञ्] १. दो अथवा पदार्थों का एक में मिलना अथवा उन्हें एक में मिलाना। मिलाप। मेल। २. एक में मिले हुए होने की अवस्था या भाव। मिलन। संयोग। ३. दो या अधिक चीजों या बातों का आपस में होनेवाला सम्पर्क या संबंध। लगाव। ४. आत्म-तत्त्व का चिंतन करते हुए ईश्वर या परमात्मा के साथ मिलकर एक होना। ५. उक्त प्रकार की साधना के उपाय, प्रणाली, स्वरूप आदि बतलानेवाला शास्त्र। विशेष दे० ‘योग-शास्त्र’। ६. तपस्या। ७. ध्यान। ८. आपस में होनेवाला प्रेम और सदभाव। ९. किसी चीज या बात का किया जानेवाला उपयोग, प्रयोग या व्यवहार। १॰. उपयुक्त होने की अवस्था या भाव। उपयुक्ततता। ११. नतीजा। परिणाम। १२. धन तथा संपत्ति प्राप्त करना और बढ़ाना। १३. धन-संपत्ति। दौलत। १४. आमदनी। आय। १५. नफा। लाभ। १६. उपाय। तरकीब। युक्ति। १७. किसी काम या बात के लिए मिलनेवाला उपयुक्त समय या सुभीता। १८. दर्शनकार पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना। मन को इधर-उधर भटकने न देना और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसे एकाग्र करना। विशेष—महर्षि पतंजलि का मत है कि अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश, मनुष्य के जीवन-मरण के चक्र में फँसाए रखते हैं, और वह योग की साधना करके ही इन क्लेशों से बचकर ईश्वर में मिल अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसे संसार से विरक्त होकर प्राणायामपूर्वक ईश्वर का ध्यान करना चाहिए और समाधि लगानी चाहिए। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योग के आठ अंग कहे गये हैं। यह भी कहा गया है कि योग के द्वारा साधक अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा आदि आठ प्रकार की विभूतियाँ या सिद्धियाँ। (दे० ‘सिद्धि’) भी प्राप्त कर सकता है, और अंत में मुक्ति या कैवल्य प्राप्त कर लेता है। १९. गणित में, दो या अधिक राशियों अथवा संख्याओं का जोड़। २॰. किसी काम या बात के लिए आया, हुआ अच्छा अवसर या शुभ काल। २१. फलित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट काल या अवसर जो सूर्य और चंद्रमा के कुछ विशिष्ट स्थानों में आने के कारण होते है और जिनकी संख्या २७ है। २२. फलित ज्योतिष के अनुसार, कुछ विशिष्ट तिथियों, वारों और नक्षत्रों आदि का एक साथ या किसी निश्चित नियम के अनुसार पड़ना। २३. फलित ज्योतिष में किसी एक राशि में कई ग्रहों या आकाशस्थ पिंडों का एक साथ बहुत पास-पास आकर स्थित होना। (कंजन्कशन आफ स्टार्स) जैसे—अष्टग्रही योग। विशेष—ग्रहों की युति और योग में यह अन्तर है कि युति तो उस दशा में मानी जाती है जब एक से अधिक ग्रह एक ही राशि में एक ही क्रांति में एकत्र होते हैं, अर्थात् पृथ्वी पर से एक ही धरातल या सीध में दिखाई देते हैं, पर ग्रहों का योग उस दशा में माना जाता है जब ये एकत्र तो एक ही राशि में होते हैं पर उनकी क्रांतियाँ अलग-अलग होती है, अर्थात् वे भिन्न-भिन्न धरातलों पर होते हैं। २४. छंद, शास्त्र में एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १२, ८ के विश्राम से २0 मात्राएँ और अन्त में यगण होता है। २५. वैद्यक में कुछ विशिष्ट क्रियाओं अथवा प्रकारों से एक में मिलाई हुई अनेक औषधियाँ। औषध। २६. वह उपाय जिसके द्वारा किसी को अपने वश में किया जाय। वशीकरण। २७. साम, दाम, दण्ड और भेद ये चारों उपाय। २८.कायदा। नियम। २९. काम करने का कौशल या चातुरी। होशियारी। ३॰. छल। धोखा। ३१. दगाबाज। धूर्त। ३२. चर। दूत। ३३. गाड़ी, नाद आदि सवारियां। यान। ३४, नाम। संज्ञा। ३५. न्याय शस्त्र का ज्ञाता। नैयायिक। ३६. अस्त्र-शस्त्र आदि धारण करके युद्ध के लिए सुसज्जित होना। ३७. पेशा। वृत्ति। ३८. शब्द की निरुति या ब्युत्पति। शब्दार्थ (रुढि से भिन्न) ३९. किसी सौर जगत् का प्रधान या मुख्य ग्रह। ४॰. ईश्वर। परमात्मा।
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योग-अग्नि  : स्त्री० [सं० योग-अग्नि=योगाग्नि, मध्य० स०] योग और साधना मार्ग में, वह अग्नि या ज्वाला जो साधक अपने शरीर को जलाकर मरने के लिए अपने अन्दर से उत्पन्न करता है। उदाहरण—अस कहि जोग अगिनि तन जारा भयउ सकल मख हाहाकारा।—तुलसी।
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योग-क्षेम  : पुं० [सं० द्व० स०] १. जो वस्तु अपने पास न हो उसे प्राप्त करना और जो मिल चुकी हो, उसकी रक्षा करना। २. जीवन बिताना। गुजारा करना। ३. कुशल-मंगल। खैरियत। ४. दूसरे की सम्पत्ति आदि की रक्षा। ५. मुनाफा। लाभ। ६. राष्ट्र की शान्ति और सुव्यवस्था। ७. ऐसी वस्तु जो उत्तराधिकारियों में न बाँटी गई हो अथवा न बाँटी जाती हो।
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योग-चक्षु (स्)  : पुं० [सं० ब० स०] ब्राह्मण।
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योग-तत्त्व  : पुं० [सं० ष० त०] योग का धर्म या प्रभाव।
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योग-तारा  : पुं० [सं० उपमित० स०] किसी नक्षत्र का प्रधान तारा।
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योग-दर्शन  : पुं० [सं० मयू० स०] महर्षि पतंजलि कृत योग-सूत्र नामक प्रसिद्ध दर्शन-ग्रन्थ जो हमारे यहाँ के छः दर्शनों में से एक है। विशेष—यह समाधि साधन, विभूति और कैवल्य नामक चार पदों या भागों में विभक्त है। इसमें योग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के उद्देश्य, लक्षण तथा साधन के उपाय या प्रकार बतलाये गये हैं, और उसके भिन्न-भिन्न अंगों का विवेचन किया गया है। इसमें चित्त की भूमियों या वृत्तियों का भी विवेचन है। इस योग-सूत्र का प्राचीनतम भाष्य वेद व्यास का है जिस पर वाचस्पति का वार्तिक भी है।
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योग-दान  : पुं० [सं० तृ० त०] १. किसी को सहायता देना। (किसी का) हाथ बँटाना। २. योग की दीक्षा। ३. कपट-भाव से किया हुआ दान।
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योग-धारा  : स्त्री० [सं० ष० त०] ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी।
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योग-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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योग-निद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. पुराणानुसार प्रत्येक युग के अंत में होनेवाली विष्णु की निद्रा। २. योग-साधना में लगनेवाली समाधि। ३. रणक्षेत्र में वीरों की होनेवाली मृत्यु
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योग-पट्ट  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का पहनावा जो पीठ पर से लेकर, कमर में बाँधा जाता था और जिसमें घुटनों तक के अंग ढँके रहते थे। २. साधुओं का अँचला।
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योग-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. शिव।
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योग-पदक  : पुं० [सं० ष० त०] पूजन आदि के समय ओढ़ा जानेवाला एक तरह का चार अंगुल चौड़ा उत्तरीय।
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योग-पाद  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा कृत्य जिससे अभीष्ट की प्राप्ति होती है। (जैन)।
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योग-पारंग  : पुं० [सं० स० त०] शिव। वि० जो योग साधना में प्रवीण हो।
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योग-पीठ  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का योगासन।
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योग-फल  : पुं० [सं० ष० त०] दो या अधिक संख्याओं का जोड़।
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योग-बल  : पुं० [सं० मध्य० स०] योग से प्राप्त होनेवाला तेज या शक्ति।
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योग-भ्रष्ट  : वि० [सं० ष० त०] जिसकी योग की साधना चित्त-विक्षेप आदि के कारण पूरी न हो सकी हो या बीच में ही खंडित हो गई हो। योग-मार्ग से च्युत।
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योग-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दुर्गा। २. पीवरी।
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योग-माया  : स्त्री० [सं० मयू० स०] १. दार्शनिक और धार्मिक सूत्रों में ईश्वर या ब्रह्म की वह माया, जिससे नाम, गुण और रूप से युक्त यह सारी सृष्टि बनी है और जिसके अन्दर ईश्वर या ब्रह्म का तत्त्व छिपा हुआ व्याप्त है। २. पुराणानुसार यशोदा के गर्भ से उत्पन्न वह कन्या जिसे वसुदेव ले जाकर देवकी के पास रख आये थे और जिसके बदले में श्रीकृष्ण को उठा लाये थे कंस ने इसी को देवकी की संतान समझकर जमीन पर पटककर मार डालना चाहा था और यही अष्टभुजा देवी का रूप धारण करके कंस को चेतावनी देती हुई ऊपर उठकर आकाश में विलीन हो गई थीं।
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योग-मूर्तिधर  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। २. पितरों का एक गण या वर्ग।
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योग-यात्रा  : स्त्री० [सं० मध्य०स] फलित ज्योतिष के अनुसार वह योग जो यात्रा के लिए उपयुक्त हो।
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योग-योगी (गिन्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह योगी जो योगासन लगाकर बैठा हो।
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योग-रंग  : पुं० [सं० ब० स०] नारंगी।
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योग-रथ  : पुं० [सं० ष० त०] योग साधन का उपाय या मार्ग।
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योग-राज-गुग्गुल  : पुं० [सं० मध्य० स०] ओषधियों के योग से बना हुआ एक प्रसिद्ध औषध जिसमें गुग्गुल प्रधान है। (वैद्यक)
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योग-रूढ़ि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] दो शब्दों के योग से बना हुआ वह शब्द जो अपना सामान्य अर्थ छोड़कर कोई विशेष अर्थ बतावे।
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योग-रोचना  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] इंद्रजाल करनेवालों का एक प्रकार का लेप।
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योग-वसिष्ठ  : पुं० [सं० मध्य० स०] वेदान्तशास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ जो वसिष्ठ जी का बनाया कहा जाता है।
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योग-विक्रय  : पुं० [सं० तृ० त०] धोखे या बेईमानी के द्वारा होनेवाली बिक्री।
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योग-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें योग सम्बन्धी क्रियाओं का विवेचन होता है। २. दे० ‘योगदर्शन’।
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योग-वृत्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चित्त की वह शुद्ध और शुभ वृत्ति जो योग के द्वारा प्राप्त होती है।
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योग-शक्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. योग के द्वारा प्राप्त होनेवाली शक्ति। २. साहित्य में योग शब्द (देखें) का अर्थ प्रकट करनेवाली शक्ति।
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योग-शब्द  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसा शब्द जिसका प्रचलित या मान्य अर्थ व्युत्पत्ति से प्रकट तथा स्पष्ट होता है।
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योग-शरीरी (रिन्)  : पुं० [सं० च० त०] योगी।
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योग-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त० या मध्य० स०] १. दे० ‘योग-विद्या’। २. दे० ‘योग-दर्शन’।
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योग-शास्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० योगशास्त्र+इनि] योगशास्त्र का ज्ञाता।
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योग-शिक्षा  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक उपनिषद्।
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योग-सत्य  : पुं० [सं० तृ० त०] किसी प्रकार के योग के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला नाम। जैसे—दंड का योग होने पर ‘दंदी’ योग सत्य होता है।
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योग-संसिद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] योग-सिद्धि।
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योग-सार  : पुं० [सं० ष० त०] १. रोगमुक्त तथा स्वथ्य करनेवाला उपचार या उपाय। २. तपस्या।
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योग-सिद्ध  : पुं० [सं० तृ० त०] वह जिसने योग की सिद्धि प्राप्त कर ली हो। सिद्ध योगी।
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योग-सिद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. योग का साधन। २. वह अवस्था जिसमें योग साधन करनेवाला अपने किसी व्यापार द्वारा अभीष्ट सिद्ध करता है।
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योग-सूत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०]=योग-दर्शन।
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योगचर  : पुं० [सं० योग√चर् (गति)+ट, उप० स०] हनुमान।
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योगज  : पुं० [सं० योग√जन् (उत्पत्ति)+ड० उप० स०] १. योग साधन की वह अवस्था जिसमें योगी में अलौकिक वस्तुओं को प्रत्यक्ष कर दिखलाने की शक्ति आ जाती है। वि० योग से उत्पन्न या प्राप्त होनेवाला।
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योगज-फल  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह अंक या फल जो दो अंकों को जोड़ने से प्राप्त हो। जोड़। योग।
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योगंधर  : पुं० [सं० योग√धृ (धारण)+खच्, मुम्, आगम] १. अस्त्र शोधन का एक प्राचीन यंत्र। २. पीतल।
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योगमय  : पुं० [सं० योग+मयट्] विष्णु।
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योगवान् (वत्)  : पुं० [सं० योग+मतुप्] [स्त्री० योगवती] योगी।
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योगवाही (हिन्)  : पुं० [सं० योग√वह+णिनि] वह माध्यम जिसमें औषध आदि मिलाकर खाई जाती हो। जैसे—तुलसी या पान की पत्ती का रस, शहद आदि।
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योगविद्  : पुं० [सं० योग√विद् (ज्ञान)+क्विप्] १. योग शास्त्र का ज्ञाता। २. वह जो ओषधियों के योग से द्रव्य प्रस्तुत करना जानता हो। दवाएँ बनानेवाला। ३. जादूगर। ४. शिव।
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योगव्राह  : पुं० [सं० योग√वह् (ले जाना)+णिच्, +अण्, उप० स०] अनुस्वार और विसर्ग।
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योगाकर्षण  : पुं० [सं० योग-आकर्षण, ष० त०] वह शक्ति जिससे परमाणु परस्पर जुड़े हुए तथा अविभाज्य माने जाते हैं।
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योगांग  : पुं० [सं० योग-अंग, ष० त०] योग के निम्न आठ अंगों में से हर एक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा ध्यान और समाधि।
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योगागम  : पुं० [सं० योग-आगम, मध्य० स०] योग-दर्शन।
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योगाचार  : पुं० [सं० योग-आचार, ष० त०] १. योग का आचरण। योग-साधन। २. बौद्धों का एक संप्रदाय जो महायान की दो शाखाओं में से एक है तथा जिसका मत है कि पदार्थ जो दिखाई पडते है, वे शून्य है।
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योगांजन  : पुं० [सं० योग-अंजन, मध्य० स०] १. आँखों का एक प्रकार का अंजन या प्रलेप जिसको आँखों में लगाने से अनेक रोग दूर होते हैं। २. दे० ‘सिद्धांजन’।
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योगांतराय  : पुं० [सं० योग-अन्तराय, ष० त०] योग में विघ्न डालनेवाली आलस्य आदि दस बातें।
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योगांता  : स्त्री० [सं० योग-अंत, ब० स०-टाप्] बुध की एक गति जिसका भोगकाल आठ दिनों का होता है तथा जो मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्रों की क्रांत करती है।
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योगात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० योग-आत्मन्, ब० स०] योगी।
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योगानुशासन  : पुं० [सं० योग-अनुशासन, मध्य० स०] योग-दर्शन।
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योगाभ्यास  : पुं० [सं० योग-अभ्यास, ष० त०] योगशास्त्र के अनुसार योग के आठ अंगों का अनुष्ठान या साधन।
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योगाभ्यासी (सिन्)  : पुं० [सं० योगाभ्यास+इनि] योग की साधना करनेवाला योगी।
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योगारंग  : पुं० [सं० योग-आरंग, तृ० त०] नारंगी।
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योगाराधन  : पुं० [सं० योग-आराधन, ष० त०] योग की क्रियाओं का अभ्यास करना। योगासाधन।
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योगारूढ़  : पुं० [सं० द्वि० त०] वह योगी जिसने इंद्रिय-सुख आदि की ओर से अपना चित्त हटाकर योगाभ्यास आरंभ कर दिया हो।
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योगासन  : पुं० [सं० योग-आसन, ष० त०] योग-साधन के लिए विहित आसन अर्थात् बैठने के ढंग या मुद्राएँ।
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योगि-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] बेंत।
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योगि-निद्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] थोड़ी सी नींद। झपकी।
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योगित  : भू० कृ० [सं० योग+इतच्] १. जिस पर योग का अभिचार हुआ हो या किया गया हो। २. मंत्र-मुग्ध किया हुआ। ३. सम्मोहित किया हुआ। ४. पागल।
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योगिता  : स्त्री० [सं० योगिन्+तल्-टाप्] योगी होने की अवस्था धर्म या भाव।
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योगित्व  : पुं० [सं० योगिन्+त्व]=योगिता।
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योगिनी  : स्त्री०[सं०√युज् (योग)+घिनुण्+ङीष्] १. योग की साधना करनेवाली स्त्री। योगाभ्या-सिनी। २. एक प्रकार की देवियाँ जिनमें से चौंसठ मुख्य मानी गई है। ३. एक विशिष्ट प्रकार की देवियाँ जिनकी संख्या आठ कही गई है। ४. एक प्रकार की पिशाचिनी। ५. जादूगरनी ६. आषाढ़। कृष्ण एकादशी। ७. पुराणानुसार एक लोक। ८. दे० ‘योग-माया’।
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योगिनी-चक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] तंत्र-शास्त्र में, योगिनियों की स्थिति सूचित करनेवाला एक तरह का चक्र। उक्त चक्र से यह जाना जाता है कि योगिनियाँ किधर या किस दिशा मे हैं।
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योगिया  : पुं० १. दे० ‘योगी’ २. =जोगिया (राग)।
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योगिराज  : पुं० [सं० ष० त०] योगियों में श्रेष्ठ बहुत बड़ा योगी।
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योगी (गिन)  : पुं० [सं०√युज्+घिनुण] १. दुःख, सुख आदि को समान भाव से ग्रहण करनेवाला व्यक्ति। आत्मज्ञानी। २. वह जो योग की साधना करता हो। ३. महादेव। शिव। वि० जुड़ा हुआ संबंधित।
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योगींद्र  : पुं० [सं० योगिन-इंद्र, स० त०] बहुत बड़ा योगी।
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योगीनाथ  : पुं० [सं० योगिनाथ] महादेव। शंकर।
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योगीश  : पुं० [सं० योगिन-ईश, ष० त०] १. योगियों के स्वामी। २. बहुत बड़ा योगी ३. याज्ञवल्क्य का एक नाम।
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योगीश्वर  : पुं० [सं० योगिन्-ईश्वर, ष० त०] १.योगिन में श्रेष्ठ। २.महादेव। ३. याज्ञवल्क्य का एक नाम।
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योगीश्वरी  : स्त्री० [सं० योगिन-ईश्वरी, ष० त०] दुर्गा।
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योगेंद्र  : पुं० [सं० योग-इंद्र, ष० त०] १. बहुत बड़ा योगी। २. वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध।
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योगेश  : पुं० [सं० योग-ईश, ष० त०]=योगीश।
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योगेश्वर  : पुं० [सं० योग-ईश्वर, ष० त०] १. परमेश्वर। २. महादेव। शिव। ३. श्रीकृष्ण। ४. एक प्राचीन तीर्थ। ५. बहुत बड़ा योगी।
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योगेश्वरत्व  : पुं० [सं० योगेश्वर+त्व०] योगेश्वर का भाव या धर्म।
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योगेश्वरी  : स्त्री० [सं० योग-ईश्वरी, ष० त०] १. दुर्गा। २. शाक्तों की एक देवी जो दुर्गा का एक विशिष्ट रूप है। ३. कर्कोटकी।
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योगेष्ट  : पुं० [सं० योग-इष्ट, स० त०] सीसा नामक धातु।
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योग्य  : वि० [सं०√युज्+णिच्, यत्, ये योग+यत्] [भाव० योग्यता] १. जिसमें सोचने-विचारने तथा कुछ विशिष्ट प्रकार के कामों को सुचारु रूप से करने-धरने की सहज क्षमता या क्रियाशीलता हो। काबिल। लायक (एबुल)। २. विद्या संपन्न तथा धीमान्। ३. अनेक प्रकार की युक्तियाँ जानने और उनका उपयोग करने वाला। ४. उचित। ठीक। मुनासिब। ५. जो किसी कार्य, पद आदि के लिए उपयुक्त हो। पात्र। ६. भूमि जो जोतने के लिए उपयुक्त हो। ७. योग करने अर्थात् जोड़नेवाला। ८. दर्शनीय। सुन्दर। ९. आदरणीय। मान्य। पुं० १. पुष्य नक्षत्र। २. ऋद्धि नामक ओषधि। ३. गाड़ी छकड़ा, रथ आदि सवारियाँ। ४. चन्दन।
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योग्यता  : स्त्री० [सं० योग्य+तल्+टाप्] १. योग्य होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. बुद्धिमता, विद्वता या और कोई ऐसा गुण या सामर्थ्य जिससे कोई व्यक्ति किसी काम, पद या बाते के लिए उपयुक्त सिद्ध हो सके। काबिलियत। ३. बड़प्पन। महत्ता। ४. औकात। शक्ति। सामर्थ्य। ५. अनुकूल या उपयुक्त होने की अवस्था या भाव। ६. गुण। सिफत। ७. इज्जत। प्रतिष्ठा। ८. साहित्य में अर्थ-बोध के विचार से वाक्य के तीन गुणों में से एक गुण जिसका अस्तित्व उस दशा में माना जाता है जिसमें वाक्य के अर्थ या आशय की ठीक संगति बैठती है अथवा उसका आशय उपयुक्त अथवा संभव जान पड़ता है।
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योग्यत्व  : पुं० [सं० योग्य+त्व]=योग्यता।
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योग्या  : स्त्री० [सं० योग्य+टाप्] १. कोई काम करने का अभ्यास। मश्क। २. सूर्य की स्त्री। ३. स्त्री।
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योजक  : वि० [सं०√युज्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. जोड़ने या मिलाने वाला। पुं० भूडमरूमध्य।
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योजन  : पुं० [सं०√युज्+णिच्+ल्युट-अन] १. जोड़ने, मिलाने आदि की क्रिया या भाव। योग। २. ईश्वर। परमात्मा। ३. दूरी नापने की एक पुरानी नाप जो किसी के मत से दो कोस की किसी के मत से चार कोस की और किसी के मत से आठ कोस की होती थी।
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योजन-गंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] १. व्यास की माता और शांतनु की भार्या सत्यवती का एक नाम। २. सीता। ३. कस्तूरी।
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योजन-गंधिका  : स्त्री० [सं० योजनगंधा+क+टाप्-इत्व] १. योजनगंधा
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योजन-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] मंजीठ।
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योजन-वल्ली  : स्त्री० [सं० ब० स०] मंजीठ।
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योजना  : स्त्री० [सं०√युज्+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. योग होना। मिलना। २. प्रयोग। व्यवहार। ३. किसी भावी कार्य के निष्पन्न करने का प्रस्तावित कार्य-क्रम। ऐसी रूपरेखा जिसके अनुसार कार्य किया जाने को हो (प्लैनिंग) ४. बनावट। रचना। ५. स्थिरता। ६. प्रबंध।
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योजना-आयोग  : पुं० [सं० ष० त०] वह प्रशासकीय संस्था जो राजकीय योजनाओं का संचालन करती है। (प्लैनिंग कमीशन)
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योजनालय  : पुं० [सं० योजना-आलय, ष० त०] वह भवन जिसमें योजनाएँ बनाई जाती हैं।
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योजनीय  : वि० [सं०√युज्+अनीयर्] १. जो मिलाने के योग्य हो। २. जो जोड़ा या मिलाया जाने को हो। ३. जो किसी काम या बात में लगाये जाने के योग्य हो।
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योजिका  : स्त्री० [सं० योजक+टाप्, इत्व] लेखन शैली में विशिष्ट समस्त पदों के बीच में लगाया जानेवाला चिन्ह (हाइफन) जैसे—जीवन ज्योति, पति-पत्नी आदि में का चिन्ह।
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योजित  : भू० कृ० [सं०√युज्+णिच्+क्त] १. जिसकी योजना की गई हो। २. योजना के रूप में लाया हुआ। ३. जोड़ा या मिलाया हुआ। ४. किसी काम या बात में लगाया हुआ। ५. बनाया या रचा हुआ। रचित। ६. नियमों आदि से बँधा हुआ। नियमबद्ध।
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योजी (जिन्)  : पुं० [सं० युज्+णिनि] वह तत्व या पदार्थ जो दो या अधिक अन्य तत्त्वों या पदार्थों को मिलाता हो। वि० मिलानेवाला। (कनेक्टिव)
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योज्य  : वि० [सं०√युज्+णिच्+यत्] १. जोड़े या मिलाये जाने के योग्य। २. व्यवहार में लाये जाने के योग्य। पुं० गणित में जोड़ी जानेवाली संख्याएँ।
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योत्र  : पुं० [सं० यु (मिश्रण)+ष्ट्रन] वह रस्सी जिससे बैल की गरदन में जूआ बाँधा जाता है। जोत।
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योद्धव्य  : वि० [सं०√युध् (प्रहार)+तव्य] जिससे युद्ध करना हो या युद्ध किया जाने को हो।
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योद्धा (द्ध्)  : पुं० [सं० युध्+तृच्] वह जो युद्ध करता हो। युद्ध करनेवाला सिपाही या सैनिक। (वारियर)।
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योध  : पुं० [सं०√युध्+अच्] योद्धा। सिपाही।
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योधक  : पुं० [सं०√युध्+ण्वुल्-अक] योद्धा। सिपाही।
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योधन  : पुं० [सं०√युध्+ल्युट-अन] १. युद्ध की सामग्री। लड़ाई का सामान। २. युद्ध। लड़ाई।
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योधा  : पुं० =योद्धा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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योधि-बन  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्राचीन जंगल या वन।
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योधी (धिन्)  : पुं० [सं०√युध्+णिनि] योद्धा वीर।
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योध्य  : वि० [सं०√युध्+ण्यत्] १. जिसके साथ युद्ध किया जा सके। २. (कार्य या बात) जिसे आधार या कारण मानकर युद्ध करना हो।
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योनल  : पुं० [सं० यव-नाल, ब० स० पृषो, सिद्धि] ज्वार या मक्का नामक अन्न। यवनाल।
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योनि  : स्त्री० [सं०√यु (मिश्रण)+नि] १. स्त्री की जननेंद्रिय। गर्भाशय और भग। २. स्त्री जाति के जीवों, पदार्थों आदि का वह अंग जिससे वे अपना वंश बढ़ाने के लिए अपने ही वर्ग के अन्य जीव, पदार्थ आदि उत्पन्न करते हैं। २. देह। शरीर। ४. उक्त के आधार पर जीवों, पदार्थों आदि के अलग अलग वर्ग या विभाग। जैसे—पक्षियों, पशुओं, मनुष्यों या वृक्षों की योनि में जन्म लेना। विशेष— हमारे यहाँ के पुराणों में कुल चौरासी लाख योनियाँ कही गई हैं। जैसे—मनुष्यों की चार लाख, पशुओं की तीन लाख, पक्षियों की दस लाख, कीड़े मकोडों की ग्यारह लाख आदि-आदि। ५. वह जिससे कोई वस्तु उत्पन्न हो। उत्पादक कारण। ६. जन्म। ७. उत्पत्ति या उद्गम का स्थान। ८. आकर। खान। खानि। ९. जल। पानी। १॰. अंतःकरण। ११. पुराणानुसार कुश द्वीप की एक नदी।
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योनि-कंद  : पुं० [सं० स० त०] योनि में होनेवाली एक तरह की गाँठ जिसमें से मवाद या रक्त बहता रहता है।
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योनि-देवता  : पुं० [सं० ब० स०] पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र।
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योनि-दोष  : पुं० [सं० ष० य०] उपदंश रोग। गरमी आतशक।
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योनि-फूल  : पुं० [सं० योनि+हिं० फूल] योनि के अंदर की वह गाँठ जिसके ऊपर एक छेद होता है।
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योनि-भ्रंश  : पुं० [सं० ष० त०] योनि का एक रोग जिसमें गर्भाशय अपने स्थान से कुछ हट जाता है।
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योनि-मुक्त  : वि० [सं० पं० त०] जो किसी योनि में न हो अर्थात् जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति पा चुका हो।
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योनि-मुद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] तांत्रिक पूजन आदि के समय उँगलियो से बनाई जानेवाली योनि की आकृति।
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योनि-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] कामाक्षा, गया आदि कुछ विशिष्ट तीर्थ स्थानों में बना हुआ एक प्रकार का बहुत ही संकीर्ण मार्ग, जिससे होकर निकलने पर मोक्ष की प्राप्ति मानी जाती है।
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योनि-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में एक नास्तिक दार्शनिक संप्रदाय।
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योनि-शूल  : पुं० [सं० ष० त०] योनि में होनेवाली पीड़ा।
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योनि-संकर  : पुं० [सं० तृ० त०] वर्ण-संकर।
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योनि-संकोचन  : पुं० [सं० ष० त०] १. योनि को सिकोड़ने की क्रिया। २. ऐसी दवा जिसके प्रयोग से योनि का मुख छोटा हो जाता या सिकुड़ जाता हो।
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योनि-संभव  : वि० [सं० योनि-सम√भू (होना)+अप, उप० स०] जो योनि से उत्पन्न हुआ हो। योनिज।
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योनि-संवरण  : पुं० [सं० ष० त०] स्त्रियों का एक प्रकार का रोग जिसमें गर्भाशय का द्वार रुक जाता या बंद हो जाता है और जिससे दम घुटने के कारण अन्दर का बच्चा मर जाता है।
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योनिक  : वि० [सं० योनि+हिं० क (प्रत्यय)] १. योनि-संबंधी। योनि। २. जिसमें योनि अर्थात् स्त्री-पुरुष या पत्नी वाले सम्बन्ध की कोई बात हो। (सेक्सी)।
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योनिज  : वि० [सं० योनि√जन् (उत्पत्ति)+ड] जिसने योनि से जन्म लिया हुआ हो। अंडज से भिन्न। पुं० योनि से उत्पन्न जीव या प्राणी।
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योनिवादी (दिन्)  : वि० [सं० योनिवाद√इनि] योनिवाद-संबंधी। योनिवाद का। पुं० योनिवाद का अनुयायी व्यक्ति।
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योनिशुलध्नी  : स्त्री० [सं० योनिशूल√हन् (हिंसा)+टक्+ङीष्] शतपुष्पा।
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योन्यर्श  : पुं० [सं० योनि-अर्श, मध्य० स०] योनिकंद। (दे०)
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योम  : पुं० [अ० यौम] १. दिन। रोज। २. तारीख। तिथि।
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योरोप  : पुं० =युरोप।
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योरोपियन  : पुं० =युरोपियन।
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योषा  : स्त्री० [सं०√यु+स+टाप्] नारी। स्त्री। औरत।
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योषित  : स्त्री० [सं०√युष्+इति] =योषा।
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योषिता  : स्त्री० [सं० योषित+टाप्] स्त्री०। नारी।
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योषित्प्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] हलदी।
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यौ  : अव्य० दे० ‘यों’।
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यौ  : सर्व०=यह।
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यौक्तिक  : वि० [सं० युक्ति+टक्,—इक] १. युक्ति के रूप में होनेवाला। युक्तिसंगत। युक्तियुक्त। ठीक। २. जो क्रीड़ा, विनोद आदि में साथ रहता हो। नर्मसखा। ३. क्रीड़ा। विनोद।
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यौग  : पुं० [सं० योग+अण्] योग-दर्शन का अनुयायी। वि० योग-संबंधी। योग का।
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यौगक  : वि० [सं० योग+कन्] योग-संबंधी। योग का।
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यौगंधर  : पुं० [सं० युगंधर+घञ्] अस्त्रों को विषाक्त करने का एक प्रकार का अस्त्र।
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यौगंधरायण  : पुं० [सं० युगन्धर+फक्-आयन] १. वह जो युगंधर के गोत्र से उत्पन्न हुआ हो। २. उद्यन का एक मन्त्री।
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यौगिक  : वि० [सं० योग+ठञ्-इक] १. योग अर्थात् जोड़ से संबंध रखनेवाला। २. योग अथवा जोड़ के रुप में अथवा योग के फलस्वरूप होनेवाला। जैसे—यौगिक पद। पुं० १. व्याकरण में प्रकृति और प्रत्यय से बना हुआ शब्द। २. दो शब्दों के योग या मेल से बना हुआ पद। ३. छन्दशास्त्र में, अट्ठाइस मात्राओं वाले छंदों की संज्ञा।
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यौजनिक  : वि० [सं० योजन+ठञ्-इक] १. योजन सम्बन्धी। योजन का। २. एक योजन तक जानेवाला।
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यौतक  : पुं० [सं० युतक+अण्] यौतुक। दहेज।
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यौतुक  : पुं० [सं० यौतु+कण्] १. विवाह के समय मिला हुआ धन। दहेज। २. चढ़ावा। ३. उपहार।
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यौथिक  : वि० [सं० यूथ+ठक्—इक] १. यूथ संबंधी। समूह का। २. यूथ या झुंड में रहनेवाला (जीव या प्राणी)।
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यौथिकी  : स्त्री० [सं० यूथ से] वैष्णव भक्तों के अनुसार ऐसी गोपियों का वर्ग जो किसी समय ऋषि-मुनियों के रूप में रहकर तपस्या कर चुकी थीं, और उसके फलस्वरूप अब श्रीकृष्ण के नित्य साथ रहकर लीला करती हैं।
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यौद्धिक  : वि० [सं० युद्ध+ठक्-इक] युद्ध-संबंधी।
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यौधेय  : पुं० [सं० योध+ढञ्-एय] १. योद्धा। २. युधिष्ठिर के एक पुत्र का नाम। ३. प्राचीन भारत की एक योद्धा जाति जो आधुनिक हरियाने के आस-पास रहती थी और जिसका उल्लेख पाणिनी तक ने किया है। ४. उक्त जाति के रहने का प्रदेश जो आज-कल के हरियाने के आस पास था।
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यौन  : वि० [सं० योनि+अण्] [भाव० यौनता] १. योनि-संबंधी। २. पुरुष और स्त्रियों की जननेंद्रियों से संबंध रखनेवाला। जैसे—योन विज्ञान, यौन संसर्ग आदि। ३. जिसमें योनि या स्त्रीलिंग और पुलिंग का भेद हो। जैसे—यौन वनस्पतियाँ या पेड़-पौधे। पुं० उत्तरापथ की एक प्राचीन जाति जिसका उल्लेख महाभारत में है।
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यौन-विकृति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] आधुनिक मनोविज्ञान में काम-वासना की तृप्ति के लिए उत्पन्न होनेवाली वह विकृत स्थिति जो स्वाभाविक संभोग से भिन्न और उसके विपरीत हो। जैसे—आत्मरति, समलिंगी, रति, अन्य जातियों या वर्गों के जीव-जन्तुओं के साथ की जानेवाली रति।
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यौन-विज्ञान  : पुं० [सं० कर्म० स०]=यौनिकी।
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यौनकी  : स्त्री० [सं० यौन से] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि स्त्रियों और पुरुषों की जननेंद्रियों की कैसी बनावट होती है, उनमें किस प्रकार यौन-सम्बन्ध तथा गर्भाधान होता है आदि आदि। (सेक्सालाजी)
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यौनता  : स्त्री० [सं० यौन+तल्—टाप्] १. यौन होने की अवस्था या भाव। यौनभाव। २. स्त्री और पुरुष या नर और मादा के स्वतन्त्र अस्तित्व की धारणा या भाव। लिंगिता। (सेक्सुएलिटी)
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यौवत  : पुं० [सं० युवती+अण्, पुंवदभाव] १. युवती स्त्रियों का समूह। २. लास्य नृत्य का एक भेद जिसमें स्त्रियाँ सामूहिक रूप से नाचती हैं।
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यौवतेय  : पुं० [सं० युवती+ढक्-एय] युवती स्त्री का पुत्र या सन्तान।
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यौवन  : पुं० [सं० युवन+अण्] १. युवा या युवती होने की अवस्था या भाव। २. अवस्था वह मध्य भाग जो बाल्यावस्था के उपरांत आरम्भ होता है, और जिसकी समाप्ति पर वृद्धावस्था आती है। जवानी। ३. किसी तत्त्व या वस्तु की वह अवस्था जिसमें वह अपने पूरे ओज, जोर या बाढ़ पर हो। बीच का सर्वोत्तम समय। ४. युवतियों का दल या समूह। ५. दे० ‘जोबन’।
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यौवन-कंटक  : पुं० [सं० स० त०] मुँहासा जो पुरुषों और स्त्रियों के चेहरे पर युवावस्था में होता है।
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यौवन-पिड़का  : पुं० [सं० स० त०] मुँहासा।
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यौवन-लक्षण  : पुं० [सं० ष० त०] १. स्त्रियों का स्तन जो उनके यौवन का लक्षण है। २. चेहरे पर की चमक। लावण्य।
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यौवनाधिरूढ़ा  : वि० [सं० यौवन-अधिरूढ़ा, स० त०] युवती। जवान (स्त्री)।
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यौवनाश्व  : पुं० [सं० युवनाश्व+अण्] राजा मांधाता का एक नाम।
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यौवनिक  : वि० [सं० यौवन+ठक्-इक] यौवन संबंधी। यौवन का।
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यौवराजिक  : वि० [सं० युवराज+ठञ्-इक] युवराज सम्बन्धी। युवराज का।
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यौवराज्य  : पुं० [सं० युवराज+ष्यञ्] १. युवराज होने की अवस्था या भाव। २. युवराज का पद।
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यौवराज्याभिषेक  : पुं० [सं० यौवराज्य-अभिषेक, स० त०] प्राचीन भारत में वह अभिषेक और उसके संबंध का कृत्य तथा उत्सव जो किसी को युवराज के पद पर प्रतिष्ठित करने के समय होता था। युवराज के अभिषेक कृत्य।
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