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मन  : पुं० [सं० दे० ’मनः’] १. प्राणियों के अंतःकरण का वह अंश जिससे वे अनुभव, इच्छा, बोध, विचार और संकल्प-विकल्प करते हैं। विशेष—(क) शास्त्रीय दृष्टि से उन सभी शक्तियों का उद्गम या मूल है जिनके द्वारा हम सब काम करते, सब बातें जानते और याद रखते तथा सब कुछ सोचते-समझते हैं। इसीलिए वैशेषिक ने इस उभयात्मक अर्थात् कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों के गुणों से युक्त माना है। यह आत्मा, शरीर तथा हृदय तीनों से भिन्न एक स्वतंत्र तत्त्व है, और अंतःकरण और चार वृत्तियों में से एक वृत्ति के रूप में माना गया है। (शेष तीन वृत्तियाँ चित्त, बुद्धि और अहंकार हैं।) परन्तु योग-शास्त्र में इसी को चित्त कहा गया है। शरीर के अंत के साथ इसका भी अंत हो जाता है। (ख) भाषिक क्षेत्र में यह अर्थ और प्रयोग की दृष्टि से बहुत व्यापक शब्द है। अनभूति, अनुराग, उत्साह, प्रकृति, प्रवृत्ति, विचार, संकल्प आदि अनेक प्रसंगों में इसका प्रयोग होता है, और इसके बहुत से मुहावरे उक्त बातों से सम्बद्ध हैं। कुछ अवस्थाओं में यह चित्त और हृदय के पर्याय के रूप में भी प्रयुक्त होता है। पद—मन का मारा=बहुत ही उदास, खिन्न और हतोत्साह। मन का मैला=जिसके मन में कपट, द्वेष, वैर आदि दूषित भाव प्रबल होते हों। मन ही मन=अपने हृदय में और चुपचाप। बिना किसी से कुछ कहे-सुने। मुहा०—(किसी से) मन अटकना=श्रृंगारिक क्षेत्र में, किसी से अनुराग या प्रेम का सम्बन्ध होना। मन अपनाना=अपने मन को अपने वश में करना या धैर्य धारण करते हुए शांत करना। उदा०—सूर श्याम देखैं बिनु सजनी कैसे मन अपनाऊँ।—सूर। (किसी पर) मन आना=किसी के प्रति काम-पूर्ण अनुसार या वासना उत्पन्न होना। (किसी से) मन उलझना=दे० ऊपर किसी से मन अटकना’। मन कचोटना=कष्ट, पश्चात्ताप, वियोग आदि के कारण मन में क्लेष या दुःख होना। (किसी काम, चीज या बात के लिए) मन करना=इच्छा य प्रवृत्ति होना। जी चाहन। जैसे—आज तो खीर खाने को हमारा मन करता है। मन की मन में रहना=(क) मन की बात दूसरे पर प्रकट करने के अवसर न मिलना (ख) इच्छा, कामना आदि की तृप्ति या पूर्ति न होना। जैसे—मैंने कई बार उनसे मिलना चाहा, पर मन की मन में ही रह गई; अर्थात् उनसे किसी प्रकार भेंट न हो सकी। मन के लड्डू खाना=ऐसी बात सोचकर प्रसन्न होना जिसका पूरा होना असंभव हो। व्यर्थ की आशा पर प्रसन्न होना। मन खराब होना=(क) मन में कोई कुरुचि या विरक्त करनेवाली बात या भावना उत्पन्न होना। जैसे—तुम्हारी दुष्टताओं से सबका मन खराब होता है। (ख) शरीर अस्वस्थ या रोगयुक्त होना। (ग) कै या मिचली मालूम होना। (किसी से) मन खोलना=दुराव छोड़कर किसी पर अपना उद्देश्य या विचार प्रकट करना। (किसी काम, चीज या बात पर) मन चलना=इच्छा या प्रवृत्त होना। जैसे—बीमारी में तरह-तरह की चीजों पर मन चलता है (अर्थात् तरह-तरह की चीजें खाने को जी चाहता है)। (किसी का) मन टटोलना=बातों ही बातों में किसी के भावों, विचारों आदि से परिचित होने का प्रयत्न करना। मन टूटना=उत्साह, उमंग, साहस आदि का नाश या ह्रास होना। (किसी काम चीज या बात पर) मन डालना=कुछ करने, पाने आदि के लिए मन चंचल होना। चित्त चलायमान होना। (किसी को) मन तोड़ना=उत्साह या उमंग में बाधक होकर उसका अंत करना। हतोत्साह करना। (किसी काम या बात में) मन देना=अच्छी तरह चित्त या मन लगाना। जैसे—हम काम मन देकर किया करो। (किसी को) अपना मन देना=(क) किसी के प्रति अपने मन के भाव प्रकट करना। (ख) किसी पर पूर्णरूप से अनुरक्त होना। प्रेम के कारण किसी के वश में होना। आसक्त होना। मन धरना=ध्यान देना। मन लगाना। (किसी से) मन फट जाना या फिर जाना=किसी के अनुचित कृत्य या व्यवहार के कारण उससे विरक्त होना। मन फेरना=किसी काम या बात से मन हटाना। किसी और प्रवृत्ति न होने देना। मन बढ़ना=उत्साह या साहस बढ़ना। (अपना) मन बढ़ाना=मन को अधिक प्रवृत्त करना। (किसी का) मन बढ़ाना=उत्तेजित या उत्साहित करना। बढ़ावा देना। मन बहलाना=खिन्न या दुःखी चित्त को किसी काम में लगाकर खेद और दुःख दूर करके आनंदित या प्रसन्न करना। मन बिगड़ना=दे० ऊपर ‘मन खराब होना’। (अपना) मन बूझना=मन में ढारस, तृप्ति, धैर्य, शांति या संतोष होना। (किसी का) मन बूझना=किसी के मन की थाह लेना। मन भर जाना=अंधा जाना। तृप्ति होना। विशेष अनुराग या प्रवृत्ति न रह जाना। (किसी काम या बात से) मन भरना=(क) प्रतीत न होना। (ख) तृप्ति या संतोष होना। (ग) अधिक तृप्ति होने के कारण अनुराग या प्रवृत्ति न रह जाना। मन भाना=मन को अच्छा या भला जान पड़ना। मन भारी होना=मन में किसी प्रकार की अस्वस्थता का अनुभव या बोध होना। (किसी की ओर से) मन भारी होना=दुःख, द्वेष आदि के कारण किसी के प्रति पहले का-सा अनुराग न रह जाना। मन मानना=किसी काम या बात के संबंध में, मन में तृप्ति निश्चय या संतोष होना अथवा निश्चिततापूर्वक उसकी ओर प्रवृत्त होना। जैसे—मन माने तो सौदा पक्का कर लो। (किसी से) मन मानना=किसी के साथ अनुराग या प्रेम होना। उदा०—(क) सखी री शायम सों मन मान्यौ।—सूर। (ख) राम नाम जाका मन माना।—तुलसी। (अपना) मन मानना=(ख) प्रवृत्तियों को दबाकर मन को वश में करना या रखना। इच्छा या मन का भाव दबाना या रोकना। (ख) मन की उमंग पूरी न होने के कारण उदास या खिन्न होना। उदा०—मौन गहौ, मन मारे रहो, निज प्रीतम की कहौं कौन कहानी।—प्रताप। (किसी से) मन मिलाना=(क) प्रकृति, प्रवृत्ति, रुचि, विचार आदि की समानता के कारण किसी से आत्मीयता का संबंध होना। जैसे—मन मिले का मेला। (कहा०) (ख) श्रृंगारिक दृष्टि से अनुराग या प्रेम होना। मन में आना=(क) किसी काम या बात के लिए मन में कोई भाव या विचार उत्पन्न होना। जैसे—आज मन में आया कि चलकर तुम से मिल आऊँ। (ख) कोई बात ध्यान या समझ में न आना। अच्छा या ठीक मालूम होना। उदा०—और देत कछु मन नहि आवै।—सूर। (ग) मन पर किसी बात का प्रभाव पड़ना। उदा०—ता सों उन कटु बचन सुनाये, पै ताके मन कछु न आये।—सूर। मन में जमना या बैठना=उचित या ठीक जान पड़ना। मन में ठानना=निश्चय करना। दृढ़ संकल्प करना। मन में धरना=दे० भपर ‘मन में ठानना’। मन में बसना=बहुत अच्छा लगने या पसन्द आने के कारण मन में बराबर ध्यान बना रहना। (कोई बात) मन में भरना=हृदयंकम करना। मन में जमाकर रखना। (कोई बात) मन में रखना=(क) अच्छी तरह छिपाकर रखना। किसी पर प्रकट न होने देना। (ख) अच्छी तरह ध्यान में या स्मरण में रखना। मन में लाना=(क) विचार करना। सोचना। (ख) कोई काम करने का विचार या संकल्प करना। जैसे—अगर मन में लाओ तो तुम जरूर यह काम कर सकते हो। (किसी से) मन मैला करना=किसी की ओर से अपने मन में दुर्भाव द्वेष या वैर-विरोध रखना। (किसी से) मन मोटा होना=दे० ऊपर (किसी की ओर से) मन भारी होना’। मन मोड़ना=प्रवृत्ति या विचार को एक ओर हटाकर दूसरी ओर लगाना। (किसी का) मन रखना=किसी को प्रसन्न रखने के लिए उसकी इच्छा पूरी करना। मन रहना या रह जाना=इच्छा या कार्य की ऐसी आंशिक पूर्ति होना कि निराश या हताश न होना पड़े। (किसी काम या बात में) मन लगाना=पूरा अवधान या ध्यान होना। चित्त का प्रवृत्त या संलग्न होना। जैसे—संगीत में उनका मन लगता है। (किसी स्थान पर) मन लगाना=भला जान पड़ने के कारण रहने की इच्छा होना या जी न ऊबना। (किसी काम या बात में) मन लगाना=अच्छी तरह ध्यान देते हुए या मनोयोगपूर्वक संलग्न होना। (किसी व्यक्ति से) मन लगाना=किसी से अनुराग या प्रेम करना। मन लाना=(क) मन लगाना। जी लगाना। (ख) मन में निश्चय या संकल्प करना। (किसी का) मन लेना=(क) किसी के मन की भीतरी बातों की थाह या पता लेना। जैसे—आज वह भी मेरा मन लेने आये थे, पर मैंने उन्हें इधर-उधर की बातों में टाल दिया। (ख) किसी को अपनी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त करना। (ग) किसी को किसी रूप में अपने अधिकार या वश में करना मन से उतरना=ध्यान या स्मृति में न रह जाना। भूल जाना। विस्मृत होना। (किसी का) मन हरना=किसी को अपने प्रति मुग्ध या मोहित करना। मन हरा होना=खिन्न या दुःखी मन का प्रफुल्लित या प्रसन्न होना। (किसी का मन) हाथ में लेना या करना=किसी का मन अपने अधिकार या वश में करना। अपना अनुगामी, प्रेमी या भक्त बनाना। मन होना=इच्छा होना। पुं० [सामीमिनः वैदिक सं० मना] १. चालीस सेर की तौल या परिमाण। २. उक्त तौल या परिमाण का बाट। पुं०=मणि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनः (नस्)  : पुं० [सं०√मन् (मानना)+असुन्] मन।
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मनः कल्पित  : वि० [सं० तृ० त०] मनगढ़ंत। फरजी।
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मन-चाहता  : वि० [हिं० मन+चाहना] [स्त्री० मनचाहती] १. जो मन के अनुकूल हो। २. जिसे मन चाहे। प्रिय।
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मन-चाहा  : वि० [हिं० मन+चाहना] [स्त्री० मनचाहती] १. जो मन के अनुकूल हो। २. जिसे मन चाहे। प्रिय।
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मन-चाहा  : वि० [हिं० मन+चाहना] [स्त्री० मनचाही] १. जिसे मन चाहता हो। जैसे—मन-चाहा काम, मनचाही नौकरी। २ इच्छानुसार किया हुआ।
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मन-चीतना  : वि०=मन-चीता।
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मन-चीता  : वि० [हिं० मन-चेतना] [स्त्री० मनचीती] मन में चाहा और सोचा हुआ।
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मन-परेखा  : पुं० [हिं०] १. मन में होनेवाला मान-अपमान आदि का विचार और अपमान के कारण होनेवाला क्षोभ। २. आशा। भरोसा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मन-भंग  : पुं० [सं० मनोभंग] बदरिका आश्रम के पास का एक पर्वत।
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मन-भरौती  : स्त्री० [हिं० मन भरना] १. मन भरने की क्रिया या भाव। मनस्तोष। खुशामद। चापलूसी। उदा०—अफसरों के बंगले पर जाना और सलाम बोलकर मनभरौती कर आना।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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मन-भाया  : वि० [सं० मन+हिं० भाना] [स्त्री० मन-भाई] १. जो मन भाता या रुचिकर प्रतीत होता हो। मन को भाने या अच्छा लगनेवाला। २. प्रिय। प्यारा।
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मन-भावता  : वि०=मन-भाया।
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मन-भावन  : वि०=मनभाया। उदा०—सावन की मन भावन की, घिरि आइ बदरिया।—गीत।
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मन-मति  : वि० [मन+मति] अपने मन का काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी।
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मन-मत्त  : वि०=मैमंत (मदमत्त)।
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मन-मथ  : पुं० =मन्मथ (कामदेव)।
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मन-मानता  : वि० [हिं० मन+मानना] १. मनमाना। २. मनचाहा।
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मन-मुखी (खिन्)  : वि० [सं० मन+मुखी] मनमाना काम करनेवाला स्वेच्छाचारी।
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मन-मुटाव  : पुं०=मनमोटाव।
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मन-मोटाव  : पुं० [सं० मन+हिं० मोटाव] द्वेष आदि के फलस्वरूप होनेवाली वह स्थिति जिसमे किसी दूसरे से कुछ खिंचा रहता है।
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मन-मोदक  : पुं० [हिं० मन-मोदक] केवल अपना मन प्रसन्न करने के लिए बनाई हुई ऐसी कल्पना जिसका कोई वास्तविक आधार न हो।
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मन-मोहन  : वि० [सं०] [स्त्री० मनमोहनी] १. मन को मोहनेवाला। २. प्रिय। प्यारा। पुं० श्रीकृष्ण।
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मन-मौज  : पुं० [सं० मन+मौज] १. मन की तरंग। १. हार्दिक प्रसन्नता। ३. अपनी प्रसन्नता या सुख के लिए किया जानेवाला काम या खेल।
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मन-मौजी  : वि० [हिं० मनमौज] १. अपने मन में उठी तरंग के अनुसार काम करनेवाला। २. अपनी प्रसन्नता के उद्देश्य से कोई विशेष आचरण या व्यवहार करनेवाला।
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मन-रोचन  : वि० [सं० मनरोचन] मन को मुग्ध करनेवाला। सुन्दर।
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मनई  : पुं० [स० मानव] मनुष्य।
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मनउती  : स्त्री०=मनौती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनकना  : अ० [अनु०] १. हिलना-डोलना। चेष्टा करना। हाथ-पैर चलाना। अ०=मिनकना।
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मनकरा  : वि० [हि० मणि+कर (प्रत्य०)] चमकदार। चमकीला।
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मनका  : पुं० [सं० मणिक] १. धातु, लकड़ी, आदि का वह गोल या अंडाकार छोटा टुकड़ा जिसके बीचोबीच छेद होता है तथा जो माला के रूप में पिरोया जाता है। एक साथ पिरोये जानेवाले बहुत से मनके माला का रूप धारण कर लेते हैं। २. माला। सुमरनी। उदा०—करका मन का छोड़कर मनका मनका फेर। पुं० [सं० मन्यका=गले की नस] गरदन के पीछे की वह हड्डी जो रीढ़ के ठीक ऊपरी भाग में होती है। मुहा०—मन का ढलना या ढलकना=आसन्न मृत्यु के समय रोगी की गरदन टेढ़ी हो जाना।
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मनकामना  : स्त्री०=मनःकामना (मनोरथ)।
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मनकुमार  : पुं० [सं० मनःकुमार] कामदेव। उदा०—कुवलय-दल सुकुमार तन, मन-कुमार जय भार।—मतिराम।
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मनकूल  : वि० [अ० मन्कूल] १. जिसकी प्रतिलिपि तैयार कर ली गई हो। नकल किया हुआ। प्रतिलिपित। २. (सम्पत्ति) जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाई जा सके। चल। पद—मनकूला जायदाद=चल संपत्ति।
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मनकूहा  : वि० स्त्री० [अ० मन्कूहः] (स्त्री) जिसका विवाह हो चुका हो। जो ब्याही हुई हो। परिणीता। विवाहिता।
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मनःक्षेप  : पुं० [सं० ष० त०] मन में होनेवाला उद्वेग।
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मनगढ़ंत  : वि० [हिं० मन=गढ़ना] मन द्वारा गढ़ा हुआ। फलतः कल्पित स्त्री०=कल्पित या मिथ्या बात।
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मनचला  : वि० [सं० मन+हिं० चलना] [स्त्री० मनचली] १. (व्यक्ति) जिसका मन आकर्षक तथा सुन्दर वस्तुओं की प्राप्ति के लिए ललचा उठता हो। २. (व्यक्ति) जो प्रायः किसी आकर्षक तथा सुन्दर वस्तु की प्राप्ति के लिए किसी प्रकार की जोखिम का काम करने के लिए प्रस्तुत हो जाय। ३. कामुक तथा रसिक स्वभाववाला।
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मनचाहे  : अव्य० [हिं० मन-चाहा] इच्छानुसार।
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मनजात  : पुं० [सं० मनोजात] कामदेव।
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मनतोरवा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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मनन  : पुं० [सं०√मन् (मानना)+ल्युट्—अन] १. मन लगाकर कोई काम सोचना या समझना। २. किसी विषय में सब अंगों पर अच्छी तरह विचार करते हुए उसे समझने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न या प्रयास। चिंतन। (कन्टेम्प्लेशन)। जैसे—आध्यात्मिक ग्रंथों या राजनीतिक समस्याओं का मनन। ३. वेदांत शास्त्रानुसार सुने हुए वाक्यों पर बार बार विचार करना और प्रश्नोत्तर या शंका-समाधान द्वारा उसका निश्चय करना।
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मनन-शील  : वि० [सं० ब० स०] जो स्वाभावतः मनन करने में प्रवृत्त रहता हो।
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मननाना  : अ० [मन मन से अनु०] गुँजारना। गूँजना।
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मनःपति  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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मनःपर्याप्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] मन से संकल्प विकल्प या बोध प्राप्ति करने की शक्ति।
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मनःपर्याय  : पुं० [सं० ष० त०] सत्य का बोध होने से ठीक पहलेवाली स्थिति (जैन)।
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मनःपूत  : वि० [सं० तृ० त०] १. पवित्र मन या शुद्ध आत्मावाला। २. मन की दृष्टि से जो पवित्र तथा शुद्ध हो। ३. जितना मन चाहता हो उतना।
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मनःप्रसूत  : वि० [सं० स० त०] १. मन में उत्पन्न होनेवाला। २. कल्पित।
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मनःप्रीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] मन की प्रसन्नता।
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मनःभव  : वि० [सं० मनोभव] १. मन से उत्पन्न। २. कल्पित।
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मनमाना  : वि० [सं० मन+हि० मानना] १. (व्यक्ति) जो अपनी इच्छा को सर्वोपरि महत्त्व देता हो; और किसी की इच्छा बात या राय को कुछ भी महत्त्व न देता हो। २. (आचार या व्यवहार) जो अपनी इच्छा से तथा बिना किसी सुख-सुभीते का ध्यान रखे किया गया हो।
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मनमानी  : स्त्री० [हिं० मन-माना] १. मनमाना कार्य। २. वह स्थिति जिसमें बिना औचित्य आदि का विचार किये मन-माने ढंग से काम किया जाय।
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मनरंज  : वि०=मनरंजन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनरंजन  : वि० [हिं० मन+रंजन] मनोरंजन करनेवाला। मन को प्रसन्न करनेवाला। पुं०=मनोरंजन।
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मनलाडू  : पुं०=मनमोदक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनवाँ  : पुं० [देश०] देव-कपास। रामकपास। नरमा। पुं०=मन।
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मनवांछित  : वि०=मनोवांछित।
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मनवाना  : सं० [हिं० मनाना का प्रे०] १. किसी को कुछ मान लेने में प्रवृत्त या विवश करना। २. मनाने का काम किसी दूसरे से कराना।
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मनःविश्लेषण  : पुं०=मनोविश्लेषण।
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मनःशक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] मानसिक शक्ति। मनोबल।
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मनशा  : स्त्री० [अ० मन्शा] १. आशय। मतलब। २. उद्देश्य। प्रयोजन। ३. इच्छा। इरादा। संकल्प।
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मनःशास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०]=मानस शास्त्र। मनोविज्ञान।
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मनःशिल  : पुं० [सं० मनस्√शिल् (आकर्षित करना)+क] मैनसिल (खनिज द्रव्य)।
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मनःशिला  : स्त्री० [सं० मनःशिल+टाप्] मैनसिल।
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मनसना  : स० [सं० मनस्यन] १. मन में इच्छा विचार या संकल्प करना। उदा०—मनसई नारि किया तन छारा।—गोरखनाथ। २. मन में दृढ़ निश्चय या संकलन करना। ३. कोई चीज दान करने के उद्देश्य से सामने रखकर या हाथ में लेकर विधि से संकल्प या मंत्र पढ़ना।
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मनसब  : पुं० [अ० मंसब] १. राज्य, शासन आदि में ऐसा ऊँचा पद जिसके साथ कुछ विशिष्ट अधिकार भी प्राप्त हो। २. कर्त्तव्य। कर्म। कृत्य। ३. अधिकार। इख्तियार।
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मनसबदार  : पुं० [अं० मंसब+फा० दार] वह जो किसी मनसब अर्थात् ऊँचे पद पर आसीन हो।
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मनःसंस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] मन का परिष्कार।
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मनसा  : स्त्री० [सं० मनस्+अच्+टाप्] एक देवी जो पुराणानुसार जरत्कारु मुनि की पत्नी और आस्तीक की माता थी तथा कश्यप की पुत्री और बासुकी की बहन थी। वह साँपों के कुल की अधिष्ठात्री मानी गई है। वि० १. मन से उत्पन्न। २. मन-सम्बन्धी। मन का। क्रि० वि० मन के द्वारा। मन से। स्त्री० [अ० मंशा] १. इरादा। विचार। २. अभिलाषा। कामना। ३. मन। ४. बुद्धि। ५. अभिप्राय। ६. उद्देश्य। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो बहुत तेजी से बढ़ती और पशुओं के लिए बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है। मकड़ा। मधाना। खमकरा।
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मनसा-पंचमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] आषाढ़ की कृष्णपंचमी। इस दिन मनसा देवी का उत्सव होता है।
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मनसाकर  : वि० [हिं० मनसा+सं० कर (प्रत्य०)] मनोवांछित फल देनेवाला। मनोकामना पूर्ण करनेवाला।
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मनसाना  : अ० [हिं० मनसा] उमंग में आना। तरंग में आना। स० [हिं० मनसना का प्रे०] किसी को कुछ मनसने में प्रवृत्त करना। मनसवाना।
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मनसायन  : वि० [हिं० मानपस=मनुष्य+आयन (प्रत्य०)] १. ऐसी स्थिति जिसमें कुछ लोगों के रहने के कारण अच्छी चहल-पहल हो। क्रि० प्र०—रखना। २. चहल-पहल की ओर मन लगने की जगह। गुलजार।
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मनसाराम  : पुं० [सं० मनस्-राम] बोल-चाल में, अपने मन और फलतः व्यक्तित्व की संज्ञा। जैसे—चलो मनसाराम कोई जगह ढूँढ़ें।
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मनसि  : अध्य० [हिं० मन] १. मन में। २. हृदय में।
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मनसिज  : पुं० [सं० मनसि√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. कामदेव। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मनसूख  : वि० [अ० मंसूख] [भाव० मंसूखी] १. रद्द किया हुआ। २. टाला हुआ। ३. परित्यक्त।
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मनसूखी  : स्त्री० [अ० मन्सूखी] मनसूख होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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मनसूबा  : पुं० [अ० मन्सूबः] १. कोई काम करने से पहले मन में सोची जानेवाली युक्ति। क्रि० प्र०—ठानना।—बाँधना। २. इरादा। विचार।
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मनसूर  : वि० [अ० मन्सूर] विजेता। पुं० ९वीं शताब्दी का एक प्रसिद्ध सूपी संत जो अपने को अनहलक (अहं ब्रह्मास्मि) कहता था और इसीलिए जो सूली पर चढ़ा दिया गया था।
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मनसेधू  : पुं० [सं० मनुष्य] पुरुष। आदमी (पूरब)।
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मनस्क  : वि० [सं०] [भाव० मनस्कता] १. जिसका मन किसी विशिष्ट समय में किसी ओर प्रवृत्त हुआ या लगा हो। जैसे—अन्य-मनस्क। २. जिसका मन किसी कार्य या विषय की ओर अनुरक्त या प्रवृत्त हो। कुछ करने, जानने आदि की इच्छा से युक्त (माइन्डेड)। जैसे—अब वे संगीत मनस्क होने लगे हैं।
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मनस्कता  : स्त्री० [सं० मनस्क+तल्+टाप्] मनस्क होने की अवस्था या भाव।
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मनस्कांत  : वि० [सं० ष० त०] १. जो मन के अनुकूल हो। मनोनुकूल। २. प्रिय। प्यारा। पुं० मन की अभिलाषा या इच्छा। मनोरथ।
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मनस्काम  : पुं० [सं० ष० त०] मन की अभिलाषा। मनोरथ।
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मनस्ताप  : पुं० [सं० ष० त०] १. मनःपीड़ा। आंतरिक दुःख। २. अनुताप। पश्चाताप। पछतावा।
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मनस्ताल  : पुं० [सं० ष० स०] १. हरताल। २. दुर्गा की सवारी के सिंग का नाम।
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मनस्तोष  : पुं० [सं० ष० त०] १. मन में होनेवाला तोष या तृप्ति। २. आवश्यकता, इच्छा, शंका, संशय आदि की पूप्ति या निवारण के फलस्वरूप मन में होनेवाली शान्ति। तुष्टि (सैटिस्फ़ैक्शन)।
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मनस्विता  : स्त्री० [सं० मनस्विन्+तल्+टाप्] मनस्वी होने की अवस्था या भाव।
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मनस्विनी  : स्त्री० [सं० मनस्+विनि+ङीष्] १. मृकंडु ऋषि की पत्नी का नाम। २. प्रजापति की एक पत्नी।
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मनस्वी  : (स्विन्) वि० [सं० मनस्+विनि] [स्त्री० मनस्विनी] १. श्रेष्ठ मन से सम्पन्न। बुद्धिमान्। उच्च विचारवाला। २. मनमाना आचरण करनेवाला। स्वेच्छाचारी। पुं० शरभ।
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मनहर  : वि० [हिं० मन+हरना या सं० मनोहर] मन हरनेवाला। मनोहर। उदा०—गिरने से नयनों से उज्ज्वल आँसू के कन मनहर।—प्रसाद। पुं० घनाक्षरी छंद का एक नाम।
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मनहरण  : पुं० [हिं० मन+हरण] १. मन हरने की क्रिया या भाव। २. पन्द्रह अक्षरों का एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में पाँच सगण होते हैं। इसे नलिनी और भ्रमरावली भी कहते हैं। वि०=मनोहर।
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मनहरन  : वि० पुं०=मनहरण।
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मनहंस  : पुं० [हिं० मन+हंस] पंद्रह अक्षरों का एक वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक सगण, दो जगण, भगण और अंत में रगण होता है।
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मनहार  : वि०=मनोहारी।
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मनहारी  : वि०=मनोहारी।
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मनहुँ  : अव्य० [हि० मानना या मानों] मानों। जैसे। यथा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनहूस  : वि० [अ० मन्हूस] १. अशुभ। बुरा। २. अभागा। बदकिस्मत। ३. जिसमें चमक-दमक, रौनक या सरस जीवन का कोई लक्षण न हो। जैसे—मनहूस आदमी, मनहूस मकान।
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मना  : वि० [अ०] १. जिसके संबंध में निषेध हो। निषिद्ध। जैसे—यहाँ तमाकू या बीड़ी पीना मना है। २. जो कोई काम करने से रोका गया हो। वारण किया हुआ। जैसे—लड़कों को मना कर दो, यहाँ शोर न करें।
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मनाइन  : स्त्री० [?] वह स्त्री जो शुभ-अशुभ सभी प्रकार के कर्मों के विधि-विधान जानती हो और इसलिए स्त्री-समाज में मान्य हो (पूरब)।
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मनाई  : स्त्री०=मनाही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनाकु  : वि०=मनाक (थोड़ा)। उदा०—जेहिं बखान मति सक्ति मनाकू।—नूरमोहम्मद।
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मनाक्  : वि० [सं०√मन् (ज्ञान करना)+आक्] १. बहुत जरा-सा अल्प। थोड़ा। २. धीमा। मन्द।
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मनादी  : स्त्री०=मुनादी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनाना  : सं० [हिं० मानना का प्रे०] १. किसी को कुछ मानने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना कि जिससे कोई कुछ मान ले। २. किसी को किसी काम या बात के लिए उद्यत, तत्पर या राजी करना। ३. जो किसी कारण से अप्रसन्न हो गया या रूठ गया हो उसे मीठी-मीठी बातें करके अपने अनुकूल बनाना और प्रसन्न करना। ४. अपनी त्रुटि या दोष मानकर उसके लिए क्षमा माँगना। उदा०—या भूल-चूक अपनी पहले मनाऊँ।—मैथिलीशरणगुप्त। ५. किसी प्रकार की कामना आदि की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के लिए ईश्वर या देवी-देवता से प्रार्थना करना। जैसे—मैं तो ईश्वर से यही मानता हूँ कि वह आप को सद्बुद्धि दे। ६. प्रार्थना या स्तुति करना। उदा०—ताके युग पद कमल मनाऊँ, जासु कृपा निरमल मति पाऊँ।—तुलसी
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मनायी  : स्त्री० दे० ‘मनावी’।
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मनार  : पुं०=मीनार।
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मनाल  : पुं० [सं० मृणाल] शिमले की पहाड़ियों पर रहनेवाला एक तरह का चकोर पक्षी।
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मनावन  : पुं० [हिं० मनाना] १. असंतुष्ट या रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव।
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मनावी  : स्त्री० [सं० मनु+ङीष्, औव्] मनु की स्त्री का नाम।
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मनाही  : स्त्री० [अ०] १. मना करने या होने की क्रिया या भाव। २. कोई काम न करने की आज्ञा। निषेध। रोक।
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मनि  : स्त्री०=मणि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनिकरा  : वि० [सं० मणि+कर] १. सुन्दर। २. देदीव्यमान। चमकीला। उदा०—दुइज लिलाट अधिक मनिकरा।—जायसी।
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मनिका  : पुं०=मनका (माला का)।
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मनित  : भू० कृ० [सं०√मन् (जानना)+क्त, इत्व] जात। उत्पन्न।
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मनिधर  : पुं०=मणिधर।
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मनिया  : स्त्री० [सं० माणिक्य, हिं० मनिका] १. मालाका दाना। गुरिया। मनका। २. गले में पहनने की कंठी या माला।
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मनियार  : वि० [हिं० मणि+आर (प्रत्य०)] १. उज्जवल। चमकीला। २. शोभनीय। ३. दर्शनीय। सुन्दर। पुं०= मनिहार। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनिहार  : पुं० [हिं० मणिकार; प्रा० मनियार] स्त्री० मनिहारिन, मनिहारी चूड़ी बनानेवाला। चुड़िहारा।
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मनिहारी  : स्त्री० [हिं० मनिहार] सूई, तागा, शीशा, कंघे चूड़ियाँ आदि फुटकर सामान बेचने का काम। स्त्री० मनिहार का स्त्री०।
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मनी  : स्त्री० [सं० मणि] १. मणि। २. वीर्य। ३. अहं०। उदा०—तजे सचुच के भानु भानु तजि मान मनी के।—सेनापति। स्त्री० [हिं० मन=४0 सेर] खेत की उपज की बटाई का वह प्रकार जिसमें जमीन का मालिक प्रति बीघे कुछ मन पैदावार में से ले लेता है।
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मनीआर्डर  : पुं० [अं०] १. डाकखाने के द्वारा कहीं कुछ रुपये भेजने की एक प्रकार की व्यवस्था जिसमें पानेवाले को घर बैठे रुपए मिल जाते हैं। २. वह पत्रक जिसे भरकर उक्त उद्देश्य से डाकखाने में दिया जाता है।
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मनीक  : पुं० [सं०√मन्+कीकन्] अंजन (आँखों का)।
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मनीजर  : पुं०=मनेजर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनीबैग  : पुं० [अं०] रुपए-पैसे रखने का छोटा डिब्बा, थैली या बटुआ।
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मनीर  : स्त्री० [देश०] मोरनी।
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मनीषा  : स्त्री० [सं० मनस्-ईषा, ष० त०, पररूप] १. मन या मस्तिष्क की वह विशिष्ट शक्ति जिससे वह इच्छा, कामना, सोच-विचार आदि करता है। मानसिक शक्ति (फैकल्टी)। २. फलतः (क) अभिलाषा या इच्छा। (ख) अकल या बुद्धि।
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मनीषिका  : स्त्री० [सं० मनीषा+कन्+टाप्, इत्व] मनीषा।
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मनीषिता  : स्त्री० [सं० मनीषिन्+तल+टाप्] १ मनीषी होने की अवस्था या भाव। २. बुद्धिमत्ता।
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मनीषी (षिन्)  : वि० [सं० मनीषा+इनि] १. ज्ञानी। २. बुद्धिमान्। ३. पंडित। विद्वान्। ४. यथेष्ट मनन और विचार करनेवाला। विचारशील।
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मनु  : पुं० [सं०√मन्+उ] १. ब्रह्मा के पुत्र जो मनुष्यों के मूल पुरुष माने जाते हैं। विशेष—(क) वेदों में मनु को ही यज्ञों का आदि प्रवर्तक भी माना गया है। पुराणों में यह भी कहा गया है कि जब एक बार महाप्रलय के समय सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई थी तब मनु ही एक नाव पर चढ़कर डूबने से बचे थे; और उन्हीं से सारी मानव जाति उत्पन्न हुई थी। पुराणों में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक महाप्रलय के उपरांत मनु ही मानव जाति की उत्पत्ति करते हैं। इसीलिए प्रत्येक मन्वन्तर के अलग-अलग मनुओं के नाम ये हैं, स्वायंभुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसार्विण, ब्रह्मा सार्विण, धर्मसावर्णि, रुद्रसावणि, देवसार्वणि और इन्द्रसार्वणि, (ख) इस्लामी, मसीही आदि सभी पौराणिक कथा में मनु के समकक्ष नूह और नोहा है। २. विष्णु। ३. ब्रह्मा। ४. अन्तःकरण। ५. अग्नि। ६. मंत्र। ७. एक रुद्र का नाम। ८. जैनों के एक जिन देव। ९. चौदह मन्वन्तरों के मनुओं के आधार पर १४ की संख्या का सूचक शब्द। स्त्री० १. मनु की स्त्री०। मनावी। २. वन-मेथी। अव्य०=मनहुँ (मानों)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनु-जात  : वि० [सं० पं० त०] मनु से उत्पन्न। पुं० मनुष्य।
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मनु-युग  : पुं० [सं० ष० त०] मन्वंतर।
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मनु-श्रेष्ठ  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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मनु-स्मृति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] मनु द्वारा प्रणीत एक प्रसिद्ध ग्रंथ जिसकी गिनती धर्मशास्त्र में होती है। मानव-धर्मशास्त्र।
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मनुआँ  : पुं०=मानव (मनुष्य)। पुं० [?] देव कपास। नरमा।
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मनुख  : पुं०=मनुष्य।
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मनुग  : पुं० [सं० मनु√गम् (प्राप्त होना)+ड] प्रियव्रत के पौत्र और द्युतिमान के पुत्र का नाम।
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मनुज  : पुं० [सं० मनु [जन् (उत्पन्न करना)+ड] [स्त्री० मनुजा, मनुजी] मनुष्य।
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मनुजाद  : वि० [सं० मनुजअद् (खाना)+अश्] नप-भक्षक। मनुष्यों को खानेवाला पुं०=राक्षस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनुजाधिप  : पुं० [सं० मनुज-अधिप, ष० त०] राजा।
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मनुष  : पुं० [सं० मनुष्य] १. मनुष्य। २. स्त्री० का पति। स्वामी।
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मनुषी  : स्त्री० [सं० मनुष्य+ङीष्, य लोप] स्त्री।
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मनुष्य  : पुं० [सं० मनु+यत्, षुक्-आगम] जरायुज जाति का एक स्तनपायी प्राणी जो अपने मस्तिष्क या बुद्धि बल की अधिकता के कारण सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। आदमी। नर।
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मनुष्य-गणना  : स्त्री० [सं० ष० त०] जन-गणना।
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मनुष्य-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] जैन शास्त्रानुसार वह कर्म जिसे करने से मनुष्य बार बार मरकर मनुष्य का ही जन्म पाता है। ऐसे कर्म पर-स्त्री-गमन, माँस-भक्षण चोरी आदि बतलाये गये हैं।
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मनुष्य-धर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] कुबेर।
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मनुष्य-यज्ञ  : पुं० [सं० ष० त०] मनुष्य, विशेषतः अभ्यागत व्यक्ति का किया जानेवाला आदत-सत्कार। अतिथियज्ञ। नृयज्ञ।
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मनुष्य-रथ  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्राचीन काल में वह रथ जिसे मनुष्य (पशु नहीं) खींचते थे। नर-रथ।
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मनुष्य-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] यह जगत् जिसमें मनुष्य (देवता नहीं) रहते हैं। मर्त्य-लोक। भूलोक।
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मनुष्य-शीर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की जहरीली मछली जिसका सिर आदमी के सिर की तरह होता है (टेटाओडन)।
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मनुष्यकार  : पुं० [सं० मनुष्य+कार] उद्योग। प्रयत्न।
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मनुष्यता  : स्त्री० [सं० मनुष्य+तल्+टाप्] १. मनुष्य होनी की अवस्था या भाव। आदमीपन। २. सज्जन मनुष्य के लिए सभी आवश्यक और उपयोगी गुणों का समूह। २. वे बातें जो किसी मनुष्य को शिक्षित और सभ्य समाज में उठने-बैठने के लिए आवश्यक होती हैं।
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मनुष्यत्व  : पुं० [सं० मनुष्य+त्व] १. मनुष्य होने की अवस्था या भाव। मनुष्यता। २. मनुष्यों के लिए आवश्यक और उपयुक्त गुणों (दया, प्रेम, सहृदयता आदि) से युक्त होने की अवस्था या भाव।
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मनुस (ा)  : पुं० [सं० मनुष्] [भाव० मनुसाई] १. आदमी। मनुष्य। २. नौ-जवान। युवक। ३. स्त्री० का पति। स्वामी। ४. पौरुष से युक्त व्यक्ति। मर्द।
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मनुसाई  : स्त्री० [हिं० मनुस+आई (प्रत्य०)] १. मनुष्यत्व। २. मनुष्यों का फलतः शिष्टातापूर्ण व्यवहार। ३. पौरुष।
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मनुसाना  : अ० [हिं० मनुस] १. पौरुष का भाव जगना। २. क्रोधान्वित होना। स० १. किसी में पौरुष का भाव जगाना। २. क्रुद्ध या क्रोधित करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनुहर  : स्त्री०=मनुहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनुहार  : स्त्री० [हिं० मान+हरना] १. किसी रूठे हुए व्यक्ति को मनाने तथा उसका मान छुड़ाने के लिए की जानेवाली विनती या मीठी-मीठी बातें। २. इस प्रकार की विनती करने की क्रिया, प्रयत्न या भाव। ३. खुशामद। ४. तुष्टि। तृप्ति। ५. आदर-सत्कार।
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मनुहारना  : स० [हिं० मनुहार] १. रूठे हुए व्यक्ति से मीठी-मीठी बातें करके उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करना। मनाना। २. निवेदन, प्रार्थना या विनती करना। ३. आदर-सत्कार करना। ४. खुशामद करना।
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मनुहारी  : वि० [हिं० मन+हरना] [स्त्री० मनुहारिन] जो बात-बात पर रूठता हो तथा जिसे प्रसन्न करने के लिए बार बार मनुहारी करनी पड़ती हो। उदा०—पासा सार खेलि कित कौन मनुहारिन सो, जीति मनुहारि हारि आयो हो।—पद्माकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनूरी  : स्त्री० [अ० मुनौवर] एक प्रकार की बुकनी जो मुरादाबादी कलई के बरतनों को उजला करने में काम आती है। यह धातु गलाने की पुरानी घरियों को कूटकर बनाई जाती है।
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मने  : अव्य० हिं० मानों का पुराना रुप। वि०=मुझे (गुज० और रात०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनेजर  : पुं० दे० ‘व्यवस्थापक’।
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मनों  : अव्य० [हिं मानना] १. मान लेना पड़ता है कि। २. ऐसा भासित होता है कि। मानों।
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मनो-भ्रंश  : पुं० [सं०] एक तरह का रोग जिसमें बुद्धि ठीक तरह से और पूरा काम नहीं करती। (डिमोन्शिया)
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मनोकामना  : स्त्री० [सं० मनःकामना] मन में रहनेवाली कामना। अभिलाषा।
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मनोगत  : भू० कृ० [सं० द्वि० त०] मन में आया या उठा हुआ (विचार)। पुं० १. कामदेव। मदन। २. काम वासना। ३. विचार।
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मनोगति  : स्त्री० [सं० मनस्-गति, ष० त०] १. मन की गति। चित्त-वृत्ति। २. अभिलाषा। इच्छा।
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मनोगुप्ता  : स्त्री० [सं० मनस्-गुप्ता, तृ० त०] मैनसिल।
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मनोग्रंथि  : स्त्री० [सं] आधुनिक मनोविश्लेषण के अनुसार इच्छाओं और स्मृतियों का एक तंत्र जिससे मन में पुंजीभूत धारणाओं की ऐसी गाँठ-सी बँध जाती है जो दमित होने पर भी अनजान में ही और प्रच्छन्न रूप से मनुष्य के वैयक्तिक आचरणों और व्यवहारों को प्रभावित करती रहती है (काम्पलेक्स)। विशेष—कहा गया है कि यह ऐसे विचारों और संवेगों का पुंज है जिन्हें मनुष्य को समय-समय पर आंशिक या पूर्ण रूप से दमन करना पड़ता है। ऐसे विचार अनजान में ही अचेतन मन में घर कर लेते हैं; और इन्हीं के वशवर्ती होकर वह धार्मिक नैतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में अनेक प्रकार के असाधारण तथा विलक्षण कार्य करने लगता है। मनोग्रंथियाँ मनुष्य के मन की उन वृत्तियों के अंग बन जाती हैं, और मनुष्य अपने आप को औरों से छोटा या बड़ा समझने लगता है, भूत-प्रेत, स्वर्ग-नरक आदि पर विश्वास करने लगता है, नये ढंग और नई बातें निकालने का प्रयत्न करता है; अपने सामने अनोखे आदर्श रखने और विचित्र सिद्धांत बनाने लगता है; आदि आदि। यह भी कहा गया है कि इनका बहुत ही सूक्ष्मरूप मनुष्य में जन्मजात होता है; और आगे चलकर बढ़ता या विकसित होता रहता है। किसी मनोग्रंथि की तीव्रता या प्रबलता के फलस्वरूप मनुष्य को अनेक प्रकार के विकट मानसिक विकार तथा शारीरिक रोग भी हो जाते हैं।
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मनोग्राही (हिन्)  : वि० [सं० मनस्√ग्रह्+णिनि, उप० स०] [स्त्री० मनोग्राहिणी] मन को अपनी ओर खींचनेवाला।
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मनोज  : पुं० [सं० मानस्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] कामदेव। मदन।
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मनोज  : वि० [सं० मनस्√ज्ञा (जानना)+क] [स्त्री० मनोज्ञा] मनोहर। सुंदर। पुं० कुन्द का पौधा और फूल।
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मनोज-वृद्धि  : स्त्री० [सं० ब० स०] कामवृद्धि नामक क्षुप। कामज्ञ।
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मनोजव  : वि० [सं० मनस्-जब, ब० स०] १. मन के समान वेगवान्। अत्यन्त वेगवान्। २. वितृतुल्य। बड़ों के समान। पुं० १. विशद। २. रुद्र के एक पुत्र का नाम। ३. एक प्राचीन तीर्थ ४. छठें मन्वन्तर के इन्द्र का नाम। ५. अनिल या वायु के एक पुत्र जो उसकी शिवा नाम की पत्नी से उत्पन्न हुआ था।
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मनोजवा  : स्त्री० [सं० मनोजव+टाप्] १. कलिहारी। करियारी। २. स्कंद की माता का नाम। ३. क्रौंच द्वीप की एक नदी। ४. अग्नि की एक जिह्वा का नाम।
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मनोज्ञता  : स्त्री० [सं० मनोज्ञ+तल्+टाप्] सुंदरता। मनोहरता। खूबसूरती।
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मनोज्ञा  : स्त्री० [सं० मनोज्ञ+टाप्] १. कलौंजी। २. मँगरैला। ३. जावित्री। ४. मदिरा। शराब। ५. आवर्तकी। बाँध ककोड़ा। ६. कोई सुन्दरी स्त्री, विशेषतः राजकुमारी।
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मनोदंड  : पुं० [सं० मनस्-दंड, ष० त०] मन की वृत्तियों का विरोध। मनोनिग्रह।
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मनोदत्त  : वि० [सं० मनस्-दत्त, तृ० त०] १. जो अभी प्रत्यक्ष रूप में तो नहीं पर मन से दिया जा चुका हो। जिसे देने का मन में संकल्प कर लिया गया हो। २. जिसका मन किसी काम में पूरी तरह लग रहा हो। दत्त-चित्त।
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मनोदशा  : स्त्री० [सं० मनोदश+टाप्] किसी कार्य या विषय के प्रति होनेवाले राग-विराग या प्रवृत्ति-विरति आदि के विचार से समय विशेष पर होनेवाली मन की अवस्था या दशा (मूड)।
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मनोदाह  : पुं० [सं० मनस्-दाह, ष० त०] मन में होनेवाला दुःख मनस्ताप।
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मनोदाही (हिन्)  : वि० [मनस्√दह् (जलना)+णिनि] मन में सन्ताप उत्पन्न करनेवाला।
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मनोदुष्ट  : वि० [सं० मनस्-दुष्ट, तृ० त०] दुष्ट प्रकृति।
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मनोदेवता  : पुं० [सं० मनस्-देवता, ष० त०] अन्तःकरण। विवेक।
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मनोदौर्बल्य  : पुं० [सं० मनस्-दौर्बल्य, ष० त०] १. मन में होनेवाली किसी प्रकार की दुर्बलता (मेन्टल वीकनेस)। २. उक्त दुर्बलता का सूचक कोई कार्य।
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मनोध्यान  : पुं० [सं० ष०] सम्पूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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मनोनयन  : पुं० [सं० मनस्-नयन, स० त० या तृ० त०] [भू० कृ० मनोनीत] १. कोई बात या विचार मन में लाना या उस पर कुछ सोचना। २. अपनी इच्छा, रुचि आदि के अनुसार किसी को चुनना अथवा नामांकित, नियुक्त या प्रतिष्ठित करना।
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मनोनिग्रह  : पुं० [सं० मनस्-निग्रह, ष० त०] विषय-वासनाओं में प्रवृत्त होने से मन को रोकना। मन को वश में रखना।
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मनोनीत  : भू० कृ० [सं० मनस्-नीत, तृ० त०] १. मन में आया हुआ विचार आदि)। २. जिसका मनोनयन हुआ या किया गया हो।
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मनोनुकल  : वि० [सं० मनस्-अनुकूल, ष० त०] मन चाहता हो वैसा। इच्छा या मन के अनुसार।
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मनोन्मनी  : स्त्री० [सं० ?] योग-साधन में वह अवस्था जिसमें मन सारी चंचलता छोड़कर पूर्ण रूप से शान्त और स्थिर हो जाता है। विशेष—कबीर साहित्य में ‘उन्मनी’ का प्रयोग इसी अर्त में हुआ है।
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मनोबल  : पुं० [सं० मनस्-बल, ष० त०] १. मानसिक बल। २. आत्मिक शक्ति।
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मनोभंग  : पुं० [सं० मनस्-भंग, ष० त० मन की शान्ति में पड़नेवाला विघ्न। जैसे—खिन्नता, निराशा, विषाद आदि।
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मनोभव  : पुं० [सं० मनस्√भू (होना)+अच्] कामदेव।
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मनोभाव  : पुं० [सं० मनस्-भाव, ष० त०] मन में उत्पन्न होने या रहनेवाला भाव या विचार। (सेन्टीमेन्ट)
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मनोभिराम  : वि० [सं० मनस्-अभिराम, ष० त०] मनोज्ञ। सुन्दर।
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मनोभू  : पुं० [सं० मनस्√भू (होना) क्वप्] कामदेव। मदन।
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मनोमय  : वि० [सं० मनस्+मयट्] १. मन से युक्त। २. मानसिक।
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मनोमय-कोश  : पुं० [सं० कर्म० स०] वेदान्त में आत्मा को आवृत्त रखनेवाला पाँच कोशों में से तीसरा कोश जिसमें मन, अहंकार और कर्मेन्द्रियाँ अंतर्भूत मानी जाती हैं। इसी को बौद्ध दर्शन संज्ञा स्कंध कहते हैं।
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मनोमल  : पुं० [सं मनस्-मल ष० त०] मन में होनेवाला कोई दूषित भाव या विचार।
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मनोमालिन्य  : पुं० [सं० मनस्-मालिन्य, ष० त०] मन में रहनेवाला दुर्भाव या बैर-विरोध जो जल्दी उभपर प्रकट न होता हो। मनमुटाव। रंजिश।
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मनोमोही (हिन्)  : वि० [सं० मनस्√मुह् (मुग्ध होना)+णिच्+णिनि [स्त्री० मनोमोहिनी] मन को मोहनेवाला। उदा०—मनो मोहिनी है वह मनोरमा है।—निराला।
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मनोयोग  : पुं० [सं० मनस्-योग, ष० त०] किसी काम या बात में मन को एकाग्र करके लगाना। चित्त की वृत्ति का विरोध करके एकाग्र करना और उसे किसी एक काम या बात में लगाना।
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मनोयोनि  : पुं० [सं० मनस्-योनि, ब० स०] कामदेव।
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मनोरंजक  : वि० [सं० मनस्-रंजक, ष० त०] मनोरंजन करनेवाला। मन को बहलाकर प्रसन्न करनेवाला। मन का रंजन करनेवाला, फलतः जिससे समय बहुत आनन्दपूर्क व्यतीत होता है।
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मनोरंजन  : पुं० [सं० मनस्-रंजन, ष० त०] [वि० मनोरंजक, मनोरंजनी] १. मन का रंजन। दिल-बहलाव। २. कोई ऐसा कार्य या बात जिससे समय बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत होता है। (इन्टरटेनमेन्ट; उक्त दोनों अर्थों में)। ३. एक प्रकार की बंगला मिठाई।
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मनोरंजन-कर  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का कर जो मनोरंजन चाहनेवाले व्यक्तियों को किसी व्यावसायिक मनोरंजक कार्यक्रम में सम्मिलित होने क समय देना पड़ता है। (इन्टरटेनमेंट टैक्स)
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मनोरथ  : पुं० [सं० मनस्-रथ, ब० स०] [वि० मनोरथिक] अभिलाषा वांछा। इच्छा।
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मनोरथ तृतीया  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चैत्र शुक्ल तृतीया जो व्रत का दिन कहा गया है।
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मनोरथ द्वादशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चैत्र शुक्ल पक्ष की द्वादशी जो व्रत का दिन कहा गया है।
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मनोरथिक  : वि० [सं० मानोरथिक] १. मनोरथ से सम्बन्ध रखनेवाला। मनोरथ का। २. मनोरथ के रूप में होनेवाला।
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मनोरम  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास।
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मनोरम  : वि० [सं० मनस्√रम् (रमण करना)+णिच्+अण्, उप० स०] [स्त्री० मनोरमा] जिसमें मन रमने लगे। सुंदर। पुं० सखी छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में, ५, ४ और ५ के अंतर पर विराम कुल चौदह मात्राएँ हैं।
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मनोरमा  : स्त्री० [सं० मनोरम+टाप्] १. सात सरस्वतियों में से चौथी सरस्वती। २. गौतम बुद्ध की एक शक्ति। ३. दस दस वर्णों के चरणों वाला एक छंद जिसके प्रत्येक चरण का पहला, दूसरा, तीसरा, सातवाँ और नवाँ वर्ण लघु होता है। तथा अन्य वर्ण गुरु होते हैं। (छंदोमंजरी) ४. महाकवि चन्द्रशेखर के अनुसार आर्या के ५७ भेदों से एक जिसमें १२ गुरु और २२ लघु वर्ण होते हैं। ५. दस अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरम में नगण, रगण और अंत में गुरु होता है। ६. केशव के मतानुसार चौदह अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में ४ सगण और अंत में दो लघु होते हैं। ७. केशव के अनुसार बोधक छंद का एक नाम जिसके प्रत्येक चरण में ४ भगण और दो गुरु होते हैं। ८. सूदन के अनुसार दस अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन तगण और एक गुरु होता है। ९. गोरोचन।
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मनोरा  : पुं० [सं० मनोहर] पूजा आदि के उद्देश्य से बनाई जानेवाली गोबर की मूर्ति।
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मनोरा-झूमक  : पुं० [?] स्त्रियों का एक प्रकार का देहाती लोक गीत।
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मनोराज  : पुं० मनोराज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनोराज्य  : पुं० [सं० मनस्-राज्य, मध्य० स०] १. मन रूपी राज्य। २. मनमाने सुखो की मन में की जानेवाली कल्पना। ३. कल्पना से खड़ा किया हुआ कोई सुन्दर तथा सुखद आयोजन।
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मनोरिया  : स्त्री० [हिं० मनोहर] एक प्रकार की सिकड़ी या जंजीर जिसकी कड़ियों पर चिकनी चपटी दाल या घुंडी जड़ी रहती है और जिसमें घुंघरुओं के गुच्छे लगातार वंदनवार की तरह टाँगते या लटकाते हैं।
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मनोलीला  : स्त्री० [सं० मनस्-लीला, ष० त०] ऐसी कल्पित अद्भुत बात जिसका कोई आधार न हो (फैन्टन)।
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मनोवती  : स्त्री० [सं० मनस्+मतुप्, म—व+ङीष्] १. पुराणानुसार मेरु पर्वत पर की एक नगरी। २. चित्रांगद विद्याधर की एक कन्या।
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मनोवांछा  : स्त्री० [सं० मनस्-वांछा, ष० त०]=मनोकामना।
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मनोवांछित  : भू० कृ० [सं० मनस्-वांछित्, तृ० त०] जो मन में चाहा गया हो। अभिलषित्। इच्छित।
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मनोविकार  : पुं० [सं० मनस्-विकार, ष० त०] १. मन में उठनेवाला कोई भाव या विचार। मन में होनेवाला कोई आवेग।
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मनोविज्ञान  : पुं० [सं० मनस्-विज्ञान, ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें मनुष्य के मन उसकी विभिन्न अवस्थाओं तथा क्रियाओं, उस पर पड़नेवाले प्रभावों आदि का अध्ययन तथा विवेचन होता है (साइकॉलोजी)।
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मनोविश्लेषण  : पुं० [सं० मनस्-विश्लेषण, ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान की वह शाखा जिसमें कुछ विशिष्ट प्रकार के रोगों और विकारों का उपचार या चिकित्सा यह मानकर की जाती है कि वे रोग कुछ मनोवेगों का दमन करने से उत्पन्न होते हैं (साइको-एनैलैसिस)। विशेष—इसका आविष्कार फ्रायड तथा उसके परवर्ती मनोवैज्ञानिकों ने किया था। इसमें रोगी के पूर्व-इतिहास का परिचय प्राप्त करके रोग का निदान किया जाता है और तब मनोवैज्ञानिक ढंग से उसका उपचार या चिकित्सा की जाती है
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मनोवृत्ति  : स्त्री० [सं० मनस्-वृत्ति, ष० त०] वह मानसिक शक्ति या स्थिति जिसके कारण मनुष्य किसी ओर प्रवृत्त होता अथवा उससे हटता है (मैन्टैलिटी)।
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मनोवेग  : पुं० [सं० मनस्-वेग, ष० त०] मन में उत्पन्न होनेवाला तीव्र विकार।
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मनोवैकल्य  : पुं० [सं० मनस्-वैकल्य, ष० त०] मनुष्य की वह मानसिक अवस्था जिसमें ठीक तरह से मानसिक विकास न होने के कारण बुद्धि परिष्कृत नहीं होने पाती, और इसीलिए ठीक तरह से अपना कार्य करने के योग्य नहीं होती (मेन्टल डिफ़ीशिएन्सी)।
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मनोवैज्ञानिक  : वि० [सं० मनोविज्ञान+ठक्-इक] मनोविज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाला (साइकॉलाजिकल)। पुं० वह जो मनोविज्ञान का ज्ञाता है (साइकॉलोजिस्ट)।
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मनोव्यथा  : स्त्री० [सं० मनस्-व्यथा, ष० त०] मन में होनेवाली व्यथा। मानसिक कष्ट।
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मनोव्याधि  : स्त्री० [सं० मनस्-व्याधि, ष० त०] मन का मानस मेंहोने वाले रोग।
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मनोव्यापार  : पुं [सं० मनस्-व्याधि, ष० त०] मन या मानस में होनेवाले रोग।
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मनोव्यापार  : पुं० [सं० मनस्-व्यापार, ष० त०] मन की क्रिया। संकल्प-विकल्प। विचार।
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मनोषित  : भू० कृ० [सं० मनीषा+इचत्] मनोभिलाषित। वांछित।
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मनोसर  : पुं० [सं० मन] मन की वृत्ति। मनोविकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनोहत  : वि० [सं० मनस्-हत्, तृ० त०] जिसका मन टूट गया हो। निराश।
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मनोहर  : वि० [सं० मनस्-हर० त०] [स्त्री० मनोहरता] १. मन हरनेवाला। २. मनोज्ञ। सुन्दर। पुं० १. छप्पय छंद का एक भेद। २. एक संकर राग। ३. कुंद का पौधा और उसका फूल। ४. सोना। स्वर्ण।
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मनोहरता  : स्त्री० [सं० मनोहर+तल्+टाप्] मनोहर होने की अवस्था या भाव। सुंदरता।
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मनोहरताई  : स्त्री०=मनोहरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनोहरा  : स्त्री० [सं० मनोहर+टाप्] १. जाती पुष्प। २. सोनजूही। ३. त्रिशिर की माता का नाम। ४. स्वर्ग की एक अप्सरा का नाम।
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मनोहरी  : स्त्री० [हिं० मनोहर] कान में पहनने की एक प्रकार की छोटी बाली।
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मनोहंस  : पुं० [सं०] एक प्रकार का सम-वृत्त वर्मिक छंद जिसमें प्रत्येक चरण में एक सगण, दो नगण, एक भगण और एक रगण होता है (कलहंस नामक छन्द से भिन्न)।
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मनोहारी (रिन्)  : वि० [सं० मनस्√हृ (हरण)+णिनि] [स्त्री० मनोहारिणी] मनोहर। चित्ताकर्षक। सुन्दर।
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मनोह्लादी (दिन्)  : वि० [सं० मनस्√ह्लाद (प्रसन्न होना)+णिनि] [स्त्री० मनोह्लदिनी] १. मन को आह्लादित या प्रसन्न करनेवाला। २. मनोहर। सुंदर।
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मनोह्वा  : स्त्री० [सं० मनस्√ह्वा (बुलाना)+कटाप्] मनःशिला। मैनसिल।
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मनौ  : अव्य०=मानौं०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनौअल  : स्त्री० [हिं० मानना] मन में कोई बात मानने या धारण करने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० मानना] क्रुद्ध अथवा रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव। जैसे—मान-मनौअल।
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मनौती  : स्त्री० [हिं० मानना+औती (प्रत्य०)] १. रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव। मनुहार। २. देवी-देवता के प्रति की जानेवाली यह प्रतिज्ञा या संकल्प कि अमुक मनोरथ सिद्ध हो जाने पर हम आपकी अमुक प्रकार से पूजा करके आपको प्रसन्न करेंगे। दे० ‘मन्नत’। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—मनाना।
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मन्नत  : स्त्री० [हिं० मानना] किसी देवी-देवता की पूजा करने की वह प्रतिज्ञा या संकल्प जो किसी विशिष्ट कामना की पूर्ति के लिए किया जाता है। मानता। मनोती। मुहा०—मन्नत उतारना या बढ़ाना=उक्त प्रकार की पूजा की प्रतिज्ञा पूरी करना। मन्नत मानना=यह प्रतिज्ञा करना कि अमुक कार्य हो जाने पर अमुक पूजा की जायगी।
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मन्ना  : पुं० [देश०] बाँस आदि में से रसनेवाला एक तरह का मीठा निर्यास।
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मन्नाना  : अ० [हि० मान या मन] १. (साँप का) फन उठाना। २. मन में बहुत अप्रसन्न या नाराज होना।
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मन्मथ-लेख  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्रेमी या प्रेमिका को विरह सम्बन्धी लिखा जानेवाला प्रेंम-पत्र।
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मन्मथारि  : पुं० [सं० मन्मथ-अरि, ष० त०] कामदेव के शत्रु; शिव।
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मन्मथालय  : पुं० [सं० मन्मथ-आलय, ष० त०] १. आम का पेड़। २. कामुकों का विहार-स्थल।
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मन्मथी  : पुं० [सं०√मंथ्+अच्, पृषो० सिद्धि] १. कामदेव। २. कामवासना। ३. कपित्थ। कैथ। ४. साठ संवत्सरों में से उन्नीसवाँ संवत्सर।
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मन्मथी (थिन्)  : वि० [सं० मन्मथ+इनि] कामी। कामुक।
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मन्मयानंद  : पुं० [सं० मन्मथ+आ√नंद् (प्रसन्न होना)+णिच्+अच्] एक प्रकार का आम जिसे महाराज चूत भी कहते हैं।
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मन्य  : वि० [सं०√समास के अन्त में प्रयुक्त होनेवाला पद] समस्त पदों के अन्त में अपने आपको मानने या समझनेवाला। जैसे—अहंमन्य, पंडित-मन्य।
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मन्या  : स्त्री० [सं०√मन्+क्यप्+टाप्] गरदन की एक नस।
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मन्या-स्तंभ  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का रोग जिसमें गले पर की मन्या नामक शिरा कड़ी हो जाती है और गरदन इधर-उधर नहीं, घूम सकती और भीषण ज्वर होता है। गरदन तोड़ बुखार (मेनेजाइटिस)।
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मन्यु  : पुं० [सं०√मन् (ज्ञान करना)+युच्] १. स्त्तोत्र। २. कर्म। ३. दुःख या शोक। ४. यज्ञ। ५. क्रोध। गुस्सा। ६. अभिमान। अहंकार। ७. दीनता। ८. अग्नि। ९. शिव।
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मन्यु-देव  : पुं० [सं० ष० त०] १. क्रोध का अभिमानी देवता। २. एक प्राचीन ऋषि।
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मन्युमान् (मत्)  : वि० [सं० मन्यु+मतुप्] क्रोध, अहंकार या दैन्य से युक्त (व्यक्ति)।
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मन्वंतर  : पुं० [सं० मनु-अंतर, ष० त०] १. इकहत्तर चतुर्युगियों का काल। ब्रह्मा के एक दिन का चौदहवाँ भाग। २. अकाल। दुर्भिक्ष। ३. दे० ‘मनु’।
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मन्वंतरा  : स्त्री० [सं० मन्वन्तर+अच्+टाप्] प्राचीन काल का एक प्रकार का उत्सव जो आषाढ़ शुक्ल दशमी, श्रावण-कृष्ण अष्टमी और भाद्र शुक्ल तृतीया को होता था।
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मन्हियार  : पुं०=मनिहार।
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मन्होला  : पुं० [देश०] तमाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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