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पताका  : स्त्री० [सं०√पत्+आकन्—टाप्] १. लकड़ी आदि के डंडे के सिरे पर पहनाया हुआ वह तिकोना या चौकोना कपड़ा जिस पर कभी कभी किसी राजा या संस्था का विशिष्ट चिह्न भी अंकित रहता है। झंडा। झंडी। फरहरा। २. झंडा। ध्वजा। (मुहा० के लिए दे० ‘झंडा’ के मुहा०) पद—विजय की पताका=युद्ध आदि में किसी स्थान पर विजयी पक्ष की वह पताका जो विजित पक्ष की पताका गिराकर उसके स्थान पर उड़ाई जाती है। विजय-सूचक। पताका। ३. वह डंडा जिसमें पताका पहनाई हुई होती है। ध्वज। ४. सौभाग्य। ५. तीर चलाने में उँगलियों की एक विशिष्ट प्रकार की स्थिति। ६. दस खर्ब की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जायगी— १०००००००००००० । ७. पिंगल के नौ प्रत्ययों में से आठवाँ जिसके द्वारा किसी निश्चित गुरु, लघु वर्ण के छंद अथवा छंदों का स्थान जाना जाय। ८. साहित्य में, नाटक की प्रासंगिक कथा के दो भेदों में से एक। वह कथा जो रूपक (या नाटक की) आधिकारिक कथा की सहायतार्थ आती और दूर तक चलती है। इसका नायक अलग होता है और पताका नायक कहलाता है। जैसे—प्रसाद के स्कंद गुप्त नाटक में मालव की कथा ‘पताका’ है और उसका नायक वभ्रुवर्मा पताका नायक है। (दूसरा भेद प्रकरी कहलाता है)।
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पताका-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] बाँस आदि जिसमें पताका लगी होती है।
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पताका-वेश्या  : स्त्री० [सं०] बहुत ही निम्न कोटि की वेश्या। टकाही रंडी।
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पताका-स्थानक  : पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में, नाटक के अंतर्गत वह स्थिति जिसमें किसी प्रसंग के द्वारा आगे की या तो अन्योक्ति पद्धति पर या समासोक्ति पद्धति पर सूचित की जाती है।
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पताकांक  : पुं० [सं० पताका-अंक, ष० त०, ब० स०] दे० ‘पताका स्थान’।
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पताकांशु  : पुं० [सं० पताका-अंशु, ष० त०] झंडा। झंडी। पताका।
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