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शब्द का अर्थ

पंज  : वि० [सं० पंच से फा०] पंच की तरह का पाँच का संक्षिप्त रूप। जैसे—पज-प्यारे। पंज-हजारी।
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पंज-कल्यान  : पुं०=पंच कल्यान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंज-तन  : पुं० [फा०] हजरत मुहम्मद, हजरत अली, फातिमा और उनके दोनों पुत्र हसन तथा हुसैन ये पाँच व्यक्ति जिन्हें मुसलमान परम-पूज्य मानते हैं।
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पंज-प्यारे  : पुं० [हिं० पंज+प्यारा।] गुरु गोविन्दसिंह के वे पाँच प्रिय भक्त जिन्हें उन्होंने खालसा-पंथ की स्थापना के समय परीक्षा के रूप में मार डालने के लिए बुलाया था, पर जिन्हें मारा नहीं था।
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पंज-रोजा  : वि० [फा० पंजरोजः] १.पाँच दिनों का। २. पाँच दिनों में पूरा या समाप्त होनेवाला। ३. अस्थायी और नश्वर।
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पंज-हजारी  : पुं० [फा०] १. पाँच हजार सैनिकों का सेनापति। २. मुगल शासनकाल में एक प्रकार का सैनिक पद जो बड़े-बड़े अमीरों, दरबारियों और सरदारों को उनके सम्मान के लिए प्रदान किया जाता था।
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पंजक  : पुं० [हिं० पंजा] १. पंजे का निशान। २. मांगलिक अवसरों पर दीवारों पर लगाई जानेवाली हाथ के पंजे से किसी रंग की छप। ३. चित्रकला में, वह अंकन जिसमें पाँच-पाँच दल या शाखाएँ (हाथ की उँगलियों की तरह) दिखाई गई हों। (पामेट)
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पँजड़ी  : स्त्री० [हिं० पंज+डी (प्रत्य०)] चौसर के खेल में एक दाँव।
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पँजना  : अ० [सं० पंज=दृढ़ होना, रुकना] बरतनों में जोड़ या टाँका लगाना।
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पंजर  : पुं० [सं०√पंज् (रोकना)+अरन्] १. शरीर। देह। २. हड्डियों आदि का वह ढाँचा जिस पर मांस, त्वचा आदि होते हैं और जिनके आधार पर शरीर ठहरा रहता है। कंकाल। ठठरी। ३. किसी चीज का वह भीतरी ढाँचा, जिस पर कुछ आवरण रहते हैं और जिनसे उसका अस्तित्व बना रहता है। मुहा०—अंजर-पंजर ढीला होना=आघात, प्रहार, भार आदि के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न होना कि कार्यों या शरीर का ठीक तरह निर्वाह न हो सके। ४. पिंजड़ा। ५. कलियुग। ६. कोल नामक कन्द। ७. गाय या गौ का एक संस्कार।
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पंजरक  : पुं० [सं० पंजर+कन्] डंठलों आदि का बुना हुआ बड़ा टोकरा। खाँचा। झाबा।
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पंजरना  : अ०=पजरना।
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पँजरी  : स्त्री० [सं० स्त्रीत्वात्-ङीप्, पंजर=ठठरी] अर्थी। टिकठी। वि० [सं० पंजर] जो पंजर के रूप में या पंजर मात्र हो।
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पंजा  : पुं० [सं० पंचक से फा० पंजः] १. एक ही तरह की पाँच चीजों का वर्ग या समूह। गाही। जैसे—चार पंजे आम। २. हाथ (या पैर) का वह अगला भाग जिसमें हथेली (या तलवा) और पाँचों उंगलियाँ होती हैं। ३. उंगलियों और हथेली का संपुट जिससे चीजें उठाई, पकड़ी या ली जाती हैं; अथवा जिनसे पशु-पक्षी आदि प्रहार या वार करते हैं। चंगुल। पद—पंजे में=अधिकार या वश में। चंगुल में। जैसे—उनके पंजे में फँसकर निकलना सहज नहीं है। मुहा०—पंजा फैलाना या बढ़ाना=(क) कुछ लेने के लिए हाथ आगे करना। हाथ पसारना या बढ़ाना। (ख) अपने अधिकार या वश में करने के लिए उद्यत या तत्पर होना। हथियाने का प्रयत्न करना। पंजा मारना=(क) झपट कर घात या प्रहार करना। (ख) लेने के लिए झपटकर आगे बढना या लपकना। पंजे झाड़कर (किसी से) चिमटना या (किसी के) पीछे पड़ना=जी-जान से या सारी शवित लगाकर किसी से कुछ लेने, उसे तंग करने या हानि पहुँचाने पर उतारू होना। पंजों के बल चलना=बहुत अधिक अभिमान या मद के कारण इस प्रकार उछलते हुए चलना कि पूरे पैर जमीन पर न पड़ने पायें। ४. जूते का वह अगला भाग जिसमें पैर का पंजा रहता है। जैसे—इस जूते का पंजा कुछ ज्यादा चौड़ा है। ५. एक प्रकार की शारीरिक बल-परीक्षा जिसमें दो व्यक्ति दाहिने हाथ की उँगलियाँ आपस में फँसाकर एक-दूसरे का हाथ उमेठने या मरोड़ने का प्रयत्न करते हैं। क्रि० प्र०—लड़ाना।—लेना। मुहा०—(किसी से) पंजा लड़ाना=सामने आकर बल-परीक्षा करना। उदा०—मृत्यु लड़ाएगी तुमसे पंजा।—दिनकर। ६. कुछ ऐसे यंत्र जिनका अगला भाग या तो हाथ के पंजे के आकार का होता है या बहुत-कुछ काम करता है जो साधारणत
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पंजा-तोड़  : पुं० [हिं०] कुश्ती का एक प्रकार के पेंच, जिसमें विपक्षी से हाथ मिलाकर उसका पंजा पकड़कर उमेठने हुए अपनी कोहनी उसके पेच में लगाकर उसे अपनी पीठ पर ले आते हैं और तब झटके से उसे जमीन पर चित गिरा देते हैं।
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पंजा-बल  : पुं० [हिं० पंजा+बल] पालकी ढोनेवाली कहारों की बोली में, यह सूचित करने का पद कि आगे की भूमि ऊँची है। (अगला कहार पिछले कहार को इसी के द्वारा सचेत करता है।)
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पंजाब  : पुं० [फा०] १. अविभाजित भारत का उत्तर-पश्चिम का एक प्रसिद्ध प्रदेश जिसमें सतलज, व्यास, रावी, चनाव और झेलम—ये पाँच नदियाँ बहती हैं। २. उक्त प्रदेश का वह अंश, जो पाकिस्तान बनने के बाद अब भी भारत का एक राज्य है।
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पंजाबी  : वि० [हिं० पंजाब] १. पंजाबी-संबंधी। पंजाब का। २. पंजाब में बनने, होने या रहनेवाला। ३. गुरुमुखी भाषा-संबंधी। जैसे—पंजाबी सूबा। पुं० १. पंजाब का नागरिक। २. ढीली बाँह का कुरता जिसका प्रचलन पंजाब में हुआ था। स्त्री० पंजाब की भाषा जो गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है।
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पंजारा  : पुं०=पिंजारा। (धुनिया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंजिका  : स्त्री० [सं०√पंज्+इन्+कन्—टाप्] १. वह टीका जिसमें प्रत्येक शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया हो। २. यमराज की वह लेखाबही, जिसमें मनुष्यों के शूभाशुभ कर्मों का लेखा लिखा जाता है। ३. हिसाब या विवरण लिखने की पुस्तिका। (रजिस्टर)
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पंजियाड़  : पुं०=पंजीकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंजी  : स्त्री० [सं०√पंज्+इन्—ङीप्] हिसाब, विवरण आदि लिखने की पुस्तिका। रजिस्टर। बही।
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पंजी-बंधन  : पुं० [सं० त० त०]=पंजीयन।
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पंजीकरण  : पुं० [सं० पंजी+च्वि√कृ (करना)+ल्युट्—अन्] १. किसी लेख या लेखे का पंजी में लिखा जाना। २. नाम-सूची में नाम लिखा या चढ़ाया जाना।
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पंजीकार  : पुं० [सं० पंजी√कृ+अण्] १. वह जो पंजी या बही खाता लिखने का काम करता हो। आय-व्यय आदि का लेखक। मुनीम। २. वह ज्योतिष जो पंचांग बनाने का काम करता हो। ३. मिथिला में वह पंडित जिसके पास भिन्न-भिन्न गोत्रों के लोगों की वंशावलियाँ रहती हैं; और जो यह व्यवस्था देता है कि अमुक-अमुक परिवारों में वैवाहिक संबंध स्थापित हो सकता है या नहीं।
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पंजीकृत  : भू० कृ० [सं० पंजी√कृ+क्त] (लेख) जिसका पंजीकरण हुआ हो।
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पंजीबद्ध  : भू० कृ० [सं० त० त०]=पंजीकृत।
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पंजीयक  : पुं० [सं० पंजीकार] १. वह जो पंजी पर लेख, विवरण आदि लिखता हो। २. किसी संस्था अथवा विभाग के अभिलेख सुरक्षित रखनेवाला प्रधान अधिकारी। (रजिस्ट्रार)
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पंजीयन  : स्त्री० [सं० पंजीकरण] किसी लेख या लेखे का किसी कार्यालय की पंजी में (विशेषतः राजकीय पंजी में) लिखा जाना। (रजिस्ट्रेशन)
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पंजीरी  : स्त्री० [हिं० पाँच+ईरी (प्रत्य०)] कई करह की चीजों और मसालों को भूनकर बनाया जाने वाला एक प्रकार का मीठा चूर्ण खो जाने में काम आता है। कसार। जैसे—सत्यनारायण की पूजा के लिए बनानेवाली पँजीरी; प्रसूता अथवा दुर्बलों को खिलाने के लिए बनाई जानेवाली पौष्टिक पँजीरी। स्त्री० [देश०] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिसके कुछ अंगों का उपयोग औषध के रूप में होता है। अज-पाद। इन्दुपर्णी।
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पंजेरा  : पुं० [हिं० पाँजना] १. बरतन झालने का काम करनेवाला। बरतन में टाँके आदि देकर जोड़ लगानेवाला। २. दे० ‘पिंजारा’।
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