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ज्ञान  : पुं० [सं०√ज्ञा+ल्युट-अन] १. चेतन अवस्थाओं में इंद्रियों आदि के द्वारा बाहरी वस्तुओं, विषयों आदि का मन को होनेवाला परिचय या बोध। मन में होनेवाली वह धारणा या भावना जो चीजों या बातों को देखने मझने सुनने आदि से होती है। विशेष–न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चारों प्रणामों को ज्ञान का मूल कारण या स्रोत माना गया है। २. लोक-व्यवहार में, शरीर की वह चेतना=शक्ति जिसके द्वारा जीवों, प्राणियों आदि को अपनी आवश्यकताओं और स्थितियों के अनुसार अनेक प्रकार की अनुभूतियाँ और सब बातों की जानकारी या परिचय होता है। कुछ जानने, समझने आदि की योग्यता, वृत्ति या शक्ति। जैसे–(क) वनस्पतियों आदि में भी इतना ज्ञान होता है कि वे गरमी सरदी और दिन-रात का अनुभव करते हैं। (ख) उसकी चेष्टाओं से पता चलता है कि मरते समय उसका ज्ञान बना रहा। विशेष–प्राणि-विज्ञान के अनुसार, हमारे सारे शरीर में स्नायविक तंतुओं का जो जाल फैला हुआ है, उसी की कुछ क्रियाओं से हमें सब बातों और विषयों का ज्ञान होता है। चेतना दृष्टि से उक्त तंतुजाल का केंद्र हमारे मस्तिष्क में हैं, जहाँ सारा ज्ञान पहुँचकर एकत्र होता और हमसे सब प्रकार के काम कराता है। ३. किसी बात या विषय के संबंध में होनेवाली वह तथ्यपूर्ण, वास्तविक और संगत जानकारी या परिचय जो अध्ययन, अनुभव, निरीक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा प्राप्त होता है। जैसे–किसी कला, भाषा या विद्या का ज्ञान। ४. आध्यात्मिक और धार्मिक क्षेत्रों में, आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक संबंध, वास्तविक स्वरूप आदि और भौतिक जगत संसार की अनित्यता, नश्वरता आदि से संबंध की होनेवाली अनुभूति, जानकारी या परिचय जो आवागमन के बंधन से छुड़ाकर मुक्ति या मोक्ष देनेवाला माना गया है। तत्त्व-ज्ञान, ब्रह्म-ज्ञान। मुहावरा–ज्ञान छाँटना या बधारना=अनावश्यक रूप से, बहुत बढ़-बढ़कर और केवल अपनी जानकारी या पांडित्य दिखाने के उद्देश्य से ज्ञान संबंधी तरह-तरह की बातें कहना।
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ज्ञान-कांड  : पुं० [ष० त०] वेद में तीन कांडों या विभागों में से एक जिसमें जीव और ब्रह्म के पारस्परिक संबंधों, स्वरूपों आदि पर विचार किया गया है।
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ज्ञान-कृत  : वि० [तृ० त०] (कार्य, व्यापार या पाप) जो ज्ञान रहते अर्थात् जान-बूझकर तथा सचेत अवस्था में किया गया हो।
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ज्ञान-गम्य  : वि० [तृ० त०] (विषय) जिसका ज्ञान प्राप्त किया जा सकता हो।
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ज्ञान-गोचर  : वि० [ष० त०] जो ज्ञान के द्वारा जाना जा सके।
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ज्ञान-चक्षु(स्)  : पुं० [ष० त०] १. अंतर्दृष्टि। २. बहुत बड़ा विद्वान्।
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ज्ञान-दा  : स्त्री० [सं० ज्ञानद+टाप्] सरस्वती।
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ज्ञान-दाता(तृ)  : वि० [ष० त०] ज्ञान कराने या देनेवाला। पुं० गुरु।
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ज्ञान-दात्री  : स्त्री० [ष० त०] सरस्वती।
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ज्ञान-पति  : पुं० [ष० त०] १. परमेश्वर। २. गुरु।
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ज्ञान-पिपासु  : वि० [ष० त०] जो ज्ञान अर्थात् किसी विषय की पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता हो। ज्ञान का जिज्ञासु।
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ज्ञान-प्रभ  : पुं० [ब० स०] एक तथा गत का नाम।
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ज्ञान-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] राम की पूजा की एक मुद्रा। (तंत्रसार)।
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ज्ञान-मूढ़  : पुं० [मध्य० स०] वह जो ज्ञानी होने पर भी मूढ़ों या मूर्खों का सा आचरण या व्यवहार करता हो।
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ज्ञान-यज्ञ  : पुं० [तृ० त०] आत्मा और परमात्मा के अ-भेद का पूरा ज्ञान प्राप्त करके अपने आपकों पूर्ण रूप से ईश्वर में लीन कर देने की क्रिया या भाव।
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ज्ञान-योग  : पुं० [कर्म० स०] वह योग या साधन जिसमें परमात्मा या ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य मोक्ष का अधिकारी बनता है।
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ज्ञान-साधन  : पुं० [ष० त०] १. इंद्रियाँ जिनकी सहायता से ज्ञान-प्राप्त किया जाता है। २. किसी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न।
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ज्ञानतः(तस्)  : क्रि० वि० [सं० ज्ञान+तस्] ज्ञान रहने या होने की दशा में। जान-बूझकर।
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ज्ञानद  : वि० [सं० ज्ञान√दा (देना)+क] [स्त्री० ज्ञानदा] ज्ञान कराने या देनेवाला। पुं० गुरु।
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ज्ञानमय  : वि० [सं० ज्ञान+मयट्] ज्ञान से युक्त। ज्ञान से भरा हुआ। पुं० ईश्वर।
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ज्ञानवान्(वत्)  : वि० [सं० ज्ञान+मतुप्, वत्व] १. जिसे बहुत सी बातों, विषयों आदि की जानकारी हो। २. योग्य या समझदार। ३. आत्मा और परमात्मा के अभेद का ज्ञाता।
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ज्ञानाकर  : पुं० [ज्ञान-आक, ष० त०] बुद्ध।
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ज्ञानाकार  : पुं० [ज्ञान-आकार, ष० त०] गौतम बुद्ध।
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ज्ञानांजन  : पुं० [ज्ञान-अंजन, कर्म० स०] ब्रह्मज्ञान।
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ज्ञानालय  : पुं० [ज्ञान-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ ज्ञान संबंधी चर्चा या विवेचन हो और ज्ञान का लोक में प्रचार होता हो। (इन्स्टिट्यूट)
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ज्ञानावरण  : पुं० [ज्ञान-आवरण, ष० त०] १. वह चीज या परदा जो ज्ञान की प्राप्ति का बाधक हो। २. वह पाप जिसका उदय होने पर ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
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ज्ञानावरयणीयकर्म(र्मन्)  : पुं० [ज्ञान-आवरणीय, ष० त०, ज्ञानावरणीय, कर्मन्, कर्म० स] =ज्ञानावरण।
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ज्ञानाश्रयी  : वि० [सं०] १. ज्ञान पर आश्रित। २. ज्ञान-संबंधी।
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ज्ञानाश्रयी शाखा  : स्त्री० [सं०] १. आध्यात्म एवं धार्मिक साधना आदि में एक प्रवृत्ति जिसमें भक्त भगवान को ज्ञान द्वारा प्राप्त करने के सिद्धांत का समर्थक होता है। २. हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल की एक धारा।
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ज्ञानासन  : पुं० [ज्ञान-आसन, मध्य० स०] योग की सिद्धि का एक आसन।
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ज्ञानी(निन्)  : वि० [सं० ज्ञान+इनि] १. जिसे ज्ञान या जानकारी हो। २. योग्य तथा समझदार। पुं० १. वह जिसे आत्म और ब्रह्म के स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान हो चुका हो। ब्रह्मज्ञानी। २. चार प्रकार के भक्तों में से एक जो सब बातों का ज्ञान रखकर भक्ति करता और इसी लिए सब में श्रेष्ठ माना जाता है।
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ज्ञानेंद्रिय  : स्त्री० [ज्ञान-इंद्रिय, मध्य० स०] आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा ये पाँच इंद्रियाँ जिनसे भौतिक विषयों का ज्ञान होता है।
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ज्ञानोदय  : पुं० [ज्ञान-उदय, ष० त०] किसी प्रकार के ज्ञान का (मन में) होने वाला उदय।
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