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क्रीडा  : स्त्री० [सं०√क्रीड़+अ-टाप्] १. मन बहलाने या समय बिताने के लिए किया जानेवाला कोई मनोरंजक काम। आमोद-प्रमोद। (प्ले)। २. ताल का एक मुख्य भेद। ३. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक यगण और एक गुरु होता है। वि० केवल क्रीड़ा के विचार से किया ,बनाया या रखा हुआ। (यौ० के आरंभ में) जैसे—क्रीड़ा-कोप, क्रीड़ा-पर्वत, क्रीड़ा-मृग आदि।
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क्रीडा-कोप  : पुं० [ष० त०] केवल किसी को चिढ़ाने के लिए किया जानेवाला दिखावटी गुस्सा।
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क्रीडा-कौतुक  : पुं० [ष० त०] खेल-कूद। आमोद-प्रमोद।
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क्रीडा-गृह  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहां लोग केवल क्रीड़ा करने जाते हों। २. केलि-मंदिर।
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क्रीडा-चक्र  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में छः यगण होते हैं। महामोदकारी।
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क्रीडा-पर्वत  : पुं० [ष० त०] बाटिका आदि में बनाया जानेवाला नकली पहाड़।
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क्रीडा-मृग  : पुं० [ष० त०] केवल क्रीडा के लिए या शौक से पाला हुआ पशु।
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क्रीडा-यान  : पुं० =क्रीडा-रथ।
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क्रीडा-रत्न  : पुं० [ष० त०] रति-क्रिया।
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क्रीडा-रथ  : पु० [ष० त०] उत्सव आदि के समय फूलों से सजाया हुआ रथ।
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क्रीडा-वन  : =पुं० -क्रीडा-कानन।
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क्रीडा-स्थल  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ किसी ने क्रीड़ाएँ की हों। जैसे—मथुरा भगवान् कृष्णचन्द्र का क्रीड़ा-स्थल है। २. वह स्थान जहाँ तरह तरह की क्रीड़ाएँ या खेल होते हों। खेलने की जगह या मैदान। (प्ले-ग्राउन्ड)।
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क्रीडानारी  : स्त्री० [ष० त०] वेश्या।
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