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शब्द का अर्थ

आह  : अव्य० [सं० अहह] दुःख, पीड़ा, शोक, पश्चाताप आदि का सूचक एक अव्यय। मुहावरा—आह करना या खींचना=कष्ट या दुःख के कारण ठंडी साँस भरना या आह शब्द कहना। (किसी की) आह पड़ना=जिसे बहुत कष्ट दिया गया हो, उसकी आह या वेदना का कुफल प्राप्त होना। (किसी की) आह लेना=ऐसा अनुचित काम करना किसी को बहुत कष्ट पहुँचे और वह आह आह करे। अ०=आहि (है)। पुं० दे० ‘आहु’।
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आहट  : स्त्री० [सं० आना+हट(प्रत्यय)] १. वह मंद ध्वनि या धीमा शब्द जो किसी के आने-जाने, बोलने-चालने, हिलने-डोलने आदि के कारण कुछ दूर बैठे हुए व्यक्ति तक पहुँचता है। मुहावरा—आहट मिलना=उक्त प्रकार के शब्द से यह पता चलना कि कहीं कोई आया है या कोई बात हो रही है। आहट लेना=उक्त प्रकार का शब्द सुनाई पड़ने पर या संदेह, संभावना आदि होने पर धीरे से छिपकर यह जानने का प्रयत्न करना कि कौन आया है या क्या बात हो रही है। टोह या थाह लेना। प्रत्यय-एक हिंदी प्रत्यय जो कुछ क्रियाओं के अंत में लगकर उन्हें भाव वाचक संज्ञा का रूप देता है। जैसे—घबराना से घबराहट, चिल्लाना से चिल्लाहट, बुलाना से बुलाहट आदि।
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आहत  : वि० [सं० आ√हन्+क्त] १. जिसपर आघात हुआ हो। २. जिसे चोट आदि लगने के कारण घाव आदि हुआ हो। घायल। जखमी। पद—हताहत-मरे हुए तथा घायल लोग। ३. (व्याकरण में, ऐसा वाक्य) जिसमें परस्पर विरोधी बातें आदि हों। व्याघात नामक दोष से युक्त। ४. (गणित में, वह संख्या) जिसका गुणा किया गया हो। गुणित। ५. (कपड़ा) जो तुंरत पटक-पटक करके धोया और साफ किया गया हो। ६. पुराना। प्राचीन। पुं० १. कपड़ा। वस्त्र। २. ढोल।
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आहत-मुद्रा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] आरंभिक काल की वह मुद्रा (सिक्का) जो चाँदी, ताँबे आदि के छडों के छोटे टुकडो के रूप में केवल काट-पीट कर बनाई जाती थी और जिसपर किसी प्रकार का अंक या चिन्ह नहीं होता था। (वेन्टबार क्वायन)
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आहति  : स्त्री० [सं० आ√हन्+क्तिन्] १. आहत होने की अवस्था या भाव। २. आघात। चोट। मार। ३. गणित में, गुणा करने की क्रिया या भाव। गुणन।
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आहन  : पुं० [फा०] [वि० आहनी] लोहा। [सं० अह्न] दिन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहनन  : पुं० [सं० आ√हन्+ल्युट्] १. किसी को जान से मार डालना। २. बहुत निर्दयतापूर्वक मारना-पीटना।
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आहनी  : वि० [फा०] लोहे का।
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आहर  : पुं० [सं० अहः] १. काल। वक्त। समय। २. दिन। दिवस। पुं० [सं० आहव] [स्त्री० अल्पा० आहरी] १. छोटा तालाब। २. युद्ध। पुं० =आहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहरण  : पुं० [सं० आ√हृ+ल्युट्] [वि० आहरणीय, आहृत, कर्तृ० आहर्ता] कुछ चुराकर या छीनकर कहीं ले जाना। पुं० =आभरण (गहना)।
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आहरणीय  : वि० [सं० आ√ह्र+अनीयर] जिसे हरण किया जा सके। चुराये, छीने या हरे जाने के योग्य।
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आहरन  : पुं० [सं० आहनन] लोहारों, सुनारों आदि की निहाई। अहरन।
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आहरी  : स्त्री० [हिं० आहार का स्त्री अल्पा०] १. पशुओं के पानी पीने के लिए बना हुआ छोटा हौज। २. थाला। (दे०)।
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आहर्ता  : वि० [सं० आ√हृ+तृच्] १. आहरण करने (चुराने या छीनने) वाला। २. अनुष्ठान करनेवाला।
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आहला  : पुं० [सं० आ+हला-जल] नदियों आदि की बाढ़।
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आहव  : पुं० [सं० आ√ह्वे+अप्] १. चुनौती। ललकार। प्रचारण। २. युद्ध। संग्राम। ३. यज्ञ।
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आहवन  : पुं० [सं० आ√हु+ल्युट्] [वि० आहवनी] हवन करने की क्रिया या भाव।
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आहवनीय  : स्त्री० [सं० आ√हु+अनीयर] तीन प्रकार की अग्नियों में तीसरी, जो हवन आदि के लिए होती है। (कर्मकाण्ड)
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आहाँ  : स्त्री० [सं० आह्वान] १. हाँक। २. पुकार। अव्य० [अ-नहीं+हाँ] अस्वीकृति, वर्जन आदि का सूचक शब्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आहा  : अव्य० [सं० अहह] १. उल्लास, हर्ष आदि का सूचक एक अव्यय। जैसे—आहा कैसा आनंद आया २. खेद, विस्मय आदि का सूचक एक अव्यय। जैसे—आहा क्षमा कीजिए, आपको चोट लग गई।
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आहार  : पुं० [सं० आ√हृ+घञ्] १. भोजन करना। २. खाने की सामग्री या वस्तु। खाद्य पदार्थ। भोजन।
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आहार-मंडप  : पुं० [सं० ष०त०] किसी विशाल भवन का वह बड़ा कमरा जिसमें अतिथियों, मित्रों आदि को भोज दिये जाते हों। (बैन्क्वेंटिंग हाँल)
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आहार-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान जिसमें खाद्य पदार्थों के गुण-दोष,पोषक तत्त्व आदि का विवेचन होता है। (डायटेटिक्स)
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आहार-विहार  : पुं० [सं० द्व० स०] नित्यप्रति के शारीरिक कार्य या व्यापार और व्यवहार। जैसे—खान-पीना, काम-करना, हँसना-बोलना सोना आदि।
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आहारक  : वि० [सं० आ√हृ+ण्वुल्-अक] अपने पास लानेवाला। पुं० जैन शास्त्रानुसार वह उपलब्धि जिसमें मुनिराज अपनी शंका के समाधान के लिए हस्त-मात्र शरीर धारण कर तीर्थकारों के पास उपस्थित होते हैं।
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आहारशास्त्र  : पुं० =आहार-विज्ञान।
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आहारिक  : वि० [सं० आहार+ठक्-इक] आहार या भोजन संबंधी। पुं० जैनों में आत्मा के पाँच प्रकार के शरीरों में से वह जो मनुष्य के आहार विहार आदि का कर्ता और भोक्ता है।
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आहारी (रिन्)  : वि० [सं० आहार+इनि] [स्त्री० आहारिणी] आहार (भोजन) करनेवाला। जैसे—मांसाहारी, शाकाहारी आदि।
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आहार्य्य  : वि० [सं० आ√हृ+ण्यत्] १. हरण किये जाने के योग्य। २. आहार (भोजन) किये जाने के योग्य। ३. बनावटी। कृत्रिम। ४. दिखौआ। ५. पूज्य। पुं० १. अभिनय का वह विशिष्ट प्रकार जो विशेष प्रकार की वेष-भूषा धारण करके किया जाता है। २. साहित्य में चार प्रकार के अनुभवों में से एक जिसमे नायक और नायिका एक दूसरे का वेष धारण करके विहार करते हैं। ३. वैद्यक में, ऐसा रोग जिसे अच्छा करने के लिए चीर-फाड़ या शल्य-चिकित्सा की आवश्यकता हो।
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आहार्य्याभिनय  : पुं० [सं० आहार्य-अभिनय कर्म०स०] अभिनय का वह अंश जो रूप, वेष आदि पर आश्रित हो। आहार्य्य।
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आहि  : अ० [सं० अस्] पूर्वी हिंदी में असना या आसना (होना) क्रिया का वर्त्तमानकालिक रूप। है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहित  : भू० कृ० [सं० आ√धा+क्त] १. रखा या स्थापित किया हुआ। २. धरोहर, गिरों या रेहन के रूप में रखा हुआ। ३. किया हुआ। पुं० प्राचीन भारत में, वह दास जो पहले अपने स्वामी से इकट्ठा धन लेकर और तब उसकी सेवा में रहकर वह धन चुकाता था।
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आहिताग्नि  : पुं० [सं० आहित-अग्निकर्म० स०] १. धार्मिक दृष्टि से स्थापित की हुई अग्नि। २. अग्निहोत्री।
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आहिति  : स्त्री० [सं० आ√धा+क्तिन्] आहित करने या होने की अवस्था या भाव।
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आहिस्ता  : अव्य० [फा० आहिस्तः] [भाव० आहिस्तगी] धीमे से। धीरे से। पद—आहिस्ता आहिस्ता=(क) धीरे-धीरे। शनैःशनैः। (ख) क्रम-क्रम से।
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आहु  : पुं० [सं० आहव-ललकार] लड़ने आदि के लिए दी जानेवाली ललकार। चुनौती। प्रचरण। उदाहरण—गह्मौ राहु अति आहु करि, मनु ससि सूर समेत।—बिहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहुटि  : स्त्री०=आहट।
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आहुड़  : पुं० [सं० आहव] युद्ध। संग्राम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहुति  : स्त्री० [सं० आ√हु+क्तिन्] १. यज्ञ या हवन की अग्नि प्रज्वलित रखने के लिए उसमें बार-बार कोई जलनेवाली अच्छी चीज डालते रहना। जैसे—घी, जौ या तिल की आहुति। २. उक्त प्रकार से यज्ञ या हवन की अग्नि में डालने की सामग्री, अथवा हर बार डाली जानेवाली उसकी मात्रा। जैसे—रूद्र की ११ आहुतियाँ दी जाती है। ३. किसी उद्देश्य की सिद्धि या कर्त्तव्य-पालन के लिए उसमें लगकर पूरी तरह से व्यय तथा समाप्त हो जानेवाली चीज। जैसे—स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हजारों देशप्रेमियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।
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आहुती  : स्त्री०=आहुति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहू  : पुं० [फा०] मृग। हिरन। उदाहरण— मनु कलिंद पर कलिन कनक मंडप आहू कौ।—रत्नाकर।
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आहूत  : भू० कृ० [सं० आ√ह्रे+क्त] १. जिसका आह्रान हुआ हो। जो बुलाया गया हो। २. आमंत्रित। निमंत्रित।
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आहूति  : स्त्री० [सं० आ√ह्वे+क्तिन्] आह्वान करना। बुलाना। स्त्री०=आहुति।
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आहृत  : भू० कृ० [सं० आ+हृ+क्त] १. हरण किया या बलपूर्वक लिया हुआ। २. कहीं से लाया हुआ।
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आहै  : अ० [सं० अस्] ‘आसना’ क्रिया का वर्त्तमानकालिक रूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहौ  : अ० ‘होना’ क्रिया के वर्त्तमानकालिक ‘हूँ’ का पुराना अवधी रूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आह्र  : वि० [सं० अहन्+अञ्] प्रति दिन होनेवाला। दैनिक।
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आह्राद  : पुं० [सं० आ√ह्रद+घञ्] [वि० आह्रादक,आह्रादित] किसी अच्छी बात से होनेवाली अस्थायी या क्षणिक प्रसन्नता। (ग्लैडनेस)
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आह्रिक  : वि० [सं० अहन्+ठक्] दैनिक। रोजाना। पुं० १. एक दिन का काम या उसकी मजदूरी। २. नित्य प्रतिदिन किये जानेवाले धार्मिक कृत्य। जैसे—पाठ, पूजन, संध्या, वंदन आदि।
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आह्लादक  : वि० [सं० आ√ह्लद+णिच्+ण्वुल्] आह्राद या प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला।
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आह्लादित  : वि० [सं० आ√ह्लद+णिच्+क्त] जिसे आह्लाद हुआ हो। प्रसन्न। हर्षित।
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आह्वान  : पुं० [सं० आ√व्हे+ल्युट्] १. किसी से यह कहना कि यहाँ या हमारे पास अमुक काम के लिए आओ। पुकारना। बुलाना। २. पूजन, यज्ञ आदि के समय देवताओं से यह कहना कि आप यहाँ आकर अपना भाग और हमारी सेवा-पूजा ग्रहण करें। ३. आधिकारिक या विधिक रूप से किसी को आज्ञा देना कि यहाँ आओ। ४. वह पत्र जिसमें उक्त प्रकार का बुलावा लिखा हो। (समन)।
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आह्वाय  : पुं० [सं० आ√ह्वे+श] १. नाम। संज्ञा। २. तीतर, बटेर, मेढ़े आदि जीवों की लड़ाई की बाजी।
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आह्वायक  : वि० [सं० आ√ह्वे+ण्वुल्-अक] आह्वान करने या बुलानेवाला।
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