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शिखा  : स्त्री० [सं० शि+खक, पृषो०-टाप्] १. हिन्दुओं में मुंडन के समय सिर के बीचोबीच छोड़ा हुआ बालों का गुच्छा जो फिर कटाया नहीं जाता और बढ़कर लंबी चोटी के रूप में हो जाता है। चुंदी। चोटी। पद-शिखासूत्र=चोटी और जनेऊ जो द्विजों के मुख्य चिन्ह हैं और जिनका त्याग केवल सन्यासियों के लिए विधेय है। २. मोर, मुर्गी आदि पक्षियों के सिर पर उठी हुई चोटी या पंखों का गुच्छा। चोटी। कलगी। ३. आग, दीपक आदि की ऊपर उठनेवाली लौ। ४. प्रकाश की किरण। ५. किसी चीज का नुकीला सिरा। नोक। ६. ऊपर उठा हुआ सिरा। चोटी। ७. पैर के पंजों का सिरा। ८. स्तन का अगला भाग। चूचुक। ९. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके विषम पदों में २८ लघु मात्राएँ और अन्त में एक गुरु होता है। सम पादों में ३॰ लघु मात्राएँ और अन्त में एक गुरु होता है। १॰. पहने हुए कपड़ें का आँचल। दामन। ११. पेड़ की जड़। १२. पेड़ की डाल। शाखा। १३. श्रेष्ठ वस्तु या व्यक्ति। १४. नायक। सरदार। १५. काम-वासना की तीव्रता के कारण होनेवाला ज्वर। काम-ज्वर। १६. तुलसी। १७. बच। १८. जटामासी। बालछड़। १९. कलियारी नामक विष। लांगली। २॰. मरोड़-फली। मूर्वा।
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शिखाकंद  : पुं० [सं० ब० स०] शलजम। शलगम।
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शिखांत  : पुं० [सं० शिखा+अंत, ष० त०] शिखा का अंतिम अर्थात् सबसे ऊपरी भाग।
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शिखातरु  : पुं० [सं० ष० त० स०] दीप-वृक्ष। दीवट। दीयर।
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शिखाधर  : पुं० [सं० ष० त० स०] मयूर। मोर। वि० शिखा धारण करनेवाला।
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शिखाधार  : पुं० [सं०]=शिखाधर।
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शिखापित्त  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें हाथ-पैर की उँगलियों में सूजन और जलन होती है।
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शिखाभरण  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शिरोभूषण। २. मुकुट।
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शिखामणिक  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. सिर पर धारण किया जानेवाला रत्न। २. मुकुट में लगाया जानेवाला रत्न। ३. सर्वश्रेष्ठ पदार्थ या वस्तु।
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शिखामूल  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा कंद जिसके ऊपर पत्तियाँ या पत्तें हों। जैसे—गाजर, शलजम आदि।
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शिखालु  : पुं० [सं० शिखा+आलुच्] मोर की चोटी। कलगी।
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शिखावल  : पुं० [सं० शिखा+मतुप-म=व-नुम्-दीर्घ नलोप] [स्त्री० शिखावती] सिखावाला। पुं० १. अग्नि। २. चित्रक। चीता। ३. केतु ग्रह। ४. मयूर। मोर।
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शिखावृक्ष  : पुं० [सं० ष० त० स०] वह आधार जिस पर दीया रखा जाता है। दीवट।
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शिखावृद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. ब्याज का प्रतिदिन बढ़ना। २. ब्याज पर भी जोड़ा जानेवाला ब्याज। सूद-दर-सूद। (कम्पाउंड इस्टरेस्ट)।
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