शब्द का अर्थ
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वीर :
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पुं० [सं० वीर] १. प्रायः समस्त पदों के अंत में, किसी काम या बात में औरों से बहुत आगे बढ़ा हुआ या बहादुर। २. भाई के लिए प्रयुक्त होनेवाला संबोधन। ३. वह जो टोने, टोटके, यंत्र-मंत्र आदि का बहुत बड़ा ज्ञाता हो। ४. ऐसी प्रेतात्मा जिसे किसी ने वश में किया हो। स्त्री० [सं० वीरा] १. स्त्रियों में प्रचलित सखी या सहेली के लिए संबोधन। २. कान में पहनने का बिरिया नामक गहना। स्त्री० [सं० वृत्ति ?] चरागाह में पशुओं को चराने का वह महसूल जो पशुओं की संख्या के अनुसार लिया जाता था। पुं०=चरागाह। स्त्री०=बीड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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वीर :
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पुं० [सं०√अज्+रक्, वी-आदेश√वीर्+अच्, वा] [भाव० वीरता] १. वह जो यथेष्ठ साहसी और बलवान हो। बहादुर। शूर। २. योद्धा। सिपाही। सैनिक। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में श्रृंगार आदि नौ रसों में से एक रस जिसमें उत्साह,वीरता,साहस आदि गुणों का रस-पूर्ण परिपाक होता है। ४. वह जो किसी विकट परिस्थिति में भी आगे बढ़कर अच्छी तरह और साहसपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करे। ५. वह जो किसी काम में और लोगों में से बहुत बढ़कर हो। जैसे—दानवीर, धर्मवीर। वह जो किसी काम या बात में बहुत चतुर या होशियार हो। जैसे—वाग्गीर। ६. स्त्री की दृष्टि में उसका पति। ७. पुत्र। बेटा। ८. भाई के लिए बहन का एक प्रकार का संबोधन। ९. तांत्रिकों की परिभाषा में साधना के तीन प्रकारों या भावों में से एक जिसमें खूब मद्यपान करके और उन्मत्त होकर मनुष्य भैंसे या भेड़-बकरी का बलिदान किया जाता है। विशेष—कहा गया है कि दिन के पहले दस दंडों में पशु भाव से बीच के १॰ दंडों में वीर भाव से और अंतिम १॰ दंडों में दिव्य भाव से साधना करनी चाहिए। कुछ लोगों के मत से १६ वर्ष की अवस्था तक पशु भाव से फिर ५॰ वर्ष की अवस्था तक वीर भाव से और उसके बाद दिव्य भाव से साधना करनी चाहिए। १॰. तांत्रिकों की परिभाषा में वह साधक जो उक्त प्रकार के वीर-भाव से साधना करता हो। ११. वज्रयानी सिद्धों की परिभाषा में वह साधक जो वज्र-प्रज्ञोपाय योग के द्वारा महाराग में विराग का दमन करता हो। १२. साहित्य में एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३१ मात्राएँ और १६ मात्राओं पर यति या विराम होता है। आल्हा नामक गीत वस्तुतः इसी छंद में होता है। १३. विष्णु। १४. जैनों के जिन देव १५. यज्ञ की अग्नि। १६. सींगिया विष। १७. काली मिर्च। १८. पुष्करमूल। १९. काँजी। २॰. उशीर। खस। २१. आलूबुखारा। २२. पीली कटसरैया। २३. चौलाई का साग। २४. वाराही कन्द। गेंठी। २५. लताकरंज। २६. अर्जुन नामक वृक्ष। २७. कनेर। २८. काकोली। २९. सिंदूर। ३॰ शालपर्णी। सरिवन। ३१. लोहा। ३२. नरकट। ३३. नरसल। ३४. भिलावँ। ३५. कुश। 3६. ऋषभक नामक ओषधि। 3७. तोरी। तुरई। |
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वीर-कर्मा (र्मन्) :
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वि० [सं०] वीरोचित कार्य करनेवाला। |
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वीर-काम :
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वि० [सं०] वह जिसे पुत्र की कामना हो। पुत्र की इच्छा रखनेवाला। |
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वीर-केशरी (रिन्) :
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पुं० [सं० स० त०] वह जो वीरों में सिंह हो। |
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वीर-गाथा :
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स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसी कवित्वमयी गाथा जिसमें किसी वीर के वीरतापूर्ण कृत्यों का वर्णन होता है। |
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वीर-चक्र :
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पुं० [सं०] एक तरह का पदक जो भारत शासन द्वारा बहुत वीरतापूर्ण कार्य करने पर सैनिकों को दिया जाता है। |
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वीर-पान :
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पुं० [सं० ष० त०] एक तरह का पेय (विशेषतः मादक पेय) जो युद्ध क्षेत्र में जाते समय या युद्ध में योद्धा पीते थे। |
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वीर-पूजा :
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स्त्री० [सं०] मानस समाज में प्रचलित वह भावना जिसके फलस्वरूप उन लोगों के प्रति विशेष भक्ति और श्रद्धा प्रकट की जाती है जो असाधारण रूप से अपनी वीरता का परिचय देते हैं (हीरो वर्शिप)। |
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वीर-प्रसू :
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वि० [सं०] वह (स्त्री) जो वीर संतान उत्पन्न करे। |
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वीर-भुक्ति :
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स्त्री० [सं० ष० त०] आधुनिक वीरभूमि का प्राचीन नाम। |
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वीर-मंगल :
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पुं० [सं०] हाथी। |
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वीर-मत्स्य :
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पुं० [सं०] रामायण के अनुसार एक प्राचीन जाति। |
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वीर-मार्ग :
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पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग जहाँ वीर योद्धा मरने के बाद जाते हैं। |
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वीर-मुद्रिका :
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स्त्री० [सं०] पहनने का एक तरह का पुरानी चाल का छल्ला। |
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वीर-रज :
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पुं० [सं० वीररजस्] सिंदूर। |
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वीर-राघव :
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पुं० [सं० कर्म० स०] रामचन्द्र। |
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वीर-रात्रि :
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स्त्री० [सं०] गुप्त काल के गुंडों की परिभाषा में वह रात जिसमें गुंडे कोई बहुत बड़ी दुर्घटना या दुस्साहस का काम कर गुजरते थे। |
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वीर-रेणु :
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पुं० [सं० ब० स०] भीमसेन। |
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वीर-ललित :
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वि० [सं०] वीरों का सा पर साथ ही कोमल (स्वभाव)। |
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वीर-लोक :
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पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग। |
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वीर-वसंत :
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पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग। |
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वीर-वह :
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पुं० [सं०] १. वह रथ जो घोड़ों द्वारा खींचा जाय। २. रथ। |
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वीर-व्रत :
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पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा व्यक्ति जो अपने व्रत पर अडिग रहता हो। २. निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला। |
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वीर-शयन :
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पुं० [सं०] वीरशय्या। |
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वीर-शय्या :
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स्त्री० [सं० ष० त०] वीरों के सोने का स्थान अर्थात् रणभूमि। लड़ाई का मैदान। |
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वीर-शैव :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] शैवों का एक सम्प्रदाय। |
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वीरक :
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पुं० [सं० वीर+कन्] १. साधारण वीर या योद्धा। २. नायक। ३. एक तरह का पौधा। ४. पुराणानुसार चाक्षुप मन्वंतर के एक मनु। ५. सफेद कनेर। |
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वीरकाव्य :
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पुं० [सं०] ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर बना हुआ वह काव्य जिसमें किसी वीर व्यक्ति के युद्ध संबंधी बड़े-बड़े कार्यों का उल्लेख या वर्णन होता है। (हिन्दी में ऐसे काव्य प्रायः रासों के नाम से प्रसिद्ध हैं)। |
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वीरकुक्षि :
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वि० [सं० ब० स०] (स्त्री) जो वीर पुत्र प्रसव करती हो। |
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वीरगति :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. युद्ध क्षेत्र में मारे जाने पर योद्धाओं को प्राप्त होनेवाली शुभ-गति। २. इन्द्रपुरी। |
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वीरज :
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वि० [सं०] वीर से उत्पन्न। वि०=विरज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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वीरण :
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पुं० [सं० वि√ईर् (गमनादि)+ल्युट-अन] १. कुश, दर्भ, काँस, दूब आदि की जाति के तृण। २. उशीर। खस। ३. एक प्राचीन ऋषि। ४. एक प्रजापति। |
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वीरणी :
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स्त्री० [सं० वीरण+ङीष्] १. तिरछी चितवन। २. नीची भूमि। ३. वीरण की पुत्री और चाक्षुष की माता। |
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वीरता :
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स्त्री० [सं० वीर+तल्+टाप्] १. वीर होने की अवस्था धर्म या भाव। २. वीर का कोई वीरतापूर्ण या साहसिक कार्य। |
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वीरधन्वा (वन्) :
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पुं० [सं०] कामदेव। |
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वीरंधर :
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पुं० [सं० वीर√धृ (रखना)+खच्, मुम्] १. जंगली पशुओं को मारने या उनसे बचने के लिए की जानेवाली लड़ाई। २. मोर। |
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वीरपट्ट :
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पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का सैनिक पहनावा। |
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वीरपत्नी :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. वह जो किसी वीर की पत्नी हो। २. वैदिक काल की एक नदी। |
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वीरपुष्पी :
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स्त्री० [सं०] १. महाबला। सहदेई। २. सिंदूरपुष्पी। लटकन। |
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वीरबाहु :
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पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. रावण का एक पुत्र। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। |
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वीरभद्र :
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पुं० [सं०] १. श्रेष्ठ वीर। २. शिव की जटा से उत्पन्न एक वीर जिसने दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दिया था। ३. अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा। ४. खस। |
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वीरवती :
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स्त्री [सं० वीर+मतुप्, म-व+ङीष्] १. ऐसी स्त्री जिसका पति और पुत्र दोनों जीवित या सुखी हों। २. मांसरोहिणी लता। |
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वीरशाक :
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पुं० [सं० ष० त० या मध्य० स०] बथुआ (साग)। |
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वीरसू :
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वि० [सं०] वीरप्रसू (दे०)। |
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वीरस्थ :
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वि० [सं०] बलि चढ़ाया जानेवाला (पशु)। |
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वीरस्थान :
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पुं० [सं० ष० त०] १. स्वर्ग जहाँ वीर लोग मरने पर जाते हैं। २. तांत्रिक साधकों का वीरासन। |
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वीरहा :
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पुं० [सं० वीरहन्] १. ऐसा अग्निहोत्री ब्राह्मण जिसकी अग्निहोत्रीवाली अग्नि आलस्य आदि के कारण बुझ गई हो। २. विष्णु। वि० वीरों को मारनेवाला। |
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वीरहोत्र :
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पुं० [सं०] विध्य पर्वत पर स्थित एक प्राचीन प्रदेश। |
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वीरा :
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स्त्री० [सं० वीर+टाप्] १. ऐसी स्त्री जिसके पति और पुत्र हों। २. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नदी। ३. मदिरा। शराब। ४. ब्राह्मी बूटी। ५. मुरामांसी। ६. क्षीर काकोली। ७. भुइँ आँवला। ८. केला। ९. एलुआ। १॰. बिदारी कन्द। ११. काकोली। १२. घीकुआँर १३. शतावर। |
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वीराचार :
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पुं० [सं०] वाममार्गियों का एक विशिष्ट प्रकार का आचार या साधना-पद्धति जिसमें मद्य को शक्ति और मांस को शिव मानकर शव-साधन किया जाता है। |
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वीराचारी (रिन्) :
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पुं० [सं० वीराचारिन] [स्त्री० वीराचारिणी] वीराचार के अनुसार साधना करनेवाला वाम-मार्गी। |
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वीरांतक :
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वि० [सं० ष० त०] वीरों को नष्ट करनेवाला। वीरों का नाशक। पुं० अर्जुन (वृक्ष)। |
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वीरान :
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वि० [सं० विरिण (ऊसर)+से फा०] १. (प्रदेश) जिसमें बस्ती न हों। निर्जन। २. लाक्षणिक अर्थ में शोभा-विहीन। |
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वीराना :
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पुं० [फा० वीरानः] निर्जन प्रदेश। |
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वीरानी :
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स्त्री० [फा०] वीरान होने की अवस्था या भाव। |
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वीराशंसन :
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पुं० [सं० वीर+आ√शंस् (कहना)+फिच्+ल्युट-व] ऐसी युद्ध भूमि जो बहुत ही भीषण और भयानक जान पड़ती हो। |
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वीरासन :
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पुं० [सं० वीर+आसन्] १. योग साधन में एक विशिष्ट प्रकार का आसन या मुद्रा। २. मध्ययुगीन भारत में राजदरबारों में बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन या मुद्रा जिसमें दाहिना घुटना मोड़कर पैर चूतड़ के नीचे रखा जाता था और बायाँ मुड़ा हुआ घुटना सामने खड़े बल में रहता था। |
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वीरिणी :
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स्त्री० [सं०] १. ऐसी स्त्री जिसका पति और पुत्र दोनों जीवित तथा सुखी हों। २. वीरण प्रजापति की कन्या जो दक्ष को ब्याही थी। ३. एक प्राचीन नदी। |
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वीरुध :
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पुं० [सं० वि√रुध्+क्विन्] १. वृक्ष और वनस्पति आदि। २. ओषधि के काम में आनेवाली वनस्पति। |
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वीरुधा :
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स्त्री० [सं० वीरुध्+टाप्] दवा के रूप में काम आनेवाली वनस्पति। ओषधि। |
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वीरेंद्र :
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पुं० [सं० वीर+इन्द्र, ष० त०] वीरों में प्रधान या बहुत बड़ा वीर। |
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वीरेश :
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पुं० [सं० वीर+ईश, ष० त०] १. शिव महादेव। २. वीरेन्द्र। |
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वीरेश्वर :
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पुं० [सं० वीर+ईश्वर, ष० त०] शिव। महादेव। |
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वीर्य :
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पुं० [सं०√वीर्+यत्] १. शरीर की सात धातुओं में से एक जिसका निर्माण सबके अन्त में होता है, और जिसके कारण शरीर में बल और कांति आती है। वह स्त्री प्रसंग के समय अथवा रोग आदि के कारण यों ही मूतेंद्रिय से निकलता है। इसे चरम धातु और शुक्र भी कहते हैं। २. पराक्रम। वीरता। ३. ताकत शक्ति। जैसे—बाहुवीर्य=बाहों या हाथों की शक्ति, वाचि वीर्य=बोलने की शक्ति। ४. वैद्यक के अनुसार किसी पदार्थ का वह सार भाग जिसके कारण उस पदार्थ में शक्ति रहती है। किसी धातु का मूल तत्त्व। ५. अन्न, फल आदि का बीज जो बोया जाता है। |
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वीर्यकृत :
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वि० [सं०] १. जो बल या वीर्य उत्पन्न करता हो। बलकारक। २. बलवान्। शक्तिशाली। |
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वीर्यज :
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वि० [सं०] वीर्य से उत्पन्न। पुं० पुत्र। |
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वीर्यधन :
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पुं० [सं०] प्लक्ष द्वीप में रहनेवाले क्षत्रियों का एक वर्ग। |
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वीर्यवत् :
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वि० [सं० वीर्य+मतुप्, म—व] वीर्यवान्। |
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वीर्यशुल्क :
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पुं० [सं०] ऐसा काम या बात जिसे पूरा करने पर ही किसी से या किसी का विवाह होना सम्भव हो। विवाह करने के लिए होनेवाली शर्त। |
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वीर्या :
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स्त्री० [सं० वीर्य+टाप्] १. शक्ति। २. पुंस्त्व। |
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वीर्यातराय :
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पुं० [सं० ब० स०] पाप-कर्म जिसका उदय होने से जीवन हृष्ट-पुष्ट होते हुए भी शक्ति-विहीन हो जाता है (जैन)। |
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वीर्याधान :
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पुं० [सं० ष० त०] वीर्य धारण करना या कराना। गर्भाधान। |
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वीर्यान्वित :
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वि० [सं० तृ० त०] शक्तिशाली। |
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