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शब्द का अर्थ

ब  : देववाणी वर्णमाला का पवर्गीय वर्ण जो व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ओष्ठ्य, अघोष, अल्पप्राण तथा स्पुष्ट व्यंजन है। पुं० [सं०√बल् (जीवन देना)+ड] १. वरुण। २. समुद्र। २. जल। पानी। ४. सुगंधि। ५. ताना। ६. घड़ा। ७. भग। योनि। अव्य० [फा०] एक अव्यय जो अरबी-फारसी शब्दों के पहले लगकर ये अर्थ देता है।—(क) सहित। साथ। जैसे—बखैरियत-खैरियत से। (ख) पूर्वक। जैसे—बखूबी। (ग) के द्वारा। जैसे—बजरिया=जरिये द्वारा। (घ) पर या से। जैसे—खुद ब-खुद-आप=से आप। (च) किसी की तुलना में। जैसे—बब-जिन्स=किसी के ठीक अनुरूप। (छ) अनुसार। जैसे—बदस्तूर, बमूजिव।
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ब-कदर  : क्रि० वि० [फा० ब+अं० कद्र] १. अमुक दर, मान या हिसाब से। २. अनुसार।
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ब-दस्त  : अव्य० [फा०] किसी के हाथ से या द्वारा। मारफत। हस्ते।
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बं-पुलिस  : स्त्री० [अ० बम+पुलिस] सार्वजनिक शौचालय।
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ब-मुकाबला  : अव्य० [फा०+अ०] १. मुकाबले में। समझ। सामने। २. तुलना में। अपेक्षया।
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ब-मुश्किल  : अव्य० [फा०+अ०] कठिनता से।
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ब-मूजिक  : अव्य० [फा०+अ०] अनुसार। मुताबित। जैसे—हुकुम बमूजिक।
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बइठना  : अ०=बैठना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बइर  : विर=पुं० १.=बैर। २.=बेर। (पेड़ या फल)। वि०=वथिर (बहरा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बउर  : पुं० १. दे० ‘बौर’। २. दे० ‘मौर’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बउरा  : वि०=बावला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बउराना  : अ० स०=बौराना।
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बंक  : वि० [सं० वक्र, वंक] १. टेढ़ा। तिरछा। २. जिसमें पुरुषार्थ और विक्रम हो। ३. दुर्गम। ४. विकट। पुं० दे० ‘बाँकरा’। पुं० अस्थि। हड्डी। उदाहरण—मचक्कहिं रीढंक बंक अमाप।—कविराज सूर्यमल। पुं० [अं० बैक] वह महाजनी संस्था जो मुख्य रूप से सूद पर रुपयों के लेन-देन का काम करती हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बक  : पुं० [सं०√बंक् (टेढ़ा होना) अच्, पृषो० सिद्धि] १. बगला। २. एक प्राचीन ऋषि। ३. अगत्स्य नामक वृक्ष और उसका फूल। ४. कुबेर। ५. एक राक्षस जिसे भीम ने मारा था। ६. एक राक्षस जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था। वि० बगुले की तरह सफेद। स्त्री० [हिं० बकना] १. बकने की क्रिया या भाव। २. बकवाद। क्रि० प्र०—लगाना। पद—बक-बक या बक-झक-(क) बकवाद। प्रलाप। व्यर्थवाद। (ख) कहा-सुनी। ३. मुँह से निकलनेवाली बात। वचन।
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बक-चक  : स्त्री० [अनु०] मध्य युग का एक प्रकार का हथियार।
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बक-चिंचिका  : स्त्री० [सं०] कौआ नाम की मछली।
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बक-ध्यान  : पुं० [सं० ष० त०] कोई दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करने के लिए उसी प्रकार भोले-भाले या सीधे-सादे बनकर विचार करते रहना जिस प्रकार जिस प्रकार बगुला जलाशयों में से मछलियाँ खाने के लिए चुपचाप खड़ा रहता है। बनावटी साधु-भाव। क्रि० प्र०—लगाना।
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बक-ध्यानी (निन्)  : वि० [हिं० बकध्यान+इनि] बक-ध्यान लगानेवाला।
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बक-निषुदन  : पुं० [सं० ष० त०] १. भीम। २. श्रीकृष्ण।
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बक-पंचक  : पुं० [सं० ब० स०+कप्] कार्तिक महीने में शुक्लपक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक के पाँच दिन जिनमें मांस मछली आदि खाना बिलकुल मना है।
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बक-यंत्र  : पुं० [सं० उपमि० स०] वैद्यक में औषधों का सार निकालने के लिए एक प्रकार का यंत्र जो कांच की शीशी के आकार का होता है।
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बक-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] बकों या बगुलों (पक्षियों) की सी वह वृत्ति जिसमें वह ऊपर से देखने पर तो बहुत भोला-भाला या सीधा-सादा बना रहता है पर अन्दर ही अन्दर अनेक प्रकार के छल-कपट की बातें सोचता रहता है। वि० [ष० त०] (व्यक्ति) जिसकी मनोवृत्ति उस प्रकार की हो बक-ध्यानी।
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बकचंदन  : पुं० [देश] एक वृक्ष का नाम जिसकी पत्तियाँ गोल तथा बड़ी होती है। भकचंदन।
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बकचन  : पुं०=बक-चंदन। स्त्री०=बकुचन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकचर  : वि० [सं० बक√चर् (गति)+ट] ढोंगी।
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बकचा  : पुं०=बकुचा।
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बकची  : स्त्री०=बकुची।
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बकजित्  : पुं० [सं० बक√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्, उप० स०] १. भीम। २. श्रीकृष्ण।
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बकठाना  : अ० [सं० विकुंठन] बहुत कसैली चीज खाने से जीभ का कुछ ऐंठना या सिकुड़ना।
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बकतर  : पुं० [फा० बक्तर] [स्त्री० अल्पा० बकतरी] मध्य-युग में युद्ध के समय पहना जाना वाला एक तरह का अँगरखा जिसमें आगे और पीछे दो दो तबे लगे रहते थे। चार-आईना। सन्नाह। (जिरह से भिन्न)।
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बकतर-पोश  : पुं० [फा० बक्तर+पोश] वह योद्धा जो बकतर पहने हो।
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बकता  : पुं०=बक्ता। पुं०=बखता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकतार  : पुं०=वक्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकतिया  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की छोटी मछली।
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बकना  : स० [सं० वचन] १. उटपटाँग या व्यर्थ की बहुत सी बातें कहना। व्यर्थ बहुत बोलना। पद—बकना-झकना=क्रोध में आकर बिगड़ते हुए बहुत-सी खरी खोटी बातें कहना। २. निरर्थक बातों या शब्दों का उच्चारण करना। प्रलाप करना। बड़बड़ाना। ३. विवश होकर अपने अपराध या दोष के संबंध की सब बातें बताना।
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बंकनाल  : स्त्री० [हिं० बंक+नाल] १. सुनारों की एक नली जो बहुत बारीक टुकड़ों की जोड़ाई करने के समय चिराग की लौ फूँकने के काम आती है। बगनहा। २. कोई टेढ़ी पतली नली। ३. हठयोग में शंखिनी नाड़ी का एक नाम।
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बकम  : पुं०=वक्कम।
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बकमौन  : पुं० [सं० ष० त०] अपने दुष्ट उद्देश्य की सिद्धि के निर्मित बगुले की भाँति मौन तथा शांत बनकर चुपचाप रहने की क्रिया, भाव या मुद्रा। वि० जो उक्त उद्देश्य तथा प्रकार से बिलकुल चुप या मौन हो।
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बंकर  : वि० [सं० बंक] १. वंक। टेढ़ा। २. तीव्र। ३. विकट। पुं० [सं० व्यंकट] हनुमान।
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बकर  : पुं० [अ० बकर] गाय का बैल।
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बकर-ईद  : स्त्री०=बकरीद।
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बकर-कसाव  : पुं० [हिं० बकरी+अ० कस्साव-कसाई] [स्त्री० बकर-कसायिन] बकरों का मांस बेचनेवाला पुरुष। कसाई।
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बकरना  : स० [हिं० बकार अथवा बकना] १. आप से आप बकना। बड़बड़ाना। २. अपने अपराध या दोष की बातें विवश होकर कहना।
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बकरम  : पुं० [अ० बकरम्] गोंद आदि लगाकर कड़ा किया हुआ वह करारा कपडा जो पहनने के कपड़ों के कालर, आस्तीन आदि में कडा़ई लाने के लिए अन्दर लगाया जाता है।
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बकरवाना  : स० [हिं० बकरना का प्रे०] किसी को बकरने में प्रवृत्त करना।
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बकरा  : पुं० [सं० बर्कार] [स्त्री० बकरी] एक प्रसिद्ध नर-पशु जिसके सींग तिकोने, गठीले और ऐंठनदार तथा पीठ की और झुके हुए होते हैं। पूँछ छोटी होती है और शरीर से एक प्रकार की गंध आती है। अज। छाग।
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बंकराज  : पुं० [हिं० बंक+राज] एक प्रकार का साँप।
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बकराना  : स०=बकरवाना।
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बकराना  : स० [हिं० बकुरना का प्रे० रूप] अपराध या दोष कबूल कराना या मुँह से कहलाना।
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बकल  : पुं०=बकला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकलस  : पुं०=बकसुआ।
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बकला  : पुं० [सं० वल्कल] [स्त्री० अल्पा० बकली] १. पेड़ की छाल। २. फल के ऊपर का छिलका।
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बकली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का बड़ा और सुन्दर वृक्ष जिसे धावा घव आदि भी कहते हैं।
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बकवती  : स्त्री० [सं० वक+मतुप, ङीष्+वकलती] एक प्राचीन नदी।
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बंकवा  : पुं० [सं० बंक] एक तरह का बढ़िया अगहनिया धान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकवाद  : स्त्री० [हिं० बक+वाद] लम्बी-चौड़ी बेसिर-पैर की तथा बिना मतलब की कही जानेवाली बातें। क्रि० प्र०—करना।
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बकवादी  : वि० [हिं० बकवाद+ई (प्रत्यय)] १. (व्यक्ति) जो बकवाद करता हो। २. बहुत अधिक बातें करनेवाला। जो प्रकृतिश प्रायः बातें करता रहता हो। ३. बकवाद संबंधी या बकवादी के रूप में होनेवाला।
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बकवाना  : स० [हिं० बकना का प्रे०] १. किसी को बकने या बकवाद करने में प्रवृत्त करना। २. किसी से कोई बात कहलवा लेना। कहनें में विवश करना।
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बकवास  : स्त्री० [हिं० बकना+वास (प्रत्यय)] १. बकवाद। २. बकवाद या बक-बक करने की प्रवृत्ति या शौक। क्रि० प्र०—लगना।
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बकवासी  : वि०=बकवादी।
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बकव्रती (तिन्)  : वि० [सं० बक-व्रत, ष० त०+इनि] बक वृत्तिवाला। कपटी।
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बकस  : पुं० [अं० बाक्स] १. लकड़ी लोहे आदि का बना हुआ एक तरह का ढक्कनदार चौकोर आधान जिसमें वस्त्र आदि सुरक्षा की दृष्टि से रखे जाते हैं। संदूक। २. गहने, घड़ियाँ आदि रखने का खाना।
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बकसना  : स० [फा० बख्श+हिं० ना (प्रत्यय)] १. उदरतापूर्वक किसी को कुछ दान देना। २. अपराधी या दोषी को दण्डित न करके उसे क्षमा करना। माफ करना। ३. दयापूर्वक छोड़ देना या जाने देना।
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बकसवाना  : स०=बखशवाना।
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बकसा  : पुं० [देश] जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक तरह की घास। पुं०=बकस (संदूक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकसाना  : स० [हिं० बकसना का प्रे० रूप] क्षमा या माफ कराना। बखशवाना।
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बंकसाल  : पुं० [देश] जहाज का वह बड़ा कमरा जिसमें मस्तूलों पर चढ़ायी जानेवाली रस्सियाँ या जंजीरें ठीक करके रखी जाती है।
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बकसी  : पुं०=बख्शी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकसीला  : वि० [हिं० बकठाना] [स्त्री० बकसीली] जिसके खाने से मुँह का स्वाद बिगड़ जाय और जीभ ऐंटने लगे। बकबका।
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बकसीस  : स्त्री० [फा० बख्शिश] १. दान। २. इनाम। पुरस्कार। ३. शुभ अवसरों पर गरीबों तथा सेवकों को दिया जानेवाला दान।
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बकसुआ  : पुं० [अं० बकल] पीतल, लोहे आदि का एक तरह का चौकोर छल्ला जिससे तस्मे फीते आदि बाँधे जाते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंका  : वि० [सं० वंक] [भाव० बंकाई] १. टेढ़ा। तिरछा। २. दुर्गम। ३. विकट। ४. पराक्रमी। ५. बाँका।
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बका  : स्त्री० [अ० बका] १. नित्यता। २. अनश्वरता। ३. अस्तित्व में बने रहना। ४. जीवन।
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बकाइन  : पुं०=बकायन (वृक्ष)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंकाई  : स्त्री० [हिं० बंक+आई (प्रत्यय)] टेढ़ापन। तिरछापन। वक्रता।
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बकाउ  : स्त्री०=बकावली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकाउर  : स्त्री०=बकावली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकाना  : स० [हिं० बकना का प्रे० रूप०] १. किसी को बकने में प्रवृत्त करना। २. किसी को दबाकर उसके मन की छिपी हुई बात कहलाना।
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बकायन  : पुं० [हिं० बड़का+नीम ?] नीम की जाति का एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ नीम की पत्तियों के समान तथा कुछ बड़ी और दुर्गन्धयुक्त होती है। महानिंब।
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बकाया  : वि० [अ० बक़ायः] बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। शेष। पुं० १. वह धन जो किसी की ओर निकल रहा हो। ऐसा धन जिसका भुगतान अभी होने को हो। २. बचा हुआ धन। बचत। ३. किसी काम या बात का वह अंश जिसका अभी संपादन होना शेष हो।
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बकारि  : पुं० [सं० बक-अरि, ष० त०] बकासुर के शत्रु अर्थात् श्रीकृष्ण।
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बकारी  : स्त्री० [सं० वकार या वाक्य] वह शब्द जो मुँह से प्रस्फुटित् हो। मुँह से निकलनेवाला शब्द। क्रि० प्र०—निकलना।—फूटना। स्त्री०=बिकारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकावर  : स्त्री०=बकावली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकावली  : स्त्री० [सं० बक-आवली, ष० त०] १. बगुलों की पंक्ति। बक-समूह। २. दे० ‘गुल-बकावली’ (पौधा और फूल)।
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बकासुर  : पुं० [सं० बक-असुर, मध्य० स०] एक दैत्य जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था।
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बकिनव  : पुं०=बकायन (वृक्ष)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकिया  : वि० [अ० बकियः] बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट।
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बंकी  : स्त्री०=बाँक।
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बकी  : स्त्री० [सं० बक+ङीष्] बकासुर की बहिन पूतना नामक राक्षसी।
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बकुचन  : स्त्री०=बकुचन।
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बकुचन  : स्त्री० [?] १. हाथ जोड़ना। २. मुटठी या पंजे में पकड़ना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बकुचना  : अ० [सं० बिकुचन] सिमटना। सिकुड़ना। संकुचित होना।
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बकुचा  : पुं० [हिं० बकुचना] [स्त्री० बकुची] १. छोटी गठरी। बकचा। २. ढेर। ३. गुच्छा। ४. जुड़ा हुआ हाथ।
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बकुचाना  : स० [हिं० वकुचा] किसी वस्तु को बकुचे में बाँधकर कंधे पर लटकाया या पीछे पीठ पर बाँधना।
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बकुची  : स्त्री० [सं० वाकुची] एक प्रकार का पौधा जो हाथ-सवा हाथ ऊँचा होता है। इसके कई अंग ओषधि के काम आते हैं। स्त्री० हिं० बकुचा (गठरी) का स्त्री० अल्पा०। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकुचौहाँ  : अव्य० [हिं० बकुचा+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बकुचौही] बकुचे की भाँति। बकुचे के समान। वि० जो बकुचे या गठरी के रूप में हो।
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बंकुर  : वि० [भाव० बंकुरता]=बंक (वक्र)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकुर  : पुं० [सं० भास्कर या भयंकर पृषो सिद्धि] १. भास्कर। सूर्य। २. बिजली। विद्युत। ३. तुरही। पुं०=बक्कुर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकुरना  : अ ०=बकरना।
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बंकुरा  : वि०=बंक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकुल  : पुं० [सं०√बंक्+उरच्, र—ल] १. मौलसिरी। २. शिव। ३. एक प्राचीन देश। वि० [स्त्री० बकुली]=वक्र (टेढ़ा)।
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बकुलटर  : पुं० [हि० बकुला+टरर अनु०] पानी के किनारे रहनेवाली एक प्रकार की चिड़िया जिसका रंग सफेद होता है और जो दो-तीन हाथ ऊँची होती है।
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बकुला  : पुं०=बगुला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकुली  : स्त्री० हिं० बक (बगला) की मादा। उदा०—बकुली तेहि जल हंस कहावा।—जायसी।
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बकूल  : पुं०=वकुल।
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बकेन  : स्त्री० [सं० वष्कयणी] ऐसी गाय या भैंस, जिसे ब्याये ५-६ महीने के ऊपर हो चुका हो, और जो बराबर दूध देती हो। दे० ‘लवाई’ का विपर्याय।
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बकेना  : स्त्री०=बकेन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकेरुका  : स्त्री० [सं० बंक (टेढ़ा)+ड+एरुक्+कन्+टाप्] १. छोटी बकी। २. हवा से झुकी हुई वृक्ष की शाखा।
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बकेल  : स्त्री० [हिं० बकला] पलाश की जड़ जिसे कूटकर रस्सी बनाते हैं।
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बँकैअन  : अव्य० , पुं०=बकैयाँ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बकैयाँ  : स्त्री० [सं० बक+ऐयाँ (प्रत्यय)] छोटे बच्चों का घुटनों के बल चलने की क्रिया।
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बकोट  : स्त्री० [सं० प्रकोष्ठ या अभिकोष्ठ, पा० पक्कोष्ठ] १. बकोटने की क्रिया या भाव। २. बकोटने के फल-स्वरूप पड़ा हुआ चिन्ह। ३. बकोटने के लिए बनायी हुई उँगलियों और हथेली की मुद्रा। ४. किसी पदार्थ की उतनी मात्रा जितनी उक्त मुद्रा में समाती हो। चंगुल। जैसे—एक बकोट चना इसे दे दो।
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बकोटना  : स० [वि० बकोट+ना (प्रत्यय)] १. नाखूनों से कोई चीज विशेषतः शरीर की त्वचा या मांस नोचना। २. लाक्षणिक रूप में कोई चीज किसी से बलपूर्वक लेना या वसूल करना। उदाहरण—ये चंदा बकोटनेवाले फिर जेल से बाहर आ गये।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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बकोटा  : पुं० [हिं० बकोटना] १. बकोटने की क्रिया या भाव। २. बकोटने से पड़नेवाला चिन्ह या निशान। ३. उतनी मात्रा जितनी चंगुल या मुट्ठी में आ जाय।
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बकोरी  : स्त्री०=गुलबकावली।
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बकौंड़ा  : पुं० [हिं० बक्कल] पलाश के पेड़ की जड़ों का कूटा हुआ वह रूप जिसे बटकर रस्सी बनायी जाती है। पुं०=बकौरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकौरा  : पुं० [हिं० बाँका] [स्त्री० अल्पा० बकौरी] वह टेढ़ी लकड़ी जो बैलगाड़ी के दोनों ओर पहिए के ऊपर लगायी जाती है। पैंगनी। पैजनी। पुं०=बकौड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकौरी  : स्त्री०=गुल-बकावली। उदाहरण—कोइ बोल सिरि पुहुप बकौरी।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बकौल  : अव्य० [अ० बकौल] (किसी के) कथनानुसार । जैसे—बक़ौले शख्से=किसी व्यक्ति के कथनानुसार।
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बक्कम  : पुं० [अ० वकम] एक प्रकार का वृक्ष जो मद्रास, मध्यप्रदेश, तथा वर्मा में अधिक होता है। यह आकार में छोटा और कँटीला होता है। पतंग।
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बक्कल  : पुं० [सं० वल्कल, पा० वक्कल] १. छिलका। २. छाल।
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बक्का  : पुं० [देश] [स्त्री० अल्पा० बक्की] धान की फसल में लगनेवाले एक तरह के सफेद या खाकी रंग के छोटे-छोटे कीड़े।
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बक्काल  : पुं० [अ० बक्काल] १. सब्जी बेचनेवाला व्यक्ति। कुंजड़ा। २. बनिया। वणिक। ३. परचूनिया।
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बक्की  : वि० [हिं० बकना] बकवाद करनेवाला। बकवादी। स्त्री० [देश] भादों में पककर तैयार होनेवाला एक तरह का धान।
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बक्कुर  : पुं० [सं० वाक्य] मुँह से निकला हुआ शब्द। बोल। वचन। क्रि० प्र०—निकलना।—फूटना। पुं०=बक्कर।
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बक्खर  : पुं० [देश०] १. कई प्रकार के पौधों की पत्तियों और जड़ों आदि को कूटकर तैयार किया हुआ वह खमीर जो दूसरे पदार्थों मं खमीर उठाने के लिए डाला जाता है। २. वह स्थान जहाँ पर गाय-बैल बाँधे जाते हैं। पुं०=बखार (तृण)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बक्षोज  : पुं० वक्षोज (स्तन)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बक्स  : पुं०=बकस।
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बखत  : पुं० १.=वक्त (समय) २.=बख्त (भाग्य)।
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बखतर  : पुं०=बकतर।
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बखता  : पुं० [?] भुना हुआ चना जिसका ऊपरी छिलका उतारा जा चुका हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बखर  : पुं० [?] खेत जोतने के उपकरण। पुं०=बखार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बखरा  : पुं० [फा० बखरः] १. भाग। हिस्सा। २. किसी चीज या चीजों का कई अंशों में होनेवला वह विभाजन जो अलग-अलग हिस्सेदार को मिलता है। पुं०=बखार।
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बखरी  : स्त्री० [हिं० बखार का स्त्री० अल्पा०] गाँव में वह मकान जो साधारण घरों की अपेक्षा बड़ा या बढ़िया हो।
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बखरैत  : वि० [हिं० बखरा+ऐत(प्रत्यय)] बखरा या हिस्सा बँटानेवाला। हिस्सेदार। साझीदार।
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बखसना  : अ०=बख्शना (क्षमा करना)।
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बखसीस  : स्त्री०=बक्सीस।
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बखसीसना  : स० [फा० बख्शिश] बखशिश के रूप में देना। प्रदान करना।
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बखान  : पुं० [सं० व्याख्यान, पा० पक्खान] १. बखानने की क्रिया या भाव। २. बखान कर कहीं जानेवाली बात। ३. विस्तारपूर्वक किया जानेवाला वर्णन। ४. तारीफ। प्रशंसा।
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बखानना  : स० [हिं० बखान+ना (प्रत्यय)] १. विस्तारपूर्वक कहना या वर्णन करना। २. तारीफ या प्रशंसा करना। ३. विस्तारपूर्वक तथा गालियाँ देते हुए किसी के दुर्गुणों दोषों आदि का उल्लेख करना। ४. गालियाँ देते हुए किसी का उल्लेख करना। जैसे—किसी का बाप-दादा बखारना।
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बखार  : पुं० [सं० आकार] [स्त्री० अल्पा० बखारी] १. दीवार, या टट्टी आदि से घेरकर बनाया हुआ गोल और विस्तृत घेरा जिसमें गाँवों में अन्न रखा जाता है। २. वह स्थान जहाँ किसी चीज की प्रचुरता हो।
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बखारी  : स्त्री० [हिं० बखार] छोटा बखार।
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बखिया  : पुं० [फा० बखियः] १. एक प्रकार की महीन और मजबूत सिलाई, जिसमें दोहरे टाँके लगाये जाते हैं। क्रि० प्र०—उघड़ना।—उधेड़ना।—करना। मुहावरा—बखिया उधेड़ना=भेद खोलना। भंडा फोड़ना। २. जमा। पूँजी। ३. योग्यता। ४. शक्ति। सामर्थ्य। ५. गति। पहुँच।
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बखियाना  : स० [हिं० बखिया] बखिया (सिलाई) करना।
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बखीर  : स्त्री० [हिं० खीर का अनु०] गन्ने के रस में चावल पकाकर बनायी जानेवाली एक तरह की खीर।
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बखील  : वि० [अ० बखील] [भाव० बखीली] कृपण। कंजूस। सूम।
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बखीली  : स्त्री० [अ० बखीली] कंजूसी। कृपणता।
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बखूबी  : अव्य० [फा०] १. खूबी के साथ। भलीभाँति। अच्छी तरह से। २. पूरी तरह से या पूर्ण रूप से।
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बखेड़ा  : पुं० [हिं० बिखरना] १. किसी चीज के इस प्रकार विखरे हुए होने की स्थिति कि उसे इकट्ठा करने तथा सँवारने में अधिक परिश्रम तथा समय अपेक्षित हो। २. व्यर्थ का विस्तार। आडम्बर। ३. कोई उलझनवाला और बहुत अधिक काम जिसे सरलता से सुलझाया और सम्पन्न न किया जा सकता हो। ४. कोई सांसारिक क्रिया-कलाप। ५. झगड़ा। विवाद।
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बखेड़िया  : वि० [हिं० बखेड़ा+इया (प्रत्यय)] बखेड़ा करनेवाला। बखेड़ा अर्थात् विवाद करनेवाला। बहुत अधिक झगड़ालू।
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बखेरना  : स०=बिखेरना।
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बखेरी  : स्त्री० [देश०] छोटे कद का एक प्रकार का कँटीला वृक्ष जिसके फलों से चमड़ा रंगा तथा सिझाया जाता है। इसे कुंती भी कहते हैं।
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बखोरना  : स० [हिं० खोर=गली] सीधे रास्ते से छुड़ा या बहकाकर किसी और रास्ते पर ले जाना। बहकाकर इधर-उधर ले जाना। उदाहरण—साँकरि खोरि बखोरि हमें किन खोरि लगाय खिसैबौ करौं कोइ।—देव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बख्त  : पुं० [फा० बख्त] किस्मत। भाग्य। पद—बख्तो-जला=बहुत बड़ा अभागा। पुं०=वक्त (समय)।
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बख्तर  : पुं०=बकतर।
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बख्तावर  : वि० [फा० बख्तावर] [भाव० बख्तावरी] १. सौभाग्यशाली। २. धनी। सम्पन्न।
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बख्श  : वि० [फा० बख्श] १. समस्त पदों के अन्त में, देने या प्रदान करनेवाला। जैसे—जाँ-बख्श-जीवन देनेवाला। २. बक्शने अर्थात् क्षमा करनेवाला। जैसे—खता-बख्श=अपराध क्षमा करनेवाला। ३. नामों के अन्त में बख्शिश देन, प्रसाद। जैसे—करीम बख्श, मौला-बख्श।
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बख्शना  : स० [फा० बख्श] १. प्रदान करना। देना। २. क्षमा करना। ३. दयापूर्वक छोड़ देना या जाने देना।
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बख्शनामा  : पुं०=बख्शिशनामा।
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बख्शवाना  : स० [हिं० बख्शना का प्रे० रूप०] किसी को कोई चीज बखसीस रूप में देने अथवा किसी अपराधी को क्षमा करने में प्रवृत्त करना।
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बख्शाना  : स०=बख्शवाना।
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बख्शिश  : स्त्री० [फा० बख्शिश] १. दानशीलता। २. दान। ३. इनाम। पुरस्कार। ४. क्षमा।
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बख्शिशनामा  : पुं० [फा० बख्शिशनामः] वह पत्र जिसके अनुसार कोई सम्पत्ति बख्शी या प्रदान की गयी हो। दान-पत्र।
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बख्शी  : पुं० [फा०] १. मध्य-युग में सैनिकों को तनख्वाह बाँटनेवाला एक कर्मचारी। २. खजांची। ३. गाँव, देहातों में कर वसूल करनेवाला अधिकारी।
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बख्शीश  : स्त्री०=बख्शिश।
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बंग  : पुं०=वंग।
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बग  : पुं०=बगुला। स्त्री० हिं० बाग (लगाम) का संक्षिप्त रूप। जैसे—बगछुट, बगमेल।
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बग-मेल  : पुं० [हिं० बाग+मेल] १. दूसरे घोड़े के साथ बाग मिलाकर चलना। एक पंक्ति में या बराबर-बराबर चलना। २. घुड़सवारों की पंक्ति या सतर। ३. यात्रा, युद्ध आदि में होनेवाला संग साथ। ४. बराबरी। समानता। क्रि० वि० १. घोड़ों के सवारों के संबंध में बाग मिलाये हुए और साथ-साथ। २. बराबर साथ रहते हुए।
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बंगई  : स्त्री० [सं० वंग] सिलहट की भूमि में होनेवाली एक तरह की कपास। स्त्री० [हिं० बंगा] १. उद्दंडता। २. झगड़ालूपन। ३. बदमाशी। लुच्चापन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगई  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की मक्खी जो कुत्तों पर बहुत बैठती हैं। कुकुरमाछी। २. पतली और लम्बी पत्तियोंवाली एक प्रकार की घास, जिससे डोरियाँ बटी जाती है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंगउर  : पुं०=बिनौना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगछुट  : वि० [हिं० बाग+छूटना] १. (घोड़ा) जिसकी बाग या लगाम छोड़ दी गयी हो इसलिए जो बहुत तेजी से दौड़ा जा रहा हो। अव्य० इस रूप में दौड़ना या भागना कि मानो कोई नियंत्रण न रह गया हो। बे-हताशा। सरपट।
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बगज-चट्टी  : स्त्री० [हिं० मगज+चाटना] बकवाद। बकबक।
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बगटुट  : वि० अव्य०=बगछुट।
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बगड़  : पुं० [?] बाड़ा। घेरा। पुं०=बागड़। (राज० ) स्त्री०=बगल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगड़ा  : पुं० [?] गौरैया (चिड़िया) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंगड़ी  : स्त्री० [देश] १. लाख या काँच की बनी हुई चूड़ी या कंगन। २. आलू की फसल में होनेवाला एक तरह का रोग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगतर  : पुं०=बकतर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगदना  : अ० [सं० विकृत, हिं० बिगड़ना] १. बिगड़ना। खराब होना। २. रास्ता भूलकर कहीं से कहीं चले जाना। भटकना। ३. कर्त्तव्य सुमार्ग आदि से च्युत होना।
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बगदर  : पुं० [देश०] मच्छर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगदवाना  : स० [हिं० बगदाना का प्रे० रूप०] किसी को बगदने में प्रवृत्त करना।
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बगदहा  : वि० [हिं० बगदना+हा(प्रत्यय)] [स्त्री० बगदही] १. बिगडऩेवाला। २. (पशु) जो गुस्से में आकर जल्दी बिगड़ खड़ा होता हो। ३. लड़नेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगदाद  : पुं० [फा० बग़दाद] इराक नामक राज्य की राजधानी।
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बगदाना  : स० [हिं० बगदना] १. नष्ट या बरबाद करना। २. भ्रम में डालकर भटकाना। ३. गिराना। लुढ़काना। ३. कर्त्तव्य, प्रतिज्ञा आदि से च्युत कराना।
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बगना  : अ० [सं० वल्गन] १. घूमना-फिरना। गमन करना। जाना। ३. दौड़ना। ४. भागना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगनी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का टोंटीदार लोटा। स्त्री० बगई (घास)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगबगाना  : अ० [अनु०] ऊँट का काम-वासना से मत्त होना।
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बगर  : पुं० [सं० प्रघण, प्रा० पघम] १. महल। प्रासाद। २. घर। मकान। ३. कमरा। कोठरी। ४. आँगन। सहन। ५. गौए-भैसे आदि बाँधने का स्थान। स्त्री०=बगल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगरना  : अ० [सं० विकिरण] फैलना। बिखरना। छितराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगरवाना  : सं० [हिं० बगराना का प्रे० रूप०] किसी को कुछ बगराने अर्थात् बिखेरने में प्रवृत्त करना।
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बगरा  : पुं०=[देश] एक प्रकार की छोटी मछली जो जमीन पर उछलती हुई चलती है। इसे थुमा भी कहते हैं।
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बगराना  : स० [हिं० बगरना का स० रूप०] बिखेरना। छितराना। अ० बिखरना।
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बगरिया  : स्त्री० [देश] गुजरात, राज्य के कच्छ-काठियावाड़ आदि प्रदेशों में होनेवाली एक तरह की कपास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगरी  : पुं० [हिं० बगर का स्त्री० रूप०] १. छोटा महल। २. मकान। बखरी। ३. गौएँ, भैसें आदि बाँधने का छोटा बाड़ा। पुं० [देश] एक प्रकार का धान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगल  : स्त्री० [फा० बगल] १. बाहु-मूल के नीचे का गड्ढा। काँख। पद—बगल-गंध। (देखें)। मुहावरा—बगलें बजाना=बहुत प्रसन्नता प्रकट करना। खूब खुशी मनाना। विशेष—प्रायः लड़के बहुत प्रसन्न होने पर बगल में हथेली रखकर उसे जोर से बाँह से दबाते हैं जिससे विलक्षण शब्द होता है। उसी के आधार पर यह मुहावरा बना है। २. छाती के दोनों किनारों का वह भाग जो बाँह गिराने पर उसके नीचे पड़ता है। पार्श्व। पद—बगल-बंदी। (देखें)। मुहावरा—(किसी की) बगल गरम करना-सहवास या सम्भोग करना। बगल में दाबना या लेना-(क) कोई चीज उठाकर ले चलने के लिए उसे बगल में रखना तथा भुजा से अच्छी तरह दबाकर थामे रखना। जैसे—गठरी बगल में दबाकर चल पड़ना। (ख) अपने अधिकार में करना। उदाहरण—लै गै अनूप रूप सम्पत्ति बगल में दाबि उचिके अचान कुच कंचन पहार से।—देव। बगलें झाँकना-निरूतर या लज्जित होने पर यह समझने के लिए इधर-उधर देखना कि अब क्या करना या कहना चाहिए। ३. कपड़े का वह टुकड़ा जो अँगऱखे कुरते आदि की आस्तीन में बगल के नीचे पड़नेवाले अंश में लगाया जाता है। ४. वह जो किसी की दाहिनी या बायी ओर स्थित या प्रतिष्ठित हो। जैसे—(क) सभापति की बगल में अतिथि विराजमान थे। (ख) उनकी दुकान की बगल में पान की एक दुकान है। ५. समीप का स्थान। पास की जगह। पद—बगल में-(क) पास में। (ख) एकओर। जैसे—बगल में हो जाओ।
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बगल-गंध  : स्त्री० [हिं० बगल+गंध] १. बगल या काँख में होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा। कँखवार। कँखौरी। २. एक प्रकार का रोग जिसमें बगल में काँख में से बहुत बदबूदार पसीना निकलता है।
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बगलगीर  : वि० [अं० बगल+फा० गीर०] [भाव० बगलगीरी] १. जोबगल या पास में स्थित हो। जिसे बगल में सटाकर बैठाया गया हो। पार्श्ववर्ती। २. जो गले मिला हो अथवा जिसे गले से लगाया गया हो। आलिंगित। मुहावरा—बगलगीर होना-आलिंगन करना।
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बगलबंदी  : स्त्री० [हिं० बगल+बंद] एक प्रकार की मिरजई जिसमें बगल में बन्द बाँधे जाते हैं।
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बँगला  : वि० [हिं० बंगाल] १. बंगाल प्रदेश संबंधी। २. बंगाल में बनने या होनेवाला। जैसे—बंगला मिठाई। स्त्री० १. बंगाल देश की भाषा। २. उक्त भाषा की लिपि जो देवनागरी का ही एक स्थानिक रूप है। पुं० १. एक मंजिला हवादार तथा बरामदेवाला छोटा मकान जिसकी छत प्रायः खपरैल की होती है तथा जो खुले स्थान में बना हुआ होता है। २. कोई छोटा हवादार तथा बरामदेवाला मकान। ३. बोल-चाल में ऊपरवाली छत का बना हुआ हवादार कमरा।
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बगला  : पुं० [हिं० बक+ला (प्रत्यय)] [स्त्री० बगली] १. सारस की जाति का सफेद रंग का एक पक्षी जिसकी टाँगे, चोंच और गला लम्बा और पूँछ बहुत छोटी होती है। पद—बगला-भगत (देखें)। २. रहस्य सम्प्रदाय में, मन। पुं० [हिं० बगल] थाली की बाढ़। अँवठ। पुं० [देश] एक प्रकार का झाड़ीदार पौधा।
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बगला-भगत  : पुं० [हिं० ] वह जो देखने में बहुत धार्मिक तथा सीधा-सादा जान पड़ता हो, पर वास्तव में बहुत बड़ा कपटी या धूर्त हो।
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बगलामुखी  : स्त्री० [सं० ] तंत्र के अनुसार एक देवी। कहते हैं कि इसकी आराधना करने से शत्रु की वाणी कुंठित एवं शेष इंद्रियाँ स्तम्भित हो जाती हैं।
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बंगलिया  : पुं० [हिं० बंगाल] १. एक प्रकार का धान। २. एक प्रकार का मटर।
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बगलियाना  : अ० [हिं० बगल+इयाना (प्रत्यय)] बात-चीत या सामना न करते हुए बगल से होकर निकल जाना। कतारकर निकल जाना। स० १. बगल में करना या ले जाना। २. बगल में दबाना। ३. अलग करना या हटाना।
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बंगली  : स्त्री० [?] स्त्रियों का एक आभूषण जो हाथों में चूड़ियों के सथ पहना जाता है। पुं० [हिं० बंगाल] एक प्रकार का पान। पुं० [ ?] घोड़ा। (डिंगल)
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बगली  : वि० [हिं० बगल+ई (प्रत्यय)] १. बगल से संबंध रखनेवाला। बगल का। पद—बगली घूँसा (देखें)। २. एक ओर का। स्त्री० १. ऊँटों का एक दोष जिसमें चलते समय उनकी जाँघ की रगपेट में लगती है। २. मुग्दर चलाने का एक ढंग। ३. वह थैली जिसमें दरजी सूई-तागा आदि रखते हैं। तिलेदानी। ४. दरवाजे की बगल में लगायी जानेवाली सेंध। क्रि० प्र०—काटना।—मारना। ५. अँगरखे की आस्तीन में लगाया जानेवाला कपड़े का वह टुकड़ा जो बगल के नीचे पड़ता है। बगल। स्त्री० [हिं० बगला] १. मादा बगुला। २. बगुले की जाति की एक छोटी चिड़िया जो ढीठ होने के कारण मनुष्यों के इतने पास आ जाती है कि लोग इसे ‘अंधी बगली’ भी कहते हैं।
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बगली घूँसा  : पुं० [हिं०] १. वह घूँसा जो किसी की बगल में अथवा किसी की बगल छिपकर किया जाय। २. वह वार जो आड़ में रहकर अथवा छिपकर किया जाय। ३. वह वार जो साथी बनकर या साथी होने का ढोंग रचकर किया जाय। ४. वह व्यक्ति जो धोखे से उक्त प्रकार का वार करता हो।
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बगली टाँग  : स्त्री० [हिं० बगली+टाँग] कुश्ती का एक पेंच।
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बगली बाँह  : स्त्री० [हिं० बगली+बाँह] एक प्रकार की कसरत जिसमें दो आदमी बराबर खड़े होकर अपनी बाँह से एक-दूसरे की बाँह में धक्का देते हैं।
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बगलेंदी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की चिड़िया।
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बगलौहाँ  : वि० [हिं० बगल+औहाँ] [स्त्री० बगलौहीं] बगल की ओर झुका हुआ। तिरछा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगसना  : स०=बख्शना। उदाहरण—होइ कृपाल हस्तिनी संग बगसी रुचि सुन्दर।—चंदबरदाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंगसार  : पुं० [?] समुद्र में बनाया हुआ चबूतरा जिस पर से यात्री जलयान में चढ़ते हैं। बनसार।
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बंगा  : वि० [सं० बंक] [स्त्री० बंगी] १. टेढ़ा। २. झगड़ालू। ३. पाजी। लुच्चा। ४. अज्ञानी। मूर्ख। ५. उद्दंड।
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बगा  : पुं० [सं० वक्र] बगुला। पुं०=बागा। (पहनने का)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगाना  : स० [हिं० बगना] घुमाना-फिराना। सैर कराना। स० [सं० विकीरण] फैलाना। बिखेरना। उदाहरण—टूटि तार अंगार बगावै।—नंददास। स०=भागना। अ०=भागना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगार  : पुं० [देश] गौओं के बाँधने का स्थान गो-शाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगारना  : स० [सं० विकीरण, हिं० बगरना] १. फैलाना। २. छितराना। बिखेरना। स० -बगराना। उदाहरण—सब देसनि में निज प्रभात निज प्रकृति बगारति—रत्नाकर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंगारी  : पुं० [सं० वंग+अरि] हरताल। (डिं०)
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बंगाल  : पुं० [सं० वंग] १. भारत का एक पूर्वी प्रदेश जिसका आधा भाग पूर्वी बंगाल (पाकिस्तान) और आधा भाग पश्चिमी बंगाल (भारत) के नाम से प्रसिद्ध है। बंग प्रदेश। २. संगीत में एक प्रकार का राग जिसे कुछ लोग भैरव राग का और कुछ लोग मेघ राग का पुत्र मानते हैं।
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बंगालिका  : स्त्री० [?] एक रागिनी जिसे कुछ लोग मेघराग की पत्नी मानते हैं।
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बंगाली  : पुं० [हिं० बंगाल+ई (प्रत्यय)] बंगाल अर्थात् वंग-प्रदेश का निवासी। वि० १. बंगाल देश का। बंगाल संबंधी। स्त्री० १. बँगला भाषा। २. संगीत में सम्पूर्ण जाति की रागिनी जो ग्रीष्म ऋतु में प्रातःकाल गायी जाती है। ३. विशुद्ध अद्वैत का ज्ञान प्राप्त होने की अवस्था। (बौद्ध)
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बगावत  : स्त्री० [अ० बगावत] १. आज्ञा, आदेश आदि की की जानेवाली स्पष्ट अवज्ञा। २. विद्रोह। सैनिक विद्रोह अथवा युद्धात्मक भावना से युक्त विद्रोह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगितारा  : पुं० [सं० वक्तृ] १. जोर से की जानेवाली पुकार। २. बकबक। बकवाद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगिया  : स्त्री० [हिं० बाग+इया] छोटा बाग विशेषतः फूल वारी।
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बगीचा  : पुं० [फा० बागचः] [स्त्री० अल्पा० बगीची] १. छोटा बाग। २. फुलवारी।
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बगुरदा  : पुं० [?] पुरानी चाल का एक अस्त्र।
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बंगुरी  : स्त्री०=बँगली। (आभूषण)।
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बगुलपतोख  : पुं० [हिं० बगला+पतोख] एक प्रकार का जल-पक्षी।
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बगुला  : पुं० १.=बगला। २.=बगूला।
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बगुली  : स्त्री०=बगली। (चिड़िया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंगू  : पुं० [देश] १. वंग तथा दक्षिण भारत की नदियों में होनेवाली एक तरह की मछली। २. जंगी या भौरा नाम का खिलौना।
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बगूरा  : पुं०=बगूला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगूला  : पुं० [हिं० बाउ (वायु)+गोला] तेज हवा की वह अवस्था जिसमें वह घेरा बाँधकर चक्कर लगाती हुई तथा ऊपर उठती हुई आगे बढती है। चक्रवात। बवंडर।
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बगेड़ी  : स्त्री०=बगेरी (चिड़िया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगेदना  : स० [हिं० बगदना] १. धक्का देकर गिरा या हटा देना। २. विचलित करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बगेरी  : स्त्री० [देश] खाकी रंग की एक प्रकार की छोटी चिड़िया। बगौधा। भरुही।
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बगैचा  : पुं०=बगीचा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बगैर  : अव्य० [अ० बगैर] न होने की दशा मे। बिना। जैसे—आपके बगैर काम नहीं चलेगा।
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बंगोभा  : पुं० [देश] गंगा और सिंधु नदियों में होनेवाला एक तरह का कछुआ।
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बगौधा  : पुं० [देश] [स्त्री० बगौधी] बगेरी (चिड़िया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बग्गा-गोटी  : स्त्री० [?] लड़कों का एक प्रकार का खेल। उदाहरण—तीनों बग्गा गोटी खेला करेंगे।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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बग्गी  : स्त्री०=बग्घी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बग्घी  : स्त्री० [अं० बोगी] चार पहियों की पाटनदार गाड़ी जिसे एक या दो घोड़े खींचते हैं।
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बघ  : पुं० [हिं० बाघ] हिन्दी ‘बाघ’ का संक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के आरम्भ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—बघ-छाला, बख-नखा।
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बघ-छाला  : स्त्री० [हिं० बाघ+छाला] बाघ की खाल। बाघंबर।
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बघनखा  : पुं० [हिं० बाघ+नखा (नखोंवाला)] [स्त्री० अल्पा० बघनखी] १. बाघ के नख के आकार-प्रकार के प्राचीन अस्त्र। शेरपंजा। २. गले में पहनने का एक प्रकार का गहना जिसमें चाँदी या सोने के खंडों में बाघ के नाखून जड़े रहते हैं।
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बघनहाँ  : पुं०=बघनखा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बघनहियाँ  : स्त्री० दे० ‘बघनखा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बघना  : पुं०=बघनहाँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बघंबर  : पुं०=बाघंबर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बघबाव  : पुं० [हिं० बाघ+वायु] बाघ या शेर के शरीर की दुर्गंध। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बघरूरा  : पुं० [हिं० वायु+गंडूरा] बगूला। चक्रवात। बवंडर।
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बघवार  : पुं० [हिं० बाघ+बाल] बाघ की मूँछ का बाल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बघार  : पुं० [हिं० बघारना] १. बघारने की क्रिया या भाव। २. वह मसाला जो बघारते समय घी में डाला जाय। तड़का। छौक। क्रि० प्र०—देना। ३. बघारने से निकलनेवाली सोंधी गंध। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—निकलना। ४. पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए किसी विषय की की जानेवाली थोथी चर्चा। ५. शराब पीने के समय बीच-बीच में तम्बाकू, बीड़ी आदि पीने की क्रिया (व्यंग्य)।
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बघारना  : स० [सं० व्याधारण] १. कलछी या चिम्मच में घी को आग पर तपाकर और उसमें हींग, जीरा आदि सुगंधित मसाले छोड़कर उसे तरकारी, दाल आदि की बटलोई में उसका मुँह ढाँककर छोड़ना जिससे वह सुगंधित हो जाय़। तड़का देना या लगाना। छौंकना। २. अपनी योग्यता, शक्ति का बिना उपयुक्त अवसर के ही आवश्यकता से अधिक या निरर्थक प्रदर्शन करना। जैसे—अँगरेजी या संस्कृत बघारना। ३. डींग या शेखी के संबंध में आतंक जमाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर चर्चा करना। जैसे—शेखी बघारना।
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बघूरा  : पुं०=बगूला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बघेरा  : पुं० [हिं० बाघ] लकड़बग्घा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बघेलखंड  : पुं० [हिं० बघेल (जाति)+खंड] [वि० बखेलखंडी] आधुनिक मध्यप्रदेश के अन्तर्गत नागौद, रीवाँ मैहर आदि भूभागों की सामूहिक संज्ञा।
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बघेलखंडी  : वि० [हिं० बघेलखंड] बघेलखंड का। बघेलखंड संबंधी। पुं० बघेलखंड की बोली। बघेली। (देखें)।
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बघेली  : स्त्री० [हिं० बघेलखंड] बघेलखंड की बोली जो पूर्वी हिन्दी के अन्तर्गत मानी गयी है और अवधी से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। स्त्री० [हिं० बा+एली (प्रत्यय)] बरतन खरादनेवालों का वह खूँटा जिसका ऊपरी सिरा आगे की ओर कुछ बढ़ा होता है।
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बघैरा  : पुं०=बगेरी (चिड़िया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बच  : स्त्री० [सं० बच] पर्वतीय प्रदेश के जलाशयों के तट पर होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिसके अंगों का उपयोग ओषधि में होता है। पुं० [सं० वचः] वचन। बात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंचक  : वि० [भाव० बंचकता]=वंचक ठग।
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बंचकताई  : स्त्री०=बंचकता।
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बचका  : पुं०=बजका (पकवान)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बचकाना  : वि० [हिं० बच्चा-काना (प्रत्य)०] [स्त्री० अल्पा० बचकानी] १. बच्चों के पहनने या काम में आनेवाला। जैसे—बचकानी टोपी। २. बच्चों की तरह छोटे आकार-प्रकार का। जैसे—बचकाना पेड़। ३. बच्चों के स्वभाव का। जैसे—बचकानी बुद्धि।
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बचत  : स्त्री० [हिं० बचना] १. बचे हुए होने की अवस्था या भाव। जैसे—इस तरह करने से काम में समय की बहुत बचत होती है। २. व्यय आदि के बाद बच रहनेवाली धन-राशि। ३. लागत, व्यय आदि निकालने के बाद क्या बचा हुआ धन। मुनाफा। लाभ (सेविंग) ४. लाक्षणिक अर्थ में किसी प्रकार से होनेवाला छुटकारा या बचाव। जैसे—झूठ बोलने से तुम्हारी बचत नहीं हो सकेगी।
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बचता  : पुं० [हिं० बचना] [स्त्री० बचती] देन चुकाने उपयोग व्यय आदि करने के उपरान्त बचा हुआ धन।
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बंचन  : पुं०=वंचन।
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बचन  : पुं० [सं० वचन] १. मुँह से कही हुई बात। वचन। २. वाणी। ३. दृढ़ता, प्रतिज्ञा, शपथ आदि के रूप में कहीं हुई ऐसी बात जिसमें कभी अन्तर न पड़े। प्रतिज्ञा। जैसे—हम तो अपने वचन से बँधे हैं। क्रि० प्र०—छोड़ना। तोड़ना। देना। निभाना। पालना। लेना। मुहावरा—बचन देना-दृढ़ प्रतिज्ञापूर्वक यह कहना कि हम तुम्हारा अमुक काम अवश्य कर देगें। (किसी से) बचत बँधाना-दृढ़ प्रतिज्ञा कराना। उदाहरण—नन्द जसोदा बचन बँधायो ता कारण देही धरि आयो।—सूर। बचन माँगना=किसी से यह प्रार्थना करना कि आपने जो वचन दिया था उसका पालन करें। बचन हारना-प्रतिज्ञापूर्वक किसी से कही हुई बात या किसी को दिये हुए वचन का पालन कनरे के लिए विवश होना। ४. किसी से निवेदन या प्रार्थनापूर्वक कही जानेवाली बात। मुहावरा—(किसी के आगे) बचन डालना-किसी काम या बात के लिए प्रार्थना या याचना करना।
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बचन-विदग्धा  : स्त्री०=वचन-विदग्धा।
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बंचना  : स० [सं० वंचन] ठगना। छलना। अ० ठगा जाना। स्त्री०=वंचना। स० [सं० वाचन] पढ़ना। बाँधना।
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बचना  : अ० [सं० वचन-न पाना] १. उपयोग, कार्य, व्यय आदि हो चुकने के बाद भी कुछ अंश पास या शेष रह जाना। अवशिष्ट होना। जैसे—(क) दस रुपयों में से तीन रूपये बचे हैं। (ख) दो कुरते बन जाने पर भी गज भर कपड़ा बचेगा। २. बंधन विपद, संकट आदि से किसी प्रकार अलग या दूर या सुरक्षिक रहना। जैसे—वह गिरने से बाल-बाल बच गया। ३. किसी कार्य में संलग्न न होना अथवा दूसरों द्वारा किये जानेवाले कार्यों के परिणाम, प्रतिक्रिया प्रभाव आदि से अछूता रहना। जैसे—(क) किसी के आक्षेप से बचना। (ख) झूठ बोलने से बचना। ४. किसी का सामना करने या किसी के सम्पर्क में आने से घबराना या संकोच करना और सहसा उसका सामना न करना या उसके सम्पर्क में न आना। जैसे—वह तगादा करनेवालों से बचता फिरता है। ५. किसी गिनती, वर्ग, समाज आदि के अन्तर्गत न आना या न होना। छूट या रह जाना। जैसे—इनके व्यंग्य वाणों से कोई बचा नहीं हैं। स० [सं० वचन] कथन करना। कहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बचपन  : पुं० [हिं० बच्चा+पन (प्रत्यय)] १. बच्चा (अल्पवयस्क) होने की अवस्था या भाव। २. बाल्यावस्था। लड़कपन। ३. बालकों की तरह किया जानेवाला सयानों द्वारा कोई कार्य। बचपना।
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बचपना  : पुं० [हिं० बचपन] १. बचपन। २. सयाने व्यक्तियों द्वारा किया जानेवाला कोई ऐसा असोभनीय कार्य जो उनकी बुद्धि की अपरिपक्वता का सूचक होता है।
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बंचर  : पुं०=वनचर।
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बचवा  : पुं० [हिं० बच्चा] १. बालक। बच्चा। २. हाथ में पहनने की अँगूठी में लगे हुए छोटे घुँघरू। उदाहरण—उँगली तेरी छल्ला सोभे, बचवे की बहार। (झूमर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंचवाना  : हिं० [हिं० बाँचना का प्रे०] बाँचने (पढ़ने) का काम दूसरे से कराना। पढ़वाना।
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बचवैया  : वि० [हिं० बचाना+वैया (प्रत्यय)] बचानेवाला। रक्षक।
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बचा  : पुं० [सं० वत्स, पा० बच्छ, हिं० वच्चा] [स्त्री० बच्ची] १. लड़का। बालक। २. एक प्रकार का तुच्छतासूचक सम्बोधन। जैसे—अच्छा बचा, तुमसे भी किसी दिन समझ लूँगा।
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बचाना  : स० [हिं० बचना का स०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कुछ या कोई बचे। २. उपयोग, व्यय आदि के उपरांत भी कुछ अवशिष्ट रखना। जैसे—वह दो चार रुपए, रोज बचा लेता है। ३. किसी प्रकार केकष्ट, बंधन संकट आदि से किसी प्रकार अलग करके मुक्त या सुरक्षित करना। जैसे—जुरमाने, रोग या सजा से बचाना। ४. दुष्कर्म, दूषित प्रभाव आदि से अलग और सुरक्षित रखना। जैसे—किसी को कुमार्ग में पड़ने से बचाना। ५. आघात, आक्रमण आदि से सुरक्षा करना। ६. सामना न होने देना या सम्पर्क में न आने देना। जैसे—(क) किसी से आँख बचाना। (ख) किसी का सामना बचाना।
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बचाव  : पुं० [हिं० बचना] १. कष्ट, संकट आदि में बचे हुए होने की अवस्था या भाव। जैसे—इस पेड़ के नीचे धूप (या वर्षा) से बचाव किया जानेवाला उपाय या प्रयत्न। २. कष्ट, संकट आदि से बचने के लिए किया जानेवाला उपाय या प्रत्यत्न। ३. बचत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंचित  : वि०=वंचित।
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बचिया  : स्त्री० [हिं० बच्चा-छोटा] कसीदे के काम में छोटी-छोटी बूटियाँ।
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बचुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली। पुं०=बच्चा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बचून  : पुं० [हिं० बच्चा] भालू का बच्चा। (कलंदर)
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बचो  : पुं० [देश०] एक तरह की लता।
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बच्चा  : पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ, फा० बच्चः] [स्त्री० बच्ची] १. किसी प्राणी का नवजात शिशु। जैसे—कुत्ते या बिल्ली का बच्चा, आदमी का बच्चा। २. मनुष्य जाति का कम अवस्थावाला प्राणी। बालक। पद—बच्चे-कच्चे=छोटे-छोटे। बाल बच्चे। मुहावरा—बच्चा देना=गर्भ से संतान उत्पन्न करना। प्रसव करना। पद—बच्चों का खेल-बहुत ही तुच्छ, सहज या साधारण काम। वि० १. कम उमरवाला। २. नादान। ३. अनुभवहीन।
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बच्चाकश  : वि० [फा०] बहुत बच्चे जननेवाली (स्त्री)। (विनोद) बच्चाकश
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बच्ची  : स्त्री० [हिं० बच्चा का स्त्री० रूप] १. छोटी लड़की। २. छोटी घोड़िया जो छत या छाजन में बड़ी घोड़िया के नीचे लगायी जाती है। ३. वे बाल जो होंठ के नीचे बीच में जमते हैं ४. दे० ‘बचिया’।
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बच्चेदानी  : स्त्री०=बच्चादान (गर्भाशय)।
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बच्छ  : पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ] १. बच्चा। २. बेटा। ३. बछड़ा।
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बच्छनाग  : पुं०=बछनाग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बच्छल  : वि०=वत्सल।
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बच्छस  : पुं० [सं० वक्षस्] वक्षःस्थल। छाती।
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बच्छा  : पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ] [स्त्री० बछिया] १. गाय का बच्चा। बछवा। बछड़ा। २. किसी पशु का बच्चा। (क्व०)
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बछ  : पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ] गाय का बच्चा। बछड़ा। स्त्री०=बच (ओषधि)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछड़ा  : पुं० [हिं० बच्छ+ड़ा (प्रत्यय)] [स्त्री० बछड़ी, बछिया] गाय का बच्चा।
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बंछना  : स० [सं० वांछा] वांछा अर्थात् इच्छा करना। चाहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछनाग  : पुं० [सं० वत्सनाग] एक स्थावर विष। (एकोनाइट)
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बंछनीय  : वि०=वांछनीय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछरा  : पुं०=बछड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछरू  : पुं०=बछड़ा (गाय का बच्चा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछल  : वि०=वत्सल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछवा  : पुं० [हिं० बच्छ] [स्त्री० बछिया] गाय का बच्चा। बछड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछा  : पुं०=बच्छा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंछित  : वि०=वांछित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछिया  : स्त्री० [हिं० बछा] गाय का मादा बच्चा। पद—बछिया का ताऊ या बाबा=(बैल की तरह) निर्बुद्धि या मूर्ख)
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बछेड़ा  : पुं० [सं० वत्स, प्रा० वबच्छ, पुं० हिं० बच्छ] [स्त्री० बछेड़ी] घोड़े का बच्चा।
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बछेरा  : पुं०=बछेड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछेरू  : पुं०=बछड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बछौंटा  : पुं० [हिं० बाछ+औंटा (प्रत्यय)] वह चंदा जो हिस्से के मुताबित लगाया या लिया जाय।
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बंज  : पुं० [देश] हिमालय प्रदेश में होनेवाला एक प्रकार का बलूत जिसकी लकड़ी का रंग खाकी होता है। इसे सिल और मारू भी कहते हैं। पुं०=बनिज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजकंद  : पुं० [सं० वज्रकंद] एक प्रकाल का जंगली लता।
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बजकना  : अ० [अनु०] तरल पदार्थ का सड़कर या बहुत गंदा होकर बुलबुले फेंकना। बजबजाना।
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बजका  : पुं० [हिं० बजकना] १. बेसन आदि की वे पकौड़ियां जो दही में डाली जाने से पहले पानी में फुलायी जाती है। २. दे० ‘बचका’।
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बजगारी  : स्त्री० [सं० वज्र] वज्रपात। उदाहरण—देऊ जबाव होई बजगारी।—कबीर। वि० दे० ‘वज-मारा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजट  : पुं० [अं०] १. आय-व्यय का मासिक या वार्षिक लेखा। २. आय-व्यय पत्रक।
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बजड़ना  : सं० १. टकराना। २. कहीं जाकर पहुँचना।
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बजड़ा  : पुं०=बजरा।
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बजंत्री  : पुं० [हिं० बाजा] १. बाजा बजानेवाला। बजनिया। २. बाजे, बजानेवालों की मण्डली। ३. मुसलमानी राज्यकाल में बाजा बजानेवालों से लिया जानेवाला एक तरह का कर।
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बजनक  : पुं० [?] पिस्ते का फूल जिससे रेशम का सूत रँगा जाता है।
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बजना  : पुं० [हिं० बाजा] १. किसी चीज पर आघात किये जाने पर ऊँची ध्वनि निकलना। जैसे—(क) घंटा बजना। (ख) तबला या मृदंग बजना। २. ऐसा आघात लगना जिससे किसी प्रकार का उच्च शब्द उत्पन्न हो। जैसे—किसी के सिर पर डंडा बजना। ३. अस्त्र शस्त्र आदि का शब्द करते हुए प्रहार होना। जैसे—लाठी बजना। ४. ऐसी लड़ाई या झगड़ा होना जिसमें मार-पीट भी हो। ५. हठ करना। जिद करना। अड़ना। ६. किसी नाम से ख्यात या प्रसिद्ध होना वि० बजनेवाला। जो बजता हो। पुं० १. चाँदी का रुपया जो ठनकाने या पटकने से बजता अर्थात् शब्द करता है। (दलाल) २. दे० ‘बाजा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजनियाँ  : पुं० [हिं० बजना+इया (प्रत्यय)] वह जो बाजा बजाने का व्यवसाय करता हो। वह जिसका पेशा बाजा बजाना हो। (प्रायः ब्याह-शादी आदि के अवसरों पर बाजा बजानेवालों के लिए प्रयुक्त)
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बजनिहाँ  : पुं०=बजनिहाँ।
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बजनी  : स्त्री० [हिं० बजाना] ऐसी लड़ाई या झगड़ा जिसमें उठा-पटक या मार-पीट भी हो। वि० बजने या बजाया जानेवाला। बजनूँ।
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बजनूँ  : वि० [हिं० बजाना] बजने या बजाया जानेवाला। जो बजता या बजाया जाता हो।
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बजबजाना  : अ० [अनु] १. उमस, गरमी आदि के कारण किसी जलीय या तरल पदार्थ में खमीर उठते पर अथवा उसके सड़ने पर उसमें से बुलबुले निकनला। जैसे—कटहल या भात बजबजाना। २. इस प्रकार बुलबुले निकनले से पदार्थ का दूषित होना।
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बजमारा  : वि० [सं० वज्र+हिं० मारा] [स्त्री० बजमारी] १. वज्र से आहत। जिस पर वज्र पड़ा हो। २. बहुत बड़ा अभागा।
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बंजयंती  : स्त्री०=बैजंती।
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बंजर  : वि० [सं० वन+उजड़] (भूमि) जिसमें कोई चीज न उगली हो फलतः जो उपजाऊ न हो। ऊसर। पुं० बंजर भूमि।
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बजर  : वि० [सं० वज्र] १. बहुत मजबूत। दृढ़ या पक्का। उदाहरण—किसूँ सफीला भुरज की काहू बजर कपाट।—बाँकीदास। २. कठोर। पुं०=वज्र।
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बंजर-भूमि  : स्त्री० [सं०] शुष्क प्रदेशों मे कटा-फूटा या ऊबड़-खाबड़ भू-खंड जिसमें कोई वनस्पति नहीं होती। ऐसी भूमि में बीच-बीच में छोटी-मोटी चट्टाने या टीले भी होते हैं। (बैड लैंड)
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बजर-हड्डी  : स्त्री० [हिं० बजर+हड्डी] घोडो़ के पैरों में गाँठे पड़ने का एक रोग।
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बजरंग  : वि० [सं० वज्र+अंग] १. वज्र के समान कठोर अंगोंवाला। २. परम शक्तिशाली और हृष्ट-पुष्ट। पुं० हनुमान।
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बजरंगबली  : पुं० [हिं० बजरंग+बली] हनुमान। महावीर।
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बजरंगी बैठक  : स्त्री० [हिं० बजरंग+बैठक] एक प्रकार की बैठक जिससे शरीर बहुत अधिक पुष्ट होता है।
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बजरबट्ट  : पुं० [हिं० बजर+बट्टा] १. एक प्रकार के वृक्ष के फल का दाना या बीज जोकाले रंग का होता है और जिसकी माला नजर आदि की बाधा से बचाने के लिए लोग बच्चों को पहनाते हैं। २. व्यापक अर्थ में कोई ऐसी चीज जो किसी प्रकार का अपशकुन तथा दूषित प्रभाव रोकती है। ३. एक प्रकार का खिलौना।
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बजरबोंग  : पुं० [हिं० बजर+बोंग (अनु० )] १. एक प्रकार का धान जो अगहन मास में पकता है। २. बड़ा भारी या मोटा डंडा।
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बजरा  : पु० [सं० वज्रा] वह बड़ी नाव जो कमरे के समान खिड़कियों तथा पक्की छतवाली होती है। पुं०=बाजरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजरागि  : स्त्री०=वज्राग्नि (बिजली)।
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बंजरिया  : वि०=बंजर। स्त्री०=बन-जरिया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजरिया  : स्त्री० [हिं० बाजार+इया (प्रत्यय)] छोटा बाजार।
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बजरी  : स्त्री० [सं० वज्र] १. पत्थर को तोड़कर बनाये जानेवाले वे छोटे-छोटे टुकड़े जो फरश, सड़क आदि बनाने के काम आते हैं। २. आकाश से गिरनेवाला पत्थर। ओला। ३. वह छोटा नुमायशी कँगूरा जो किले आदि की दीवारों के ऊपरी भाग में बराबर थोड़े-थोड़े अंतर पर बनाया जाता है और जिसकी बगल में गोलियाँ चलाने के लिए कुछ अवकाश रहता है। स्त्री० [हिं० बाजरा] वह बाजरा जिसके दाने बहुत छोटे-छोटे हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजवाई  : स्त्री० [हिं० बजवाना+ई (प्रत्यय)] १. बाजा बजवाने का कार्य या भाव। २. वह मजदूरी जो किसी से बाजा बजवाने के फलस्वरूप उसे दी जाती है।
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बजवाना  : स० [हिं० बजाना का प्रे०] [भाव० बजवाई] किसी को कुछ बजाने में प्रवृत्त करना। जैसे—बाजा बजवाना।
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बजवैया  : वि०= [हिं० बजाना+वैया (प्रत्यय)] बजानेवाला। जो बजाता हो।
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बजा  : वि० [फा० बजा] १. जो अपने उचित उपयुक्त य ठीक स्थान पर हो। २. उचित वाजिब। मुहावरा—बजा लाना=(क) पूरा कराना। पालन करना। जैसे—हुकुम लाना। (ख) सम्पादन करना। जैसे—आदाब बजा लाना। ३. जो दुरुस्त तथा शुद्ध हो।
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बजागि  : स्त्री० [सं० वज्र+अग्नि] वज्र की आग अर्थात् विद्युत। बिजली। उदाहरण—सूरज आग बजागि दुख तृष्ण पाप बिलाप।—केशव। २. भीषण कष्ट देनेवाला ताप। उदाहरण—बिरह बजागिं सौंह रथ हाँका।—जायसी
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बजागिन  : स्त्री०=बजागि।
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बजाज  : पुं० [अ० वज्जाज] [स्त्री० बजाजिन, भाव० बजाजी] कपडे का व्यापारी। कपड़ा बेचनेवाला
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बजाजा  : स्त्री० [हिं० बजाज] वह बाजार जिसमें कपड़ा की बहुत सी दुकानें हो।
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बजाजी  : स्त्री० [अ० बज्जाजी] १. बजाज का काम। कपड़ा। बेचने का व्यवसाय। २. बजाज की दुकान पर बिकनेवाले या बिकने योग्य कपड़े।
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बजाना  : स० [हिं० बाजा] १. किसी चीज परइस प्रकार आघात करना कि उसमें से शब्द निकलने लगे। जैसे—(क) घंटा बजाना। (ख) ताली बजाना। २. कोई ऐसी विशिष्ट प्रक्रिया करना जिससे कोई वाद्य, सुर ताल लय आदि में शब्द करने लगे। जैसे—शहनाई या सितार बजाना। पद—बजाकर=डंका पीटकर। खुल्लमखुल्ला। मुहावरा—गाल बजाना=दे० ‘गाल’ के अन्तर्गत मुहा० । वर्दी बजाना-सैनिकों को कवायद आदि के लिए बुलाने के उद्देश्य से बिगुल बजाना। ३. लाठी सोंटे आदि से लड़ाई-झगड़ा करना। ४. पुकारना। बुलाना। (पूरब) ५. खरेपन आदि की परीक्षा के लिए किसी चीज को उछालकर पटकर अथवा उस पर आघात करके शब्द उत्पन्न करना। पद—ठोंकना-बजाना=(क) अच्छी तरह जाँचना या परखना। जैसे—जो चीज लो वह ठोंक-बजाकर लिया करो। (ख) बात या व्यक्ति के संबंध में प्रामाणिकता, सत्यता आदि का निश्चय करना। जैसे—उन्हें अच्छी तरह ठोंक-बजाकर देख लो। कही ऐसा न हो, कि वे पीछे मुकर जायँ। ५. आघात या प्रहार करना। मारना-पीटना। जैसे—जूते बजाना। ६. स्त्री के साथ प्रसंग या सम्भोग करना। (बाजारू) स० [फा० बजा+ना (प्रत्यय)] पालन करना। जैसे—ताबेदारी बाजाना, हुकुम बजाना।
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बजाय  : अव्य० [फा०] (किसी की) जगह या स्थान पर अथवा बदले में जैसे—उन्हें रुपयों के बजाय कपड़ा भी मिल जाय तो काम चन जायगा।
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बजार  : पुं०=बाजार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंजारा  : पुं०=बनजारा।
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बजारी  : वि०=बाजारी। वि० [हिं० बाजना-बोलना] बहुत बढ़-च़ढ़कर और व्यर्थ बोलनेवाला। उदाहरण—कीर्ति बड़ों करतूति बड़ा जन बात बड़ो सो बड़ोई बजारी।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजारू  : वि०=बाजारू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजावनहार  : वि०=[हिं० बजाना+हार (प्रत्यय)] बजानेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजावना  : स०=बजाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बजुआ  : पुं० बाजू।
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बजुज  : क्रि० वि० [फा० बजुज] अतिरिक्त। सिवा। जैसे—बजुज इसके सिवा और कोई चारा नहीं है।
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बंजुल  : पुं०=वंजुल (अशोक)।
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बजुल्ला  : पुं० [सं० बाजू+उल्ला (प्रत्यय)] बाँह पर पहनने का बिजायट नाम का गहना।
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बजूका  : पुं० [?] १. धातु का एक प्रकार का बड़ा नल जिसमें से बिजली की सहायता से शत्रुओं पर अग्नि बाण आदि छोड़े जाते हैं। (इसका प्रयोग पहले-पहल अमेरिका ने दूसरे यूरोपीय महायुद्ध में किया था) २. दे० ‘बिजुखा’।
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बजूखा  : पुं० १.=बजूका। २.=बिजूखा।
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बजोटा  : पुं० [?] केशव के अनुसार एक छंद का नाम।
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बज्जना  : अ०=बजना।
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बज्जर  : पुं०=बज्र।
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बज्जाती  : स्त्री० [फा० बदजाती] १. दुष्टता। पाजीपन। २. कमीनापन। नीचता। अधमता।
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बज्जात्  : वि० [फा० बदजात] [भाव० बज्जाती] १. दुष्ट। पाजी। २. कमीना। नीच। अधम।
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बज्जुन  : पुं० [हिं० बजना] बाजा।
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बज्ज्री  : पुं०=बज्री। (इन्द्र)।
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बज्म  : स्त्री० [फा० बज़्म] १. सभा। २. गोष्ठी।
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बज्र  : पुं० वज्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बझना  : अ० [सं० बद्ध, प्रा० वज्झ+ना(प्रत्यय)] १. बंधन में पड़ना। बँधना। २. उलझना। फँसना। ३. किसी से उलझकर लड़ाई झगड़ा करना। ४. जिद या हठ करना।
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बझवट  : स्त्री० [हिं० बाँझ+वट (प्रत्यय)] १. बाँझ स्त्री। २. कोई बाँझ मादा पशु। ३. वह डंठल जिसमें से बाल तोड़ ली गयी हो। स्त्री० बझावट।
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बंझा  : वि० स्त्री०=बाँझ।
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बझाऊ  : वि० [हिं० बझाना] बझाने अर्थात् फँसानेवाला। पुं० बझाव।
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बझान  : स्त्री० [हिं० बझना] बझने या बझाने की अवस्था क्रिया या भाव। बझाव।
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बझाना  : स० [हिं० बना का सकर्मक रूप] १. बंधन में डालना या लाना। २. उलझाना। फँसाना। ३. जाल में फँसना। अ० बंधन में फँसना। जकड़ा जाना। बझना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बझाव  : पुं० [हिं० बझाना] १. जाल, फंदे आदि में बझाने की क्रिया या भाव। बझावट। २. बझाने या फँसानेवाली कोई चीज। बझावट।
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बझावट  : स्त्री० [हिं० बझना+आवट (प्रत्यय)] १. बझने या बझाने की अवस्था या भाव। बझाव। २. उलझन। ३. जाल । बझाव।
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बझावन  : स०=बझाना।
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बझावा  : पुं० [हिं० बझाना-फँसाना] किसी को फँसाने के लिए बनाया हुआ जाल या गम्भीर योजना।
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बट  : पुं० [सं० वट] १. बड़ा का पेड़। वट। २. किसी चीज का गोला। ३. सिल पर चीजें पीसने का बटटा। ४. बाट। मार्ग। रास्ता। ५. चीजों को तौलने का बटखरा। बाट। ६. बड़ा नाम का पकवान। पुं० [हिं० बटना-बल डालना] १. बटे हुए होने की अवस्था या भाव। २. रस्सी आदि की वह ऐंठन जो उसे बटने से पडती है। बल। क्रि० प्र०—डालना।—देना। ३. पेट में होनेवाली ऐंठन या पड़नेवाली मरोड़। पं० [हिं० ] बाट का वह संक्षिप्त रूप जो उसे योगिक शब्दों के आरम्भ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—बटखरा, बट-मार। पुं० [हिं० बँटना] बँटने पर मिलनेवाला अंश। बाँट। हिस्सा। उदाहरण—लाज म्रजाद मिली औरन कौ मृदु मुसुकानि मेरे बट आई।—नारायण स्वामी।
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बट-छीर  : पुं० [सं० वट+हिं० छीर] वट वृक्ष की वह छाल जो पहनने के काम आती थी। उदाहरण—होत प्रात बट-छीर मँगावा।—तुलसी।
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बट-पारी  : स्त्री० दे० ‘बट-मारी’। पुं०=बट-पार (बट-मार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बट-मार  : पुं० [हिं० बाट+मारना] पथिकों या यात्रियों को मार्ग में मारकर धन, सम्पत्ति छीन लेनेवाला लुटेरा।
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बट-मारी  : स्त्री० [हिं० बटमार] बटमार का काम या भाव।
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बटई  : स्त्री०=बटेर। उदाहरण—तीतर बटई लवा न बाँचे।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटकना  : अ०=बचना। (बुदेल० ) उदाहरण—ईसुर कान बटकने नइयाँ देख लेव यह ज्वानो।—लोकगीत।
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बटखर  : पुं०=बटखरा।
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बटखरा  : पुं० [सं० बटक] धातु, पत्थर आदि का किसी नियत तौल का टुकड़ा जिससे अन्य पदार्थ तराजू पर तौले जाते हैं।
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बँटन  : पुं० [हिं० बाँटना] बाँठने की क्रिया या भाव।
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बटन  : स्त्री० [हिं० बटना] १. रस्सी आदि बटने या ऐंठने की क्रिया या भाव। २. बँटने के कारण रस्सी आदि में पड़ी हुई ऐंठन। बल। पुं० [अं०] १. धातु, सींग, सीप आदि की बनी हुई चिपटे आकार की कड़ी गोल घुंड़ी जो कोट कुरते अंगरखे आदि में टाँकी जाती है और जिसे काज नामक छेद में फँसा देने से खुली जगह बंद हो जाती है और कपड़ा पूरी तरह से बदन को ढक लेता है। बुताम। २. उक्त आकार-प्रकार की वह घुंड़ी जिसे उठाने, दबाने हिलाने आदि से कोई यांत्रिक क्रिया आरम्भ या बंद होती है। जैसे—बिजली का बटन। क्रि० प्र०—दबाना। ३. बादले का एक प्रकार का तार।
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बँटना  : अ० [हिं० ‘बाँटना’ का अ०] अलग-अलग हिस्सों में बाँटा जाना। २. किसी प्रकार या रूप में विभक्त या विभाजित होना। संयो० क्रि०—जाना। पुं०=बँटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटना  : स० [सं० वट=बटना] कई तंतुओं, तागों या तारों को एक साथ मिलाकर इस प्रकार जोड़ना कि वे सब मिलकर एक हो जायँ। ऐंठन देकर मिलाना। जैसे—डोरी, तागा या रस्सी बटना। पुं० रस्सी आदि बटने का कोई उपकरण या यंत्र। स० बचाना। (बट्टे से पीसना)। पुं० [सं० उद्धर्चन, आ० उव्वाटन] सिल पर पीसी हुई सरसों, चिरौंजी आदि का लेप जो शरीर की माल छुड़ाने के लिए मला जता है। उबटन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटपरा  : पुं०=बटपार।
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बटपार  : पुं० [स्त्री० पटपारिन्] दे० ‘बट-मार’।
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बटम  : पुं० [?] पत्थर गढ़नेवालों का एक औजार जिससे वे कोना नापकर ठीक करते हैं। कोनिया। पुं०=बटन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटम-पाम  : पुं० [बटम+अं० पाम-ताड़] बंगाल में होनेवाला एक प्रकार का ऊँचा पेड़।
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बटला  : पुं० [सं० वर्तुल, प्रा० बट्टल] [स्त्री० अल्पा० बटली] चावल, दाल आदि पकाने का चौड़ा मुँह का गोल बरतन। बड़ी बटलोई। देग। देगचा। बटुआ।
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बटली  : स्त्री०=बटलोई।
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बटलोई  : स्त्री० [हिं० बटला] छोटा बटला। बटली। देगची।
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बटवाँ  : वि० [हिं० बाटना=पीसना] सिल पर पीसा या पिसा हुआ। उदाहरण—कटवाँ बटवाँ मिला सुबासू।—जायसी। वि० [हिं० बटना=बल डालना] बटा हुआ।
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बटवा  : पुं०=बटुआ। पुं०=बटला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँटवाई  : स्त्री० [हिं० बँटवाना] बँटवाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। स्त्री०=बँटाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटवाई  : स्त्री० [हिं० बटवाना+आई (प्रत्यय)] बटवाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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बँटवाना  : स० [हिं० बाँटना] दूसरों को कोई चीज बाँटने में प्रवृत्त करना। स०=बटवाना।
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बटवाना  : स० [हिं० बाटना का प्रे०] बाटने या पीसने का काम किसी से करवाना। स०=बँटवाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटवार  : पुं० [हिं० बाट] १. रास्ते पर पहरा देनेवाला व्यक्ति। पहरेदार। २. रास्ते पर खड़ा होकर वहाँ का कर उगाहनेवाले कर्मचारी।
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बँटवारा  : पुं० [हिं० बाँटना] १. बाँटने का काम। २. भाइयों, हिस्सेदारों आदि में होनेवाला सम्पत्ति का विभाजन। अलगोझा। जैसे—(क) खेत का बँटवारा। (ख) देश का बँटवारा।
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बटवारा  : पुं०=बँटवारा।
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बंटा  : पुं० [सं० वटक, हिं० वटा+गोला] [स्त्री० अल्पा० बंटी] कोई छोटा गोल चौकोर डिब्बा। जैसे—पान का बंटा। वि० छोटे कद का। नाटा।
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बटा  : पुं० [स० वटक] [स्त्री० अल्पा० बटिया] १. कोई गोलाकार चीज। गोला। २. कंदुक। गेंद। ३. पत्थर का टुकड़ा। ढोंका। पुं० [हिं० बाट] बटोही। पुं० १. गणित में एक प्रकार का चिन्ह जो छोटी किंतु सीधी क्षैतिज रेखा के रूप में (-) होता है और जो किसी पूरी इकाई का भिन्न अर्थात् अंश या खंड सूचित करता है। जैसे—३/४ (तीन बटा चार) में ३ और ४ के बीच की पाई बटा कहलाती है। २. गणित में भिन्न अर्थात् पूरी इकाई के तुल्नात्मक अंश या खंड कावाचक शब्द। जैसे—दो बटा (या बटे) तीन का अर्थ होगा-पूरी इकाई के तीन भागों में से दो भाग।
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बँटाई  : स्त्री० [हिं० बाँटना] १. बाँटने की क्रिया भाव या पारिश्रमिक। २. बाँटे जाने की अवस्था या भाव। ३. किसी को जोतने-बोने के लिए खेत देने का वह प्रकार जिसमें खेत का मालिक लगान के बदले में उपज का कुछ अंश लेता है। जैसे—यह खेत इस साल बँटाई पर दिया गया है।
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बटाई  : स्त्री० [हिं० बटना] बटने या ऐंठन डालने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। स्त्री०=बँटाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटाऊ  : पुं० [हिं० बाट=रास्ता+आऊ (प्रत्यय)] १. बाट अर्थात् राह पर चलता हुआ व्यक्ति। राही। २. अनजान। अपरिचित या राह-चलता नया आया हुआ व्यक्ति। मुहावरा—बटाऊ होना=चलता होना। चल देना। पुं० [हिं० बाँटना] १. बँटवाने या विभाग करानेवाला। २. अपना अंश या प्राप्य बँटवा या अलग कराकर लेनेवाला।
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बटाक  : वि० [हिं० बड़ा] १. बड़ा। २. ऊँचा। ३. विशाल।
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बटाटा  : पुं० [अं० पोटैटो] आलू (कंद)।
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बँटाधार  : वि० [सं० विनष्ट+आधार] पूरी तरह से चौपट नष्ट या भ्रष्ट किया हुआ। (पूरब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँटाना  : स० [हिं० बाँटना] १. किसी सम्पत्ति आदि के हिस्से लगवाकर अपना हिस्सा लेना। जैसे—उसने सारी जायदाद बँटा ली है। २. किसी काम या बात में इस प्रकार सम्मिलित होना कि दूसरे का भार कुछ हलका हो जाय। जैसे—(क) किसी का दुःख बँटाना। (ख) कि सी काम में हाथ बँटाना। ३. दे० ‘बँटवाना’।
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बटाना  : स० [हिं० बटना का प्रे०] बटने या बाटने का काम किसी और से कराना। अ० पटाना (बन्द होना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटालियन  : पुं० [अं०] पैदल सेना का एक बड़ा विभाग।
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बटाली  : स्त्री० [लश०] बढ़इयों का एक औजार। रुखानी। (लश०)
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बँटावन  : वि० [हिं० बँटवाना] बँटवाकर अपना हिस्सा लेनेवाला।
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बटिका  : स्त्री०=वटिका।
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बटिया  : स्त्री० [हिं० बटा=गोला] १. गोली। बटी। २. सिल पर पीसने का छोटा बटटा। लोढिया। स्त्री०=बँटई (खेतों की उपज की)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँटी  : स्त्री० [?] हिरन आदि पशुओं को फँसाने का जाल या फंदा। स्त्री० हिं० बंटा का स्त्री० अल्पा०।
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बटी  : स्त्री० [सं० बटी] १. किसी चीज की बनायी हुई छोटी गोली। वटी। २. पीठी की बड़ी या बरी। स्त्री०=वाटिका।
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बटु  : पुं०=वटु (ब्रह्मचारी)।
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बटुआ  : पुं० [सं० बटक या हिं० बटना] [स्त्री० अल्पा० बटुई] १. कपड़े, चमड़े आदि का खाने तथा ढक्कनदार एक उठौआ छोटा आधान जिसमें रुपये-पैसे आदि रखे जाते हैं।
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बटुई  : स्त्री०=बटलोई।
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बटुक  : पुं०=वटुक (ब्रह्मचारी)। पुं० [?] लवंग।
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बटुरना  : अ० [हिं० बटोरना का अ०] १. इकट्ठा या एकत्र होना। २. सिमटना। ३. बटोरा जाना। संयो० क्रि०–जाना।
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बटुरी  : स्त्री० [देश] खेसारी या मोठ नाम का कदन्न। स्त्री०=बटलोई।
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बटुला  : पुं० [स्त्री० अल्पा० बटुली]-बटला।
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बटुवा  : पुं०=बटुआ। पुं०=बटला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बटे  : पुं०=बटा (गणित का)।
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बटेर  : स्त्री० [सं० वर्तिर] तीतर की तरह की एक छोटी चिड़िया जो अधिक उड़ नहीं सकती। जिसका मांस खाया जाता है। कुछ शौकीन लोग बटेरों को आपस में लड़ाते भी है।
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बटेरबाज  : पुं० [हिं० बटेर+फा० बाज] [भाव० बटेरबाजी] बटेर पकड़ने, पालने या लड़ानेवाला व्यक्ति।
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बटेरबाजी  : स्त्री० [हिं० बटेर+फा० बाजी] बटेर पकड़ने, पालने या लड़ाने का काम या शौक।
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बटेरा  : पुं० [हिं० बटा] कटोरा। पुं०=नर बटेर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँटैया  : वि० [हिं० बाँटना] बाँटनेवाला। वि० [हिं० बँटवाना] बँटवाकर अपना हिस्सा ले लेनेवाला।
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बटैरी  : स्त्री० [हिं० बाँटना] हिन्दुओं में विवाह के समय की एक रस्म जिसमें कन्या पक्षवाले को आभूषण, धन, वस्त्र आदि देते हैं।
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बटोई  : पुं०=बटोही। स्त्री०=बटलोई।
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बटोर  : पुं० [हिं० बटोरना] १. बटोरने की क्रिया या भाव। २. कसी विशिष्ट उद्देश्य से बहुत से आदमियों को इकट्ठा करना। जैसे—बिरादरी के लोगों की अथवा पंचायत की बटोर। ३. चीजें बटोर कर उनका लगाया हुआ ढेर। ४. कूड़े-करकट का ढेर (कहार)।
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बटोरन  : स्त्री० [हिं० बटोरना] १. बटोरने की क्रिया या भाव। २. वह जो कुछ बटोर कर रखा या हुआ हो। ३. कमरे, घर आदि के झाड़े-बुहारे जाने पर निकलनेवाला कूड़ा जो प्रायः एक स्थान पर इकट्ठा कर लिया जाता है। ४. खेत में पड़े हुए अन्न के दाने जो बटोर कर इकट्ठा किये जायँ।
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बटोरना  : स० [हिं० बटुरना] १. छितरी या बिखरी हुई वस्तुओं को उठा या खिसकाकर एक जगह करना। जैसे—(क) गिरे हुए पैसे बटोरना। (ख) कूड़ा बटोरना। क्रि० वि०=देना।—लेना। २. इकट्ठा करना, जोड़ना या जमा करना। जैसे—धन बटोरना। ३. फैलायी या फैली हुई चीज समेटना। जैसे—चादर या पैर बटोरना। ४. चुनना।
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बटोही  : पुं० [हिं० बाट] बाट अर्थात् रास्ते पर चलने वाला या चलता हुआ यात्री। राही। पथिक। मुसाफिर।
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बट्ट  : पुं० [हिं० बटक] १. बटा। गोला। २. कन्दुक। गेंद। ३. बटखरा। बाट। पुं० [हिं० बटना] १. कोई चीज बटने से पड़ा हुआ बल। वट। २. शिकन। सिलवट। पुं०=बाट (रास्ता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बट्टन  : पुं० [हिं० बटना] बादले से भी पतला एक प्रकार का तार।
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बट्टा  : पुं० [सं० बटक, हिं० बटा-गोला] [स्त्री० अल्पा० बट्टी, पटिया] १. पत्थर का वह गोला टुकड़ा जो सिल पर कोई चीज कूटने या पीसने के काम आता है। कूटने या पीसने का पत्थर। लोढ़ा। २. पत्थर आदि का कोई गोल-मटोल टुकड़ा। बट्टा। ३. छोटा गोल डिब्बा। जैसे—गहने या पान के बीड़े रखने का बट्टा। ४. छोटा गोलाकार दर्पण। ५. वह कटोरा या प्याला जिसे औंधा रखकर बाजीगर उसमें किसी वस्तु का आना या निकल जाना दिखलाते हैं। पद—बट्टेबाज। (देखें)। ६. एक प्रकार की उबाली हुई सुपारी। पुं० [सं० वर्ति, प्रा० बाट्ट-बनिये का व्यवसाय] १. किसी चीज के पूरे दाम मे होनेवाली वह कमी जो उस चीज मे कोई खोट, त्रुटि दोष या मिलावट होने के कारण की जाती है। पद—बट्टे से=त्रुटि, दोष मिलावट आदि के कारण किसी चीज की अंकित, नियत या प्रसम दर की अपेक्षा कुछ कम मूल्यपर। जैसे—जिस गहने मे टाँके अधिक होते हैं, वह पूरे दाम पर नहीं बल्कि बट्टे से बिकता है। क्रि० प्र०—काटना।—देना।—लगाना। २. सिक्के आदि तुड़ाने या बदलवाने में होनेवाली मूल्य की कमी। भाँज। जैसे—सौ रूपये का नोट भुनाने में दो आना बट्टा लगता है। क्रि० प्र०—लगना। पद—ब्याज-बट्टा (देखें)। ३. उक्त दृष्टि या विचार से होनेवाला घाटा या टोटा। जैसे—वह थान अन्दर से कटा हुआ था इसलिए दुकानदार को एक रुपया बट्टा सहना पड़ा। क्रि० प्र०—सहना। पद—बट्टा-खाता (देखें)। ४. दस्तूरी दलाली आदि के रूप में दिया जानेवाला धन। ५. किसी चीज या बात मे होनेवाला ऐब, कलंक या दोष। दाग। जैसे—तुम्हारा यह आचरण तुम्हारी प्रतिष्ठा में बट्टा लगानेवाला है। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।
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बट्टा-खाता  : पुं० [हिं० बट्टा+खाता] महाजनों के यहाँ एक बही या लेखा जिसमें डूबी हुई अथवा न वसूल होने वाली रकमें लिखी जाती है। मुहावरा—बट्टे खाते लिखना=न प्राप्त हो सकनेवाली रकम डूबी हुई रकमों के खाते में चढ़ाना।
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बट्टाढाल  : वि० [हिं० बट्टा+ढालना] इतना चौरस और चिकना कि उस पर कोई गोला लुढ़काया जाय तो लुढ़कता जाय। खूब समतल और चिकना। पुं० उक्त प्रकार का चिकना और चौरस समतल स्थान।
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बट्टाबाज  : वि०, पुं०=बट्टेबाज।
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बट्टी  : स्त्री० [हिं० बट्टा] १. पत्थर आदि का छोटा टुकड़ा। २. सिल पर चीजें पीसने का छोटा बट्टा। ३. किसी चीज का प्रायः गोलाकार खंड। टिकिया। जैसे—साबुन की बट्टी।
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बट्टू  : स्त्री० [हिं० बट्टा] १. धारीदार चारखाना। २. दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का ताड़। बजरबट्टू। ताली। ३. बोड़ा या लोबिया नाम की फली। ४. लोहे का वह गोला जिसे नट लोग उछालते गायब करते और पिर निकालकर दिखलाते हैं। बट्टा। उदाहरण—जिहि विधि नट के बट्ट।—नागरी दास।
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बट्टे खाते  : वि० [हिं० (रकम)] जो डूब गयी हो या वसूल न हो सकती हो। क्रि० प्र०—डालना।—लिखना।
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बट्टेबाज  : पुं० [हिं० बट्टा+फा० बाज] १. नजर-बंद का खेल करनेवाला जादूगर। २. बहुत बड़ा चालाक या धूर्त। वि० दुश्चरित्रा (स्त्री)। पुंश्चली।
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बठिया  : स्त्री० [देश] पाथे हुए सूखे कंडों का ढेर। उपलों का ढेर।
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बँड  : वि०=बाँड़ा। पुं०=बंडा।
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बड़  : स्त्री० [अनु० बड़बड़] १. बड़बड़ाने या मुँह से बड़-बड़ शब्द उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. निरर्थक या व्यर्थ की बातें। प्रलाप। जैसे—पागलों की बड़। ३. डींग। शेखी। क्रि० प्र०—मारना।—हाँकना। पुं० [सं० वट] बड़ का पेड़। वट-वृक्ष। वि० १. हिं० बडा का संक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के आरम्भ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—बड़-बेला, बड़-भागी। २. उदाहरण—पुनि दातार दइअ बड़ कीन्हा।—जायसी।
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बड़ कुँइयाँ  : स्त्री० [हिं० बड़ा+कुआँ] कच्चा कुआँ।
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बड़-कौला  : पुं० [हिं० बड़+कोंपल] बरगद का पेड़।
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बड़-गुल्ला  : पुं० [हिं० बड़+बगुला] एक प्रकार का बगला।
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बड़-दंता  : वि० [हिं० बड़+दाँत] [स्त्री० बड़दंती] बड़े-बड़े दाँतों वाला।
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बड़-दुमा  : पुं० [हिं० बड़ा+फा० दुम] वह हाथी जिसकी पूँछ पाँव तक लम्बी हो। लम्बी दुम का हाथी। वि० [स्त्री० बड़-दुमी] बड़ी दुम या पूँछवाला।
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बड़-फन्नी  : स्त्री० [हिं० बड़ा+फन्नी] वह मठिया (हाथ में पहनने का गहना) जो साधारण से अधिक चौड़ी होती है।
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बड़-फर  : पुं० [हिं० ब़ड़+फलक] ढाल। (डिं० ) उदाहरण—बड़-फरि ऊछजतै विरुधि।—प्रिथीराज।
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बड़-बट्टा  : पुं० [हिं० बड़+बट्टा] बरगद का फल।
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बड़-बोल  : पुं० [हिं० बड़+बोल] [स्त्री० बड़-बोली] अपने कर्तृत्व, योग्यता, शक्ति आदि का अत्यक्तिपूर्ण कथन। डींग या सेखी की बात। वि०=बड़-बोला।
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बड़-बोला  : वि० [हिं० बड़+बोल] [स्त्री० बड़-बोली] बड़ी-बड़ी बातें बघारने या डींग हाँकनेवाला। बढ़-बढ़कर लम्बी चौड़ी बातें करनेवाला।
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बड़-भाग  : वि०=बड़भागी।
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बड़-भागा  : वि० [हिं० बड़+भागी(सं० भागिन्)] [स्त्री० बड़-भागी] बड़े अर्थात् उत्तम भाग्यवाला। सौभाग्यशाली। उदाहरण—ऊधो आज भई बड़-भागी।—सूर।
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बड़-भागी  : वि०=बड़भागा।
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बड़-भुज  : पुं०=भड़-भूँजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़-हंस  : पुं० [हिं० बड़+सं० हंस] एक राग जो मेघ का पुत्र माना जाता है। कुछ लोग इसे संकर राग भी कहते हैं।
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बड़-हंस-सारंग  : पुं० [हिं० बड़हंस+सारंग] सम्पूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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बड़-हंसिका  : स्त्री० [हिं० बड़+सं० हंसिका] एक रागिनी जो हनुमत् के मत से मेघराग की स्त्री कही गई है।
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बड़का  : वि० [हिं० बड़ा] [स्त्री० बड़की] बोल-चाल में (वह) जो सबसे बड़ा हो। जैसे—बड़के भैया, बड़की दीदी। (पूरब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़ंगा  : पुं० [हिं० बड़ा+अंग+आ (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० बडंगी] दीवारों पर लम्बाई के बल बीच-बीच रखा जानेवाला बल्ला जिस पर छाजन टिकी होती है।
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बडंगी  : पुं० [हिं० बड़ा+अंग] घोड़ा। (डिं० )।
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बड़ंगू  : पुं० [देश] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का जंगली पेड़।
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बड़दार  : स्त्री० [हिं० बाढ़+धार] पत्थर काटने की टाँकी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़प्पन  : पुं० [हिं० ब़ड़+पन (प्रत्यय)] बड़े अर्थात् श्रेष्ठ होने की अवस्था, गुण या भाव। महत्त्व। श्रेष्ठता। बड़ाई। जैसे—तुम्हारा बड़प्पन इसी में है कि तुम कुछ मत बोलो।
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बड़बड़  : स्त्री० [अनु०] १. मुँह से निकलनेवाले ऐसे शब्द जो न तो स्पष्ट रूप से दूसरों को सुनायी पड़े और न जिनका जल्दी कोई संगत अर्थ निकल सकता हो। बड़बड़ाने की क्रिया या भाव। २. व्यर्थ की बातचीत। प्रलाप। बकवाद। क्रि० प्र०—करना।—लगाना। ३. क्रोध में आकर अपने मन की भड़ास निकालने के विचार से बहुत धीरे-धीरे मुँह से उच्चरित होनेवाले शब्द।
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बड़बड़ाना  : अ० [अनु० बड़बड़] १. धीरे-धीरे तथा अस्पष्ट रूप से इस प्रकार बोलना कि बड़-बड़ के सिवा और कुछ सुनायी न दे। २. क्रोध में आकर आप ही आप कुछ कहते रहना। कुड़बुड़ाना। ३. बकबक करना। बकवाद। करना।
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बड़बड़िया  : वि० [अनु० बड़बड़+इया (प्रत्यय)] १. बड़ाबड़ अर्थात् बकवाद करनेवाला। २. कोई बात अपने मन में न रख सकने के कारण दूसरों से कह देनेवाला।
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बड़रा  : वि० [स्त्री० बड़री]-बड़का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़राना  : अ०=बर्राना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँडल  : पुं० [अं०] रस्सी आदि से अच्छी तरह बँधा हुआ पुलिंदा।
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बँडवा  : वि०=बाँड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़वा  : स्त्री० [सं० वल√वा+क+टाप्, ल-ड] १. घोड़ी। २. सूर्य की पत्नी की संज्ञा जिसने घोड़ी का रूप धारण कर लिया था। ३. अश्विनी नक्षत्र। ४. वायु देव की एक परिचायिका। ५. एक प्राचीन नदी। ६. दासी। सेविका। ७. बड़वानल। पुं० [हिं० बड़ा] भादों मास के अन्त में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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बड़वा  : स्त्री० [सं० बड़वा=बल√वा (गति)+क+टाप्,लस्य,ड] १. घोड़ी। २. दासी। ३. वेश्या। ४. अश्विनी नक्षत्र ५. ब्राह्मण जाति की स्त्री।
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बड़वा-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] अश्विनीकुमार।
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बड़वाग्नि  : स्त्री०=बड़वानल (समुद्र की अग्नि)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़वानल  : पुं० [हिं० बड़वा-अनल, ष० त०] समुद्र के अन्दर चट्टानों में रहनेवाली आग जो सबसे अधिक प्रबल तथा भीषण मानी गयी है।
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बड़वामुख  : पुं० [हिं० बड़वा-मुख, ष० त० अच्] १. बडड़वाग्नि। २. शिव का मुख।
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बड़वार  : वि० [भाव० बड़वारी] बड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़वारी  : स्त्री० [हिं० बड़वार] १. बड़प्पन। २. बड़ाई। महत्त्व। ३. प्रशंसा।
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बड़वाल  : स्त्री० [देश] हिमालय की तराई मे होनेवाली भेड़ों की एक जाति।
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बड़वाहृत  : पुं० [सं० तृ० त०] स्मृतियों से अनुसार वह व्यक्ति जिसे किसी दासी से विवाह करने के कारण दासत्व ग्रहण करना पड़ा हो।
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बड़हना  : पुं० [हिं० बड़+धान] १. एक तरह का धान। २. उक्त धान का चावल। वि०=बड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़हर  : पुं० [?] वह स्थान जहाँ पर जलाये के लिए सूखे कंडे इकट्ठा करके रखे जाते हैं। पुं०=बड़हल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़हल  : पुं० [हिं० बड़+फल] १. एक प्रकार का बड़ा पेड़ जो पश्चिमी घाट, पूर्व बंगाल और कुमाऊँ की तराई आदि में बहुत होता है। २. उक्त पेड़ का फल जो अचार बनाने अथवा यों ही खाने के काम आता है।
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बड़हार  : पुं० [हिं० वर+आहार] विवाह हो जाने के उपरान्त कन्या पक्षवालों द्वारा वर और बरातियों को दी जानेवाली ज्योनार
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बंडा  : पुं० [हिं० बंटा] १. अरुई की जाति की एक लता। २. उक्त लता के कंद जिनकी तरकारी बनायी जाती है। ३. अनाज रखने का बखार।
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बड़ा  : वि० [सं० वर्द्धन, प्रा० बड़ढ़न, हिं० बढ़ना या सं० बड्] [स्त्री० अल्पा० बड़ी] १. जो अपने आकार, धारिता, मान, विस्तार आदि के विचार से औरों से बढ़-बढ़कर हो। प्रसम या साधारण से अधिक डील-डौल वाला। जैसे—(क) बड़ा पेड़, बड़ा मकान, बड़ा संदूक। (ख) बड़ा दिन। पद—बड़ा आदमी बड़ा घर, बड़ा बूढ़ा (दे० स्वतंत्र शब्द)। मुहावरा—बड़ी-बड़ी बातें करना=अपनी अथवा किसी की योग्यता शक्ति आदि के संबंध में बहुत कुछ अत्युक्तिपूर्ण या बड़ा-चढ़ाकर बातें करना। २. जो गरिमा, गुण, मर्यादा महत्त्व आदि के विचार से औरों से बहुत आगे बढ़ा हुआ हो। जैसे—(क) बड़ा दिन। (ख) बड़ा साहस। (ग) बड़ा कारीगर। ३. जो अधिकार, अवस्था, पद, मर्यादा शक्ति आदि के विचार से बढ़ा हुआ या बढ़-चढ़कर हो। जैसे—(क) बड़ा अधिकारी। (ख) बड़े-बूढ़े (या बड़े लोग) जो कहें, वह मान लेना चाहिए। ४. जो किशोर विशेषतः युवावस्था को प्राप्त हो चुका हो। जैसे—लड़की बड़ी हो गयी है, अब इसका विवाह कर देना चाहिए। ५. तुल्नात्मक दृष्टि से जिसकी अवस्था या वय अपने वर्ग के औरों से अधिक हो। ज्यादा उमरवाला। जैसे—बड़ा भाई, बड़े मामा। ६. जो मात्रा, मान, संख्या आदि के विचार से औरों से बढ़-चढ़कर हो। जैसे—(क) उन्हें इस वर्ष सबसे बड़ा इनाम मिला है। (ख) खाते में एक बड़ी रकम छूट गयी है। ७. जो बहुत अधिक स्थान घेरता हो। अधिक जगह घेरनेवाला। जैसे—बड़ा कारखाना, बड़ी दुकान। ८. जो देखने में तो बहुत बढ़-चढ़कर महत्त्वपूर्ण या प्रभावशाली हो (फिर भी जिसमें कुछ तत्त्व या सार न हो)। जैसे—बड़ी बोल बोलना, बड़ी-बड़ी बातें बघारना। ९. कुछ अवस्थाओं में किसी अनिष्ट अप्रिय या अशुभ क्रिया के स्थान पर अथवा ऐसी ही किसी संज्ञा के साथ प्रयुक्त होनेवाला विशेषण। जैसे—(क) दीया बड़ा करना अर्थात् बुझाना) बड़ा जानवर (अर्थात् गीदड़ या साँप)। क्रि० वि० बहुत अधिक। उदाहरण—बड़ी लम्बी है जमीं मिलेगे लाख हमीं।—कोई शायर। पुं० [सं० वटक, हिं० वटा] [स्त्री० अल्पा० बड़ी] १. एक प्रकार का पकवान जो मसाला मिली हुई उर्द की पीठी की गोल चक्राकार टिकियों के रूप में होता है और घी या तेल में तलकर बनाया जाता है। २. उत्तरी भारत में होनेवाली एक प्रकार की बरसाती घास।
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बड़ा आदमी  : पुं० [हिं० ] १. ऐसा आदमी जिसके पास यथेष्ट धन सम्पत्ति हो। अमीर। धनवान। २. ऐसा आदमी जो गुण, पद, मर्यादा आदि के विचार से औरों से बहुत बढ़कर हो।
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बड़ा कुँवार  : पुं० [हिं० बड़ा+कुँवार] केवड़े की तरह का एक पेड़ जिसके पत्ते किरिच की तरह लम्बे होते हैं।
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बडा घर  : पुं० [हिं०] १. कुलीन, प्रतिष्ठित, और सम्पन्न कुल। ऊँचा और कुलीन घराना। २. लाक्षणिक अर्थ में, कारागार या जेलखाना। मुहावरा—बड़े घर की हवा खाना=कैद भुगतना।
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बड़ा दिन  : पुं० [हिं० बड़ा+दिन] २५ दिसम्बर का दिन जो ईसाइयों का प्रसिद्ध त्योहार है। विशेष—प्रायः इसी दिन या इसके कुछ आगे-पीछे दिन-मान का बढ़ना आरम्भ होता है, इसी से इसे बड़ा दिन कहते हैं।
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बड़ा नहान  : पुं० [हिं०] वह स्नान जो प्रसूता को प्रसव के चालीसवें दिन कराया जाता है।
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बड़ा पीलू  : पुं० [हिं० बड़ा+पीलू] एक प्रकार का रेशम का कीड़ा।
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बड़ा बाबू  : पुं० [हिं०] किसी कार्यालय का प्रधान लिपिक जिसके अधीन कई लिपिक काम करते हों।
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बड़ा बूढ़ा  : पुं० [हिं० ] ऐसा व्यक्ति जो अवस्था या वय के विचार से भी और गुण, योग्यता आदि के विचार से भी औरों से बढ़-चढ़कर या श्रेष्ठ हो बुजुर्ग।
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बड़ाई  : स्त्री० [हिं० बड़ा+ई (प्रत्यय)] १. बड़े होने की अवस्था या भाव। बड़ापन। २. किसी काम या बात में औरो की अपेक्षा बढ़-चढ़कर होनेवाला कोई विशेष गुण या श्रेष्ठता। ३. उक्त के आधार पर किसी की होनेवाली प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा। महिमा। ४. किसी मे होनेवाले विशिष्ट गुण के संबंध में कही जानेवाली प्रशंसात्मक उक्ति। ५. प्रशंसा। तारीफ। मुहावरा—(किसी की) बड़ाई देना=किसी के गुण, योग्यता आदि का आदर करते हुए उसका आदर या प्रशंसा करना। (अपनी) बड़ाई मारना=अपने मुँह से आप अपनी योग्यता या बखान या प्रशंसा करना।
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बड़ानी  : वि०=बड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बडि (लि) श  : पुं० [सं० बलिन√शो (तीक्ष्ण करना)+क, ल—ड] १. मछली फँसाने की कँटिया। बाँसी। २. शल्य चिकित्सा में काम आनेवाला एक शस्त्र।
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बंडी  : स्त्री० [हिं० बाँड़ा=कटा हुआ] १. बिना आस्तीन की एक प्रकार की कुरती। फतूहीं। मिरजई। २. बगलबन्द नाम का पहनने का कपड़ा।
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बड़ी  : स्त्री० [हिं० बड़ा] १. आलू, दाल, सफेद कुम्हड़े आदि को पीसकर तथा उसमें नमक, मिर्च, मसाला आदि डालकर उसका सुखाया हुआ कोई छोटा टुकड़ा जो दाल, तरकारी आदि में डाला जाता है। कुम्हड़ौरी। २. मांस की बोटी। (डिं० )।
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बड़ी इलायची  : स्त्री० [हिं० ] १. एक प्रकार का इलायची का पेड़ जिसका फल कुछ बड़ा और काले रंग का होता है २. उक्त का फल जिसके दाने या बीज मसाले के रूप में प्रयुक्त होते हैं।
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बड़ी गोटी  : स्त्री० [?] चौपायों की एक बीमारी।
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बड़ी बात  : स्त्री० [हिं० ] कोई महत्त्वपूर्ण किंतु कठिन काम। जैसे—उन्हें रास्ते पर लाना कौन बड़ी बात है।
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बड़ी माता  : स्त्री० [हिं० बड़ी+माता] शीतला। चेचक। (पॉक्स)।
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बड़ी मैल  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जो बिलकुल खाकी रंग की होती है।
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बड़ी राई  : स्त्री० [हिं० बड़ी+राई] एक प्रकार की सरसों जो लाल रंग की होती है। लाही।
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बडूजा  : पुं०=बिड़ौजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़े लाट  : पुं० [हिं० बड़ा+अं० लाँर्ड] अंगरेजी शासन-काल में भारत का सर्व०-प्रमुख प्रधान शासक। गर्वनर जनरल।
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बँडेर  : स्त्री० [सं० वरदंड] वह बल्ला या शहतीर जिसके ऊपर छाजन का ठाठ स्थित होता है।
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बंडेरा  : पुं०=बँडेर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़ेरा  : वि० [हिं० बड़ा+रा (प्रत्यय)] [स्त्री० बड़ेरी] १. बड़ा। २. प्रधान। मुख्य। पुं० [सं० बड़ीभि, प्रा० बड़ीहि+रा] [स्त्री० अल्पा० बड़ेरी] कुएँ पर दो खम्भों के ऊपर ठहरायी हुई वह लकड़ी जिसमें घिरनी लगी रहती है। पुं० १.=बँडेर। २.=बवंडर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंडेरी  : स्त्री०=बंडेर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़ैल  : पुं० [हिं० बड़ा] जंगली सूअर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़ौखा  : पुं० [हिं० बड़ा+ऊख] एक प्रकार का गन्ना जो बहुत लम्बा और नरम होता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड़ौना  : पुं० [हिं० बड़ापन] १. बड़ाई। महिमा। २. प्रशंसा। तारीफ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड्ड  : वि०=बड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बड्डान  : अ०=बड़बड़ाना।
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बढ़  : वि० [हिं० बढ़ना] १. बढ़ा हुआ। २. अधिक। ज्यादा। ३. मूर्ख। ४. हिं० बढ़ना (क्रि० ) का विशेषण की तरह प्रयुक्त होने वाला संक्षिप्त रूप। स्त्री० १.=बढ़ती। २.=बाढ़।
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बढ़ई  : पुं० [सं० वर्द्धकि० प्रा० वडुइ] १. लकड़ी को छील तथा गढ़कर उसके उपयोगी उपकरण बनानेवाला कारीगर। २. उक्त कारीगरों की एक जाति या वर्ग। ३. रहस्य संप्रदाय में गुरु जो शिष्य रूपी कुन्दे को गढ़-छीलकर सुन्दर मूर्ति का रूप देता है।
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बढ़ई मधु-मक्खी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की मधु-मक्खी जिसका रंग काला और पंख नीले होते हैं। यह वृक्षों के काठ तक काट डालती है।
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बढ़ती  : स्त्री०=बढ़ती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बढ़ती  : स्त्री० [हिं० बढ़ना+ती (प्रत्यय)] १. बढ़ने, अथवा बढ़े हुए होने की अवस्था या भाव। २. गिनती तौल, नाप मान आदि में उचित या नियत से अधिक या बढ़ा हुआ अंश। ३. धन-धान्य परिवार आदि की वृद्धि। पद—बढ़ती का पहर=उन्नति और समृद्धि के दिन। ४. आवश्यकता, उपभोग, व्यय आदि की पूर्ति हो चुकने पर भी कुछ बच रहने की अवस्था या भाव। बचत। (रसप्लस) ५. मूल्य की वृद्धि। पद—बढ़ती से=अंश-पत्र, राज-ऋण, विनिमय आदि की दर के संबंध मे अंकित या नियत मूल्य की अपेक्षा कुछ अधिक मूल्य पर।
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बढ़ती-फसल  : स्त्री० [हिं०+अ] वह फसल जो अभी खेत में बढ़ रही हो, पर अभी पूरी तरह से तैयार न हुई हो। (ग्रोइंग क्रॉप)।
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बढ़न  : स्त्री० [हिं० बढ़ना] बढ़ने तथा बढ़े हुए होने की अवस्था या भाव। बढ़ती। वृद्धि।
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बढ़ना  : अ० [सं० वर्द्धन, प्रा० वड्ढन] १. आकार, क्षेत्र, विस्तार व्याप्ति सीमा आदि में अधिकता या वृद्धि होना। जितना या जैसा पहले रहा हो, उससे अधिक होना। जैसे—(क) पेड़-पौधों या बच्चों का बढ़ना। (ख) कर्मचारियों की छुट्टियाँ बढ़ना। (ग) दाढ़ी या नाखूनों का बढ़ना। २. परिमाण, मात्रा, संख्या आदि में अधिकता या वृद्धि होना। जैसे—(क) घर का खर्च बढ़ना। (ख) देश की जन-संख्या बढ़ना। (ग) नदी में जल बढ़ना। ३. कार्य-क्षेत्र, गुण आदि का विस्तार होना। व्याप्ति में अधिकता या वृद्धि होना। जैसे—(क) झगड़ा-तकरार या वैर-विरोध बढ़ना। (ख) प्रभाव-क्षेत्र या व्यापार बढ़ना। ४. तीव्रता, प्रबलता वेग शक्ति आदि में अधिकता या वृद्धि होना। जैसे—(क) किसी चलनेवाली चीज की चाल बढ़ना। (ख) रोग या विकार बढ़ना। ५. किसी प्रकार की उन्नति या तरक्की होना। जैसे—वह तो हमारे देखते-देखते इतना बढ़ा है। ६. आगे की ओर चलना या अग्रसर होना। जैसे—(क) आज-कल औद्योगिक क्षेत्र में अनेक पिछड़े हुए देश आगे बढ़ने लगे हैं। (ख) आका में गुड्डी या पतंग बढ़ना। (ग) तुम्हारें तो पैर ही नहीं बढ़ते। मुहावरा—बढ़ चलना=(क) उन्नति करना। (ख) अपनी योग्यता, सामर्थ्य आदि से अतिरिक्त आचरण या व्यवहार करना। (ग) अभिमान या ऐंठ दिखाना। इतराना। ७. प्रतियोगिता, होड़ आदि में किसी से आगे होना। जैसे—अब यह कई बातों में तुमसे बहुत आगे बढ़ गया है। ८. रोजगार या व्यापार में लाभ के रूप में धन प्राप्त होना। जैसे—चलो इस सौदे में हजार रुपए तो बढ़े।, अर्थात् हजार रुपए की आय या लाभ हुआ। ९. कुछ विशिष्ट प्रसंगों में मंगल-भाषित के रूप में कुछ समय के लिए किसी काम, चीज या बात का अन्त या समाप्ति होना। जैसे—(क) किसी स्त्री के हाथ की चूड़ियाँ बढ़ना, अर्थात् उतारी या तोड़ी जाना। (ख) दीया बढ़ना, अर्थात् बुझाया जाना, दुकान बढ़ना अर्थात् कुछ समय के लिए बन्द होना। स० बढ़ाना। विस्तृत करना। उदाहरण—स्रवन सुनत करुना सरिता भए बढैयो बसन उमंगी।—सूर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बढ़नी  : स्त्री० [सं० बर्द्धनी, प्रा० बड्ढनी] १. झाड़ू। बुहारी। कूचा। मार्जनी। २. वह अनाज या धन जो किसानों को खेती-बारी आदि के काम पर पेशगी दिया जाता और बाद में कुछ बढ़ाकर लिया जाता है। स्त्री० [हिं० बढ़ना] पेशगी। अग्रिम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बढ़वाना  : स० [हिं० बढ़ाना का प्रे०] किसी को कुछ बढ़ाने में प्रवृत्त करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बढ़वारि  : स्त्री०=बढ़ती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बढ़ा-बढ़ी  : स्त्री० [हिं० बढ़ना] १. आचरण, व्यवहार आदि में आवश्यकता या औचित्य से अधिक आगे बढ़ने की क्रिया या भाव। मर्यादा या सीमा का उल्लंघन। जैसे—इस तरह की बढ़ा-बढ़ी ठीक नहीं हैं। २. प्रतिद्वंद्विता। होड़।
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बढ़ाना  : स० [हिं० बढ़ाना का स०] १. किसी को बढ़ने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई बढ़े। २. कोई चीज या बात का विस्तार करते हुए उसे किसी दूर के बिन्दु समय आदि तक ले जाना। विस्तार अधिक करना। जैसे—(क) उपन्यास या कहानी का कथाभाग बढ़ाना। (ख) नौकरी की अवधि या समय बढ़ाना। (ग) धातु को पीटकर उसका तार या पत्तर बढ़ाना। ३. परिमाण, मात्रा, संख्या आदि में अधिकता या वृद्धि करना। जैसे—(क) किसी चीज की दर या भाव बढ़ाना। (ख) किसी का वेतन (या सजा) बढ़ाना। (ग) अपनी आमदनी बढ़ाना। ४. किसी प्रकार की व्याप्ति में विस्तार करना। जैसे—झगड़ा या वात बढ़ाना। कार-बार या रोजगार बढ़ाना। पद—बढ़ा-चढ़ाकर=(क) इतनी अधिकता करके कि अत्युक्ति के क्षेत्र तक जा पहुँचे। जैसे—बढ़ा-चढ़ाकर किसी की प्रशंसा करना या कोई बात कहना। (ख) उत्तेजित या उत्साहित करके। बढ़ावा देकर। जैसे—किसी को बढ़ा-चढ़ाकर किसी के साथ लड़ा देना। ५. जो चीज आगे चल या जा रही हो।, उसेक क्षेत्र गति आदि में अधिकता या वृद्धि करना। जैसे—(क) चलने में कदम या पैर बढ़ाना, अर्थात् जल्दी-जल्दी पर रखते हुए चलना (ख) गुड्डी या पतंग बढ़ाना अर्थात् उसकी डोर या नख इस प्रकार ढीली करना कि वह दूर तक जा पहुँचे। ६. गुण, प्रभाव, शक्ति आदि में किसी प्रकार की तीव्रता या प्रबलता उत्पन्न करना। जैसे—(क) किसी का अधिकार (या मिजाज) बढ़ाना। (ख) अपनी जानकारी या परिचय बढ़ाना। ७. जो चीज जहाँ स्थित हो, उसे वहाँ से आगे बढ़ने में प्रवृत्त करना। जैसे—जूलुस या बारात बढ़ाना। ८. प्रतियोगिता आदि में किसी की तुलना मे आगे ले जाना या श्रेष्ठ बनाना। जैसे—घुड़-दौड़ में घोड़ा आगे बढ़ाना। ९. किसी को यथेष्ठ उन्नत सफल या समृद्ध करना। उदाहरण—सूरदास करूणा-निधान प्रभु जुग जुग भगति बढ़ा दो।—सूर। १॰. कुछ प्रसंगों में मंगल-भाषित के रूप में कुछ समय के लिए किसी काम या चीज का अन्त या समाप्ति करना। जैसे—(क) चूड़ियाँ बढ़ाना-उतारना या तोड़ना। (ख) दीया बढ़ाना-बुझाना। (ग)दुकान बढ़ाना=बन्द करना। अ० खतम या समाप्त होना। बाकी न रह जाना। चुकाना उदाहरण—मेघ सबै जल बरखि बढ़ाने विधि गुन गये सिराई।—सूर।
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बढ़ार  : पुं० दे० ‘बड़हार’।
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बढ़ाली  : स्त्री० [देश] कटारी। कटार।
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बढ़ाव  : पुं० [हिं० बढ़ना+आव (प्रत्यय)] १. बढ़ने या बढ़े हुए होने की अवस्था या भाव। २. फैलाव। विस्तार। ३. मूल्य आदि की वृद्धि। ४. बढ़ती। बाढ़।
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बढ़ावन  : स्त्री० [हिं० बढ़ावना] गोबर की टिकिया जो बच्चों की नजर झाड़ने के काम में आती है।
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बढ़ावना  : स०=बढ़ाना।
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बढ़ावा  : पुं० [हिं० बढ़ाव] १. आगे बढ़कर कोई महत्त्वपूर्ण काम करने के लिए किसी को दिया जानेवाला प्रोत्साहन। २. प्रोत्साहित करने के लिए कही जानेवाली बात। क्रि० प्र०—देना।
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बढ़िया  : वि० [हिं० बढ़ना] (पदार्थ) जो गुण, रचना, रूप-रंग सामग्री आदि की दृष्टि से उच्च कोटि का हो। उम्दा। जैसे—बढ़िया कपड़ा, बढ़िया चावल, बढ़िया पुस्तक बढ़िया बात। पुं० १. गन्ने अनाज आदि की फसल का एक रोग जिससे कनखे नहीं निकलते और बढ़ाव बन्द हो जाता है। २. प्रायः डेढ़ नर की एक पुरानी तौल। ३. एक प्रकार का कोल्हू। स्त्री० १. एक प्रकार की दाल। २. जलाशयों आदि की बाढ़।
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बढ़ियार  : वि० [हिं० बढ़ना] (जलाशय या नदी) जिसमें बाढ़-आयी हो। जैसे—बढ़ियार गंगा। स्त्री० नदियों आदि में आनेवाली पानी की बाढ़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बढ़ेल  : स्त्री० [देश] हिमालय पर पाई जानेवाली एक प्रकार की भेड़।
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बढ़ेला  : पुं० [सं० वराह] बनैला सूअर। जंगली सूअर।
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बढ़ैया  : वि० [हिं० बढ़ाना, बढ़ना] १. बढ़ानेवाला। २. उन्नति करनेवाला। वि० [हिं० बढ़ना] बढ़नेवाला। उन्नतिशील। पुं०=बढ़ई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बढ़ोत्तरी  : स्त्री० [हिं० बाढ़+उत्तर] १. उत्तरोत्तर होनेवाली वृद्धि। बढ़ती। २. उन्नति। तरक्की। ३. व्यापार में होनेवाला लाभ।
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बणिक  : पुं० [स० वणिक्] १. वह जो वाणिज्य अर्थात् रोजगार या व्यापार करता हो। रोजगारी। व्यवसायी। व्यापारी। २. कोई विशिष्ट चीज बेचनेवाला सौदागर। ३. गणित, ज्योतिष में छठा करण।
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बणिक-पथ  : पुं० [सं० वणिक्पथ] १. वाणिज्य। २. व्यापार की चीजों की आमदनी। रफ्तनी। ३. व्यापारी। ४. दुकान। ५. तुला राशि।
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बणिक-सार्थ  : पुं० [सं० वणिकसार्थ] व्यापारियों का समूह।
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बणिग्बंधु  : पुं० [सं० वणिग्बन्धु] नील का पौधा।
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बणिग्वह  : पुं० [सं० वणिग्वड] ऊँट।
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बणिग्वृत्ति  : स्त्री० [सं० बणिग्वृत्ति] बणिक का पेशा। व्यापार।
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बणिज्  : पुं०=वणिक्।
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बणिज्वीथी  : स्त्री० [सं० वणिग्वीथी] बाजार।
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बत  : स्त्री० [हिं० बात का संक्षिप्त रूप] हिंदी ‘बात’ का संक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के आरम्भ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—बत-कही, बत-रस। स्त्री० [अ०] १. बतख की जाति की एक मौसमी चिड़िया जो मटमैले रंग की होती है। १. बत्तख।
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बत-कट  : वि० [हिं० बात+काटना] १. बाट काटने अर्थात् उसकी यथार्थता को चुनौती देनेवाला। २. किसी के बोलने के समय बीच में उसे बार-बार टोकनेवाला। उदाहरण—नस-कट खटिया बत-कट जोय।—घाघ।
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बत-कहाव  : पुं०=बत-कही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बत-कही  : स्त्री० [हिं० बात+कहना] १. साधारणतः केवल मन वहलाने या सम बिताने के लिए की जानेवाली इधर-उधर की बात-चीत। उदाहरण—करत बत-कही अनुज सम मन सिय-रूप लुभान।—तुलसी। २. बात-चीत की तरह का बहुत ही तुच्छ या साधारण काम। उदाहरण—दसकंधर मारीच बत-कही।—तुलसी। ३. बाद-विवाद। कहा-सुनी। तकरार। ४. झूठ-मूठ या मन से गढ़कर कही जानेवाली बात।
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बत-चल  : वि० [हिं० बात+चलाना] बकवादी। बक्की। स्त्री०=बात-चीत।
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बत-छुट  : वि० [हिं० बात+छूटना] बिना सोचे-समझे। अच्छी-बुरी सब तरह की बातें कह डालनेवाला।
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बत-धर  : वि० [हिं० बात+सं० धर=धारण करनेवाला] जो अपनी कही हुई बात या दिये हुए वचन का सदा पूरी तरह से पालन करता हो।
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बत-बढ़ाव  : पुं० [हिं० बात+बढ़ाव] १. बात बढ़ने अर्थात् झगड़ा खड़े होने की अवस्था या भाव। २. छोटी या तुच्छ बात को दिया जानेवाला विकट और विस्तृत रूप।
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बत-बाती  : स्त्री० [हिं० बात] १. बे-सिर पैर की बात। बकवाद। २. किसी से छेड़-छाड़ करने या घनिष्ठता बढ़ाने के लिए की जानेवाली बात-चीत। उदाहरण—कछुक अनूठे मिस बनाय ढिग आय करत बतबाती।—आनन्दघन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बत-रस  : पुं० [हिं० बात+रस] बातों से मिलनेवाला आनन्द।
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बत-रसिया  : वि० [हिं० बात+रसिया] १. हर बात में रस लेनेवाला। २. जिसे बहुत बात-चीत करने का चस्का हो। बातों का शौकीन।
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बत-वन्हा  : पुं० [देश] एक तरह की नाव।
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बतक  : स्त्री० [हिं० बत्तख] १. बत्तख की गरदन के आकार की एक प्रकार की सुराही जिसमें शराब रखी जाती थी। (राज० ) २. बत्तख नाम की चिड़िया।
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बतख  : स्त्री० [अ० बत] हंस की जाति की पानी की एक चिड़िया जिसका रंग सफेद पंजे झिल्लीदार और चोंच का अग्र भाग चिपटा होता है। और जिसके अंडे मुर्गी के अंडों से कुछ बड़े होते हैं।
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बतजामी  : स्त्री० [फा०] कुप्रबंध। अव्यवस्था।
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बतर  : वि०=बदतर।
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बतरान  : स्त्री० [हिं० बतराना] बातचीत।
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बतराना  : अ० [हिं० बात+आना (प्रत्यय)] बातचीत। करना। उदाहरण—हम जाने अब बात तिहारी सूधे नहीं बतराति।—सूर।
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बतरानि  : स्त्री०=बतरान। बात-चीत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बतरावनि  : स्त्री० [हिं० बतराना] १. बात-चीत। वार्तालाप। उदाहरण—‘ललित किसोरी’ फूल झरनि या मधुर-मधुर बतरावनि।—ललित किशोरी। २. बात-चीत करने का ढंग या प्रकार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बतरौहाँ  : वि० [हिं० बात] [स्त्री० बतरौही] बहुत बातें करनेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बतलाना  : स०=बताना। अ०=बतराना। (बात-चीत करना)।
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बताना  : स० [हिं० बात+ना (प्रत्यय) या सं० वदन=कहना] १. कोई बात कहकर किसी को कोई जानकारी या परिचय कराना। जैसे—तुम्हारी नौकरी लगने की बात मुझे उसी ने बतायी थी। २. कोई कठिन काम या बात इस प्रकार दिखलाना या समझाना कि उससे अनजानों का ज्ञान या योग्यता बढ़े। जैसे—(क) गुरु जी ने अभी तुम्हें व्याकरण का वषय नहीं बताया है। (ख) नौकर ने मालिक को खर्च का हिसाब बताया। ३. किसी प्रकार का निर्देश या संकेत करना। जैसे—किसी की ओर उंगली दिखाकर बताना। ४. नाच-गाने आदि के प्रसंग में ऐसी मुद्राएँ बनाना जो गीत के भाव के अनुरूप या उनकी स्पष्ट परिचायक हों। जैसे—वह गाता (या नाचता) तो उतना अच्छा नहीं हैं, पर भाव बहुत अच्छा बताता है। मुहावरा—भाव बताना=किसी काम या बात के समय स्त्रियों के से हाव-भाव प्रदर्शित करना। ५. किसी को धमकाते हुए यह आशा प्रकट करना कि हम तुम्हारा अभिमान दूर कर देंगे या तुम्हारी बुद्धि ठिकाने कर देंगे। जैसे—अच्छा किसी दिन तुम्हें भी बताऊँगा। ६. दिखलाना। जैसे—बावली को आग बताई उसने ले घर में लगाई। (कहा० )। पुं० [सं० वर्तक=एक धातु] १. हाथ में पहनने का कड़ा। २. वह फटा-पुराना या साधारण कपड़ा जो पगड़ी बाँधने से पहले यों ही सिर पर इसलिए लपेट लिया जाता है कि बालों से पगड़ी गंदी या मैली न होने पावे।
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बताशा  : पुं०=बतासा।
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बतास  : स्त्री० [सं० बातास] १. बात के प्रकोप के कारण होनेवाला गठिया नामक रोग। क्रि० प्र०—घरना।—पकड़ना।२. वायु। हवा।
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बतासना  : अ० [हिं० बतास] हवा चलना या बहना। (पूरब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बतासफेनी  : स्त्री० [हिं० बतासा+फेनी] टिकिया के आकार की एक मिठाई।
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बतासा  : पुं० [हिं० बतास=हवा] १. एक प्रकार की मिठाई जो चीनी की चाशनी टपकाकर बनायी जाती है और जो फूल की तरह फूली हुई और बहुत हलकी होती है। २. एक प्रकार की छोटी आतिशबाजी जो मिट्टी के कसोरे में मसाला बनायी जाती है। ३. पानी का बुलबुला।
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बतासी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की कालापन लिए हुए खैरे रंग की चिड़िया जिसकी आँख की पुतली गहरी-भूरी चोंच काली और पैर ललछौह होते हैं।
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बतिया  : स्त्री० [सं० वर्तिका, प्रा० बत्तिआ=बत्ती] सब्जी के काम में आनेवाला कोई छोटा कच्चा ताजा हरा फल। जैसे—कद्दू या बैगन की बतिया। स्त्री०=बात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बतियाना  : अ० [हिं० बात] बातचीत करना।
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बतियार  : स्त्री० [हिं० बात] बातचीत।
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बतीसा  : पुं० [हिं० बत्तीस] [स्त्री० अल्पा० बत्तीसी] १. बत्तीस वस्तुओं का समाहार या समूह। २. बत्तीस दवाओं और मेवों के योग से बनाया हुआ लड्डू या हलवा जो प्रसूता को पुष्टि के लिए खिलाया जाता है। ३. दाँत से काटने का घाव या चिन्ह।
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बतीसी  : स्त्री०=बत्तीसी।
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बतू  : पुं०=कलाबत्तू।
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बतोला  : पुं० [हिं० बात+ओला (प्रत्यय)] १. धोखा देने के उद्देश्य से कही जानेवाली बात। २. झांसा। मुहावरा—बतोले बनाना=(क) बातें बनाना। (ख) भुलावा देना।
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बतौर  : अव्य० [अ०] १. (किसी की) तरह पर। रीति से। तरीके पर। २. के सदृश। के समान।
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बतौरी  : स्त्री० [?] रसौली।
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बतौल-कुंती  : स्त्री० [हिं० बात] कान में बातचीत करने की नकल जो बंदर करते हैं। (कलंदर)।
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बत्त  : स्त्री०=बात।
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बत्तक  : स्त्री०=बत्तख।
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बत्तर  : वि०=बदतर।
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बत्तरी  : स्त्री०=बात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बत्ता  : पुं० [सं० बर्त्तक] सरकंडे के वे मुट्ठे जो छाजन के छप्पर के अगले भाग में बाँधे जाते हैं।
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बत्तिस  : वि०=बत्तीस।
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बत्ती  : स्त्री० [सं० वर्ति, प्रा० बत्ति] १. प्रकाश के निर्मित जलाया जानेवाला सूत, रूई, कपड़े आदि का बटा हुआ लम्बोतरा लच्छा जो तेल आदि से भरे हुए दीए में रखा जाता है। मुहावरा—बत्ती चढ़ाना=शमादान में मोमबत्ती लगाना। (बत्ती जलाना=अँधेरा होने पर प्रकाश के लिए दीपक जलाना। (किसी चीज में) बत्ती लगाना-पूरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट करना। जैसे—वह लाखों रुपए की सम्पत्ति में बत्ती लगाकर कंगाल हो गया। ३. दीपक। चिराग। ४. रोशनी प्रकाश। मुहावरा—बत्ती दिखाना=प्रकाश दिखाना। ५. लपेटा हुआ चीथड़ा जो किसी वस्तु में आगे लगाने के काम में लाया जाय। फलीता। पलीता। ६. बत्ती के आकार-प्रकार की कोई गोलाका लम्बी चीज। जैसे—घाव में भरने की बत्ती लाह की बत्ती। ७. छाजन में लगाने का फूस आदि का पूला। ८. कपड़े की वह लम्बी धज्जी जो घाव में मवाद साफ करने के लिए भरते हैं। ९. सौंफ आदि पर गंध-द्रव्य का ज्वलनशील पदार्थ लपेटकर बनायी जानेवाली बत्ती जो पूजन यादि के समय जलायी जाती है। जैसे—अगरबत्ती, धूपबत्ती, मोमबत्ती। १॰. पगड़ी या चीरे का ऐंठा या बटा हुआ कपड़ा। ११. कपड़े के किनारे का वह भाग जो सीने के लिए मरोड़कर बत्ती के रूप में लाया जाता है।
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बत्तीस  : वि० [सं० द्वाविंशत, प्रा० बत्तीसा] गिनती या संख्या में जो तीस से दो अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार (३२) लिखी जाती है।
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बत्तीसा  : पुं०=बतीसी।
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बत्तीसी  : स्त्री० [हिं० बत्तीस] १. एक ही तरह की बत्तीस चीजों का समूह। २. मनुष्य के मुँह से ३२ दाँतों का समूह। मुहावरा—बत्तीसी खिलना=मुँह पर स्पष्ट रूप से हँसी दिखायी देना। (किसी की) बत्तीसी झाड़ना=इतना मारना कि सब दाँत टूट जाएँ। बत्तीसी दिखाना=निर्लज्जतापूर्वक हँसना। बत्तीसी बजना=सरदी के कारण दाँतों का काँपकर कटकट शब्द करना।
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बत्रीस  : वि० पुं०=बत्तीस।
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बथना  : अ० [सं० व्यथा] पीड़ा या दर्द होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बथान  : पुं० [सं० वास+स्थान] १. पशुओं के बाँधे जाने की जगह। पशु-शाला। २. गिरोह। झुंड। स्त्री० [हिं० बथना] पीड़ा। दर्द। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बथिया  : स्त्री० [?] सूखे गोबर का ढेर।
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बथुआ  : पुं० [सं० वास्तुक, पा० बात्थुआ] १. मोटे, चिकने हरेरंग के पत्तोंवाला एक पौधा जो १ से ४ हाथ तक ऊँचा होता है तथा गेहूँ जौ आदि के खेतों मे अधिक होता है। २. उक्त के पत्ते अथवा उनका बना हुआ साग।
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बथ्य  : स्त्री० [सं० वस्तु] चीज़।
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बंद  : पुं० [सं० बंध से फा०] १. वह चीज जो किसी दूसरी चीज को बाँधती हो। जैसे—डोरी रस्सी आदि। २. लोहे आदि की वह लम्बी पट्टी जो बड़ी-बड़ी गठरियों संदूकों आदि पर इसलिए रक्षा के विचार से बाँधी जाती है ताकि माल बाहर भेजते समय उसमें से कुछ चुराया या निकाला न जा सके। ३. किसी प्रकार की लम्बी धज्जी या पट्टी। जैसे—कपड़े या कागज का बन्द। ४. वास्तु रचना में, पत्थर की वह पटियाँ या पत्थरों की वह श्रृंखला जो दीवारों में मजबूती के लिए लगाई जाती है और जिसके ऊपर फिर दीवार उठायी जाती है। ५. पानी की बाढ़ आदि रोकने के लिए बनाया जानेवाला घुस्स। बाँध। ६. फीते की तरह सी कर बनायी हुई कपड़े की वह डोरी या फीता जिससे अँगरखे चोली आदि के पल्ले आपस में बाँधे जाते हैं। ७. कागज धातु आदि की पतली लम्बी धज्जी। पट्टी। ८. लाक्षणिक रूप में किसी प्रकार का नियंत्रण या बंधन। जैसे—बंदे के जाये बंदी में नहीं रहते। ९. उर्दू कविता में वह पद या पाँच या छः चरणों का होता है। १॰. कविता का कोई चरण या पद। ११. शरीर के अंगों का जोड़ या संधिस्थान। जैसे—बंद बंद जकड़ना या ढीला होना। १२. कोई काम कौशलपूर्वक करने का गुण, योग्यता या शक्ति। १३. तरकीब। युक्ति। उदाहरण—कस्बोहुनर के याद हैं जिनको हजार बन्द।—नजीर। वि० १. (पदार्थ या व्यक्ति) जो चारों ओर से घिरा या रुका हुआ हो। जैसे—(क) कोठरी में सब सामान बन्द है। (ख) पुलिस ने उसे थाने में बन्द कर रखा है। २. (स्थान) जो चारों ओर से खुलता या खुला हुआ न हो फलतः जो इस प्रकार घिरा हो कि उसके अन्दर कुछ या कोई आ-जा न सके। जैसे—वह मकान जो चारों तरफ से बन्द हैं, अर्था्त उसमें प्रकाश, वायु आदि के आने का यथेष्ठ मार्ग नहीं हैं। ३. (स्थान) जिसके अन्दर लोगों के अन्दर आने जाने की मनाही या रुकावट हो। जैसे—जन-साधारण के लिए किला आज-कल बन्द हो गया है। ४. (किसी प्रकार का मार्ग या रास्ता) जो अवरुद्ध हो अर्थात् जिसके आगे ढकना, ताला दरवाजा या ऐसी ही कोई और बाधक चीज या बात लगी हो जिसके कारण उसके अन्दर पहुँचना या बाहर निकलना न हो सकता हो। जैसे—नाली का मुँह बन्द हो गया है, जिससे छत पर पानी रुकता है। ५. ढकने, दरवाजे पल्ले आदि के संबंध में जो इस प्रकार भेड़ा या लगाया गया हो कि आने-जाने या निकालने रखने क रास्ता न रह जाय। जैसे—कमरा (या संदूक) बन्द कर दो। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग ढकने, दरवाजे आदि के संबंध में भी होता है और उस चीज के संबंध में भी जिसके आगे वे लगे रहते हैं। ६. शरीर के अंगों, यंत्रों आदि के संबंध में जिनकी क्रिया या व्यापार पूरी तरह से रुक गया हो अथवा रोक दिया गया हो। जैसे—(क) बुढ़ापे के कारण उनके कान बन्द हो गये हैं। (ख) घोड़े के पिछले पैर दो दिन से बन्द है अर्थात् ठीक तरह से हिल-डुल नहीं सकते। (ग) पानी की कल (या बिजली) बन्द कर दो। ७. किसी प्रकार के मुख या विवर के संबंध में जिसका अगला भाग अवरूद्ध या सम्पुटित हो। जैसे—(क) कमल रात में बन्द हो जाता है और दिन में खुलता( या खिलता) है। (ख) थोड़ी मिट्टी डालकर यह गड्ढा बन्द कर दो। ८. (कार्य करने का स्थान) जहाँ अस्थायी या स्थायी रूप से कार्य रोक दिया गया हो या स्थगित हो चुका हो। जैसे—(क) जाड़े में रात को ९ बजे सब दुकानें बन्द हो जाती है। जैसे—(ख) उनका छापाखाना (या विद्यालय) बहुत दिनों से बंद पड़ा है। ९. कोई ऐसा कार्य, गति या व्यापार जो चल न रहा हो बल्कि थम या रूक गया हो। जैसे—(क) अब थोड़ी देर में वर्षा बन्द हो जायगी। (ख) उन्होंने प्रकाशन का काम बन्द कर दिया है। १॰. (व्यक्ति) जो अक्रिय तथा उदास होकर बैठा हो। (क्व० ) जैसे—आज-सबेरे से तुम इस तरह बन्द से क्यों बैठे हो। ११. लेन-देन या हिसाब-किताब जिसके व्यवहार का अन्त हो चुका हो। जैसे—आज-कल हमारा सारा लेन-देन बन्द है। १२. (व्यक्ति) जिसके साथ समाजिक व्यवहार का अन्त हो चुका हो। जैसे— वह साल भर से बिरादरी से बन्द है। १३. कोई परिमित अवधि जिसकी समाप्ति हो गयी हो या हो चली हो। जैसे—एक दो दिन में यह महीना (या साल) बन्द हो रहा है। १४. शस्त्रों की धार आदि के संबंध में जिसमें कार्य करने की शक्ति न रह गयी हो, जो कुंठित हो गया ह। जैसे—यह चाकू (या कैंची) तो बिलकुल बन्द हैं, अर्थात् इससे काटने या कतरने का काम नहीं हो सकता। वि० शब्दों के अन्त में प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त होने पर जड़ने बाँधने या लगाने वाला। जैसे—कमर-बन्द, नालबन्द, नैचा बन्द। वि०=वंद्य (वंदनीय)। पुं०=विंदु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बद  : स्त्री० [सं० वर्धन=गिल्टी] १. आतशक या गरमी की बीमारी के कारण या यों ही सूजी हुई जाँघ पर की गिल्टी। गोहिया। बाघी। २. चौपायों का एक संक्रामक रोग जिसमें उनके मुँह से लार बहती है और खुर तथा मुँह में दाने पड़ जाते हैं। वि० [फा०] [भाव० बदी] १. खराब बुरा। २. दुराचारी। ३. दुष्ट। पाजी। स्त्री० [हिं० बदना] १. पलटा। बदला। एवज। जसे—इसके बद में कुछ और दे दो। २. किसी का निश्चित पक्ष। जैसे—दो गाँठ रूई हमारी बद की भी खरीद लो, अर्थात् उसके घाटे-नफे के हम जिम्मेदार रहेंगे।
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बद-अमली  : स्त्री० [फा० बद+अ० अमल] राज्य या शासन का कुप्रबन्ध। शासनिक अव्यवस्था। अराजकता।
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बद-गुमान  : वि० [फा०] [भाव० बद-गुमानी] जिसके मन में किसी के प्रति बुरी धारणा हो।
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बद-गुमानी  : स्त्री० [फा०] किसी के प्रति होनेवाली बुरी धारणा।
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बद-गो  : वि० [फा०] [भाव० बदगोई] १. दूसरों की निन्दा या बुराई करनेवाला। २. चुगलखोर। ३. गालियाँ बकनेवाला।
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बद-गोई  : स्त्री० [फा०] १. किसी के संबंध में बुरी बात कहना। निंदा या निदा करने की क्रिया या भाव। २. बदनामी। ३. चुंगलखोरी। ४. गाली-गलौच।
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बंद-गोभी  : स्त्री० [हिं० बंद+गोभी] १. कमरकल्ला। पातगोभी का पौधा। २. उक्त पौधे का फल जिसकी तरकारी बनायी जाती है
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बद-चलन  : वि० [फा०] [भाव० बद-चलनी] १. बुरे रास्ते पर चलनेवाला। २. दुश्चरित्र। ३. वेश्यागामी।
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बद-चलनी  : स्त्री० [फा०] बद-चलन होने की अवस्था या भाव।
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बद-जबान  : वि० [फा० बद-जबान] [भाव० बद-जवानी] १. अनुचित गंदी या दूषित बातें करनेवाला। २. गाली-गलौच करनेवाला।
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बद-तमीज  : वि० [फा० बद+तमीज] [भाव० बदतमीजी] शिष्टाचार और सलीके का ध्यान न रखते हुए अनुचित आचरण या व्यवहार करनेवाला (व्यक्ति)।
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बद-तमीजी  : स्त्री० [फा० बदतमीजी] १. बदतमीज होने की अवस्था या भाव। २. शिष्टाचार और सलीके से रहित कोई अशोभनीय आचरण या व्यवहार।
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बद-दिमागी  : स्त्री० [फा०+अ०] १. जरा सी बात पर बुरा मानने की आदत। २. अहंकार।
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बद-दुआ  : स्त्री० [फा०+अ०] ऐसी अहित कामना जो शब्दों के द्वारा प्रकट की जाय। शाप। क्रि० प्र०—देना।
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बद-नसीब  : वि० [फा०+अ०] [भाव० बद-नसीबी] बुरे नसीबवाला। अभागा।
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बद-नसीबी  : वि० [फा०] दुर्भाग्य।
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बद-नीयत  : वि० [फा० बद+अं० नीयत] [भाव० बदनीयती] १. जिसकी नीयत बुरी हो। जो सदाशय न हो। बुरे भाववाला। २. लोभी। लालची। ३. बेईमान।
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बद-परहेज  : वि० [फा० बद-परहेज] [भाव० बद-परहेजी] व्यक्ति जो ऐसी चीजों का भोग करता हो। जो उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों और जिनसे उसे वस्तुतः परहेज करना चाहिए।
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बद-परहेजी  : स्त्री० [फा० बद-परहेजी] १. परहेज न करने की अवस्था या भाव। बीमार का खाने-पीने में परहेज न करना। २. कुरूप का भोग।
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बद-बला  : स्त्री० [फा०] चुडैल। डाइन। वि० १. चुडैल या डाइन की तरह का। २. दुष्ट। ३. उपद्रवी।
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बद-बाछ  : पुं० [फा० बद+हिं० बाछ] बेईमानी या अनुचित रूप से प्राप्त किया जानेवाला हिस्सा।
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बद-मजगी  : स्त्री०=[फा० बदमजगी] ‘बद-मजा’ होने की अवस्था या भाव।
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बद-मजा  : वि० [फा० बदमजा] [भाव० मदमजगी] १. (वस्तु) जिसका मजा अर्था्त स्वाद बुरा हो। २. (स्थिति आदि) जिसके रंग में भंग पड़ गया हो फलतः पूरा-पूरा आनन्द न मिल रहा हो।
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बद-मस्त  : वि० [फा०] [भाव० बदमस्ती] १. मदोन्मत्त। २. कामोन्मत्त।
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बद-मिजाज  : वि० [फा० बदमिजाज] [भाव० बदमिजाजी] (व्यक्ति) जो चिड़चिड़े स्वभाव का हो।
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बद-मिजाजी  : स्त्री० [फा० बद+मिजाजी] बुरा स्वभाव। चिड़चिड़ापन।
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बद-राह  : वि० [फा०] बुरे रास्ते पर चलनेवाला। कुमार्गी। २. दुष्ट। पाजी।
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बद-लगाम  : वि० [फा०] जिसके मुँह में लगाम न हो, अर्थात् जिसे भला-बुरा कहने में संकोच न हो। मुँहजोर। मुँहफट।
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बद-शकल  : वि० [फा० बदशकल] [भाव० बदशकली] बुरी और भद्दी शक्ल-सूरत का। कुरूप। बेडौल।
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बद-हाल  : वि० [फा०+अ०] [भाव० बदहाली०] १. दुर्दशाग्रस्त। रोग से आक्रांत और पीड़ित। ३. कंगाल।
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बदइंकार  : वि० [फा०] [भाव० बदकारी] १. बुरा काम करनेवाला। कुकर्मी। २. दुराचारी।
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बंदक  : वि० १.=वंदक (वंदना करनेवाला)। २. बंधक (बाँधनेवाला)। वि० [हिं० बंद+क(प्रत्यय)] बन्द करनेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदकारी  : स्त्री० [फा०] १. कुकर्म। २. व्यभिचार।
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बदकिस्मत  : वि० [फा० बंद+अ० किस्मत] बुरी किस्मतवाला फूटे भाग्यवाला अभागा।
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बदखत  : वु० [फा० बदखत] [भाव० बदखती] लिखने में जिसके अक्षर सुन्दर और स्पष्ट न होते हों।
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बदख्वाह  : वि० [फा० बदख्वाह] [भाव० बदख्वाही] १. बुराई चाहनेवाला। २. जो शुभचिंतक न हो।
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बंदगी  : स्त्री० [फा०] १. किसी के सामने यह मान लेना कि मैं बन्दा (सेवक) हूँ और आप मालिक (स्वामी) हैं। अधीनता और दीनता स्वीकृत करना। २. मन में उक्त प्रकार का भाव या विचार रखकर की जानेवाली ईश्वर की वंदना। ईश्वरारधन। ३. किसी को आदरपूर्वक किया जानेवाला अभिवादन। नमस्कार। सलाम। ४. आज्ञा-पालन। ५. टहल। सेवा। उदाहरण—जैसी बन्दगी वैसा इनाम।—(कहा०)
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बदजात  : वि० [फा० बद+अ० जात] [भाव० बदजाती] अधम। नीच।
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बदतर  : वि० [फा०] बुरे से बुरा। बहुत बुरा।
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बददिमाग  : वि० [फा०+अ,] [भाव० बद-दिमागी] १. जरा सी बात पर बुरा मान जानेवाला (व्यक्ति) २. अभिमानी। घमंडी।
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बंदन  : पुं० [सं० बंदगी-गोरोचन] १. रोचन। रोली। २. ईंगुर सिंदूर। पुं०=वंदन।
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बदन  : पुं० [फा०] तन। देह। शरीर। मुहावरा—बदन टूटना-शरीर की हड्डियों विशेषतः जोड़ों में पीड़ा होना। अंग-अंग में पीड़ा होना। बदन तोड़ना-पीड़ा के कारण अंगों तो तानना और खींचना। तन-बदन की सुध न रहना-(क) अचेत रहना। बेहोश रहना। (ख) इतना ध्यानस्थ रहना कि आस-पास की बातों का कुछ भी पता न चले। पुं० [सं० बदन] मुख। चेहरा। जैसे—गज-बदन। स्त्री० [हिं० बदना] कोई बात बदने की क्रिया या भाव। बदान। उदाहरण—बदन बदी थी रंग-महल की टूटी मँडैया में ल्याइ उतारयो (गीत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदन-तौल  : स्त्री० [फा० बदन+हिं० तौल] मालखंभ की एक कसरत जिसमें हत्थी करते समय मालखंभ को एक हाथ से लपेटकर उसीं के सहारे सारा बदन ठहराते या तौलते हैं।
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बदन-निकाल  : पुं० [फा० बदन+हिं० निकालना] मालखंभ की एक कसर जिसमे मालखंभ के पास खड़े होकर दोनों हाथों की कैंची बाँधते हैं।
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बंदनवान  : पुं० [सं० बंधन] कारागार का प्रधान अधिकारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंदनवार  : पुं० [सं० वंदनमाला] आम, अशोक आदि की पत्तियों को किसी लम्बी रस्सी में जगह-जगह टाँकने पर बननेवाली श्रृखला जो शुभ अवसरों पर दरवाजों, दीवारों आदि पर लटकायी जाती है। तोरण।
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बंदनसाल  : स्त्री० [सं० बंधन+शाला] कारागार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंदना  : स० [सं० वंदन] १. वंदना या आराधना करना। २. नमस्कार या प्रणाम करना। स्त्री०=वंदना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदना  : स० [सं०√बद्=कहना] १. कथन या वर्णन करना। कहना। २. बात करना। बोलना ३. दृढ़ता या निश्चयपूर्वक कोई बात कहना। पद—बदकर या कह-बदकर-(क) बहुत ही दृढ़ता या निश्चयपूर्वक कहकर। जैसे—वह कह-बदकर कुश्ती जीतता है। (ख) दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़कर। ४. प्रणाम के रूप में मानना। ठीक समझना। सकारना। उदाहरण—औरहू न्हायो सु मैं न बदी, जब नेह-नदी में न दी पग—आँगुरी।—नागरीदास। ५. आपस में नियत, निश्चित या पक्का करना। ठहराना। जैसे—दोनों पहलवानों की कुश्ती बदी गयी है। उदाहरण—(क) बदन बदी थी रंग-महल की टूटी मँडैया में ल्याइ उतारयो। (ख) अवधि बदि सैयाँ अजहूँ न आवे।—गीत। ६. किसी प्रकार की प्रतिद्वन्द्विता या होड़ के संबंध में बाजी या शर्त लगाना। जैसे—तुम तो बात-बात में शर्त बदने लगते हो। ७. बड़ा या महत्व का मानना उदाहरण—हिरदय में से जाइयौ, मरद बदौंगो तोहि। ८. किसी को किसी गिनती या लेखे में समझना। ध्यान में लाना। मान्य समझना। जैसे—यह तो तुम्हे कुछ भी नहीं बदता। उदाहरण—(क) सकति सनेहु कर सुनति करीऐ मै न बदउँगा भाई।—कबीर। (ख) बदतु हम कौं नेकु नाँही मरहिं जौ पछिताहिं।—सूर। १॰. नियत या मुकर्रर करना। जैसे—किसी को अपना गवाह बदना। अ० पहले से नियत निश्चित या स्थिर होना। जैसे—जो भाग्य में बदा होगा। वही होगा।
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बदनाम  : वि० [फा०] [भाव० बदनामी] जिसका बुरा नाम फैला हो, अर्थात् कुख्यात।
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बदनामी  : स्त्री० [फा०] वह गर्हित या निन्दनीय लोक-चर्चा जो कोई अनुचित या बुरा काम करने पर समाज में विपरीत धारणा फैलने के कारण होती है। अपकीर्ति। कुख्याति। लोक-निंदा। (स्कैडल)। क्रि० प्र०—फैलना।-फैलाना।
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बंदनी  : स्त्री० [सं० वंदनी=माथे पर बनाया हुआ चिन्ह] स्त्रियों का एक आभूषण जो सिर पर आगे की ओर पहना जाता है। इसे बंदी या सिरबंदी भी कहते हैं। वि०=वंदनीय। जैसे—जग-बंदनी।
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बदनी  : वि० [फा०] १. शारीरिक। २. शरीर से उत्पन्न। पुं० [हिं० बदना] एक तरह का शर्तनामा जिसके अनुसार किसान अपनी फसल बाजार भाव से कुछ सस्ते मूल्य पर महाजन को उससे लिए हुए ऋण के बदले में देता है।
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बंदनीमाल  : स्त्री० [सं० बंदनमाला] वह लम्बी माला जो गले से पैरों तक लटकती हो। घुटनों तक लटकती हुई लम्बी माला।
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बदनीयती  : वि० [फा०+अं०] १. नीयत बुरी होने की अवस्था या भाव। २. लालच। ३. बेईमानी।
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बदनुमा  : वि० [फा० बद=बुरा+नुमा=दिखनेवाला] [भाव० बदनुमाई] जो देखने में कुरूप, भद्दा या भोड़ा हो।
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बदफेल  : वि० [फा० बद+अ० फेल] [भाव० बद-फेली] दुष्कर्म करनेवाला। दुष्कर्मी।
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बदफेली  : स्त्री० [फा० बद+अ० फेली] १. दुष्कर्म। २. पर-स्त्री के साथ किया जानेवाला सम्भोग।
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बदबख्त  : वि० [फा० बदख्त] [भाव० बदबख्ती] अभागा।
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बदबख्ती  : स्त्री० [फा० बदबख्ती] अभागापन।
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बदबू  : स्त्री० [फा०] बुरी गन्ध या दुर्गन्ध। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—निकलना।—फैलना।
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बदबूदार  : वि० [फा०] जिसमें से बुरी बास निकल रही हो। दुर्गन्धयुक्त।
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बदमस्ती  : स्त्री० [फा०] १. बद-मस्त होने की अवस्था या भाव। २. नशा।
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बदमाश  : वि० [फा० बद+अ० मआश-जीविका] [भाव० बदमाशी] १. जिसकी जीविका बुरे काम से चलती हो। २. बुरे और निकृष्ट काम करनेवाला। दुर्वृत्त। ३. कुपथगामी। बदचलन। ४. गुंडा और लुच्चा।
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बदमाशी  : स्त्री० [फा० बद+अ० मआशी] १. बदमाश होने की अवस्था या भाव। २. बदमाश का कोई कार्य। ३. कोई ऐसा कार्य जो लड़ाई-झगड़ा करने अथवा किसी के अहित के उद्देश्य से जान-बूझकर किया जाय। ४. व्यभिचार।
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बंदर  : पुं० [सं० वानर] [स्त्री० बँदरिया, बँदरी] १. एक प्रसिद्ध स्तनपायी चौपाया जो अनेक वृक्षों आदि पर रहता है। कपि। मर्कट। शाखा-मृग। पद—बंदर का घाव=दे० ‘बंदर-खत’ बंदर घुड़की या बंदर भभकी=बंदरों की तरह डराते हुए दी जानेवाली ऐसी धमकी जो दिखावे भर की हो, पर जो पूरी न की जाय। २. राजा सुग्रीव की सेना का सैनिक। पुं० [फा०] बंदरगाह।
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बदर  : पुं० [सं०√बद् (स्थिर होना)+अरच्] १. बेर का पेड़ या फल। २. कपास। ३. बिनौला। क्रि० वि० [फा०] दरवाजे पर। जैसे—दर-बदर भीख माँगना। मुहावरा—(किसी को) बदर करना-=घर से निकालकर दरवाजे के बाहर कर देना। जैसे—किसी को शहर बदर करना अर्थात् इसलिए दरवाजे तक पहुँचा देना कि वह जहाँ चाहे चला जाय, परन्तु लौटकर न आये। (किसी के नाम) बदर निकालना=किसी के जिम्में रकम बाकी निकालना। किसी के हिसाब मे उसके नाम बाकी बताना।
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बंदर-खत  : पुं० [हिं० बंदर+क्षत-घाव] १. बन्दर के शरीर में होनेवाला घाव जिसे प्रायः नोच-नोच कर बढ़ाता रहता है। २. ऐसा कार्य या बात जिसकी खराबी या बुराई जान-बूझकर बढ़ायी जाय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदर-नवीसी  : स्त्री० [फा०] १. हिसाब-किताब की जाँच। २. हिसाब-किताब में से गड़बड़ रकमें छाँटकर निकाल अलग करना।
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बंदर-बाँट  : स्त्री० [हिं० बंदर+बाँटना] न्याय के नाम पर किया जानेवाला ऐसा स्वार्थपूर्ण बँटवारा जिसमें न्याकर्ता सब कुछ स्वयं हजम कर लेता है और विवादी पक्षों को विवाद-ग्रस्त सम्पत्ति में से कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
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बदरंग  : वि० [फा० ] १. बुरे रंगवाला। २. जिसका रंग उड़ गया हो या फीका पड़ गया हो। ४. विवर्ण। ४. खराब। खोटा। ५. (ताश के खेलमें वह व्यक्ति) जिसके पास किसी विशिष्ट रंग का पत्ता न हो। पं० १. बदरंगी। २. चौसर के खेल में वह गोटी जो रंग न हुई हो, अर्थात् पूगनेवाले घर में न पहुँची हो।
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बंदरगाह  : पुं० [फा०] समुद्र के किनारे का वह स्थान जहाँ जहाज ठहरते हैं।
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बदरंगी  : स्त्री० [फा०] १. रंग का फीकापन या भद्दापन २. ताश के खेल में किसी विशिष्ट रंग के पत्ते न होने की स्थिति।
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बँदरा  : पुं० दे० ‘बनरा’। २. दे० ‘बन्दर’।
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बदरा  : स्त्री० [फा० बदर+टाप्] वराह क्रांति का पौधा। पुं०=बादल (मेघ)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदराई  : स्त्री०=बदली (आकाश की मेघाच्छन्नता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदरामलक  : पुं० [सं० उपमि० स०] पानी आमला।
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बदरि  : पुं० [सं०√बद् (स्थिर होना)+अरि, बा०] १. बेर का पेड़। उक्त पेड़ का फल।
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बदरिका  : स्त्री० [सं० बदरी+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. बेर का पेड़ और उसका फल। बदरि। २. गंगा का उद्गम स्थान तथा उसके आस-पास का क्षेत्र।
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बदरिकाश्रम  : पुं० [सं० बदरिका-आश्रम, मध्य० स०] उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जिले के अन्तर्गत एक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल जहाँ किसी समय नर-नारायण ऋषियों ने तपस्या की थी।
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बंदरिया  : स्त्री० [हिं० ] बंदर का स्त्री० रूप।
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बंदरी  : स्त्री० [फा० बन्दर] १. बन्दर या बन्दरगाह-संबंधी। २. बन्दरगाह में होकर आनेवाला अर्थात् विदेशी। जैसे—बंदरी तलवार। स्त्री० हिं० बन्दर (जानवर) का स्त्री। मादा बन्दर।
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बदरी  : स्त्री० [सं० बदर+ङीष्] बेर का पेड़ और उसका फल। बदरि। स्त्री०=बदली। स्त्री० [देश] १. थैली। २. बोझ। ३. माल का बाहर भेजा जाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदरी-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. बदरिकाश्रम नाम का तीर्थ। २. उक्त तीर्थ के देवता या उनकी मूर्ति।
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बदरी-नारायण  : पुं० [सं० ष० त०] बदरी-नाथ।
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बदरी-पत्रक  : पुं० [सं० ब० स०+कन्] एक प्रकार का सुगन्ध द्रव्य। नखरी।
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बदरी-वन  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहां बेर के बहुत से फेड़ हैं। २. बदरिकाश्रम।
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बदरीच्छद  : पुं० [सं० ब० स०] एक तरह का गंध द्रव्य।
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बदरीफला  : स्त्री० [सं० ब० स०] नील शेफालिका का वृक्ष और उसका फल।
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बदरीबण  : पुं०=बदरीवन।
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बदरुन  : पुं० [?] पत्थर या लकड़ी में की जानेवाली एक प्रकार की जालीदार नक्काशी जिसमें बहुत से कोने होते हैं।
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बदरोब  : वि० [फा०+अ०] [भाव० बदरोबी] १. जिसका रोब होना तो चाहिए, फिर भी कुछ रोब न हो २. तुच्छ। ३. भद्दा।
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बदरौनक  : वि० [फा० बदरौनक़] १. जिसमें कोई शोभा न हो। श्री-हीन। २. उजाड़।
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बदरौंह  : वि० [फा० बदरी] बदचलन। बदराह। पुं० [हिं० बादल] आकाश में छाये हुए हलके बादल।
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बदल  : पुं० [अ०] १. बदलने की क्रिया या या भाव। २. बदले में दी हुई वस्तु। ३. पलटा। प्रतिकार। ४. क्षतिपूर्ति। पुं० [हिं० बदलना] बदले हुए होने की अवस्था या भाव।
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बदलना  : अ० [अ० बदल-परिवर्तन+ना (प्रत्यय)] १. किसी चीज या बात का अपना पुराना रूप छोड़कर नया रूप धारण करना। एक दशा या रूप से दूसरी दशा या रूप में आना या होना। जैसे—ऋतु बदलना, रंग बदलना, स्वभाव बदलना। २. किसी चीज, बात या व्यक्ति का स्थान किसी दूसरी चीज बात या व्यक्ति को प्राप्त होना। जैसे—(क) इस महीने कई गाड़ियों का समय बदल गया है। (ख) जिले से कई अधिकारी बदल गये हैं। (ग) कल सभा में हमारा छाता (या जूता) किसी से बदल गया था। ३. आकार-प्रकार गुण-धर्म रूप-रंग आदि के विचार से और अथवा पहले से बिलकुल भिन्न हो जाना। जैसे—(क) इतने दिनों तक पहाड़ पर (याविदेश में) रहने से उसकी शक्ल ही बिलकुल बदल गयी है। संयो० क्रि०—जाना। स० १. जो कुछ पहले से हो या चला आ रहा हो उसे हटाकर उसके स्थान पर कुछ और करना, रखना या लाना। जैसे—(क) कपड़े बदलना अर्थात् पुराने या मैले कपड़े उतारकर नये तथा साफ कपड़े पहनना। २. जो कुछ पहले से हो, उसे छोड़कर उसके स्थान पर दूसरा ग्रहण करना। जैसे—(क) उन्होंने अपना पहले वाला मकान बदल दिया है। (ख) रास्ते में दो जगह गाड़ी बदलनी पड़ती है। ३. अपनी कोई चीज किसी को देकर उसके स्थान पर उससे दूसरी चीज लेना० विनिमय करना। जैसे—हमने दुकानदार से अपनी कलम (या किताब) बदल ली थी। संयो० क्रि० -डालना।—देना।—लेना। ४. किसी के आकार-विकार गुण-धर्म रंग-रूप आदि में कोई तात्त्विक या महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करना। जैसे—(क) उन्होंने मकान की मरम्मत क्या करायी है, उसकी शक्ल ही बिलकुल बदल दी है। (ख) विद्रोहियों ने एक ही दिन में देश का सारा सासन बदल दिया। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
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बदलवाना  : स० [हिं० बदलना का प्रे०] बदलने की काम दूसरे से कराना।
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बदला  : पुं० [अ० बदल, हिं० बदलना] १. बदलने की क्रिया, भाव या व्यापार। २. वह अवस्था जिसमें एक चीज देकर उसके स्थान पर दूसरी चीज ली जाती है। आदान-प्रदान। विनिमय। जैसे—किसी की घड़ी (या छड़ी) से अपनी घड़ी (या छड़ी) का बदला करना। ३. किसी की कोई क्षति या हानि हो जाने पर उसकी पूर्ति के लिए दिया जानेवाला धन या कोई चीज। क्षति-पूर्ति। जैसे—यदि आपकी पुस्तक मुझसे खो जायगी, तो मै उसका बदला आपकों दे दूँगा। पद—बदले या बदले में-रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए। किसी के स्थान पर। जैसे—हमारी जो कलम उनसे टूट गयी थी, उसके बदले (या बदले में) उन्होंने यह नयी कलम भेज दी है। ४. किसी ने जैसा व्यवहार किया हो, उसके साथ किया जानेवाला वैसा ही व्यवहार। प्रतिकार। पलटा। जैसे—सज्जन पुरुष बुराई का बदला भी भलाई से ही देते हैं। ५. जिसने जैसी हानि पहुँचायी हो उसे भी अपने संतोषार्थ वैसी ही हानि पहुँचाने की भावना, अथवा पहुंचायी जानेवाली वैसी ही हानि। मुहावरा—(किसी से) बदला चुकाना या लेना=जिसने जैसी हानि पहुँचायी हो उसे भी वैसी ही हानि पहुँचाना। अपने मनस्तोष के लिए किसी के साथ वैसा ही बुरा व्यवहार करना जैसा पहले उसने किया हो। जैसे—भले ही आज उन्होने मुझ पर झूठा अबियोग लगाया हो पर मैं भी किसी दीन उनसे इसका बदला लेकर रहूँगा। ६. किसी काम या बात से प्राप्त होनेवाला प्रतिफल। किसी काम या बात का वह परिमाण जो प्राप्त हो या भोगना पड़े। जैसे—तुम्हें भी किसी न किसी दिन इसका बदला मिलकर रहेगा क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना। ७. कोई धन या और कोई चीज जो किसी को कोई काम करने पर उसे प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए दिया जाय। एवज। मुआवजा। जैसे—उनकी सेवाओं का बदला यह सामान्य पुरस्कार नहीं हो सकता।
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बदलाई  : स्त्री० [हिं० बदलना+आई (प्रत्यय)] १. बदलने की क्रिया या भाव। अदल-बदल। विनिमय। २. बदले में ली या दी जानेवाली चीज। ३. बदलने के लिए बदले में दिया जानेवाला धन। ४. अपकार, हानि आदि करने पर किसी की की जानेवाली क्षति-पूर्ति।
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बदलाना  : स०=बदलवाना। अ०=बदलना (बदला जाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंदली  : पुं० [देश] रूहेलखंड में पैदा होनेवाला एक प्रकार का धान जिसे रायमुनिया और तिलोकचंदन भी कहते हैं।
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बदली  : स्त्री० [अ० बदल+ई (प्रत्यय)] १. बदले हुए होने की अवस्था या भाव। २. किसी सेवा के कर्मचारी को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर भेजा जाना। तबादला। स्थानांतरण (ट्रान्सफर) स्त्री० [हिं० बादल] १. छोटा बादल। २. आकाश में बादलों के छाये हुए होने की अवस्था या भाव। स्त्री०=बदरी (बेर का फल) उदाहरण—भली विधि हो बदली मुख लावै।—केशव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदलौअल  : स्त्री० [हिं० बदलना] १. अदल-बदल करने की क्रिया या भाव। २. बदले जाने की अवस्था या भाव।
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बदलौवल  : स्त्री०=बदलौअल।
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बंदवान  : पुं० [सं० बंदी+वान] बंदीगृह का रक्षक। कैदखाने का प्रधान अधिकारी।
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बदशऊर  : वि० [फा० बद+अं० शऊर] [भाव० बदशऊरी] १. जो ठीक ढंग से तथा शिष्टतापूर्वक कोई काम करना न जानता हो। २. बदतमीज। ३. मूर्ख।
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बदशगूनी  : स्त्री० [फा०] शगुन का खराब होना।
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बदशुगन  : वि० [फा०] १. अशुभ। २. मनहूस।
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बदसलीका  : वि० [फा०+अ० सलीकः] १. बदशुऊर। २. बदतमीज।
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बदसलूकी  : स्त्री०, [फा० बद+अ० सलूक] बुरा व्यवहार। अशिष्ट व्यवहार।
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बंदसाल  : पुं० [सं० बंदी+वान] बंदीगृह। कैदखाना।
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बदसूरत  : वि० [फा० बद+अ० सूरत] [भाव० बदसूरती] भद्दी सूरतवाला। कुरूप। बेडौल।
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बदसूरती  : स्त्री० [फा० बद+अं० सूरती] बद-सूरत होने की अवस्था या भाव।
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बदस्तूर  : अव्य० [फा०] १. जिस प्रकार से पहले से होता आया हो। उसी प्रकार। २. जिस रूप में पहले रहा हो, उसी रूप में। बिना किसी परिवर्तन या हेर-फेर के। यथापूर्व। यथावत।
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बदहज़मी  : स्त्री० [फा० बद+अ० हज़्मी] १. खायी हुई चीज हजम न होने की अवस्था या भाव। अजीर्ण। अपच। २. वह स्थिति जिसमें कोई चीज या बात ठीक तरह से नियंत्रित न रखी जा सके, और अनावश्यक रूप में प्रदर्शित की जाय। जैसे—अक्ल या दौलत की बद-हज्मी।
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बदहवास  : वि० [फा०+अय] [भाव० बद-हवासी] १. जिसके होश-हवास ठिकाने न हों। बौखलाया हुआ। २. उद्दिग्न। विकल। ३. अचेत। बेहोश।
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बंदा  : पुं० [फा० बंदः] १. दास। सेवक। २. भक्त। ३. मनुष्य। विशेष—वक्ता नम्रता सूचित करने के लिए इसका प्रयोग अपने लिए भी करता है। जैसे—लीजिए बन्दा हाजिर हैं। पुं० [सं० बंदी] कैदी। बंदी।
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बंदा-नवाज  : वि० [फा० बंदा नवाज] [भाव० बंदा-नवाजी] १. आश्रितों और दीनों पर अनुग्रह या कृपा करनेवाला। दीन-दयालु। २. भक्त वत्सल।
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बंदा-परवर  : पं० [फा० बंदपर्वर] [भाव० बंदा-परवरी] बंदा नवाज।
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बदा-बदी  : स्त्री० [हिं० बदना] १. ऐसी स्थिति जिसमें दोनों पक्ष एक दूसरे से आगे निकलकर अथवा एक-दूसरे को नीचा दिखाना चाहते हों। २. दे० ‘बदान’। क्रि० वि० कह-कहकर। उदाहरण—बदा-बदी ज्यों खेलत हैं ए बदरा बदराह।—बिहारी।
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बदान  : स्त्री० [हिं० बदना+आन (प्रत्यय)] १. बदने की क्रिया या भाव। २. बाजी या शर्त का बदा जाना। अव्य० १. शर्त से बाजी लगाकर। २. दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा करते हुए।
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बंदानी  : पुं० [?] गोलंदाज। तोप चलानेवाला। (लश्करी)। पुं० [?] एक प्रकार का हलका गुलाबी रंग जो प्याजी से कुछ गहरा होता है। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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बदाम  : पुं०=बादाम।
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बदामा  : वि० [फा०] बादाम के आकार-प्रकार का। अंडाकार। (ओवल)।
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बदामी  : पुं० [हिं० बादाम] कौड़ियाले की जाति का एक प्रकार का पक्षी। वि० बादाम के रंग का। बादामी।
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बंदारू  : वि० [सं० वंदारू√वन्द+आरू] आदरणीय और पूज्य। वंदनीय। पुं० बंदाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंदाल  : पुं० [?] देवदाली। घघरबेल।
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बंदि  : स्त्री० [सं० वंदि] बंधन। २. कैद। स्त्री०=बंदीगृह। (कारागार)। पुं०=बंदी या वंदी (कैदी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदि  : स्त्री० [सं० वर्त्त-पलटा] किसी काम या बात का बदला चुकाने के लिए किया जानेवाला काम या बात। बदला। अव्य० १. किसी काम या बात के पलटे या बदले में। २. किसी की खातिर में० ३. लिए। वास्ते। स्त्री०=बदी (कृष्ण पक्ष)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंदि कोष्ठ  : पुं० [सं० वंदीकोष्ठ] वंदीगृह (कारागार)।
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बंदि छोर  : वि०=बंदीछोर।
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बंदिया  : स्त्री०=बंदी (आभूषण)।
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बंदिश  : स्त्री० [फा०] १. बाँधने की क्रिया या भाव। २. किसी प्रकार का बन्धन या रुकावट। ३. कविता के चरणों वाक्यों आदि में होनेवाली शब्द योजना शब्द योजना। रचना-प्रबंध। जैसे—गजल या गीत की बंदिश। ४. किसी को चारों ओर से बाँध रखने के लिए की जानेवाली योजना। ५. कोई बड़ा काम छेडने अथवा किसी प्रकार की रचना आरम्भ करने से पहले किया जानेवाला आयोजन या आरम्भिक व्यवस्था ६. षड्यंत्र।
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बंदी  : पुं० [सं० चारणों की एक जाति जो प्राचीन काल में राजाओं का कीर्तिगान किया करती थी। भाट। चारण। दे० बंदी।] पुं० [सं० वन्दिन्] कैदी। बँधुआ। स्त्री० वंदनी (शिर पर पहनने का गहना)। वि० फा० बँदा (दास या सेवक) का स्त्री। स्त्री० [फा०] १. बंद करने की क्रिया या भाव। जैसे—दुकान बंदी। २. बाँधने की क्रिया या भाव। जैसे—नाकेंबंदी। ३. व्यवस्थित रूप में लाने का भाव। जैसे—दलबन्दी।
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बदी  : स्त्री० [सं० बहुल में का ब+दिवस में का दि-बदि०] चांद्र मास का कृष्ण पक्ष। अँधेरा पाख। सुदी का विपर्याय। जैसे—भादों बदीअष्टमी। स्त्री० [फा०] १. बद अर्थात् बुरे होने की अवस्था या भाव। खराबी। बुराई। पद—नेकी-बदी=(क) उपकार और अपकार। भलाई और बुराई। (ख) घर-गृहस्थी में होनेवाले शुभ और अशुभ काम या घटनाएँ। (विवाह, मृत्यु आदि) जैसे—वह नेकी-बदी में सबका साथ देते (या सबके यहाँ आते-जाते) हैं। २. किसी का किया जानेवाला अपकार या अहित। जैसे—उन्होंने तुम्हारे साथ कोई बदी तो नहीं की थी। ३. किसी की अनुपस्थिति में की जानेवाली उसकी निंदा।
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बंदीखाना  : पुं० [फा० बंदीखानः] जेलखाना। कैदखाना।
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बंदीघर  : पुं० [सं० बंदिगृह] कैदखाना। जेलखाना।
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बंदीछोर  : वि० [फा० बंदी+हिं० छोर (ड़) ना] १. कैद से छुड़ाने वाला। २. २. संकटपूर्ण बंधन से छुड़ानेवाला।
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बदीत  : वि० [सं० विदित] प्रसिद्ध। मशहूर। उदाहरण—जगत बदीत करी मन—मोहना।—मीराँ।
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बंदीवान  : पुं० [सं० वंदिन्] कैदी।
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बंदूक  : स्त्री० [अ०] एक प्रसिद्ध अस्त्र जिसमें कारतूस, गोली आदि भरकर इस प्रकार छोड़ी जाती है कि लक्ष्य पर जाकर गिरती है। क्रि० प्र०—चलाना।—छोड़ना।—दागना। मुहावरा—बंदूक भरना—बंदूक में कारतूस गोली आदि रखना।
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बंदूकची  : पुं० [अं० बंदूक+फा० ची (प्रत्यय)] १. बंदूक चलाने वाला सिपही। २. बंदूक की गोली से लक्ष्य-भेदन करनेवाला व्यक्ति।
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बंदूख  : स्त्री०=बंदूक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदूख  : स्त्री०=बंदूख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदूर (ल)  : पुं०=बादल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदे  : अव्य० [हिं० बद-पक्ष०] वास्ते। लिए। खातिर (पूरब)। उदाहरण—भेंवल छयल या दूध में खाजा तोरे बदे।—तेगअली। पुं० वह मूल्य जिसमें दलाली की रकम भी सम्मिलित हो। (दलाल)।
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बंदेरा  : पुं० [फा० बन्दः] [स्त्री० बँदेरी] १. दास। २. सेवक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंदोड़  : पुं० [फा० बन्दः] गुलाम। दास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंदोबस्त  : पुं० [फा०] १. प्रबंध। व्यवस्था। २. खेतों की हदबंदी उनकी मालगुजारी आदि निश्चित करने का काम। पज-बंदोबस्त आरिजी-कृषि संबंधी होनेवाली अस्थायी व्यवस्था बंदोबस्त-इस्तमरारी या दवामी-पक्की और सदा के लिए निश्चित कृषि-व्यवस्था। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बदौलत  : अव्य० [फा० ब+अ० दौलत] १. कृपापूर्ण अवलम्ब या सहारे से। जैसे—उन्हें यह नौकरी आपकी ही बदौलत मिली थी। २. कारण या वजह से।
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बद्दर  : पुं०=बादल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बद्दल  : पुं०=बादल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बद्दू  : पुं० [अ० बद्दू] अरब की एक असभ्य खानाबदोश जाति। वि० [फा० बद]=बदनाम।
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बद्दोदर  : पुं० [सं० बद्ध-उदर, ब० स०] बद्ध-गुदोदर रोग। बद्ध-कोष्ठ।
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बद्ध  : वि० [सं०√बंध्+क्त] १. जो बाँधा हो या बाँधा गया हो। जकड़ा या बंधन मे पड़ा हुआ। २. जो किसी प्रकार के घेरे में हो। जैसे—सीमा युद्ध। ३. जिस पर कोई प्रतिबंध या रुकावट लगी हो। जैसे—नियमबद्ध, प्रतिज्ञा बद्ध। ४. जो किसी प्रकार निर्धारित या निश्चित किया गया हो। जैसे—आज्ञा-बद्ध। ५. अच्छी तरह जमाया या बैठा हुआ। स्थित। जैसे—पंक्ति बद्ध। ७. किसी के साथ जुड़ा लगा या सटा हुआ। जैसे—कर-बद्ध। ८. कुछ वशिष्ट नियमों के अनुसार किसी निश्चित और विशिष्ट रूप में लाया या रचा हुआ। जैसे—छंदोबद्ध, भाषा-बद्ध। ९. उलझा या फँसा हुआ। जैसे—प्रेम-बद्ध, मोह-बद्ध। १॰. जिसकी गति, मार्ग या प्रवाह रुका हुआ हो। जसे-कोष्ठ-बद्ध। ११. धार्मिक क्षेत्र में जो सासारिक बंधन या मोह-माया में पड़ा हो। मुक्त का विपर्याय।
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बद्ध-कक्ष  : वि० [सं० ब० स०] बद्ध परिकर। तैयार। प्रस्तुत।
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बद्ध-कोष्ठता  : स्त्री० [सं० बद्ध-कोष्ठ+तल्० टाप्] वह स्थिति जिसमें पाखाना कम या न होता हो। कब्जियत।
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बद्ध-गुद  : पुं० [सं० ब० स०] आँतों में मल अवरुद्ध होने का रोग।
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बद्ध-गुदोदर  : पुं० [सं० ब० स०] पेट का एक रोग जिसमें हृदय और नाभि के बीच में पेट कुछ बढ़ जाता है और जिसके फलस्वरूप मल रुक-रुककर और थोड़ा-थोड़ा निकलता है।
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बद्ध-ग्रह  : वि० [सं० ब० स०] हठी।
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बद्ध-चित्त  : वि० [सं० ब० स०] जिसका मन किसी वस्तु या विशय पर जमा हो। एकाग्र।
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बद्ध-जिह्व  : वि० [सं० ब० स०] जो चुप्पी साधे हो। मौन।
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बद्ध-दृष्टि  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी दृष्टि किसी पर जमी या लगी हो।
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बद्ध-परिकर  : वि० [सं० ब० स०] जो कमर बाँधे हुए कोई काम करने के लिए तैयार हो। उद्यत तत्पर।
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बद्ध-प्रतिज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] प्रतिज्ञा से बँधा हुआ। वचन-बद्ध।
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बद्ध-फल  : पुं० [सं० ब० स०] करंज।
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बद्ध-भूमि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. मकान बनाने के लिए ठीक की हुई भूमि। २. मकान का पक्का फर्श।
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बद्ध-मुष्टि  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी मुट्ठी बँधी रहती हो; अर्थात् जो निर्धनों को भिक्षा ब्राह्मणों को दान आदि न देता हो। २. बहुत कम खर्च करनेवाला। कंजूस।
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बद्ध-मूल  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने जड़ पकड़ ली हो। २. जो मलूतः दृढ़ और अटल हो गया हो।
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बद्ध-मौन  : वि० [सं० ब० स०] चुप्प। मौन।
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बद्ध-रसाल  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का बढ़िया आम।
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बद्ध-राग  : वि० [सं० ब० स०] किसी प्रकार के राग या प्रेम में बँधा हुआ। अनुरक्त।
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बद्ध-वर्चस  : वि० [सं० ब० स०] मल-रोदक। कब्जियत कनरेवाला।
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बद्ध-वाक्  : वि० [सं० ब० स०] वचन-बद्ध।
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बद्ध-वैर  : वि० [सं० ब० स०] जिसके मन में किसी के प्रति पक्का वैर हो।
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बद्ध-शिख  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी शिखा या चोटी बँधी हुई हो। २. अल्पवयस्क। पुं० छोटा बच्चा। शिशु।
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बद्ध-शिखा  : स्त्री० [सं० बद्ध-शिख+टाप्] भूम्यामलकी।
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बद्ध-सूतक  : पुं० [सं० कर्म० स०] रसेश्वर दर्शन के अनुसार पारा जो अक्षत, लघुद्रावी तेजोविशिष्ट निर्मल और गुरु कहा गया है।
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बद्ध-स्नेह  : वि० [सं० ब० स०] किसी के स्नेह में बँधा हुआ। अनुरक्त। आसक्त।
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बद्धक  : वि० [सं० बद्ध+कन्] जो बाँध या पकड़कर मँगाया गया हो। पुं० बँधुआ कैदी।
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बद्धकोष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] पाखाना कम या न होने का रोग। कब्ज। कब्जियत। वि० जिसे उक्त रोग हो। कब्ज से पीड़ित।
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बद्धांजलि  : वि० [सं० बद्-आजलि, ब० स०] सम्मान प्रदर्शन के लिए जिसने हाथ जोड़े हों। कर-बद्ध।
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बद्धानुराग  : वि० [सं० बद्ध-अनुराग, ब० स०] आसक्त।
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बद्धी  : स्त्री० [सं० बद्ध+हिं० ई (प्रत्यय)] १. वह जिससे कुछ कसा या बाँधा जाय। जैसे—डोरी, तस्मा, फीता आदि। २. माला या सिकड़ी के आकार का चार लड़ों का एक गहना जिसकी दो लड़ तो गले में होती है और दो लड़ दोनों कंधों पर जनेऊ की तरह बाँहों के नीचे होती हुई छाती और पीठ तक लटकी रहती है। ३. किसी लम्बी चीज की चोट से शरीर पर पड़नेवाला लम्बा चिन्ह या निशान। साँट जैसे—बेंत की मार से शरीर पर बद्धियाँ पड़ना। क्रि० प्र०—पड़ना।
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बंध  : पुं० [सं०√बंध् (बंधना)+घञ्] १. वह चीज जिससे कोई दूसरी चीज बाँधी जाय। जैसे—डोरी फीता रस्सी आदि। २. बाँधने की क्रिया या भाव। ३. बंधन। ४. किसी को पकड़कर बाँध रखने की क्रिया। कैद। ५. कोई चीज अच्छी तरह गँठ या बाँधनेकर तैयार करना। जैसे—काव्य-ग्रंथ का सर्ग-बंध। ६. रचना करना। बनाना। ७. कल्पना करना। ८. गद्य या पद्य के रूप में साहित्यिक रचना करना। निबंध रचना। ९. लगाव। संबंध। १॰. आपस में होनेवाला एक प्रकार का निश्चय। ११. योग साधन की कोई मुद्रा। जैसे—उड्डीयान बंध। १२. कोक शास्त्र में रति के मुख्य सोलह आसनों में से एक आसन। १३. रति या स्त्री-सम्भोग करने का कोई आसन या मुद्रा। १४. चित्रकाव्य में छंद की ऐसी रचना जिसकी कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार उसकी पंक्तियों के अक्षर बैठाने से किसी विशेष प्रकार की आकृति या चित्र बन जाय। जैसे—अश्वबंध, ख़ड्गबंध छत्र-बंध आदि। १५. बनाये जानेवाले मकान की लम्बाई औरचौड़ाई का योग। १६. काया। शरीर। १७. जलाशय़। किनारे का बाँध। पुं०=बंधु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बध  : पुं०=वध। स्त्री० बढ़ती (अधिकता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंध-करण  : पुं० [ष० त०] कैद करना। कारावास में बन्द करना।
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बध-गराड़ी  : स्त्री० [बिं० बाध+गराड़ी] रस्सी बटने का एक उपकरण।
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बंध-तंत्र  : पुं० [मध्य० स०] किसी राजा अथवा राज्य की सम्पूर्ण सैनिक शक्ति। पूरी सेना।
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बंध-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. विधिक दृष्टि से मान्य वह पत्र जिस पर हस्ताक्षर करनेवाला व्यक्ति अपने आपको कोई काम करने के लिए प्रतिज्ञा बद्ध करता है। जैसे—नियत काल तक कोई काम या नौकरी करते रहने, नियत समय पर कहीं उपस्थित होने या कुछ धन देने का बंध-पत्र। २. एक प्रकार का सार्वजनिक ऋण-पत्र जिसमे निश्चित समय के अन्दर कुछ विशिष्ट नियमों या शर्तों के अनुसार लिया हुआ ऋण चुकाने की प्रतिज्ञा होती है। (बांड)। विशेष—अंतिम प्रकार का बंध-पत्र राज्यों नगर-निगमों और बड़ी-बड़ी व्यापारिक संस्थाओं के द्वारा प्रचलित होते हैं।
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बध-भूमि  : स्त्री० [सं० बध-भूमि] १. वध करने का नियत स्थान। २. वह स्थान जहाँ अपराधियों को प्राण-दण्ड दिया जाता हो।
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बंध-मोचनिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक योगिनी का नाम।
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बंध-मोचिनी  : स्त्री०=बंधमोचनिका।
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बधइया  : स्त्री०=बधाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंधक  : वि० [सं०√बंध् (बंधना)+ण्वुल्-अक] १. बाँधनेवाला। २. (पदार्थ) जो किसी से रुपए उधार लेने के समय इस दृष्टि से जमानत के रूप में उसके पास रखा गया हो कि जब तक रुपया (और सूद) चुकाया न जायगा, तब तक वह उसी के पास रहेगा। रेहन। ३. अदला-बदली या विनिमय करनेवाला। पुं० [सं० बंध+कन्] लेन-देन या व्यवहार का वह प्रकार जिसमें किसी से रुपया उधार लेने के समय कोई मूल्यवान् वस्तु इस दृष्टि से महाजन के पास जमानत के तौर पर रख दी जाती है कि यदि ऋण और ब्याज न चुकाया जा सके तो महाजन वह वस्तु बेचकर अपना प्राप्य धन ले सकता है। रेहन। (मार्टगेज)।
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बंधक-कर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो कोई चीज बंधक रूप में किसी के यहाँ रखता हो। (मार्टगेजर)।
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बंधकी  : स्त्री० [सं० बंधक+ङीष्] १. व्यभिचारिणी स्त्री। २. रंडी। वेश्या। वि० [हिं० बंधक] जो बंधक के रूप में पड़ा या रखा गया हो। जैसे—बंधकी मकान।
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बंधन  : पुं० [सं०√बंध्+ल्युट—अन] १. बँधने या बाँधने की क्रिया या भाव। २. बाँधनेवाली कोई चीज, तत्त्व या बात। जैसे—जंजीर, डोरा रस्सी प्रतिज्ञा वचन आदि। ३. कोई ऐसी चीज या बात जो किसी को उच्छृंखल होने या मनमाना आचरण अथवा व्यवहार करने से रोकती है। कोई ऐसा तत्त्व या बात जो किसी को नियमित या मर्यादित रूप से आचरण करन के लिए बाध्य करती हो। जैसे—प्रेम या समाज का बंधन। ४. वह स्थान जहाँ कोई बाँध या रोककर रखा गया हो अथवा रखा जाता हो। जैसे—कारागार आदि। ५. कोई चीज अच्छी तरह गठ या बाँधकर तैयार करना। जैसे—सेतु-बंधन। ६. शरीर के अन्दर की रगें जिनसे भिन्न-भिन्न अंग बँध रहते हैं। मुहावरा—(किसी के) बंधन ढीले करना=(क) बहुत अधिक मारना-पीटना। (ख) सारी शेखी या हेकड़ी निकाल देना। ७. नदियों आदि का बाँध। ८. पुल। सेतु। ९. वध। हत्या। १॰. हिंसा। ११. शिव का एक नाम।
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बंधन-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] १. शरीर में वह हड्डी जो किसी जोड़ पर हो। २. फाँस। ३. पशुओं को बाँधने की डोरी या रस्सी।
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बंधन-पालक  : पुं० [ष० त०] कारागार का प्रधान अधिकारी।
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बंधन-रक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० बंधन√रक्ष्+णिनि] कारागार का प्रधान अधिकारी।
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बंधन-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह खम्भा या खूँटा जिससे पशुओं को बाँधा जाता है।
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बँधना  : अ० [हिं० ‘बाँधना’ का अ० रूप] १. बंधन मे आना या पड़ना। बाँधा जाना। २. डोरी, रस्सी आदि से इस प्रकार लपेटा जाना अथवा कपड़े आदि की गाँठ से इस प्रकार कसा या जकड़ा जाना कि जल्दी उससे छूटा न जा सके। जैसे—गौ या घोड़ा बँधना, गठरी या पारसल बँधना। ३. किसी प्रकार के नियमन, प्रतिबंध आदि से युक्त होना। जैसे—प्रतिज्ञा या वचन से बँधना। ४. कारागार आदि में रखा जाना। कैद होना। जैसे—दोनों गुडे साल-साल भर के लिए बंध गये। ५. अच्छी तरह गठकर ठीक या प्रस्तुत होना। बनाया जाना। रचित होना। जैसे—मजमून बँधना। ६. पालन, प्रचलन आदि के लिए नियत या निर्धारित होना। जैसे—कायदा या नियम बँधना। ७. किसी के साथ इस प्रकार संबंद्ध संयुक्त या संलग्न होना कि जल्दी अलगाव या छुटकारा न हो। उदाहरण—अली कली ही तै, बँध्यो आगे कौन हवाल।—बिहारी। ८. ध्यान, विचार आदि के संबंध में निरंतर कुछ समय तक एक ही रूप में बना या लगा रहना जैसे—किसी आदमी या बात का ख्याल बँधना।
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बधना  : स० [सं० बधू+हिं० ना (प्रत्यय)] वध या हत्या करना। मार डालना। पुं० [सं० वर्द्धन] मुसलमानों का एक तरह का टोंटीदार लोटा। पुं० [देश०] लाख की चूड़ियाँ बनानेवालों का एक औजार।
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बंधनागार  : पुं० [सं० बंधन-आगार, ष० त०] कारागार।
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बंधनालय  : पुं० [सं० बंधन-आलय० , ष० त०] कारागार।
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बंधनि  : स्त्री०=बंधन।
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बंधनी  : स्त्री० [सं०√वंध्+ल्युट-अन, ङीष्] १. शरीर के अन्दर की वे मोटी नसें जो संधि-स्थान पर होती है और जिनके कारण दो अवयव आपस में जुड़े रहते हैं। २. वह जिससे कोई चीज बाँधी जाय।
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बंधनीय  : वि० [सं०√बंध्+अनीयर्] जो बाँधा जा सके या बाँधा जाने को हो। पुं० १. बाँध। २. पुल। सेतु।
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बंधव  : पुं०=बाँधव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बधवा  : पुं० १.=-बधावा। २. दे० ‘बधाई’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंधवाना  : स० [हिं० बाँधना का प्रे०] १. बाँधने का काम किसी दूसरे से कराना। किसी को कुछ बाँधने में प्रवृत्त करना। जैसे—बिस्तर बँधवाना। २. नियत या मुकर्रर कराना। ३. वास्तु आदि की रचना कराना। जैसे—कुआँ या तलाब बँधवाना। ४. बंधन अर्थात् कारागार आदि में डलवाना या रखवाना। जैसे—चोरों को बँधवाना।
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बधाई  : स्त्री० [सं० बर्द्धन, पं० बधना-बढ़ना] १. बढ़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। बढ़ती। वृद्धि। २. किसी की उन्नति या भाग्योदय होने अथवा किसी के यहाँ कोई मांगलिक अथवा शुभ कार्य होने पर प्रसन्नतापूर्वक उसका किया जानेवाला अभिनन्दन और उसके प्रति प्रकट की जानेवाली शुभ-कामना। यह कहना कि हम आपके अमुक अच्छे काम या बात से बहुत अधिक प्रसन्न हुए हैं, और आपकी इसी प्रकार की उन्नति या वृद्धि की हार्दिक कामना करते हैं। मुबारकबाद। (कांग्रेचुलेशंस) जैसे—किसी के यहाँ पुत्र का जन्म या विवाह होने पर या किसी के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने अथवा कोई बहुत बड़ा काम करने या सफल-मनोरथ होने पर उसे बधाई देना। क्रि० प्र०—देना।—मिलना। ३. घर में पुत्र-जन्म, विवाह आदि शुभ कृत्यों के अवसर पर होनेवाला आनंद-मंगल या उसके उपलक्ष्य में होनेवाला उत्सव। ४. उक्त अवसरों पर होनेवाला नृत्य, गीत आदि। ५. वह उपहार या धन जो उक्त प्रकार के आनन्दमय अवसरों पर अपने आश्रितों, छोटों या निकटस्थ संबंधियों को अपनी प्रसन्नता के प्रतीक के रूप में दिया या बाँटा जाता है। जैसे—उन्होंने अपने संबंधियों को दो-दो रुपए बधाई के दिये हैं। क्रि० प्र०—देना।—बाँटना।
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बधाऊ  : पुं० १.=बधाई। २.=बधावा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंधान  : स्त्री० [हिं० बँधना] १. बँधे हुए की अवस्था या भाव। २. वह नियत परम्परा या परिपाटी जिसके अनुसार कुछ विशिष्ट अवसरों पर कोई विशिष्ट काम करने का बंधन लगा होता है। ३. वह धन जो उक्त परिपाटी के अनुसार दिया या लिया जाय। ४. संगीत में गीत, ताल, स्वर, लय आदि के संबंध में बँधे हुए नियम। ५. बाँध।
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बंधाना  : स०=बँधवाना।
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बधाना  : स० [हिं० बधना का प्रे०] बधने या हत्या करने का काम दूसरे से कराना। [हिं० बधिया] (बैल आदि का) बधिया किया जाना। स०=बढ़ाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंधानी  : पुं० [सं० बंध] बोझ ढोनेवाला। मजदूर। कुली। स्त्री०=बंधान।
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बधाया  : पुं० [हिं० बधाई] १. बधाई। २. बधावा।
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बंधाल  : पुं० [हिं० बंधान] जलयान, नाव आदि के पेदें का वह भाग जिसमें छेदों में से रिसकर आया हुआ पानी जमा होता है और जो बाद में उलीचकर बाहर फेका जाता है। गमतखाना। गमतरी।
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बधावड़ा  : पुं०=बधावा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बधावना  : स०=बधाना। पं० दे० ‘बधाई’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बधावा  : पुं० [हिं० बधाई] १. बधाई। २. शुभ अवसर पर होनेवाला आनन्दोत्सव या गाना-बजाना। क्रि० प्र०—बजना। ३. वह उपहार या भेंट जो गाजे-बाजे के साथ कुछ वशिष्ट मांगलिक अवसरों पर संबधियों के यहाँ भेजी जाती है। ४. इस प्रकार उपहार ले जानेवाले लोग।
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बधिक  : पुं० [सं० घातक] १. बध करने या मार डालनेवाला। हत्यारा। २. वह जो अपराधियों के प्राण लेता हो। फाँसी देने या सिर काटनेवाला। जल्लाद। ३. व्याध। बहेलिया।
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बंधिका  : स्त्री०=[हिं० बंधन] करघे में की वह डोरी जिसमें ताने की साँधी बाँधी जाती है। (जुलाहे)
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बंधित  : भू० कृ० [सं० बंध्या] बाँझ। (डिंगल)
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बंधित्र  : पुं० [सं०√बंध्+इत्र] १. काम-देव। २. तिल। (चिन्ह)। ४. चमड़े का बना हुआ पंखा।
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बधिया  : वि० [हिं० बध-मारना] (वह बैल या कोई नर-पशु) जिसका अंडकोश कुचल या निकाल दिया गया हो और फलतः उसे षंड कर दिया गया हो। नपुंसक किया हुआ चौपाया खस्सी। आख्ता। आडूँ का विपर्याय। पुं० उक्त प्रकार का बैल जिस पर प्रायः बोझ लादकर ले जाते हैं। मुहावरा—बधिया बैठना-इतना घाटा होना कि कारबार बन्द हो जाय। पुं० [?] एक प्रकार का गन्ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बधियाना  : स० [हिं० बधिया] कुछ विशिष्ट नर-पशुओं का शल्य से अंडकोश निकालकर उन्हें बधिया करना। बधिया बनाना।
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बधिर  : पुं० [सं०√बन्ध् (बाँधना)+किरच्, न-लोप] [भाव० बधिरता] जिसमें सुनने की शक्ति न हो या न रह गयी हो। बहरा।
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बधिरता  : स्त्री० [सं० बधिर+तल्,+टाप्] श्रवण-शक्ति का अभाव। बहरापन। बधिर होने की अवस्था या भाव।
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बधिरित  : भू० कृ० [सं० बधिर+क्विप्+इमानिच्] बधिरता। बहरापन।
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बंधी (धिन्)  : वि० [सं० बंध+इनि] १. बंधन में कसा, जकड़ा या पड़ा हुआ। २. जिसमें या जिसके लिए किसी प्रकार का बंधन हो। स्त्री० [हिं० बाँधना] १. बँधे हुए होने की अवस्था या भाव। २. बँधा हुआ क्रम। नियमित रूप से या नियत समय पर नियत समय पर नित्य किया जानेवाला काम। जैसे—हमारे यहाँ दूध की बंधी लगी है। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।
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बंधु  : पुं० [सं०√बंध् (बन्धन)+उ] १. भाई। भ्राता। २. परम आत्मीय और भाइयों की तरह साथ रहने का काम आनेवाला व्यक्ति। ३. ऐसा प्रिय मित्र जिसके साथ भाइयों का सा व्यवहार हो। ४. पिता। ५. एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः तीन-तीन भगण और दो दो गुरु होते हैं। दोधक। ६. बंधूक नामक पौधा और उसका फूल।
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बंधु-कृत्य  : पुं० [सं० ष० त०] व्यक्ति का अपने भाई-बंधुओं तथा स्वजनों के प्रति होनेवाला कर्तव्य।
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बंधु-जीव  : पुं० [सं० बंध्√जीव् (जीना)+णिच्+अच्] बंधूक (फौधा और फूल)। दुपहरिया।
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बंधु-जीवक  : पुं० [सं० बंधुजीव+कन्] बंधूक। दुपहरिया।
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बंधु-दत्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] बंधुओं द्वारा दिया हुआ। बंधुओं से प्राप्त। पुं० बंधुओं स्वजनों आदि द्वारा कन्या को विवाह के अवसर पर दिया जानेवाला धन।
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बँधुआ  : वि० [हिं० बँधना+आ (प्रत्य)] १. जो बँधा रहता हो। २. (पशु आदि) जिसे बाँधकर रखा गया हो। पुं० कैदी। बंदी।
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बंधुक  : स्त्री० [सं० बंधु+उक] १. डेढ़ दो फुट ऊँचा। एक तरह का क्षुप जिसमें गोलाकार लाल रंग के फूल दोपहर के समय खिलते हैं। ३. उक्त क्षुप का फूल जो वैद्यक में बात तथा पित्त नाशक और कफ बढ़ानेवाला माना जाता है। दुपहिया। ३. जारज संतान।
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बंधुका  : स्त्री० [सं० बंधु+कन्+टाप्] व्यभिचारिणी स्त्री।
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बंधुकी  : स्त्री० [सं० बंधु+कन्+ङीष्] व्यभिचारिणी स्त्री।
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बंधुता  : स्त्री० [सं० बंधु+तल्+टाप्] १. बंधु होने की अवस्था या भाव। २. बंधुओं अर्थात् स्वजनों में परस्पर होनेवाला उचित व्यवहार। भाई-चारा। ३. दोस्ती। मित्रता। ४. भाई-बंधु तथा स्वजनों का वर्ग।
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बंधुत्व  : पु० [सं० बंधु+त्व]=बंधुता।
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बंधुदा  : स्त्री० [सं० बंधु√दा (देना)+क+टाप्] १. दुराचारिणी स्त्री। बदचलन औरत। २. रंडी। वेश्या।
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बंधुमान् (मत्)  : वि० [सं० बंधु+मतुप्] जिसके कई या बहुत से बंधु या स्वजन हों।
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बंधुर  : पुं० [सं०√बंधु+उरच्] १. बहरा आदमी। २. हंस। ३. बगुला। ४. मुकुट। ५. गुल दुपहरिया का पौधा या फूल। ६. काकड़ा सिंधी। ७. विंडग। ८. चिड़िया। पक्षी। ९. खली। वि० १. मनोहर। २. नम्र। विनीत। ३. झुका हुआ। सुन्दर। ४. ऊँचा-नीचा।
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बंधुरा  : स्त्री० [सं० बंधुर+टाप्] बंधुदा (दे०)
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बंधुल  : वि० [सं०√बंधु+उलच्] १. झुका हुआ। वक्र। २. सुन्दर। नम्र। पुं० १. वह व्यक्ति जो पर-पुरुष से उत्पन्न हुआ हो, पर किसी दूसरे के घर में पला हो तथा पराये के अन्न से पुष्ट हुआ हो। २. बदचलन स्त्री का लड़का। ३. वेश्या का लड़का।
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बधू  : स्त्री० [सं०√बन्ध् (बाँधना)+ऊ, न-लोप] -बधू।
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बंधूआ  : पुं०=बँधुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंधूक  : पुं० [सं०√बंध्+ऊक्] -बंधुक।
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बधूक  : पुं०=बगूला (बवंडर)।
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बंधूप  : पुं०=बंधूक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंधूर  : पुं० [सं०√बंध्+ऊरच्] १. झुका हुआ। २. ऊंचा-नीचा। ३. मनोहर। पुं० छेद।
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बंधेज  : पुं० [हिं० बंधना+एज (प्रत्यय)] १. कोई नियत और परम्परागत प्रथा। विशेषतः बँधी हुई तथा सर्वमान्य ऐसी परम्परा जिसके अनुसार संबंधियों सेवकों आदि को कुछ विशिष्ट अवसरों पर धन आदि दिया जाता है। २. उक्त प्रथा के अनुसार दिया अथवा किसी को मिलनेवाला धन। ३. दे० बाँधनूँ। (छपाई) ४. प्रतिबंध। रुकावट। ५. ऐसी युक्ति जिससे वीर्य को जल्दी स्खलित नहीं होने दिया जाता। वाजीकरण।
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बधैया  : स्त्री०=बधाई।
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बंध्य  : वि० [सं०√बंध्+यक्] १. जो बँधा जा सके अथवा बाँधने केयोग्य हो। २. कारावास में रखे जाने के योग्य। ३. जो तैयार किये जाने बनाये जाने अथवा निर्मित किये जाने को हो। ४. जो उपजाऊ न हो। ऊसर। ५. बाँझ। (स्त्री)
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बध्य  : वि० [सं० वध्य] १. जिसे वध किया जा सके या जो वध किये जाने को हो। २. वध किये या मारे जाने के योग्य।
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बंध्या  : स्त्री० [सं० बंध्य+टाप्] १. स्त्री या मादा प्राणी जिसे संतान न होती हो। बाँझ। पद—बंध्या पुत्र। (देखें)। २. योनि का एक रोग। ३. एक गंध-द्रव्य।
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बंध्या-कर्कोटकी  : स्त्री० [सं० ष० त०] कड़वी ककड़ी। बाँझ-ककोड़ा।
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बंध्यापन  : पुं०=बाँझपन।
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बंध्यापुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. बाँझ स्त्री का पुत्र अर्थात् ऐसा अनहोना व्यक्ति जो कभी अस्तित्व में न आ सकता हो। २. लाक्षणिक अर्थ में कोई ऐसी चीज या बात जो बंध्या के पुत्र के समान अनहोनी हो।
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बंध्यासुत  : पुं० [ष० त०] बंध्यासुत।
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बन  : पुं० [सं० वन०] १. वह पर्वतीय या मैदानी क्षेत्र जिसमें न तो मनुष्य रहते हों और न जिसमें खेती-बारी होती हो, बल्कि जिसमें प्रकृति-प्रदत्त पेड़-पौधों तथा जंगली जानवरों की बहुलता हो। जंगल। कानन। पद—बन की धातु-गेरू नामक लाल मिट्टी। २. समूह। ३. जल। पानी। ४. उपवन। बगीचा। ५. निराने या नींदने की मजदूरी। निरौनी। निंदाई। ६. वह अन्न जो किसान लोग मजदूरों को खेत काटने की मजदूरी के रूप में देते हैं। ७. कपास का पौधा। उदाहरण—सनु सूक्यौ पीतौ बनौ ऊखौ लई उखारि।—बिहारी। ८. वह भेंट जो किसान लोग अपने जमींदार को किसी उत्सव के उपलक्ष्य में देते हैं। शादियाना। ९. दे० वन। पुं०=बंद। स्त्री० [हिं० बनाना] १. सज-धज। बनावट। २. बाना। भेस।
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बन-आलू  : पुं० [हिं० बन+आलू] जमींकंद की जाति का एक कंद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बन-ककड़ी  : स्त्री० [सं० वन-कर्कटी] एक पौधा जिसका गोंद दवा के काम आता है।
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बन-कंडा  : पुं० [हिं० बन+कंडा] वह कंडा या गोहरी जो पाथकर न बनायी गयी हो बल्कि जंगल मे गाय भैस आदि के गोबर के सूख जाने पर आप से आप बनी हो।
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बन-कल्ला  : पुं० [हिं० बन+कल्ला] एक प्रकार का जंगली पेड़।
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बन-कस  : पुं० [हिं० वन+कुश] एक प्रकार की घास जिसे वनकुस, बँभनी, मोप और बाभर भी कहते हैं। इससे रस्सियाँ बनायी जाती है।
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बन-तुलसी  : स्त्री० [हिं० बन+तुलसी] बर्बर नाम का पौधा जिसकी पत्ती और मंजरी तुलसी की सी होती है। बर्बरी।
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बन-पति  : पुं० [स० वनपति] सिंह। शेर।
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बन-पती  : स्त्री०=वनस्पति। उदाहरण—भएउ बसंत राती बनपती।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बन-पथ  : पुं० [सं० वनपथ] १. समुद्र। २. ऐसा रास्ता जिसमें नदियाँ या जलाशय बहुत पड़ते हों। ३. ऐसा रास्ता जिसमें जंगल बहुत पड़ते हों।
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बन-पाट  : पुं० [हिं० बन+पाट] जंगली सन। जंगली पटुआ।
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बन-पाती  : स्त्री०=वनस्पति।
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बन-पाल  : पुं० [सं० वनपाल] बन या बाग का रक्षक। माली।
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बन-पिंडालू  : पुं० [हिं० बन+पिंडालू] एक प्रकार का मझोले जंगली वृक्ष। इसकी लकड़ी कंघी, कमलदान या नक्काशीदार चीजें बनाने के काम आती है।
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बन-फूल  : पुं० [हिं० वन+फूल०] जंगली वृक्षों के फूल।
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बन-फ़्शई  : वि० [फा०] १२. नीले रंग का। २. हलका हरा। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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बन-बास  : पुं० [सं० बन-वास] १. बन में जाकर रहने की क्रिया या अवस्था। २. प्राचीन भारत में, एक प्रकार का देश-निकाले का दंड।
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बन-बासी  : वि० [हिं० बनबास] १. बन में रहनेवाला। जंगली। २. बन में जाकर बसा हुआ। ३. जिसे बनबास (दंड) मिला हो।
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बन-बिलार  : पुं०=बन-बिलाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बन-मानुस  : पुं० [हिं० बन-मानुष] बंदरों से कुछ उन्नत और मनुष्य से मिलते-जुलते जंगली जंतुओं का वर्ग जिसमें गोरिल्ला, चिम्पैंजी, औरंग, ऊटंग आदि जन्तु हैं।
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बनउर  : पुं० १.=बिनौला। २.=ओला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनक  : स्त्री० [सं० वन+क (प्रत्यय)] वन की उपज। जंगल की पैदावार। जैसे—गोंद, लकड़ी शहद आदि। स्त्री० [?] एक प्रकार का साटन। स्त्री०=बानक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनकटी  : स्त्री० [हिं० वन (जंगल)+काटना] १. जंगल काटकर उसे आबादी करने, खेती-बारी अथवा रहने के योग्य बनाने का हक। २. एक प्रकार का पहाडी बाँस जिससे टोकरे बनाये जाते हैं।
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बनकर  : पुं० [सं० बनकर] १. शत्रु के चलाये हुए हथियार को निष्फल करने की एक युक्ति। २. सूर्य। (डिं०)। पुं० [स० वन+कर] वह कर जो जंगल में होनेवाली वस्तुओं के क्रय-विक्रय पर लगता है।
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बनकोरा  : पुं० [देश] लोनिया का साग। लोनी।
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बनखंड  : पुं० [स० वनखंड] १. वन का कोई खण्ड या भाग। २. वन्य प्रदेश।
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बनखंडी  : स्त्री० [हिं० वन+खंडा=टुकड़ा] १. वन का कोई खंड या भाग। २. छोटा जंगल या वन। वि० वन या जंगल में रहने या होनेवाला।
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बनखरा  : पुं० [हिं० वन+खरा०] वह भूमि जिसमें पिछली फसल में कपास बोयी गयी हो।
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बनखोर  : पुं० [देश] कौंर नामक वृक्ष।
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बनगाव  : पुं० [हिं० वन+फा० गाव=हिं० गौ०] १. एक प्रकार का बड़ा हिरन जिसे रोझ भी कहते हैं। २. एक प्रकार का जंगली तेंदू (वृक्ष)।
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बनगोभी  : स्त्री० [हिं० बन+गोभी] एक तरह की जंगली घास।
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बनचर  : पुं० [स० वनचर] १. जंगल में रहनेवाला पशु। वन्य पशु। २. वन या जंगल में रहनेवाला आदमी। जंगली मनुष्य। ३. जल में रहनेवाले जीव-जन्तु। वि० वन में रहनेवाला।
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बनचरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की जंगली घास जिसकी पत्तियाँ ज्वार की पत्तियों की तरह होती है। बरो। पुं०=बनचर। वि० बनचर का। बनचर संबंधी। जैसे—बनचरी रंग ढंग।
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बनचारी  : वि० [सं० बनचारिन्] वन में घूमने-फिरने या रहनेवाला। पुं० १. वन में रहनेवाले पशु, मनुष्य आदि। २. जल में रहनेवाले जीव-जन्तु। जलचर।
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बनचौर  : स्त्री० [स० बन+चमरी] पर्वतीय प्रदेशों में होनेवाली एक तरह की गाय जिसकी पूँछ की चँबर बनायी जाती है। सुरागाय।
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बनचौरी  : स्त्री०=बनचौर।
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बनज  : पुं० [स० वनज०] जंगल में होने या रहनेवाला जीव। वि० दे० ‘वनज’। पुं०=वाणिज्य। (व्यापार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनजना  : सं० [हिं० बनज] १. व्यापार करना। २. किसी के साथ किसी तरह की बात-चीत या लेन-देन निश्चित करना। जैसे—किसी की लड़की के साथ अपना लड़का बनजना (अर्थात् ब्याह पक्का करना)। स० १. व्यापार करने के लिए कोई चीज खरीदना। २. किसी को इस प्रकार वश में करना कि मानो उसे मोल ले लिया गया हो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनजर  : स्त्री०=बंजर।
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बनजरिया  : स्त्री० [हि० बन+जारना=जलाना] भूमि का वह टुकड़ा जो जंगल को जला या काटकर खेती-बारी के लिए उपयुक्त बनाया गया हो।
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बनजात  : पुं० [सं० वनजात०] कमल।
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बनजारा  : पुं० [हि० वनिक+हारा] १. वह व्यक्ति जो बैलों पर अन्न लादकर बेचने के लिए एक देश से दूसरे देश को जाता है। टाँडा लादनेवाला। व्यक्ति। टँडैया। बंजारा। २. व्यापारी। सौदागर।
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बनजी  : पुं० [सं० वाणिज्य] १. व्यापार या रोजगार करनेवाला। सौदागर। २. वाणिज्य। व्यापार।
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बनज्योत्स्ना  : स्त्री० [सं० वनज्योत्स्ना] माधवी लता।
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बनड़ा  : पुं० [?] बिलावन राग का एक भेद। यह झूमड़ा ताल पर गाया जाता है। पुं० [हिं० बना=दूल्हा] विवाह के समय वर-पक्ष में गाया जानेवाला एक प्रकार का गीत।
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बनड़ा-जैत  : पुं० [हिं० बनड़ा+सं० जयत] एक शालक राग जो रूपक ताल पर गाया जाता है।
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बनड़ा-देवगरी  : पुं० [हिं० बनड़ा+सं० देवगिरि] एक शालकराग जो एकताले पर गाया जाता है।
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बनत  : स्त्री० [हिं० बनना+त (प्रत्यय)] १. किसी चीज के बनने या बनाये जाने का ढंग, प्रक्रिया या भाव। २. किसी चीज की बनावट या रचना का विशिष्ट ढंग या प्रकार। अभिकल। भांत। (डिजाइन)। ३. पारस्परिक अनुकूलता या सामंजस्य। मेल। ४. गोटे-पट्टे की तरह की एक प्रकार की पतली पट्टी। बाँकड़ी।
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बनताई  : स्त्री० [हिं० बन+ताई (प्रत्यय)] १. वन या जंगल की सघनता। २. वन की भयंकरता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनतुरई  : स्त्री० [हि० वन+तुरई] बंदाल।
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बनद  : पुं० [सं० वनद] बादल। मेघ। वि० जल देनेवाला। जलद।
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बनदाम  : स्त्री० [सं० वनदाम] वन माला।
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बनदेवी  : स्त्री० [सं० वनदेवी] किसी वन की अधिष्ठात्री देवी।
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बनधातु  : स्त्री० [सं० बनधातु] गेरु या और कोई रंगीन मिट्टी।
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बनना  : अ० [सं० वर्णन; प्रा० वष्णन=चित्रित होना, रचा जाना] १. अनेक प्रकार के उपकरणों तत्त्वों आदि के योग से कोई नयी चीज तैयार होना अथवा किसी नये आकार या रूप में प्रस्तुत होकर असित्व में आना। जैसे—कल-कारखानों में कागज, चीनी या धातुओं की चीजें बनाना। पद—बना-बनाया=(क जो पहले से बनकर ठीक या तैयार हो। जैसे—बना-बनाया कुरता मिल गया। (ख) जिसमें पहले से ही पूर्णता हो, कोई कोर-कसर न हो। उदाहरण—मैं याचक बना-बनाया था।—मैथिलीशरण। मुहावरा—(किसी का) बना रहना-संसार में कुशलतापूर्वक जीवित रहना। जैसे—ईश्वर करे यह बालक बना रहे। (किसी का किसी स्थान पर) बना रहना=उपस्थित या वर्तमान रहना। जैसे—आप जब तक चाहें यहाँ बने रहें। २. किसी पदार्थ का ऐसे रूप में आना जिसमें वह व्यवहार में आ सके। काम मे आने के योग्य होना। जैसे—दाव या भोजन बनना। ३. किसी प्रकार के रूप परिवर्तन के द्वारा एक चीज से दूसरी नयी चीज तैयार होना। जैसे—चीनी से शरबत बनना, रूई से डोरा या सूत बनना। ४. उक्त के आधार पर पारस्परिक व्यवहार में किसी के साथ पहलेवाले भाव या संबंध के स्थान पर कोई दूसरा नया भाव या संबंध स्थापित होना। जैसे—(क) मित्र का शत्रु अथवा शत्रु का मित्र बनना। (ख) किसी का दत्तक पुत्र या मुँह-बोला भाई बनना। ५. आविष्कार आदि के द्वारा प्रस्तुत होकर सामने आना। जैसे—अब तो नित्य सैकड़ों तरह के नये-नये यंत्र बनने लगे हैं। ६. पहले की तुलना में अधिक अच्छी उन्नत या संतोषजनक अवस्था या दशा में आना या पहुँचना। जैसे—वे तो हमारे देखते-देखते बने हैं। पद—बनकर-अच्छी तरह से पूर्ण रूप से। भली-भाँति। उदाहरण—मनमोहन से बिछुरे इतही बनि कै न अबै दिन द्वै गये हैं।—पद्याकर। बनठनकर=खूब-बनाव सिंगार या सजावट करके। जैसे—आज-कल तो वह खूब बन-ठनकर घर से निकलते हैं। ७. किसी विशिष्ट प्रकारका अवसर योग या स्थिति प्राप्त होना। मुहावरा—बन आना=अच्छा अवसर योग या स्थिति होना। जैसे—उन लोगों के लड़ाई-झगड़े में तुम्हारी खूब बन आयी है। प्राणों पर आ बनना=ऐसी स्थिति आ पहुँचना कि प्राण जाने का भय हो। जान जाने तक की नौबत आना। जैसे—तुम्हारें अत्याचारों (या दुर्व्यवहारों) से तो मेरे प्राण पर आ बनी है। (किसी का) कुछ बन बैठना=वास्तविक अधिकार गुण योग्यता आदि का अभाव होने पर किसी पद या स्थिति का अधिकारी बन जाना अथवा यह प्रकट करना कि हम उपयुक्त या वास्तविक अधिकारी है। जैसे—वह कुछ सरदारों को अपनी ओर मिलाकर राजा (या शासक) बन बैठा। (हिं० के हो बैठना मुहा० की तरह प्रयुक्त) ८. किसी काम का ऐसी स्थिति में होना कि वह पूरा या सम्पन्न हो सके। सम्भव होना। जैसे—जिस तरह बने, उसकी जान बचाओ। ९. किसी प्रक्रिया से ऐसे रूप में आना जो बहुत ही उपयुक्त ठीक या सुन्दर जान पड़े। जैसे—(क) नयी बेल टँकने से यह साड़ी बन गयी हैं। (ख) दफ्ती पर चढ़ने और हाशिया लगने से यह तस्वीर बन गयी है। १॰. किसी प्रकार के दोष, विकार आदि दूर किये जाने पर या मरम्मत आदि होने पर किसी चीज का ठीक तरह काम में आने के योग्य होना। जैसे—पाँच रूपये में यह घड़ी बनकर ठीक हो जायगी। ११. किसी पद या स्थान पर नियुक्त या प्रतिष्ठित होकर नये अधिकार, मर्यादा आदि से युक्त होना। जैसे—किसी कार्यालय का व्यवस्थापक (या मंदिर का पुजारी) बनना। मुहावरा—बन बैठना=अधिकार ग्रहण करने या रूप धारण करके किसी पद या स्थान पर आसीन होना। जैसे—उनके मरते ही उनका भतीजा मालिक बन बैठा। १२. आर्थिक क्षेत्र में, किसी प्रकार की प्राप्ति या लाभ होना। जैसे—चलो इस सौदे में १॰. रूपये बन गये। १३. आपस में यथेष्ठ मित्रता के भाव से और घनिष्ठापूर्वक आचरण निर्वाह या व्यवहार होना। जैसे—इधर कुछ दिनों से उन दोनों में खूब बनने लगी है। १४. अभिनय आदि में किसी में किसी पात्र की भूमिका में दर्शकों के सामने आना। किसी का रूप धारण करना। जैसे—मैं अकबर बनूँगा और तुम महाराणा प्रताप बनना। १५. समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने आपको अधिक उच्च कोटि का या योग्य सिद्ध करने के लिए प्रायः गम्भीर मुद्रा धारण करके औरों से कुछ अलग-अलग रहना। जैसे—अब तो बाबू साहब हम लोगों से बनने लगे हैं। १६. किसी के बढ़ावा देने या बहकाने पर अपने आपको अधिक योग्य या समर्थ समझने लगना। और फलतः दूसरों की दृष्टि में उपहासास्पद तथा मूर्ख सिद्ध होना। जैसे—आज पंडितों की सभा में शास्त्री जी खूब बने। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः सकर्मक रूप में ही अधिक होता है। (जैसे—शास्त्री जी खूब बनाये गये) अकर्मक रूप में अपेक्षया कम ही होता है।
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बननिधि  : पुं० [सं० वननिधि] समुद्र।
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बनप्रिय  : पुं० [सं० बन-प्रिय, ब० स०] कोयल। कोकिल।
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बनफ्शा  : पुं० [फा० बनफ़्शा] एक प्रकार का वनस्पति जो नेपाल कश्मीर और हिमालय पर्वत के अनेक स्थानों में होती है और औषधि के काम आती है।
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बनबकरा  : पुं० [हिं० बन+बकरा] पर्वतीय प्रदेशों में होनेवाला एक तरह का बकरा।
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बनबाहन  : पुं० [सं० वनवाहन] जलयान। नाव नौका।
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बनबिलाव  : पुं० [हिं० बन+बिलाव-बिल्ली] बिल्ली की तरह का या उससे कुछ बड़ा और मटमैले रंग का एक जंगली हिंसक जंतु जो प्रायः झाड़ियों में रहता है और चिड़ियाँ पकड़कर खाता है। कुछ लोग इसलिए पालते हैं कि उससे चिड़ियों का शिकार करने मे बहुत सहायता मिलती है। इसके कानों का ऊपरी या बाहरी भाग काला होता है इसीलिए इसे ‘स्याहगोश’ भी कहते है।
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बनबुड़िया  : स्त्री०=पनडुब्बी।
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बनबेर  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का जंगली बेर।
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बनमाल  : स्त्री०=बनमाला।
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बनमाला  : स्त्री० [सं० वन-माला] १. जंगली फूलों को पिरो कर बनायी हुई माला। २. पैरों तक लम्बी वह माला जो तुलसी की पत्तियों और कमल, पारजात और मंदार के फूलों को पिरो कर बनायी जाती है।
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बनमाली  : वि० [सं० बनमाली] जो बनमाला धारण करता या धारण किये हुए हो। पुं० १. श्रीकृष्ण। २. नारायण। विष्णु। ३. बादल। मेघ। ४. ऐसा प्रदेश जिसमें बहुत से वन या जंगल हों।
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बनमुरगा  : पुं० [हिं० बन+फा० मुर्ग] [स्त्री० बनमुर्गी] एक तरह का जंगली मुर्गा जो पालतू मुर्गों की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है।
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बनमुरगिया  : स्त्री० [हिं० बन+फा० मुर्ग,+हिं० इया (प्रत्य०)] हिमालय की तराई में रहनेवाला एक प्रकार का पक्षी जिसका गला और छाती सफेद और सारा शरीर आसमानी रंग का होता है।
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बनमुर्गी  : स्त्री० [हिं०+फा०] कुकुटी नामक जंगली चिड़िया।
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बनरखा  : पं० [हिं० बन+रखना-रक्षा करना] १. जंगल और उसमें की सम्पत्ति की रक्षी करनेवाला व्यक्ति। २. एक जंगली जाति जो पशुपक्षी पकड़ने और मारने का कम करती है।
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बनरा  : पुं० [हिं० बनना] [स्त्री० बनरी] १. वर। दुल्हा। २. विवाह के समय गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत। पुं०=बंदर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनराज  : पुं० [सं० बन-राज, ष० त०] १. बन का राजा अर्थात् सिंह। २. बहुत बड़ा वृक्ष। पुं०=वृन्दावन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनराय  : पुं०=वनराज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनराह  : पुं० [सं० वन+राज] घना या बड़ा जंगल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनरी  : स्त्री० [हिं० बरना का स्त्री०] नयी ब्याही हुई बधू। दुल्हन। स्त्री०=बंदरी (मादा बंदर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनरीठा  : पुं० [हिं० वन+रीठा] एक प्रकार का जंगली रीठे का वृक्ष जिसके बीजों से लोग कपड़े तथा केश धोते हैं।
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बनरीहा  : स्त्री० [हिं० वन+रीहा (रीस) या सं० रूह-पौधा।] एक प्रकार का पौधा जिसकी घास को बटकर रस्सी बनायी जाती है। रीसा।
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बनरुह  : पुं० [सं० वनरुह] १. जंगली पेड़। २. कमल।
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बनरुहिया  : स्त्री० [सं० वनरुह] एक तरह का पौधा और उसकी कपास।
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बनरोहू  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का चौपाया जो देखने में बड़ी छिपकली की तरह होता है। (पैग्मेलिन)।
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बनवना  : स०=बनाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनवरा  : पुं०=बिनौला।
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बनवसन  : पुं० [सं० वनवसन] वृक्ष की छाल का बना हुआ कपड़ा।
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बनवा  : पुं० [सं० वन-जल+वा (प्रत्यय)] पनडुब्बी नामक जल-पक्षी। पुं० [?] एक प्रकार का बछनाग (विष)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनवाना  : स० [हिं० बनाना का प्रे० रूप] बनाने का काम दूसरे से कराना। किसी को कुछ बनाने में प्रवृत्त करना।
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बनवारी  : पुं०=वनमाली (श्रीकृष्ण)।
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बनवासी  : वि० पुं०=वनवासी।
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बनवैया  : वि० [हिं० बनाना+वैया (प्रत्यय)] बनानेवाला। वि० [हिं० बनवाना+वैया (प्रत्यय)] बनवानेवाला।
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बनसपती  : स्त्री०=वनस्पति।
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बनसार  : पुं० [सं० वन+शाला] समुद्र तट का वह स्थान जहाँ से जहाज पर चढ़ा या जहाँ से जहाज से उतरा जाता है।
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बनसी  : स्त्री० [हिं० बंसी] १. बाँसुरी। २. मछलियाँ फँसाने की कँटिया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनस्थली  : स्त्री०=वनस्थली (वन की भूमि)।
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बनस्पति  : पुं०=वनस्पति।
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बनहटी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी नाव।
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बनहरदी  : स्त्री० [सं० वन हरिद्रा] दारुहलदी।
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बना  : पुं० [?] एक प्रकार का छंद जिसमें १0, ८ और १४ के विश्राम से ३२ मात्राएँ होती है। इसे दंडकला भी कहते हैं पुं० [हिं० बनना] [स्त्री० बनी] दूल्हा। वर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बना-बनत  : स्त्री० [हिं० बनना] वर और कन्या का सम्बन्ध स्थिर करने से पहले उनकी जन्म-पत्रियों का गणित ज्योतिष के अनुसार किया जानेवाला मिलान। क्रि० प्र०—निकालना।—बनाना।—मिलाना।
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बनाइ  : अव्य० [हिं० बनाकर-अच्छी तरह] १. अच्छी तरह। भली-भाँति (दे० बनाना के अंतर्गत पर बनाकर) २. अधिकता से। ३. निपट। बिलकुल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बनाउ  : पुं०=बनाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनाउरि  : स्त्री०=वाणाविल (वाणों की पंक्ति)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनाग्नि  : स्त्री० [सं० बनाग्नि] वन में लगनेवाली आग। दावानल।
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बनात  : स्त्री० [हिं० बनाना] [वि० बनाती] एक प्रकार का बढ़िया तथा रंगीन ऊनी कपड़ा।
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बनाती  : वि० [हिं० बनात+ई (प्रत्यय)] १. बनात संबंधी। २. बनात का बना हुआ।
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बनान  : स्त्री० [हि० बनाना] बनाने की क्रिया, ढंग या भाव। बनावट।
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बनाना  : स० [हिं० बनना का स०] १. किसी चीज को अस्तित्व देना या सत्ता में लाना। रचना। जैसे—(क) ईश्वर ने यह संसार बनाया है। (ख) सरकार ने कानून बनाया है। २. भौतिक वस्तुओं के संबंध में उन्हें तैयार या प्रस्तुत करना। रचना। जैसे—(क) मकान या कारखाना बनाना। (ख) गंजी या मोजा बनाना। ३. अभौतिक तथा अमूर्त वस्तुओं के संबंध में विचार जगत से लाकर प्रत्यक्ष करना। जैसे—कविता बनाना। पद—बनाकर=खूब अच्छी तरह। भली-भाँति। जैसे—आज हम बनाकर तुम्हारी खबर लेगे। मुहावरा—(किसी व्यक्ति को) बनाये रखना-अच्छी दशा में अथवा ज्यों का त्यों रखना। रक्षापूर्वक रखना। (किसी व्यक्ति को) बनाये रखना=सकुशल, जीवित या वर्तमान रखना। जैसे—(क) ईश्वर आपको बनाये रखे (आर्शीवाद) (ख) किसी को अनुकूल या अपने प्रति दयालु रखना। जैसे—उन्हें बनाये रखने से तुम्हारा लाभ ही होगा। ४. ऐसे रूप में लाना कि वह ठीक तरह से काम मे आ सके अथवा भला और सुन्दर जान पड़े। ५. किसी विशिष्ट स्थिति में लाना। जैसे—उन्होंने अपने आपको बना लिया है अथवा अपने लड़के को बना दिया है। मुहावरा—बनाये न बनना=बहुत प्रयत्न करने पर भी कार्य की सिद्धि या सफलता न होना। जैसे—अब हमारे बनाये तो नही बनेगा। उदाहरण—जौ नहिं जाऊँ रहइ पछितावा। करत विचार न बनइ बनावा।—तुलसी। ६. आर्थिक क्षेत्र में उपार्जित या प्राप्त करना। लाभ करना। जैसे—उन्होने कपड़े के रोजगार में लाखों रुपये बना लिये है। ७. किसी पदार्थ के रूप आदि में कुछ विशिष्ट क्रियाओं के द्वारा ऐसा परिवर्तन करना कि वह नये प्रकार से काम में आ सके। जैसे—गुड़ से चीनी बनाना, चावल से भात बनाना, आटे से रोटी बनाना। ८. एक विशिष्ट रूप से दूसरे विपरीत या विरोधी रूप में लाना। जैसे—(क) मित्र को शत्रु अथवा शत्रु को मित्र बनाना। (ख) झूठ को सच बनाना। ९. दोष, विकार आदि दूर करके उचित या उपयुक्त दशा या रूप में लाना। जैसा होना चाहिए वैसा करना। जैसे—पछोड़ या पटककर अनाज बनाना। १॰. जो चीज किसी प्रकार बिगड़ गयी हो उसे ठीक करके ऐसा रूप देना कि वह अच्छी तरह काम दे सके। मरम्मत करना। जैसे—कलम बनाना, घड़ी बनाना। ११. किस प्रकार का आविष्कार करके कोई नयी चीज तैयार या प्रस्तुत करना। जैसे—नये तरह का इंजन या हवाई जहाज बनाना। १२. अंकन, लेखन आदि की सहायता से नयी रचना प्रस्तुत करना। जैसे—गजल या तसवीर बनाना। १३. किसी को किसी पद या स्थान पर आसीन अथवा प्रतिष्ठित, करके अधिकार, प्रतिष्ठा, मर्यादा आदि से युक्त करना। जैसे—(क) किसी को मठ का महंत या सभा का सभापति बनाना। (ख) अपना प्रतिनिधि बनाना। १४. किसी के साथ कोई नया पारिवारिक संबंध स्थापित करना। जैसे—किसी को अपना दामाद, भाई या लड़का बनाना। १५. बात-चीत में किसी की प्रशंसा करते हुए उसे बढ़ावा देते हुए ऐसी स्थिति में लाना कि वह आत्म-प्रशंसा करता-करता औरों की दृष्टि में उपहासास्पद और मूर्ख सिद्ध हो। जैसे—आज पंडित जी को लोगों ने खूब बनाया। १६. कोई विशिष्ट क्रिया या व्यापार सम्पन्न करना। जैसे—(क) खिलाड़ी का गोल बनाना। (ख) नाई का दाढ़ी बनाना। (ग) डाक्टर का आँख बनाना।
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बनाफर  : पुं० [सं० वन्यफल] राजपूत क्षत्रियों की एक शाखा।
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बनाम  : अव्य० [फा०] १. किसी के नाम पर। नाम से। जैसे—बनामे खुदा=ईश्वर के नाम पर। २. किसी के उद्देश्य के किसी के प्रति। ३. किसीके विरुद्ध। जैसे—यह दावा सरकार बनाम बेनीमाधव दायर हुआ है अर्थात् सरकार ने बेनीमाधव पर मुकदमा चलाया है।
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बनाय  : अव्य० [हिं० बनाकर=अच्छी तरह] १. अच्छी तरह बनाकर। २. ठीक ढंग से। अच्छी तरह। ३. पूरी तरह से। पूर्णतया।
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बनार  : पुं० [?] १. चाकसू नामक ओषधि का वृक्ष। २. काला सकौदा। कासमर्द। ३. एक मध्ययुगीन राज्य जो वर्तमान काशी की सीमा पर था। अव्य दे० ‘बनाय’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनारना  : स० [?] काटना, विशेषतःकाट-काटकर किसी चीज के टुकड़े करना।
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बनारस  : पुं० [सं० वाराणसी] [वि० बनारसी] हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ काशी का आधुनिक नाम।
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बनारसी  : वि० [हिं० बनारस+ई (प्रत्यय)] १. बनारस (नगर) संबंधी। २. बनारस में बनने, रहने या होनेवाला। जैसे—बनारसी साड़ी। पुं० बनारस का निवासी।
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बनारी  : स्त्री० [सं० प्रणाली] कोल्हू में नीचे की ओर लगी हुई नाली की वह लकड़ी जिससे रस-नीचे नांद में गिरता है।
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बनाल  : पुं०=बंदाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनाला  : पुं०=बंदाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनाव  : पुं० [हिं० बनना+आव (प्रत्यय)] १. बनने, या बनाये जाने की क्रिया या भाव। २. बनावट। रचना। ३. श्रृंगार। सजावट। पद—बनाव-सिंगार।
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बनाव-सिंगार  : पुं० [हिं० ] किसी चीज की विशेषतः शरीर की वह सजावट जो प्रायः दूसरों को आकृष्ट करने या उन पर प्रभाव डालने के लिए की जाती है।
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बनावट  : स्त्री० [हिं० बनाना+आवट (प्रत्यय)] [वि० बनावटी] १. किसी चीज के बनने या बनाये जाने का ढंग या प्रकार। रचने या रचे जाने की शैली। रूप-विधान। २. किसी वस्तु का वह रूप जो उसे बनाने या बनाये जाने पर प्राप्त होता है। रूप-रचना। गढ़न। जैसे—इन दोनों कमीजों की बनावट में बहुत थोड़ा अन्तर है। ३. किसी चीज को विशिष्ट और सुन्दर रूप में लाने की क्रिया या भाव। रूपाधान। (फार्मेशन)। ४. केवल दूसरों को दिखाने के लिए बनाया जानेवाला ऐसा आचरण, रूप या व्यवहार जिसमें तथ्य, दृढ़ता, वास्तविकता, सत्यता आदि का बहुत कुछ या सर्वथा अभाव हो। केवल दिखावटी आकार-प्रकार आचार-व्यवहार या रूप-रंग। ऊपरी दिखाबा। आडंम्बर। कृत्रिमता। जैसे—(क) यह उनकी वास्तविक सहानुभूति नहीं है, कोरी बनावट है। (ख) उसकी बनावट मे मत आना वह बहुत बड़ा धूर्त है। ५. वह दम्भपूर्ण मानसिक स्थिति जिसमें मनुष्य अपने आपको यथार्थ अथवा वास्तविकता से अधिक योग्य, सदाचारी आदि सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। पाखंडपूर्ण, मिथ्या, आचरण और व्यवहार। (एफेकेटशन) जैसे—यों साधारणतः वे अच्छे विद्वान है पर उनमें बनावट इतनी अधिक है कि लोग उनकी बातों से घबराते हैं। ६. दे० ‘रचना’।
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बनावटी  : वि० [हिं० बनावट] १. जिसमें केवल बनावट हो तथ्य या वास्तविकता कुछ भी न हो। ऊपरी या बाहरी। जैसे—बनावटी हँसी। २. वास्तविक के अनुकरण पर बनाया हुआ। कृत्रिम। नकली। जैसे—बनावटी नगीना।
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बनावंत  : स्त्री० दे० ‘बना=बनत’।
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बनावन  : पुं० [हिं० बनाना] १. बनाने की क्रिया या भाव। २. अन्न में मिली हुई वे कंकड़ियाँ आदि जो बिनकर निकाली जाती है। ३. इस तरह बिनकर निकली हुई रद्दी चीजों का ढेर।
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बनावनहारा  : वि० पुं० [हिं० बनाना+हारा (प्रत्यय)] १. बनानेवाला। सुधारनेवाला।
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बनास  : स्त्री० [देश०] राजपूताने की एक नदी जो अर्वली पर्वत से निकलकर चम्बल नदी में गिरती है।
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बनासपती  : स्त्री०=वनस्पति। वि० वनस्पतियों से बनाया हुआ। जैसे—बनासपती घी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनि  : अव्य० [हिं० बनाना] पूर्णरूप से अच्छी तरह। बनाकर। उदाहरण—अमित काल मै कीन्ह मजूरी आजु दीन्ह विधि बनि भलि भूरी।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनिक  : पुं०=बणिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनिज  : पुं० [सं० वाणिज्य] १. रोजगार। व्यापार। २. व्यापार की वस्तु। सौदा। ३. ऐसा आसामी जिससे यथेष्ठ आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सके। ४. धनी या सम्पन्नी यात्री। (ठग)। क्रि० प्र०—फँसाना।
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बनिजना  : स० [सं० वाणिज्य, हिं० बनिज+ना (प्रत्यय)] १. खरीदना और बेचना। रोजगार करना। २. मोल लेना। खरीदना। ३. किसी को मूर्ख बनाकर कुछ रुपये ठगना।
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बनिजारा  : पुं०=बनजारा।
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बनिजारिन  : स्त्री ०=बनजारिन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनिजारी  : स्त्री०=बनजारिन।
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बनिजी  : वि० [सं० वणिज्] वाणिज्य-संबंधी। पुं० घूम-घूमकर सौदा बेचनेवाला व्यापारी। पेरीदार।
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बनित  : स्त्री० [हिं० बनना] बानक। बाना। वेश।
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बनिता  : स्त्री० [स० बनिता] १. स्त्री० औरत। २. जोरू पत्नी। भार्या।
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बनिनि  : स्त्री० [हिं० बनना] १. बनावट। २. बनाव-सिंगार। ३. सजावट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनिया  : पुं० [सं० वणिक्] [स्त्री० बनियाइन, बनैनी] १. व्यापार करने वाला व्यक्ति। व्यापारी। वैश्य। च आटा, दाल, नमक मिर्च आदि बेचनेवाला दुकानदार। मोदी। ३. लाक्षणिक अर्थ में, व्यापारिक मनोवृत्तिवाला फलतः स्वार्थी व्यक्ति।
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बनियाइन  : स्त्री० [अ० बैनियन] कमीज, कुरते आदि के नीचे पहनने का एक तरह का सिला हुआ कम लम्बा पहनावा। गंजी। स्त्री० हिं० ‘बनिया’ का स्त्री० । (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनिस्बत  : अव्य० [फा०] किसी की तुलना या मुकाबले में० अपेक्षया। जैसे—उस कपड़े की बनिस्बत यह कपड़ा कहीं अच्छा है।
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बनिहार  : पुं० [हिं० बन+हार (प्रत्यय) अथवा हिं० बन्नी] वह आदमी जो कुछ वेतन अथवा उपज का अंश लेकर दूसरों की जमीन जोतने, बोने, फसल आदि काटने और खेत की रखवाली का काम करता है।
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बनी  : स्त्री० [हिं० वन] १. वन का एक टुकड़ा। वनस्थली। २. बगीचा। वाटिका। उदाहरण—महादेव की सी बनी चित्र लेखी।—केशव। ३. एक प्रकार की कपास। स्त्री० [पुं० बना] १. दुल्हन। वधू। २. सुन्दरी। स्त्री। नायिका। पुं०=बनिया।
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बनीनी  : स्त्री० [हिं० बनी+ईनी (प्रत्यय)] १. वैश्य जाति की स्त्री। बनिये की स्त्री।
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बनीर  : पुं०=बानीर (बेंत)।
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बनेठी  : स्त्री० [हिं० बन+सं० यष्टि] एक तरह की छड़ी जिसके दोनों सिरों पर एक-एक लट्टू लगा रहता है। और जिसका उपयोग मुख्यतः पटेबाजी के खेलों में होता है।
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बनेला  : पुं० [देश०] रेशम बनानेवाला एक प्रकार का कीड़ा। वि० बनैला।
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बनैया  : वि० [हिं० बनाना] बनानेवाला। वि०=बनैला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनैल  : वि०=बनैला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनैला  : वि० [हिं० बन+ऐला (प्रत्यय)] जंगली। वन्य। पुं० जंगली सूअर।
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बनोबास  : पुं०=बनवास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनौआ  : वि० [हिं० बनाना+औआ (प्रत्यय)] १. बना या बनाया हुआ। २. कृत्रिम। बनावटी।
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बनौट  : स्त्री०=बिनवट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनौरी  : स्त्री० [हिं० वन+औटी (प्रत्यय)] कापस के फूल का सा। कपासी। पुं० एक प्रकार का रंग जो कपास के रंग से मिलता-जुलता है। स्त्री०=बिनवट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बनौरी  : स्त्री० [हिं० बन-जल+ओला] आकाश में बरसनेवाले हिमकण। ओला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बन्ना  : पुं० [हिं० बनना या बना०] [स्त्री० बन्नी] १. लोकगीतों में, वर। दूल्हा। २. विशेषतः वह व्यक्ति जिसका विवाह हो रहा हो। ३. विवाह के समय में, वर पक्ष की स्त्रियों के द्वारा गाया जानेवाला एक तरह का लोकगीत। बनड़ा।
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बन्नात  : स्त्री०=बनात (एक तरह का ऊनी रंगीन कपड़ा)।
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बन्नी  : वि० [हिं० वन] वन में होनेवाला। जैसे—बन्नी खड़िया, बन्नी मिट्टी आदि। स्त्री० [हिं० बन्ना] १. दुल्हिन। २. कन्या जिसका विवाह हो रहा हो। स्त्री० [?] १. खेत में काम करनेवालों को मिलनेवाला खड़ी फसल का कुछ अंश। २. उतनी भूमि जिसमें उक्त अंश हो।
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बन्हि  : स्त्री०=बहिन (बहिन)।
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बप  : पुं० [सं० वप्तृ] बाप। पिता। पुं० वपु। (शरीर)।
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बप-मार  : वि० [हिं० बाप+मारना] [भाव० बप-मारी] १. जिसने अपने पिता का वध किया हो। २. जो अपने पूज्य और बड़े व्यक्तियों तक का अपकार करने से भी न चुके। बड़ों तक के साथ द्रोह या विश्वास घात करनेवाला।
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बपख  : पुं० [सं० वपुष] देह। शरीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बपतिस्मा  : पुं० [अं० बैप्टिज़्म] नव-जात शिशु अथवा अन्य धर्मावम्बी को मसीही धर्म में दीक्षित करते समय होनेवाला एक संस्कार।
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बपना  : स० [सं० वपन] वपन करना। बीज बोना।
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बपंस  : पुं० [हिं० बाप+सं० अंश] १. पिता की सम्पत्ति में पुत्र को मिलनेवाला अंश। २. वह गुण जो पुत्र को पिता से प्राप्त हुआ माना जाय।
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बपु  : पुं० [सं० बपु०] १. शरीर। देह। २. ईश्वर का शरीरधारी रूप। अवतार। ३. आकृति। रूप। शकल।
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बपुरा  : वि०=बापुरा (बेचारा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बपौती  : स्त्री० [हिं० बाप+औती (प्रत्यय)] १. पिता की ऐसी सम्पत्ति जो पुत्र को उत्तराधिकार के रूप में मिली हो, मिलने को हो, अथवा उसे प्राप्य हो। २. वह अधिकार जो किसी को अपने पिता तथा पितृ-पक्ष की सम्पत्ति पर होता है।
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बप्पा  : पुं० [हिं० बाप] पिता। बाप। पद—बप्पारे बप्पा-आश्चर्य, दुःख आदि के समय मुँह से निकलनेवाला पद।
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बफरना  : अ० [सं० विस्फालन] १. अभिमान या गर्वपूर्वक लड़ने के लिए ताल ठोंकना या किसी प्रकार का शब्द करना। २. उत्पात या उपद्रव करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बफारा  : पुं० [हिं० भाप+आरा (प्रत्यय)] १. ओषधि के युक्त किये गये जल को उबालने पर उसमें से निकलनेवाली भाप। २. उक्त भाप से किया जानेवाला सेंक। क्रि० प्र०—देना।—लेना। ३. वे औषधियाँ जो उक्त कार्य के लिए गरम पानी में उबाली जाती है
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बफौरी  : स्त्री० [हिं० भाप०] भाप से पकायी जानेवाली या पकी हुई बरी। [हिं० बफरना] उछलने की क्रिया या भाव। उछाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंब  : पुं० [अनु०] १. बंब शिव शिव आदि शब्दों की ऊँची ध्वनि जो शैव लोग भक्ति की उमंग में शिव को प्रसन्न करने के लिए किया करने हैं। २युद्धारम्भ में वीरों का उत्साहवर्धक नाद। रणनाद। उदाहरण—नारद कब बंदूक चलाया व्यासदेव कब कब बजाया। कबीर। ३. बहुत जोर का शब्द। क्रि० प्र०—देना।—बोलना। ४. धौंसा। नगाड़ा। ५. सींग का बना हुआ तुरही की तरह का एक बाजा। ६. दे० ‘बम’।
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बंबई  : स्त्री० [सं० वल्मीक] १. दीमकों की बांबी। २. रहस्यवादी संतों की भाषा में देह। शरीर।
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बबकना  : अ०=बमकना (दे०)।
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बबर  : पुं० [अ०] १. बिल्ली की जाति का एक बिना पूँछवाला वन्य पशु जो सेर को भी मार डालता है। २. बड़ा शेर। सिंह। ३. वह कम्बल जिस पर शेर की खाल की सी धारियाँ बनी होती है। वि० शेर के साथ विशेषण रूप में प्रयुक्त होने पर, भयानक और विकराल। जैसे—बबर शेर।
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बबरी  : स्त्री० [हिं० बबर] १. लटका हुआ बाल। (विशेषकर घोड़े का)। २. बालों की लट।
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बंबा  : पुं० [अ० बंमा] १. स्रोत। सोता। २. उद्गम। ३. पानी की कल। पम्प। ४. जल-कल। ५. पानी बहाने का नल। ६. कोई लम्बोतरा गोल पात्र। जैसे—डाक की चिट्ठियाँ डालने का बंबा।
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बबा  : पुं०=बाबा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंबाना  : अ० [अनु०] गौ आदि पशुओं का बाँ-बाँ शब्द करना। रँभाना।
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बबुआ  : पुं० [हिं० बाबू] [स्त्री० बबुआइ, बबुई] १. दामाद, और पुत्र के लिए प्यार का सम्बोधन। (पूरब)। २. जमींदार और रईस। ३. छोटे लड़कों के लिए प्यार का सम्बोधन।
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बबुई  : स्त्री० [हिं० बबुआ का स्त्री०] १. बेटी। कन्या। २. बड़े जमींदार या रईस की लड़की। ३. पति की छोटी बहन। छोटी ननद।
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बबुनी  : स्त्री०=बबुई।
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बबुर  : पुं०=बबूल।
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बंबू  : पुं० [मलाया बम्बू-बाँस] १. चंडू पीने की बाँस की नली। २. नली। क्रि० प्र०—पीना।
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बंबूकाट  : पुं० [मलाया० बंबू+अं० कार्ट] एक प्रकार की टाँगे की तरह की सवारी (पश्चिम)।
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बबूना  : पुं० [?] एक प्रकार की छोटी चिड़िया जिसका ऊपरी बदन हरापन लिये सुनहला पीला और दुम गहरी भूरी होती है। इसकी आँखों के चारों ओर एक सफेद छल्ला सा रहता है।
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बँबूर  : पुं०=बबूल।
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बबूल  : पुं० [सं० बब्बूर] एक प्रसिद्ध कँटीला पेड़ जसकी पतली-पतली शाखाएँ दतुअन के काम आती है। कीकर।
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बबूला  : पुं० [देश०] हाथियों के पाँव मे होनेवाला एक प्रकार का फोडा़। वि, समस्त पदों के अन्त में उक्त फोडे़ के समान तना और सूजा हुआ। पद—आग-बबूला। (दे० )। पुं० १.=बगूला। २.=बुलबुल। २. -बबूला।
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बब्बू  : पुं० [?] उल्लू। (पक्षी)। पुं० [हिं० बाबू] छोटे बच्चों के लिए प्यार का एक सम्बोधन। (पश्चिम)।
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बंभ  : पुं०=ब्रह्म। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँभनाई  : स्त्री० [सं० ब्राह्मण] १. ब्राह्मणत्व। ब्राह्मणपन। २. ब्राह्मणों की यजमानी धोती। ३. दुराग्रह। ४. जिद। हठ।
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बभनी  : स्त्री० बम्हनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बभूत  : स्त्री० १=भभूत। २.=विभूति।
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बभ्रु  : वि० [सं०√भ्रू+कु] १. गहरे भूरे रंग का। २. खल्वाट। गंजा। पुं० १. गहरा भूरा रंग। २. अग्नि। ३. नेवला। ४. चातक। ५. विष्णु। ६. शिव।
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बभ्रु-धातु  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. सोना। स्वर्ण। २. गेरू।
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बभ्रु-लोमा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] भूरे बालोंवाला।
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बभ्रुवाहन  : पुं० [सं० ब० स०] चित्रांगदा के गर्भ से उत्पन्न अर्जुन का एक पुत्र जो मणिपुर का शासक था।
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बभ्रुवी  : स्त्री० [सं० बभ्रु+अण्+ङीष्] दुर्गा।
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बम  : पुं० [अनु०] १. शिव के उपासकों का वह बम बम शब्द जिससे शिवजी का प्रसन्न होना माना जाता है। मुहावरा—बम बोलना या बोल जाना=शक्ति, धन आदि की समाप्ति या अंत हो जाना। बिलकुल खाली हो जाना। कुछ न रह जाना। २. शहनाईवाला का एक छोटा नगाड़ा जो बजाते समय बायी ओर रहता है। मादा नगाड़ा। नगड़िया। पुं० [कन्नड़, बम्बू-बाँस] १. बग्घी, फिटन आदि में आगे की ओर लगा हुआ वह लम्बा बाँस जिसके दोनों ओर घोड़े जोते जाते हैं। २. इक्ते, टाँगे आदि में के वे बाँस या लम्बोतरे अंग जिनमें घोड़ा जोता जाता है। पुं० [अं० बाम्ब] १. वह विस्फोटक रासायनिक गोल जिसके फूटने से घोर शब्द होता है तथा व्यापक बरबादी और जीव-संहार होता है। २. एक तरह की आतिशबाजी जिसमें से जोर का शब्द निकलता है।
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बम-चख  : स्त्री० [अनु० बम+चीखना] १. शोरगुल। हल्ला-गुल्ला। २. लड़ाई-झगड़ा। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना।—मचना।—मचाना। ३. कहा-सुनी।
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बम-पुलिस  : पुं०=बंपुलिस (सार्वजनिक शौचालय)।
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बम-बाजी  : स्त्री० [हिं० बम+फा० बाजी] बम गिराने या फेंकने की क्रिया या भाव।
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बम-भोला  : पुं० [हिं० बम+भोला] महादेव। शिव।
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बम-वर्षक  : पुं० [हिं० बम+सं० वर्षक] एक तरह का बहुत बड़ा हवाई जहाज जो बम फेकने के काम आता है। (बाँम्बर)।
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बम-वर्षा  : स्त्री० [हिं० बम+वर्षा] बम-बारी।
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बमकना  : अ० [अनु०] १. क्रुद्ध होकर जोर से बोलना। २. डींग हाँकना।
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बमकाना  : स० [हिं० बमकना] ऐसा काम करना जिससे कोई बमके। किसी को बमकाने में प्रवत्त करना।
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बमगोला  : पुं० [हिं० बम+गोला] बम (विस्फोटक तथा रासायनिक गोला)। वि० १. आफत का परकाला। २. हो-हल्ला करनेवाला।
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बमना  : स० [सं० वमन०] १. वमन करना। कै करना। २. उगलना।
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बमबाज  : वि० [हिं० बम+फा० बाज०] [भाव० बमबाजी] १. (वायुयान) जो बम गिराता हो। २. (व्यक्ति) जो शत्रुओं पर बम फेंकता हो।
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बमीठा  : पुं०=बाँबी (दीमकों का)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बमेल  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
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बमोट  : पुं०=बमीठा। (दीमकों की बाँबी)।
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बम्भण  : पुं०=ब्राह्मण।
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बम्हनी  : स्त्री० [सं० ब्राह्मण, हिं० बाम्हन] १. छिपकली की तरह का एक रेगनेवाला छोटा पतला कीड़ा। इसकी पीठ चित्तीदार काली दुम और मुँह लाल चमकीले रंग का होता है। २. आँख की पलकों पर होनेवाली फुंसी। गुहाजनी। बिलनी। ३. वह गाय जिसकी पलकों पर के बाल झढ़ गये हो। ४. ऊख या गन्ने को होनेवाला एक रोग। ५. हाथी का एक रोग जिसमें दुम सड़-गलकर गिर जाती है। ६. ऐसी जमीन जिसकी मिट्टी लाल हो। ७. कुश की जाति का एक तृण। वन-कुस।
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बय  : स्त्री=वय (अवस्था)। पुं०=बै (विक्रय)।
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बयंड  : पुं० [हिं० गयंद=सं० गजेंद्र] हाथी। (डिं० )।
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बयन  : पुं० [सं० वचन] वाणी। बोली। बात।
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बयना  : स० [सं० वपन, प्रा० बयन] खेत में बीज होना। स० [सं० वचन] कहना। पुं०=बैना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बयनी  : वि० [हिं० बयन] यौं के अन्त में, बोलनेवाली विशेषतः मधुर स्वर में बोलनेवाली। जैसे—पिक-बयनी।
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बयर  : पुं०=बैर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बयल  : पुं० [?] सूर्य। (डिं०)।
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बयस  : स्त्री० [सं० वयस] अवस्था। उमर।
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बयस-शिरोमनि  : पुं० [सं० वयस शिरोमणि] युवास्था। जवानी। यौवन।
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बयसर  : स्त्री० [देश] कमखाब बुननेवालों की वह लकड़ी जो उनके करघे में गुलने के ऊपर और नीचे लगती है।
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बयसवाला  : वि० [सं० वयस+हिं० वाला] [स्त्री० बयसवाली] युवक। जवान।
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बया  : पुं० [सं० वयस=बुनना] पोले या चमकीले माथेवाली एक प्रसिद्ध छोटी चिड़िया जो खजूर, ताड़ आदि ऊँचे पेड़ों पर बहुत ही कलापूर्ण ढंग से अपना घोंसला बनाती है। पुं० [सं० वायः-बेचनेवाला] वह जो अनाज तौलने का काम करता हो। अनाज तौलनेवाला। तौलैया।
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बयाई  : स्त्री० [हिं० बया+आई (प्रत्यय)] १. ‘बया’ का काम या पद। २. अन्न आदि तौलने की मजदूरी। तौलाई।
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बयान  : पुं० [फा०] १. बात-चीत। २. जिक्र। चर्चा। ३. वृत्तांत। हाल। ४. न्यायालय में अभियुक्त द्वारा दिया जानेवाला अपना वक्तव्य। क्रि० प्र०—देना।—लेना।
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बयाना  : पुं० [अ० बै=बिक्री+फा० आ (प्रत्यय)] वह धन जो किसी वस्तु का खरीदकर उसके बेचनेवाले को क्रय-विक्रय की बात पक्की करने के समय देता है। पेशगी। अ०=बड़बड़ाना।
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बयाबान  : पुं० [फा०] [वि० बयाबानी] १. जंगल। २. उजाड़ या सुनसान जगह।
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बयाबानी  : वि० [फा०] १. जंगली। २. बनवासी।
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बयार  : स्त्री० [सं० वायु] हवा। पवन। मुहावरा—बयार करना=पंखा झलकर किसी को हवा पहुँचाना। बयार भखना=प्राणायाम करने के लिए नाक से वायु अंदर खींचना। उदाहरण—ऊधो हाय हम कौ बयारि भखिबो कहौ।—रत्नाकर।
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बयारा  : पुं० [हिं० बयार] १. हवा का झोंका। २. अँधड़। तूफान।
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बयारि  : स्त्री०=बयार।
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बयारी  : स्त्री० बयार (हवा)।
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बयाला  : पुं० [सं० बाह्य+हिं० आला] १. दीवार में का छेद जिसमें से झाँककर उस पार की घटनाएँ या दृष्य देखे जाते हैं। २. आला। ताखा। ३. किले की दीवारों पर तोपें रखने के लिए बना हुआ स्थान। ४. उक्त स्थान के आगे दीवार में बना हुआ वह छंद जिसमें से तोप का गोला बाहर जाकर गिरता है। ५. पटे या पाटे हुए स्थान के नीचे का खाली स्थान।
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बयालीस  : वि० [सं० द्विचत्वारिशत्; प्रा० विचत्तालीसा] जो गिनती में चालीस से दो अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार (४२) लिखी जाती है।
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बयालीसवाँ  : वि० [हिं० बयालीस+वाँ (प्रत्यय)] ४२ संख्या के विचार से बयालीस के स्थान पर पड़ने या होनेवाला।
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बयासी  : वि० [सं० द्वि+अशीति, प्रा० बिअसी] जो गिनती में अस्सी से दो अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो अंकों में एस प्रकार (८२) लिखी जाती है।
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बर  : पुं० [सं०√वृ (धारण)+अप्] १. वह व्यक्ति जिसका विवाह हो रहा हो या निश्चित हो चुका हो। वर। पद—बर का पानी=विवाह से पहले नहछू के समय का वह पानी जो वर को स्नान कराने पर गिरकर बहता है और जो एक पात्र मे एकत्र करके कन्या के घर स्नान कराने के लिए भेजा जाता है। २. वह आर्शीवाद सूचक वचन जो किसी की अभिलाषा, प्रार्थना मनोकामना आदि पूरी करने के लिए कहा जाता है। वर। क्रि० प्र०—देना।—मांगना।—मिलना। वि० १. अच्छा। बढ़िया। २. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० [सं० वट] वट वृक्ष। बरगद। पुं० [सं० बल] १. शक्ति। उदाहरण—पुं० बर करि कृपा सिंधु उर लाये।—तुलसी। २. रेखा। लकीर। ३. दृढ़ता या प्रतिज्ञापूर्वक कही हुई बात। मुहावरा—बर खाँचना=(क) कोई प्रतिज्ञा करने या बात कहने के समय अपनी दृढ़ता सूचित करने के लिए उँगली से जमीन पर रेखा खींचना। (ख) किसी काम या बात के लिए जिद या हठ करना। पुं० [सं० वर्ग] १. कपड़े या किसी लम्बी चीज की चौड़ाई। अरज। २. व्यापारिक क्षेत्रों में किसी तरह या मेल की चीजों में का कोई अलग या छोटा वर्ग। जैसे—बनारसी कपड़ों के व्यवसाय में लहँगें साड़ी, या साफे का बर। जैसे—बनारसी कपड़ों के व्यवसाय में लहँगे, साड़ी या साफे का बर। अर्थात् वह क्षेत्र जिसमें केवल लहँगे केवल साड़ियाँ अथवा केवल साफे आते हैं। पुं० [देश] एक प्रकार की कीड़ा जिसे खाने से पशु मर जाते हैं। अव्य-बरू (बल्कि या वरन्)। पुं० [फा] वृक्ष का फल। वि० १. फल से युक्त। सफल। जैसे—किसी की मुराद बर आना, अर्थात् मनोकामना सफल होना। २. किसी की तुलना प्रतियोगिता आदि में बढ़कर। श्रेष्ठ। मुहावरा—(किसी से) बर आना या पाना=प्रतियोगिता, बल-परीक्षा आदि में किसी की बराबरी का ठहराना। जैसे—चालाकी में तुम उससे बर नहीं सकते (या नहीं पा सकते)। (किसी से) बर पड़ना=बढ़कर या श्रेष्ठ सिद्ध होना। अव्य० [सं० वर से फा०] १. ऊपर। जैसे—बर-तर-किसी के ऊपर अर्थात् किसी से बढ़कर। २. आगे। जैसे—बर-आमद=बरामदा। ३. अलग। पृथक्। जैसे—बर-तरफ। ४. विपरीत या सामने की दिशा में। जैसे—बर अक्स। पुं०=स्त्री० [सं० वर+अंग] योनि। (डिं०)।
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बर-करार  : वि० [फा० बर+अ० करार] १. जिसका अस्तित्व या स्थिति वर्तमान हो। सकुशल, वर्तमान और स्थिर। जैसे—आपकी जिन्दगी बर-करार रहे। २. उपस्थित। मौजूद। ३. पुनर्नियुक्त किया हुआ। बहाल। क्रि० प्र०—रखना।—रहना।
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बर-काज  : वि० [फा० वर+कार्य] शुभ कार्य। जैसे—मुंडन विवाह आदि अवसरों पर होनेवाले कार्य।
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बर-खिलाफ  : अव्य० [फा० बर+अ० खिलाफ] उलटे। प्रतिकूल। विरपरीत। वि०=खिलाफ।
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बर-गंध  : पुं० [सं० वर+गंध] सुगंधित मसाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बर-जबान  : वि० [फा० बरजवाँ] जो जवान पर हो अर्थात् रटा हुआ हो। कंठस्थ।
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बर-जबानी  : वि०=बर-जबान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बर-जोरन  : पुं० [सं० वर-पति+हिं० जोरना-मिलना] १. विवाह में वर और वधू का गठ-बंधन। २. विवाह। (डिं० ) अव्य० जबरदस्ती से।
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बर-तर  : वि० [फा०] [भाव० बरतरी] १. श्रेष्ठर। अधिक अच्छा। २. ऊँचा।
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बर-तरफ  : वि० [फा० बर+अ० तरफ] [भाव० बर-तरफी] १. एक ओर। किनारे। अलग। २. नौकरी, पद आदि से अलग या किया या हटाया हुआ। बरखास्त किया हुआ।
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बर-तरफी  : स्त्री० [फा० बर+अं० तरफ़ी] १. बर-तरफ होने की अवस्था या भाव। २. पद—च्युति।
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बर-मला  : अव्य० [फा०] १. खुले आम। सबके सामने। २. मनमाने ढंग या रूप से। जी भरकर। जैसे—किसी को बर-मला खरीखोटी सुनाना।
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बर-हक  : वि० [फा०] १. जो धर्म अथवा न्याय की दृष्टि में बिलकुल ठीक हो। २. उचित। वाजिब।
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बरई  : पुं० [हिं० बाड़-क्यारी] [स्त्री० बरइन] १. पान की खेती तथा व्यापार करनेवाली एक जाति। तमोली। २. इस जाति का कोई व्यक्ति।
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बरक  : स्त्री० [अ० बर्क] बिजली। विद्युत।
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बरक-दम  : स्त्री० [अ० बर्क+फा० दम] एक प्रकार की चटनी जो कच्चे आम को भूनकर उसके पने में मिर्च, चीनी आदि डालकर बनायी जाती है।
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बरकत  : स्त्री० [अ०] १. वह शुभ स्थिति जिसमें कोई चीज या चीजें इस मात्रा में उपलब्ध हों कि उनसे आवश्यकताओं की पूर्ति सहज में तथा भली-भाँति हो जाय। जैसे—(क) घर में गाय-भैंस होने पर ही दूध-दही में बरकत होती है। (ख) अब तो रुपए पैसे में बरकत नहीं रह गयी। (ग) ईश्वर तुम्हें रोजगार में बरकत दे। मुहावरा—(किसी से या किसी चीज में) बरकत उछना या उठ जाना=पहले की सी शुभ स्थिति या सम्पन्नता न रह जाना। २. किसी चीज का वह थोड़ा-सा अंश जो इस भावना से बचाकर रख लिया जाता है कि इसी में आगे चलकर और अधिक वृद्धि होगी। जैसे—अब थली में बरकत के ११ रुपये ही बच रहे हैं बाकी सब खर्च हो गये। ३. अनुग्रह। कृपा। जैसे—यह सब आपके कदमों की ही बरकत हैं। ४. मंगल-भाषित के रूप में गिनते समय एक की संख्या। विशेष—प्रायः लोग गिनती आरम्भ करने पर एक की जगह बरकत कहकर तब दो तीन चार आदि कहते हैं। ५. मंगल-भाषित के रूप में अभाव या समाप्ति का सूचक शब्द। जैसे—आज-कल घर में अनाज (या कपड़ों) की बरकत ही चल रही है। अर्थात् अभाव है यथेष्टता नहीं हैं।
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बरकती  : वि० [अ० बरकत+ई (प्रत्यय)] १. जिसके कारण या जिसमें बरकत हो बरकतवाला। जैसे—जरा अपना बरकती हाथ लगा हो तो रुपए घटेगे नहीं। २. जो बरकत के रूप में शुभ माना जाता हो। जैसे—बरकती रुपया।
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बरकंदाज  : पुं० [अ० बर्क+फा० अंदाज] [भाव० बरकंदाजी] १. चौकीदार। २. सिपाही। ३. तोपची।
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बरकना  : अ० [सं० वर्जन] १. अलग या दूर रहना या रखा जाना। २. कोई अप्रिय या अशुभ बात घटित न होने पाना। ३. संकट आदि से बचने के लिए कहीं से हटना। ४. बचाया जाना। स०=बरकाना।
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बरकाना  : स० [सं० वारण, वारक] १. कोई अनिष्ट अथवा अप्रिय घटना या बात न होने देना। निवारण करना। बचाना। जैसे—झगड़ा बरकाना। २. अपना पीछा छुड़ाने के लिए किसी को भुलावा देकर अलग करना य दूर रखना। ३. मना करना। रोकना।
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बरख  : पुं०=वर्ष (बरस)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरखना  : अ०=बरसना। (वर्षा होना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरखा  : स्त्री० [सं० वर्षा] १. आकाश से जल बरसना। वर्षा। बारिश। वृष्टि। २. वर्षा ऋतु। बरसात।
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बरखाना  : स०=बरसाना। (वर्षा करना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरखास  : वि०=बरखास्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरखास्त  : वि० [फा० बरखास्त] [भाव० बरखास्ती] १. (अधिवेशन, बैठक, सभा आदि के संबंध में) जिसका विसर्जन किया गया या हो चुका हो। समाप्त किया हुआ। २. (व्यक्ति) जिसे किसी नौकरी या पद से हटा दिया गया हो पदच्युत।
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बरखास्तगी  : स्त्री० [फा० बरखास्तगी] बरखास्त करने या होने की अवस्था क्रिया या भाव।
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बरखुदारी  : स्त्री० [फा० बरखुर्दारी] १. बर-खुरदार होने की अवस्था या भाव। २. धन-धान्य की यथेष्ठता। सम्पन्नता। ३. आर्शीवाद के रूप में किसी के सौभाग्य तथा सम्पन्नता की कामना।
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बरखुरदार  : वि० [फा० बरखुर्दार] [भाव० बरखुर्दारी] १. सौभाग्यशाली। २. सफल मनोरथ। ३. फला-फूला। सम्पन्न। पुं० १. बेटा। पुत्र। २. छोटों के लिए आर्शीवाद-सूचक सम्बोधन। विशेष—मूलतः बर-खुरदार का शब्दार्थ है-जीविका पर बने रहने अर्थात् खाने-पीने से सुखी रहो।
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बरंग  : पुं० [देश] मझोले कद का एक जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी का रंग सफेद होता है। पोला। पुं० [?] बकतर। कवच। (डिं० )
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बरग  : पुं० [फा० बर्ग] पत्ता। पत्र। पुं०=वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=वरक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरगद  : पुं० [सं० वट, हिं० बड] पीपल, गूलर आदि की जाति का एक बड़ा वृक्ष जो भारत में अधिकता से पाया जाता है। बड़ का पेड़। वृक्ष। (साधु सन्तों की कृतियो में यह विश्वास का प्रतीक माना गया है)।
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बरगश्ता  : वि० [फा० बरगश्तः] १. अभागा। हत-भाग्य। २. विमुख।
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बरंगा  : पुं० [देश०] छत पाटते समय धरनों पर रखी जानेवाली पत्थर की पटिया या लकड़ी की तख्ती।
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बरगा  : वि० [सं० वर्ग] [स्त्री० बरगी] तरह या प्रकार का। जैसे—उसके बरगा और कौन हैं।
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बरंगिनी  : स्त्री०=बरांगना (सुन्दरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरगी  : पुं० [फा० बरगीर] १. अश्वपाल। साईस। २. अश्व। घोड़ा। ३. मुगल काल में घोड़े पर सवार होकर शासन-व्यवस्था करनेवाला सैनिक।
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बरगेल  : पुं० [देश] एक प्रकार का लवा। (पक्षी) जिसके पंजे कुछ छोटे होते हैं।
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बरचर  : पुं० [देश] देवदार की एक जाति।
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बरचस  : पुं० [सं० वर्चस्य] विष्ठा मल। (डिं०)।
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बरच्छा  : पुं० [सं० वर+ईक्षा] कन्या पवालों द्वारा वर को पसंद कर तथा धन आदि देकर वैवाहिक संबंध स्थिर करने की रस्म।
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बरछा  : पुं० [सं० व्रश्चन-काटनेवाला] [स्त्री० अल्पा० बरछी] भाला नामक अस्त्र। दे० भाला।
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बरछी  : स्त्री० [हिं० बरछा] छोटा बरछा।
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बरछैत  : पुं० [हिं० बरछा+ऐत (प्रत्यय)] बरछा धारण करने या रोकनेवाला। भाला-बरदार।
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बरजन  : पुं०=वर्जन (मनाही)।
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बरजनहार  : वि० [हिं० बरजना+हार (प्रत्यय)] मना करने या रोकनेवाला।
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बरजना  : सं० [सं० वर्जन] १. मना करना। रोकना। २. ग्रहण न करना। त्यागना। ३. प्रयोग या उपयोग में न लाना।
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बरजनि  : स्त्री०=वर्जन मनाही)।
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बरजस्ता  : वि० [फा० बर-जस्तः] बात पड़ने पर तुरन्त कहा हुआ। बिना पहले से सोचा हुआ (उत्तर कथन आदि)। अव्य० तुरंत फौरन।
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बरजोर  : वि० [हिं० बल+फा० जोर] [भाव० बर-जोरी] १. प्रबल। बलवान। जबरदस्त। २. अत्याचारी। ३. बहुत कठिन या भारी। उदाहरण—को कृपालु बिनु पालिहै बिरूदावलि बर जोर।—तुलसी।
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बरजोरी  : स्त्री० [हिं० बरजोर] १. बलात् किया या किसी से कराया जानेवाला कोई काम विशेषताः कोई अनुचित काम २. बाल-प्रयोग क्रि० वि० जबरदस्ती से। बलपूर्वक। बलात्।
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बरटना  : अ० [?] सड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरणी  : स्त्री० [सं० वरणीया] कन्या (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरत  : पुं०=व्रत। स्त्री० [सं० वर्त्त] डोरी। रस्सी। उदाहरण—डीठि बरत बाँधी अटनु चढ़ि धावत न डरात।—बिहारी।
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बरतन  : पुं० [सं० वर्तन] मिट्टी, धातु आदि का बना हुआ कोई ऐसा आधान जो मुख्यतः खाने-पीने की चीजें रखने के काम आता हो। पात्र। जैसे—कटोरा, गिलास, थाली, लोटा आदि। पुं० [सं० वर्त्तन] १. बरतने की क्रिया या भाव। २. बरताव या व्यवहार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरतना  : अ० [सं० वर्त्तन] १. पारस्परिक संबंध बनाये रखने के लिए किसी के साथ आपसदारी का व्यवहार होना। बरताव किया जाना। जैसे—भाई-बंदों या बिरादरी के लोगों से बरतना। २. किसी के ऊपर कोई घटना घटित होना। जैसे—जैसी उन पर बरती हैं, वैसी दुश्मन पर भी न बरते। ३. समय आदि के संबंध में व्यतीत होना० गुजरना। जैसे—आज-कल बहुत ही बुरा समय बरत रहा है। ४. उपस्थित या वर्तमान रहना। उदाहरण—लट छूटी बरतै बिकराल।—कबीर। ५. खाने-पीने की चीजों के संबंध में भोजन के समय लोगों के आगे परोसा यार खा जाना। जैसे—दाल बरत गयी है (परोसी जा चुकी है)। स० १. कोई चीज अपने उपयोग, काम या व्यवहार में लाना। जैसे—कपड़ा या मकान बरतना। २. दे० ‘बरताना’।
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बरतनी  : स्त्री० [सं० वर्त्तनी] १. लकड़ी आदि की एक प्रकार की कलम जिससे छात्र मिट्टी, गुलाल आदि बिछाकर उस पर अक्षर लिखते हैं अथवा तांत्रिक यंत्र आदि भरते हैं। २. वह शब्द लिखने में अक्षरों का क्रम। हिज्ज। वर्त्तनी। (देखें)।
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बरताना  : स० [सं० वर्त्तन या वितरण] बारी-बारी से कोई चीज अथवा उसका कुछ अंश लोगों में बाँटते चलना। जैसे—पंगत में भोजन करनेवालों को पूड़ी बरताना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
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बरताव  : पुं० [सं० बरतना का भाव०] १. किसी के साथ बरतने की क्रिया, ढंग या भाव। २. किसी के साथ किया जानेवाला आचरण या व्यवहार।
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बरती  : वि० [सं० व्रतिन्, हिं० व्रती] जो व्रत रख हुए हो। स्त्री० [?] एक प्रकार का पेड़। स्त्री०=बत्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरतेल  : पुं० [देश] जुलाहों की वह खूँटी जो करघे की दाहिनी ओर रहती है और जिसमें ताने को कसा रखने के लिए रस्सी बँधी रहती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरतोर  : पुं०=बाल-तोड़।
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बरदना  : अ० दे० -बरदाना।
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बरदवान  : पुं० [हिं० बरद+फा० वान (प्रत्य)] कमखाब बुननेवालों के कऱघे की एक रस्सी जो पगिया में बँधी रहती है। नथिया भी इसी में बँधी रहती है। पुं० [फा० वादबान] जोर की या तेज हवा। (कहार)।
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बरदवाना  : स० [हिं० बरदाना का प्रे०] बरदाने का काम किसी से कराना।
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बरदा  : स्त्री० [देश] दक्षिण भारत में होनेवाली एक प्रकार की रूई। पुं० [फा० बर्दः] गुलाम। दास। पद—बरदाफरोश (देखें)। पुं०=बरधा (बैल)।
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बरदा-फरोश  : पुं० [तु० बर्दः+फा० फरोश] [भाव० बरदा-फरोशी] वह व्यक्ति जो गुलामों या दासों का क्रय-विक्रय करता हो।
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बरदा-फरोशी  : स्त्री० [फा] गुलाम या दास खरीदने और बेचने का पेशा या व्यवसाय।
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बरदाना  : सं० [हिं० बरधा-बैल] गौं, भैंस आदि पशुओं का गर्भाधान कराने के लिए उनकी जाति के नर-पशुओं से सम्भोग या संयोग कराना जोडा खिलाना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। अ० गौ भैंस आदि का जोड़ा खाना।
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बरदार  : वि० [फा०] [भाव० बरदारी] १. उठाने, धारण करने या वहन करनेवाला। जैसे—नाज़-बरदार। २. पालन करनेवाला। जैसे—फरमाँ-बरदार।
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बरदारी  : स्त्री० [फा०] १. बरदार होने की अवस्था या भाव। २. उठाने, धारण करने या वहन करने का काम।
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बरदाश्त  : स्त्री० [फा०] सहनशीलता सहन।
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बरदि (या)  : पुं०=बरधिया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरदुआ  : पुं० [देश] बरमे की तरह का एक औजार जिससे लोहा छेदा जाता है।
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बरदौर  : पुं० [सं० वर्द+हिं० और (प्रत्यय)] गोशाला। मवेशीखाना।
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बरद्द  : पुं० [सं० बलीवर्द] बैल।
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बरध  : पुं०=बरधा।
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बरध-मृतान  : स्त्री० [हिं० बरधा-मूतना] वह अंकन या रेखा जो उसी प्रकार लहरियेदार हो, जिस प्रकार चलते हुए बैल मूतने से जमीन पर निशान पड़ता हो। गो=मूत्रिका।
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बरधवाना  : स०=बरदवाना।
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बरधा  : पुं० [सं० बलीवर्द में का वर्द] बैल।
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बरधाना  : स०=बरदाना। अ०=बरदाना।
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बरधिया  : पुं० [हिं० बरधा] १. वह व्यक्ति जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर बैलों पर माल ढोकर पहुँचाता हो। २. हलवाहा। ३. चरवाहा।
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बरधी  : पुं० [हिं० बरधा] एक प्रकार का चमड़ा (कदाचित् बैल का चमड़ा)।
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बरन  : पुं०=वर्ण। अव्य० [सं० वर्ण] तरह। प्रकार। उदाहरण—तरुन तमाल बरन तनु सोहा।—तुलसी। अव्य० वरन् (बल्कि)।
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बरन धाम  : पुं० दे० ‘वर्णाश्रम’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरनन  : पुं०=वर्णन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरनना  : स० [सं० वर्णन] वर्णन करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरनर  : पुं० [अ० बर्नर] लैम्प, लालटेन आदि का एक उपकरण जिसमें बत्ती लगायी जाती है।
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बरना  : स० [सं० वरण] १. वर या वधू के रूप में ग्रहण करना। पति या पत्नी के रूप में स्वीकार करना। वरण करना। ब्याहना। २. कोई काम करने केलिए किसी को चुनना या ठीक करना। नियुक्त करना। ३. दान के रूप में देना। स्त्री० [सं० वरुणा] काशी के पास की वरुणा नाम की नदी। पुं० [सं० वरुण] एक प्रकार का सुन्दर वृक्ष जो प्रायः सीधा ऊपर की ओर उठा रहता है। बल्ला। बलासी। अ० -बलना (जलना)। स०=बटना (डोरा, रस्सी आदि)।
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बरनाबरन  : वि० [सं० वर्ण] १. अनेक वर्णोंवाला। रंग-बिंरगा। २. अनेक प्रकार का। तरह-तरह का।
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बरनाला  : पुं० [हिं० परनाला] समुद्री जहाज में की वह नाली जिसमें से उसका फालतू पानी निकलकर समुद्र में गिरता है। (लश०)
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बरनि  : स्त्री० [हिं० बरना] बरने अर्थात् जलने की अवस्था या भाव।
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बरनी  : वि० स्त्री० [सं० वरण] वरण की हुई। स्त्री० दुल्हिन। उदाहरण—दुहुँ सँकोच सँकुचित बर बरनी।—तुलसी। स्त्री०=वरणी।
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बरनेत  : स्त्री० [हिं० बरना-वरण करना+एत (प्रत्यय)] विवाह के मुहुर्त से कुछ पहले की एक रस्म जिसमें कन्या पक्षवाले वर-पक्ष के लोगों को मंडप में बुलाकर उनसे गणेश आदि का पूजन कराते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरन्न  : पुं०=वर्ण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरपटे  : वि० [हिं० बर+पटना] (हिसाब) जो पट गया या चुकता हो चुका हो।
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बरपा  : वि० [फा] १. जो अपने पैरों पर खड़ा हो। २. (उत्पात या उपद्रव) जो उठ खड़ा हुआ हो। ३. उपस्थित।
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बरफ  : स्त्री० [फा० बर्फ] १. हवा में मिली हुई भाप के अत्यन्त सूक्ष्म अणुओं की तह जो वातावरण की ठंढक के कारण आकाश में बनती और बारी होने के कारण जमीन पर गिरती है पाला। हिम। तुषार। क्रि० प्र०—गलना।—गलाना।—जमना।—जमाना। ४. उक्त प्रकार से जमाया हुआ दूध, फलों का रस या ऐसी ही और कोई चीज। जैसे—मलाई की बरफ। वि० जो बरफ के समान ठंढा हो जैसे—सरदी से हाथ बरफ हो गये।
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बरफानी  : वि० [फा० बर्फानी] बर्फ से ढका हुआ या युक्त। जैसे—बरफानी तूफान। बरफानी पहाड़।
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बरफिस्तान  : पुं० [फा० बर्फिस्तान] वह स्थान जहाँ चारों ओर बरफ ही बरफ हो।
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बरफी  : स्त्री० [फा० बर्फी] १. खोए आदि की बनी हुई एक प्रकार की मिठाई जो चौकोर टुकड़ों के रूप में कटी हुई होती है और जिसका कभी-कभी खोए के साथ और चीजें भी मिली रहती है। जैसे—पिस्ते या बादम की बरफी। २. बुनाई, सिलाई आदि में चौकोर बनाये हुए खंड या खाने। क्रि० प्र०—काटना।
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बरफी-संदेस  : पुं० [फा० बरफी+बं० संदेश] एक प्रकार की बंगाली मिठाई।
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बरफीदार  : वि० [फा० बरफी+फा० दार (प्रत्यय)] जिसमें बरफी की तरह चौकोर खाने बने हों। जैसे—रुईदार अंग में होनेवाली बरफीदार सिलाई।
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बरफीला  : वि० [फा० बर्फ़ से] [स्त्री० बरफीली] १. जिसमें या जिसके साथ बरफ भी हो। २. जो बरफ के योग से या बरफ की तरह ठंढा हो। जैसे—बरफीली हवा।
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बरफीला-तूफान  : पुं० [हिं०+अ०] वह तूफान या बहु तेज हवा जिसमें प्रायः बरफ के बहुत छोटे-छोटे कण भी मिले रहते हैं। हिम झंझावात। (ब्लिजार्ड)। विशेष—ऐसे तूफान अधिकतर ध्रुवीय प्रदेशों और बरफ से ढके हुए पहाड़ों की चोटियों पर चलते हैं जिनके कारण आस-पास के प्रदेशों में सरदी बहुत बढ़ जाती है। इनकी गति प्रति घण्टे ५0-६0 मील होती है और इनमें पड़ने पर किसी को कुछ भी दिखायी नहीं देता।
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बरबट  : अव्य० बरबस। पुं०=बरवट (तिल्ली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरबट्टा  : पुं० दे० बोडा़ (फली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरबंड  : वि० [सं० बलवंत] १. बलवान। ताकतवर। २. प्रतापशाली। ३. उद्दंड। उदघंत। ४. बहुत तेज। प्रखर प्रचंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरबत  : पुं० [अ] एक प्रकार का बाजा।
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बरबर  : स्त्री०=बड़बड़ (बकवाद)। पुं० [अ० बर्बर] [भाव० बर-बरता, बर-बरीयत] १. अफ्रीका का एक प्रदेश। २. उक्त प्रदेश का निवासी। वि० असभ्य और राक्षसी प्रकृतिवाला।
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बरबरिस्तान  : पुं० [अ० बर्बर] अफ्रीका का एक देश।
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बरबरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की बकरी। पुं० [अं० बर्बर] बरबर देश का निवासी।
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बरबस  : अव्य० [सं० बल+वश] १. बलपूर्वक। जबरदस्ती। दृढ़ात्। २. निरर्थक। व्यर्थ। बे-फायदे। वि० जिसका कोई वश न चलता हो। लाचार।
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बरबाद  : वि० [फा०] [भाव० बरबादी] १. (रचना) जो पूर्णतय़ा ध्वस्त हो गयी हो। २. (देश) जिसकी अवस्था बहुत ही शोचनीय हो गयी हो। २. (काम) जो चौपट हो गया हो। ४. (व्यक्ति) जिसकी सम्पत्ति उसके हाथ से निकल चुकी हो। जो लुट चुका हो।
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बरबादी  : स्त्री० [फा०] बरबाद होने की अवस्था या भाव। तबाही। विनाश।
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बरम  : पुं०=वर्म कवच)।
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बरमन  : पुं०=वर्मा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरमहल  : अव्य० [फा०] १. उपयुक्त, ठीक अथवा प्रत्यक्ष अवसर या समय पर। २. बदला लेने की दृष्टि। मुँहतोड़।
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बरमा  : पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० बरमी] लकड़ी आदि मे छेद करने का लोहे का एक प्रसिद्ध औजार। पुं० [सं० ब्रह्म देश०] भारत की पूर्वी सूमा पर बंगाल की खाड़ी के पूर्व और आसाम चीन के दक्षिण का एक पहाड़ी प्रदेश। पुं०=वर्म्मा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरमी  : वि० [हिं० बरना=ब्रह्य देश] बरमा-सम्बंधी। बरमा देश का। जैसे—बरमी चावल। पुं० बरमा या ब्रह्यदेश का निवासी। स्त्री० बरमा या ब्रह्म देश की भाषा। स्त्री० [?] धातु, लकड़ी आदि में छेद करने का छोटा बरमा। स्त्री० [?] गीली नाम का पेड़।
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बरम्हबोट  : स्त्री० [हिं० बरमा देश, अं० वोट-नाव] प्रायः चालीस हाथ लम्बी एक प्रकार की नाव। इसका पिछला भाग अगले भाग की अपेक्षा अधिक चौड़ा होता है।
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बरम्हा  : पुं० १. दे० ब्रह्मा। २. दे० ‘बरमा’। ३. दे० ‘वर्म्मा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरम्हाउ  : पुं०=बरम्हाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरम्हाना  : सं० [सं० ब्रह्म] [भाव० बरम्हाव] (ब्राह्मण का) किसी को आर्शीवाद देना। उदाहरण—तोरन तूर न ताल बजैं बरम्हावत भाट गावत ठाढ़ी।—केशव।
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बरम्हाव  : पुं० [सं० ब्रह्म+आव (प्रत्यय)] १. ब्रह्माणत्व। २. ब्राह्मण का दिया हुआ आर्शीवाद। उदाहरण—बाएँ हाथ देइ बरम्हाऊ।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरराना  : अ०=बर्राना।
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बररे, बररे  : पुं०=बर्रे (भिंड़)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरवट  : स्त्री० दे० ‘तिल्ली’। (रोग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरवल  : पुं० [देश] एक प्रकार का भेंड़।
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बरवह  : पुं० [?] मछलियाँ खाकर निर्वाह करनेवाली एक चिड़िया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरवा  : पुं०=बरवै।
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बरवै  : पुं० [देश] एक छंद जिसके विषम अर्थात् पहले और तीसरे चरणों में बारह-बारह और सम अर्थात् दूसरे और चौथे चरणों में सात-सात मात्राएँ होती है। सम चरणों की अंतिम चार-चार मात्राओं का जगम के रूप में होना आवश्यक होता है।
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बरष  : पुं०=वर्ष। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बरषना  : अ०=बरसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरषा  : स्त्री०=वर्षा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरषाना  : स०=बरसाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरषासन  : पुं० [सं० वर्षाशन] साल भर की भोजन-सामग्री जो एक व्यक्ति अथवा एक परिवार के लिए यथेष्ठ हो।
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बरस  : पुं० [सं० वर्ष] १. उतना समय जितना पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में लगता है अर्थात् ३६५ दिन ५ घण्टे, ४८ मिनट और ४५० ५१ सेकंड का समय। २. ३६५ दिनों का समय। अधिवर्ष में इसका मान ३६६ दिनों का होता है। ३. विभिन्न पांचागों के द्वारा नियत ३६५ दिनों का विशिष्ट समय। पद—बरस दिन का दिन-ऐसा दिन (त्योहार आदि) जो साल में एक बार आता हो। बड़ा त्योहार। ४. वह समय जो एक जन्म-दिन से दूसरे जन्म-दिन तक में पड़ता है। जैसे—इस समय इसका तीसरा वर्ष चल रहा है।
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बरस गाँठ  : स्त्री० [हिं० बरस+गाँठ] १. वह तिथि या दिन जो किसी के जन्म की तिथि या जन्म-दिन के क्रमात् ३६५-३६५ दिनों के उपरातं। पड़ता है। साल-गिरह। २. उक्त दिन मनाया जानेवाला उत्सव।
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बरस-बियावर  : वि० स्त्री० [हिं० बरस+बियावर (बच्चा देनेवाली)] हर साल बच्चा देनेवाली। (मादा चौपाया)।
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बरसना  : अ० [सं० वर्षण] १. बादलों से जल का बूँदों के रूप में गिरना। वर्षा होना। २. वर्षा के जल की तरह ऊपर से कणों या छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में गिरना। जैसे—मकानों पर से फूल बरसना। ३. बहुत अधिक मात्रा, मान या संख्या में लगातार आना या आता रहना। जैसे—(क) किसी के घर रुपए बरसना। किसी पर लाठियाँ बरसना (निरंतर लाठियों का प्रहार होना)। मुहावरा—(किसी पर) बरस पड़ना=बहुत अधिक क्रुद्ध होकर लगातार कुछ समय तक डाँटने-डपटने लगना। बहुत कुछ बुरी-भलीं बातें कहने लगना। जैसे—तुम तो जरा-सी बात पर नौकरों पर बरस पडते हो। ४. बहुत अच्छी तरह और यथेष्ट मात्रा में दिखायी देना या खूब प्रकट होना। जैसे—किसी के चेहरे से शरारत बरसना। किसी जगह सोभा बरसना। ५. दाएँ हुए गल्ले का इस प्रकार हवा में उड़ाया जाना जिसमें दाना-भूसा अलग-अलग हो जाएँ। ओसाया जाना। डाली होना।
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बरसाइत  : स्त्री०=बरसायत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरसाइन  : वि० स्त्री०=बरस-बियावर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरसाऊ  : वि० [हिं० बरसना+आऊ(प्रत्यय)] बरसनेवाला। वर्षा करनेवाला। (बादल आदि) उदाहरण—ह्वै कै बरसाऊ एक बार तौ बरसते।—सेनापति। वि० [हिं० बरसाना] बरसानेवाला। वर्षा करनेवाला।
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बरसात  : स्त्री० [सं० वर्षा, हिं० बरसना+आत (प्रत्यय)] [वि, ० बरसाती] १. वह समय जिसमें आकाश से जल बरस रहा हो। जैसे—बरसात हो रही है अभी घर से मत निकलो। २. वर्ष की वह ऋतु या मास जिसमें प्रायः पानी बरसता रहता है। वर्षाकाल। ३. वर्षा।
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बरसाती  : वि० [हिं० बरसात+ई (प्रत्यय)] १. बरसात-संबंधी। बरसात का। जैसे—बरसाती हवा। २. बरसात के दिनों में होनेवाला। जैसे—बरसाती तरकारियाँ, बरसाती मेले। स्त्री० १. प्लास्टिक, मोमजामे आदि का बना हुआ एक प्रकार का ढीला-ढाला कोट जिसे पहनने से शरीर या कपड़ों पर वर्षा के पानी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। २. कोठियों आदि के प्रवेश द्वार पर बना हुआ छायादार थोड़ा-सा स्थान जहाँ सवारियाँ उतारने के लिए गाड़ियाँ खड़ी होती है। पुं० १. घोड़ों का एक रोग जो प्रायः बरसात में होता है २. प्रायः बरसात के दिनों में आँख के नीचे होनेवाला एक प्रकार का घाव। ३. बरसात के दिनों में पैर की उँगलियों में होनेवाली एक प्रकार की फुंसियाँ। ४. चरस नाम का पक्षी। चीनी मोर।
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बरसाना  : स० [सं० बरसना का प्रे०] १. बादलों का जल की वर्षा करना। २. वर्षा के जल की तरह लगातार बहुत सी चीजें ऊपर से नीचे गिरना। जैसे—फूल बरसाना। ३. बहुत अधिक मात्रा मे गिराना जिससे दाने और भूसा अलग हो जाएँ। ओसाना। डाली देना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
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बरसायत  : स्त्री०=हरसाइत। स्त्री० [सं० वट+सावित्री] जेठ-बदी अमावस जिस दिन स्त्रियाँ वट-सावित्री की पूजा करती है।
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बरसावना  : स०=बरसाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरसिंघा  : पुं० [हिं० बर-ऊपर+हिं० सींग] वह बैल जिसका एक सींग खड़ा और दूसरा सींग नीचे की ओर झुका हुआ हो। मैना। पुं०=बारहसिंगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरसी  : स्त्री० [हिं० बरस+ई (प्रत्यय)] १. वह तिथि या दिन जो किसी के मरने की तिथि या दिन के ठीक वर्ष-वर्ष बाद पड़ता हो। २. मृत का वार्षिक श्राद्ध।
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बरसीला  : वि० [हिं० बरसना+ईला (प्रत्यय)] बरसनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बरसू  : पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष।
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बरसोदिया  : पुं० [हिं० बरस+ओदिया (प्रत्यय)] वह नौकर जो साल भर तक कोई काम करने के लिए नियुक्त हुआ या किया गया हो।
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बरसौंड़ी  : स्त्री० [बरस+औड़ी (प्रत्यय)] वर्ष के वर्ष दिया जानेवाला कोई कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरसौहाँ  : वि० [हिं० बरसना+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री] बरसौही। २. बरसनेवाला। २. जो बरसने को हो।
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बरह  : पुं० [फा० वर्ग] दल। पत्ता। पत्ती।
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बरहँटा  : पुं० [सं० भटाकी] कड़वे भंटे का पौधा और फल।
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बरहना  : वि० [फा० बर्हन] जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। नंगा। नग्न।
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बरहम  : वि० [फा० बरह्म] [भाव० बरहमी] १. जिसे क्रोध आ गया हो। क्रुद्ध। २. भड़का हुआ। उत्तेजित। क्षुब्ध। ३. इधर-उधर छितरा या बिखरा हुआ। पुं० ब्रह्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरहमंड  : पुं०=ब्रह्मांड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरहा  : पुं० [हिं० बहना] [स्त्री० अल्पा० बरही] छोटी नाली विशेषतः दो मेड़ों के बीत की वह छोटी नाली जिसमें खेतों को पानी पहुँचाया जाता है पुं० [सं० वहि] मोर। पुं० [हिं० बरना-बटना] मोटा रस्सा। पुं० [सं० वाराह] [स्त्री० अल्पा० बरही] जंगली सूअर।
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बरहिया  : स्त्री० [हिं० बारह] पुरानी चाल की एक प्रकार की नाव जो बारह हाथ चौड़ी होती थी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरही  : पुं०=बरही।
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बरही  : पुं० [सं० वर्हि] १. मयूर। मोर। २. साही नामक जंगली जंतु। ३. अग्नि। आग। ४. कुक्कुट। मु्र्गा। स्त्री० [हिं० बारह] १. संतान उत्पन्न होने से बारहवाँ दिन। २. उक्त अवसर पर प्रसूता को कराया जानेवाला स्नान और उसके साथ होनेवाला उत्सव। स्त्री० [हिं० बरहा] १. पत्थर आदि भारी बोझ उठाने का मोटा रस्सा। २. जलाने की लकड़ियों का गट्ठर। ईधन का बोझ। (रस्सी से बँधी होने के कारण)।
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बरही-पीड़  : पुं० [सं० बर्हि-पीड] मोर के परों का बना हुआ मुकुट। मोर-मुकुट।
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बरही-मुख  : पुं० [सं० बर्हिमुख०] देवता।
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बरहौं  : पुं० [हिं० बरती]=बरही। (सन्तान जन्म की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरह्यना  : स०=बरम्हाना।
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बरा  : पुं० [सं० बरी०] उड़द की पीसी हुई दाल का बना हुआ टिकिया के आकार का एक प्रकार का पक्वान्न जो घी या तेल में पकाकर यो ही अथवा दही, इमली के पानी आदि में डालकर खाया जाता है। बड़ा। पुं०=बरगद। (वट-वृक्ष)। पुं०=बहूँटा (बाँह पर पहनने का गहना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बराई  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का गन्ना। स्त्री०=बड़ाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बराक  : पुं० [सं० वराक] १. शिव। २. युद्ध। लड़ाई। वि० १. शोचनीय। सोच करने के योग्य। २. अधम। नीच। ३. पापी। ४. बापुरा। बेचारा।
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बराट  : पुं० [सं० वराटिका] कौड़ी। वि०=वराट्।
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बरांडल  : पुं० [देश०] १. जहाज का वह रस्सा जो मस्तूल को सीधा खड़ा रखने के लिए उसके चारों ओर ऊपरी सिरे से लेकर नीचे तक जहाज के भिन्न-भिन्न भागों में बाँधे जाते हैं। २. बरांडा। ३. जहाजी काम में आनेवाला कोई रस्सा।
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बरांडा  : पुं० १. दे० बरमदा। दे० ‘बरांडल’।
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बरांडी  : स्त्री० [अं० ब्रैंड़ी] आडू सेब आदि के रस से बनायी जानेवाली एक तरह की बढ़िया शराब।
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बराड़ी  : स्त्री०=बरारी।
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बरात  : स्त्री० [सं० वरयात्रा] १. विवाह के समय वर के साथ कन्यावालों के यहाँ जानेवाले लोगों का दल या समूह जिसके साथ शोभा के लिए बाजे, हाथी, घोड़े आदि भी रहते हैं। जनेत। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—निकलना।—सजना।—सजाना। २. एक साथ मिलकर या दल बाँदकर कही जानेवालों का समूह।
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बराती  : वि० [हिं० बरात+ई (प्रत्यय)] बरात-संबंधी। पुं० किसी बरात में सम्मिलित होनेवाले व्यक्ति।
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बरान कोट  : पुं० [अ० ब्राउन कोट] १. सिपाहियों के पहनने का एक प्रकार का बड़ा ढीला-ढाला ऊनी कोट। २. ओवर कोट।
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बराना  : स० [सं० वारण] १. प्रसंग आने पर भी कोई बात न कहना। मतलब छिपाकर इधर-उधर की बातें कहना। बचाना। २. बहुत सी वस्तुओं या बातों में से किसी एक वस्तु या बात को किसी कारण छोड देना। जान-बूझकर अलग करना। बचाना। ३. रक्षा या हिफाजत करना। खेतों में से चूहे आदि भगाना। स० [सं० वरण] बहुत सी चीजों में से अपनी इच्छा के अनुसार चीजें चुनना। देख-देखकर अलग करना। चुनना। छाँटना। स० [सं० वारि] १. सिंचाई का पानी एक नाली से दूसरी नाली में ले जाना। २. खेतों में पानी देना। सींचना। स०—बालना।—(जलाना) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बराबर  : वि० [फा० वर] १. गुण, महत्त्व, मात्रा, मान, मूल्य, संख्या आदि के विचार से जो किसी के तुल्य या समान हो। जो तुलना विचार से न किसी से घटकर और न किसी से बढ़कर ही हो। समान। जैसे—(क) दोनों किताबें तौल में बराबर हैं। (ख) कानून की दृष्टि में सब लोग बराबर हैं। पद—बराबर का=(क) पूरी तरह से से तुल्य या समान ।जैसे—इसमें आटा और चीनी दोनों बराबर के पड़ते हैं। (ख) बहुत कुछ तुल्य या समान। जैसे—जब लड़का बराबर का हो जाय, तब उसे मारना-पीटना नहीं चाहिए। २. (तल) जो ऊँचा-नीचा या खुरदुरा न हो। सम। जैसे—वह सारा मैदान बराबर कर दो। ३. जैसा होता हो या होना चाहिए, वैसा ही। उपयुक्त और ठीक। ४. (ऋण या देन) जो चुका दिया गया हो। चुकता किया हुआ। ५. जिसका अंत या समाप्ति कर दी गयी हो। जैसे—सारा काम बराबर करके तब यहाँ से उठना। मुहावरा—(कोई चीज) बराबर करना=समाप्त कर देना। अंत कर देना। न रहने देना। जैसे—उन्होने दो ही चार बरस में बड़ों की सारी सम्पत्ति बराबर कर दी। ६. जिसके अभाव, त्रुटि, दोष आदि की पूर्ति या संशोधन कर दिया गया हो। जैसे—गड्ढे बराबर करना। क्रि० वि० २. बिना रुके हुए। लगातार। निरंतर। जैसे—बराबर आगे बढ़ते रहना चाहिए। २. एक ही पंक्ति या सीध में। जैसे—सड़क के दोनों तरफ बराबर पेड़ लगे हैं। ३. सदा। हमेशा। जैसे—हमारे यहाँ तो बराबर ऐसा ही होता आया है। ४. पार्श्व में। बगल में। जैसे—दुश्मन की कब्र तेरे बराबर बनायेगें।—दाग। ५. बिना किसी परिवर्तन विकृति आदि के। ६. साथ-साथ। जैसे—भीड़ में हमारे बराबर रहना, इधर-उधर मत हो जाना। ७. किसी से समान दूरी पर। सामानान्तर। जैसे—इसी के बराबर एक और रेखा खींचो।
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बराबरी  : स्त्री० [हिं० बराबर+ई (प्रत्यय)] १. बराबर होने की अवस्था या भाव। समानता। तुल्यता। पद—बराबरी से=अंशपत्र, राज-ऋण विनिमय आदि की दर के संबंध में अंकित नियत या वास्तविक मूल्य पर। (ऐट पार)। २. गुण, रूप, शक्ति, आदि की तुलना या सादृश्य। ३. वह स्थिति जिसमें प्रतियोगिता, स्पर्धा आदि के कारण किसी का अनुकरण करने, अथवा उसके तुल्य या समान बनने का प्रयत्न किया जाता है। मुकाबला। जैसे—वह तो बड़े आदमी है, तुम उनकी बराबरी करोगे। ४. कुस्ती, खेल आदि के परिणाम की वह स्थिति जिसमें दोनों पक्ष न तो एक-दूसरे को हरा ही सके हों और न एक-दूसरे से हारे ही हों।
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बरामद  : वि० [फा०] १. जो बाहर निकला हुआ हो। बाहर आया हुआ। सामने आया हुआ। २. (चुरा या छिपाकर रखा हुआ पदार्थ) किसी के घर से ढूँढ़कर बाहर निकाला या सामने लाया हुआ। जैसे—किसी के यहाँ से चोरी या चोर-बाजारी का माल बरामद हुआ। स्त्री० १. बाहर, जानेवाला माल। निर्यात। २. प्राप्य धन की होनेवाली वसूली। ३. दे० ‘गंग-बरार’।
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बरामदगी  : स्त्री० [फा०] १. बरामद होने अर्थात् बाहर आने की क्रिया या भाव। २. खोये या चोरी गये माल का किसी के पास से निकाल कर प्राप्त किया जाना। ३. विदेशों को माल भेजने की क्रिया या भाव। निर्यात करना।
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बरामदा  : पुं० [फा० बरामदः] १. मकानों में वह छाया हुआ लम्बा सँकरा भाग जो कुछ आगे या बाहर निकला रहता है। बारजा। छज्जा। २. ओसारा। दालान।
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बराम्हन  : पुं०=ब्राह्मण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बराय  : अव्य० [फा०] वास्ते। लिए। निमित्त। जैसे—बरायनाम-नाम-मात्र के लिए। अव्य०=बराह।
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बरायन  : पुं० [सं० वर+आयन (प्रत्यय)] लोहे का वह छल्ला जो विवाह के समय दूल्हे के हाथ में पहनाया जाता है।
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बरार  : पुं० [फा०] वह चंदा जो गाँवों में हर घर से लिया जाता हो। वि० [फा०] १. लानेवाला। २. किसी के द्वारा लाया हुआ। जैसे—गंग-बरार जमीन। पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली जानवर।
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बरारक  : पुं० [डिं०] हीरा।
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बरारी  : स्त्री० [सं० बरारी] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जो दोपहर में गायी जाती है। कोई-कोई इसे भैरव राग की रागिनी मानते हैं। स्त्री० [हिं० बरार प्रदेश] बरार या खानदेश में होनेवाली एक प्रकार की रूई।
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बरारी श्याम  : पुं० [सं० ] सम्पूर्ण जाति का एक संकर राग जिसमें सब स्वर शुद्ध लगते हैं।
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बराव  : पुं० [हिं० बराना+आव (प्रत्यय)] बराने अर्थात् बचकर रहने की क्रिया या भाव। परहेज। जैसे—घर में किसी को चेचक निकलने पर कई तरह के बराव करने पड़ते हैं।
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बरावदार  : वि० [हिं०+फा०] जिसमें भराव हो। जैसे—भरावदार कंगन।
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बरास  : पुं० [सं० पोतास] एक तरह का सुंगंधित अत्यधिक कूपर। भीमसेनी कपूर। पुं० [अं० ब्रेस] जहाज में पाल की वह रस्सी जिससे पाल की रूख घुमाया जाता है।
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बराह  : क्रि० वि० [फा०] १. मार्ग या रास्ते से। २. जरिये। से। द्वारा। ३. के तौर पर। के रूप में। जैसे—बराह मेहरबानी रास्ता दे दें। ४. के विचार से। जैसे—बराह इंसाफ-इंसाफ के विचार से। पुं०=वराह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बराहमन  : पुं०=ब्राह्मण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बराहिल  : पुं० [?] कारिन्दा। गुमाश्ता। (पूरब)।
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बराही  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का घटिया ऊख। स्त्री०=वाराही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिअ  : वि०=बलवान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिआई  : स्त्री० [हिं० बरियार] १. बलवान होने की अवस्था या भाव। शक्तिमत्ता। २. बल-प्रयोग। जबरदस्ती। अव्य० १. बलपूर्वक। जबरदस्ती। २. विवशता के कारण अथवा स्वयं को न रोक सकने पर। उदाहरण—कहत देव हरषत बरिआई।—तुलसी। स्त्री०=बड़ाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिआत  : स्त्री०=बरात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिच्छा  : पुं०=बरच्छा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिबंड  : वि० [सं० बलवंत] १. बलवान। बली। २. प्रचंड। विकट। ३. प्रतापशाली।
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बरियाई  : स्त्री०=बरिआई। अव्य०=बरिआई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरियात  : स्त्री०=बरात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरियार  : वि० [हिं० बल+आर (प्रत्यय)] [स्त्री०, भाव० बरियारी] बल में जो किसी से अधिक हो। बली।
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बरियारा  : पुं० [सं० बला] दे० ‘बनमेथी’ (पौधा)।
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बरियाल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पतला बाँस। बाँसी।
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बरिर्रेखा  : स्त्री० [सं० बहिस्-रेखा, मध्य० स०] [भू० कृ० बहिर्रेखित, भाव० बहिर्रेखन] १. वह रेखा जो किसी दृश्य वस्तु या उसके विभागों का विस्तार या सीमा सूचित करती हो। २. किसी चीज या बात का वह स्थूल रूप जो उसके आकार-प्रकार इतिवृत्ति, सिद्धांत, स्वरूप आदि का ज्ञान कराती हो। (आउट-लाइन) जैसे—विद्युत् शास्त्र की वहिर्रेखा।
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बरिल  : पुं० [हिं० बड़ा, बरा] पकौड़ी या बड़े की तरह का एक पकवान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिलना  : पुं० [देश] एक तरह की क्षारयुक्त मिट्टी। सब्जी। सब्जीखार।
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बरिषना  : अ०=बरसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिषा  : स्त्री०=वर्षा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरिष्ठ  : वि०=वरिष्ठ।
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बरिस  : पुं०=बरस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरी  : स्त्री० [सं० बरी, प्रा० बड़ी] १. गोल टिकिया। बटी। २. उड़द, मूँग आदि की पीठी आदि की बड़ी। ३. भट्टी में फूँके हुए एक तरह के कंकड़ जिन्हें बुझा तथा पीटकर दीवारों आदि की गोड़ाई और पलस्तर के लिए मसाला तैयार किया जाता है। स्त्री० [सं० वर-दूल्हा] गहने, कपड़े, मेवे और मिठाइयाँ जो दूल्हे की ओर से दुलहिन के यहाँ भेजी जाती हैं। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जिसके दाने बाजरे मे मिलाकर राजपूताने की ओर से गरीब लोग खाते हैं। वि० [फा०] १. अभियोग, दोष आदि से छूटा हुआ। बरी। मुक्त। २. निर्दोष। बेकसूर। २. अलग। पृथक्। ४. आजाद। स्वतंत्र। वि०=बली (बलवान)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरीस  : पुं०=बरस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरु  : अव्य० [सं० वर-श्रेष्ठ, भला] १. भले ही। ऐसा हो जाय तो हो जाय। चाहे। २. वरन्। बल्कि।
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बरुआ  : पुं० [सं० बटुक, प्रा० बडुअ] १. जिसका यज्ञोपवीत तो हो गया हो पर जो अभी तक गृहस्थ न हुआ हो। ब्रह्मचारी। पटु। २. उपनयन या यज्ञोपवीत के समय गाये जानेवाले गीत। ३. उपनयन या यज्ञोपवीत नामक संस्कार। ४. ब्राह्मण का बालक। ५. पढ़ा-लिखा और पुरोहिताई करनेवाला ब्राह्मण। पुं० [हिं० बरना] मूँज के छिलके की बनी हुई बद्धी जिससे डलिया आदि बनायी जाती है।
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बरुक  : अव्य०=बरू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरुना  : पुं०=बरना (वृक्ष)। स्त्री०=वरुणा (नदी)।
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बरुनी  : स्त्री० [देश०] १. वट-वृक्ष की जटा। (पूरब)। स्त्री०=बरौनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरुला  : पुं०=बल्ला (लम्बा काठ)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरुवा  : पुं०=बरूआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरूथ  : पुं०=वरूथ।
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बरूथी  : स्त्री० [सं० वरूथ] एक नदी जो सई और गोमती के बीच में हैं।
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बरून  : पुं०=वरुण।
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बरूप  : वि० [फा० बे+सं० रूप] कुरूप।
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बरे  : अव्य० [सं०√बल, हिं० वर] १. जोर से। २. ऊँचे स्वर से। ३. बलपूर्वक। जबरदस्ती। ४. बदले में। ५. निमित्त। लिए। वास्ते।
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बरेखी  : स्त्री० [हिं० बाँह+रखना] बाँह पर पहनने का एक गहना। स्त्री० [हिं० वर+रक्षा] विवाह संबंध निश्चित और स्थिर करने के लिए वर और कन्या देखना। विवाह की ठहरौनी।
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बरेच्छा  : पुं०=बरच्छा।
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बरेजा  : पुं० [सं० वाटिका, प्रा० बाड़िअ] पान का भीटा।
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बरेठा  : पुं० [सं० वरिष्ठ ?] धोबी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरेंड़ा  : स्त्री० [सं० वरंडक-गोला, गोल लकड़ी] [स्त्री० अल्पा० बरेंड़ी] १. छाजन के नीचे लम्बाई के बल लगी हुई लकड़ी। बलींड़ा। २. खपरैल या छाजन के बीचवाला सबसे ऊँचा भाग।
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बरेत  : पुं०=बरेता।
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बरेता  : पुं० [हिं० वरना, वटना+एत (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० बरेती] सन का मोटा रस्सा। नार।
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बरेदी  : पुं० [देश०] चरवाहा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरेषी  : स्त्री०=बरेखी।
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बरैड़ा  : पुं०=बरेड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरो  : स्त्री० [हिं० बार=बाल] १. आलू की जड़ का पतला रेशा। (रंगरेज) २. एक प्रकार की घास।
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बरोक  : पुं० [हिं० बर+रोकना] १. विवाह संबंध निश्चित होने के पहले होनेवाला एक कृत्य। विशेष दे० ‘बरच्छा’। २. वह धन जो उक्त अवसर पर कन्या पक्ष की तरफ से वर-पक्षवालों को दिया जाता है। अव्य० [फा० ब+हिं० रोक] किसी रोकटोक या बाधा के साथ। पुं० [सं० बलौकः] सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बरोज  : स्त्री० [सं० वट+ज०] बरगद की जटा। बरोह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरोठा  : पुं० [सं० द्वार+कोष्ठ, हं० वार-कोठा] १. ड्योढ़ी। पौरी। पद—बरोठे का आचार-विवाह के समय होनेवाली द्वार पूजा। २. दीवानखाना। बैठक।
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बरोधा  : पुं० [देश०] वह खेत जिसमें पिछली फसल कपास की हुई हो।
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बरोबर  : वि०=बराबर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बरोह  : स्त्री० [सं० वा+रोह-आनेवाला] बरगद के पेड़ के ऊपर की डालियों में टँगे हुए सूत या रस्सी के जैसा वह अंग जो क्रमशः नीचे की ओर झुकता तथा जमीन पर पहुँचकर जम जाता तथा नये वृक्ष का रूप धारण करता है।
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बरोही  : अव्य० [हिं० वर-बल] १. किसी के बल या आधार पर। २. बलपूर्वक।
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बरौखा  : पुं०=[हिं० बड़ा+ऊख] एक प्रकार का बड़ा गन्ना।
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बरौंछी  : स्त्री० [हिं० बार+ओंछना] वह कूँची जिसमें सूएर के बाल लगाये जाते हैं।
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बरौठा  : पुं०=बरोठा।
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बरौनी  : स्त्री० [सं० वरण-ढाँकना] पलकों के आगे के बालों की पंक्ति।
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बरौरी  : स्त्री० [हिं० बरी-बरी] बड़ी या बरी नाम का पकवान।
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बर्क  : स्त्री० [अ० बर्क] बिजली। विद्युत। वि० १. बहुत जल्दी काम करनेवाला। तेज। २. (पाठ) जो इतना कंठस्थ हो कि तुरन्त कहा या सुनाया जा सके।
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बर्कत  : स्त्री०=बरकत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बर्कर  : पुं० [सं० वर्कत] १. बकरा। २. पशु का बच्चा। ३. हँसी-मजाक।
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बर्की  : वि० [अ० बर्की] बर्क अर्थात् बिजली-संबंधी। विद्युत् का।
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बर्खास्त  : वि० [भाव० बर्खास्तगी]=बरखास्त।
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बर्ग  : पुं० [फा०] दल। पत्ता। पत्ती।
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बर्छा  : पुं०=बरछा।
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बर्ज  : वि० [सं० वर या वर्य] अपने वर्ग में। श्रेष्ठ। उदाहरण—व्यास आदि कवि बर्ज बखानी।—तुलसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बर्जना  : स०=बरजना।
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बर्णन  : पुं०=वर्णन।
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बर्णना  : स० [हिं० वर्णन] वर्णन करना। बयान करना।
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बर्त  : पुं०=व्रत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बर्तन  : पुं०=बरतन।
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बर्ताव  : पुं०=बरताव।
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बर्द  : पुं० [सं० वलद०] बैल।
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बर्दवानी  : स्त्री० [बर्दवान (स्थान)] पुरानी चाल की एक प्रकार की तलवार जो कदाचित् बर्दवान में बनती थी।
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बर्दाश्त  : स्त्री०=बरदाश्त।
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बर्न  : पुं०=वर्ण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बर्न्य  : वि०=वर्ण्य।
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बर्फ  : पुं०=बरफ। विशेष—बर्फ के सभी विकारी रूपों के लिए दे० ‘बरफ’ के विकारी रूप।
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बर्बट  : पुं० [सं०√बर्ब (गति)+अटन्] राजमाष।
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बर्बटी  : स्त्री० [सं० बर्बट+ङीष्] १. राजमाष। २. वेश्या।
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बर्बर  : पुं० [सं०√बर्ब् (जाना)+अरन्] १. प्राचीन काल में, आर्यों से भिन्न कोई व्यक्ति। २. उत्तर काल में कोई ऐसा व्यक्ति जिसमें आर्यों के से गुण न हों, बल्कि जो असभ्य, क्रूर और हिंसक हो। जंगली व्यक्ति। ३. जंगली जातियों का नृत्य। ४. अस्त्रों आदि की झंकार। ५. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग। ६. घुँघराले बाल। ७. एक तरह का पौधा। ८. एक तरह की मछली। ९. एक तरह का कीड़ा। वि० [भाव० बर्बरता] १. जो असभ्य, क्रूर, जंगली और हिंसक हो। २. उद्धत। उद्दंड। ३. घुँघराला (बाल)।
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बर्बरक  : पुं० [सं० ] एक प्रकार का नक्षत्र जिसे शीत चन्दन भी कहते हैं।
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बर्बरता  : स्त्री० [सं० बर्बर+तल्+टाप्] १. बर्बर अर्थात् परम असभ्य, क्रूर तथा हिंसक होने की अवस्था या भाव। २. बर्बर व्यक्ति का कोई विशिष्ट आचरण या कार्य।
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बर्बरा  : स्त्री [सं० बर्बर+टाप्] १. बर्बरी। वन-तुलसी। २. एक प्रकार की मक्खी। २. एक प्राचीन नदी।
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बर्बरी  : स्त्री० [सं० बर्बर+ङीष्] १. बन तुलसी। २. ईंगुर। सिंदूर। ३. पीला चन्दन।
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बर्रा  : पुं०=पर्रे। पुं० [हिं० बरना]=रस्सा-कशी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बर्राक  : वि० [अ० बर्राक़] १. जगमगाता हुआ। चमकीला। २. बहुत उजला। सफेद। ३. वेगवान्। तेज। ४. चतुर। चालाक। ५. जिसका पूरी तरह से अभ्यास किया गया हो। ६. कंठस्थ। मुखाग्र।
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बर्राना  : अ० [अनु० बर बर] १. बर बर या बड़ बड़ करना। व्यर्थ बोलना। बकना। २. नींद में पड़े व्यर्थ की बातें करना।
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बर्रे  : पुं० [सं० वरण] १. मधु-मक्खियों की तरह छत्ते बनाकर रहनेवाला एक तरह का भौरे के आकार-प्रकार का डंक मारनेवाला कीड़ा जो उड़ते समय भूँ-भूँ शब्द करता है। भिड़। २. दे० ‘कुसुम’।
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बर्रो  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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बर्सात  : स्त्री०=बरसात।
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बर्ह  : पुं०=बर्ह (मोर का पंख)।
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बर्ही  : पुं०=वर्ही (मोर)।
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बल  : पुं० [सं०√बल् (जीवन देना)+अच्] १. वह शारीरिक तत्त्व जिसके सहारे हम चलते-फिरते और सब काम करते हैं। यह वस्तुतः हमारी शक्ति का कार्यकारी रूप है; और चीजें उठाना, खींचना, ढकेलना, फेंकना आदि काम इसी के आधार पर होते हैं। मुहा०—बल बाँधना=विशेष प्रयत्न करना। जोर लगाना। उदा०—जनि बल बाँधि बढ़ावहु छीति।—सूर। बल भरना=जोर या ताकत दिखाना या लगाना। २. उक्त का वह व्यावहारिक रूप जिससे दूसरों को दबाया, परिचालित किया अथवा वश में रखा जाता है। ३. राज्य या शासन के सशस्त्र सैनिकों आदि का वर्ग जिसकी सहायता से युद्ध, रक्षा, शांतिस्थापन आदि कार्य होते हैं। (फोर्स, उक्त तीनों अर्थों में) ४. शरीर। ५. पुरुष का वीर्य। ६. ऐसा परकीय आधार या आश्रय जिसके सहारे अपने बूते या शक्ति से बढ़कर कोई काम किया जाता है। जैसे—तुम तो उन्हीं के बले पर बढ़-बढ़कर बातें कर रहे हो। पद—किसी के बल=किसी के आसरे या सहारे से। जैसे—हाथ के बल उठना, पैरों के बल बैठना। ७. पहलू। पार्श्व। जैसे—दाहिने (या बाएँ) बल लेटना। पुं० [सं० बलः] १. बलराम। बलदेव। २. कौआ। ३. एक राक्षस का नाम। ४. बरुना नामक वृक्ष। पुं० [सं० बलि=झुर्री, मरोड़ या वलय] १. वह घुमाव, चक्कर या फेरा जो किसी लचीली या नरम चीज के बढ़ने या मरोड़ने के बीच बीच में पड़ जाता है। ऐंठन। मरोड़। जैसे—रस्सी जल गई, पर उसके बल नहीं गये। क्रि० प्र०—डालना।—देना।—निकालना। मुहा०—बल खाना=(क) बटने या घुमाये जाने से घुमावदार हो जाना। ऐंठा जाना। (ख) कुंचित या टेढ़ा होना। बल देना=(क) ऐंठना। मरोड़ना। (ख) बटना। जैसे—डोरी या रस्सी मे बल देना। २. किसी चीज को यों ही अथवा किसी दूसरी चीज के चारों ओर घुमाने पर हर बार पड़नेवाला चक्कर या फेरा। लपेट। जैसे—रस्सी के दो बल डाल दो तो गठरी मजबूती से बँध जायगी। क्रि० प्र०—डालना।—देना। ३. गोलाई लिये हुए वह घुमाव या चक्कर जो लहरों के रूप में दूर तक चला गया हो। ४. ऐसा अभिमान जिसके कारण मनुष्य सरल भाव से आचरण या व्यवहार न करता हो। जैसे—मुझसे डींग हाँकोगे तो मैं तुम्हारा सारा बल निकाल दूँगा। मुहा०—बल की लेना=घमंड करना। इतराना। ५. ऐसा अभाव, त्रुटि या दो जिसके कारण कोई चीज ठीक तरह से काम न करती हो। जैसे—न जाने इस घड़ी में क्या बल है कि यह रोज एक दो बार बंद हो जाती है। क्रि० प्र०—निकालना।—पड़ना। ६. कपड़ों आदि में पड़नेवाली सिलवट। शिकन। जैसे—इस कोट में दो जगह बल पड़ता है; इसे ठीक कर दो। ७. वह अवस्था जिसमें कोई चीज सीधी न रहकर बीच में या और कहीं कुछ झुक, दब या लचक जाती है। लचक। मुहा०—(किसी चीज का) बल खाना=बीच में से कहीं कुछ टेढ़ा होकर किसी ओर थोड़ा मुड़ जाना। झुकना। लचकना। जैसे—कमानी का दबने पर बल खाना। (शरीर का) बल खाना=कोमलता, दुर्बलता, सुकुमारता आदि के कारण अथवा भाव-भंगी सूचक रूप में शरीर के किसी अगं का बीच में से कुछ लचकना। जैसे—चलने से कमर या हँसने से गरदन का बल खाना। ८. सहसा झटका लगने पर शरीर के अन्दर की किसी नस के कुछ इधर-उधर हो जाने की वह स्थिति जिसमें उस नस के ऊपरी स्थान पर कुछ पीड़ा होती है। जैसे—आज सबेरे सोकर उठने (या झुककर लोटा उठाने) के समय कमर में बल पड़ गया है। क्रि० प्र०—पड़ना। ९. अंतर। फरक। जैसे—हमारे और तुम्हारे हिसाब में ५) का बल है। क्रि० प्र०—निकलना।—पड़ना। मुहा०—बल खाना या सहना=हानि सहना। जैसे—चलो, ये पाँच रुपए हम ही बल खायें। स्त्री०=बाल (अनाज की)। पुं० हिं० बाल का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में प्राप्त होता है। जैसे—बल-तोड़।
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बल-कटी  : स्त्री० [हिं० बाल (अनाज की)+काटना] मुसलमानी राज्यकाल में फसल काटने के समय किसानों आदि से उगाही जानेवाली कर की किस्त।
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बल-काम  : वि० [सं०] बल या शक्ति प्राप्त करने का इच्छुक।
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बल-तोड़  : पुं०=बाल-तोड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बल-दर्शक  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का सैनिक अधिकारी।
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बल-नीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. आधुनिक राजनीति में वह नीति जिसके अनुसार कोई राष्ट्र सैनिक-बल के प्रयोग या सहायता से अपना बल, प्रभाव, हित आदि बढ़ाने का प्रयत्न करता रहता है। २. प्रतियोगियों की तुलना में अपना बल या शक्ति बढ़ाते चलने की चाल या नीति। (पावर-पॉलिटिक्क)
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बल-नेह  : पुं० [हिं० बल+नेह] एक प्रकार का संकर राग जो रामकली, श्याम, पूर्वी, सुंदरी, गुणकली और गांधार से मिलकर बना है।
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बल-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. सेनापति। २. इंद्र।
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बल-परीक्षा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वह क्रिया जिससे किसी का बल जाना जाता हो। २. विरोधी दलों या वर्गों में होनेवाला वह द्वंद्व जो बलपूर्वक एक दूसरे को दबाने अथवा एक दूसरे से अपनी बात मनवाने के लिए होता है। (शोडाउन)
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बल-पुच्छक  : पं० [सं० ब० स०] कौआ।
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बल-पूर्वक  : अव्य० [सं० ब० स०, कप्] १. बल लगाकर। शक्ति-पूर्वक। २. किसी की इच्छी के विरुद्ध और अपने बल का प्रयोग करते हुए। बलात्। जबरदस्ती।
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बल-पृष्ठक  : पुं० [सं० ब० स०,+कप्] रोहू (मछली)।
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बल-प्रयोग  : पुं० [सं०] १. किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य करने के लिए शक्ति का किया जानेवाला प्रयोग। (कोअर्सन) २. अनुचित दबाब।
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बल-प्रसू  : स्त्री० [सं० ब० स०] बलराम की माता, रोहिणी।
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बल-मुख्य  : पुं० [सं० स० त०] सेनानायक।
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बल-वर्धक  : वि० [सं० ष० त०] बल बढ़ानेवाला।
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बल-वर्धन  : पुं० [सं० ष० त०] बल या शक्ति बढ़ाने का काम।
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बल-वर्धी  : वि०=बलवर्धक।
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बल-व्यसन  : पुं० [सं० ष० त०] सेना की हार। सैनिक पराजय।
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बल-शील  : वि० [सं० ब० स०] बलवान्।
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बल-स्थिति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सैनिक शिविर। छावनी।
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बल-हीन  : वि० [सं० तृ० त०] जिसमें बल न हो। अशक्त। शक्तिहीन।
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बलक  : पुं० [सं०] स्वप्न, विशेषतः आधी रात के बाद आनेवाला स्वप्न। पुं० [हिं० बलकना] बलकने की अवस्था, क्रिया या भाव। वि० दे० ‘बलकना’।
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बलकना  : अ० [अनु०] १. उबलना। उफान आना। खौलना। २. आवेश या उमंग में आना। ३. उभड़ना।
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बलकर  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० बलकारी] १. बल देनेवाला। २. बल बढ़ानेवाला। पुं० अस्थि। हड्डी।
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बलकल  : पुं०=वल्कल (छाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलकाना  : स० [हिं० बलकना] १. उबालना। खौलाना। २. उत्तेजित करना। उभाड़ना। ३. उमंग में लाना। उदा०—जोवन ज्वर केहि नहिं बलकावा।—तुलसी।
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बलकुआ  : पुं० [देश०] एक तरह का बाँस।
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बलक्ष  : वि० [सं०√बल्+क्विप्, बल्√अक्ष्+घञ्] श्वेत। सफेद। पुं० सफेद रंग।
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बलख  : पुं० [फा० बलख़] अफगानिस्तान का एक प्राचीन नगर।
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बलगम  : पुं० [अ०] [विं० बलगामी] नाक, मुँह आदि में से निकलनेवाला एक तरह का लसीला गाढ़ा पदार्थ। कफ। श्लेष्मा।
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बलगमी  : वि० [फा०] १. बलगम-संबंधी। २. कफ-प्रधान (प्रकृति)। ३. कफजन्य अर्थात् बलगम के कारण होनेवाला।
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बलगर  : वि० [हिं० बल+गर] १. बलवान् २. दृढ़। पक्का। मजबूत
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बलचक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. राज्य। २. राजकीय शासन। ३. सेना।
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बलज  : पुं० [सं० बल√जन् (पैदा होना)+ड] १. अन्न की राशि। २. अन्न की फसल। ३. खेत। ४. नगर का मुख्य द्वार। ५. दरवाजा। द्वार। ६. युद्ध। लड़ाई। वि० बल से उत्पन्न। बलजात।
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बलजा  : स्त्री० [सं० बलज+टाप्] १. पृथ्वी। २ सुंदर स्त्री। ३. एक तरह की जूही और उसकी कली। ४. रस्सी।
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बलंद  : वि० [फा०] १. उच्च। ऊँचा। २. महान्।
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बलद  : पुं० [सं० बल√दा (देना)+क] १. बैल। २. जीवक नामक वृक्ष। ३. वह गृह्याग्नि जिससे पौष्टिक कर्म किये जाते थे। वि० बल देनेवाला।
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बलदाऊ  : पुं०=बलदेव (बलराम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बलदिया  : पुं० [हिं० बलद=बैल] १. बैल आदि चरानेवाला। चरवाहा। २. बनजारा।
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बलंदी  : स्त्री० [फा०] १. ऊँचाई। २. महत्ता।
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बलदेव  : पुं० [सं० बल√दिव्+अच्] १. बलराम। २. वायु।
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बलंधरा  : स्त्री० [सं०] भीमसेन की पत्नी। (महाभारत)
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बलन  : पुं० [सं०√बल् (जीवन)+ल्युट्—अन] बलवान् बनाने की क्रिया। बल देना या बढ़ाना।
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बलना  : अ० [सं० बर्हण या ज्वलन] १. जलना। २. किसी चीज का इस प्रकार जलना कि उसमें से लपट या लौ निकले। जैसे—आग या दीआ बलना।
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बलबलाना  : अ० [अनु० बलबल] [भाव० बलबलाहट] १. जल अथवा किसी तरल पदार्थ का उबलते समय बल-बल करना। २. ऊँट का बलबल शब्द करना। अ०=बिलबिलाना। अ०=बड़बड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलबलाहट  : स्त्री० [हिं० बलबलाना] बलबलाने से होनेवाला शब्द। स्त्री०=बिलबिलाहट। स्त्री०=बड़बड़ाहट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलंबी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसके फल खट्टे होते हैं और अचार के काम आते हैं। २. उक्त पेड़ का फल।
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बलबीज  : पुं० [सं० बला-बीज] कंघी के बीज।
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बलबीर  : पुं० [हिं० बल (=बलराम)+वीर (=भाई)] बलराम के भाई श्रीकृष्ण।
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बलबूता  : पुं० [हिं० बल+बूता] १. बल तथा बिसात या सामर्थ्य जो किसी दुष्कर काम के संपादन के लिए आवश्यक होते हैं। २. शारीरिक शक्ति और आर्थिक संपन्नता का समाहार।
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बलभ  : पुं० [सं० बल√भा (चमक)+क] एक प्रकार का विषैला कीड़ा।
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बलभद्र  : पुं० [सं० बल+अच्, बल-भद्र, कर्म० स०] १. बलदेव जी का एक नाम। २. लोध का पेड़। ३. नील गाय। ४. पुराणानुसार एक पर्वत।
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बलभद्रा  : स्त्री० [सं० बलभद्र+टाप्] १. कुमारी कन्या। २. त्रायमाण लता। ३. नील गाय।
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बलभी  : स्त्री० [सं० वलभि] मकान की सबसे ऊपरवाली छत पर की कोठरी या कमरा। ऊपर का खंड। चौबारा।
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बलम  : पुं० [सं० वल्लभ] प्रियतम। पति। बालम।
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बलमीक  : पुं०=वल्मीक (बाँबी)।
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बलय  : पुं०=वलय।
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बलया  : स्त्री०=वलय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बलराम  : पुं० [सं०√रम् (रमण)+घञ्, बल-राम, ब० स०] श्रीकृष्णचन्द्र के बड़े भाई जो रोहिणी से उत्पन्न थे। बलदेव।
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बलल  : पुं० [सं० बल√ला (लेना)+क] १. बलराम। २. इंद्र।
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बलवंड  : वि० [सं० बलवंत] बलवान्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बलवंत  : वि० [सं० बलवत्] बलवान्। ताकतवर।
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बलवती  : वि० स्त्री० [सं० बलवत्+ङीष्] जो बहुत अधिक प्रबल हो और जिसे रोका या मिटाया न जा सकता हो। जैसे—बलवती इच्छा।
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बलवत्  : वि० [सं० बल+मतुप्] (ऐसा विधान या नियम) जो चलन में हो और इसी लिए जो अपना बल प्रदर्शित कर रहा हो। (इन-फोर्स) अव्य० बलपूर्वक। बलात्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलवत्ता  : स्त्री० [सं० बलवत्+तल्+टाप्] १. बलवान् होने की अवस्था या भाव। २. श्रेष्ठता।
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बलवा  : पुं० [फा० बल्वः] १. दो दलों या संप्रदायों में होनेवाला वह उग्र संघर्ष जिसमें मार-काट, अग्निकांड आदि उपद्रव भी होते हैं। २. बगावत। विद्रोह।
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बलवाई  : पुं० [फा० बलवा+ई (प्रत्य०)] १. बलवा करनेवाला। २. विद्रोही। बागी।
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बलवान् (न)  : वि० [सं० बल+मतुप्, वत्व] [स्त्री० बलवती, भाव० बलवत्ता] १. जिसमें अत्यधिक बल हो। शक्तिशाली। २. पुष्ट। मजबूत। बलिष्ठ।
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बलवार  : वि०=बलवान्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलवीर  : पुं०=बलबीर।
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बलशाली (लिन्)  : वि० [सं० बल√शल् (प्रप्ति)+णिनि] [स्त्री० बलशालिनी] बलवान्। बली।
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बलसुम  : वि० [हिं० बालू+?] (जमीन) जिसमें बालू हो। बलुआ।
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बलसूदन  : पुं० [सं० बल√सूद् (नाश)+णिच्+ल्यु—अन] १. इन्द्र। २. विष्णु।
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बलहन्  : पुं० [सं० बल√हन् (मारना)+क्विप्] १. इन्द्र। २. कफ। श्लेष्मा।
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बलहा  : वि० [सं० बलहन्] १. बल अर्थात् शक्ति का नाश करनेवाला। २. बल अर्थात् सेना का नाश करनेवाला।
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बला  : स्त्री० [सं० बल+अच्+टाप्] १. बरियारा नामक क्षुप। २. वैद्यक में पौधों का एक वर्ग जिसके अंतर्गत ये चार पौधे हैं—बला या बरियारा, महाबला या सहदेई, अतिबला या कँगनी और नागवला या गँगरेन। ३. वह क्रिया या विद्या जिसके बल से युद्ध-क्षेत्र में योद्धाओं को भूख-प्यास नहीं लगती थी। ४. दक्ष प्रजापति की एक कन्या। ५. नाटकों में छोटी बहन के लिए संबोधन-सूचक शब्द। ६. पृथ्वी। ७. लक्ष्मी। ८. जैनों के अनुसार एक देवी जो वर्तमान अवसर्पिणी के सत्रहवें अर्हत् के उपदेशों का प्रचार करनेवाली कही गई है। स्त्री० [अ०] १. कोई ऐसा काम, चीज या बात जो बहुत अधिक कष्टदायक हो और जिससे सहज में छुटकारा न मिल सकता हो। आपत्ति। विपत्ति। संकट। २. कोई ऐसा काम, चीज या बात जो अनिष्टकारक या कष्टप्रद होने के कारण बहुत ही अप्रिय तथा घृणित मानी जाती हो या जिससे लोग हर तरह से बचना चाहते हों। जैसे—वियोगियों के लिए चाँदनी रात (या बरसात) भी एक बला ही होती है। ३. बहुत ही अप्रिय, घृणित, तुच्छ या हेय वस्तु। जैसे—यह कहाँ की बला तुम अपने साथ लगा लाये। पद—बला का=(क) बहुत अधिक तीव्र या प्रबल। जैसे—आज तो तरकारी (या दाल) में बला की मिरचें पड़ी हैं। (ख) बहुत ही उग्र, प्रचंड, भीषण या विकट। जैसे—वह तो बला का लड़ाका निकला। बला से=कोई चिंता नहीं। कुछ परवाह नहीं। जैसे—वह जाता है तो जाय, हमारी बला से। हमारी बला ऐसा करे=हम कभी ऐसा नहीं कर सकते। मुहा० (किसी की) बलाएँ लेना=किसी के सिर के पास दोनों हाथ ले जाकर धीरे-धीरे उसके दोनों पार्श्वों पर से नीचे की ओर लाना जो इस बात का सूचक होता है कि तुम्हारे सब कष्ट या विपत्तियाँ हम अपने ऊपर लेते हैं। (स्त्रियों का शुभ-चिंतना सूचक एक अभिचार या टोटका) ४ भूत-प्रेत आदि अथवा उनके कारण होनेवाला उपद्रव या बाधा। (स्त्रियाँ) जैसे—उसे तो कोई बला लगी है।
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बला-पंचक  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक में बला, अतिबला, नागबला, महाबला और राजबला नाम की पाँच ओषधियों का समुदाय।
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बलाइ  : स्त्री०=बला (विपत्ति)।
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बलाक  : पुं० [सं० बल√अक् (जाना)+अच्] [स्त्री० बलाका, बलाकिका] १. बक। बगला। २. एक राजा जो भागवत के अनुसार पुरु तथा पुत्र और जह्नु का पौत्र था। ३. एक राक्षस का नाम।
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बलाक  : स्त्री० [सं० बलाक+टाप्] १. मादा बगला। बगली। २. बगलों की पंक्ति। ३. प्रेयसी। ४. कामुक स्त्री०। ५. नृत्य में एक प्रकार की गति।
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बलाकिका  : स्त्री० [सं० बलाक+कन्+टाप्, इत्व] १. मादा बगला। बलाका। २. बगलों की एक जाति।
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बलाग्र  : पुं० [सं० बल-अग्र, ष० त०] १. सेना का अगला भाग। २. सेनापति। वि० बलवान्। शक्तिशाली।
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बलाघात  : पुं० [सं० बल+आघात, तृ० त०] १. किसी काम, चीज या बात पर साधारण से कुछ अधिक बल लगाने या जोर देने की क्रिया या भाव। (स्ट्रेस) २. मनोभाव, विचार आदि प्रकट करते समय उनकी आवश्यकता, उपयोगिता, महत्त्व आदि की ओर ध्यान दिलाने के लिए उन पर डाला जानेवाला जोर। (एमफैसिस) ३. दे० ‘स्वराघात’।
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बलाट  : पुं० [सं० बल√अट् (जाना)+अच्] मूँग।
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बलाढ्य  : वि० [सं० बल-आढ्य, तृ० त०] बलवान्। पुं० उरद। माष।
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बलात्  : अव्य० [सं० बल√अत् (निरन्तर गमन)+क्विप्] १. बल-पूर्वक। जबरदस्ती से। बल से। २. हठ-पूर्वक। हठात्।
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बलात्कार  : पुं० [सं० बलात्√कृ (करना)+घञ्] १. बलात् या हठपूर्वक कोई काम करना। विशेषतः किसी या दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कोई काम करना। २. पुरुष द्वारा किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक धमकाकर या छलपूर्वक किया जानेवाला संभोग। (रेप) ३. स्मृति में, महाजन का ऋणी को अपने यहाँ रोककर तथा मार-पीटकर पावना वसूल करना।
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बलात्कारित  : भू० कृ०=बलात्कृत।
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बलात्कृत  : भू० कृ० [सं० बलात्√कृ (करना)+क्त] १. जिसके साथ बलात्कार किया गया हो। २. जिससे बलपूर्वक या जबरदस्ती कोई काम कराया गया हो।
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बलात्मिका  : स्त्री० [सं० बलात्√कृ (करना)+क्त] १. जिसके साथ बलात्कार किया गया हो। २. जिससे बलपूर्वक या जबरदस्ती कोई काम कराया गया हो।
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बलात्मिका  : स्त्री० [सं० बल-आत्मन्, ब० स०,+कप्+टाप्, इत्व] हाथी-सूँड़ नाम का पौधा।
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बलाधिक  : वि० [सं० स० त०] [भाव० बलाधिक्य] अधिक बलवाला।
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बलाधिकरण  : पुं० [सं० बल-अधिकरण, ष० त०] सैनिक कार्रवाई।
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बलाध्यक्ष  : पुं० [सं० बल-अध्यक्ष, ष० त०] सेना का अध्यक्ष। सेनापति।
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बलाना  : स०=बुलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलानुज  : पुं० [सं० बल-अनुज, ष० त०] बलराम के छोटे भाई श्रीकृष्ण।
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बलान्वित  : भू० कृ० [सं० बल-अन्वित, तृ० त०] १. बल से युक्त किया हुआ। २. बली। बलशाली।
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बलाबल  : पुं० [सं० द्व० स०] किसी में होनेवाले बल और निर्बलता दोनों का योग। जैसे—पहले अपने बलाबल का विचार करके काम में हाथ लगाना चाहिए।
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बलामोटा  : स्त्री० [सं० बल+आ√मुट् (मर्दन)+अच्+टाप्] नागदमनी नाम की ओषधि।
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बलाय  : पुं० [सं० बल-अय, ष० त०] वरुना नामक वृक्ष। बन्ना। बलास। स्त्री० [अ० बला] १. आपत्ति। विपत्ति। संकट। २. कष्टदायक चीज या बात। दे० ‘बला’। ३. एक प्रकार का रोग जिसमें हाथ की किसी उँगली के सिरे पर गाँठ निकल आती है या ऐसा फोड़ा हो जाता है जो उँगली टेढ़ी कर देता है।
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बलाराति  : पुं० [सं० बल-आरति, ष० त०] १. इंद्र। २. विष्णु।
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बलालक  : पुं० [सं० बल√अल् (पर्याप्त)+ण्वुल्—अक] जलआँवला।
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बलावलेप  : पुं० [सं० बल-अवलेप, तृ० त०] १. अपने सम्बन्ध में यह कहना कि मुझमें बहुत अधिक बल है। २. अभिमान। घमंड।
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बलाविकृत  : पुं० [सं० बल-अधिकृत, ष० त०] सेना-विभाग का प्रधान अधिकारी।
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बलाश  : पुं० [सं० बल√अश्+अण्] १. कफ। २. क्षय।
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बलास  : पुं० [सं० बल√अस् (फेंकना)+अण्] १. कफ। २. कफ के बढ़ने से होनेवाला एक रोग जिसमें गले और फेफड़े में सूजन और पीड़ा होती है। पुं० [सं० बला] बरुना नाम का पौधा।
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बलासी (सिन्)  : वि० [सं० बलास+इनि] बलास अर्थात् क्षय (रोग) से पीड़ित। पुं० [सं० बलास] बरुना या बन्ना नाम का पौधा।
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बलाहक  : पुं० [सं० बल+आ√हा (छोड़ना)+क्वुन्—अक] १. बादल। मेघ। २. सात प्रकार के बादलों में से एक प्रकार के बादल जो प्रलय के समय छाते हैं। ३. मोथा। ४. श्रीकृष्ण के रथ के एक घोड़े का नाम। ५. सुश्रुत के अनुसार दर्वीकर साँपों का एक भेद या वर्ग। ६. एक तरह का बगला। ७. कुश द्वीप का एक पर्वत।
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बलाहर  : पुं० [देश०] १. मछुओं या धीवरों की एक जाति। २. गाँव का चौकीदार।
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बलाही  : पुं० [?] १. चमड़ा कमानेवाला व्यक्ति। २. चमड़े का व्यवसाय करनेवाला-व्यक्ति।
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बलि  : पुं० [सं०√बल (देना)+इन्] १. प्राचीन भारत में (क) भूमि की उपज का वह छठा अंश जो भूस्वामी प्रतिवर्ष राजा को देता था। राजकर। (ख) वह कर जो राजा अपने धार्मिक कृत्यों के लिए प्रजा से लेता था। २. वह अंश या पदार्थ जो किसी देवता के लिए अलग किया गया हो या निकालकर रखा गया हो। ३. देवताओं के आगे रखा जानेवाला भोजन। नैवेद्य। भोग। ४. देवताओं पर चढ़ाई जानेवाली चीजें। चढ़ावा। ५. देवताओं के पूजन की सामग्री। ६. वह पशु जो किसी देवता या अलौकिक शक्ति को प्रसन्न तथा संतुष्ट करने के लिए उसके सामने या उसके उद्देश्य से मारा जाता हो। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना। २. वह स्थिति जिसमें कोई व्यक्ति अपने प्राण या शरीर तक किसी काम, बात या व्यक्ति के लिए पूर्ण रूप से अर्पित कर देता है। मुहा०—(किसी पर) बलि जाना=किसीके महत्त्व, मान आदि का ध्यान करते हुए अपने आपको उस पर निछावर करना। बलिहारी होना। उदा०—तात जाऊँ बलि वेगि नहाहू।—तुलसी। ८. पंच महायज्ञों में से भूत यज्ञ नामक चौथा महायज्ञ। ९. उपहार। भेंट। १॰. खाने-पीने की चीज। खाद्य सामग्री। ११. चैवर का डंडा। १२. आठवें मन्वन्तर में होनेवाले इन्द्र का नाम। १३. प्रह्लाद का पौत्र और विरोचन का पुत्र जो दैत्यों का राजा था, जिसे विष्णु ने वामन अवतार धारण करके छलपूर्वक बाँध लिया था और ले जाकर पाताल में रख दिया था। स्त्री० १. शरीर के चमड़े पर पड़नेवाली झुर्री। २. बल। शिकन। ३. एक प्रकार का फोड़ा जो गुदार्वत के पास अर्श आदि रोगों में उत्पन्न होता है। ४ बवासीर का मसा। स्त्री० [सं० बला=छोटी बहन] सखी। उदा०—ए बलि ऐसे बलम को विविध भाँति बलि जाऊँ।—पद्माकर।
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बलि-कर  : वि० [सं० बलि√कृ (करना)+अच्] १. बलि चढ़ानेवाला। २. कर या राजस्व देनेवाला। ३. शरीर में झुर्रियाँ उत्पन्न करनेवाला।
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बलि-कर्म (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] बलि देने या चढ़ाने का काम।
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बलि-दान  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० बलिदानी] १. देवताओं आदि को प्रसन्न करने के लिए उनके उद्देश्य से किसी पशु का किया जानेवाला वध। २. किसी उद्देश्य या बात की सिद्धि के लिए अपने प्राण तक दे देना। जैसे—देश-सेवा के लिए अपने आपको बलिदान करना। पद—बलिदान का बकरा-ऐसा व्यक्ति जिस पर किसी काम या बात का व्यर्थ ही सारा अपराध या दोष लाद दिया जाय, और तब उसे पूरा-पूरा दंड दिया जाय। (प्रायः अपने आपको उस अपराध या दोष का भागी बनाने के लिए)।
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बलि-नंदन  : पुं० [सं० ष० त०] बाणासुर।
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बलि-पशु  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह पशु जो यज्ञ आदि में अथवा किसी देवता को संतुष्ट तथा प्रसन्न करने के लिए उसके नाम पर मारा जाता हो।
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बलि-पुष्ट  : पुं० [तृ० त०] कौआ।
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बलि-प्रदान  : पुं० [सं० ष० त०]=बलि-दान।
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बलि-प्रिय  : पुं० [सं० बलि√प्री+क०] १. लोध का पेड़। २. कौआ।
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बलि-बंधन  : पुं० [सं० बलि√बंध्(बाँधना)+णिच्+युच्—अन] विष्णु, जिन्होने राजा बलि को बाँधा था।
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बलि-मंदिर  : पुं० [ष० त०] राजा बलि के रहने का स्थान, पाताल लोक।
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बलि-मुख  : पुं० [ब० स०]=बलि-मंदिर।
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बलि-वैश्यदेव  : पुं० [कर्म० स०] पंच महायज्ञों मे से भूतयज्ञ नाम का चौथा महायज्ञ।
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बलित  : भू० कृ० [हिं० बलि] (पशु) जो बलि चढ़ाया गया हो।
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बलिदम  : पुं० [सं० बलि√दम् (दमन करना)+खुश, मुम्] विष्णु।
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बलिदानी  : वि० [सं० बलिदान] १. बलिदान-संबंधी। बलिदान का। जैसे—बलिदानी परम्परा, बलिदानी बकरा। २. बलिदान करने या चढ़ानेवाला। स्त्री०=बलिदान।
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बलिद्विट् (ष्)  : पुं० [सं० बलि√द्विष् (बैर करना)+क्विप्] विष्णु।
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बलिध्वंसी(सिन्)  : पुं० [सं० बलि√ध्वंस (नाश)+णिनि] विष्णु।
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बलिभुज्  : पुं० [सं० ] बलि-भुज् का वह रूप जो उसे सम्बोधन कारक में प्रयुक्त होने पर प्राप्त होता है। उदाहरण—किन्तु कौन पा सकता बलिभुज् अमिट कामना पर जाय।—पंत।
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बलिभुज् (ज्)  : पुं० [सं० बलि√भुज्+क्विप्] कौआ।
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बलिभृत्  : [सं० बलि√भृ (भरण करना)+क्विप्, तुक्] १. बलि अर्थात् राज-कर देनेवाला। २. अधीनस्थ।
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बलिभोजी (जिन्)  : पुं० [सं० बलि√भुज् (खाना)+णिनि] कौआ।
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बलिश  : पुं० [सं० बलि√शो (पैना करना)+क] मछली फँसाने की कटिया। बंसी।
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बलिष्ठ  : वि० [सं० बलिन्+इष्ठन्] जो सबसे अधिक बलवान हो। पुं० ऊंट।
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बलिष्ठ  : वि० [सं०√वल् (संवरण)+इष्णुच्] अपमानित।
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बलिहरण  : पुं० [ष० त०] सब प्रकार के जीवों को बलि देना।
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बलिहारना  : स० [हिं० बलि+हारना] को चीज किसी पर से न्यौछावर करना। जैसे—जान बलिहारना।
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बलिहारी  : स्त्री० [हिं० बलि+हारना] बलिहारने अर्थात् न्यौछावर करने की क्रिया या भाव। कुर्बान करना। मुहावरा—बलिहारी जाना=न्यौछावर होना। बलिहारी लेना=बलाएँ लेना। (दे० बला के अन्तर्गत)। पद—बलिहारी हैं=मैं इतना मोहित या प्रसन्न हूँ कि अपने को न्यौछावर करता हूँ। वाह वाह क्या बात है।
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बलिहृत  : वि० [सं० बलि√हृ (हरण करना)+क्विप्, तुक्] १. बलिया भेट लानेवाला। २. कर देनेवाला। पुं० राजा।
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बली (लिन्)  : वि० [सं० बल+इनि] बलवान्। बलवाला। पराक्रमी। पुं० १. भैंसा। २. साँड़। ३. ऊँट। ४. सूअर। ५. बलराम। ६. सैनिक। ७. कफष ८. एक तरह की चमेली। स्त्री० [हिं० बल] १. बल। शिन। सिलवट। २. त्वचा पर पड़नेवाली झुर्री।
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बलीक  : पुं० [सं०] छप्पर का किनारा।
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बलींड़ा  : पुं० [सं० वरंडक] १. छानज के नीचे लम्बाई के बल लगी हुई लकड़ी। बरेंड़ा। २. संतो की परिभाषा में ज्ञान की उच्च अवस्था। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलीन  : पुं० [सं० बल+ख-ईन] बिच्छू। वि०=बलवान।
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बलीना  : स्त्री० [यू० फैलना] एक प्रकार की ह्वेल मछली।
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बलीबैठक  : स्त्री० [हिं० बली+बैठक] एक प्रकार की बैठक (कसरत) जिसमें जंघे पर भार देकर उठना-बैठना पड़ता है।
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बलीमुख  : पुं० [सं० ब० स०] बंदर।
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बलीवर्द  : पुं० [सं०√वृ+क्विप्+वर, ई+वर, द्व० स०,ईवर्√दा+क, बलिन्-ईषर्व, कर्म० स०] १. साँड़। २. बैल।
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बलुआ  : वि० [हिं० बालू] [स्त्री० बलुई] (स्थान) जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हुआ हो। पुं० रेतीली जमीन।
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बलूच  : पुं०=बलोच।
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बलूचिस्तान  : पुं०=बलोचिस्तान।
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बलूची  : पुं०=बलोच।
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बलूत  : पुं० [अ०] ठंडे प्रदेशों में होनेवाला माजूफल की जाति का एक पेड़।
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बलूल  : वि० [सं० बल+लच्-ऊङ] बलवान्।
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बलूला  : पुं०=बुलबुला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलै  : पुं०=वलय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बलैया  : स्त्री० [अ० बला, हिं० बलाय] बला। बलाय। मुहावरा—(किसी की) बलैया लेना=दे० बला के अन्तर्गत बलाएँ लेना
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बलोच  : पुं० आधुनिक पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर में बसनेवाली एक तरह की मुसलमान जाति।
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बलोचिस्तान  : पुं० [फा०] आधुनिक पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर का एक प्रदेश।
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बलोची  : पुं० [हिं० बलोच] बलोचिस्तान का निवासी। स्त्री० बलोचिस्तान की बोली। वि० बलोच जाति का।
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बल्कल  : पुं० दे० ‘वल्कल’।
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बल्कस  : पुं० [सं० बल्क√अस् (फेंकना)+अच्, शक्० पररूप] आसव की तलछट।
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बल्कि  : अव्य० [फा०] एक अव्यय जिसका प्रयोग यह आशय सूचित करने के लिए होता है कि—ऐसा नहीं, बल्कि इसके स्थान पर...प्रत्युत। वरन्। जैसे—मैं नहीं, बल्कि आप ही वहाँ चले जायँ।
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बल्ब  : पुं० [अ०] १. शीशे की नली का अधिक चौड़ा भाग। २. पतले शीशे का एक उपकरण जो बिलजी के योग से चमकने और प्रकाश करने लगता है। लट्टू।
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बल्य  : वि० [सं० बल+यत्] बलकारक। शक्ति-वर्धक। पुं० वीर्य। शुक्र।
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बल्या  : स्त्री० [सं० बल्य+टाप्] १. अतिबला। २. अश्वगंधा। ३. प्रसारिणी ४. चंगोनी।
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बल्ल  : पुं०=बल्ल।
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बल्लकी  : स्त्री०=वल्लकी।
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बल्लभ  : पुं०=वल्लभ।
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बल्लम  : पुं० [सं० बल, हिं० बल्ला] १. मोटा छड़। २. लकड़ी का बड़ा और मोटा डंडा। बल्ला। ३. डंडा। सोंटा। ४. वह सुनहला या रूपहला डंडा जिसे प्रतिहारी या चोबदार राजाओं या बड़े आदमियों के आगे-आगे शभा के लिए लेकर चलते थे और जो अब भी बरातों आदि के साथ लेकर चलते हैं। पद—आसा-बल्लभ। ५. बरछा। भाला।
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बल्लम-नोक  : वि० [हिं०] १. जिसकी नोक या अगला सिरा बल्लम के फल की तरह नुकीला हो। २. बहुत ही चुभनेवाला, तीखा या पैना जैसे—तुमने भी खूब बल्लम नोक सवाल किया।
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बल्लम-बरदार  : पुं० [हिं० बल्लम+फा० बर्दार] वह नौकर जो राजाओं की सवारी या बरात के साथ हाथ में बल्लम लेकर चलता हो।
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बल्लमटर  : पुं० [अं० वालंटियर के अनुकरम पर हिं० बल्लम से०] १. स्वेच्छापूर्वक सेना में भरती होनेवाला सैनिक। २. दे० स्वंयसेवक।
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बल्लरी  : स्त्री०=वल्लरी।
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बल्लव  : पुं० [सं०√बल्ल (छिपना)+घञ्, बल्ल√वा (गमन)+क] [स्त्री० बल्लवी] १. चरवाहा। २. भीम का उस समय का कृत्रिम नाम जब वह राजा विराट के यहाँ रसोइया था। ३. उक्त के आधार पर रसोइया।
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बल्ला  : पुं० [सं० बल्ल=लट्ठा या डंडा] [स्त्री० अल्पा० बल्ली] १. लम्बी, सीधी और मोटी लकड़ी या लट्ठा जिसका उपयोग छतें आदि पाटने और मकान बनाने के समय पाइट आदि बाँधने के लिए होता है। २. मोटा डंडा। ३. नाव खेने का डंडा या बाँस। ४. गेंद के खेल में छोटे डंडे के आकार का काठ का वह चपटा टुकड़ा जिससे गेंद पर आघात करते हैं। (बैट)। पद—गेंदबल्ला। पुं० [सं० वलय] गोबर की सुखाई हुई गोल टिकिया जो होली जलने के समय उसमें डाली जाती है।
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बल्लारी  : स्त्री० [देश०] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें केवल कोमल गांधार लगता है।
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बल्लि  : स्त्री०=बल्ली (लता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बल्ली  : स्त्री० [हिं० बल्ला] १. लकड़ी का लम्बा छोटा टुकड़ा। छोटा बल्ला। २. नाव खेने का बाँस। स्त्री०=वल्ली। (लता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बल्व  : पुं० [सं०] गणित ज्योतिष में एक तरण का नाम।
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बल्वल  : पुं० [सं०] इल्वल नामक दैत्य का पुत्र जिसका वध बलराम ने किया था।
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बव  : पुं० [सं०] गणित ज्योतिष में, एक करण का नाम।
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बवँड़ना  : अ० [सं० व्यावर्तन, प्रा० व्यावट्टन] व्यर्थ इधर-उधर घूमना। मारा-मारा फिरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बवंडर  : पुं० [सं० वायु-मंडल] १. हवा का वह तेज झोंका जो चक्कर खाता हुआ चलता है जिसमें पडी हुई धूल खम्भे के रूप में ऊपर उठती हई दिखायी पड़ती है। चक्रवात। बगूला। क्रि० प्र०—उठना।—चलना। २. आँधी। तूफान। ३. व्यर्थ का बहुत बड़ा उपद्रव। क्रि० प्र०—खड़ा होना।
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बवँड़ा  : पुं०=बवंडर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बवँडियाना  : अ०=बवँड़ना (भटकना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बवधूरा  : पुं०=बवंडर (बगूला)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बवन  : पुं० १.=वपन। २.=वमन।
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बवना  : स० [संवपन] १. जमने के लिए जमीन पर बीज डालना। बोना। २. छितराना। बिखेरना। अ० छितरना। बिखरना। पुं०=बौना (वामन) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बवरा  : वि० [स्त्री० बवरी]=बावला (पागल)। उदाहरण—आसनु पवनु दूरि कर बवरे।—कबीर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बवाल  : पुं०=बवाल। (देखें)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बवासीर  : स्त्री० [अ० बवासिर] गुद्रेंद्रिय में मस्से निकनले का एक रोग जो खूनी और बादी दो प्रकार का होता है। (पाइल्स)।
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बशर  : पुं० [अ०] मनुष्य। आदमी।
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बशरी  : वि० [अ०] [भाव० बशरीयत] मनुष्य-संबंधी।
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बशरीयत  : स्त्री० [अ०] आदमीयत। मनुष्यत्व।
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बशर्ते कि  : अव्य० [अ०] शर्त यह है कि।
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बशिष्ट  : पुं०=वशिष्ट।
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बशीर  : वि० [अ०] शुभ संवाद सुनानेवाला।
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बशीरी  : पुं० [अ० बशीर] एक प्रकार का बारीक रेशमी कपड़ा।
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बष्कय  : वि० [सं०√मस्क् (जाना)+अयन्, म—ब, पृषो० स्०—ष] १. (बछड़ा) जो काफी बड़ा हो गया हो। २. हट्टा-कट्ठा। ह्रष्टृ-पुष्ट।
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बष्कयणी  : स्त्री० [सं० बष्कय+इनि+ङीष्, न-ण] वह गाय जिसको बच्चा दिये बहुत समय हो गया हो। बकेन।
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बंस  : पुं०=वंश।
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बस  : अव्य० [फा०] १. यथेष्ट है कि। पर्याप्त है कि। जैसे—बस इतनी ही दया चाहिए। २. समाप्ति का सूचक एक अव्यय। जैसे—अब बस करोगे या नहीं। ३. इतना मात्रा। केवल। सिर्फ। वि० १. यथेष्ट। पर्याप्त। २. समाप्त। खत्म। पुं० [सं० वश] १. अधिकार या शक्ति। जैसे—(क) यह हमारे बस की बात नहीं हैं। (ख) वह तो अब पूरी तरह से तुम्हारे बस में है। मुहावरा—(किसी को) बस करना= दे० नीचे बस में करना। (किसी के आगे या सामने) बस चलना= किसी के मुकाबले में अधिकार या शक्ति का काम करना। जैसे—ईश्वर की इच्छा के आगे किसी का बस नहीं चलता। मुहावरा—(किसी को) बस में करना या लाना=किसी को इस प्रकार अपने अधिकार में लेना कि वह अपनी इच्छा के अनुसार कोई काम न कर सके। स्त्री० [अ० ओमनी बस का संक्षिप्त रूप] प्रायः किसी नगर की सीमा के अंदर किसी निश्चित पथ पर चलनेवाली बड़ी मोटर गाड़ी जो थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सवाँरियाँ उतारती तथा चढ़ाती चलती हैं।
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बस  : पुं० [सं० तुष] अनाज आदि कें ऊपर का छिलका। भूसी।
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बँस-दिया  : पुं० [हिं० बाँस+दिया] गाड़े हुए बाँस के ऊपरी सिरे पर लटकाया जानेवाला दीया। विशेष दे० ‘आकाश दीप’।
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बंस-लोचन  : पुं०=वंशलोचन।
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बंसकपूर  : पुं०=बंस-लोचन।
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बसकर  : वि० [सं० वशीकर] [स्त्री० बसकरी] १. किसी को अपने वश में कर लेनेवाला। वशीकर। २. परम आकर्षक और मनोहर। उदाहरण—बसुधा की बसकरी मधुरता सुधा पगी बतरानि।—रहीम। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बंसकार  : पुं० [सं० वंश] बाँसुरी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बँसगर  : पुं० [हिं० बाँस+फा० गर (प्रत्यय)] बाँस की चटाइयाँ टोकरियाँ आदि बनानेवाला व्यक्ति। वि० [सं० वंश] अच्छे वंशवाला। कुलीन।
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बसंत  : पुं० [सं० वसंत] [वि० बसंती] वसंत ऋतु। पद—उल्लूबसंत= निरा या बहुत बड़ा मूर्ख।
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बसत  : स्त्री० [सं० वास] बसा हुआ स्थान। बस्ती। स्त्री०=वस्तु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसंत-मुखारी  : पुं० [सं० बसंत+मुखी] संगीत में एक प्रकार का राग।
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बसंत-विहार  : पुं० [सं० बसन्त+हिं० बहार] एक प्रकार का संकर राग जो बसंत और बहार के योग से बनता है।
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बसंतर  : पुं०=बसंदर (अग्नि)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसतर  : पुं०=वस्त्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसंता  : पुं० [सं० बसन्त] भूरे रंग की एक प्रकार की चिड़िया। पुं० [सं० वास] कहीं बसने या रहनेवाला। निवासी।
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बसति  : स्त्री०=वस्ती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसंती  : वि० [हिं० बसंत] १. वसंत ऋतु संबंधी। २. बसंत ऋतु में होनेवाला। ३. सरसों के फूल का तरह का। पीला। जैसे—बसंती सेहरा। पुं० १. सरसों के फूल की तरह का चमकदार और खुलता पीला रंग। (क्रीम) २. पीला केवड़ा। स्त्री० एक प्रकार की चेचक यामाता। (रोर)।
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बसंदर  : पुं० [सं० वैश्वानर] अग्नि। आग।
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बसदेवा  : पुं० [सं० वासुदेव] एक जाति जो भीख माँगने का पेशा करती है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसन  : पुं० [सं० वस्=प्रेम करना] स्त्री का पति। उदाहरण—बसन हीन नहि सोह सुरारी।—तुलसी।
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बसना  : स० [सं० वसन=निवास करना] १. जीव-जन्तुओं पक्षियों, आदि का बिल या घोंसला बनाकर अथवा मनुष्यों का गुफा, झोपड़ी मकान आदि बनाकर उसमें निवास करना या रहना। जैसे—किसी समय यहाँ जंगली जानवर बसते थे, पर अब तो यहाँ मनुष्य बस गये हैं। २. घर, नगर या किसी प्रकार के स्थान की ऐसी स्थिति में होना कि उसमें प्राणी या मनुष्य निवास करते हों। जैसे—यह गाँव पहले तो उजड़ चला था, पर अब यह धीरे-धीरे फिर से बसने लगा है। ३. घर या मकान के संबंध में कुटुम्बियों और धन-धान्य से भर-पूरा और सुखपूर्ण होना। जैसे—चाहे किसी का घर बसे या उजड़े तुम तो मौज करते रहो। मुहावरा—(किसी का) घर बसना=(क) विवाह होने पर घर में गृहिणी या पत्नी का आना। जैसे—पर-साल उसकी नौकरी लगी थी, इस साल घर भी बस गया। (ख) घर धन-धान्य और बाल-बच्चो से भरा-पूरा या युक्त होना। जैसे—पहले तो घर में पति-पत्नी दो ही आदमी थे पर अब बाल-बच्चे हो जाने से उसका घर बस गया है। (किसी का घर में) बसना=किसी का अपने घर में रहकर गृहस्थी के कर्त्तव्यों का सुखपूर्वकनिर्वाह और पालन करना। जैसे—यह औरत तो चार दिन भी घर में नही बसेगी, अर्थात् घर छोड़कर (किसी के साथ या योंही) कहीं निकल जायगी। उदाहरण—नारद का उपदेश सुनि कहहु बसेउ को गेह।—तुलसी। ४. कुछ समय तक कही अवस्थान करना। टिकना। ठहरना। जैसे—हम तो रमते राम है, जहाँ जी चाहा वहीं दस-पाँच दिन बस गये। ५. लाक्षणिक रूप में किसी चीज बात या व्यक्ति का ध्यान याविचार मन में दृढ़तापूर्वक जमना या बैठना। जैसे—(क) तुम्हारी बात मेरे मन में बस गयी है। (ख) उनके मन में तो भगवान् की भक्ति बसी हुई है। संयो० क्रि०—जाना। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग मन के सिवा आँखों के संबंध में भी होता है। जैसे—तुम्हारी सूरत मेरे आँखों में बसी हुई है। ६. स्थित होना। ७. बैठना। (क्व०) [हिं० बासना (गंध सेयुक्त करना) का अ०] किसी वस्तु का किसी प्रकार की गंध या वास से युक्त होना। महक से भरना। बासा जाना। जैसे—(क) इत्र से बसे हुए कपड़े या (सिर के ) बाल। (ख) गुलाब से बसी हुई गँड़िरियाँ या रेवड़ियाँ। पुं० [सं० बसन] १. वह कपड़ा जिसमें कोई वस्तु लपेटकर रखी जाय। वेष्ठन। जैसे—बहीखाते का बसना। २. वह थैली जिसमें दुकानदार अपने बटखरे आदि रखते हैं। ३. टाट आदि की वह जाली दार थैली जिसमें रुपए आदि भरकर रखे जाते हैं। ४. वह कोठी जहाँ ऋण आदि देने का कारबार होता है। पुं०=बासन (बरतन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसनि  : स्त्री० [हिं० बसना] निवास। वास।
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बंसमुरगी  : स्त्री० [हिं० बाँस+मुरगी] एक प्रकार की चिड़िया जो तालों के किनारे तथा घनी झाड़ियों के आस-पास रहती है। इसे दहक भी कहते हैं।
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बसर  : स्त्री० [फा०] १. जीवन-निर्वाह। २. गुजारा। निर्वाह।
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बंसरी  : स्त्री०=बाँसुरी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बँसली  : स्त्री०=बाँसुरी।
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बँसवाड़ा  : पुं० [हिं० बाँस+बाड़ा (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० बँसवाड़ी] १. वह बाजार या मुहल्ला जहाँ बाँस बेचनेवालों की बहुत सी दुकानें या घर हों। २. एक जगह उगे हुए बाँसों का समूह। कोठी।
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बँसवार  : पुं० [स्त्री० अल्पा० बँसवारी]=बँसवाड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसवार  : पुं० [सं० वास=गंध] छौंक। बघार।
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बँसवारा  : वि० [सं० वयस+ हि० वाला (प्रत्य०)] [स्त्री० बैसवारी] जवान। युवक। पुं०=बैसवाड़ा।
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बसवास  : पुं० [हिं० बसना+सं० वास] १. निवास। रहना। २. ढंग , रहन सहन। ठहरने या रहने क सुभीता। पुं०=विश्वास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसह  : पुं० [सं० वृषभ, प्रा० बसह] बैल।
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बँसहटा  : पुं० [हिं० बाँस] [स्त्री० अल्पा० बँसहटी] वह चारपाई जिसमें पाटी की जगह बाँस लगे हुए हों।
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बसा  : स्त्री० [देश] १. बर्रै। भिंड़। २. एक प्रकार की मछली। स्त्री०=वसा (चरबी)।
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बसात  : स्त्री०=बिसात।
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बसाँधा  : वि० [हिं० वास=गंध] बासा या सुगंधित किया हुआ। सुवासित।
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बसाना  : स० [हिं० ‘बसना’ का स०] १. व्यक्ति के संबंध में रहने के लिए घर अथवा जीवन-निर्वाह के लिए उचित साधन या सुभीते देना। जैसे—शरणार्थियों को बसाने के लिए सरकार को बहुत अधिक धन व्यय करना पड़ा है। २. स्थान के संबंध में नये घर आदि बनाकर अथवा गाँव या बस्तियाँ बनाकर उनमें लोगों को स्थिर रूप में रखने की व्यवस्था करना। ३. घर-गृहस्थी या जीवन-यापन के साधनों से युक्त करना। मुहावरा—(अपना) घर बसाना=(क) विवाह करके पत्नी को घर में लाना। (ख) गृहस्थी की सब सामग्री इस प्रकार एकत्र करना कि कुटुम्ब के सब लोग सुख से रह सकें। (किसी का) घर बसाना=किसी का विवाह करा देना। ४. अस्थायी रूप से किसी को कहीं टिकाने या ठहराने की व्यवस्था करना। (क्व०) जैसे—इन यात्रियों को दो दिन लिए अपने यहाँ बसा लो उदाहरण—नुपूर जनि मुनिवर कल-हंसनि, रचे नीड़ दै बाँह बसायो।—तुलसी। ५. स्थिति में लाना। स्तान देना। उदाहरण—सुनि कै सुक सो हृदय बसायौ।—सूर। ६. लाक्षणिक रूप में किसी बात या व्यक्ति का ध्यान अथवा विचार अपने मन में दृढ़तापूर्वक स्थित करना। जैसे—यदि आपका उपेदश हृदय में बसा लोगे तो तुम्हारा बहुत बड़ा कल्याण होगा। ७. स्तापित करना। रखना। ८. बैठाना। (क्व० ) स० [हिं० बास+ना (प्रत्यय)] वास अर्थात् गंद से युक्त करना। जैसे—फूल से तेल बसाना। अ०=बसना। (गंध से युक्त होना) अ० [सं० वश] अधिकार, जोर या वश चलना। शक्ति या सामर्थ्य का काम देना या सफल सिद्द होना। उदाहरण—मिला रहे और ना मिलै तासों कहा बसाय।—कबीर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंसार  : पुं० [देश] बंसगार (लश्करी)।
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बसारत  : स्त्री० [अ०] १. देखने की शक्ति। दृष्टि। २. अनुभव करने या समझने की शक्ति। समझ।
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बसाव  : पुं० [हिं० बसना+आव (प्रत्यय)] बसने की अवस्था, क्रिया या भाव। निवास। जैसे—बसाव शहर का, खेत नहर का।—कहा०।
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बसिऔरा  : पुं० [हिं० बासी] १. वर्ष की कुछ विशिष्ट तिथियाँ जिनमें स्त्रियाँ बासी भोजन खाती और बासी पानी पीती है बासी। २. वह भोजन जो उक्त तिथियों में खाने के लिए एक दिन पहले बनाकर रख लिया जाता है। ३. बासी खाने की प्रथा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसिया  : स्त्री०=बासी। स्त्री०=वंशी।
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बसियाना  : अ० [हिं० बासी, या बसिया+ना (प्रत्यय)] बासी हो जाना। स० किसी चीज को रखकर बासी करना। [हिं० बास] बास अर्थात् गंध से युक्त होना।
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बसिष्ठ  : पुं०=वशिष्ठ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बंसी  : स्त्री० [सं० वंशी] १. बाँसुरी। बंशी। २. देवताओं के चरणों में मानी जानेवाली एक प्रकार की रेखा जो बाँसुरी के आकार की होती है। ३. लाक्षणिक अर्थ में कोई चीज या बात जिससे किसी को फँसाया जाता हो। ४. धान के खेतों मे होनेवाली एक प्रकार की घास। बाँसी। ५. एक प्रकार का गेहूँ। ६. तीस परमाणुओं की एक तौल त्रणरेणु। स्त्री० [सं० वरिशी] मछली फँसाने की कँटिया।
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बसीकत  : स्त्री० [हिं० बसना] १. बसने की क्रिया या भाव। २. बसने का स्थान। ३. बस्ती। आबादी।
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बसीकर  : वि०=वशीकर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसीकरन  : पुं०=वशीकरण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसीगत  : स्त्री०=बसीकत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसीठ  : पुं० [सं० अवसृष्ठ] १. दूत। पैगम्बर। ३. गाँव का मुखिया। ४. हल में का जुआठा।
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बसीठी  : स्त्री० [हिं० बसीठ] बसी होने की अवस्था या भाव। दूत का पद या भाव।
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बसीत  : पुं० [अ०] जहाज पर का एक यंत्र जिसमें सूर्य का अक्षांश जाना जाता है। कमान।
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बसीता  : पुं० १.=बस्ती। २.=बसाव। उदाहरण—जुद्ध जुरे जुरजोधन सों कहि कौन करै जमलोक बसीतों।—केशव।
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बंसीधर  : पुं०=वंशीधर (श्रीकृष्ण)।
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बसीना  : पुं० [हिं० बसना] बसने की क्रिया या भाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसीला  : वि० [हिं० बास=गंध] १. वास अर्थात् गन्ध से युक्त। २. दुर्गंन्ध युक्त। बदबूदार।
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बसु  : पुं०=वसु।
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बसुकला  : स्त्री०=वसुकला (वर्ण वृत्त)।
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बसुदेव  : पुं०=वसुदेव।
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बसुमति  : स्त्री०=वसुमती।
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बसुरी  : स्त्री०=बाँसुरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसुला  : पुं०=बसूला।
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बँसुला, बँसूला  : पुं०=वसूला।
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बसुली  : स्त्री० १.=वसूली। २.=बाँसुरी।
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बसू  : पुं०=वसु।
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बसूला  : पुं० [सं० वाशी+ल (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० बसूली] बढ़इयों का एक प्रसिद्ध औजार जिससे वे लकड़ी छीलते और गढ़ते हैं।
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बसूली  : स्त्री० [हिं० बसूला] १. छोटा बसूला। २. राजगीरों का एक औजार जिससे वे ईंटे गड़ते या तोड़ते हैं। स्त्री०=वसूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसेड़ा  : पुं० [हिं० बाँस+ड़ा(प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० बसेंड़ी] पतला बाँस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसेढ़  : पुं० [हिं० बसना] १. बसने या रहने की जगह। २. दे० ‘बसेरा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसेंधा  : वि० [हिं० वास=गंध] [स्त्री० बसेंधी] १. बसाया अर्थात् गंध या वास से युक्त किया हुआ। २. खुशबूदार। सुगंधित।
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बसेरा  : पुं० [हिं० बसना] १. वह स्थान जहाँ रहकर यात्री रात बिताते हैं। मार्ग में टिकने की जगह। २. वह स्थान जहाँ ठहरकर चिड़ियाँ रात बिताती है। मुहावरा—बसेरा लेना=रात बिताने के लिए कहीं टिकना या ठहरना। वि० विश्राम करने के लिए कहीं टिकने या ठहरनेवाला।
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बसेरी  : वि० [हि० बसेरा] १. बसेरा लेनेवाला। २. निवासी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसैधा  : वि०=बसेंधा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसैया  : वि० [हिं० बसना] बसनेवाला। रहनेवाला। वि० [हिं० बसाना] बसानेवाला। बसवैया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बसोबास  : पुं० [सं० वास+आवास] १. निवास। २. निवास स्थान। रहने की जगह।
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बँसोर  : पुं० [हिं० बाँस] बाँस की चटाइयाँ, टोकरियाँ आदि बनानेवाली एक जाति।
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बसौंधी  : स्त्री० [हिं० बास+औँधी] अत्यधिक खौलाये हुए दूध का वह लच्छेदार रूप जिसमें दूध का अंश कम और मलाई का अंश अधिक होता है तथा जिसमें चीनी, मेवा आदि भी मिलाया गया होता है। रबड़ी।
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बस्ट  : पुं० [अ०] चित्र-कला और मूर्ति-कला में वह चित्र या वह मूर्ति, जिसमें किसी व्यक्ति के मुख और छाती के ऊपर के भाग की आकृति बनायी गयी हो।
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बस्त  : पुं० [सं०√वस्त (याचना करना)+घञ्] १. सूर्य। २. बकरा।
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बस्तर  : पुं०=वस्त्र (कपड़ा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बस्ता  : पुं० [फा० बस्तः] १. कपड़े का वह चौकोर टुकड़ा जिसमें कागज के मुट्ठे, बही-खाते और पुस्तक आदि बाँधकर रखते हैं। बेठन। २. इस प्रकार बँधी हुई पुस्तक या कागज पत्र। क्रि० प्र०—बाँधना। ३. थैले या बेठन की तरह का वह उपकरण जिसमें विद्यार्थी अपनी पुस्तकें रखकर विद्यालय ले जाता है। जैसे—सब लड़के अपना-अपना बस्ता खोंले। मुहावरा—बस्ता बाँधना=उठाने या चलने की तैयारी कर पुस्तकें आदि बस्ते में बाँध या रखकर चलने को तैयार होना।
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बस्ताजिन  : पुं० [सं० वस्त-अजिन, ष० त] बकरे की खाल।
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बस्तांबु  : पुं० [सं० वस्तु-अंबु, ष० त] बकरे का मूत्र।
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बस्तार  : पुं० [फा० वस्तः] १. बहुत से मनुष्यों का एक जगह घर बनाकर रहने का भाव। आबादी। निवास। २. वह स्थान जहाँ बहुत से लोग घर बनाकर एक साथ रहते हों। क्रि० प्र०—बसना।—बसाना।
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बस्तु  : स्त्री०=वस्तु।
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बस्त्र  : पुं०=वस्त्र।
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बस्य  : वि०=वश्य।
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बस्साना  : अ० [सं० वास] वास अर्तात् दुर्गंध से युक्त होना।
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बहक  : स्त्री० [हिं० बहकना] १. बहकने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. पथ-भ्रष्ट होने की अवस्था या भाव। ३. बहुत बढ़-बढ़कर और व्यर्थ कही जानेवाली बातें। ४. केवल शब्दों के ध्वनि-सादृश्य के आधार पर बिना समझ-बूझे या अनुमान से कही हुई कोई बहुत बड़ी भ्रमपूर्ण और हास्यास्पद बात। (हाउलर) जैसे—मथुरा नगरी केकेयी की दासी मन्थरा के नाम पर बसी है।
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बहकना  : अ० [?] १. पालतू, पशुओं के संबंध में गुस्से, हठ आदि के कारण सीधा मार्ग छोड़कर मगल मार्ग की ओर प्रवृत्त होना। २. व्यक्तियों के संबंध में, दूसरों के भुलावे में आकर अथवा उनकी देखादेखी पथभ्रष्ट होना। ३. आवेश या मद मं चूर होना। मुहावरा—बहकी-बहकी बातें करना=आवेश में आकर पागलों की सी या बढ़ी-चढ़ी बात करना। ४. ठीक लक्ष्य या स्थान पर जाकर दूसरी ओर या जगह जा पड़ना। चूकना। जैसे—किसी पर वार करते समय लाठी या हाथ बहकना।
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बहकाना  : स० [हिं० बहकना का स०] १. किसी को बहकने में प्रवृत्त करना। २. ऐसा काम करना जिससे कोई बहके, और ठीक रास्ता छोड़कर पथ-भ्रष्ठ हो जाय। चकमा या भुलावा देना। संयो० क्रि०—देना। ३. दे० ‘बहलाना’।
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बहकावट  : स्त्री०=बहकावा।
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बहकावा  : पुं० [हिं० बहकाना] १. बहकाने की क्रिया या भाव। २. ऐसी बात जो किसी को बहकाने के उद्देश्य से कही जाय। भुलावा। क्रि०—प्र०—देना।
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बहँगा  : पुं० [हिं० बहँगी का पुं०] बड़ी बँहगी।
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बँहगी  : स्त्री० [सं० वह] भार ढोने का एक प्रकार का उपकरण जिसमें एक लम्बे बाँस के टुकड़ें के दोनों सिरों पर रस्सियों के बड़े-बड़े छीकें या दौरे लटका दिये जाते हैं और जिनमें बोझ रखा जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।—ढोना।
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बहँगी  : स्त्री० [सं० विहंगिका] तराजू की तरह का एक प्रसिद्ध ढाँचा जिसके दोनों पलड़ों में बोझ रखकर ढोया जाता है।
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बहड़  : पुं० [देश] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २१ मात्राएँ और अन्त में एक जगण होता है।
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बहतोल  : स्त्री० [हिं० बहता+ओल (प्रत्यय)] पानी बहने की नाली।
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बहत्तर  : वि० [सं० द्विसप्तति, प्रा० बहत्तरि] जो क्रम या गिनती के विचार से सत्तर से दो अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है। (७२)।
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बहत्तरवाँ  : वि० [हिं० बहत्तर+वाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बहत्तरवी] जो क्रम या गिनती में इकहत्तर वस्तुओं के पीछे अर्थात् बहत्तर के स्थान पर पड़े।
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बहदबीज  : पुं० [सं० ब० स०] अमड़ा।
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बहदुरा  : पुं० [देश] चने, धान आदि की फसल के पत्तों को काटनेवाला एक प्रकार का कीड़ा।
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बहन  : स्त्री० [सं० भगिनी, प्रा० बहिणी] १. किसी व्यक्ति (या जीव) के संबंध के विचार से वह स्त्री (या मादा जीव) जो उसी के माता-पिता की संतान हो अथवा संतान के तुल्य हो। २. उक्त अथवा उक्त की समवस्यक स्त्री के लिए प्रयुक्त होनेवाला संबोधन। पुं०=वहन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहना  : अ० [सं० बहन] १. द्रव पदार्थ का धारा के रूप में किसी नीचे तल की ओर चलना या बढ़ना। प्रवाहित होना। जैसे—खून बहना, जल बहना। मुहावरा—बहती गंगा में हाथ धोना=किसी ऐसे अवसर या बात से जिससे और लोग भी लाभ उठा रहे हों, अनायास सहज में लाभ उठाना (कहीं-कहीं ऐसे अवसरों पर ‘हाथ धोना’ की जगह ‘पाँव पसारना’ का भी प्रयोग होता है)। २. उक्त प्रकार की धारा में पड़कर उसके साथ आगे चलना या बढ़ना। जैसे—नदी में नाव बहना। संयो० क्रि०—चलना। ३. किसी आधार या पात्र में पूरी तरह से भर जाने पर तरल पदार्थ का इधर-उधर चलना। जैसे—घोर वर्षा के कारण तालाब का बहना। ४. किसी घन पदार्थ का गलकर या अपना आधार छोड़कर द्रव रूप में किसी ओर चलना। जैसे—फोड़ा बहना, मोमबत्ती बहना। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग उस पदार्थ के लिए भी होता है जिसमें से वह निकलता है। जैसे—(क) फोड़ा बहना, और (ख) फोड़े में मवाद बहना। ५. अधिक मात्रा या मान में निरंतर किसी ओर गतिशील होना । जैसे—हवा बहना। ६. नियत या नियमित स्थान से हटकर दूर होना या दूसरे रास्ते पर चलना या जाना। जैसे—(क) पहनी हुई धोती या पाजामा बहना, अर्थात् नीचे खिसकना। (ख) गोल में से कबूतर बहना। (ग) हवा में पतंग बहना। ७. विशेष आवेग के कारण खूब खुलकर किसी ओर प्रवृत्त होना। उदाहरण—अपनौ चाँड़ सारि उन लीन्हौं तू काहे अब वृथा बहै री।—सूर। मुहावरा—बहकर=खूब खुलकर। मनमाने ढंग से या निस्संकोच होकर। उदाहरण—ताही सो रसाल बाल बहि कै बैराई है।—भारतेन्दु। ८. दुर्दशाग्रस्त होकर इधर-उधर घूमना। मारा-मारा फिरना। उदाहरण—कब लगि फिरिहौ दीन बह्रौ।—सूर। मुहावरा—बहा फिरना-किसी वस्तु की इतनी अधिकता होना कि उसका आदर घट जाय या विशेष मूल्य न रह जाय। जैसे—आज-कल बाजारों में अमरूद (या आम) बहे फिरते हैं। ९. व्यक्ति का आचरण-भ्रष्ट या कुमार्गी होना। सन्मार्ग से च्युत होना। जैसे—यह लड़का तो वह चला। १॰. पशुओं का गर्भस्राव होना। अड़ाना जैसे—गाय या भैंस का बहना। ११. पक्षियों का अधिक या प्रायः अंडे देना। जैसे—कबूतरी या मुर्गी का बहना। पद—बहता हुआ जोड़ा-ऐसे नर और मादा पशु-पक्षियों का जोड़ा जिससे साधारण से बहुत अधिक अंडे निकलते हों। १२. धन का व्यर्थ के कामों में या बहुत अधिक व्यय होना। जैसे—साल भर में उनके बीस बजार रूपये बह गये। १३. किसी चीज या बात का नष्ट, पतित या विकृत होना। उदाहरण—(क) सुक सनकादि सकल मन मोहे ध्यानिन ध्यान बह्रौ।—सूर। (ख) निज दिव्य जनपद की कहाँ चिर चेतना वह बह गई।—मैथिलीशरण। १४. आघात या प्रहार के लिए शश्त्र या हाथ का ऊपर उठना। उदाहरण—बहहिं न हाथ दहहि रिसि छाती।—तुलसी। स० १. अपने ऊपर भार ऱकना या लादना। ढोना। उदाहरण—बहि बहि मरहु पचहु निज स्वारथ जम को दंड सह्मो।—कबीर। २. पशुओं का कोई चीज खींचकर ले चलना। उदाहरण—श्वेत तुरंग बहै रथ काँही।—रघुराज। ३. अपने उत्तरदायित्व महत्त्व आदि का ध्यान रखकर किसी बात का निर्वाह या पालन करना। उदाहरण—मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, लाज बिरद की बहौ।—मीराँ। ४. कोई चीज अपने शरीर पर धारण करना। पहनना। जैसे—कवच या कुंडल बहना। स० [सं० वध] वध करना। मार डालना। वधना। स्त्री० [हिं० बहन] बहन का लिए सम्बोधनकारक रूप। जैसे—ना बहना ऐसा मत कहो। स० दे० बाहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहनापा  : पुं० [हिं० बहना+आपा (प्रत्यय)] स्त्रियों का वह पारस्परिक सम्बन्ध जिसमें वे एक-दूसरे की बहन न होने पर ठीक बहनों का सा व्यवहार करती है। स्त्रियों मे बहनों की तरह का होनेवाला पारस्परिक सम्बन्ध। क्रि० प्र०—जोड़ना।—लगाना।
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बहनावा  : पुं०=बहनापा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बहनी  : स्त्री० [हिं० बहना] १. पानी आदि बहने की नाली। २. वह गगरी जिसमें कोल्हू में से रस निकलकर इक्ट्ठा होता है। स्त्री०=बहन। स्त्री०=वह्नि (आग)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहनु  : पुं० [सं० वाहन] सवारी। पुं०=वहन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहनेली  : स्त्री० [हिं० बहन+एली (प्रत्यय)] स्त्री की दृष्टि से वह दूसरी स्त्री जिससे उसका बहनों का-सा संबंध हो। बनायी, मानी हुई या मुँह बोली बहन।
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बहनोई  : पुं० [सं० भहिनीपति] संबंध के विचार से किसी की बहन का पति।
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बहनोली  : स्त्री०=बहनेली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहनौता  : पुं० [हिं० बहन+औता] बहन का लड़का। भांजा। उदाहरण—स्वयं अपने बहनौते की परिचर्या करना चाहती थी।—वृन्दावन लाल वर्मा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहनौरा  : पुं० [हिं० बहन+औरा (प्रत्यय)] १. संबंध के विचार से किसी की बहन का घर। बहन की ससुराल। २. बहनोई अथवा उसके परिवार से होनेवाला सम्बन्ध। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहबहा  : वि० [भाव० बहबही]=बहेतू। (बहने अर्थात् इधर-उधर व्यर्थ घूमनेवाला)।
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बहबही  : स्त्री० [हिं० बहबहा] १. व्यर्थ इधर-उधर घूमते रहने की क्रिया या भाव। २. उपद्रव। ३. नटखटी। ४. शरारत।
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बहम  : अव्य० [फा० बाहम] १. साथ। संग। २. एक दूसरे के साथ या प्रति। परस्पर।
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बहमन  : पुं०=ब्राह्मण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहर  : पुं० [अ० बह्र] १. बहुत बड़ा जलाशय या नदी। २. समुद्र। ३. उर्दू फारसी कविताओं का कोई छन्द। जैसे—इस बहर में मैने एक गजल लिखी है। अव्य० [फा० ब+हर] १. हर एक। प्रत्येक। २. इस प्रकार से। इस तरह से। जैसे—बहर हाल=प्रत्येक दसा में।
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बँहरखा  : पुं० [हिं० बाँह] बाँह पर पहनने का एक गहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहरना  : १.=बहुरना। २.=बहराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहरा  : वि० [सं० बधिर, प्रा० बहिर] [स्त्री० बहरी, भाव० बहरापन] १. जिसे कानों से सुनायी न पड़ता हो। जिसकी श्रवण शक्ति नष्ट हो गयी हो। २. किसी की बात पर ध्यान न देनेवाला। मुहावरा—बहरा बनना=जान-बूझकर किसी की सुनी बात अनसुनी करना।
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बहराना  : पुं० [हिं० बाहर] किसी नगर या बस्ती की सीमा पर अथवा उससे बाहरवाला भाग या मुहल्ला। स० १. बाहर करना या निकालना। २. (नाव आदि) किनारे से दूर और धारा की तरफ ले जाना। अ० १. बाहर होना। निकलना। २. अलग या दूर होना। स० [हिं० भुलाना] १. बहलाना। २. सुनकर भी अनसुनी करना। टाल-मटोल करना। बहलाना। उदाहरण—जबहीं मैं बरजति हरि संगहि तब ही तब बहरायो।—सूर। ३. बहकाना। ४. फुसलाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहरिया  : पुं० [हिं० बाहर+इया (प्रत्य)] बल्लभ सम्प्रदाय के मंदिरों के छोटे कर्मचारी जो प्रायः मंडप के बाहर ही रहते हैं। वि०=बाहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहरियाना  : स० [हिं० बाहर+इयाना (प्रत्य०)] १. बाहर करना या हटाना। २. (नाव आदि) किनारे से दूर करके धारा की ओर ले जाना। ३. अलग या जुदा करना। अ० १. बाहर की ओर होना। २. (नाव का) किनारे से दूर हटना। ३. अलग या जुदा होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहरी  : स्त्री० [अ०] एक प्रकार की शिकारी चिड़िया जिसका रूप रंग और स्वभाव बाज़ का-सा होता है; पर आकार छोटा होता है। वि० [हिं० बाहर+ई (प्रत्य०)] बाहरी। पद—बाहरी अलंग (ओर या तरफ)=नगर के बाहर या बस्ती से कुछ दूरी पर का वह एकांत और रमणीक स्थान जहाँ लोग प्रायः सैर-सपाटे के लिए जाते हैं।
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बहरू  : पुं० [देश०] मध्य प्रदेश, बरार और मदरास में होनेवाला एक प्रकार का मझोला पेड़ जिसकी लकड़ी सुन्दर चमकीली और मजबूत होती है। वि०=बहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहरूप  : पुं० [हिं० बहु+रूप] १. बैलों का व्यवसाय करनेवाला व्यक्ति। २. एक जाति जो बैलों का व्यवसाय करती है।
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बहरूपिया  : पुं०=बहुरूपिया।
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बहल  : स्त्री०=बहली (गाड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहलना  : अ० [हिं० बहलाना का अ०] १. ऊबे, थके, खाली बैठे या दुःखी व्यक्ति अथवा उसके मन का मनोरंजक या रमणीक वस्तुओं से परचना या कुछ समय के लिए प्रसन्न और शांत होना। २. झंझट-बखेड़े, चिंता आदि की बात भूलकर मन का किसी दूसरी ओर लगना; और फलतः कुछ स्वस्थ या हलका अनुभव करना। जैसे—दिन भर काम करने के बाद संध्या को थोड़ा टहल लेने से मन बहल जाता है। संयो० क्रि०—जाना।
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बहलवान  : पुं [हिं० बहल या बहली+वान (प्रत्य०)] बहल या बहली हाँकनेवाला।
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बहलाना  : स० [फा० बहाल=अच्छी या ठीक दशा में] १. कष्ट, रोग, विरक्ति आदि की दशा में दुःखी या चिन्तित को इधर-उधर की बातों में लगाकर प्रसन्न, शांत या सुखी करने का प्रयत्न करना। जैसे—बीमारी के दिनों में पड़ा पड़ा मैं ताश खेलकर मन बहला लेता था। २. झंझट या बखेड़े की बातों से अलग रहकर मन की चिंताएँ दूर करने का प्रयत्नकरना। मनोरंजक कामों, चीजों या बातों से मन पर पड़ा हुआ भार हलका करना। ३. किसी एक काम या बात में लगा हुआ मन इस उद्देश्य से किसी दूसरे काम या बात में लगाना कि शिथिलता दूर हो जाय और प्रफुल्लता आ जाय। जैसे—वह हर एतवार को मन बहलाने के लिए बगीचे चले जाया करते हैं। ४. इधर-उधर की बातें करके किसी को भुलावा देते हुए उसका ध्यान या मन दूसरी ओर लगाना। जैसे—रोते हुए लड़के को बहलाने के लिए उसे खिलौना देना। संयो० क्रि०—देना।
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बहलाव  : पुं० [हिं० बहलना] १. बहलाने की क्रिया या भाव। २. मन-बहलाव। मनोरंजन।
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बहलावा  : पुं० १.=बहलाव। २.=बहकावा।
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बहलिया  : पुं०=बहेलिया। स्त्री०=बहली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहली  : स्त्री० [सं० वाह्याली या वह्याली] बैलों द्वारा खींची जानेवाली एक तरह की पुरानी चाल की सवारी गाड़ी।
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बहल्ला  : वि० [फा० बहाल] आनंदित। खुश। पुं० आनंद। खुशी।
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बहस  : स्त्री० [अ० बहस्] १. ऐसा तर्क-वितर्क या बात-चीत जिसमें दो पक्ष अपना अपना मत ठीक सिद्ध करने का प्रयत्न करते हों। तर्क, युक्ति आदि के द्वारा होनेवाला खंडन-मंडन। पद—बहस-मुबाहसा। २. उक्त के फलस्वरूप होनेवाली होड़। उदा०—मोहिं तुम्हें बाढ़ी बहस को जीतैं जदुराज। अपने-अपने विरद की दुहँ निबाहैं लाज।—बिहारी। ३. न्यायालय में, मुकदमें में गवाहियों, जिरहों आदि के उपरांत वकीलों का होनेवाला तर्क-वितर्क पूर्ण भाषण।
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बहस-तलब  : वि० [अ० बह्स-तलब] जिसमें तर्क-वितर्क या वाद-विवाद की अपेक्षा हो। जिसके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क हो सकता हो या होना आवश्यक तथा उचित हो।
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बहस-मुबाहसा  : पुं० [अ० बह्सोम्बाहसः] तर्क-वितर्क या खण्डन-मंडन के रूप में होनेवाला वाद-विवाद।
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बहसना  : अ० [अ० बहस+ना] १. बहस या विवाद करना। तर्क-वितर्क करना। २. प्रतियोगिता करना। होड़ लगाना।
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बहा  : पुं० [हिं० बहना] छोटी नहर या नाला।
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बहाउ  : पुं०=बहाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहाऊ  : वि० [हिं० बहाना] १. बहानेवाला। २. बहाये जाने के योग्य ३. बुरा। हेय। उदा०—खरी पातरी कान की कौन बहाऊ बानि।—बिहारी।
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बहादर  : वि०=बहादुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहादुर  : वि० [तु०] वीर। शूर। सूरमा।
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बहादुराना  : वि० [फा० बहादुरनः] वीरों का-सा। वीरों जैसा। अव्य० वीरता-पूर्वक।
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बहादुरी  : स्त्री० [तु०] बहादुर होने की अवस्था या भाव। वीरता। शूरता।
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बहादुरी टोड़ी  : स्त्री० [हिं०] संगीत में टोड़ी रागिनी का एक प्रकार या भेद।
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बहाना  : स० [हिं० बहना क्रिया का स०] १. द्रव पदार्थ को धारा के रूप में किसी ओर चलाना या प्रवृत्त करना। जैसे—दूध या पानी बहाना। २. ऐसी क्रिया करना कि कोई चीज उक्त प्रकार की धारा में पड़कर किसी ओर चले या आगे बढ़े। जैसे—पानी गिराकर कूड़ा या गंदगी बहाना। ३. किसी आधार पर या पात्र में का कोई तरल पदार्थ किसी रूप में निकलकर नीचे की ओर ले जाना। जैसे—आँसू बहाना, पसीना बहाना, फोड़े में से मवाद बहाना। ४. वेग-पूर्वक गति में लाकर किसी अनिर्दिष्ट दिशा में ले जाना। जैसे—हवा का बादलों को बहाना। ५. नियत या नियमित स्थान से हटाकर दूर ले जाना। ६. किसी को आचरण-भ्रष्ट करके कुमार्ग में लगाना। ७. बहुत बुरी तरह से नष्ट, पतित या विकृत करना। बहुत ही गया-बीता कर देना। जैसे—(क) इस लड़के की काली करतूतों ने घर बहा डाला है। (ख) उन्होंने अपनी सारी मर्यादा बहा दी। ८. ऐसी क्रिया करना जिससे पशु-पक्षियों का गर्भ-स्राव हो जाय। जैसे—उसने कोई दवा खिलाकर गाभिन भैंस को बहा दिया। ९. व्यर्थ के कामों में या बिना सोचे-समझे बहुत अधिक धन व्यय करना। जैसे—आज-कल कुछ देश अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए पानी की तरह धन बहा रहे हैं। १॰. बहुत ही सस्ता या महत्त्वहीन कर देना। जैसे—कुछ लोगों ने पुस्तक प्रकाशन का काम बिलकुल बहा दिया है। पुं० [फा० बहानः=कारण, सबब] १. चालाकी या धूर्तता की ऐसी बात जो दूसरों को ऐसे तथ्य की प्रतीति कराने के लिए कही जाती है जो वस्तुतः अ-वास्तविकत या मिथ्या होता है। जैसे—पेट में दर्द होने का बहाना करके वह चला गया। विशेष—इसका मुख्य उद्देश्य अपने आपको अभियोग, आक्षेप, कर्तव्यपालन आदि से बचाते हुए अपने आपको दोष-रहित सिद्ध करना होता है। क्रि० प्र०—करना।—बताना।—बनाना। २. उक्त अवस्था और रूप में उपस्थित किया जानेवाला तथ्य। जैसे—असल में तो उन्हें छुट्टी चाहिए; बीमारी तो सिर्फ बहाना है। ३. दे० ‘मिस’ और ‘हीला’।
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बहानेबाज  : वि० [फा० बहानःबाज़] बहाने बनानेवाला।
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बहानेबाजी  : स्त्री० [फा० बहानःबाज़ी] बहाने बनाने का काम।
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बहार  : स्त्री० [फा०] १. फूलों के खिलने का मौसीम। वसंतऋतु। २. मन का आनन्द और प्रफुल्लता। मजा। मौज।—किसी जगह (या किसी की बातें) की बहार लेना। क्रि० प्र०—उड़ाना।—लूटना।—लेना। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति या यौवन-काल जिसमें जिसे देखकर मन प्रसन्न होता है। ४. सौंदर्य आदि के फल-स्वरूप होनेवाली रमणीयता या शोभा। जैसे—पगड़ी पर कलगी खूब बहार देती है। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—(किसी चीज का) बहार पर आना=ऐसी अवस्था में आना या होना कि उसकी शोभा या श्री देखकर मन प्रसन्न हो जाय। बहार बजना=आनंद उमड़ना। खुशी छाना। उदा०—मिले तार उनके औरों से नहीं, नहीं बजती बहार।—निराला। ५. संगीत में, वसंत रात से मिलती-जुलती एक प्रकार की रागिनी।
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बहार-गुर्जरी  : स्त्री० [फा० बहार+सं० गुर्जरी] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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बहारना  : स०=बुहारना।
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बहारबुर्ज  : पुं० [फा०+अ०] किले, महल, आदि का सबसे ऊँचा वह कमरा जो चारों ओर से खुला होता है और जिसमें बैठकर लोग चारों ओर की शोभा और सौन्दर्य देखते हैं। हवा-महल।
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बहारी  : स्त्री०=बुहारी।
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बहाल  : वि० [फा०] १. जो फिर उसी हाल (दशा या हालत) में आया हो जिसमें वह पहले थे। फिर से अपनी पूर्व दशा या स्थिति में आया हुआ। जैसे—(क) जो कर्मचारी हड़ताल करने के लिए मुअत्तल हुए थे, वे फिर बहाल कर दिये गये, अर्थात् अपने पूर्व पद पर ले लिये गये। (ख) उच्च न्यायालय ने अपील खारिज करके, छोटी अदालत में फैसला बहाल रखा; अर्थात् उसे ज्यों का त्यों उसी रूप में रहने दिया। ७. (व्यक्ति) शारीरिक दृष्टि से भला-चंगा। स्वस्थ। ३. (मन) प्रफुल्लित और प्रसन्न। जैसे—ताजी हवा में रहने से तबीयत बहाल रहती है।
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बहाली  : स्त्री० [फा०] १. बहाल करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. किसी को फिर से उसी हाल (दशा या हालत) में लाना जिसमें वह पहले रहा हो। ३. अपने पद से अस्थायी रूप से हटाये हुए व्यक्ति को फिर से उस पद पर नियुक्त करने की क्रिया या भाव। ४. आरोग्य। तंदुरस्ती। ५. प्रसन्नता। स्त्री० [हिं० बहलाना] १. किसी को बहलाने अर्थात् धोखे में रखने की क्रिया या भाव। २. धोखा देनेवाली बात। झाँसा-पट्टी। दम-बुत्ता। ३. बहाना। क्रि० प्र०—देना।—बताना।
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बहाव  : पुं० [हिं० बहना] १. बहने की क्रिया या भाव। प्रवाह। २. नदियों आदि के जल की वह गति जो उसके निम्न तल की ओर जाने या बहने से होती है। ३. समुद्र के जल की वह स्थिति जिसमें उसके तल पर किसी दिशा में बहती हुई हवा लगने से गति उत्पन्न होती है। (ड्रिफ्ट) ४. पानी की बहती हुई धारा। जैसे—नाव का बहाव में पड़ना। ५. लाक्षणिक रूप में, किसी विशिष्ट दिशा में होनेवाली ऐसी वेगपूर्ण गति जिसे रोकना या जिसका विरोध करना सहज न हो। जैसे—आज-कल जिसे देखो वही अनाचार (या भ्रष्टाचार) के बहाव में बहता चला जा रहा है।
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बहिः (हिस्)  : अव्य [सं०√वह्+इसुन्] बाहर। ‘अन्तः’ (अन्दर) का विपर्याय।
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बहिअर  : स्त्री० [सं० वधूवर=हिं० बहुवर] स्त्री। औरत।
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बहिकिरनी  : स्त्री० [सं० वहिः+कृ] बाहर के काम करनेवाली मजदूरनी। गृहदासी।
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बहिक्रम  : पुं० [सं० वयःक्रम] अवस्था। उम्र।
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बहित्र  : पुं० [सं० वहित्र] जल-यान, नाव, जहाज आदि।
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बहिन  : स्त्री०=बहन(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहिनापना  : पुं०=बहनापा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहिनापा  : पुं०=बहनापा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहिनोता  : पुं०=बहनौता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँहिया  : स्त्री० १.=बाँह। २.=बहँगी।
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बहियाँ  : स्त्री०=बाँह (भुजा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहिया  : स्त्री० [हिं० बहना] नदियों आदि में आनेवाली पानी की बाढ़। पुं० [सं० बाही=बहन करनेवाला] १. मजदूर। २. नौकर। सेवक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहिर  : वि०=बहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहिरंग  : वि० [सं० बहिस्-अंग, ब० स०] १. बाहर का। बाहरी। ‘अंतरंग’ का विपर्याय। २. जो किसी क्षेत्र, दल, वर्ग आदि से अलग, बाहर या भिन्न हो। ३. अनावश्यक। फालतू। (क्व०) पुं० १. किसी प्रकार की रचना का बाहरी अंग जो ऊपर से दिखाई देता है। जैसे—इस पुस्तक का अन्तरंग और बहिरंग दोनों बहुत ही सुन्दर है। २. ऐसा व्यक्ति जो यों ही कहीं से आ गया या आ पहुँचा हो। ३. पूजन आदि के आरंभ में किये जानेवाले औपचारिक कृत्य।
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बहिरत  : अव्य० [सं० बहिः] बाहर।
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बहिरति  : स्त्री०=बहिरति।
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बहिरर्थ  : पुं० [सं० कर्म० स०] बाहर या ऊपर से दिखाई देनावाला उद्देश्य।
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बहिराना  : स०=बहराना (बाहर करना)। पुं०=बहराना।
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बहिरिंद्रिय  : स्त्री० [सं० बहिस्-इंद्रिय, मध्य० स०] बाह्य विषयों को ग्रहण करनेवाली इंद्रिय। कर्मेन्द्रिय। जैसे—आँख, नाक, कान, आदि।
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बहिर्गत  : भू० कृ० [सं० बहिस्-गत, द्वि० त०] १. बाहर आया या निकला हुआ। २. बाहरवाला। बाहर का। ३. अलग, जुदा, पृथक्।
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बहिर्गमन  : पुं० [सं० बहिस्-गमन, सुप्सुपा स०] बाहर जाना। बाहर निकलना।
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बहिर्गामी (मिन्)  : वि० [सं० बहिस्√गम् (जाना)+णिनि] बाहर या बाहर की ओर जानेवाला।
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बहिर्गिरि  : पुं० [सं० बहिस्-गिरि, मध्य० स०] १. पर्वत-माला की बाहरी या सिरे पर की पहाड़ी या पहाड़। २. हिमालय की वह बाहरी श्रृंखला जिसमें ६ हजार फुट तक की ऊँचाई के पर्वत हैं। जैसे—नैनीताल, मसूरी, शिमला आदि।
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बहिर्जगत्  : पुं० [सं० बहिस्-जगत्, मध्य० स०] बाह्य अर्थात् दृश्य जगत्।
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बहिर्जानु  : अव्य० [सं० बहिस्-जानु, अव्य० स०] हाथों को दोनों घुटनों के बाहर किये हुए या निकाले हुए।
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बहिर्जीवन  : पुं० [सं० बहिस्-जीवन, मध्य० स०] १. बाहरी अर्थात् दृश्य और लौकिक जीवन। ‘आध्यात्मिक जीवन’ से भिन्न। २. इस जीवन के आचरण, व्यवहार आदि।
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बहिर्देश  : पुं० [सं० बहिस्-देश, मध्य० स०] १. गाँव या नगर के बाहर का स्थान। परदेश। विदेश। ३. अनजानी या नई जगह।
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बहिर्द्वार  : पुं० [सं० बहिस्-द्वार, मध्य० स०] घर का बाहरी दरवाजा।
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बहिर्द्वारी (रिन्)  : वि० [सं० बरिर्द्वार+इनि] जो घर के बाहर हो या होता हो। पुं० फुटबाल, हाकी आदि का खेल जो खुले मैदानों में खेला जाता हो। (आउटडोर)
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बहिर्ध्वजा  : स्त्री० [सं० बहिस्-ध्वजा, ब० स०] दुर्गा।
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बहिर्भूत  : वि० [सं० बहिस्-भूत, सुप्सुपा स०] १. जो बाहर हुआ हो। २. बाहर का। बाहरी। ३. अलग। जुदा। पृथक्।
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बहिर्भूमि  : स्त्री० [सं० बहिस्-भूमि, मध्य० स०] बस्ती से बाहर की भूमि, जहाँ लोग प्रायः शौच के लिये जाते हैं।
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बहिर्मनस्क  : वि० [सं० बहिस्-मनस्, ब० स०+कप] जिसका मन किसी दूसरी तरफ लगा हो।
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बहिर्मुख  : वि० [सं० बहिस्-मुख, ब० स०] १. जिसका मुँह बाहर की ओर हो। २. जो प्रवृत्त या दत्तचित्त न हो। पराङ्मुख। विमुख। ३. विपरीत। पुं०=देवता।
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बहिर्मुखी (खिन्)  : वि० [सं०] १. जिसका मुँह या अगला भाग बाहर की ओर हो। २. जो बाहर की ओर उन्मुख या प्रवृत्त हो।
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बहिर्योग  : पुं० [सं० बहिस्-योग, स० त०] १. बाह्य विषयों पर ध्यान जमाना। २. हठ-योग।
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बहिर्रति  : स्त्री० [सं० बहिस्-रति, मध्य० स०] रति के दो भेदों में से एक। ऐसी रति या समागम जिसके अन्तर्गत, आलिंगन, चुंबन, स्पर्श, मर्दन, नखदान, रददान और अधर पान हैं। (लैंगिक’ रति से भिन्न)
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बहिर्लब  : पुं० [सं० बहिस्-लंब, मध्य० स०] रेखा गणित में वह लंब जो किसी क्षेत्र के बाहर आये हुए आधार पर आकर गिरता और अधिक कोण बनाता है।
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बहिर्लापिका  : स्त्री० [सं० बहिस्-लापिका, ष० त०] एक प्रकार की पहेली जिसमें उसके उत्तर का शब्द उस पहेली के शब्दों में नहीं रहता है। ‘अन्तर्लापिका’ का विपर्याय।
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बहिर्लोम, बहिर्लोमा (मन्)  : वि० [सं० बहिस्-लोमन्, ब० स०] जिसके बाल बाहर की ओर निकले हों।
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बहिर्वाणिज्य  : पुं० [सं० बहिस्-वाणिज्य, मध्य० स०] किसी देश का दूसरे या बाहरी देशों के साथ होनेवाला वाणिज्य या व्यापार। (एक्स्टर्नल ट्रे़ड)
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बहिर्वासा (सस्)  : पुं० [सं० बहिस्-वायस्, मध्य० स०] कोपीन के ऊपर पहनने का कपड़ा।
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बहिर्विकार  : पुं० [सं० बहिस्-विकार, मध्य० स०] गरमी नाम की बीमारी। आतशक।
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बहिर्व्यसन  : पुं० [सं० बहिस्-व्यसन्, मध्य० स०] [वि० बहिर्व्यसनी] लंपटता।
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बहिला  : वि० [सं० बेहत् या हिं० बाँ ?] ऐसी गाय या भैंस जो बच्चा न देती हो। बाँझ। ठांठ।
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बहिश्चर  : वि० [सं० बहिस्√चर् (चलना)+ट] १. बाहर जानेवाला। २. बाहरी। पुं० १. बाहरी या दूसरे देश का भेदिया। २. केकड़ा।
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बहिश्त  : पुं० [सं० वशिष्ट (प्रकाशमान) से फा० बिहिश्त] स्वर्ग।
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बहिश्ती  : वि० [हिं० बहिश्त] बहिश्त-संबंधी। पुं० स्वर्ग का निवासी।
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बहिष्क  : वि० [सं०] बाहर का।
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बहिष्करण  : पुं० [सं० बहिस्-करण, सुप्सुपा स०] १. बाहर करना या निकालना। २. किसी क्षेत्र से अलग या दूर करना। दे० ‘बहिष्कार’। ३. शरीर की बाहरी इन्द्रिय। ‘अन्तःकरण’ का विपर्याय।
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बहिष्कार  : पुं० [सं० बहिस्-कार, सुप्सुपा स०] [वि० बहिष्कृत] १. बाहर करना। निकालना। २. अलग या दूर करना। हटाना। ३. एक प्रकार का आधुनिक आन्दोलन जिसमें किसी व्यक्ति से या किसी के काम या बात से असन्तुष्ट और रुष्ट होकर उसके साथ सब प्रकार का व्यवहार या सम्बन्ध छोड़ दिया जाता है। ४. देश-विदेश के माल का सामूहिक व्यवहार-त्याग। (बॉयकाट; उक्त दोनों अर्थों में)
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बहिष्कृत  : भू० कृ० [सं० बहिस्-कृत्, सुप्सुपा स०, स—ष्] १. जिसका बहिष्कार हुआ हो या किया गया हो। २. बाहर किया हुआ। निकाला हुआ। ३. अलग या दूर किया हुआ। हटाया हुआ। ४. जिसके साथ सम्बन्ध रखना छोड़ दिया गया हो। त्यक्त।
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बहिष्क्रिया  : स्त्री० [सं० बहिस्क्रिया, सुप्सुपा स०] १. किसी चीज पर या उसके सम्बन्ध में बाहर की ओर से की जानेवाली क्रिया। २. बहिष्करण।
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बहिष्प्रज्ञ  : वि० [सं० बहिस्-प्रज्ञ, ब० स०] जिसे बाह्य विषयों का अच्छा ज्ञान हो।
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बही  : स्त्री० [सं० बछ; हिं० बँधी ?] लंबी पुस्तिका के रूप में बनाई हुई कागजों की वह गड्डी जिस पर क्रम से नित्य प्रति का लेखा या हिसाब लिखा जाता हो। मुहा०—बही पर चढ़ाना या टाँकना=बही पर लिखना। दर्ज करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [सं० बहिः] घर से दूर का स्थान। (क्व०) स्त्री० [हिं० ‘बहा’ का स्त्री० अल्पा०] १. खेत सींचने के लिए बनाई हुई पानी की नानी। २. कुएँ से पानी खींचने की रस्सी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बही-खाता  : पुं० [हिं०] हिसाब-किताब की पुस्तकें, बहियाँ, खाते आदि।
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बहीर  : स्त्री० [?] १. सेना के साथ साथ चलनेवाली भीड़ जिसमें साईस, सेवक, दुकानदार आदि रहते हैं। २. सैनिक सामग्री। स्त्री०=भीड़। अव्य०=बाहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहीरा  : पुं०=बहेड़ा।
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बहु  : वि० [सं०√बह् (बढ़ना)+क, न-लोप] १. संख्या में एक से अधिक। अनेक। जैसे—बहुमुखी, बहुरंगा आदि। २. मान, मात्रा आदि में बहुत अधिक। ज्यादा। जैसे—बहुमत, बहुमूत्र, बहुमूल्य। स्त्री०=बहू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहु-कंटक  : पुं० [सं० ब० स०] १. जवासा। २. हिंताल वृक्ष।
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बहु-कंटा  : स्त्री० [सं० ब० स०] कंटकारी।
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बहु-कंद  : पुं० [ब० स०] सूरन।
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बहु-पुत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. पाँचवें प्रजापति का नाम। २. सप्तपर्ण। वि० जिसके बुहत से पुत्र हों।
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बहु-पुत्रिका  : स्त्री० [सं० बहुपुत्रा+कन्+टाप्, इत्व] स्कन्द की अनुचरी एक मातृका।
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बहु-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. परिभद्र वृक्ष। फरहद का पेड़। २. नीम का पेड़।
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बहु-प्रकार  : वि० [सं० ब० स०] बहुविधि। अव्य० बहुत प्रकार से।
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बहु-प्रज  : वि० [सं० ब० स०] जिसके बहुत से बच्चे हों। पुं० १. सूअर। २. मूँज का पौधा।
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बहु-प्रद  : वि० [सं० ] १. बहुत देनेवाला। २. दानवीर।
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बहु-फल  : पुं० [सं० ब० स०] १. कदम्ब। २. बन-भंटा। कटाई। विकंकत। वि० जिसमें बहुत अधिक फल लगते हों।
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बहु-फली  : स्त्री० [सं० बहुफल+ङीष्] एक प्रकार का जंगली गाजर जिसका पौधा अजवाइन का सा पर उससे छोटा होता है।
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बहु-बल  : पुं० [सं० ब० स०] सिंह। वि० बहुत अधिक बलवाला।
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बहु-बीज  : पुं० [सं० ब० स०] १. बिजौरा नीबू। २. शरीफा। ३. बीजदार केला। वि० जिसमें बहुत से बींज हों।
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बहु-भाग्य  : वि० [सं० ब० स०] बड़भागी।
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बहु-भाषी (षिन्)  : पुं० [सं० बहु√भाष् (बोलना)+णिनि] १. बहुत बोलनेवाला। २. बकवादी।
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बहु-भुजा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] दुर्गा।
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बहु-भूमिक  : वि० [सं० ब० स०+कप्] कई मंजिलोंवाला।
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बहु-भोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० ष० त०] १. बहुत तरह की चीजों का या बहुत अधिक भोग करनेवाला। २. बहुत खानेवाला। पेटू। ३. भुख्खड़।
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बहु-भोग्या  : स्त्री० [सं० तृ० त० या ष० त०] वेश्या।
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बहु-मंजरी  : स्त्री० [सं० ब० स०] तुलसी।
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बहु-मत  : पुं० [सं० ष० त०] १. बहुत से लोगों का अलग-अलग मत। २. किसी संस्था, समिति आदि के आधे से अधिक सदस्यों का मत। ३. किसी संस्था के दल आदि की ऐसी स्थिति जिसमें समर्थक या अनुयायी कुल सदस्यों में से आधे से अधिक हों। ४. आदे से अधिक मतदाताओं का समाहार। जैसे—इस बँटवारे में हमारा बहुमत होगा।
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बहु-मार्ग  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें या जिसके अनेक मार्ग हों। पुं० चौराहा।
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बहु-मूत्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमे रोगी को मूत्र बहुत अधिक और बार-बार आता है। पेशाब अधिक आने का रोग।
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बहु-वचन  : पुं० [सं० ष० त०] व्यकरण में संज्ञा आदि का वह रूप जिससे एक से अधिक वस्तुओं का बोध होता है।
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बहु-हेतुक  : वि० [सं० ब० स०+कप्] जिसमें कई या बहुत हेतु हों। (मल्टी पर्पज)
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बहुअर  : स्त्री० [सं० वधूवर] नई ब्याही हुई स्त्री। बहू।
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बहुक  : पुं० [सं० बहु+कन्] १. केकड़ा। २. आक। मदार। ३. चातक। पपीहा। ४. सूर्य। ५. तालाब। वि० १. ‘बहु’ संबंधी। २. बहुत। ३. अधिक दाम का। मँहगा।
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बहुक-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० बहुकवादी] दर्शन में, वह विचार-प्रणाली जिसमें किसी बात या वस्तु के एक की जगह अनेक या बहुत से मूल कारण या सिद्धान्त माने जाते हैं। ‘अद्वैतवाद’ का विपर्याय। बहुत्ववाद (प्लूरलिज़्म)
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बहुकर  : पुं० [सं० बहु√कृ (करना)+ट] १. झाड़ू देनेवाला। २. ऊँट। स्त्री० [सं० बहुकरी] झाडू। (पश्चिम)
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बहुकरी  : स्त्री० [सं० बहुकर+ङीष्] झाड़ू। बुहारी।
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बहुकर्णिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+कप्,+टाप्, इत्व] मूसाकानी।
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बहुकवादी (दिन्)  : वि० [सं० बहुकवादी+इनि] १. बहुकवाद-संबंधी। २. बहुकवाद के सिद्धान्तों के अनुकूल। पुं० बहुकवाद या अनुयायी।
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बहुगंध  : पुं० [सं० ब० स०] १. दारचीनी। २. कुंदरू। ३. पीत चन्दन।
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बहुगंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. जूही। २. काला जीरा।
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बहुगव  : पुं० [सं० ब० स०,+टच्] एक पुरुवंशीय राजा। (भागवत)
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बहुगुण  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें बहुत से गुण हों। २. जो मान या संख्याओं में अनेक गुना अधिक हो। (मल्टीपुल) ३. जो कई अंगों, तत्त्वों आदि से युक्त हो।
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बहुगुना  : पुं० [हिं० बहु+गुण] चौड़े मुँह का एक गहरा बरतन जिसके पेंदे और मुँह का घेरा बराबर होता है।
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बहुग्रंथि  : पुं० [सं० ब० स०] झाऊ का पौधा।
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बहुज्ञ  : वि० [सं० बहु√ज्ञा+क] [भाव० बहुज्ञता] १. बहुत-सी बातें जाननेवाला। २. अनेक विषयों का ज्ञाता।
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बहुटनी  : स्त्री० [हिं० बहूँटा] बाँह पर पहनने का एक गहना। छोटा बहूँटा।
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बहुत  : वि० [सं० प्रभूत; प्रा० पहुत्त] १. जो गिनती में दो-चार से अधिक हो। ज्यादा। ‘थोड़ा’ का विपर्याय। जैसे—आज बहुत दिनों पर आप से भेंट हुई है। २. परिणाम, मात्रा आदि में आवश्यक या उचित से अधिक। जैसे—बहुत बोलना अच्छा नहीं होता। पद—बहुत अच्छा=(क) स्वीकृति सूचक वाक्य। एवमस्तु। ऐसा ही होगा। (ख) डराने-धमकाने के लिए कहा जानेवाला शब्द। जैसे—बहुत अच्छा ! तुमसे भी किसी दिन समझ लूँगा। बहुत करके=(क) अधिकतर अवसरों पर या अधिकतर अवस्थाओं में। प्रायः। बहुधा। (ख) बहुत संभव है कि। संभवतः। जैसे—बहुत करके तो वह कल चला ही जाएगा।। बहुत कुछ=विशेष, अधिक या यथेष्ट न होने पर भी, आवश्यक अथवा उचित मात्रा या मान में अथवा उससे कुछ ही कम। जैसे—इस झगड़े में उन्हें सब तो नहीं, फिर भी बहुत-कुछ मिल गया। बहुत हो लिये=तुम जितना कर सकते थे बहुत कर चुके, अब रहने दो, क्योंकि तुमसे यह काम नहीं होगा। ३. जितना होना चाहिए, उतना या उससे कुछ अधिक। यथेष्ट। जैसे—मेरे लिए तो आध सेर दूध भी बहुत होगा। पद—बहुत खूब=(क) वाह ! क्या कहना है। (किसी अनोखी बात पर) (ख) दे० ऊपर ‘बहुत अच्छा’। क्रि० वि० अधिक परिमाण या मात्रा में। ज्यादा। जैसे—बहुत बिगड़ा और उठकर चला गया।
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बहुतक  : वि० [हिं० बहुत+एक अथवा क] बहुत से। बहुतेरे।
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बहुताँ  : वि०=बहुत।
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बहुता  : स्त्री० बहु (बहुत) होने की अवस्था या भाव। बहुत्व। वि०=बहुत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहुताइत  : स्त्री०=बहुतायत।
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बहुताई  : स्त्री० [हिं० बहुत+आई (प्रत्यय)] बहुत होने की अवस्था या भाव। बहुतायत। अधिकता। ज्यादती।
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बहुतात  : स्त्री०=बहुतायत।
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बहुतायत  : स्त्री० [हिं० बहुत+आयत (प्रत्यय)] बहुत होने की अवस्था या भाव। अधिकता। ज्यादती।
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बहुतिक्ता  : स्त्री० [सं० ब० स०] काकमाची। मकोय।
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बहुतेरा  : वि० [हिं० बहुत+ऐरा (प्रत्यय)] [स्त्री० बहुतेरी] १. मान या मात्रा में बहुत अधिक। २. प्रचुर। यथेष्ठ। क्रि० वि० बहुत तरह से। अनेक प्रकार से।
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बहुतेरे  : वि० [हिं० बहुतेरे] संख्या में अधिक। बहुत से। अनेक।
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बहुत्व  : पुं० [सं० बहु+त्व] बहुत होने की अवस्था या भाव। आधिक्य। अधिकता।
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बहुत्वक् (च्)  : पुं० [सं० ब० स०] भोजपत्र।
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बहुत्ववाद  : पुं० [सं० ] [वि० बहुत्ववादी]=बहुकवाद।
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बहुदर्शिता  : स्त्री० [सं० बहुदर्शित+तल्+टाप्] बहुदर्शी होने की अवस्था० या भाव।
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बहुदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० बहु√दृश्+णिनि] [भाव० बहुदर्शिता] जिसने संसार में बहुत कुछ देखा-भाला हो। विशेषतः जिसने अच्छी तरह से दुनिया देखी हो।
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बहुदल  : पुं० [सं० ब० स०] चेना नाम का अन्न।
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बहुदला  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] चेंच नाम का साग। चंचु।
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बहुदुग्ध  : पुं० [सं० ब० स०] गेहूँ।
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बहुदुग्धा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] दुधार गाय।
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बहुदुग्धिका  : स्त्री० [सं० ब० स०+कप्] थूहड़।
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बहुदेव-वाद  : पुं० [सं० बहु-देव, कर्म० स० बहुदेव-वाद, ष० त०] यह मत या सिद्धान्त कि धर्म में बहुत से छोटे बड़े देवता और देवियाँ होती है और समाज में लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उनमें से किसी न किसी के उपासक होते हैं। (पॉलीथीज्म) विशेष—यह एकेश्वरवाद से भिन्न और प्रायः उसका विरोधी है।
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बहुदेववादी(दिन्)  : पुं० [सं० बहुदेववाद+इनि] वह जो बहुदेववाद का अनुयायी या समर्थक हो।
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बहुधन  : वि० [सं० ब० स०] जिसके पास बहुत धन हो।
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बहुधर  : पुं० [सं० ष० त०] शिव। महादेव।
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बहुधा  : अव्य० [सं० बहु+धाच्] १. अनेक प्रकार से। बहुत तरह से। २. अधिकतर अवसरों पर। अक्सर। प्रायः।
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बहुधान्य  : पुं० [सं० ष० स०] साठ संवत्सरों में से बारहवाँ संवत्सर।
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बहुधार  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का हीरा। वजहीरक।
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बहुनाद  : पुं० [सं० ब० स०] शंख।
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बहुनामा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसके बहुत से नाम हो।
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बहुपतित्व  : पुं० [सं० बहु-पति, ब० स०+त्व] वह सामाजिक प्रथा जिसमे एक स्त्री एक ही समय या एक साथ कई पुरुषों के विवाह करके उनके साथ दाम्पत्य जीवन बिताती है। (पालियैण्ड्री)
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बहुपत्नीक  : वि० [सं० ब० स०+कप्] जिसकी बहुत सी पत्नियाँ हो।
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बहुपत्नीत्व  : पुं० [सं० ब० स०+त्व] वह सामाजिक प्रथा जिसमे एक पुरुष एक ही समय में या एक साथ कई स्त्रियों से विवाह करके साथ दाम्पत्य जीवन बिताता है। (पालिजिनी)
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बहुपत्र  : वि० [सं० ब० स०] बहुत से पत्तोवाला। पुं० १. अभ्रक। अबरक। २. प्याज। ३. वंशपत्र। ४. मुचकुंद। वृक्ष। ठाक। पलाश।
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बहुपत्रा  : स्त्री० [सं० बहुपत्र+टाप्] १. तरुणी पुष्प वृक्ष। २. बहुलिगीं लता। ३. दूधिया घास। ४. भूआँवला। ५. धीकमार। ६. वृहती। ७. जंतुका लता।
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बहुपत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०+कप्,+टाप्+इत्व] १. भूम्यामलकी। २. महाशतावरी। ३. मेथी। ४. बच। बचा।
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बहुपत्री  : स्त्री० [सं० बहुपत्री+ङीष्] १. भूम्यामलकी। २. शिवलिंगनी लता। ३. तुलसी। ४. जातुका। ५. बृहती। ६. दूधिया घास।
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बहुपद (द)  : वि० पुं०=बहुपाद।
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बहुपाद  : वि० [सं० ब० स०] बहुत से पैरोंवाला। पुं० बरगद का पेड़। वट वृक्ष।
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बहुपुष्पिका  : स्त्री० [सं० बहुपुष्प+कन्+टाप्, इत्व] धातकी वृक्ष। घाय का पेड़।
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बहुफला  : स्त्री० [सं० बहुफला+टाप्] १. भूम्यामलकी। २. खीरा। ३. एक प्रकार का बन-भंटा जिसे क्षविका कहते हैं। ४. काकमाची। ५. छोटा या जंगली करेला। करेली।
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बहुःफेना  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. पीले दूधवाला थूहर। सातला। २. शंखाहुली।
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बहुब्रीहि  : पुं० [सं० ब० स०] व्याकरण में समास का वह प्रकार जिसमें समस्त पदों के योगार्थ से भिन्न कोई अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है। जैसे—बहुबाहू (रावण) चन्द्रमौलि (शिव)।
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बहुमल  : पुं० [सं० ब० स०] सीसा नाम की धातु। वि० बहुत मैला।
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बहुमात्र  : वि० [सं० ब० स०] जो मात्रा में बहुत अधिक हो। बहुत अधिक मानवाला। ढेरसा। (मास) जैसे—बहु-मात्र उत्पादन।
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बहुमात्रा-उत्पादन  : पुं० [सं० कर्म० स०] आधुनिक उद्योग-धन्धों मे कोई चीज एक साथ बहुत अधिक मात्रा या मान में तैयार करना या बनाना। (मास प्रोड्क्शन)
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बहुमान  : पुं० [सं० कर्म० स०] अधिक आदर। अधिक मान।
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बहुमानी (निन्)  : वि० [सं० कर्म० स०] बहुत आदरणीय।
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बहुमूर्ति  : पुं० [सं० ब० स०] १. बहुरूपिया। २. विष्णु। ३. बनकपास।
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बहुमूल  : पुं० [सं० ब० स०] १. रामशर। सरकंडा। २. नरसल। नरकट। ३. शोभांजन। सहिंजन।
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बहुमूलक  : पुं० [सं० बहुमूल+कन्] खस। उशीर।
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बहुमूला  : स्त्री० [सं० बहुमूल+टाप्] शतावरी।
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बहुमूल्य  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका मूल्य बहुत अधिक हो। २. जो आदर, गुण महत्त्व आदि की दृष्टि से अति प्रशंसनीय या उपयोगी हो। जैसे—बहुमूल्य उपदेश।
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बहुरंगा  : वि० पुं०=बहुरंगी।
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बहुरंगी  : वि० [हिं० बहु+रंग] १. जिसमें बहुत से रंग हो। अनेक रंगोंवला। २. जिसके मन मे अनेक प्रकार के भाव या विचार आते-जाते रहते हों। ३. मन-मौजी। अनेक प्रकार या भाँति का। पुं० बहुरूपिया।
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बहुरंगी-पतंग  : पुं० दे० ‘झाँगा’।
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बहुरना  : अ० [स० प्रघूर्णन, प्रा० पहोलन] १. वापस आना। लौटाना। २. कोई चीज फिर से मिलना या हाथ में आना। फिर से प्राप्त होना।
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बहुरि  : अव्य० [हिं० बहुरना] १. पुनः। फिर। २. अनन्तर। उपरान्त। पीछे।
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बहुरिया  : स्त्री० [सं० बधूटी, बधूटिका, प्रा० बहुरिया] नयी बहू।
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बहुरी  : स्त्री० [सं० वाटुक या हिं० भौरना=भूनना] भूना हुआ खड़ा अन्न। चर्वण। चबेना।
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बहुरूप  : वि० [सं० ब० स०] अनेक रूप धारण करनेवाला। क्रि० प्र०—भरना। पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव। ३. ब्रह्य। ४. कामदेव। ५. एक बुद्ध का नाम। ६. पुराणानुसार के वर्ष या भूमि-खंड का नाम। ७. ऐसा तांडव नृत्य जिसमें अनेक रूप धारण किये जाते हों। ८. गिरगिट। सरट।
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बहुरूपक  : पुं० [सं० बहुरूप+कन्] एक प्रकार का जंतु।
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बहुरूपा  : स्त्री० [सं० बहुरूप+टाप्] १. दुर्गा। २. अग्नि की सात जिह्वाओं मे से एक।
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बहुरूपिया  : वि० [हिं० बहु+रूप] १. अनेक प्रकार के रूपोंवाला। २. अनेक प्रकार से रूप धारण करनेवाला। पुं० वह जो जीविका-निर्वाह के लिए अनेक प्रकार के वेष धारण करके या स्वाँग बनाकर लोगों के सामने उनका मनोरंजन करता और उनसे पुरस्कार लेता हो।
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बहुरूपी  : वि० [सं० बहुरूप] अनेक रूप धारण करनेवाला। पुं० बहुरूपिया।
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बहुरेता (तस्)  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्य। वि० जिसमें बहुत वीर्य हो।
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बहुरोमा (मम्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. मेष। मेढ़ा। २. लोमड़ी। ३. बन्दर। वि० बहुत अधिक बालोंवाला। जिसका शरीर बालों से भरा हो।
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बहुरौ  : अव्य० दे० ‘बहुरि’।
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बहुल  : वि० [सं० बंहि (वृद्धि)+कुलच्] [भाव० बहुलता] अधिक। बहुत। पुं० १. शिव। २. अग्नि। ३. आकाश। ४. काला रंग। ५. चांद्र मास का कृष्ण पक्ष। ६. सफेद गोल मिर्च।
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बहुलच्छद  : पुं० [सं० ब० स०] लाल सहिंजन।
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बहुलता  : स्त्री० [सं० बहुल+तल्+टाप्] बहुल होने की अवस्था या भाव। अधिकता।
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बहुला  : स्त्री० [सं० बहुल+टाप्] १. गाय। गौ। २. एक विशिष्ट गौ जो पुराणानुसार बहुत ही सत्यनिष्ठ थी और जिसके नाम पर लोग भादों बदी चौथ और माघ बदी चौथ को व्रत रखते हैं। ३. एक देवी का नाम। ४. पुराणानुसार एक नदी। ५. कृत्तिका नक्षत्र। ६. इलायची। ७. नील का पौधा। ८. एक प्रकार की समुद्री मछली।
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बहुलाचौथ  : स्त्री० [सं० बहुला+हिं० चौथ] भादों बदी चौथ। इस दिन सत्यवती गौ के नाम पर लोग व्रत रखते हैं।
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बहुलालाप  : वि० [सं० बहुल-आलाप, ब० स०] बकवादी। पुं० बकवाद।
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बहुलावन  : पुं० [सं० ] वृन्दावन के ८४ वनों में से एक वन।
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बहुलित  : वि० [सं० बहुल+इतच्] कई गुणा बढ़ाया हुआ। (मल्टिपुल) जैसे—बहुलित उद्देश्य।
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बहुली  : स्त्री० [सं० बहुला] इलायची।
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बहुलीकृत  : वि० [सं० बहुल+च्वि√कृ (करना)+क्त] १. बढाया हुआ। वर्धित। २. प्रकट किया हुआ।
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बहुवर्षीय  : वि० [सं० ] वर्षानुवर्षी (दे०)
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बहुवल्क  : पुं० [सं० ब० स०] पियासाल।
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बहुवार  : पुं० [सं० बहु√वृ(विभाग करना)+णिच्+अण्] लिसोढ़े का पेड़।
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बहुविद्य  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने बहुत सी विद्याएँ पढ़ी या सीखी हों। २. बहुत सी बातें जाननेवाला। बहुज्ञ।
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बहुविवाह  : वि० [सं० ब० स०] १. वह सामाजिक प्रथा जिसमे एक व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) एक साथ कई व्यक्तियों (स्त्रियों या पुरुषों) के साथ विवाह करके रहता है। २. विशेषतः वह सामाजिक प्रथा जिसमें एक पुरुष एक साथ कई स्त्रियों के साथ विवाह करके दाम्पत्य जीवन व्यतीत करता है। (पॉलिगैमी)
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बहुवीर्य  : पुं० [सं० ब० स०] १. विभीतक। बहेड़ा। २. शाल्मली। सेमल। ३. मरुआ।
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बहुशः (शस्)  : अ० य० [सं० बहु+शस्] १. बहुत वार। २. बहुत तरह से।
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बहुशत्रु  : पुं० [सं० ब० स०] गौरा पक्षी। चटक।
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बहुशिर (रस्)  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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बहुश्रुत  : वि० [सं० ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसने अनेक विषयों की ज्ञान संबंधी बहुत-सी बातें सुनी तथा स्मरण रखी हों। २. विद्वान। पंडित।
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बहुश्रृंग  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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बहुसंख्यक  : वि० [सं० ब० स०+कप्] १. जिसकी संख्या बहुत अधिक हो। गिनती में बहुत। २. जिसकी संख्या दूसरों की तुलना में बहुत अधिक हो। जैसे—संसद् का बहु संख्यक दल।
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बहुसार  : पुं० [सं० ब० स०] खदिर। खैर।
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बहुसू  : स्त्री० [सं० बहु√स्+क्विप्] शूकरी। मादा सूअर।
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बहुस्रव  : पुं० [सं० बहु√स्रु(बहना)+अच्] शल्लकी वृक्ष। सलई।
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बहुस्वन  : पुं० [सं० ब० स०] १. उल्लू। २. शंख।
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बहू  : स्त्री० [सं० वधू] १. सम्बन्ध के विचार से पुत्र की पत्नी। पतोहू। २. जोरू। पत्नी। ३. नव विवाहिता स्त्री। दुलहिन। ४. रहस्य संप्रदाय में सुबुद्धि या धार्मिक बुद्धि।
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बहूकरी  : स्त्री०=बहुकरी।
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बहूँटा  : पुं० [सं० बाहुल्य, प्रा० बाहुट्ठ] [स्त्री० अल्पा० बहूँटी] बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना।
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बँहूटा, बँहूटा  : पुं० [हिं० बाँह] बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बँहूटा, बँहूटा  : पुं० [हिं० बाँह] बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना।
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बहूदक  : पुं० [सं० बहु-उदक, ब० स०] संन्यासियों का एक भेद।
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बहूपमा  : स्त्री० [सं० बहु-उपमा, ष० त०] एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय के एक धर्म के लिए अनेक उपमानों का कथन होता है।
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बहेंगा  : पुं० [सं० विहंगम] १. एक प्रकार का पक्षी जिसे भृजंगा भी कहते हैं। २. चौपायों की गूदा में होनेवाला एक रोग। वि० १. वह जो प्रायः इधर-उधर व्यर्थ घूमता रहता हो। घुमक्कड़। २. आवारा।
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बहेचा  : पुं० [देश०] घड़े का ढाँचा जो चाक पर से गढ़कर उतारा जाता है। यही पीटकर बढ़ाने के सुडौल घड़े के रूप में हो जाता है। (कुम्हार)
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बहेड़ा  : पुं० [सं० विभीत्तक, प्रा० बहेड़अ] १. पर्वतों तथा जंगलों में होनेवाला एक ऊंचा वृक्ष जिसके पत्ते वट-वृक्ष के पत्तों से कुछ छोटे तथा फल अण्डाकार या गोल होते हैं। २. उक्त वृक्ष का फल जो स्वाद में कसैला होता है तथा वैद्यक में कफ पित्त तथा कृमि रोग नष्ट करनेवाला माना जाता है।
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बहेंत  : स्त्री० [हिं० बहना] वह मिट्टी जो बहकर किसी स्थान पर जमा हुई हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहेतू  : वि० [हिं० बहना] १. (व्यक्ति) जो इधर-उधर मारा-मारा फिरता हो। २. बहुत ही निम्न कोटि का। तुच्छ या हीन। ३. (धन या पदार्थ) जो मुफ्त में या बिना परिश्रम के प्राप्त होता या हुआ हो
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बहेरा  : पुं०=बहेड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बहेरी  : स्त्री० [हिं० बहराना] बहाना। हीला।
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बहेला  : पुं० [हिं० बहाली] कुश्ती का एक पेंच। वि० [सं० वल्लभ] प्रिय। प्यारा।
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बहेलिया  : पुं० [सं० वध+हेला] वह व्यक्ति जो छोटे-मोटे पशु-पक्षियों को पकड़ता तथा उन्हें बेचकर अपनी जीविका का निर्वाह करता है। चिड़ीमार।
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बहोर  : पुं० [हिं० बहुरना] बहुरने की क्रिया या भाव। वापसी। पलटा। फेरा। अव्य०=बहोरि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बहोरना  : स० [हिं० बहुरना] १. गये हुए को फिर पहले या पुराने स्थान पर ले आना। लौटाना। २. चरनेवाले चौपायों को घर की ओर हाँकना। ३. संभालकर ठीक अवस्था में लाना। उदाहरण—कबीर इह तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि।—कबीर।
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बहोरि  : अव्य० [हिं० बहोर] दोबारा। पुनः। फिर।
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बहोरी  : स्त्री० [हिं० बहोरना] बहोरने की क्रिया या भाव।
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बँहोल  : स्त्री० १. बाँह। २. बहँगी।
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बँहोल (ी)  : स्त्री० [हि० बाँह] आस्तीन।
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बँहोलनी, बँहोली  : स्त्री०=बँहोल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बह्वर्षक  : वि० [सं० बहु-अर्थ,+ब० स०+कप्] (कथन, बात या शब्द) जिसके बहुत से अर्थ हों या निकल सकते हों। (सेन्टेन्शन)
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बाँ  : पुं० [अनु०] गाय के रँभाने का शब्द। पुं०=बार (दफा)
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बा  : पुं० [सं० वा=जल] पानी। जल। पुं०=बार। (दफा)। स्त्री० [अनु०] माता। माँ। (गुजरात और राजस्थान) अव्य० [फा०] १. सहित। साथ। जैसे—बाअदबब=अदब से। २. युक्त। सम्मिलित। जैसे—बाईमान। (बे-ईमान का विपर्याय)। स्त्री०=बाई का संक्षिप्त रूप। (स्त्रियों का सम्बोधन)।
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बा  : हिं० बाबू का संक्षिप्त रूप। जैसे—बा० दुर्गाप्रसाद।
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बा-जाब्ता  : अव्य० [अ० बा+फा० ज़ाबितः] जाब्ते के साथ। नियम, विधान आदि के अनुसार। जैसे—किसी के माल की बा-जाब्ता कुर्की कराना। वि० जो जाब्ते अर्थात् नियम, विधान आदि के अनुसार ठीक हो।
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बाइ  : स्त्री० [स० वापी] छोटा तालाब। बावली। उदाहरण—अति अगाधु अति औथरो नदी कूपु सरू बाइ।—बिहारी। स्त्री०=वायु। (हवा)।
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बाइगी  : स्त्री० [सं० वार्ता या हिं० बाई=वायु] व्यर्थ की बकवाद। उदाहरण—कौन बाइगी सुनै ताहि किन मोहि बतायौ।—नन्ददास।
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बाइबिल  : स्त्री० [अं०] ईसाइयों की मुख्य और प्रसिद्ध धर्म० -पुस्तक।
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बाइस  : पुं० [फा] सबब। कारण। वजह। वि० पुं०—बाईस।
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बाइसवाँ  : वि०=बाईसवाँ।
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बाइसिकिल  : स्त्री० [अं०] आगे-पीछे बँधे हुए दो पहियों की एक प्रसिद्ध सवारी जो पैरों से चलायी जाती है।
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बाई  : स्त्री० [सं० वायु] बात, जो त्रिदोषों में से एक है। वि० दे० बात। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना। पद—बाई की झोंक=(क) वायु का प्रकोप। (ख) किसी मनोवेग का बहुत ही तीव्र या प्रबल आवेग। मुहावरा—बाई चढ़ना=(क) वायु का प्रकोप होना। (ख) किसी प्रकार का बहुत ही प्रबल या मनोवेग उत्पन्न होना। बाई पचाना=(क) वायु का प्रकोप शान्त होना (ख) उग्र या तीव्र मनोवेग शान्त होना। (ग) व्यर्थ का घमंड टूटना या नष्ट होना। (किसी की) बाई पचाना=अभिमान नष्ट करना। घमंड तोड़ना। स्त्री० [हिं० बावा] १. स्त्रियों के लिए एक आदर सूचक शब्द। जैसे—लक्ष्मी बाई। २. उत्तर भारत में प्रायः नाचने-गानेवाली वेश्याओं के साथ लगनेवाला शब्द। जैसे—जानकी बाई, मोती बाई। पद—बाईजी=नाचने-गानेवाली वेश्या।
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बाईस  : वि० [सं० द्वाविंशति, प्रा० बाइसा] जो गिनती में बीस से दो अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो अंकों में इस प्रकार (२२) लिखी जाती है।
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बाईसवाँ  : वि० [हिं० बाईस+वाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बाईसवी] क्रम के विचार से बाईस के स्थान पर पड़नेवाला।
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बाईसी  : स्त्री० [हिं० बाईस+ई (प्रत्यय)] १. एक ही प्रकार की बाईस वस्तुओं का समूह। जैसे—खटमल बाईसी। २. मुगल सम्राटों के काल में वह सेना जो उसके बाई सूत्रों के सैनिकों से बनायी जाती थी। ३. बाईस हजार सैनिकों की सेना। मुहावरा—(किसी पर) बाईसी टूटना=पूरी शक्ति से आक्रमण होना।
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बाउँ  : वि०=वाम। (बायाँ)। क्रि० वि०=बाएँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाउ  : स्त्री० वायु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाउर  : वि० [सं० वातुल] [स्त्री० बाउरी] १. बावला। पागल। २. भोला-भाला। ३. बेवकूफ मूर्ख। ४. गूँगा। ५. खराब। बुरा।
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बाउरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की घास। स्त्री०=बावली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाउल  : पुं० [वातुल] १. बंगाल का एक वैष्णव सम्प्रदाय जो विवेक को ईश्वर और अपना प्रियतम मानकर उसी की उपासना करता है। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी। वि०=बावला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाऊ  : पुं० [सं० वायु] हवा। पवन।
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बाएँ  : क्रि० वि० [हिं० बायाँ] १. जिधर बायाँ हाथ हो उधर अथवा उस दिशा में। बायें हाथ। २. वस्तु आदि के संबंध में जिस का मुँह जिस ओर हो उससे उत्तर दिशा में।
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बाओटा  : पुं० [सं० वायु] बात का होनेवाला गठिया नामक रोग। पुं० १.=बावटा (झंडा)। २.=वाहुटा (बाजूबंद)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँक  : स्त्री० [सं० बंक०] १. टेढ़ापन। वक्रता। २. घुमाव या मोड़ जैसे—नदी की बाँक। ३. हाथ में पहनने की एक प्रकार की चूड़ी। ४. पैरों में पहनने का चाँदी का एक प्रकार का गहना। ५. बाँह पर का गहना। ६. बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना। ७. लोहारों का वह शिकंजा जिसमें वे चीजों को कसकर रखते हैं। ८. गन्ना छीलने का सरौते के आकार का एक उपकरण। ९. एक प्रकार की टेढ़ी-बड़ी छुरी या कटारी। १॰. उक्त छुरी या कटारी चलाने का कौशल या विद्या। ११. उक्त कौशल या विद्या सीखने के लिए किया जानेवाला अभ्यास। वि० १. घुमावदार। टेड़ा। वक्र। २. दे० ‘बाँका’। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास। पुं० [?] जहाज के ढांचे में वह शहतीर जो खड़े बल में लगाया जाता है।
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बाँक-डोरी  : स्त्री० [हिं० बाँक] एक प्रकार का शस्त्र।
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बाकचाल  : वि०=वाचाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँकड़ा  : पुं० [सं० बंक] छकड़े की आँक की वह लकड़ी जो धुरे के नीचे आड़े बल लगी रहती है। वि०=बाँकुड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँकनल  : पं० [सं० बंकनाल] सुनारों काएक औजार जिससे फूँक मारकर टाँका लगाते हैं।
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बाँकना  : स० [सं० बंक] टेढ़ा करना। अ० टेढ़ा होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाकना  : अ०=बकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँकपन  : पुं० [हिं० बाँका+पन (प्रत्यय)] १. टेढ़ापन। तिरछापन। २. बाँका होने की अवस्था या भाव। ३. बनावट रचना या रूप की अनोखी सुन्दरता।
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बाकर  : वि० [फा० बाक़िर] पंडित। विद्वान्।
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बाकरखानी  : स्त्री० [बाकर खाँ नाम] एक प्रकार की मुसलमानी रोटी (या खिचड़ी)
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बाकरी  : स्त्री०=बावली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाकल  : पुं०=वल्कल (छाल)।
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बाकलि  : पुं०=बकरा। स्त्री०=वल्कल।
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बाकली  : स्त्री० [सं० बकुल] एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्ते रेशम के कीड़ों को खिलाये जाते हैं। इसे धौरा और बोंदार भी कहते हैं।
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बाकस  : पुं०=बक्स। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाकसी  : स्त्री० [अ० बैकसेल] जहाज के पाल को एक ओर से दूसरी ओर करने का काम।
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बाँका  : वि० [सं० बंक] [स्त्री० बाँकी] १. टेढ़ा। तिरछा। २. जिसमें बहुत ही अनोखा माधुर्य और सौन्दर्य हो। जैसे—बाँकी अदा। ३. (व्यक्ति) जिसकी चाल-ढाल, वेष-भूषा, सज-धज आदि में अनोखा सौन्दर्य हो। जैसे—बाँका जवान। ४. छैला। ५. बहादुर और हिम्मतवार। वीर और साहसी। जैसे—बाँका सिपाही। ६. विकट। बीहड़। (राज० ) पुं० १. लोहे का बना हुआ एक प्रकार का हथियार जो टेढ़ा होता है। २. वह गुंड़ा या बदमाश अपने पास उक्त शस्त्र रखता हो। ३. सदा बना-ठना रहनेवाला बदमाश या लुच्चा। गुंडा। (लखनऊ) ४. बारातों आदि में अथवा किसी जुलूस में वह बालक या युवक जिसे खूब सुन्दर और अलंकार आदि से सजाकर तथा घोड़े या पालकी में बैठाकर शोभा के लिए निकाला जाता है। ५. धान की फसल को नुकसान पहुँचानेवाला एक प्रकार का कीड़ा।
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बाका  : स्त्री० [सं० वाक्] बोलने की शक्ति। वाणी।
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बाँकिया  : पुं० [सं० बंक=टेढ़ा] १. नरसिंहा नाम का बाजा जो आकार में कुछ टेढ़ा होता है। २. रथ के पहिए की आगे की वह टेढ़ी लकड़ी जिस पर उसकी धुरी टिकी रहती है।
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बाँकी  : पुं० [हिं० बाँका] बाँस को काटकर खपचियाँ, तीलियाँ आदि बनाने का एक प्रकार का उपकरण। वि० स्त्री०=बाकी।
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बाकी  : वि० [अ० बाक़ी] १. जो कुल या समस्त में से अधिकांश निकाल लिये जाने, क्षय अथवा व्यय होने पर बच रहा हो। २. (काम, चीज या बात) जो अभी किये बनाये, होने या कहे जाने को हो। जैसे—बाकी काम कल करूँगा। क्रि० प्र०—पड़ना।—बचना।—रहना। ३. (धन, राशि या रकम) जो अभी किसी को देय हो अथवा किसी से प्राप्य हो। जिसका लेन-देन अभी होने को हो। जैसे—अभी खाते में सै रुपए उनके नाम बाकी है। क्रि० प्र०—निकलना।—पड़ना।—होना। ४. अवधि या समय जो अभी व्यतीत न हुआ हो। जैसे—अभी महीना पूरा होने में चार दिन बाकी है। क्रि० प्र०—रहना। ५. जो अन्त में या सबसे पीछे होने को हो। जैसे—अब तो मरना बाकी है। स्त्री० १. गणित में वह क्रिया जो किसी बड़ी संख्या (या मान) में से छोटी संख्या (या मान) घटाने के लिए की जाती है। एक बड़ी और दूसरी छोटी संख्या का अन्तर निकालने की क्रिया या प्रकार। जैसे—७ में से ५ घटाना या निकालना। २. उक्त क्रिया करने पर निकलनेवाला फल। वह मान या संख्या जो एक बड़ी संख्या में से दूसरी छोटी संख्या घटाने से प्राप्त होती है। जैसे—१0 में से यदि ६ घटाएँ तो बाकी ४. होगा। क्रि० प्र०—निकलना। ३. वह धन या रकम जो अभी वसूल न हुई हो और वसूल की जाने को हो। जैसे—इतना तो ले लीजिए और जो बाकी निकले वह नये खाते में लिख लीजिए। ४. वह जो सबसे अन्त में बचा रहे। जैसे—अब तो यही बाकी है कि उन पर मुकदमा चलाया जाय। ५. अवशेष। अव्य० परन्तु। मगर। लेकिन। जैसे—आपका कहना तो ठीक है बाकी मैं स्वयं चलकर उनके घर नहीं जाऊँगा। (बोल-चाल) पुं० [देश] एक प्रकार का धान।
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बाँकुड़  : वि० [स्त्री० बाँकुड़ी]=बाँकुरा।
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बाँकुड़ी  : स्त्री० [सं० बंक+हिं० ड़ी] कलाबत्तू या बादाले की बनी हुई वह पतली डोरी या फीता जो साड़ियों आदि के किनारों पर शोभा के लिए लगाया जाता है।
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बाकुंभा  : पुं० [हिं० कुम्भी] कुम्भी के फूल का सुखाया हुआ केसर जो खाँसी और सर्दी में दवा की भाँति दिया जाता है।
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बाँकुर  : वि० [हिं० बाँका] १. बाँका। टेढ़ा। २. नुकीला। पैना। ३. चतुर। होशियार।
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बाँकुरा  : वि० [हिं० बाँका] १. बाँका। टेढ़ा। २. तेज धार का। ३. कुशल। चतुर।
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बाखड़ी  : स्त्री०=बाखली (गौ या भैंस)
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बाखर  : पुं० [देश] एक प्रकार का तृण।
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बाखरि  : स्त्री० दे० ‘बखरी’।
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बाखल  : स्त्री०=बखरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाखली  : स्त्री० [देश] वह गाय या भैंस जो बच्चा देने के बाद पाँच महीने तक दूध दे चुकी हो।
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बाखैर  : वि० [फा० बा+अं० खैर] खैरियत से। कुशलतापूर्वक।
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बाख्तर  : पुं० [फा० बख्तर] १. पूर्व। पूरब। २. हिन्दुकुश और वक्षु (आक्सम) के बीच एक प्राचीन जनपद। बल्ख नामक प्रदेश।
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बाँग  : स्त्री० [फा०] १. ध्वनि। स्वर। २. नमाज के समय नमाज पढ़नेवालों को मसजिद में आकर नामज पढ़ने के लिए बुलाने के निमित्त मुल्ला द्वारा की जानेवाली उच्च स्वर में पुकार। ३. भोर केसमय मुर्गे के बोलने के स्वर।
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बाग  : पुं० [अ० बागु] खेती के योग्य भूमि का वह टुकड़ा जो चारों ओर से प्रायः दीवार से घिरा होता है तथा जिसमें फूलों और फलों वाले अनेक प्रकार के पौधे और वृक्ष होते हैं। स्त्री० [सं० वल्गा] १. लगाम। २. शक्ति। सामर्थ्य। उदाहरण—मम सेवक कर केतिक बागा।—तुलसी। मुहावरा—बाग मोड़ना=किसी ओर चलते हुए को किसी दूसरी ओर प्रवृत्त करना। किसी ओर घुमाना। बाग हाथ से छूटना=अवसर, नियन्त्रण आदि हाथ से निकल जाना। स्त्री० [सं० वाक्] वाणी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँगड़  : पुं० [देश] करनाल, रोहतक, हिसार आदि के आस-पास का प्रदेश। हरियाना। स्त्री० उक्त प्रदेश की बोली जो खड़ीबोली या पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा है। हरियानी। वि०=बाँगड़।
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बागड़  : पुं० [?] १. बिना बस्ती का देश। उजाड़। २. दे० ‘शाद्वल’।
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बाँगड़ी  : वि० [हिं० बाँगड़] बाँगड़ या हरियाना प्रदेश का। स्त्री०=बाँगड़ (बोली)
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बाँगड़ू  : वि० [हिं० बाँगड़] असभ्य, उजड्ड और पूरा गँवार।
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बागडोर  : स्त्री० [हिं० बाग+डोर=रस्सी] १. वह रस्सी जो घोड़ की लगाम में बाँधी जाती है और पकड़कर सईस लोग उसे टहलाते हैं। २. लगाम। ३. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसी चीज या बात जिसके द्वारा किसी को वश में किया जाता है।
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बाँगदरा  : स्त्री० [फा० बाँग] १. घंटे या घड़ियाल की ध्वनि। २. काफिले में प्रस्तान के समय बजनेवाले घण्टों की ध्वनि या आवाज।
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बागदार  : पुं० [फा० बाग+दार] बाग का स्वामी।
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बागना  : अ० [फा० बाग] १. बाग में घूमना। सैर करना। अ० [सं० वाक्=बोलना] १. कहना। बोलना। २. आक्रमण करना। ३. किसी को दबाने के लिए आगे बढ़ना या उद्यत होना। उदाहरण—सब्दति अहेड़ै मिस रिध कोस बलस्यूं बागो।—गोरखनाथ।
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बागबान  : पुं० [फा० बागबान] [भाव० बागबानी] वह व्यक्ति जो बाग में पेड़-पौधे उगाता तथा रोपता हो और उनकी देखभाल तथा सेवासुश्रुषा करता हो। बाग का माली।
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बागबान  : पुं० [भाव० बागवानी]=बागवान।
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बागबानी  : स्त्री० [फा०] बाग में पेड़-पौधे उगाने तथा उनकी देखभाल करने का काम।
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बागबिलास  : पुं०=बाग्विलास। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँगर  : पुं० [देश] १. छकड़ा गाड़ी का वह बाँस जो फड़ के ऊपर लगाकर फड़ के सात बाँध दिया जाता है। २. ऐसी ऊँची जमीन जिस पर आस-पास के जलाशय की बाढ़ का पानी न पहुँचता हो। ‘खादर’ का विपर्याय। ३. वह भूमि जो पशुओं के चरने के लिए छोड़ दी गयी हो, अथवा जिसमें पशु चरते हों। चरागाह। चरी। (मेडो) ४. अवध प्रांत में होनेवाला एक प्रकार का बैल।
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बागर  : पुं० [देश] १. नदी के किनारे की वह ऊँची भूमि जहाँ तक नदी का पानी कभी पहुँचता ही नहीं। २. दे० ‘बाँगुरा’। ३. चमगादड़। (राज०)
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बागल  : पुं०=बगुला।
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बाँगा  : पुं० [देश] ऐसी रूई जिसमें से बिनौले अभी तक न निकाले गये हो। कपास।
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बागा  : पुं० [फा० बागी] अंगे की तरह का पुरानी चाल का पहनावा।
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बागी  : पुं० [अ० बागी] देश की प्रभुसत्ता के विरुद्ध तथा शासन उलटने के उद्देश्य से सैनिक विद्रोह करनेवाला व्यक्ति। बगावत करनेवाला।
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बागीचा  : पुं० [फा० बागीचः] छोटा बाग विशेषतः घर के चारों ओर का वह स्थान जिसमें शोभा के लिए पेड़-पौधे लगाये जाते हैं।
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बाँगुर  : पुं० [सं० बागुरा] १. पशुओं या पक्षियों को फँसाने का जाल। फँदा। २. फँसने या फँसाने का कोई स्थान। उदाहरण—तुलसीदास यह विपत्ति बाँगुरी तुमहिं सौ बनै निबेरे।—तुलसी।
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बागुर  : पुं० [देश] १. वह जाल जिसमें बहेलिया पक्षियों तथा छोटे-मोटे जंगली पशुओं को फँसाते हैं। २. बहेलिया।
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बागेसरी  : स्त्री० [सं० बागीश्वरी] १. सरस्वती। २. बागेश्वरी नाम की एक रागिनी जिसे रात के समय गाया जाता है तथा जो किसी के मत से मालकोश राग की स्त्री और किसी के मत से संकर रागिनी की है।
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बाघ  : पुं० [सं० व्याघ्र] शेर की जाति का परन्तु उससे आकार-प्रकार में कुछ छोटा हिंसक जन्तु पशु। व्याघ्र।
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बाघ-कुंजर  : पुं० [हिं०+सं०] कपड़ों की छपाई, रँगाई आदि में ऐसी आकृतियाँ जिनमें बाघ और हाथी की लड़ाई का दृश्य हो।
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बाघंबर  : पुं० [सं० व्याघ्राम्बर] १. बाघ की खाल जो ओढ़ने, बिछाने आदि के काम आती है। २. एक प्रकार का रोएँदार कम्बल जो देखने में बाघ की खाल का सा जान पड़ता है।
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बाघा  : पुं० [हिं० बाघ] १. चौपायों का एक रोग जिसमे उनका पेट अत्यधिक फूल जाता है। २. एक प्रकार का कबूतर।
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बाघी  : स्त्री० [देश] आतशक, गरमी आदि के रोगियों को पेडू और जाँघ के संधि-स्थल पर होनेवाली एक तरह की गिल्टी।
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बाघुल  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की छोटी मछली।
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बाच  : वि० [सं० वाच्य] १. वर्णन करने के योग्य। २. अच्छा। बढ़िया। ३.सुन्दर। स्त्री०=वाचा (वाणी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँचना  : स० [स० वाचन] १. पढ़ना। २. पढ़कर सुनाना। अ०=बचना। स०=बचाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाचना  : अ०=वचना। स०=बचाना। स०=बाँचना (पढ़ना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाचा  : स्त्री० [सं० वाचा] १. बोलने की शक्ति। २. बात-चीत। ३. प्रतिज्ञा प्रण।
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बाचाबंध  : पुं०=वचन-बद्ध।
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बाछ  : पुं० [हिं० बाछना] १. बाछने की क्रिया या भाव। २. गाँव में कर, चंदे मालगुजारी आदि का फैलाया हुआ ऐसा परता जो प्रत्येक हिस्सेदार के हिस्से के अनुसार हो। बछौटा। बेहरी। पुं०=बाछा। स्त्री० [प्रा० बच्छ] होठों का कोना या सिरा। मुहावरा—बाछें खिलना=इतना प्रसन्न होना कि मुँह पर बरबस मुस्कराहट या हँसी या जाय।
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बाछड़ा  : पुं०=बछड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँछना  : स० [सं० वाँछा] १. इच्छा या कामना करना। चाहना। २. चुनना। छाँटना। स्त्री०=बांछा (कामना)। स० दे० ‘बाछना’।
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बाछना  : स० [सं० विचयन] चुनना। छाँटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँछा  : स्त्री०=वांछा (इच्छा)
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बाछा  : पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ] [स्त्री० बाछी] १. गाय का बच्चा। बछड़ा। उदाहरण—बाछा बैल पतुरिया जोय, न घर रहे न खेती होय।—घाघ। २. बच्चों के लिए प्यार का सम्बोधन।
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बाँछित  : भू० कृ०=वांछित।
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बाज  : पुं० [अ० बाज] १. एक प्रकार का बड़ा शिकारी और हिंसक पक्षी। २. एक प्रकार का बगुला। ३. वह पर जो तीर में लगाया जाता है। वि० [फा०] वंचित। रहित। मुहावरा—(किसी चीज या बात से) बाज आना=(क) उपेक्षापूर्वक और जान-बूझकर अथवा त्याज्य या हानिकर समझकर उसे छोड़ देना या वंचित रहना। जैसे—हम ऐसे मकान (या रुपए) से बाज आये। (ख) अलग या दूर रहना। जैसे—तुम बदमाशी से बाज नहीं आओगे। (किसी को किसी काम या बात से) बाज करना=मना करना। रोकना। बाज रखना=(क) न रहने देना। (ख) रोक रखना। बाज रहना=अलग या दूर रहना। प्रत्यय० [फा०] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लगकर निम्न अर्थ देता है (क) करने या बनानेवाला। जैसे—बहानेबाज। (ख) अपने अधिकार में, वश में या पास में रखनेवाला अथवा किसी चीज या बात का व्यसन करनेवाला। जैसे—कबूतरबाज, नशेबाज, रंडीबाज वि० [अ० बअज] कोई-कोई। कुछ—थोड़े। कुछ विशिष्ट। जैसे—बाज आगमी बहुत जिद्दी होते हैं। क्रि० वि० बगैर। बिना। उदाहरण—अब तेहि बाज राँक भा डोली।—जायसी। पुं० [सं० वाजि] घोड़ा। पुं० [सं० वाद्य० हिं० बाजा] १. बाजा। २. बाजों से उत्पन्न होनेवाला शब्द। ३. बाजा बजाने का ढंग या रीति। जैसे—मुझे उनमें से किसी का बाजा पसन्द नहीं आया। ४. सितार के ५ तारों में से पहला जो पक्के लोहे का होता है। अव्य० [सं० वर्ज] बिना। उदाहरण—गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक।—जायसी। पुं० [देश] ताने के सूतों के बीच में देने की लकड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाज-दावा  : पुं० [फा०] १. दावा वापस लेना। नालिश वापस लेना। २. वह पत्र या लेख्य जिसमें अपना दावा वापस लेने का विवरम होता है। क्रि० वि०=लिखना।—लिखाना।
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बाजड़ा  : पुं०=बाजरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाजन  : पुं०=बाजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाजना  : अ० [सं० व्रजन] १. जाना। २. पहुँचना। अ० [सं० वादन] १. तर्क वितर्क या बहस करना। २. लडाई-झगड़ा करना। [सं० वदन] १. कहना। बोलना। २. किसी नाम से प्रसिद्ध होना। पुकारा जाना। ३. आघात लगना। प्रहार होना। वि० बजनेवाला। जो बजता हो।
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बाजरा  : पुं० [सं० वर्जरी] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके दानों की गिनती मोटे अन्न में होती है। २. उक्त पौधे के दाने जो उबाल या पीसकर खाये जाते हैं।
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बाजरा-मुर्ग  : पुं० [हिं०+फा०] एक प्रकार की काली चिड़िया जिसके ऊपर बाजरे की तरह के पीले दाग होते हैं।
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बाजहर  : पुं०=जहर मोहरा।
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बाजा  : पुं० [सं० वाद्य] १. संगीत में, वह उपकरण जो फूँके अथवा आघात किये जाने पर बजता है तथा जिसमे से अनेक प्रकार के स्वर आदि निकलते हैं। क्रि० प्र०—बजना।—बजाना। पद—बाजा-गाजा (दे०)। २. बच्चों के बजाने का कोई खिलौना। वि० [अ० बअज] कोई-कोई। कुछ जैसे—बाजे आदमी किसी की पुकार पर जरा भी ध्यान नहीं देते।
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बाजा-गाजा  : पुं० [हिं० बाजा+गाजना=गरजना] तरह-तरह के बाजे और उसके साथ होनेवाली धूम-धाम या हो-हल्ला। जैसे—बाजे-गाजे से बरात निकलना।
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बाजार  : पुं० [फा० बाजार] [वि, ० बाजारी, बाजारू] १. वह स्थान जहाँ किसी एक चीज अथवा अनेक चीजों के विक्रय के लिए पास-पास अनेक दूकानें हों। मुहावरा—बाजार करना=चीजें खरीदने के लिए बाजार जाना और चीजें खरीदना। बाजार गरम होना= बाजार में चीजों या ग्राहकों आदि की अधिकता होना। खूब लेने-देन या खीरद-बिक्री होना। (किसी काम या बात का) बाजार गरम होना=किसी काम या बात की बहुत अधिकता या बाहुल्य होना। जैसे—आज-कल चोरियों (या जुए) का बाजार गरम है। बाजार लगना=(क)बहुत सी चीजों का इधर-उधर ढेर लगना। बहुत सी चीजों का यों ही सामने रखा होना। (ख) बहुत भीड़-भाड़ इकट्ठी होना और वैसा ही हो हल्ला होना जैसे बाजारों में होता है। बाजार लगाना=(क) चीजें इधर-उधर फैला देना। (ख) अटाला या ढेर लगाना। (ग) भीड़-भाड़ लगाना और वैसा ही हो-हल्ला करना जैसा बाजारों में होता है। २. वह स्थान जहाँ किसी निश्चित समय, बार तिथि या अवसर आदि पर सब तरह की चीजों की दुकानें लगती हों। हाट। पैठ। मुहावरा—बाजार लगना=बाजार में सब तरह की दुकानें आकर खुलना या लगना। बाजार लगाना=ऐसी व्यवस्था करना कि किसी स्थान पर आकर सब तरह की दुकानें लगें। जैसे—राजा साहब हर मंगलवार को अपने किले के सामने बाजार लगवाते थे।३. किसी चीज की बिक्री की वह दर या भाव जिस पर वह साधारणतः सब जगह बाजारों में बिकती या मिलती हो।क्रि० प्र०—उतरना।—चढ़ना।—बढ़ना। पद—बाजार-भाव=किसी चीज का वह भाव या मूल्य जिस पर नह साधारणतः सब जगह बाजारों में मिलती हैं।मुहावरा—(किसी का) बाजार के भाव पिटना=बहुत बुरी तरह से मारा-पीटा जाना। (व्यंग्य) बाजार तेज होना=चीजों की माँग की अधिकता के कारण उनका मूल्य बढ़ना। बाजार मंदा होना=चीजों की माँग कम होने के कारण चीजों का भाव या मूल्य घटना। ४. व्यापारिक क्षेत्रों में व्यापारियों आदि का वह प्रत्यय या साख जिसके आधार पर उन्हें बाजार से चीजें और रुपए उधार मिलते हैं। जैसे—व्यापारियों को अपना व्यापार चलाने के लिए अपना बाजार बनाये रखना पड़ता है।
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बाजारी  : वि० [हिं० बाजार] १. बाजार-संबंधी। बाजार का। २. जो बहुत अच्छा या बढ़िया न हो। बाजारू। साधारण। ३. बाजार मे होनेवाला। बाजार में प्रचलित। जैसे—बाजारी बोल-चाल। ४. बाजार में रहने या बैठनेवाला। जैसे—बाजारी औरत। ५. दे० ‘बाजारू’।
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बाजारू  : वि० [फा० बाजार] १. बाजार का। बाजारी। (देखें) २. (शब्द या प्रयोग) जिसका प्रयत्न बाजार के साधारण लोगों में ही हो, शिक्षित या शिष्ट समाज मे न होता हो।
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बाजि  : पुं० [सं० वाजिन्, बाज+इनि] १. घोड़ा। २. चिड़िया। ३. तीर। बाण। ४. अड़ूसा। वि० चलनेवाला।
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बाजिंदा  : पुं० [फा० बाजिन्दः] १. खेल-तमासे दिखानेवाला। खेलाड़ी। २. लोटेन कबूतर।
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बाजी  : स्त्री० [फा० बाजी] १. किसी प्रकार की घटना के अनिश्चित परिणाम के प्रसंग में दो या अधिक पक्षों में होनेवाला पारस्परिक निश्चय कि जो पक्ष हार जायगा, उसे जीतनेवाले को उतना धन देना पड़ेगा, अथवा अपनी हार का सूचक अमुक काम करना पड़ेगा। खेलों या लाग-डाँटवली बातों के संबंध में लगाई जानेवाली ऐसी शर्त जिसके अनुसार हार-जीत के साथ कुछ लेना-देना भी पड़ता हो अथवा पुरस्कार भी मिलता हो। बदान। सर्त। २. इस प्रकार होनेवाला लेनदेन या मिलनेवाला पुरस्कार।क्रि० प्र०—जीतना।—बदना।—लगना।—लगाना।—हराना। मुहावरा—बाजी मारना=बाजी जीतना। बाजी के जाना=बाजी जीतना। ३. प्रत्येक बार आदि से अंत तक होनेवाला कोई ऐसा खेल जिसमें हार-जीत के भाव की प्रधानता हो। जैसे—आओ दो बाजी ताश (या शतरंज) हो जाय। क्रि० प्र०—जीतना।—हारना। ४. उक्त प्रकार के खेलों में प्रत्येक खिलाड़ी या दल के खेलने की पारी या बारी। दाँव। स्त्री० [फा० बाज का भाव] १. ‘बाज’ होने की अवस्था या भाव। २. किसी काम या बात के व्यसनी या शौकीन होने की अवस्था या भाव। जैसे—कबूतरबाजी, पतंगबाजी। ३. किसी प्रकार की क्रिया कु समय तक होते रहने का भाव। जैसे—दोनों में कुछ देर तक खूब घूँसेबाजी हुई। पुं० [सं० वाजिन्] घोड़ा। पुं० [हिं० बाजा] वह जो बाजा बजाने का काम करता हो। बजनिया।
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बाजीगर  : पुं० [फा० बाजीगर] [भाव० बाजीगरी] जादू के खेल करनेवाला। जादूगर। ऐंद्रजालिक।
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बाजू  : पुं० [फा० बाज़ू] १. भुजा। बाहु। बाँह। २. वह जो हाथ की तरह सदा साथ रहता और पूरी सहायता देता हो। ३. किसी चीज का कोई विशिष्ट अंग या पक्ष। पार्श्व। ४. पक्षियों का डैना। ५. बाजूबंद नाम का गहना। ६. उक्त गहने के आकार का गोदना।
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बाजूबंद  : पुं० [फा० बाजूबंद] बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना। भुजबंद।
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बाजूबीर  : पुं०=बाजूबंद।
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बाजोटा  : पुं० [सं० वाद्य+पट्ट] १. चौकी। २. बैठने की ऊँची जगह। (राज० ) उदाहरण—बाजोटा ऊतरि गादी बैठी।—प्रिथीराज।
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बाज्  : अव्य० [फा० बाज] १. बिना। बगर। उदाहरण—को उठाए बसारइ बाजू पियारे जीवै।—जायसी। २. अतिरिक्त। सिवा। पुं० [फा० बाजू] १. भुजा। बाँह। २. बाजूबंद।
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बाँझ  : स्त्री० [सं० वंध्या] १. वह स्त्री जिसे किसी शारीरिक विकार के कारण संतान न होती हो। वंध्या। २. कोई ऐसा मादा जंतु या पशु जिसे शारीरिक विकार के कारण बच्चा न होता हो। ३. ऐसी वनस्पति या वृक्ष जिसमें आंतरिक विकार के कारण फल, फूल आदि न लगें। वि० संतों की परिभाषा में, अज्ञानी या ज्ञानहीन। स्त्री० [देश] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष जिसके फलों की गुठलियाँ बच्चों के गले में, उनको रोग आदि से बचाने के लिए बाँधी जाती है।
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बाझ  : अव्य० [सं० वर्जन] बगैर। बिना। उदाहरण—भिस्त न मेरे चाहिए बाझ पियारे तुज्झ।—कबीर।
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बाँझ-ककोड़ी  : स्त्री० [सं० वंध्या-कर्कोटकी] बनककोड़ा। खेखसा। वनपरवल।
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बाझन  : स्त्री० [हिं० बझना=फँसना] १. उलझना। फँसना। बझना। २. गुत्थम-गुत्था या हाथा-बाँही होना। ३. दे० ‘बझना’।
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बाँझपन  : पुं० [हिं० बाँझ+पन (प्रत्यय)] बाँझ होने की अवस्था या भाव। वन्ध्यत्व।
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बाँट  : स्त्री० [हिं० बाँटना] १. बाँटने की क्रिया या भाव। २. बाँटने पर हर एक को मिलनेवाला अलग-अलग अंश या भाग हिस्सा। मुहावरा—(कोई चीज किसी के) बाँट या बाँटे पड़ना=इस प्रकार अधिकता से होना कि मानो सब कुछ छोड़कर उसी के हिस्से में आई या उसी को मिली हो। जैसे—जी हाँ सारी अक्ल तो आप के ही बाँटे पड़ी है। (व्यंग्य) ३. संगीत में गीत के नियत बोलों को नियमित तालों में ही सुन्दरतापूर्वक कहीं कुछ खीचकर और कहीं कुछ बढ़ाकर उच्चरित करना। पुं० [देश] १. गौओं आदि के लिए एक विशेष प्रकार का भोजन, जिसमें खरी, बिनौला आदि चीजें रहती हैं। २. धान के खेत में फसल को हानि पहुंचानेवाली ढेंढ़र नाम की घास। ३. घास या पयाल का बना हुआ एक मोटा-सा रस्सा जिसे गाँव के लोग कुआर सुदी १४ को बनाते है और दोनों ओर से कुछ-कुछ लोग उसे पकड़कर तब तक खीचते हैं जब तक वह टूट नहीं जाता। पुं०=बाट (बटखरा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाट  : पुं० [सं० वाट=मार्ग] रास्ता। पद—बाट घाट=नगर या बस्ती के इधर-उधर के छोटे-मोटे सभी प्रकार के स्थान। मुहावरा—बाट करना=रास्ता खोलना। मार्ग बनाना। बाट काटना=चलकर रास्ता पार करना। बाट जोहना या देखना=प्रतीक्षा करना। आसरा या रास्ता देखना। (किसी के) बाट पड़ना=(क) रास्ते में आ-आकर बाधा देना। तंग करना। पीछे पड़ना। (ख) रास्ते में डाकुओं का आकर लूट लेना। डाका पड़ना। बाट पारना=रास्ते में यात्रियो को लूटना। डाका डालना। (किसी को) बाट लगाना=(क) ठीक रास्ता बतलाना या ठीक रास्ते पर लाना। (ख) काम करने का ठीक ढंग बतलाना। बाट रोकना=(क) मार्ग में बाधा या रुकावट खड़ी करना। (ख) किसी के काम में अड़चन खड़ी करना। बाधक होना। पुं० [सं० वटक] १. पत्थर आदि का वह टुकड़ा जो चीजें तौलने के काम आता है। बटखरा। मुहावरा—बात हड़ना=(क) इस बात की जाँच या परीक्षा करना कि कोई बटखरा तौल में पूरा है या नहीं। (ख) किसी की प्रामाणिकता, सत्यता आदि की जाँच या परीक्षा करना। (ग) तंग या पेरशान करना। जैसे—रात दिन मुझसे बाट हड़ता है। (स्त्रियाँ) २. पत्थर का वह टुकड़ा जिससे सिल पर कोई चीज पीसी जाती है। बट्टा। स्त्री० [हिं० बटना] १. डोरी, रस्सी आदि बटने की क्रिया या भाव। २. बटने के कारण डोरी, रस्सी आदि में पड़ी हुई ऐंठन। बल। स्त्री० [हिं० बाटना=पीसना] बाटने अर्थात् पीसने की क्रिया, ढंग या भाव।
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बाँट-चूँट  : स्त्री० [हिं० बाँट+चूँट (अनु०)] बाँटने या लोगों को उनका हिस्सा देने की क्रिया या भाव।
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बाटकी  : स्त्री०=बटलोई।
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बाँटना  : स० [सं० वणृ, गु० वाँटवूँ, मरा० वाटणें] १. किसी चीज को कई भागों मे विभक्त करना। जैसे—यह जिला चार तहसीलों में बांटा जायगा। २. सम्पत्ति, आदि के सम्बन्ध में उसेक हिस्सेदार कई विभाग करके उसे उनके अधिकारियों को देना या सौपना। ३. खानेवाली चीज के संबंध में उसका थोड़ा-थोड़ा अंश सब लोगों को देना। जैसे—बच्चों को मिठाई बाँटना। ४. आर्थिक क्षेत्र में किसी निर्माणशाला या कार्यालय में काम करनेवालों को उनके पावने का भुगतान करना। जैसे—अधिलाभ या वेतन बाँटना। स०=बाटना (पीसना) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाटना  : स० [हि० बट्टा या बाट] सिल पर बट्टे आदि से पीसना। चूर्ण करना। उदाहरण—यों रहीम जस होतु है उपकारी के संग, बाटन वारि कैलगै ज्यों मेंहदी को रंग।-रहीम। स०=बटना (बल देना) पुं०=बटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाटली  : स्त्री० [अ० बटलाइन] जहाज के पाल मे ऊपर की ओर लगा हुआ वह रस्सा जो मस्तूल के ऊपर से होकर फिर नीचे की ओर आता है। इसी को कींचकर पाल तानते हैं। (लश०) स्त्री०=बोतल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँटा  : पुं० [हिं० बाँटना] १. बाँटने की क्रिया या भाव। बाँट। २. गाने-बजानेवाले लोगों का इनाम या पारिश्रमिक का धन आपस में यथायोग्य बाँटने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—लगाना। ३. बँटने या बाँटने पर प्रत्येक को मिलनेवाला अंश या भाग। हिस्सा। उदाहरण—रूप लूट कीन्ही तुम काहै अपने बाँटै कौ धरिहौ ली।—सूर। क्रि० प्र०—पाना।—मलाना। मुहावरा (किसी चीज का) बाँटे पड़ना=किसी सम्पत्ति आदि के हिस्से लगाना।
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बाँटा चौदस  : स्त्री० [स्त्री० बाँट-एक प्रकार का रस्सा+चौदस (तिथि)] कुआर सुदी १४ जिस दिन लोग बाँट (रस्सा) बटकर खींचते और तोड़ते हैं। वि० दे० ‘बाँट’।
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बाटिका  : स्त्री० [सं० वाटिका] १. छोटा बगीचा जिसमें शोभा के लिए फूल तथा फलों के छोटे-छोटे पौधे लगाये जाते हों। २. गद्य काव्य का एक भेद।
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बाटी  : स्त्री० [सं० वटी] १. गोली। पिंड। २. उपलों या अंगारो का सेंका हुआ आटे का गोलाकार लोंदा। स्त्री० [पं०] चौड़े मुँहवाली एक तरह की बड़ी कटोरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँड़  : पुं० [देश] दो नदियों के संगम के बीच की भूमि जो वर्षा में नदियों के बढ़ने से डूब जाती है और पानी उतर जाने पर फिर निकल आती है। पुं०=बाँड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाड़  : स्त्री०=बाढ़। उदाहरण—यह संसार बाड़ का कांटा।—मीराँ।
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बाडकिन  : पुं० [अं०] १. छापेखाने में काम आनेवाला एक प्रकार का सूआ जिसमें पीछे की ओर लकड़ी का दस्ता लगा रहता है। २. दफ्तरी खाने में काम आनेवाला एक प्रकार का सूआ जिससे दप्ती आदि में छेद किया जाता है।
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बाँड़तोड़  : पुं० [हिं० बाँह+तोड़ना] कुश्ती का एक पेंच।
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बाड़ना  : स० [हिं० बड़ना=घुसना या पैठना का स०] अन्दर प्रविष्ट करना। घुसाना। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाड़व  : पुं० [सं० बड़वा+अण्] १. ब्राह्मण। २. घोड़ियों का झुंड। ३. बड़वानल। वि० बड़वा-संबंधी।
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बाड़व-अनल  : पुं०=बड़वानल।
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बाड़व-बह्नि  : स्त्री०=बड़वानल।
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बाँड़ा  : पुं० [सं० वंड] १. वह पशु जिसकी पूँछ कट गयी हो। २. वह व्यक्ति जिसकी घर-गृहस्थी या बाल-बच्चे न हों। २. तोता। वि० [स्त्री० बाँड़ी] जिसकी पूँछ न हो। दुम-कटा या बिना दुम का। पुं० [देश] दक्षिण पश्चिम की हवा।
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बाड़ा  : पुं० [सं० बाट] १. चारों ओर से घिरा हुआ कुछ विस्तृत खाली स्थान। २. वह स्थान जहाँ पर पशु आदि घेरकर या बन्द करके रखे जाते हों। पशुशाला।
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बाड़ि  : स्त्री०=बाडिस।
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बाडिस  : स्त्री० [अं०] स्त्रियों के पहनने की एक प्रकार की अंगरेजी ढंग की कुरती।
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बाँड़ी  : स्त्री० [हिं० बाँड़ा] १. बिना पूँछ की गाय। २. छोटी लाठी। छड़ी।
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बाडी  : स्त्री०=बाडिस।
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बाड़ी  : स्त्री० [सं० वारी] १. वाटिका। बारी। पुलवारी। २. घर। मकान। (पूरब) जैसे—ठाकुरबाड़ी। ३. कपास का खेत (पस्चिम)। स्त्री० [?] कपास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बांड़ी  : पुं० [अं०] एक प्रकार की विलायती शराब।
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बाड़ी-गार्ड  : पुं०=अंग-रक्षक। (दे० )
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बाँड़ीबाज  : पुं० [हिं० बाँड़ी+फा० बाज] १. लट्ठबाज। लठैत। २. उपद्रवी। शरारती।
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बाडौ  : पुं०=बाड़व। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाढ़  : स्त्री० [हिं० बढ़ना] १. बढ़ने की क्रिया या भाव। बढ़ाव वृद्धि। जैसे—पेड़-पौधे की बाढ़। मुहावरा—बाढ़ पर आना=ऐसी अवस्था में आना कि निरन्तर वृद्धि होती रहे। जैसे—अब पेड़ बाढ़ पर आया है। २. नदी-नाले की वह स्थिति जब उसका पानी किनारों के बाहर बहने लगता है और आस-पास के झोपड़ों, मकानों, पशुओं आदि को बहाने लगता है। क्रि० प्र०—आना।—उतरा। ३. कँटीले पौधे आदि की वह लंबी, पंक्ति जो खेतों बगीचों आदि में इसलिए लगाई जाती है कि पशु आदि अन्दर न आ सके। क्रि० प्र०—रुँधना। लगाना। ४. कुछ विशिष्ट प्रकार की चीजों में किनारे या सिरे पर की ऊँचाई। जैसे—टोपी या थाली की बाढ़। ५. व्यापार आदि में अधिकता से होनेवाला लाभ या वृद्धि। ६. किसी प्रकार का जोर या तेजी। प्रबलता। तोप, बन्दूक आदि से गोलों-गोलियों का निरन्तर छूटते रहना। ८. उक्त के लगातार होता रहनेवाला प्रहार। जैसे—तोपों की बाढ़ के सामने शत्रु सेना न ठहर सकी। क्रि० प्र०—दगना।—दागना। स्त्री० [सं० वाट, हिं० वारी] कुछ विशिष्ट प्रकार के हथियारों की धार जिससे चीजें कटती हैं। जैसे—कैंची, छुरी या तलवार की बाढ़। मुहावरा—बाढ़ रखना=उक्त चीजों को सान पर चढ़ाकर उनकी धार तेज करना। पुं०=टांड (बाँह पर पहनने का गहना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाढ़-काढ़  : स्त्री० [हिं० बाढ़=हथियार की धार] १. तलवार। २. खड्ग। खाँड़ा। (डिं०)।
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बाढ़ना  : स० [हिं० बाढ़=धार] १. धारदार चीज से काटना। मार डालना। वध या हत्या करना। ३. नष्ट या बरबाद करना। अ०=बढ़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाढ़ाली  : स्त्री० [हिं० बाढ़=धार] १. तलवार। २. खड्ग। खाँड़ा (राज०)
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बाढ़ि  : स्त्री०=बाढ़।
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बाढ़ी  : स्त्री० [हिं० बढ़ना या बाढ़] १. बढ़ती। वृद्धि। २. वह ब्याज जो किसी को अन्न उधार देने पर मिलता है। ३. उधार दिया या लिया हुआ ऐसा ऋण जिसका सूद दिन पर दिन बढ़ता चलता हो। जैसे— वह उधार बाढ़ी का काम करता है। ४. व्यापार में होनेवाला लाभ मुनाफा। ५. पानी की बाढ़। बाढ़ीवान्
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बाण  : पुं० [सं०√बाण (शब्द)+घञ्] १. एक प्रकार का नुकीला अस्त्र जो कमान या धनुष पर चढ़ाकर चलाया जाता है। तीर। शर। सायक। ३. उक्त का अगला नुकीला भाग जो जाकर शरीर के अन्दर धँस जाता है। ३. वह चीज जिसे बेधने के उद्देश्य से वाण या तीर चलाया जाता है निशाना। लक्ष्य। ४. कामदेव के प्रसिद्ध पाँच वाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक शब्द। ५. गाय का थन। ६. अग्नि। आग। ७. रामसर। सरपत। ८. नीली कटसरैया। ९. दे० ‘वाणभट्ट’।
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बाण गंगा  : स्त्री० [सं० मध्य० स] हिमालय के सोमेश्वर गिरि से निकली हुई एक प्रसिद्द नदी।
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बाण गोचर  : पुं० [ष० त०] उतनी दूरी जितनी कोई बाण छूटने पर पार करता है। बाण की पहुँच या मार तक की दूरी।
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बाण-पति  : पुं० [ष० त०] वाणासुर के स्वामी महादेव। (डिं०)
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बाण-पाणि  : पुं० [ष० त०] बाणों से लैस।
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बाणपुर  : पुं० [ष० त०] शोणितपुर (आधुनिक तेजपुर, आसाम) जो वाणासुर की राजधानी थी।
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बाणरेखा  : स्त्री० [तृ० त०] बाण से शरीर पर होनेवाला लंबा घाव।
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बाणलिंग  : पुं० [मध्य० स०] नर्मदा में मिलनेवाला एक प्रकार का सफेद पत्थर जिसका शिवलिंग बनता है।
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बाणविद्या  : स्त्री० [ष० त०] वह विद्या जिससे बाण चलाना आवे। बाण चलाने की विद्या। तीरंदाजी।
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बाणवृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] लगातार बाण चलाते रहना। बाणों की वर्षा।
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बाणावती  : स्त्री० [सं० ] बाणासुर की पत्नी का नाम।
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बाणावलि  : स्त्री० [सं० बाण-अवलि, ष० त०] १. बाणों की पंक्ति। २. शत्रुओं पर होनेवाली बाणों या तीरों की बौछार।
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बाणाश्रय  : पुं० [सं० बाण-आश्रय, ष० त०] तरकश।
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बाणासन  : पुं० [सं० बाण-आसन, ष० त०] धनुष।
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बाणासुर  : पुं० [सं० बाण-असुर , कर्म० स०] राजा बलि के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र का नाम जो बहुत वीर गुणी और सहस्त्रबाहु था।
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बाणिज्य  : पुं०=वाणिज्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बात  : स्त्री० [सं० वार्ता] १. किसी से अथवा किसी विषय में कहा जानेवाला कोई सार्थक वाक्य। कथन। वचन। वाणी। जैसे—तुम तो मुँह से बात भी नहीं निकालने देते। क्रि० प्र०—कहना।—निकालना। मुहावरा—(मुँह से) बात न निकलना=मुँह से शब्द तक न निकलना। चुप या मौन हो जाना। (मुँह से) बात छूटना=मुँह से बात या शब्द निकलना। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य से या अपने मन का भाव प्रकट करने के लिए किया जानेवाला कथन। पद—बात कहते=उतनी थोड़ी देर में जितनी में मुँह से कोई बात निकलती है। पल भर में। चटपट। तुरन्त। बात का कच्चा या हेठा=वह जिसके कथन या बात का सहसा विश्वास न किया जा सकता हो। प्रतिज्ञा, वचन आदि का ध्यान न रखनेवाला। बात का धनी, पक्का या पूरा=वह जो अपने कथन, प्रतिज्ञा वचन आदि का पूरी तरह से पालन करता हो। बात का बतंगड़=साधारण सी बात को व्यर्थ बहुत बढ़ा-चढ़ाकर झंझट या झगड़े-बखेड़े का दिया जानेवाला रूप। बात की बात में=बहुत थोड़ी देर में। क्षणभर में। बात बात पर=(क) प्रत्येक प्रसंग पर। थोड़ा सा भी कुछ होने पर। हर काम में। (ख) दे० ‘बात बात में’। बात बात में=(क) जो कुछ कहा जाता हो प्रायः उन सब में। प्रायः हर बात में। जैसे—वह बात बात में झूठ बोलता है। (ख) बार बार। हर बार। (ग) दे० ‘बात बात पर’। बात है=कथन मात्र है। सत्य नहीं है। ठीक नहीं है। जैसे—वे निराहार रहते हैं, यह तो बात है। बातों का धनी=वह जो बातें तो बहुत-सी कह जाता हो, पर करता-धरता कुछ भी न हो। (व्यंग्य) मुहा०—(किसी की) बात उठाना=(क) किसी के आदेश, कथन आदि की अवज्ञा करना अथवा उसका पालन न करना। बात न मानना। (ख) किसी की कठोर बातें सहना। (अपनी) बात उलटना=एक बार कुछ कहकर फिर दूसरी बार कुछ और कहना। बात पलटना। (किसी की) बात उलटना=किसी की कही हुई बात के उत्तर में उसके विरुद्ध बात कहना। किसी की बात का आशालीनता या उद्दंडतापूर्वक उत्तर देना। (किसी की) बात काटना=(क) किसी के बोलते समय बीच में बोल उठना। बात में दखल देना। (ख) किसी के कथन या मत का खंडन या विरोध करना। बात खाली जाना=अनुरोध, आग्रह, प्रार्थना आदि का माना न जाना अथवा निष्फल सिद्ध होना। बात गढ़ना=झूठ बात कहना। मिथ्या प्रसंग की उद्भावना करना। बात बनाना। बात घूँटना या घूँट जाना=दे० नीचे ‘बात पी जाना।’ बात चबा जाना=(क) कुछ कहते कहते रुक जाना। (ख) एक बार कही हुई बात को छिपाने या दबाने के लिए किसी दूसरे या बदले हुए रूप में कहना। (मन में कोई) बात जमना या बैठना=अच्छी तरह समझ में आ जाना कि जो कुछ हमसे कहा गया है, वह ठीक है। बात टलना=कथन का अन्यथा सिद्ध होना। जैसे कहा गया हो, वैसा न होना। (किसी की) बात टालना=(क) पूछी हुई बात का ठीक जवाब न देकर इधर-उधर की और बात कहना। सुनी-अनसुनी करना। (ख) किसी के आदेश, कथन आदि की अवज्ञा करते हुए उसका पालन न करना। (किसी की) बात डालना=कहना न मानना। कथन का पालन न करना। जैसे—उनकी बात इस तरह टाली नहीं जा सकती। (किसी की) बात दोहराना=किसी की कही हुई बात का उलटकर जवाब देना। जैसे—बड़ों की बात दोहराते हो ! (किसी से) बात न करना=(क) घमंड के मारे किसी से बात-चीत करने को भी तैयार न होना। (ख) किसी को इतना तुच्छ या हीन समझना कि उससे बातें करने में भी अपना अपमान प्रतीत होता हो। (किसी की) बात नीचे डालना किसी बात पर ध्यान न देकर उसकी अवज्ञा करना। (किसी की) बात पकड़ना=किसी के कथन में पारस्परिक विरोध या दोष दिखना। किसी के कथन को उसी के कथन द्वारा अयुक्त सिद्ध करना। (किसी की) बात या (बातों) पर जाना=(क) बात का खयाल करना। बात पर ध्यान देना। जैसे—तुम भी लड़कों की बात पर जाते हो। (ख) किसी के कहने के अनुसार या भरोसे पर कोई काम करना। बात पलटना=दे० नीचे ‘बात बदलना’। बात पी जाना=(क) कोई अनुचित या अप्रिय घटना होने पर भी या इस प्रकार की कोई बात सुनकर भी उस पर ध्यान न देना। (ख) किसी कारण-वश कोई सुनी हुई बात अपने मन में ही रखना, दूसरों पर प्रकट न करना। (किसी पर) बात फेंकना=व्यंग्यपूर्ण बात कहना। बोली बोलना। बात फेरना=(क) चलते हुए प्रसंग को बीच में उड़ाकर कोई और बात छेड़ना। बात पलटना। (ख) किसी बात का समर्थन करते हुए उसकी प्रामाणिकता या महत्त्व बढ़ाना। बात बढ़ाना=साधारण सी बात का ऐसा रूप धारण करना कि झगड़ा-तकरार होने लगे। किसी बात का उग्र या विकट रूप धारण करना। (किसी की) बात बढ़ाना=किसी के कथन की पुष्टि या समर्थन करना अथवा उसका महत्त्व बढ़ना। (कोई) बात बढ़ाना=किसी घटना, प्रसंग, या विषय का व्यर्थ विस्तार करके उसे अनावश्यक तथा अनुचित रूप से उग्र या विकट रूप देना। फजूल का तूल देना। बात बदलना=गड़कर एक बार कोई बात कहना, और तब उससे मुकरने के लिए और बात कहना। बात बनाना=किसी कही हुई बात से अनी हानि होते देखकर उसे बदलने और अपने अनुकूल करने के लिए कोई नई बात कहना। बात (या बातें) मारना=(क) असल बात छिपाने के लिए इधर-उधर की बातें करना। (किसी पर) बात मारना=व्यंग्यपूर्ण बात कहना। बोली बोलना। बात मुँह पर लाना=चार आदमियों के सामने कोई बात कहना। बात में बात निकालना=बाल की खाल निकालना। किसी के कथन में यों ही व्यर्थ के दोष निकालना। (अपनी) बात रखना=(क) अपने कहे अनुसार करना। जैसा कहा हो, वैसा करना। प्रतिज्ञा या वचन का पालन करना। (ख) अपने कथन या बात के सम्बन्ध में अनुचित आग्रह या हठ करना। (किसी की) बात रखना=(क) कथन या आदेश का पालन करना। कहना मानना। (ख) किसी का आग्रह, प्रार्थना आदि मानकर उसकी इच्छा पूरी करना। बातें छाँटना या बघारना=(क) व्यर्थ तरह तरह की बातें कहना। (ख) बढ़-बढ़कर बातें करना। डींग हाँकना। बातें बनाना=(क) झूठ-मूठ इधर-उधर की बातें कहना। (ख) बहानेबाजी या हीला-हवाली करना। (ग) किसी को अनुरक्त या प्रसन्न करने के लिए चापलूसी की बातें कहना। बातें मिलाना=(क) किसी को प्रसन्न करने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिलाना। (ख) अपना दोष या भूल छिपाने के लिए इधर-उधर की बातें करना। (किसी की) बातें सुनना=कठोर वचन या डाँट-फटकार सुनना। जैसे—यदि तुम ठीक तरह से रहते तो आज तुम्हें इतना बातें न सुननी पड़तीं। (किसी को) बातें सुनाना=ऊँची-नीची या खरी-खोटी बातें कहना। कठोरतापूर्वक डाँटना-फटकारना। बातों में उड़ाना=(क) इधर-उधर की या व्यर्थ बातें कहकर असल बात दबाने का प्रयत्न करना। (ख) हँसी उड़ाते या तुच्छ ठहराते हुए टाल-मटोल करना। बातों में फुसलाना या बहलाना=किसी को केवल झूठा आश्वासन देकर उसका ध्यान किसी दूसरी ओर ले जाना। ३. दो या अधिक आदमियों में किसी विषय पर होनेवाला कथोपकथन। वार्तालाप। जैसे—आज तो बातों ही में दो घंटे बीत गये। पद—बात-चीत। (देखें) बातों बातों में=बात-चीत करते हुए। कथोपकथन के प्रसंग में। जैसे—बातों ही बातों में वह बिगड़ खड़ा हुआ। ४. किसी के साथ कोई व्यवहार सम्पन्न करने अथवा कोई संबंध स्थापित या स्थिर करने के लिए चलनेवाला कथोपकथन, प्रसंग या वार्तालाप। जैसे—(क) काम-धन्धे या रोजगार की बात। (ख) ब्याह-शादी की बात। मुहा०—बात ठहरना=किसी विषय में यह स्थिर होना कि ऐसा होगा। मामला तै होना। बात डालना=प्रस्ताव के रूप में किसी के सामने कोई विषय उपस्थित करना। मामला पेश करना। जैसे—चार भले आदमियों के बीच में यह बात डालकर निपटा लो। (अपनी) बात पर आना या रहना=अपने कहे हुए वचन के अनुसार ही काम करने के लिए प्रस्तुत होना या रहना। यह आग्रह या हठ करना कि जैसा मैंने कहा, वैसा ही हो। बात लगाना=विवाह संबंध स्थिर करने के लिए कहीं कहना, सुनना या प्रस्ताव रखना। बात हारना=ऐसी स्थिति में होना कि अपनी कही हुई बात या दिये हुए वचन का पालन करना आवश्यक हो जाय। जैंसे—मैं तो उनसे बात हार चुका हूँ, अब इधर-उधर नहीं हो सकता। ५. सामान्य रूप से होनेवाली किसी विषय की चर्चा। जिक्र। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—चलना।—छिड़ना।—पड़ना। मुहा०—बात चलाना, छेड़ना या निकालना=ऐसा प्रसंग उपस्थित करना कि किसी विषय या व्यक्ति के संबंध में कुथ बातें हों। चर्चा या जिक्र चलना। बात पड़ना=किसी विषय का प्रसंग प्राप्त होना। चर्चा आरंभ होना। जैसे—बात पड़ी, इसलिए मैंने कहा, नहीं तो मुझ से क्या मतलब ? बात मुँह पर लाना=(किसी विषय की) चर्चा कर बैठना। जैसे—किसी के सामने ऐसी बात मुँह पर नहीं लानी चाहिए। ६. कोई ऐसा कार्य या घटना जिसकी लोगों में विशेष चर्चा हो। लोक में प्रचलित कोई प्रसंग। मुहा०—बात उड़ना या फैलना=चारों ओर या बहुत से लोगों में चर्चा होना। बात नाचना=बात चारों ओर प्रसिद्ध होना या बहुत अच्छी तरह फैलना। विशेष प्रसिद्ध होना। उदा०—मेरे ख्याल परौ जनि कोऊ बात दसों दिसि नाची।—हितहरिवंश। बात बहना=किसी बात की चर्चा चारों ओर फैलना। उदा०—जो हम सुनति रहीं सो नाहीं, ऐसी ही यह बात बहानी।—सूर। ७. ऐसा कथन या कार्य जो ठीक या प्रामाणिक माना जा सकता हो अथवा सभी दृष्टियों में उचित समझा जा सकता हो। जैसे—भला यह भी कोई बात है। ८. विशेष महत्त्व का कोई कथन अथवा दृढ़, निश्चत या प्रामाणिक मत, विचार या सिद्धान्त। मुहा०—बात (किसी के) कान में पड़ना=बात का किसी के द्वारा इस प्रकार सुना जाना कि वह उसके भेद समझ जाय और उससे अनुचित लाभ उठा सके। जैसे—जहाँ यह बात किसी के कान में पड़ी, तहाँ सारा काम बिगड़ जायगा। ९. किसी विषय में किसी की कोई आज्ञा, आदेश, या उपदेश। नसीहत। सीख। जैसे—बड़ों की बात माननी चाहिए। मुहा०—(किसी की) बात आँचल या गाँठ में बाँधना=अच्छी तरह और सदा के लिए अपने ध्यान या मन में बैठाना। उपभोग या व्यवहार में लाने के लिए अच्छी तरह याद रखना। जैसे—हमारी यह नसीहत गाँठ में बाँध रखो, नहीं तो किसी समय बहुत पछताओगे। १॰. किसी काम या चीज में होनेवाला कोई विशिष्ट गुण या तत्त्व। जैसे—उसमें अगर कुछ बुरी बातें हैं तो कई अच्छी बातें भी हैं। ११. उक्ति, कथन या कार्य जिसमें कुछ विशिष्ट कौशल या चमत्कार हो, अथवा जिससे प्रभावित होकर लोग प्रशंसा करें। जैसे—(क) उनकी हर बात में एक बात होती है। (ख) वे साधारण कामों में भी एक नई बात पैदा कर देते हैं। (ग) तुम भी इन्हीं की तरह काम करके दिखलाओ, तब बात है। (घ) उसे हराना कोई बड़ी बात नहीं है। उदा०—कितक बात यह धनुष रुद्र को सकल विश्व कर लैहों।—सूर। पद—क्या बात है !=बहुत प्रशंसनीय काम या बात है। (साधारण रूप में भी और व्यंग्य के रूप में भी) जैसे—(क) क्या बात है ! बहुत सुन्दर चित्र बनाया है। (ख) आप बहुत बहादुर हैं, क्या बात है ! १२. कोई ऐसा कार्य या घटना जिससे कोई विशेष महत्त्व का प्रयोजन सिद्ध होता हो। जैसे—(क) ये सब झगड़ा छोड़ो, काम (या मतलब) की बात करो। क्रि० प्र०—करना।—कहना।—बनना।—बनाना।—बिगड़ना।—बिगाड़ना।—होना। १३. किसी के कथन, वचन, व्यवहार आदि की प्रामाणिकता। प्रतीति। साख। जैसे—(क) बाजार में उनकी बड़ी बात है। (ख) अब तुम बहुत झूठ बोलने लगे हो, इससे मित्र-मंडली में तुम्हारी बात नहीं रह गई। क्रि० प्र०—खोना।—गँवाना।—बनना।—बनाना। मुहा०—(किसी की) बात जाना=बात की प्रामाणिकता नष्ट हो जाना। एतबार या विश्वास न रह जाना। बात हेठी होना=बात की प्रामाणिकता या साख न रह जाना। विश्वास उठ जाने के कारण प्रतिष्ठा या मान में बहुत कमी होना। १४. किसी के गुण, महत्त्व आदि के विचार से उसके प्रति मन में उत्पन्न होनेवाला आदर-भाव। मुहा०—बात न पूछना=अवज्ञा के कारण ध्यान न देना। तुच्छ समझकर बात तक न करना। कुछ भी कदर न करना। जैसे—तुम्हारी यही चाल रही तो मारे-मारे फिरोगे, कोई बात न पूछेगा। उदा०—सिर हेठ ऊपर चरन संकट, बात नहिं पूछै कोऊ।—तुलसी। बात न पूछना=दशा पर ध्यान न देना। खयाल न करना। परवाह न करना। उदा०—मीन वियोग न सहि सकै नीर न पूछै बात।—सूर। बात पूछना=(क) खोज रखना। खबर लेना। सुख या दुःख है, इसका ध्यान रखना। (ख) आदर या कदर करना। १५. लोक या समाज में होनेवाली प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा। धाक। जैसे—बिरादरी (या शहर) में उनकी बड़ी बात है। क्रि० प्र०—खोना।—गँवाना।—जाना।—बनना।—बनाना।—बिगड़ना।—बिगाड़ना।—रखना।—रहना। १६. मन में छिपा हुआ अभिप्राय या आशय। मन का गूढ़ भाव या विचार। जैसे—तुम्हारे मन की बात कोई कैसे जाने। मुहा०—(मन में कोई) बात खौलना=किसी अभिप्राय या उद्देश्य के सिद्ध न हो सकने पर मन ही मन उसके सम्बन्ध में उद्वेग बना रहना। (मन में कोई) बात रखना=अपना अभिप्राय या उद्देश्य किसी पर प्रकट न होने देना। १७. कोई गुप्त या रहस्यमय तत्त्व या तथ्य। भेद या मर्म का प्रसंग या विषय। जैसे—(क) उसका आना मतलब से खाली नहीं है, जरूर इसमें कोई बात है। (ख) उसने मुझे ऐसी बात बतलाई कि मेरी आँखें खुल गईं। मुहा०—बात खुलना या फूटना=भेद, मर्म या रहस्य प्रकट होना। बात (या बात की तह) तक पहुँचना=दे० नीचे ‘बात पाना’। बात पाना=असल मतलब या गूढ़ तत्त्व समझ जाना। १८. कोई ऐसा अनुचित कथन या कार्य जिससे किसी पर कोई दोष या लांछन लगता या लग सकता हो। मुहा०—(किसी पर) बात आना=ऐसी स्थिति होना कि किसी पर कोई दोष या लांछन लग सकता हो। (किसी पर कोई) बात रखना, लगाना या लाना=किसी को दोषी सिद्ध करने का प्रयत्न करना। कलंक या दोष की बात किसी के सिर पर मढ़ना। १९. कोई ऐसा कथन या बात जो किसी को धोखा देकर अपना कोई दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करने के लिए की जाय। जैसे—उनकी बातों में मत आना, नहीं तो पछताओगे। मुहा०—बातें बनाना=किसी को कौशलपूर्वक अपने अनुकूल करने के लिए तरह-तरह की झूठी या बनावटी बातें कहना। (किसी की) बात (या बातों) पर जाना=(किसी की) बात (या बातें में आना। (किसी की) बात या बातों में आना=किसी की बातों पर विश्वास करके उनके अनुसार आचरण या व्यवहार करना। बात लगाना=किसी को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किसी दूसरे से उसकी कोई बात कहना। बातों में लगाना=किसी का ध्यान बाँटने या उसे किसी ओर प्रवृत्त होने से रोकने के लिए छलपूर्वक उससे इधर-उधर की बातें छेड़ना। जैसे—इधर तो उसने मुझे बातों में लगा रखा, और उधर अपना आदमी भेजकर अपना काम करा लिया। २॰. ऐसा झूठा या बनावटी कथन जो किसी को धोखा देने के लिए हो या जिसमें कोई बहानेबाजी हो। जैसे—यह सब उसकी बात (या बातें) हैं। २१. अपनी हैसियत, योग्यता, गुण, सामर्थ्य, आदि के संबंध में बढ़ा-चढ़ाकर किया जानेवाला उल्लेख। जैसे—अब तो वह बहुत लंबी-चौड़ी बातें करता है। पुं०=बात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
बात-चीत  : स्त्री० [हिं० बात+सं० चिंतन ?] १. दो या अधिक व्यक्तियों पक्षों आदि में परस्पर होनेवाली औपचारिक तथा मौखिक बातें। वार्तालाप। २. लेन-देन समझौता संधि आदि करने के उद्देश्य से होनेवाली मौखिक बातें या लिखा-पढ़ी। जैसे—ठेके की बात-चीत चल रही है।
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बात-फरोश  : पुं० [हिं० बात+फा० फ़रोश] [भाव० बात फरोशी] वह जो केवल उटपटाँग या व्यर्थ की बातें गढ़-गढ़कर सुनाता और उन्हीं के भरोसे अपने सब काम चलाता हो।
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बात-बनाऊ  : वि० [हिं० बात+बनाना] १. झूठ-मूठ व्यर्थ की बातें बनानेवाला। २. दूसरों का काम पूरा करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
बातड़  : वि० [सं० वातुल] १. वायु-युक्त। वायुवला। २. बात का प्रकोप उत्पन्न करनेवाला।
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बातप  : पुं० [सं० वाताप] हिरन (अनेकार्थ०)
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बातर  : पुं० [देश०] पंजाब में दान बोने का एक प्रकार।
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बातला  : पुं० [सं० बात०] एक प्रकार का योनि रोग जिसमें सूई चुभाने की सी पीड़ा होती है।
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बाताबी  : पुं० [बटेविया देश०] चकोतरा।
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बातासा  : पुं० [ष० त०] हवा। वायु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बातिन  : पुं० [अ०] [वि० बातिनी] १. किसी चीज का भीतरी भाग। २. अन्तःकरण।
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बातिनी  : वि० [अ०] १. भीतरी। २. अन्तःकरण का।
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बातिल  : वि० [अ०] १. जो सत्य न हो। झूठ। मिथ्या। २. निकम्मा। रद्दी। व्यर्थ। ३. नियम-विरुद्ध।
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बाती  : स्त्री० [सं० वर्ती] १. वह लकड़ी जो पान के खेत के ऊपर बिछाकर छप्पर छाते हैं। २. दे० ‘बत्ती’। स्त्री०=बात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बातुल  : वि० [सं० वातुल] पागल। सनकी। वि० [हिं० बात] १. बहुत बातें करनेवाला। बकवादी। २. बहुत बातें बनानेवाला। बातूनी।
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बातूनिया  : वि०=बातूनी।
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बातूनी  : वि० [हिं० बात+ऊनी (प्रत्यय)] १. जिसे बातें करने का चस्का हो। २. बहुत बढ़-चढ़कर और व्यर्थ की बातें करनेवाला।
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बाथ  : पुं० [?] अँकवार। अंक। उदाहरण—दृग मींचत मृग लोचनी धरयो उलटि भुज बाथ।—बिहारी।
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बाथी-खाना  :
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बाथू  : पुं० [सं० वस्तुक, प्रा० वत्थु] बथुआ नाम का साग।
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बाँद  : पुं०=बंदा (दास)
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बाद  : पुं० [सं० वाद] १. खंडन-मंडन की बात-चीत। तर्क-वितर्क। बहस-मुबाहसा। २. झगडा। तकरार। वाद-विवाद। क्रि० प्र०—बढ़ाना। ३. नाना प्रकार के तर्क-वितर्कों के द्वारा बात का किया जानेवाला व्यर्थ का विस्तार। उदाहरण—त्यों पद्याकर वेद पुरान पढयो पढ़ि के बहु वाद बढ़ायो।—पद्याकर। ४. प्रतिज्ञा। ५. बाजी। होड़। मुहावरा—बाद मेलना=शर्त बदना। बाजी लगाना। अव्यय [सं० वाद, हिं० वादि=वाद करके, हठ करके व्यर्थ] निष्प्रयोजन। बिना मतलब। व्यर्थ। अव्य० [अ०] १. पश्चात्। अनन्तर। पीछे। २. अतिरिक्त। सिवा। वि० किसी प्रकार के वर्ग से अलग या निकाला हुआ। जैसे—आमदनी में से खरच बाद करना, दाम में से लागत बाद करना। क्रि० प्र०—करना।—देना। पुं० १. छूट या दस्तूरी जो दाम में से काटी जाती हो। २. किसी अच्छी चीज में की वह घटिया मिलावट जो निकाली जाती हो या जिसके विचार से चीज या दाम घटता हो। जैसे—इस सोने में दो रत्ती टाँका (या तांबा) बाद जायगा। ४. देन, मूल्य आदि की वह कमी जो किसी चीज के खराब होने या बिगड़ने के फल-स्वरूप की जाती है। जैसे—पाले के कारण फसल में चार आने बाद है। (पूरब) पुं० [सं० बात से फा०] बात। हवा। पुं०=वाद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाद-कश  : पुं० [फा०] १. छत से लटकाने का पंखा। २. धौंकनी।
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बाद-गर्द  : पुं० [फा०] बवंडर। बगूला।
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बादना  : अ० [सं० वाद+हिं० ना (प्रत्यय)] १. बकवाद करना। २. तर्क-वितर्क करना। ३. झगडा या तकरार करना। जैसे—काहुहि बादिन देइअ दोसू।—तुलसी। ४. बढ़-चढ़कर बातें करना। उदाहरण—बादत बड़े सूर की नाई अवहिं लेत हौ प्रान तुम्हारे।—सूर। ५. ललकारना।
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बादनुमा  : पुं० [फा०] वायु के प्रवाह की दिशा सूचित करनेवाला एक प्रकार का यन्त्र। पवन प्रचार।
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बादबान  : पुं० [फा०] नाव या जहाज का पाल। पोटपट। मरूत्पट।
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बादबानी  : वि० [फा०] १. बादबान संबंधी। २. जिसमें बादबान लगाया जाता है। बादबान के द्वारा चलनेवाला।
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बाँदर  : पुं०=बंदर। (पश्चिम)।
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बादर  : वि० [सं० ] १. बदर या बेर नामक फल का, उससे उत्पन्न या उससे संबंध रखनेवाला। २. कपास या रुई से संबंध रखने या उससे बननेवाला। ३. भारी या मोटा। बारीक या सूक्ष्म का विपर्याय। पुं० नैऋत्य कोण का एक देश। (बृहत्संहिता) पुं० [?] १. कपास का पौधा २. कपास या रुई से बना हुआ। कपड़ा। वि० [?] आनंदित। प्रसन्न। पुं०=बादल। (मेघ)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बादरा  : स्त्री० [सं० बादर+टाप्] १. बदरी या बेर का पेड़। २. कपास का पौधा। ३. जल। पानी। ४. रेशम। ५. दक्षिणावर्त शंख। पुं०=बादल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बादरायण  : पुं० [सं० बदरी+फक्-आयन] वेदव्यास का एक नाम।
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बादरायण संबंध  : पुं० [कर्म० स०] बहुत खींचतानकर जोड़ा हुआ नाम मात्र का संबंध। बहुत दूर का लगाव या सम्बन्ध।
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बादरायण-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] ब्रह्मसूत्र।
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बादरिया  : स्त्री०=बदली (मेघ)।
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बादरी  : स्त्री०=बदली (मेघ)।
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बादल  : पुं० [सं० वारिद्, हिं० बादर] १. आकाश में होनेवाला जलकणों का वह जमाव जो वाष्प के हवा में घनीभूत होने पर होता है। मेघ। मुहावरा—बादलों का फट पड़ना=ऐसी घोर या भीषण वर्षा जो प्रलय का सा दृश्य उपस्थित कर दे। मेघस्फोट। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—उमड़ना।—गरजना।—घिरना।—चढ़ना।—छटना।—छाना।—फटना। २. लाक्षणिक अर्थ में, चारों ओर छाया रहने या मँड़रानेवाला तत्त्व या पदार्थ। जैसे—दुख के बादल धुएँ का बादल ३. एक प्रकार का पत्थर। जिस पर बैंगनी रंग की बादल की सी धारियाँ पड़ी होती है।
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बादला  : पुं० [हिं० पतला] सोने या चाँदी का चिपटा चमकीला तार जो गोटा बुनने या कलाबत्तू बटने और कपड़ों पर टांकने के काम आता है। कामदानी का तार।
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बादली  : स्त्री०=बदली।
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बादशाह  : पुं० [फा०] १. वह जो किसी बड़े साम्राज्य या शासक या स्वामी हो। सम्राट। २. वह जो किसी कला, कार्यक्षेत्र या वर्ग में सबसे बहुत बढ़-चढ़कर हो। जैसे—शायरों का बादशाह, झूठों का बादशाह। ३. वह जिसका आचरण या व्यवहार बादशाहों की तरह उच्च उदार या स्वेच्छापूर्वक हो। जैसे—तबीयत का बादशाह। ४. शतरंज का एक मोहरा जो सब मोहरों में प्रधान होता है। और किस्त लगने से पहले केवल एक बार घोड़े की चाल चलता है, यह मारा नहीं जाता। जब इसके चलने के लिए कोई घर नहीं रह जाता, तब खेल की हार मानी जाती है। ५. ताश का एक पत्ता जिस पर बादशाह की तस्वीर बनी रहती है।
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बादशाही  : वि० [फा०] १. बादशाह से संबंध रखनेवाला। २. बादशाहों की तरह का अर्थात् वैभवपूर्ण। जैसे—बादशाही ठाट। ३. शासन या राज्य संबंधी। स्त्री० १. बादशाह का राज्य या शासन। २. बादशाहों का सा मन-माना आचरण या व्यवहार। बाद-हवाई-क्रि० वि० [फा० बाद+हवा] फिजूल। व्यर्थ। वि० १. (काम या बात) जिसका कोई सिर पैर न हो। आधार, तत्त्व सार आदि से बिलकुल रहित। जैसे—तुम तो यों ही बादहवाई बातें किया करते हों।
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बादहिं  : अव्य० [हिं० बाद=व्यर्थ] व्यर्थ ही। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँदा  : पुं० [सं० वन्दाक] ऐसी वनस्पतियों का वर्ग जो भूमि पर नहीं उगती बल्कि दूसरे वृक्षों पर फैलकर उन्हीं की शाखाओं आदि का रस चूसती और अपना पोषण करती है।
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बादाम  : पुं० [फा०] १. मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष जो पश्चिमी एशिया में अधिकता से और पश्चिमी भारत (काश्मीर और पंजाब आदि) में कहीं-कहीं होता है। २. उक्त वृक्ष का फल जो मेवों में गिना जाता है और जिसकी गिरी पौष्टिक होती है।
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बादामा  : पुं० [फा० बादाम] १. एक प्रकारा का रेशमी कपड़ा। २. मुसलमान फकीरों के पहनने की एक प्रकार की गुदड़ी।
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बादामी  : वि० [फा० बदाम+ई (प्रत्यय)] १. बादाम के ऊपरी कठोर छिलके के रंग का। २. बादाम के आकार-प्रकार का। लंबोतरा। गोलाकार। जैसे—बादायमी आँख, बादामी मोती। पुं० १. बादाम के छिलके की तरह का ऐसा लाल रंग जिसमे कुछ पीलापन भी मिला हो। २. एक प्रकार का धान। ३. एक प्रकार की लंबोतरी गोलाकार डिबिया जिसमें स्त्रियाँ गहने आदि रखती हैं ४. बादशाही महलों में ऐसा हिजड़ा जिसकी इंद्रिय बहुत ही छोटी या बादाम की तरह होती है। ५. बादाम के रंग का घोड़ा। ६. एक प्रकार की छोटी चिड़िया जो पानी के किनारे रहती है और मछलियाँ खाती हैं। किलकिला।
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बादि  : अव्य० [सं० वादि०] व्यर्थ। निष्प्रयोजन। फिजूल। निष्फल। पुं० [सं० वाजिन्] घोड़ा। उदाहरण—बादि मेलि कै खेल पसारा।—जायसी।
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बादित  : भू० कृ०=वादित (बजाया हुआ)
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बादित्य  : पुं०=वादित्य।
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बादिया  : पुं० [देश] १. लोहारों का पेच बनाने का एक औजार। २. एक प्रकार का कटोरा।
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बादिहि  : अव्य० [हिं० बाद+हिं०] व्यर्थ ही। उदाहरण—जनम तौ बादिहि गयी सिराई।—सूर।
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बाँदी  : स्त्री० [हिं० बंदा का स्त्री०] लौंड़ी। दासी। पद—बाँदी का बेटा=(क) वह जो पूरी तरह से अपने अधीन कर लिया गया हो। (ख) तुच्छ हीन। (ग) वर्णसंकर। दोगला। पुं० [फा० बंदी] कैदी। कारावासी।
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बादी  : वि० [फा० बाद=हवा०] १. वात सम्बन्धी। वायु संबंधी। २. शरीर के वायु संबंधी विकार के कारण होनेवाला। जैसे—बादी बवासीर। ३. शरीर में वात या वायु का विकार उत्पन्न करनेवाला। जैसे—मटर बहुत बादी होता है। स्त्री० शरीर की वायु के बिगड़ने के कारण होनेवाला प्रकाप। स्त्री० [देश०] लोहारों का वह औजार जिससे वे लोहे पर सिकली करते हैं। वि०, पुं०=वादी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बादी-बवासीर  : स्त्री० [हि०] बवासीर के दो भेदों में से एक जिसमें मस्सों में से खून नहीं निकलता। (खूनी बवासीर से भिन्न)
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बादीगर  : पुं०=बाजीगर।
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बादुर  : पुं० [हि० गादुर] चमगादड़।
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बाँदू  : पुं० [फा० बंदी] कैदी। कारावासी।
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बादूना  : पुं० [देश०] हलवाइयों का एक उपकरण जो घेवर नाम की मिठाई बनाने के काम आता है।
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बाँध  : पुं० [हिं० बाँधना] १. बाँधने की क्रिया या भाव। २. वह बंधन जो किसी बात को रोकने या उसके आगे बढ़ने पर नियंत्रण रखने के लिए लगाया जाता हो। (बार) ३. जलाशय का जल फैलने से रोकने के लिए उसके किनारे लगाया हुआ मिट्टी, पत्थर आदि का धुस। पुश्ता। बंद। (एम्बैन्कमेन्ट) ४. वह वास्तु-रचना जो किसी नदी की धारा को रोकने के लिए अथवा किसी ओर प्रवृत्त करने के लिए बनायी गयी हो। (डैम) जैसे—भाँखरा या हीराकुंड बाँध। ५. लाक्षणिक अर्थ में दिखावे, शोभा आदि के लिए किसी चीज के ऊपर बाँधी हुई दूसरी चीज। मुहावरा—बाँध बाँधना=आडम्बर रचना।
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बाध  : पुं० [सं०√वाध् (रोकना)+घञ्] [वि० बाध्य, भाव० बाधता; कर्ता बाधक] १. अड़चन। बाधा। २. कठिनता। दिक्कत। मुश्किल। ३. साहित्य में किसी कथन या प्रतिपादन में आनेवाली वह असंगति या कठिनता जो उसके अर्थ, आशय या वाक्य-रचना में तर्क-संगत सम्बन्ध के अभाव के कारण स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे—जहाँ वाच्यार्थ ग्रहण करने में अर्थ की बाधा हो वहाँ लथ्यार्थ ग्रहण करना चाहिए। ४. तर्क या न्याय में वह पक्ष जिसमें सांध्य का अभाव-सा दिखाई देता हो। ५. आज कल किसी प्रकार की उन्नति, आदि के मार्ग में किसी विशिष्ट उद्देश्य से खड़ी की जानेवाली वह रुकावट जिसे पार करने के लिए विशिष्ट कार्यक्षमता योग्यता, स्थिति आदि दिखानी पड़ती हो। जैसे—बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियों में कर्मचारियों को समय समय पर कई बाध पार करने पड़ते हैं। (बार, उक्त सभी अर्थो में) ६. कष्ट। पीड़ा। पुं० [सं० बद्ध] [स्त्री० बाधी] मूँज की रस्सी जो प्रायः साधारण चारपाइयाँ बुनने के काम आती है।
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बाधक  : वि० [सं० बाध् (रोकना)+ण्वुल्,-अक] [स्त्री० बाधिका, भाव० बाधकता] १. बाधा के रूप में होनेवाला। २. बाधा अर्थात् विघ्न उत्पन्न करनेवाला। ३. किसी काम में अड़चन डालनेवाला। ४. ऐसा कष्टदायक जो कुछ हानिकारक भी हो। पुं० स्त्रियों का एक रोग जिसमें उन्हें संतति नहीं होती या संतति होने में बड़ी पीड़ा या कठिनता होती है।
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बाधकता  : स्त्री० [सं० बाधक+तल्+टाप्] १. बाधक होने की अवस्था या भाव। २. बाधा।
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बाधण  : पुं०=बढ़ना। उदा०—बाधण लागा बधाइहार।—प्रिथीराज। स०=बाधना।
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बाधन  : पुं० [सं०√बाध् (रोकना)]+ल्युट्—अन] [वि० बाधित बाधनीय, बाध्य] १. बाधा या विघ्न उत्पन्न करने या रुकावट डालने की किसी या भाव। २. कष्ट देना। पीड़ित करना। ३. किसी अनुचित या निदनीय काम में संबंध में होने वाली मनाही। ४. दे० अभिनिषेध’।
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बाँधना  : स० [सं० बंधन] १. डोरी, रस्सी आदि कसकर किसी चीज के चारों ओर लपेटना। जैसे—घाव पर पट्टी बाँधना २. डोरी, रस्सी आदि के द्वारा किसी एक चीज के साथ आबद्ध करना। जैसे— कमर में पेटी या नाड़ा बाँधना। ३. रस्सी आदि के दो छोरों को गाँठ लगाकर आपस में जोड़ना या सम्बद्ध करना। मुहावरा—गाँठ बाँधना=दे० ‘गाँठ’ के अन्तर्गत। ४. रस्सी आदि के बनाये हुए फंदे में कोई चीज इस प्रकार फँसाना कि वह छूटने निकलने या भागने न पाये। जैसे—गौ या भैस बाँधना। ५. पुस्तक के फरमों की इस प्रकार सिलाई करना कि वे एक ओर से आपस में जुड़े रहें, अलग-अलग न होने पायें और उनके ऊपर से दफ्ती आदि लगाना। जैसे—जिल्द बाँधना। ६. कागज, कपड़े आदि से किसी चीज को इस प्रकार लपेटना कि वह बाहर न निकल सके अथवा सुरक्षित रहे। जैसे—दवा की पुड़िया बाँधना, कपड़ों या किताबों की गठरी बाँधना। ७. ऐसी क्रिया करना कि जिससे कोई चीज किसी विशिष्ट क्षेत्र या सीमा में ही रहे, उससे आगे या बाहर न जाने पाये। जैसे—नदी में पानी बाँधना। ८. उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में किसी बात, भाव या विचार को इस प्रकार शब्दों में सजाना कि उससे कोई कोर-कसर त्रुटि या शिथिलता न रह जाय, अथवा उसे कोई विशिष्ट रूप प्राप्त हो जाय। ९. किसी व्यक्ति को कैद या बन्धन में डालना। बँधुआ बनाना। १॰. तंत्र-मंत्र आदि के प्रयोग से ऐसी क्रिया करना जिससे किसी की गति या शक्ति नियन्त्रित और सीमित हो जाय अथवा मनमाना काम न कर सके। जैसे—जादू के जोर से दर्शकों की नजर बाँधना, मन्त्र के बल से साँप को बाँधना (अर्थात् इधर-उधर बढ़ने में असमर्थता कर देना) ११. कोई ऐसी क्रिया करना जिससे दूसरा कोई किसी रूप में अधिकार या वश में आ जाय अथवा किसी रूप में विवश हो जाय। जैसे—किसी को प्रेमसूत्र में बाँधना। १२. किसी चीज को ऐसे रूप या स्थिति में लाना कि वह इधर-उधर न हो सके और अपने नये रूप या स्थान में यथावत् रहे। जैसे—किसी चूर्ण से गोली या लड्डू बाँधना, कमर में तलवार या कटार बाँधना। १३. कुछ विशिष्ट प्रकार की वास्तु-रचनाओं के प्रसंग में बनाक तैयार करना। जैसे—कुआँ घर नया पुल बाँधना। १४. बौद्धिक क्षेत्र या विचार के प्रसंग में, सोच-समझकर स्थिर करना। जैसे—बन्दिश बाँधना, मन्सूबा बाँधना १५. साहित्यिक क्षेत्र में किसी विषय के वर्णन कीरचना सामग्री एकत्र करके उसका ढाँचा खड़ा करना। जैसे—आलंकारिक वर्णन के लिए रूपक बाँधना, गजल में कोई मजमूत बाँधना। १६. ऐसी स्थिति में लाना कि नियमित रूप से अपना ठीक और पूरा काम कर सके या प्रभाव दिखला सके। जैसे—किसी की तनख्वाह या भत्ता बाँधना, किसी पर रंग बाँधना, किसी काम या बात का डौल या हिसाह बाँधना। १७. उपमा देना। सादृश्य स्थापित करना। उदाहरण—सब कद को सरो बाँधे है तू उसको ताड़ बाँध।—कोई कवि। अर्थात् सब लोग कद की उपमा सरो। (वृक्ष) से देते हैं तुम उसकी उपमा ताड़ वृ से दो। १८. उपक्रम या योजना करना।
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बाधना  : [सं० बाधन] १. बाधा डालना। रुकावट या विघ्न डालना। २. कष्ट देना पीड़ित करना। स्त्री० बाधा। उदा०—नाम रूप ईश की बाधना।—निराला। स० [सं० वर्द्धन] बढ़ाना। अ०=बढ़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बांधनिकेय  : पुं० [सं० बंधकी+ढक्-एय, इनङ] अविवाहिता स्त्री का जारज पुत्र।
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बाँधनी-पौरि  : स्त्री० [हिं० बाँधना+पौरि] वह घेरा या बाड़ा जिसमें पालतू पशुओं को बाँधकर रखा जाता है।
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बाँधनू  : पुं० [बाँधना] १. वह उपाय या उक्ति जो किसी कार्य को आरम्भ करने से पहले सोची या सोचकर स्थिर की जाती है। पहले से ठीक की हुई तस्वीर या स्थिर किया हुआ विचार। उपक्रम। मंसूबा। २. किसी सम्भावित बात के सम्बन्ध में पहले से किया जानेवाला सोच-विचार। क्रि० प्र०—बाँधना। ३. किसी पर लगाया जानेवाला झूठा अभियोग। ४. मनगढंत बात। ५. रँगने से पहले कपड़े में बेलबूटे या बुंदकियाँ रखने के लिए उसे जगह-जगह डोरी, गोटे या सूत से बाँधने की क्रिया या प्रणाली। पद—बाँधनू की रँगाई=कपड़े रंगने का वह प्रकार, जिसमें चुनरी, साड़ी आदि रँगने से पहले बुंदकियाँ डालने या कलात्मक आकृतियाँ बनाने के लिए उन्हें जगह-जगह सूतों से बाँधा जाता है। (टाई एण्ड डाई) ३. उक्त प्रकार से रँगी हुई चुनरी या साड़ी या और कोई ऐसा वस्त्र जो इस प्रकार बाँध कर रँगा गया हो उदाहरण—कहै पद्याकर त्यौ बाँधनू बसनवारी ब्रज वसनहारी ह्यौ हरनवारी है।—पद्याकर।
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बाँधव  : पुं० [सं० बन्धु+अण् स्वार्थ] १. भाई। बन्धु। २. नाते-रिश्ते के लोग। ३. घनिष्ट मित्र। गहरा दोस्त।
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बाँधव्य  : पुं० [सं० बांधव+ष्यञ्] १. बन्धु होने की अवस्था या भाव। बंधुता। २. रक्त-सम्बन्ध। नाता। रिश्ता।
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बाधा  : स्त्री० [सं०√ बाध्+अ+टाप्] १. वह बात या स्थिति जो किसी को आगे बढ़ने अथवा कोई काम संपादित करने से रोकती है। उन्नति या प्रगति में बाधक होनेवाली तत्त्व। (आब्स्टैकल) कि० प्र०—डालना।—देना।—पड़ना।—पहुँचना। २. कष्ट। संकट। ३. डर। भय। उदा०—कहु सठ तोहि न प्रान कै बाधा।—तुलसी। ४. भूत-प्रेत आदि के कारण होनेवाला कोई भौतिक या शारीरिक उपद्रव या कष्ट। जैसे—लोग कहते हैं कि उसे रोग नहीं है कोई बाधा है। पुं० [सं० वृद्धि] १. बढ़ती। वृद्धि। २. मुनाफा। लाभ। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाधित  : भू० कृ० [सं०√बाध्+क्त] १. जिसके मार्ग में बाधा खड़ी की गई हो। बाधा से जिसका मार्ग अवरुद्ध हो। २. जो किसी प्रकार की बाधा से ग्रस्त। निषिद्ध ठहराया हुआ। ५. दे० ‘अभिनिष्ठ’।
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बाधियता  : पुं० [सं०√ बाध् (रोकना)+ णिच्+तृच्] वह जो दूसरों के काम या मार्ग में बाधाएँ खड़ी करता हो।
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बाधिर्य  : पुं० [सं० बधिर+ ष्यञ्]=बघिरता (बहरापन)।
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बाधी (धिन्)  : वि० [सं० बाध+इनि, दीर्घ, नलोप] बाधा देनेवाला। बाधक।
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बाँधुआ  : वि० पुं०=बँधुआ।
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बाध्य  : वि० [सं० बाध् (रोकना)+ण्यत्] [भाव० बाध्यता] १. जिस पर कोई बाधा या बाधक तत्त्व लगा तो या लगाया गया हो। २. जो आज्ञा, नियम, मनोवेग, परिस्थिति आदि से कुछ करने में विवश हो मजबूर।
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बाध्य-रेता (तसं)  : पुं० [सं० ब० स०] क्लीब। नपुंसक।
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बान  : पुं० [सं० बाण] १. वाण। तीर। २. उक्त के आकार की एक प्रकार की अतिशबाजी जो उड़कर आकाश में जाती और वहाँ फुल-झड़ियाँ छोड़ती हैं। ३. नदी, समुद्र आदि में उठनेवाली ऊँची लहर। ४. वह छोटा डंडा जिसके दोनों सिरों पर गोलाकार लट्टू लगे होते हैं और जिससे धुनकी (कमान) की ताँत को झटका देकर धुनिए रूई धुनते हैं। पुं० [सं० वर्ण] १. रंग। वर्ण। २. आभा। कांति। चमक। स्त्री० [हिं० बनना] १. ऐसा अभ्यास या आदत जो बनते बनते स्वभाव का अंग बन गई हो। टेव। उदा०—होली के दिन मान न करिए, लाडली, कौन तिहारी बान। (होली) कि० प्र०—डालना।—पड़ना।—लगना। २. रचना-प्रकार। बनावट। पुं० [देश०] १. जड़हन (धान) रोपने के समय उतनी पेड़ियाँ जितनी एक साथ एक थान में रोपी जाती हैं। जड़हन के खेत में रोपी हुए धान की जूरी। कि० प्र०—बैठना।—रोपना। २. अफगानिस्तान से असम प्रदेश तक और प्रायः हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का वृक्ष। पुं० [हिं० बाध] खाट बुनने की मूँज की रस्सी। बाध। उदा०—सोने की वह नार कहावै बिना कसौटी बान दिखावे। (खाट या चारपाई की पहेली) पुं०=बाना (वेष)। प्रत्य० [फा०] देख-रेख या रखवाली करनेवाली। रक्षक। जैस—दरबान् निगहबान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानइत  : पुं०=बानैत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानक  : पुं० [सं० वार्णः; हि० बानक] १. भेस। वेष। २. सुन्दर बनावट या रूप। सज-धज सजावट। उदा०—या बानकी बट बानिक (बानक) या बन ही बनि आवै।—नन्ददास। ३. ढंग। तरीका। उदा०—जोग रत्नाकर में साँस घँटि बूड़ै, कौन ऊधो हम सूधो यह बानक विचार चुकीं।—रत्नाकर। ४. पीले या सफेद रंग का एक प्रकार का रेशम। पुं० [हिं० बनना] किसी घटना के घटित होने के लिए उपयुक्त परिस्थिति या संयोग। मुहा०—बानक बनना या बैठना= (क) किसी काम या बात के लिए बहुत ही उपयुक्त संयोग या सुयोग उपस्थित होना। उदा०—हम पतित तुम पतितपावन दोऊ बानक बने।—तुलसी। (ख) मेल या संगति बैठना।
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बानगी  : स्त्री० [सं० वार्ण
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बानना  : सं० [हिं० बना] १. किसी प्रकार या बात का बाना ग्रहण अथवा धारण करना। २. किसी काम या बात का उपकम करना। ठानना। उदा०—दिन उठि विषय-वासना बानत।—सूर। सं०=बनाना। उदा०—कदम तीर तै बुलायो गढ़ि गढ़ि बातै बानति।—सूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानबे  : वि० [सं० द्विनवति; प्रा० बाणवइ] जो गिनती में नब्बे से दो अधिक हो। दो ऊपर नब्बे। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—९२।
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बानर  : पुं० [सं० वानर] [स्त्री० बानरी] बंदर।
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बानवर  : पुं० [?] बत्तखों की जाति की काले रंग की एक प्रकार की बड़ी चिड़िया जो लगभग तीन फुट की होती है। साँप जैसी लम्बी और पतली गरदन के कारण इसे ‘नागिन’ भी कहते हैं।
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बाना  : पुं० [सं० वार्ण
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बानात  : स्त्री०=बनात (कपड़ा)।
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बानावरी  : स्त्री० [हि० बाण+आवरी (प्रत्य०)] बाण चलाने की विद्या या ढंग।
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बानि  : स्त्री० [सं० वार्ण
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बानिक  : पुं०=बानक। पुं०=वणिक्। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानिज  : पुं०=वाणिज्य।
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बानिन  : स्त्री० [हिं० बनी=बनिया] बनिया जाति की या बनिये की स्त्री।
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बानिया  : पुं० [सं० वणिक्] [स्त्री० बानिन]=बनिया।
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बानी  : स्त्री० [सं० वाणी] १. मुँह से निकला हुआ सार्थक शब्द, बात या वचन। २. दृढ़ता या प्रतिज्ञापूर्वक कही हुई बात। ३. साधु-महात्माओं की उपदेशपूर्ण बात। जैसे—कबीर, दादू या नानक की बानी। ४. मनौती। मन्नत। ५. सरस्वती। ६. दे० ‘वाणी’। स्त्री० [सं० वाण] बाना नामक हथियार। स्त्री० [सं० वर्ण] १. रंग। वर्ण। २. आभा। कांति। चमक। जैसे—बारह बानी का सोना। (दे० ‘बारह बानी’) उदा०—एक रूप बानी जाके पानी की रहति है।—सेनापति। ३. एक प्रकार की पीली मिट्टी जिससे पकाये जाने से पहले मिट्टी के बरतन रंगे जाते है। कपसा। वि० [फा] १. किसी काम या बात की बुनियाद (नींव) डालने या जड़ जमानेवाला। २. आरंभिक या मूल प्रवर्तक। पुं० [सं० वणिक्] बनिया।
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बानैत  : पुं० [हि० बाना+ऐत (प्रत्य०)] १. वह जो बाना चलाता या फेरता हो। २. वह जो कोई बाना या वेष धारण किये हो। पुं० [हिं० बान=तीर] १. वह जो तीर चलाता हो। तीरंदाज। २. योद्धा। सैनिक। बानो
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बाप  : पुं० [सं० वाप=बीज बोनेवाला] पिता। जनक। पद—बाप का=पैतृक। बाप-दादा=पूर्व-पुरुष। पूर्वज। बाप-माँ=सब सब प्रकार से पालन और रक्षण करनेवाला। जैसे—सरकार बाप-माँ हैं, जो चाहें सो कहें। बाप रे !=बहुत अधिक आश्चर्य, भय, संकट आदि के समय कहा जानेवाला पद। मुहा०—(किसी का) बाप-दादा बखानना=किसी के बाप-दादा के दुर्गुण बतलाते हुए उन्हें गालियाँ देना और उनकी निदा करना। (किसी को) बाप बनाना=(क) बहुत अधिक आदरपूर्वक अपना पूज्य और बड़ा बनाना। (ख) अपना काम निकालने के लिए खुशामद करते हुए बहुत आदर-सम्मान प्रकट करना।
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बापा  : पुं०=बप्पा।
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बापिका  : स्त्री० वापिका (बावली)।
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बापी  : स्त्री०=वापी (बावली)।
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बापु  : पुं०=वाप।
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बापुरा  : वि० [?] [स्त्री० बापुरी] १. जिसकी कोई गिनती न हो। तुच्छ। हीन। २. जिसकी देख-रेख करने, बात पूछने या रक्षा करनेवाला कोई न हो। बेचारा।
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बापू  : पुं० [फा० बाप] १. बाप। पिता। २. पिता तुल्य कोई वृद्ध पुरुष। ३. महात्मा गांधी के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक आदरसूचक शब्द।
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बापूकारना  : स० [हिं० बापू+कारना (प्रत्य०)] ‘बापू’ कहकर ललकारना। (राज०) उदा०—बेली तदि बालभद्र बापूकारे।—प्रिथीराज।
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बापोती  : स्त्री०=बपौती।
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बाफ  : वि० [फा० बाफ०] १. बुननेवाला। जैसे—जर-बाफ, दरी-बाफ। २. बुना हुआ। स्त्री०=भाप (वाष्प)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाफता  : पुं० [फा० बाफ्तः] एक प्रकार का बूटीदार रेशमी कपड़ा।
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बाँब  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मछली जो साँप के आकार की होती है।
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बाब  : पुं० [अ०] १. पुस्तक का कोई विभाग। परिच्छेद। २. मुकदमा। ३. तरह। प्रकार। ४. विषय। ५. अभिप्राय। आशय। मतलब।
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बाबड़ी  : स्त्री०=बावरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबत  : स्त्री० [अ०] १. संबंध। २. विषय। अव्य विषय या संबंध में। जैसे—इसकी बाबत आप की क्या राय है ?
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बाबननेट  : स्त्री० [अ० बाबिननेट]=बाबरलेट।
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बाबर  : पुं० [फा०] भारत में मुगल राज्य की स्थापना करनेवाला एक प्रसिद्ध सम्राट।
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बाबरची  : पुं०=बावरची।
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बाबरलैट  : स्त्री० [अ० बाबनिनेट] एक प्रकार का जालीदार कपड़ा जिसमें गोल या छकोने छोटे-छोटे छेद होते हैं।
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बाबरी  : स्त्री० [हिं० बबर=सिंह] १. सिर के बढ़ाये हुए लंबे बाल। २. पट्टा। जुल्फ़।
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बाबल  : पुं०=बाबुल (पिता या बाप)। उदा०—बाबल वैद बुलाइया रे पकड़ दिखाई म्हाँरी बाँह।—मीराँ।
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बाबस  : वि० [सं० विवश] १. लाचार। विवश। २. निराश। हताश।
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बाबा  : पुं० [सं० वाप; प्रा० बप्प] १. पिता। २. पितामह। दादा। ३. बड़े बूढ़ों के लिए आदरसूचक सम्बोधन। ४. किसी भले आदमी विशेषतः साधु-महात्माओं के लिए आदरसूचक सम्बोधन। ५. लड़कों के लिए स्नेहसूचक सम्बोधन।
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बाँबा घोड़ी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का रत्न जो लहसुनिया की जाति का होता है।
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बाँबाँ रथी  : पुं० [सं० वामन] वामन। बौना। बहुत ठिगना।
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बाबिल  : पुं० [बाबुल देश] एशिया खंड काएक अति प्राचीन नगर जो फारस के पश्चिम फरात नदी के किनारे था। (बैबिलोन)
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बाँबी  : स्त्री० [सं० वम्री] १. दीमकों द्वारा बनाया हुआ मिट्टी का स्थान जो रेखाकार होता है। बँबीठा। २. साँप का बिल।
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बाबी  : स्त्री० [हिं० बाबा] १. साधु स्त्री। संन्यासी। २. लड़कियों के लिए स्नेह सूचक सम्बोधन।
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बाबीहा  : पुं० पपीहा। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबुना  : पुं०=बाबूना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबू  : पुं० [हिं० बाप या बाबा] १. एक प्रकार का आदरसूचक शब्द जिसका प्रयोग पहले राजाओं आदि के सम्बन्धियों के लिए होता था, और अब सभी प्रकार के प्रतिष्ठित क्षत्रियों, वैश्यों आदि के नाम के साथ होता है। जैसे—बाबू महादेवप्रसाद। २. पिता या बड़ों के लिए सम्बोधन।
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बाबूड़ा  : पुं० [हिं० बाबू+ डा (प्रत्य)] ‘बाबू’ के लिए उपेक्षा सूचक शब्द। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबूना  : पुं० [देश०] १. पीले रंग का एक पक्षी जिसकी आँखों के ऊपर का रंग सफ़ेद, चोंच काली और आँखें लाल होती हैं। २. एक प्रकार का छोटा पौधा जो फारस और युरोप में होता है।
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बाबूल  : पुं० [हि० बाबा] १. बाबू। २. पिता। बाप। पुं०=बाबिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँभन  : पुं०=ब्राह्यण।
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बाभन  : पुं० १. दे० ‘ब्राह्यण’। २. दे० ‘भूमिहार’।
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बाँभी  : स्त्री०=बाँबी।
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बाम  : पुं० [फा०] १. अटारी। कोठा। २. घर में सबसे ऊपर का कोठा और छत। ३. लंबाई, ऊँचाई आदि नापने का एक मान जो साढ़ै तीन हाथ का होता है। पुरसा। स्त्री० [सं० ब्राह्यी] १. एक प्रकार की मछली जो देखने में साँप सी पतली, गोल और लंबी होती है। २. कान में पहनने का एक गहना। स्त्री०=बामा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बामदेव  : पुं०=बामदेव।
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बामन  : पुं०=वामन।
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बामा  : स्त्री०=वामा।
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बामी  : स्त्री० १. दे० ‘बाँबी’। २. दे० ‘लाही’।
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बायँ  : वि० [सं० वाम] १. (निशना) जो अपने ठीक लक्ष्य पर न लगा हो। चूका हुआ। मुहा०—बायें देना=(क) किसी के वार करने पर इस प्रकार इधर-उधर हो जाना कि आघात न लगने पावे। (ख) उपेक्षापूर्वक छोड़ देना। ध्यान न देना। जाने देना। (ग) किसी के चारों ओर चक्कर या फेरा लगाना। २. दे० ‘बायाँ’। स्त्री० [अनु०] पशुओं आदि के मुँह के निकलनेवाला बाँ बाँ या बाँये बाँये शब्द
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बाय  : स्त्री० [सं० वाय] १. वाय हवा। २. शरीर में होनेवाला वात का प्रकोप। बाई। स्त्री०= बावली (वापी)। उदा०—अति अगाध अति औथरौ नदी, कूप, सर, बाय।—बिहारी।
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बायक  : पुं० [सं० वाचक] १. वाचक। २. वक्ता। ३. पढ़नेवाला। पाठक। ४. दूत।
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बायकाट  : अव्य० [अं०] बहिष्कार। (देखें)
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बायद व शायद  : अन्य० [फा०] ऐसा अच्छा जैसा होना चाहिए, फिर भी जैसा बहुत कम होता या सिर्फ कभी कभी दिखाई देता हो। जैसे—उसने ऐसे अनोखे करतब दिखाये कि बायद व शायद।
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बायन  : पुं० [सं० वायन] १. वह मिठाई या पकवान आदि जो लोग उत्सव आदि के उपलक्ष में अपने इष्ट-मित्रों के यहाँ भेजते हैं। बैना। २. उपहार। भेंट। ३. किसी काम या बात का निश्चय करने के लिए उसके सम्बन्ध में पहले से दिया जानेवाला धन। पेशगी। बयाना। कि० प्र०—देना।—पाना—मिलना—लेना। मुहा०—बायन देना= किसी के साथ कोई ऐसा व्यवहार करना, जिसका बदला उसे आगे चलकर चुकाना पड़े। उदा०—भले भवन अब बायन दीन्हा।—तुलसी।
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बायबरंग  : स्त्री०=बायबिडंग।
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बायबिडंग  : स्त्री० [सं० बिडंग] एक लचचा जो हिमालय पर्वत, लंका और बरमा में होती है।
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बायबिल  : स्त्री०=बाइबिल।
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बायबी  : विं० [सं० वायवीय] ऐसा अपरिचित या बाहरी जिससे किसी प्रकार की आत्मीयता या संबंध न हो।
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बायरा  : पुं० [देश०] कुश्ती का एक पेंच।
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बायल  : वि० [हिं, बायाँ, बयँ] १. (प्रहार या वार) जो खाली गया या निष्फल हुआ हो। कि० प्र०—जाना।—देना। २. (जूए का दाँव) जो खाली गया हो और किसी का न आया हो। कि० प्र०—जाना। बायलर
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बायल  : वि, [हिं, बाय+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० बायली] शरीर में वायु का विकार उत्पन्न करने या बढ़ानेवाला। जैसे—किसी को बैंगन बायला किसी को बैंगन पथ्य। (कहा०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बायली  : वि०=बायबी।
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बायव्य  : पुं०=वायव्य।
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बायस  : पुं०=वायस।
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बाँया  : वि०=बायाँ।
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बायाँ  : वि० [सं० वाम] [स्त्री० बाईं] १. शरीर के उस पक्ष से संबंध रखनेवाला अथवा होनेवाला जो शरीरिक दृष्टि से अपने विपरीत पक्ष से कुछ दुर्बल और कम कर्मशील होता है। ‘दाहिना’ का विपर्याय। जैसे—बायाँ हाथ, बाई आँख। 2, जिस ओर उक्त पक्ष हो, उस ओर में स्थित होनेवाला। मुहा०—बायाँ देना=(क) किनारे से निकल जाना। (ख) उपेक्षा पूर्वक छोड़ देना। ३. मकानों आदि के संबंध में, उनके मुख्य द्वार की ओर पीठ करके खड़े होने पर बायें हाथ की ओर का। ४. चित्र के उस पार्श्व से संबंध रखनेवाला जिस ओर द्रष्टा का बायाँ हाथ हो (चित्र का वस्तुतः यह दाहिना पक्ष होता है)। ५. उलटा। ‘सीधा’ का विपर्याय। ६. प्रतिकूल। विरुद्ध। कूल। विरुद्ध। पुं० तबले के साथ प्रायः वाएँ हाथ से बजाया जानेवाला उसका जोड़ डुग्गी।
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बायें  : अव्य, [हिं० बायाँ] १. जिस ओर बायाँ हाथ पड़ता हो उस ओर। बाईं ओर। बाईं तरफ। २. विपरीत पक्ष में। ३. प्रतिकूल या विरुद्ध रुप में। 4. अप्रसन्न और असन्तुष्ट रहकर या होकर।
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बार  : पुं० [सं० दवार] १. द्वार। दरवाजा। उदा०—हस्ति सिंधली बाँधे बारा।—जायसी। 2. आश्रय लेने की जगह। ठौर-ठिकाना। ३. राज-सभा दरबार। स्त्री० [सं० वार या वेला ?] १. काल। वक्त। समय। २. देर। बिलंब। उदा०—भइ बड़ि बार जाइ बलि भैया।—सूर। कि० प्र०—करना। लगाना—होना। पुं० [स० वारि] जल। पानी। स्त्री० [फा०] १. दफा। मरतबा। जैसे—पहली बार, दूसरी बार। पद—बार बार=रह-रहकर कुछ देर बाद। कई फिर। फिरफिर। पुनः। पुं० [सं० भार से फा०] १. बोझ। भार। कि० प्र०—उठाना।—रखना।—लादना। २. कहीं भेजने के लिए गाड़ी, जहाज आदि पर लादा जानेवाला माल। मुहा०—बार करना=जहाज पर माल लादना। (लश०) ३. वृक्षों आदि की पैदावार या फसल। स्त्री, [सं० वाट] १. किसी स्थान को घेरने के लिए बनाया हुआ घेरा। बाढ़। २. किनारा। छोर। सिरा। ३. हथियारों की तेज धार। बाढ़। ४. दे० ‘बारी’। पुं० [सं० बाल] बालक। लड़का। पुं०=बाल (सिर या शरीर के)। स्त्री०=बाला (युवती स्त्री)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बार-बधू  : स्त्री० [सं० वारवधू] वेश्या।
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बार-बधूटी  : स्त्री० [सं० वारवधूटी] वेश्या।
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बार-बरदार  : वि० [फा०] [भाव० बारबरदारी] भार उठानेवाला। बोझ ढोनेवाला।
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बार-बरदारी  : स्त्री० [फा०] १. माल या सामान ढोने की क्रिया या भाव। २. उक्त के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक या मजदूरी।
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बार-बाँटाई  : स्त्री० [फा० बार=बोझ+हिं० बाँधना] दाये जाने से पहले कटी हुई फसल का होनेवला बँटवारा।
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बार-मुखी  : स्त्री० [सं० वारमुख्या] वेश्या।
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बार-रुकाई  : स्त्री० [हिं० बार+रोकना] १. विवाह की एक रसम जिसमें लड़कीवाले के घर की स्त्रियाँ दरवाजे पर वर को रोककर कुछ नेग देती हैं।
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बारक  : अव्य० [हिं० बार+एक] एक दफा। एक बार। स्त्री०=बैरक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारककंत  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो साँप का विष दूर करनेवाला माना जाता है।
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बारगाह  : स्त्री० [फा०] १. ड्योढ़ी। २. खेमा। तंबू। ३. राजाओं आदि का दरबार। कचहरी। ४. राजमहल।
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बारगी  : वि० [फा० बारगाह] लड़ाई का एक ढंग या प्रकार। पुं० [फा०] अश्व। घोड़ा।
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बारगीर  : वि० [फा०] बोझ ढोनेवाला। भारवाहक। पुं० १. घोड़ों के लिए घास चारा काटकर लाने और सईस की सहायता करनेवाला घसियारा। २. मध्ययुग में वह सिपाही या सैनिक जो किसी राजा या सरदार के घोड़े पर चढ़कर युद्ध आदि करता था। ३. घोड़ा। ४. ऊँट। ५. बैल।
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बारजा  : पुं० [हिं० वार=द्वार+जा=जगह] १. मकान के सामने के दरवाजे के ऊपर पाटकर बढ़ाया हुआ छज्जा। बरामदा। २. कमरे के आगे का छोटा दालान। ३. छत के ऊपर का कमरा। अटारी। कोठा।
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बारण  : पुं०=वारण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारता  : स्त्री०=वार्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारतिय  : स्त्री० [हिं० बार+तिय] वेश्या।
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बारतुंडी  : स्त्री० [ब० स०] आलू का पेड़।
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बारदाना  : पुं० [फा० बारदानः] १. वह चीज जिसमें बोझ विशेषतः व्यापार के सामान बाँधे या रखे जाते हैं। जैसे—खुरजी, बोरा आदि। २. वे टाट आदि जिसमें बाँधकर माल के बड़े-बड़े गट्ठर बाहर भेजे जाते हैं। ३. फौज के खाने-पीने की सामग्री। रसद। ४. टूटी-फूटी चीजें या सामान अंगड़-खंगड़।
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बारदार  : वि० [फा०] १. जिस पर किसी प्रकार का भार या बोज हो। २. (वृक्ष) जो फलों से भरा या लदा हो। ३. (स्त्री) जिसे गर्भ हो
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बारन  : पुं० [सं० वारण] हाथी। पुं०=वारण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारना  : अ० [सं० वारण] १. मना करना। २. बाधा डालना। स०=बालना (जलाना) स०=वारना (निछावर करना)।
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बारनिश  : स्त्री०=वारनिश।
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बारंबार  : अव्य० [सं० वारंवार] अनेक, कई या बहुत बार। पुनः पुनः।
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बारवा  : स्त्री० [देश०] एक रागिनी जिसे कुछ लोग श्री राग की पुत्रवधू मानते हैं।
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बारह  : वि० [सं० द्रादश, प्रा० बारस, अप० बारह] [वि० बारहवीं] जो संख्या में दस और दो हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—१२।
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बारह टोपी  : स्त्री० [हि०] १. मध्ययुग में यूरोप के बारह प्रमुख राष्ट्र जो अपने टोपों की विभिन्नता के कारण प्रसिद्ध थे। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारह पत्थर  : पुं० [हिं० बारह+पत्थर] १. वे बारह पत्थर जो पहिले छावनी की सरहद पर गाड़े जाते थे। २. सैनिक शिविर। छावनी।
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बारह बाट  : पुं० [हि०] १. इधर-उधर फैले हुए बहुत से मार्ग। जैसे—बारहबाट अठारह पैंड़। २. व्यर्थ का प्रसार या फैलाव। ३. किसी विषय में लोगों के ऐसे परस्पर विरोधी मत या विचार जो एकता, दृढ़ता आदि में बाधक हों। वि० १. छिन्न-भिन्न। तितर-बितर। २. नष्ट-भ्रष्ट। बरबाद। मुहावरा—बारह बाट करना या घालना=तितर-बितर या छिन्न-भिन्न करना। व्यर्थ इधर-उधर करके नष्ट करना। बारहबाट जाना या होना=(क) तितर-बितर होना। छिन्न-भिन्न होना। (ख) नष्ट-भ्रष्ट होना। बरबाद होना। ३. ऐसा निरर्थक जो घातक भी सिद्ध हो या हो सकता हो।
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बारह-खड़ी  : स्त्री० [सं० द्वादश+अक्षरी] १. अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं और अः इन बारह स्वरों की मात्राएँ क्रमात् प्रत्येक व्यंजन में लगाकर बोलने या लिखने की क्रिया। २. वह रूप जिसमें सभी व्यजनों में उक्त स्वर लगाकर दिखाये गये हों।
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बारह-बाना  : वि० [हि०] १. सूर्य के समान चमक-दमकवाला। २. खरा और चोखा। (सोना)।
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बारह-बानी  : वि० [सं० द्वादश (आदित्य)+वर्ण, पा० बारस, वण्ण] १. सूर्य के समान चमक-दमकवाला। बहुत चमकीला। २. (सोना) बिलकुल खरा चोखा या बढ़िया। ३. जिसमें कोई खोट, दोष या विकार न हो। निर्मल और स्वच्छ। ४. जिसमें कोई कसर या त्रुटि न हो। ठीक और पक्का। स्त्री० १. सूर्य की सी चमक। २. आभा। चमक दीप्ति। ३. बारह बाना सोना।
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बारह-वफात  : पुं० [हिं० बारह+अ० वफात] अरबी महीने रवी-उल-अव्वल की वे बारह तिथियाँ जिनमें मुसलमान के विश्वास के अनुसार मुहम्मद साहब बीमार रहकर अन्त में पर-लोकवासी हुए थे।
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बारहठ  : पुं० [सं० द्वारस्थ] राजपूताने केचारणों का एक भेद या वर्ग।
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बारहबान  : पुं० [सं० द्वादश, वर्ण] [वि० बारहबानी] एक प्रकार का खरा और बढ़िया सोना। पुं० [हिं० बारह+बाना] मध्ययुगीन भारत में अच्छे सैनिक के पास रहनेवाले ये बारह हथियार-कटार, कमान, चक्र, जमदाढ़, तमंचा, तलवार, बंदूक, बकतह, बाँस, बिछुआ और साँग।
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बारहमासा  : पुं०=[हिं० बारह+मास] वह पद्य या गीत जिसमें बारह महीनों की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुँह से कराया गया हो।
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बारहमासी  : वि० [हिं० बारह+मास] १. बारहों मास होनेवाला। २. वर्ष के बारहों महीनों में से अलग-अलग प्रत्येक भाग से सम्बन्ध रखनेवाला। जैसे—बारह-मासी। चित्रावली=ऐसी चित्रावली जिसमें चैत, वैशाख, जेठ आदि महीनों की प्राकृतिक स्थिति और उनके ध्यान अर्थात् कल्पित स्वरूपों के अलग-अलग चित्र हों। ३. सब ऋतुओं में फलने-फूलने वाला। ४. (काम या बात) जो बराबर या सदा हुआ करे।
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बारहरदी  : स्त्री० [हिं० बारह+फा० दर=दरवाजा] किसी इमारत का ऊपरवाला वह कमरा जिसमें चारों ओर तीन तीन दरवाजे अर्थात् कुल मिलाकर बारह दरवाजे हों।
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बारहवाँ  : वि० [हिं० बारह] [स्त्री० बारहवीँ] संख्या में बारह के स्थान पर पड़नेवाला।
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बारहसिंगा  : पुं० [हिं० बारह+सींग] एक प्रकार का बड़ा हिरन जो तीन चार फुट और सात आठ फुट लंबा होता है। नर के सीगों में कई शाखाएँ निकलती है। इसी से इसे बराहसिंगा कहते हैं। झिंकार। साल-साँभर।
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बारहाँ  : वि० [हिं० बारह] जो बारह (अर्थात् बहुत से) लोगों में सबसे प्रबल हो जैसे—बारहाँ गुंडा, बरहाँ मिस्तरी। वि० बहादुर। वीर। वि०=बाहहवाँ।
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बारहा  : अव्य० [फा०] अनेक बार। प्रायः बहुधा।
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बारही  : स्त्री०=बरही। (जन्म से बारहवाँ दिन)।
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बारही  : स्त्री०=वाराही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारहों  : पुं० [हिं० बारह] १. किसी मनुष्य के मरने के दिन से बारहवाँ दिन। बारहवाँ। द्वादशाह। २. बरही (जन्म से बारहवां दिन)।
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बाराँ  : वि० [फा०] बरसनेवाला। पुं० बरसनेवाला पानी। वर्षा। मेंह।
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बारा  : वि० [सं० बाल] छोटी अवस्थावाला। अल्पवस्यक ‘प्रौढ़’ या वयस्क का विपर्याय। जैसे—नन्हा बारा बच्चा। पद—बारे ते=बाल्यावस्था से ही। छोटे पन से ही। पुं० बच्चा। बालक। लड़का। पुं० [हिं० बाढ़=ऊंचा किनारा] १. वह कंगनी जो बेलन के सिरे पर लगी रहती है और जिसके फिरने से बेलन फिरता है २. जंते से तार खीचने का काम। पुं० [हिं० बारह] मृतक के बारहवें दिन होनेवाला भोज। पुं० [हि० वार०] वह दूध जो चरवाहा चौपायों को चराने के बदले में आठवें दिन पाता है। पुं० [?] १. वह आदमी जो कुएँ पर खड़ा होकर भरकर निकले हुए चरसे या मोट का पानी उलटकर गिराता है। २. वह गीत जो चरस या मोट खींचनेवाला उक्त समय पर गाता है।
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बारा-जोरी  : क्रि० वि०=बर-जोरी। (बल-पूर्वक)।
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बारात  : स्त्री०=बरात।
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बाराती  : पुं०=बराती।
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बारादरी  : स्त्री०=‘बारहदरी’।
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बारानी  : वि० [फा०] वर्षा संबंधी। बरसाती। स्त्री० १. ऐसी भूमि जिसकी सिंचाई केवल वर्षा के जल से होती हो। २. उक्त प्रकार की सिंचाई से अर्थात् वर्षा के जल में होनेवाली फसल ३. दे० ‘बरसाती’ (ओढ़ने का कपड़ा)।
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बाराह  : पुं०=वाराह (सूअर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाराही-कंद  : स्त्री०=वाराही कंद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारि  : पुं०=वारि। स्त्री०=बारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारिक  : पुं० [अं० बैरक] ऐसे बँगलों या मकानों की श्रेणी या समूह जिनमें फौज के सिपाही रहते हों। छावनी।
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बारिगर  : पुं० [हिं० बारी+फा० गर] हथियारों पर बाढ़ या सान रखनेवाला। सिकलीगर।
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बारिगह  : स्त्री०=बारगाह। उदाहरण—चिरउर सौहँ बारिगह तानी।—जायसी।
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बारिज  : पुं०=वारिज।
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बारिद  : पुं०=वारिद।
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बारिधर  : पुं० [सं० वारिधर] १. बादल। मेघ। २. एक वर्णवृत्त।
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बारिधि  : पुं०=वारिधि।
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बारिवाह  : पुं० [सं० वारि+वाह०] बादल।
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बारिश  : स्त्री० [फा०] [वि० बारिशी] १. वर्षा। वृष्टि। २. वर्षा ऋतु। बरसात।
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बारिस्टर  : पुं०=बैरिस्टर।
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बारी  : स्त्री० [सं० अव्वार] १. किनारा। तट। २. किसी प्रकार के विस्तार का अंतिम सिरा। किनारा। हाशिया। ३. खेतों, बगीचों आदि के चारों ओर या किसी पार्श्व में खड़ा किया जानेवाला घेरा। बाढ़। ४. किसी प्रकार का उठा हुआ किनारा या घेरा। अवँठ। जैसे—कटोरी या थाली की बारी। ५. किसी प्रकार का पैना किनारा या सिरा। धार। बाढ़। स्त्री० [हिं० वाटी, वाटिका] १. वह स्थान जहाँ बहुत से पेड़ लगाये गये हों। जैसे—आम की बारी। २. उपवन। बगीचा। ३. बगीचे का माली। बागवान। उदाहरण—बारी आइ पुकारै, लिहै सबै कर पूँछ—जायसी। ४. खेतों बगीचों आदि में अलग किया हुआ विभाग। क्यारी। ५. घर। मकान। (दे० बाड़ी) ६. खिड़की। झरोखा। ७. जहाजों के ठहरने की जगह। बंदरगाह। ८. रास्ते में बिखरे हुए काँटे या झाड़-झंखाड़। (पालकी ढोनेवाले कहार) पुं० हिदुओं में दोने, पत्तले आदि बनानेवाली एक जाति। स्त्री० [फा० बारी] १. थोड़े-थोड़े समय या रह-रह कर होनेवाला कामों के संबंध में क्रम से हर बार। आनेवाला अवस या समय। पारी। जैसे—(क) पहले लड़के के बाद दूसरे लड़के की और दूसरे के बाद तीसरे की बारी आयगी। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—बंधना। २. उक्त प्रकार के क्रम में वह आदमी या चीज जिसे नियमतः अवसर मिलता हो, जिसे काम करना पड़ता हो या जिसका उपयोग होता हो। जैसे—आज सिपाही की पहरा देने की बारी है वह बीमार है। पद—बारी-बारी से=कालक्रम में एक के पीछे एक करके। अपनी बारी आने पर। समय के अंतर पर। जैसे—सब लोग एक साथ मत बोलो बारी-बारी से बोलो। स्त्री० दे० ‘बाली’। वि० हिं० ‘बारा’ का स्त्री। पुं० [अ०] ईश्वर। परमात्मा।
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बारीक  : वि० [फा०] [भाव० बारीकी] १. जिसका तल बहुत पतला हो। बहुत ही थोड़ी मोटाईवाला। महीन। जैसे—बारीक मलमल। २. जिसका घेरा या मोटाई बहुत ही कम हो। पतला। जैसे—बारीक तार बारीक सूत। ३. जिसके अणु या कण बहुत ही छोटे या सूक्ष्म हों। जैसे—बारीक आटा। ४. (विचार) जिसमें भावों के बहुत ही सूक्ष्म अन्तर हों, और इसलिए जो सहसा सबकी समझ में न आता हो। जैसे—पारीक फरक, बारीक बात। ५. गूढ़। ६. जटिल।
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बारीका  : पुं० [फा० बारीक] चित्रकारी में रेखाएँ खींचने की एक तरह की महीन कलम।
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बारीका  : स्त्री० [फा०] १. बारीक होने की अवस्था या भाव। सूक्ष्मता। क्रि० प्र०—निकालना। २. गूढ़ता। २. जटिलता।
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बारीदार  : पुं० [हिं० बारी=पारी+फा० दार प्रत्यय)] [स्त्री० बारीदरी, भाव० बारीदारी] पारी-पारी से परहा देनेवाले पहरेदारों मे से हर एक।
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बारीस  : पुं०=बारीश (समुद्र)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारुणी  : स्त्री०=बारुणी (मदिरा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारुन्न  : पुं० [सं० वारण] हाथी। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारू  : पुं०=बार (द्वार) उदाहरण—महिं घूँबिअ पाइअ नहिं बारू। जायसी। पुं०=बालू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारूत  : स्त्री० बारूद।
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बारूद  : स्त्री० [सं० वारूद (अग्नि) से फा०] १. गंधक, शोरे, कोयले आदि का वह मिश्रण जो विस्फोटक होता है और आतिशबाजी तथा तोपें, बन्दूकें आदि चलाने के काम आता है। पद—गोला बारूद=युद्ध में काम आनेवाली तोपें बंदूके उनके गोले-गोलियाँ तथा अन्य आवश्यक सामग्री। २. कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ जो जरा-सा सहारा पाकर बहुत भीषण परिणाम उत्पन्न करता या कर सकता हो।
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बारूदखाना  : पुं० [फा० बारूदखानः] वह स्थान जहाँ बारूद तैयार किया जाता अथवा सुरक्षित रखा जाता हो।
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बारूदी  : वि० [फा०] १. बारूद संबंधी। २. जिसमें बारूद हो अथवा रखा या छिपाया गया हो। जैसे—बारूदी सुरंग।
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बारे  : अव्य० [फा०] १. अंततः। आखिरकार। २. अस्तु। खैर। ३. चलो, अच्छा हुआ। कुशल है कि। जैसे—मुझे तो बहुत चिंता हो रही थी, बारे आप आ गये। अब काम हो जायगा। उदाहरण—हर महीने में कुढ़ाते थे मुझे फूल के दिन। बारे अब की तो मेरे टल गये मामूल के दिन।—रंगीन। पद—बारे में=(किसी के) प्रसंग विषय या सम्बन्ध में। विषय में। जैसे—उनके बारे में आपकी क्या राय है।
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बारोठा  : पुं०=बरोठा (द्वार)।
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बारोमीटर  : पुं०=बैरोमीटर।
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बार्डर  : पुं० [अ०] १. छोर। किनारा। २. धोती के किनारे पर की पट्टी। ३. सीमा। हद।
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बार्बर  : वि० [सं० बर्बर+अण्] १. बर्बर देश में उत्पन्न। बर्बर देश का। २. बर्बर सम्बन्धी। पुं० [अं०] नाई। हज्जाम।
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बार्ह  : वि० [सं० वर्ह+अण्] १. वर्हि या मोर सम्बन्धी। २. मोर के पंख का बना हुआ।
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बार्हस्पत्य  : वि० [सं० बृहस्पति+अण्] बृहस्पति सम्बन्धी। पुं० १. गणित ज्योतिष में सा संवत्सरों में से एक। २. नास्तिक भूतवादियों का लोकायत सम्प्रदाय जो गुरु बृहस्पति द्वारा प्रवर्तित माना गया है।
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बार्हिण  : वि० [सं० वर्हिण+अण्] मयूर सम्बन्धी। मोर का।
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बाल  : पुं० [सं०√बल् (जीवनदाता)+ण] [स्त्री० बाला] वह जो अभी जवान या सयाना न हुआ हो। बच्चा। बालक। पद—बाल-गोपाल=बाल बच्चे। संतान। (मंगला-भाषित) जैसे—बाल-गोपाल सुख रहे। (आर्शीवाद) २. वह जिसे समझ न हो। नासमझ। ३. किसी पशु का बच्चा। ४. नेत्रवाला। सुगंधवाला। वि० १. जो सयाना न हो। जो पूरी बाढ़ को न पहुँचा हो। २. जिसे अभी यथेष्ठ ज्ञान या समझ न हो। ३. जिसका आरंभ या उदय या जन्म हुए अभी अधिक समय न हुआ हो। जैसे—बाल इंदु। बाल रवि। स्त्री०=बाला (युवती स्त्री)। पुं० [सं० ] १. जीव-जन्तुओं के शरीर में, चमड़े में से ऊपर निकले हुए वे सूक्ष्म तंतु जो रोयों से कुछ अधिक बड़े और मोटे होते तथा प्रायः बढ़ते रहते हैं। केश। जैसे—दाढ़ी या मूँछ के बाल, सिर के बाल। क्रि० प्र०—गिरना।—झड़ना।—निकलना। पद—बाल बराबर या बाल-भर=(क) बहुत ही कम या थोड़ा। (ख) बहुत ही पतला महीन या सूक्ष्म। मुहावरा—नहाते समय भी बाल तक न खसना=नाम को बी किसी प्रकार का आघात न लगाना, या कष्ट अथवा हानि न होना। उदाहरण—नित उठि यही मनावति देवन न्हात खसै जनि बार।—सूर। बाल न बाँकना=दे० नीचे ‘बाल बाँका न होना’। उदाहरण—परै पहार न बाँकै बारु।—जायसी। (किसी काम में) बाल पकाना=(कोई काम करते-करते) बुड्ढे हो जाना। बहु दिनों का अनुभव प्राप्त करना। जैसे—मैनें भी सरकारी नौकरी में ही बाल पकाये हैं। बाल बनवाना=हजामत बनवाना। बाल बनाना=हजामत बनाना। बाल बाँका न होना=कुछ भी कष्ट या हानि न पहुँचना। पूर्ण रूप से सुरक्षित रहना। जैसे—निश्चित रहो, तुम्हारा बाल तक (या भी) बाँका न होगा। (दुर्घटना आदि से) बाल बाल बचना=बहुत ही थोड़े अन्तर या सकर के कारण दुर्घटना संकट आदि से बच जाना या सुरक्षित रह जाना। जैसे—मोटर का धक्का लगने (या मरने) से बाल-बाल बचना। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के चीजों के तल में आघात आदि से चटकने, दरकने, फटने आदि के कारण पड़नेवाली वह बहुत पतली धारी या रेखा जो देखने में शरीर के बाल की तरह होती है। जैसे—इस मोती या शीशे) में बाल आ गया है। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना। पुं० [सं० वल्ल या वलु=तीन रत्ती की तौल] किसी चीज का बहुत थोडा अंश। मुहावरा—बाल भर भी फरक न होना=नाममात्र का भी अन्तर न होना। स्त्री० कुछ अनाजों के पौधों के डंठल का वह अग्र भाग जिसके चारों ओर दाने निकले या लगे रहते हैं। जैसे—जौ या गेहूँ की बाल। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली। पुं० [अ० बाँल] १. गेंद। २. यूरोपीय ढंग का नाच।
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बाल-काल  : पुं० [सं० ष०त०] बालक होने की अवस्था। बाल्यावस्था। बचपन।
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बाल-कृष्ण  : पुं० [सं० कर्म० स०] बहुत छोटी या बाल्यावस्था के कृष्ण।
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बाल-केलि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लड़कों का खेल। खिलवाड़। २. ऐसा काम जिसमें बहुत ही थोड़ी बुद्धि या शक्ति लगती हो।
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बाल-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० ष० त०] वे खेल आदि जो छोटे-छोटे बच्चे किया करते हैं। लड़कों के खेल और काम।
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बाल-गोपाल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बाल्यावस्था के कृष्ण। २. गृहस्थ के बाल-बच्चे।
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बाल-गोंविद  : पुं० [सं० कर्म० स०] कृष्ण का बालक-स्वरूप। बाल-कृष्ण।
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बाल-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसे नौ ग्रहों का एक वर्ग जो छोटे बच्चों के लिए घातक सिद्ध माने गये है। यथा-स्कंद, स्कंदापरस्मार, शकुनी, रेवती, पूतना, गंधपूतना, शीतपूतना, मुख-मंडिका और नैगमेय।
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बाल-चंद्रिका  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक प्रकार की रागिनी।
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बाल-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] बालकों के पालन-पोषण की विद्या। कौमार भृत्य।
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बाल-तनय  : पुं० [सं० ब० स] खैर का पेड़।
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बाल-तोड़  : पुं० [हिं० बाल-तोड़ना] एक तरह का फोड़ा जो शरीर पर किसी बाल के टूटने या तोड़ने विशेषतः जड़ से उखड़ने या उखाड़ने के फलस्वरूप होता है।
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बाल-पक्व  : वि० [सं० कर्म० स०] १. जो बाल्य अथवा प्रारम्भिक अवस्था में ही पक्व हो गया हो। २. समय से कुछ पहले पका हुआ।
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बाल-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] खैर का पेड़। २. जवासा।
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बाल-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स+ङीष्] जूही।
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बाल-बच्चे  : पुं० [सं० बाल+हिं० बच्चा] लड़के-बाले। संतान। औलाद।
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बाल-बुद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] बालकों की सी बुद्धि। छोटी बुद्धि। थोड़ी अक्ल। वि० जिसकी बुद्धि बालकों की-सी हो।
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बाल-बोध  : पुं० [सं० ब० स०] देवनागरी लिपि। (मध्य प्रदेश)
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बाल-ब्रह्मचारी (रिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० बाल-ब्रह्मचारिणी] वह व्यक्ति जिसने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर रखा हो और पूर्ण रूप से उसका पालन किया हो।
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बाल-भैषज्य  : पुं० [सं० ष० त०] रसांजन।
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बाल-भोग  : पुं० [सं० ष० त०] वह नैवेद्य जो देवताओं के आगे सबेरे रखा जाता है।
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बाल-भोज्य  : पुं० [सं० ष० त०] चना। वि० बालकों या लड़कों के लिए उपयुक्त (खाद्य पदार्थ)।
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बाल-मुकुंद  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बाल्यावस्था के श्रीकृष्ण। बालकृष्ण। २. श्रीकृष्ण की शिशुकाल की वह मूर्ति जिसमे वे घुटनों के बल चलते हुए दिखाये जाते हैं।
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बाल-मूलक  : पुं० [सं० कर्म० स०] छोटी और कच्ची मूली, जो वैद्यक में कटु, उष्ण, तिक्त तीक्ष्ण तथा श्वास अर्श, क्षण और नेत्ररोग आदि की नाशक, पाचक एवं बलवर्द्धक मानी गई है।
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बाल-रस  : पुं० [सं० मध्य० स] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का औषध जो पारे, गंधक, और सोनामक्खी से बनाया जाता है और बालकों के पुराने ज्वर, खाँसी शूल आदि का नाशक कहा गया है।
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बाल-लीला  : स्त्री० [सं० ष० त०] बालकों की क्रीड़ाएँ।
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बाल-विधवा  : वि० [सं० कर्म० स०] (स्त्री) जो बाल्यावस्था में विधवा हो गयी हो।
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बाल-विधु  : पुं० [सं० कर्म० स०] अमावास्या के उपरांत निकलनेवाला नया चंद्रमा । शुक्लपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा।
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बाल-विवाह  : पुं० [सं० ष० त०] वह विवाह जो बाल्यावस्था में हुआ हो छोटी अवस्था में होनेवाला विवाह।
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बाल-व्यंजन  : पुं० [सं० ष० त०] चमार। चँवर।
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बाल-साहित्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसी पुस्तकें आदि जो मुख्यतः बालकों का मनोविनोद करने के साथ ही उन्हें अध्ययन की ओर प्रवृत्त करनेवाली भी हो। (जुवेनाइल लिटरेचर)
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बाल-सूर्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. उदयकाल के सूर्य। प्रातःकाल के उगते हुए सूर्य। २. वैदूर्य मणि।
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बालक  : पुं० [सं० बाल+कन्] [स्त्री० बालिका, भाव० बालकता] १. वह जिसकी अवस्था अभी-अभी १५-१६ वर्ष से अधिक न हो। बच्चा। लड़का। २. पुत्र। बेटा। ३. वह जो किसी बात या विषय में अनजान या अबोध हो। ४. हाथी का बच्चा। उदाहरण—बालक मृणालिन ज्यौ तोरि डारै सब काल कठिन कराल त्यौं अकाल दीह दुखकौ।—केशव। ५. घोड़े का बच्चा। बछेड़ा। ६. केश। बाल। ७. हाथी की दुम। ८. कंगन। ९. अँगूठा। १॰. नेत्र-बाला। गन्ध-बाला।
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बालक-प्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. केला। २. इंद्रवारुणी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालकता  : स्त्री० [सं० बालक+तल्+टाप्] बालक होने की अवस्था या भाव।
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बालकताई  : स्त्री० [सं० बालकता+हिं० ई (प्रत्यय)] १. बाल्यावस्था, लड़कपन। २. बालकों की तरह ऐसा आचरण या व्यवहार जिसमें समझदारी कुछ भी न हो या बहुत कम हो। लड़कपन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालकपन  : पुं० [सं० बालक+हिं० पन (प्रत्यय)] १. बालक होने की अवस्था या भाव। २. बालकों की तरह की ना-समझी।
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बालकांड  : पुं० [सं० मध्य० स०] रामचरित्र मानस का प्रथम प्रकरण जिसमें मुख्य रूप से भगवान रामचन्द्र जी की बाललीला का वर्णन है।
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बालकी  : स्त्री० [सं० बालक+ङीष्] १. कन्या। लड़की। २. पुत्री। बेटी।
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बालकृमि  : पुं० [सं० ष० त०] जूँ।
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बालखंडी  : पुं० [?] ऐसा हाथी जिसमें कोई दोष हो।
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बालखिल्य  : पुं० [सं०] पुराणानुसार ब्रह्या के रोएँ से उत्पन्न ऋषियों का एक वर्ग जिसका प्रत्येक ऋषि डीलडौल में अँगूठे के बराबर कहा गया है।
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बालखोरा  : पुं० [फा०] एक प्रकार का रोग जिसमें सिर के बाल झड़ने लगते हैं।
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बालंगा  : पुं० [फा० बालिंग] एक ओषधि जिसके बीज जीरे की तरह के होते हैं। तूत-मलंगा।
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बालचर  : पुं० [सं० कर्म० त०] १. वह बालक जिसको अनेक प्रकार की सामाजिक सेवाएँ करने की शिक्षा मिली हो। (बॉय स्काउट) २. ुक्त प्रकार के बालकों का दल या संघटन।
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बालचर्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. बालकों की चर्या। बाल-क्रीड़ा। २. [ब० स०] कार्तिकेय।
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बालछड़  : स्त्री० [देश०] जटामासी।
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बालटी  : स्त्री० [पुर्त्त० बॉल्डे] डोली की तरह का पानी रखने का एक प्रसिद्ध पात्र।
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बालटू  : पुं० [अ० वाँल्ट] लोहे आदि का वह पेचदार छल्ला जो एक तरह की पेचदार कील पर चढ़ाया तथा कसा जाता है।
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बालती  : स्त्री० [सं० बाल] कन्या। कुमारी। उदाहरण—ज्यों नवजीवन पाइ लसति गुनवती बालती।—नंददास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालद  : पुं० [सं० बलिवर्द्द] बैल। उदाहरण—दास कबीर घर बालद जो लाया, नामदेव की छान छबन्द।—मीराँ।
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बालदार सुँड़ा  : पुं० दे० भालू सुंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालधि  : पुं० [सं० बाल√धा+कि०] दुम। पूँछ।
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बालधी  : स्त्री० [सं० बालधि] दुम। पूँछ।
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बालना  : स० [सं० बालन] जलाना।
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बालपन  : पुं० [सं० बाल+हिं० पन (प्रत्यय)] १. बालक होने की अवस्था या भाव। २. बालकों का सा आचरण व्यवहार। लड़कपन। ३. बालकों की सी मूर्खता।
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बालम  : पुं० [सं० वल्लभ] १. स्त्री का पति। स्वामी। २. युवती या स्त्री की दृष्टि से वह व्यक्ति जिससे वह प्रणय करती हो प्रेमी। प्रियतम।
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बालम-खीरा  : पुं० [हि०] १. एक प्रकार का बढ़िया मोटा खीरा।
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बालम-चावल  : पुं० [हिं० ] १. एक प्रकार का धान। २. उक्त धान का चावल।
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बालरखा  : पुं० [हिं० बाल(अनाज की)+रखना] १. खेतों में बना हुआ वह ऊँचा चबूतरा जिस पर बैठकर गल्ले की देख-भाल की जाती है। २. खेत की फसल की रखवाली करने का पारिश्रमिक या मजदूरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालराज  : पुं० [सं० बाल√राज् (शोभित होना)+अच्] वैदूर्यमणि।
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बालवाँ  : पुं०=बालमखीरा। उदाहरण—औ हिदुआना बालवाँ खीरा।—जायसी।
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बालव्रत  : पुं० [सं० ब० स०] मंजुश्री या मंजुघोष का एक नाम।
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बालसाँगड़ा  : पुं० [सं० बाल-श्रृंखला] कुश्ती का एक पेंच।
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बाला  : स्त्री० [सं० बाल+टाप्] १. बारह वर्ष से सत्रह वर्ष तक की अवस्था की स्त्री। २. जवान स्त्री। ३. जोरू। पत्नी। भार्या। ४. औरत। स्त्री। ५. बहुत छोटी लड़की। बच्ची। ६. कन्या। पुत्री। ७. दस महा विद्यालयों में से एक महाविद्या। ८. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन रगण और एक गुरु होता है। ९. एक वर्ष की एक अवस्था की गौ। १॰. [बाल+अच्+टाप्] नारियल। ११. हलदी। १२. एक प्रकार की चमेली। १३. घी कुँआर। घृतकुमारी। १४. सुगंधवाला। १५. खैर का पेड़। १६. चीनी ककड़ी। १७. मोइया नामक वृक्ष। १८. नीली कटसरैया। १९. इलायची। वि० [सं० बाल=बालक] १. बालकों के समान अनजान और सीधा सादा। निश्चल और निष्कपट। पद—बाला-भोला=बहुत ही सीधा-सादा। सरल प्रकृति का। २. बच्चों की प्रकृति का। जैसे—सिर जाला, मुँह बाला। (कहा०) पुं० [सं० वलय] हाथ में पहनने का एक प्रकारका कड़ा। (पूरब) पुं० [?] एक प्रकार का कीड़ा जो गेहूँ की फसल के लिए बहुत घातक होता है। वि० [फा०] १. जो सबसे ऊँचा या ऊपर हो। जैसे—तुम्हारा बोल-बाला हो, अर्थात् तुम्हारी बात सबके लिए मान्य हो। पद—बाला-बाला=(क) इस प्रकार अलग-अलग या ऊपर-ऊपर जिसमें और लोगों को पता न चले। जैसे—तुमने बाला-बाला सारी कारवाई कर ली, और हम लोगों को पता भी न चलने दिया। (ख) अलग से या बाहर-बाहर बिना परिचित या सूचित किये। जैसे—यहाँ आये भी और बाला-बाला चले भी गये। हम लोगों को पता ही न चला। २. सबसे अच्छा, बढ़िया या श्रेष्ठ। उदाहरण—तोरा लाख रुपैया मोरा बाला-जोबन।—दादरा। २. अलग। पृक्। मुहावरा—(किसी को) बाला बताना=टाल-मटोल या बहानेबाजी करना।
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बाला-दस्त  : पुं० [फा०] [भाव० बालादस्ती] १. बलवान। जबरदस्त। २. प्रधान। मुख्य। ३. श्रेष्ठ। ४. ऊँचा।
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बाला-बाला  : अव्य० दे० ‘बाला’ (फा०) के अन्तर्गत पद।
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बालाई  : वि० [फा०] १. ऊपर का। ऊपरी। २. वेतन, वृत्ति, व्यापार आदि से होनेवाली आय के अतिरिक्त या उससे भिन्न। ऊपरी। जैसे—बालाई आमदनी। स्त्री० मलाई।
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बालाकाना  : पुं० [फा० बाला खानः] १. अट्टालिका। २. मकान का सबसे ऊपरवाला कमरा।
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बालाग्र  : पुं० [सं० ] १. शरीर के बाल का अगला भाग। २. प्राचीन काल का एक परिणाम जो ६४ परमाणु या ८ रज के बराबर कहा गया है।
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बालातप  : पुं० [सं० बाल-आतप, कर्म० स०] बालसूर्य का ताप। सबेरे की धूप।
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बालादवी  : स्त्री० [?] टोह लेने के लिए इधर-उधर घूमना-फिरना। उदाहरण—यह कह (नाजिम) क्रूर से बिदा हो बालादवी के वास्ते चला गया।—देवकी नन्दन खत्री।
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बालादित्य  : पुं० [सं० बाल-आदित्य, कर्म० स०] बालसूर्य।
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बालाद्स्ती  : स्त्री० [फा०] १. जबरदस्ती। बल-प्रयोग। २. प्रधानता। ३. श्रेष्ठता। ४. ऊँचाई। उच्चता।
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बालानशीन  : वि० [फा० बालानशीं] १. मान्य। प्रतिष्ठित। २. सबसे अच्छा। जैसे—कम खरच और बालानशीन। पुं० सभापति।
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बालापन  : पुं० [सं० बाल+हिं० पन] बाल्यावस्था। बचपन।
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बालामय  : पुं० [सं० बाल-आमय, ष० त०] बच्चों को होनेवाले रोग। बाल-रोग।
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बालार्क  : पुं० [सं० बाल-अर्क, कर्म० स०] १. प्रातःकाल का सूर्य। बाल-सूर्य। २. कन्या राशि में स्थित सूर्य।
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बालि  : पुं० [सं० बल्+इन्, णित्त्व०] किष्किंधा का एक प्रसिद्ध बानर राजा जिसका वध भगवान राम ने किया था।
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बालिका  : स्त्री० [सं० बाला+कन्+टाप्, ह्रस्व, इत्व] १. छोटी लड़की। कन्या। २. पुत्री। बेटी। ३. कान में पहनने की बाली। ४. छोटी इलायची। ५. बालू। रेत।
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बालिग  : वि० [अ० बालिग] [भाव० बालिगी] (व्यक्ति) जो कानून की दृष्टि से युवावस्था प्राप्त कर चुका हो और फलतः जिसे विधिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट कार्य करने का अधिकार प्राप्त हो गया हो। वयस्क।
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बालिनी  : स्त्री० [सं० बाल+इनि+ङीष्] अश्विनी नक्षत्र का एक नाम।
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बालिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० बाल+इमनिच्] बचपन। बाल्यावस्था।
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बालिश  : पुं० [सं०√बाड्+इन्, बाडि√शो+ड, ड-ल] [भाव० बालिश्य] १. बालक। शिशु। २. अबोध या नासमझ व्यक्ति। वि० अबोध। नासमझ। पुं० [फा०] तकिया। सिरहाना।
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बालिश्त  : पुं० [फा०] कोई चीज नापनेमें हाथ के पंजे को भरपूर फैलाने पर अंगूठे की नोक से लेकर कानी उँगली की नोक तक की दूरी, जो लगभग नौ इंच के बराबर मानी जाती है। बित्ता।
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बालिश्तिया  : वि० [फा० बालिश्त+हिं० इया (प्रत्यय)] बहुत ही छोटा या नाटा।
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बालिश्य  : पुं० [सं० बालिश्य+ष्यञ्] १. बाल्यावस्था। लड़कपन। २. बड़े हो जाने पर भी छोटे बालकों की तरह अबोध और कम-समझ होने की अवस्था या भाव। इसकी गणना मानसिक रोगों में होती है। (एमेन्शिया)
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बालिस  : वि० [सं० बालिश] नासझम। मूर्ख। उदाहरण—माहीं बल बालिसो विरोध रघुना सों।—तुलसी।
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बाली (लिन्)  : पुं० [सं० बाल+इनि] किष्किंधा का एक प्रसिद्ध वानर राजा जिसका वध भगवान राम ने किया था। स्त्री० [सं० बालिका] कानों में पहनने का एक तरह का वृत्ताकार आभूषण। स्त्री० [देश०] हथौड़े के आकार का कसेरों का एक औजार जिससे वे लोग बरतनों की कोर उभारते हैं। स्त्री०=बाल (अनाज की) वि० [हिं० ‘बाला’ का स्त्री० रूप०] नया। उदाहरण—पीव कारन पीली पड़ी बाला जोबन बाली बेस।—मीराँ।
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बाली-कुमार  : पुं० [सं० ] अंगद।
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बालीसबरा  : पु० [बाली+हिं० सबरा] एक तरह का उपकरण जिससे कसेरे थाली, परात आदि की कोर उभारते हैं।
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बालुक  : पुं० [सं०√बल्+उण्+कन्] १. एलुआ नामक वृक्ष। २. पनियालू।
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बालुका  : स्त्री० [सं०√बल्+उण्+कन्+टाप्] १. रेत। बालू। २. एक प्रकार का कपूर। ३. ककड़ी।
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बालुका-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] औषध आदि फूँकने का वह यंत्र जिसमें औषध को बालू भरी हाँड़ी में रखकर आग से चारों ओर से ढँकते हैं। (वैद्यक)
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बालुका-स्वेद  : पुं० [सं० मध्य० स०] बालू से सेंकने पर होनेवाला पसीना।
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बालुंकी (लुंगी)  : स्त्री०=बालुकी।
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बालू  : पुं० [सं० बालुका] पत्थरों का वह बहुत ही महीन चूर्ण जो रेगिस्तानों तथा नदियों के तटों पर अत्यधिक मात्रा में पड़ा रहता ह तथा जो चूने, सीमेंट आदि के साथ मिलाकर इमारतों में जोड़ाई के काम आता है। पद—बालू की भीत=ऐसी चीज जो शीघ्र नष्ट हो जाय अथवा जिसका भरोसा न किया जा सके। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो दक्षिण भारत और लंका के जलाशयों में पाई जाती है।
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बालूड़ा  : पुं० [सं० बाल] बच्चा० बालक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालूदानी  : स्त्री० [हिं० बालू+फा० दानी] एक प्रकार की झँझरीदार डिबिया जिसमें लेख आदि की स्याही सुखाने के लिए बालू रखा जाता है।
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बालूबुर्द  : वि० [हिं० बालू+फा० बुर्द=ले गया] जो नदी के बालू के नीचे दब गया हो। पुं० वह भूमि जिसकी उर्वरा शक्ति नदी की बाढ़ या बालू पढ़ने के कारण नष्ट हो गई हो।
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बालूशाही  : स्त्री० [हिं० बालू+शाही=अनुरूप] मैदे की बनी हुई एक तरह की प्रसिद्ध मिठाई।
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बालूसूअर  : पुं० [हि०] एक प्रकार का छोटा सूअर जो नदी तट की रेतीली भूमि में रहता और प्रायः रात के समय निकलकर पेडो़ की जड़ें और मछलियाँ खाता है। कुछ लोग इसे भालू सूअर भी कहते हैं।
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बाले-मियाँ  : पुं०=गाजी-मियाँ (महमूद गजनवी का भाँजा)
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बालेंदु  : पुं० [सं० बाल-इंदु, कर्म० स०] शुक्लपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा। दूज का चाँद।
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बालेय  : वि० [सं० बाल+ढञ्-एय] १. कोमल। मृदु। २. जो बलि दिए जाने के योग्य हो। ३. जो बालकों के लिए लाभदायक या हितकर हो। पुं० १. चावल। २. गधा।
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बालेष्ट  : पुं० [सं० बाल-इष्ट, ष० त०] बेर।
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बालोपचार  : पुं० [सं० बाल-उपचार, ष० त०] बच्चों की चिकित्सा।
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बालोपवीत  : पुं० [सं० बाल-उपवीत, ष० त०] १. लँगोटी। २. जनेऊ।
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बाल्टी  : स्त्री०=बालटी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाल्य  : वि० [सं० बाल+यक्] १. बालक संबंधी। २. बचपन का। जैसे—बाल्य अवस्था। ३. बालकों का सा। जैसे—बाल्य-स्वभाव। पुं० १. बाल का भाव। २. बचपन। लड़कपन।
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बाल्यावस्था  : स्त्री० [सं० बाल्य-अवस्था, कर्म० स०] बालक होने की अर्थात् सोलह-सत्रह वर्ष तक की अवस्था। युवास्था से पहले की अवस्था। लड़कपन।
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बाल्हक  : वि० [सं० बल्हि+वुञ्—अक] बलख देश। पुं० १. बलख देश की निवासी। २. बलख का घोड़ा। ३. केसर। ४. हींग।
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बाल्हा  : पुं० [सं० वल्लभ] प्रियतम। उदाहरण—(क) बाल्हा मैं बैरागिण हूँ गी हो।—मीराँ। (ख) बाल्हा आव हमारे गेहरे।—कबीर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाल्हिक  : वि० पुं०=बाल्हक।
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बाल्हीक  : वि० पुं०=बाल्हक। पुं०=बाह्लीक।
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बाव  : पुं० [सं० वायु] १. वायु। हवा। पवन। २. बात का शारीरिक प्रकोप। बाई। ३. अपान-वायु। पाद। क्रि० प्र०—निकलना।—रसना। पुं० दे० ‘बाब’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावची  : स्त्री० दे० ‘बकुची’।
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बावज  : स्त्री०=बातचीत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावजूद  : अव्य० [फा० बावुजूद] १. यद्यपि। २. इतना होने पर भी।
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बावटा  : पुं० [सं० बाव=हवा] झंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावड़ी  : स्त्री०=बावली। (जलाशय)
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बावन  : वि० [सं० द्वि पंचाशतः, पा० द्विपष्णासा, प्रा० विपण्णा] जो गिनती में पचास से दो अधिक हो। पद—बावन तोले पाव रत्ती=हर तरह से ठीक और पूरा। विशेष—कहतें है कि मध्ययुग के रसायनिकों का विश्वास था कि खरा रसायन वही है जो बावन तोले ताँबे में पाव रत्ती मिलाया जाय तो वह सब सोना हो जाता है। इसी आधार पर यह पद बना है। बावनवीर=बहुत बड़ा बहादुर या चालाक। पुं, ० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—५२। पुं०=वामन।
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बावनवाँ  : वि० [हिं० बावन+वाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बावनवीं] क्रम, संख्या आदि के विचार से ५२ के स्थान पर पड़नेवाला।
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बाँवना  : स० दे० ‘रखना’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बावना  : वि०=बौना (वामन)। स०=बाहना (हल चलाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावनी  : स्त्री० [हिं० बावन] १. एक ही तरह की ५२ चीजों का वर्ग या समूह। जैसे—शिवा बावनी। २. बहुत से लोगों का जमावड़ा या समूह। ३. मध्ययुग में वह वर्ग या समुदाय जो होली के अवसर पर नाच-गाने आदि की व्यवस्था करता था। ४. ठठोलों या मसखरी का दल या वर्ग। ५. ताश के कोट-पीस के खेल में वह स्थिति जब कोई पक्ष तेरहों हाथ बनाता है और जबकि दूसरा पक्ष एक भी हाथ नहीं बना पाता। इसमें ५२ बाजियों की जीत मानी जाती है।
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बावभक  : स्त्री० [हिं० बाव=वायु+अनु० भक] वायु के प्रकोप के कारण होनेवाला पागलपन। सिड़ीपन। झक।
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बावर  : पुं० [फा०] यकीन। विश्वास। वि० पुं०=बावरा। (बावला)।
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बावरची  : पुं० [फा०] रसोइया। पाचक।
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बावरचीखाना  : पुं० [फा० बावरचीखानाः] रसोईघऱ।
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बावरा  : वि० [हिं० बाव=वायु+रा (प्रत्यय)] १. सऱीर में वायु या बात का प्रकोप उत्पन्न करनेवाला। उदाहरण—काहू को बैगन बावरा काहू को बांगन पत्थ।—कहावत। २. दे० ‘बावला’।
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बावरी  : स्त्री०=बावली (जलाशय) वि० हिं० ‘बावरा’ का स्त्री। स्त्री० [हिं० बावरा=पागल] सम्राट अकबर के समय की एक प्रसिद्ध भक्त महिला जिनके नाम पर एक संप्रदाय भी चला था। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावल  : पुं० [सं० वायु] आँधी। अंधड़। (डिंगल)
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बाँवला  : वि०=बावला।
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बावला  : वि० [सं० वातुल, प्रा० बाउल] वायु के प्रकोप के कारण जिसका मस्तिष्क विकृत हो गया हो, अर्थात् पागल। विक्षिप्त।
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बावलापन  : पुं० [हिं० बावला+पन (प्रत्यय)] पागलपन। सिड़ीपन। झक।
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बावली  : स्त्री० [सं० वायु+डी पाली (प्रत्यय)] १. चौड़े मुँह का एक प्रकार का कुआँ या जलाशय जिसमें पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हों। उदाहरण—मजनूँ की प्यास वह बुझाती, लैला कुछ बावली नहीं थी।—कोई शायर। २. ऐसा छोटा तालाब जिसके किनारे सीढ़ियाँ बनी हों। ३. हजामत का एक प्रकार जिसमें माथे से लेकर चोटी के पास तक के बाल चार-पाँच अंगुल की चौड़ाई में मूँड़ दिये जाते हैं।
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बावाँ  : वि० पुं०=बायाँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाशिंदा  : वि० [फा० बाशिन्दः] रहनेवाला। पुं० निवासी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाषर  : पुं०=बखर (घर)। उदाहरण—सहज सुभावै बाषर ल्याई।—गोरखनाथ।
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बाष्कल  : पुं० [सं०] १. योद्धा। वीर। २. एक प्राचीन ऋषि। ३. एक उपनिषद। ४. एक दानव।
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बाष्प  : पुं० [सं०√वा+प, षुक्,-आगम] भाप। वाष्प।
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बाष्प-दांदुन  : पुं०=वाष्पपूर।
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बाष्प-मोचन  : पुं० [ष० त०] आँसू बहाना। रोना।
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बाष्प-वृष्टि  : स्त्री० [सं० ष० त०] आँखों से आँसुओ की धारा बहना।
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बाष्प-सलिल  : पुं० [सं० ष० त०] अश्रु-जल। आँसू।
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बाष्पकल  : वि० [सं० मध्य० स०] (शब्द) जो आँखों में आँसू बहने के कारण मुँह से स्पष्ट न निकल रहा हो।
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बाष्पपूर  : पुं० [सं० तृ० त०] आँखों में बहनेवाले आँसुओं की धारा।
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बाष्पाकुल  : वि० [सं० बाष्प-आकुल, तृ० त०] जो रोता-रोता विकल हो रहा हो।
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बाष्पांबु  : पुं० [सं० बाष्प-अँबु, ष० त०] अश्रु-जल। आँसू।
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बाष्पी  : स्त्री० [सं० बाष्प+ङीष्] हिगुंपत्री।
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बाँस  : पुं० [सं० वंश] १. तृण जाति की गन्ने की तरह की एक गाँठदार वनस्पति, जिसके काण्ड बहुत मजबूत किन्तु अन्दर से खोखले होते हैं तथा छप्पर आदि छाने और इमारत के दूसरे कामों में आते हैं। मुहावरा—बाँस पर चढ़ना=(क) बहुत उच्च स्थिति तक पहुँचना। (ख) बहुत प्रसिद्ध होना। (ग) बहुत बदनाम होना। मुहावरा—(किसी को) बाँस पर चढ़ाना=(क) बहुत बढ़ा देना। बहुत उन्नत या उच्च कर देना। (ख) बहुत प्रसिद्ध करना। (ग) बहुत बदनाम करना। (घ) व्यर्थ की प्रशंसा करके घमंड या मिजाज बढ़ा देना। (कलेजा) बाँसों उछलना=कलेजे में बहुत अधिक धड़कन या विकलता होना। (व्यक्ति का) बाँसों उछलना=बहुत अधिक प्रसन्न होना। खूब खुश होना। २. लम्बई की एक माप जो सवा तीन गज की होती है। लाठी। ३. पीठ के बीच की हड्डी जो गरदन से कमर तक चली गयी है। रीढ़। ४. भाला। (डि० )
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बास  : पुं० [सं० वास] १. रहने की क्रिया या भाव। निवास। २. रहने का स्थान। निवास-स्थान। ३. कपड़ा। वस्त्र। ४. एक प्रकार का का छन्द। स्त्री० १. गन्ध। बू। महक। २. बहुत ही छोटी या थोड़ा अंश। जैसे—उसमें भल-मनसत की बात तक नही है। स्त्री० [सं० वाशि] १. अग्नि। आग। २. एक प्रकार का अस्त्र। ३. पत्थर लोहे आदि के टुकड़े तो तोप के गोलों में भरकर फेंके जाते हैं। स्त्री०=वासना। पुं० [सं० वासर०] दिन। पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी लाल रंग की और मजबूत होती है। बिपरसा। पुं० [सं० वसन] वस्त्र। उदाहरण—मंद-मंद बदन बासि (बास) में दुरावै।—अलबेली अलि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बासक  : पुं० [सं० वासुकि] साँप। उदाहरण—पेट्याँ बाक भेजिया जी।—मीराँ। पुं०=वासक। स्त्री० [फा०] जँभाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासक-सज्जा  : स्त्री०=बासक-सज्जा। (नायिका)।
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बासठ  : वि० [सं० द्विषष्ठि, प्रा० द्वासट्ठि, वासट्ठि] जो गिनती में साठ और दो हो। इकतीस का दूना। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—६२।
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बासठवाँ  : वि० [सं० द्विषष्ठितम, हिं० बासठ+वाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बासठवीं] क्रम या गिनती के विचार से बासठ के स्थान पर पड़नेवाला। जैसे—बासठवीँ वर्ष-गाँठ।
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बासंतिक  : वि० [सं० वासंतिक] १. बसंतऋतु संबंधी। २. बसंत ऋतु में होनेवाला।
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बासंती  : स्त्री० [सं० बासंती] १. अडूसा। बासा। २. माधवी लता। ३. दे० ‘बासंती’। वि० [हिं० बसंत] पीले रंग का। पीला।
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बासदेव  : पुं० [सं० वाशिदेव] अग्नि। आग। (डिगल) पुं०=वासुदेव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासन  : पुं०=बरतन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासना  : स्त्री० [सं० वास०] १. गंध। महक। २. विशेषतः हल्की गंध। स०=सुगंधित करना। स्त्री०=वासना।
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बाँसपूर  : पुं, ० [हिं० बाँस+पुरना] एक तरह की बढ़िया महीन मलमल।
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बाँसफल  : पुं० [हिं० बाँस+फल] एक प्रकार का धान। बाँसी।
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बासफूल  : पुं० [हिं० बास=गंध+फूल] १. एक प्रकार का धान। २. उक्त धान का चावल।
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बासमती  : पुं० [हिं० बास=महक+मती (प्रत्यय)] १. एक प्रकार का धान। २. उक्त धान का चावल जो बहुत बढ़िया और सुगंधित होता है।
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बासर  : पुं० [सं० वासर] १. दिन। २. प्रातःकाल। सवेरा। ३. प्रातःकाल गाये जानेवाले प्रभाती भैरवी आदि गीत या भजन।
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बाँसली  : स्त्री० [हिं० बाँस+ली(प्रत्यय)] एक प्रकार का जालीदार लम्बी-पतली थैली जिसमे रुपया पैसा रखा जाता है और जो कमर में बाँधी जाती है। हिमयानी। स्त्री०=बाँसुरी (वंशी) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासव  : पुं०=वासव (इन्द्र)।
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बासवी  : पुं० [सं० वासवि] अर्जुन (डिं०)
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बासवी दिसा  : पुं० [सं० वासवी दिशा] पूर्व दिशा जो इन्द्र की दिशा मानी जाती है।
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बाससी  : पुं० [सं० वास] वस्त्र।
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बाँसा  : पुं० [हिं० बाँस] १. बाँस का बना हुआ चोगें के आकार का वह छोटा नल जो हल के साथ बँधा रहता है। इसी में बोने के लिए अन्न भरा जाता है। अरना। तार। २. एक प्रकार की घास जिसकी पत्तियाँ बाँस की पत्तियों की तरह होती है। पुं० [सं० प्रियावास] १. पियाबाँसा नाम का पौधा जिसमें चम्पई रंग के फूल लगते हैं और जिसकी लकड़ी के कोयले से बारूद बनती थी। २. उक्त पौधे का फूल। पुं० [सं० वंश=रीढ़] १. रीढ की हड्डी। २. नाक के ऊपर की हड्डी जो दोनों नथुनों के बीचोबीच रहती है। मुहावरा—बाँसा फिर जाना=नाक का टेढ़ा हो जाना। (मृत्यु के बहुत समीप होने का लक्षण)।
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बासा  : पुं० [सं० वास=निवास] १. रहने का स्थान। निवास स्थान। २. बसेरा। उदाहरण—मानस पंखि लेहि फिर बासा।—जायसी। ३. वह स्थान जहाँ दाम देने पर पकी-पकाई रसोई, (चावल, रोटी, दाल आदि) खाने को मिलती है। भोजनालय। पुं० [सं० वासक] १. अडूसा। २. एक प्रकार की घास। पुं० [देश०] एक प्रकार का शिकारी पक्षी। पुं० दे० ‘पिया-बाँस’। पुं० [सं० वास=कपड़ा] कपड़ा। वस्त्र। उदाहरण—मंद-मंद हास वदन बासि में दुरावै।—अलबेली अलि। पुं०=बाँसा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासिग  : पुं०=वासुकि। (नाग)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बासित  : भू० कृ०=बासित।
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बासिन  : पुं०=बासा (शिकारी पक्षी)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँसिनी  : स्त्री० [हिं० बाँस] एक प्रकार का छोटा बाँस जिसे बरियाल, ऊना अथवा कुल्लूक भी कहते हैं।
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बासिष्ठी  : स्त्री० [सं० वासिष्ठी] बन्नास नदी का एक नाम जो वशिष्ठ जी के तपः प्रभाव से उत्पन्न मानी गई है। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँसी  : स्त्री० [हिं० बाँस+ई (प्रत्यय)] १. एक प्रकार का छोटा पतला और मुलायम बाँस जिससे हुक्के के नैचे आदि बनते है। २. एक प्रकार का गेहूँ, जिसकी बाल कुछ-कुछ काली होती है। ३. एक प्रकार का धान जिसका चावल बहुत सुगंधित, मुलायम और स्वादिष्ट होता है। इसे बाँसफल भी कहते हैं। ४. एक प्रकार की घास जिसके डंठल कड़े और मोटे होते हैं। ५. एक प्रकार की चिड़िया। ६. कुछ सफेदी लिए हुए पीले रंग का एक प्रकार का पत्थर।
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बासी  : वि० [हिं० बास=दिन+ई (प्रत्यय)] १. (खाद्य पदार्थ) जो एक या कई दिन पहले का बना हआ हो। जैसे—बासी रोटी। २. (फल आदि) जो एक या अनेक दिन पहले पेड़ (या पौधें) से तोड़ा गया हो। ताजा का विपर्याय। विशेष—बासी अन्न में कुछ बू सी आने लगती है, और बासी फल कुछ मुरझा से जाते हैं। पद—बासी-तिबासी (देखें) ३. जो कुछ समय तक रखा या यों ही पड़ा रहा हो। जैसे—(क) रात का रखा हुआ बासी पानी। (ख) बासी मुँह। पद—बासी मुँह=बिना कुछ खाये पिये हुए। ४. सूखा या कुम्हलाया हुआ। जो हरा-भरा न हो। जैसे—बासी फूल। मुहावरा—बासी कढ़ी में उबाल आना=बहुत समय बीत जाने पर किसी काम के लिए उत्सुकतापूर्वक प्रयत्न होना। पुं० १. धार्मिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट अवसरों पर पहले दिन का बना हुआ बासी भोजन दूसरे दिन खाना। २. दे० ‘बसिऔरा’। वि०=बासी (निवासी)।
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बासी-तिबासी  : वि० [हिं० बास+तीन+बासी] दो-तीन दिन का। रखा हुआ। जो बासी से भी कुछ और अधिक बिगड़ चुका हो। जैसे—बासी-तिबासी रोटी।
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बासु  : स्त्री०=बास।
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बासुकी  : स्त्री०=वासुकि।
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बाँसुरी  : स्त्री० [हिं० बाँस] पतले बाँस का बनाया हुआ एक प्रसिद्ध बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है। मुरली। वंशी।
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बाँसुली  : स्त्री० [हिं० बाँस] १. एक प्रकार की घास जो अन्तर्वेद में होती है। २. बाँसुरी। वंशी।
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बाँसुलीकंद  : पुं० [हिं० बाँसुली+सं० कंद] एक प्रकार का जंगली सूरन या जमींकंद जो गले में बहुत अधिक लगता है।
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बासू  : पुं०=वासुकि (नाग)।
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बासूर  : स्त्री० [अ०] बवासीर।
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बासौंधी  : स्त्री०=बसौंधी (रबड़ी)।
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बास्त  : पुं० [सं० बस्त+अण्] १. बकरे से संबंध रखनेवाला। २. बकरे से प्राप्त होनेवाला।
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बाँह  : स्त्री० [सं० बाहु] १. मनुष्य के शरीर मे कंधे से लेकर कलाई के बीच का अवयव। भुजा। मुहावरा—(किसी की) बाँह ऊँची (या बुलंद) होना=(क) वीर और साहसी होना। (ख) उदार और परोपकारी होना। (किसी की) बाँह गहना या पकड़ना=(क) किसी की सहायता करने के लिए प्रस्तुत होना० सहारा देना। (ख) किसी स्त्री को अपने आश्रय में लेकर और पत्नी बनाकर रखना। पाणिग्रहण करना। बाँह चढ़ाना=(क) कुछ करने के लिए उद्यत होना। (ख) किसी से लड़ने या हाथा-पाँही करने के लिए तैयार होना। आस्तीन चढ़ाना। २. कमीज, कुरते, कोट आदि का वह अंश जिसे बाँह ढकी रहती है। ३. एक प्रकार की कसरत जो दो आदमी मिलकर करते हैं और जिसमें दोनों विशिष्ट प्रकार से एक-दूसरे की बाँहें पकड़कर बलपूर्वक स्वंय आगे बढ़ते और दूसरों को पीछे हटाते हैं। ४. भुजबल। शक्ति। मुहावरा(किसी की) बाँह की छांह लेना=किसी की शरण में जाकर उसके भुज-बल का आश्रित होना। ५. वह जो किसी का बहुत बड़ा मदद करनेवाला या सहायक हो। पद—बाँह-बोल=आश्रय या सहायता देने रक्षा करने आदि के संबंध में दिया जानेवाला वचन। उदाहरण—लाज बाँह बोल की नेवाजे की साँभर सार साहेब न राम सों, बलैया लीजै भील की।—तुलसी। मुहावरा—बाँह टूटना=बहुत बड़े सहायक का न रह जाना। जैसे—भाई के मरने से उसकी बाँह टूट गयी। ६. सहायता या सहारे का आसरा। भरोसा। मुहावरा—(किसी को) बाँह देना=सहायता या सहारा देना। मदद करना।
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बाह  : पुं० [हिं० बाहना] खेत जोतने की क्रिया। खेत की जोताई। पुं०=बाँट। पुं०=वाह। (प्रवाह) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहक  : पुं० [सं० वाहक] [स्त्री० बाहकी] १. ढोने या ले चलनेवाला कहार। उदाहरण—सजी बाहकी सखी सुहाई।—रघुराज। २. कहार।
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बाँहड़ली  : स्त्री०=दे० बाँह। उदाहरण—राम मोरी बाँहड़ली जी गहा।—मीराँ।
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बाहड़ी  : स्त्री० [देश] वह खिचड़ी जो मसाला और कुम्हड़ौरी डालकर पकाई गई हो।
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बाहन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके पत्ते जाड़े के दिनों में झड़ जाते हैं। सफेदा। पुं०=वाहन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहन  : क्रि० वि० [फा०] एक-दूसरे के प्रति या साथ। आपस में। परस्पर।
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बाहना  : स० [सं० वहन] १. वहन करना। २. उठा या ढोकर ले चलना। २. (अस्त्र-शस्त्र) चलाना या फेंकना। उदाहरण—बाहत अस्त्र नृपति पर आये।—पद्याकर। ३. (जानवर या सवारी) हाँकना। ४. ग्रहण या दारण करना। ५. उत्तरदायित्व, कर्त्तत्व आदि के रूप में अपने ऊपर लेना। अंगीकरण करना। ६. (खेत या जमीन) हल चलाकर जोतना। ७. (गौ० बकरी, भैंस आदि) नर से मिलाकर गाभिन करना। अ० इधर-उधर घूमना। भटकना। उदाहरण—भूलै भरम दुनी कत बाहौ—कबीर।
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बाहनी  : स्त्री० [सं० वाहिनी] सेना। फौज।
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बाँहबोल  : पुं० [हिं० बाँह+बोल=वचन] बाँह पकड़ने अर्थात् रक्षा करने या सहायता देने का वचन।
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बाहर  : अव्य० [सं० बहिस् का दूसरा रूप बहिर] [वि० बाहरी] १. किसी क्षेत्र, घेरे, विस्तार आदि की सीमा से परे। किसी परिधि से कुछ अलग, दूर या हटकर। अंदर और भीतर का विपर्याय। जैसे—यह सामान कमरे के बाहर रख दो। पद—बाहर-बाहर=बिना किसी क्षेत्र घेरे विस्तार के अन्दर आये हुए। बिना अन्तुर्भुक्त हुए। जैसे—वे पटने, से लौटे तो पर बाहर-बाहर लखनऊ चले गये। २. किसी देश या स्थान की सीमा से अलग या दूर अथवा किसी दूसरे देश या स्थान में जैसे—महीने में दस-बारह दिन तो उन्हें दौरे पर बाहर ही रहना पड़ता है। ३. किसी प्रकार के अधिक्षेत्र, मर्यादा संपर्क आदि से भिन्न या रहित। अलग। जैसे—हम आपसे किसी बात में बाहर नहीं है, अर्थात् आप जो कहेगें या चाहेगें हम वही करेगें। ४. बगैर। सिवा। (क्व०) पुं० [हिं० बाहना] वह आदमी जो कुएँ की जगत् पर खड़ा रहकर मोट का पानी नाली में उलटता या गिराता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहरजामी  : पुं० [सं० बाह्ययामी] ईश्वर का सगुण। रूप राम, कृष्ण इत्यादि अवतार।
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बाहरला  : वि०=बाहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहरी  : वि० [हिं० बाहर+ई (प्रत्यय)] १. बाहर की ओर का। बाहर वाला। भीतरी का विपर्याय। २. जो अपने देश, वर्ग या समाज का न हो। पराया और भिन्न। जैसे—बाहरी आदमी। ३. जो ऊपर या केवल से देखने भर को हो। जिसके अन्दर कुछ तथ्य न हो। जैसे—कोरा बाहरी ठाट-बाट। ४. बिलकुल अलग या भिन्न। उदाहरण—पंच हँसिहै री हो तो पचन तें बाहरी।—देव।
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बाहलीक  : पुं०=वाहलीक।
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बाहस  : पुं० [डि०] अजगर।
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बाहा  : पुं० [हिं० बाँधना] वह रस्सी जिससे नाव का डाँड़ बँधा रहता है। पुं० [हिं० बहना] १. पानी बहने की नहर या नाली। २. वह छेद जिसमें से होकर कोल्हू का तेल या रस बहकर नीचे गिरता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँहाँ जोड़ी  : क्रि० वि० [हिं० बाँह+जोड़ना] किसी के कंधे के साथ अपना कंधा मिलाते हुए। साथ-साथ। उदाहरण—सूरदास दोउ बाँहाँ जोरी राजत स्यामा स्याम।—सूर। स्त्री० कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने या बैठने की मुद्रा या स्थिति।
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बाहाँ-जोरी  : अव्य० [हिं० बाँह+जोड़ना] हाथ से हाथ मिलाये हुए।
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बाहिज  : अव्य० [सं० बाह्म] ऊपर से। बाहर से देखने में। वि०=बाह्म (बाहरी)।
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बाहिनी  : वि० स्त्री०=वाहिनी।
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बाहिर  : अव्य०=बाहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँही  : स्त्री०=बाँह।
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बाही  : वि०=वाही। स्त्री०=[हिं० बाहना] बाहने की क्रिया या भाव। स्त्री० [सं० बाहु०] पहाड़ की भुजा या किसी पक्ष की लंबाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहीक  : पुं०=बाहलीक।
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बाहु  : स्त्री० [सं०√बाध्+कु, ह-आदेश] भुजा। बाँह।
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बाहु-कुब्ज  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ कुबड़े या टेढ़े हो। लूला।
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बाहु-त्राण  : पुं० [ब० स०] चमड़े या लोहे आदि का वह दस्ताना जो युद्ध में हाथों की रक्षा के लिए पहना जाता है।
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बाहु-पाश  : पुं० [सं० कर्म० स०] दोनों बाहों को मिलाकर बनाया हुआ वह घेरा जिसमें किसी को लेकर आलिंगन करते हैं। भुज-पाश।
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बाहु-प्रलंब  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी बाँहें बहुत लंबी हों। आजानु-बाहु।
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बाहु-भूषण  : पुं० [ष० त०] भुज-बंद नाम का गहना।
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बाहु-मूल  : पुं० [ष० त०] कंधे और बाँह का जोड़।
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बाहु-युद्ध  : पुं० [ष० त०] कुश्ती।
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बाहु-योधी (धिन्)  : पुं० [सं० बाहु√युध्+णिनि] कुश्ती लड़नेवाला। पहलवान।
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बाहु-विस्फोट  : पुं० [सं० ष० त०] ताल ठोंकना।
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बाहु-शाली (लिन्)  : पुं० [सं० बाहु√शाल्+णिनि] १. शिव। २. भीम। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. एक दानव।
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बाहु-श्रुत्य  : पुं० [सं० बहुश्रुत्य+ष्यञ्] बहुश्रुत होने की अवस्था या भाव। बहुत सी बातों को सुनकर प्राप्त की हुई जानकारी।
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बाहु-संभव  : पुं० [सं० ब० स०] क्षत्रिय, जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की बाँह से मानी जाती है।
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बाहु-हजार  : पुं०=सहस्रबाहु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहुक  : पुं, ० [सं० ०] १. राजा नल का उस समय का नाम जब वे अयोध्या के राजा के सारथी थे २. नकुल का एकनाम। वि०=वाहक।
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बाहुगुण्य  : पुं० [पुं० बहुगुण+ष्यञ्] १. बहु-गुण होने की अवस्था या भाव। बहुत से गुणों का होना।
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बाहुज  : पुं० [सं० बाहु√जन्+ड] क्षत्रिय जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के हाथ मे मानी जाती है। वि० बाहु से उत्पन्न या निकला हुआ।
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बाहुजन्य  : वि० [सं० बहुजन+ष्यञ्] जो बहुजन अर्थात् बहुत बड़े जनसमाज में फैला अथवा उससे संबंध रखता हो। बहुजन संबंधी।
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बाहुटा  : पुं० [सं० बाहु] बाँह पर पहनने का बाजूबंद (गहना)।
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बाहुडना  : अ०=बहुरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहुड़ि  : अव्य०=बहुरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहुदंती (तिन्)  : पुं० [सं० बहु-दंत, ब० स०+अण्(स्वार्थे)+इनि] इंद्र।
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बाहुदा  : स्त्री० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक नदी। २. राजा परीक्षित् की पत्नी।
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बाहुरना  : अ०=बहुरना।
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बाहुरूप्य  : पुं० [सं० बहुरूप+ष्यञ्] बहुरूपता।
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बाहुल  : पुं० [सं० बहुल+अण्] १. युद्ध के समय हाथ में पहनने का एक उपकरण जिससे हाथ की रक्षा होती थी। दस्ताना। २. कार्तिक मास ३. अग्नि। आग।
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बाहुल-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] मोर।
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बाहुल्य  : पुं० [सं० बहुल+ष्यञ्] बहुल होने की अवस्था या भाव। बहुतायत। अधिकता। ज्यादती।
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बाहुशीष  : पुं० [सं० ष० त०] बाँह में होनेवाला एक प्रकार का वायु रोग जिसमें बहुत पीड़ा होती है।
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बाहू  : स्त्री०=बाहु।
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बाहू-बल  : पुं० [सं० ष० त०] पराक्रम। बहादुरी।
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बाह्म  : पुं० [सं०=बहिस्+यञ्, लि-लोप] १. बाहरी। बाहर का। २. प्रस्तुत विषय से भिन्न। ३. किसी भूल से अलग या भिन्न। जैसे—ब्राह्म प्रभाव। ४. समस्त पदों के अंत में क्षेत्र परिदि सीमा के बाहर रहने या होनेवाला। जैसे—आलंबन ब्राह्य=स्वयं आलंबन में न होकर उससे अलग और खुले हुए स्थान में होनेवाला। जैसे—ब्राह्य खेल। पुं० [सं० बाह्म] १. भार ढोनेवाला पशु। जैसे—बैल आदि। २. यान। सावरी।
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बाह्मन  : पुं०=ब्राह्मण।
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बाह्य-द्रुति  : पुं० [सं० कर्म० स०] पारे का एक संस्कार। (वैद्यक)
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बाह्य-नाम  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी का नाम और ठिकाना जो उसे भेजे जानेवाले पत्र के ऊपर लिखा जाता है। ठिकाना। पता। (एड्रेस)
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बाह्य-पटी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नाटक का परदा। (यवनिका।
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बाह्य-प्रयत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में कंठ से लघु ध्वनि उत्पन्न करने के उपरांत होनेवाली क्रिया या प्रयत्न। इसके घोष और अघोष दो भेद हैं।
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बाह्य-रति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] आलिंगनस, चुबन आदि कार्य जो बाहरी रति के विशेष रूप माने गये हैं।
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बाह्य-रूप  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऊपरी या बाहरी रूप। दिखाऊ रूप।
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बाह्य-विद्रधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के किसी स्थान में सूजन और फाडे़ की सी पीड़ा होती है। इसमें रोगी के मुँह अथवा गुदा से मवाद भी निकलती है।
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बाह्य-वृत्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] प्राणायाम का एक भेद जिसके अन्दर से निकलते हुए श्वास को धीरे-धीरे रोकते हैं।
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बाह्यचरण  : पुं०=बाह्माचार।
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बाह्यनामिक  : पुं० [सं० वाह्मनामन्+ठक्—इक] वह जिसके नाम पर पते से पत्र या और कोई चीज भेजी गई हो। (एड्रेसी)
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बाह्यप्रद  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह जो किसी चीज के बिलकुल अन्तिम सिरे पर स्थित हो। विस्तार के अन्तिम भाग का अंश। (एक्ट्रीम)
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बाह्यवासी  : वि० [सं० वाह्म√वस् (निवास)+णिनि, उप० स०] बस्ती के बाहर रहनेवाला। पुं० चांडाल।
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बाह्यांचल  : वि० [सं० बाह्म-अंचल, कर्म० स०] बस्ती के बाहर का स्थान। (आउटस्कर्टस)
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बाह्याचार  : पुं० [सं० बाह्य-अचार, कर्म० स०] वह आचरण विशेषतः धार्मिक या नैतिक आचरण जो केवल दूसरों को दिखलाने के लिए हो शुद्ध मन से न हो। आडम्बर। ढकोंसला।
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बाह्यांतर  : वि० [सं० ] बाहर और अंदर दोनों का। जैसे—ब्राह्मांतर शुद्धि। क्रि० वि० बाहर और अन्दर दोनों ओर।
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बाह्याभ्यंतर  : पुं० [सं० द्व० स०] प्राणायाम का एक भेद जिससे आते और जाते हुए श्वास को कुछ-कुछ रोकते रहते हैं।
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बाह्याभ्यंतराक्षेपी (पिन्)  : पुं० [सं० बाह्याभ्यंतर-आक्षेप, ष० त०+इनि, दीर्घ, न-लोप] प्राणायाम का एक भेद जिसमें श्वास वायु को भीतर से बाहर निकलते समय निकलने न देकर उलटे लौटाते और अन्दर जाने के समय उसको बाहर रोकते हैं।
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बाह्येंद्रिय  : स्त्री० [सं० बाह्मा-इंद्रिय, कर्म० स०] आँख, कान, नामक, जीभ और त्वचा ये पाँच इंद्रियाँ जिनसे बाहरी विषयों का ज्ञान होता है।
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बि  : वि० [सं० द्वि० मि० गु० वे०] एक और एक। दो।
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बिअ  : वि० [सं० द्वि०] दो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिअहुता  : वि० [सं० विवाहिता] १. जिसके साथ विवाह संबंध हुआ हो। विवाहित या विवाहिता। २. विवाह संबंधी। विवाह का।
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बिआज  : पुं०=ब्याज।
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बिआध  : स्त्री०=व्याधि।
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बिआधि  : स्त्री०=व्याधि।
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बिआना  : स० [हिं० ब्याह, सं० विजायन] १. स्त्री का संतान प्रसव करना। उदाहरण—बा पूत की एकै नारी एकै भाय बिआया।—कबीर। २. विशेषतः मादा पशुओं का बच्चे को जन्म देना।
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बिआपना  : अ० [सं० व्यापन] व्याप्त होना।
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बिआपी  : वि०=व्यापी।
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बिआवर  : वि० स्त्री०=बियावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिआस  : पुं०=व्यास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिआहना  : स०=ब्याहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिओग  : पुं०=वियोग।
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बिओगे  : वि०=वियोगी।
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बिकट  : वि०=विकट।
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बिकना  : अ० [सं० विक्रय] १. किसी पदार्थ का द्रव्य के बदले मे किसी को दिया जाना। मूल्य लेकर दिया जाना। बेचा जाना। बिक्री होना० २. किसी का पूर्ण अनुगामी, अनुचर या दास होना। सं० यो० क्रि० जाना।
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बिकरम  : पुं०=१. विक्रमादित्य। २. विक्रम।
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बिकरार  : वि०=बेकरार। वि०=विकराल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिकल  : वि०=विकल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिकलाई  : स्त्री०=विकलता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिकलाना  : अ० [सं० विकल] विकल या व्याकुल होना। बेचैन होना। स० बिकल या व्याकुल करना। बे-चैन करना।
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बिकवाना  : स० [हिं० बिकना का प्रे०] बेचने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को बेचने में प्रवृत करना।
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बिकवाल  : पुं० [हिं० बिकना+वाला] वह जो कोई चीज बेचता हो। बेचनेवाला। विक्रेता।
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बिकसना  : अ० [सं० विकसन] १. विकसित होना। खिलना। २. बहुत प्रसन्न होना।
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बिकसाना  : स० [सं० विकसन] १. विकसित करना। खिलाना। २. बहुत प्रसन्न करना। अ०=विकसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिकाऊ  : वि० [हिं० बिकना+आऊ (प्रत्यय)] (वस्तु) जो बिक्री के लिए रखी गई हो।
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बिकाना  : स०=बिकवाना। अ०=बिकना।
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बिकार  : पुं० [सं० वि०√कृ (विकार)+घञ्, विकार] १. विकार। खराबी। २. बीमारी। रोग। ३. ऐब। खराबी। दोष। ४. बुरा काम। दुष्कर्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिकारी  : वि० [सं० विकार+इनि] १. जिसका रूप बिगड़कर और का और हो गया हो। विकारयुक्त। विकृत। २. विकार उत्पन्न करनेवाला। स्त्री० [सं० विकृत या वक्र०] एक प्रकार की टेढ़ी पाई जो अंकों आदि के आगे संख्या या मान आदि सूचित करने के लिए लगाई जाती है। लिखने में रुपये पैसे या मन-सेर आदि का चिन्ह जिसका रूप) होता है।
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बिकास  : पुं०=विकास।
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बिकासना  : स० [सं० विकास] विकसित करना। अ०=विकसित होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिकुटा  : वि० [हिं० बि=दो+कुटा प्रत्यय०] [स्त्री० बिकुटी] दूसरा। द्वितीय। उदाहरण—इकुटी बिकुटी त्रिकुटी संधि।–गोरखनाथ।
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बिंकुठ  : पुं०=वैकुंठ।
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बिक्ख  : पुं०=विष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिक्रमाजीत  : पुं०=विक्रमादित्य।
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बिक्रमी  : पुं० [सं० विक्रम] वह जिसमें विक्रम हो। पराक्रमी। वि०=वैक्रमीय।
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बिक्री  : स्त्री० [सं० विक्रय] १. बिकने का भाव। २. बेचने की क्रिया या भाव। पद—बिक्री-बट्टा=दूकानदारों की होनेवाली बिक्री और उससे प्राप्त होनेवाला धन। ३. वस्तुओं के बिक जाने पर प्राप्त होनेवाला धन।
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बिक्री-कर  : पुं० [सं०] वह राजकीय कर जो विक्रेता बेची जानेवाली वस्तु के दाम के अतिरिक्त क्रेता से वसूल करता और तत्पश्चात् राज्य सरकार को देता है। (सेल्स टैक्स)
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बिक्रू  : वि०=बिकाऊ।
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बिख  : पुं० [सं० विष] जहर। मुहावरा—बिख बोना=बहुत बड़े अनर्त का सूत्रपात करना। बिख बोलना=बहुत ही कटु और लगती हुई बात कहना।
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बिखम  : वि० [सं० विष] विष। जहर। गरल। वि०=विषम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखय  : पुं०=विषय। अव्य०=विषय में। सम्बन्ध में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखयी  : वि०=विषयी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखरना  : अ० [सं० विकीर्ण] १. किसी चीज के कणों, रेशों, इकाइयों आदि का अधिक क्षेत्र में फैल जाना। संयो० क्रि०=जाना। २. एक साथ साथ-साथ या संयुक्त न होना। अलग-अलग या दूर-दूर होना। जैसे—परिवार के सदस्यों का बिखरना।
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बिखराना  : स०=बिखेरना।
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बिखराव  : पुं० [हिं० बिखरना] १. बिखरे हुए होने की अवस्था या भाव। २. आपस में होनेवाली फूट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखाद  : पुं०=विषाद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखान  : पुं० [सं० विषाण] १. पशुओं के सींग। २. सिंगी नाम का बाजा।
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बिखिया  : स्त्री०=विषय-वासना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखे  : अव्य०, पुं०=विषय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखेरना  : स० [हिं० बिखरना का० स०] १. कणों, रेशों आदि के रूप में होनेवाली वस्तु के कणों को अधिक विस्तृत क्षेत्र में यो ही अथवा किसी विशेष ढंग से गिराना या फेंकना। जैसे—खेत में बीज बिखेरना। २. वस्तुओं को बिना किसी सिलसिले के फैलाकर रखना। जैसे—पुस्तकें बिखरेना।
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बिखै  : अव्य० [सं० विषय] किसी विषय में। संबंध में। उदाहरण—जगत् बिखै कोई काम न सरही।—गुरु गोविन्दसिंह। पुं० १.=विषय। २.=विषय-वासना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिखोंड़ा  : पुं० [हिं० विख=विष] ज्वार की जाति का एक प्रकार की बड़ी घास जो बारहों महीने हरी रहती है। काला मुच्छ।
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बिंग  : पु०=व्यंग्य। क्रि० प्र०—छोड़ना।—बोलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिंग  : पुं०=बीग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगड़ना  : अ० [सं० विकार, हिं० बिगाड़] १. किसी तत्त्व या पदार्थ के गुण, प्रकृति, रूप आदि में ऐसा विकार या खराबी होना जिससे उसकी उपयोगिता, क्रियाशीलता या महत्त्व कम हो जाय या न रह जाय। प्रकृत स्थिति से गिरकर विकृत या खराब होना। जैसे—(क) बासी होने या सड़ने के कारण खाद्य पदार्थ का बिगड़ना। (ख) पुरजा टूटने के कारण कल या यंत्र बिगड़ना। २. किसी क्रिया के होते रहने या किसी चीज के बनने के समय उसमें कोई ऐसी खराबी आना कि काम ठीक या पूरा न उतरे। जैसे—(क) पकाने के समय भोजन या सिलाई के समय कुरता या कोट बिगड़ना। (ख) गवाही के समय गवाह बिगड़ना। ३. अच्छी या ठीक अवस्था से खराब या बुरी स्थिति में आना। जैसे—(क) जरा-सी भूल से किया कराया काम बिगड़ना। (ख) घर की स्थिति या देश की शासन व्यवस्था बिगड़ना। ४. आपस के व्यवहर में ऐसी खराबी या दोष आना कि सुगमतापूर्वक निर्वाह न हो सके। जैसे—(क) शासन से पीड़ित होने पर प्रजा का बिगड़ना। (ख) भाइयों में आपस में बिगड़ना। ५. आचरण, प्रवृत्ति, स्वभाव आदि में ऐसा दोष या विकार उत्पन्न होना कि नीति, न्याय। सभ्यता आदि के विरुद्द समझा जाता हो। उचित पथ से भ्रष्ट होना। जैसे—(क) गलियो के लड़को के साथ रहते-रहते तुम्हारी जबान भी बिगड़ जाती है। (ख) बुरी संगति में अच्छा आदमी भी बिगड़ जाता है। ६. व्यक्तियों के संबंध में किसी पर क्रुद्ध या नाराज होकर उसे बड़ी बातें सुनाना। जैसे—आज भाई साहब हम लोगों पर बिगड़े थे। ७. पशुओं आदि के संबंध में क्रुद्ध होने के कारण नियंत्रण या वश से बाहर होकर उपद्रव या खराबी करना। जैसे—जुते हुए घोड़े (या बैल) जब बिगड़ जाते हैं तब गाड़ी (या हल) तक तोड़ डालते हैं। ८. रुपये पैसे के संबंध में बुरी तरह से व्यर्थ व्यय होना। जैसे—तुम्हारे फेर में हमारे दस रूपये बिगड़ गये।
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बिगड़े-दिल  : पुं० [हिं० बिगड़ना+फा० दिल] १. उग्र या विकट स्वभाववाला। २. जिसकी प्रवृत्ति प्रायः कुमार्ग की ओर रहती है। ३. बात-बात पर बिगड़ने या नाराज होनेवाला व्यक्ति।
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बिगड़ैल  : वि० [हिं० बिगड़ना+ऐल (प्रत्यय)] १. जो बात-बात में और बहुत जल्दी बिगड़ने या नाराज होने लगता हो। हर बात में क्रोध करनेवाला। क्रोधी स्वाभाव का। २. जो प्रायः कुमार्ग की ओर प्रवृत्त रहता हो। ३. जिद्दी। हठी (क्व०)
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बिगत  : पुं० [?] प्रकार। भाँति। तरह। उदाहरण—बिगत-बिगत के नाम धरायों यक भाटी के भाँड़े।—कबीर। वि०=विगत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगंध  : स्त्री० [सं० वि०+गंध] दुर्गन्ध। बदबू।
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बिगर  : अव्य०=बगैर (बिना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगरना  : अ०=बिगड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगराइल  : वि०=बिगड़ैल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगरायल  : वि०=बिगड़ैल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगसना  : अ०=बिकसना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगसाना  : स०=बिकसाना (विकसित करना)। अ०=बिकसना (विकसित होना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगहा  : पुं०=बीघा (जमीन की नाप)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगही  : स्त्री० [देश] खेत की क्यारी। बहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगाड़  : पुं० [हिं० बिगड़ना] १. बिगड़ने की क्रिया या भाव। विकार। २. ऐब। खराबी। दोष। ३. पारस्परिक संबंध बिगड़े हुए होने की अवस्था या भाव। दोष। ३. पारस्परिक संबंध बिगड़े होने की अवस्था या भाव। आपस में होनेवाला द्वैष और वैमनस्य। ४. नुकसान। हानि।
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बिगाड़ना  : स० [हिं० बिगड़ना का स०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे किसी काम, चीज या बात में किसी तरह की खराबी हो। इस प्रकार विकृत करना कि अच्छी या ठीक स्थिति में न रह जाय। जैसे—असावधानी से कोई काम (या यंत्र) बिगाड़ना। २. कोई काम करते समय उसमें दोष या विकार आने देना कि वह अभीष्ट या उपयुक्त रूप में न आ सके। जैसे—(क) दरजी ने तुम्हारा कोट बिगाड़ दिया। (ख) चित्रकार ने यहाँ हरा रंग देकर चित्र बिगाड़ दिया। ३. अच्छी दशा या अवस्था से बुरी दशा या अवस्था में लाना। जैसे—किसी को कुमार्ग पर लाकर उसका घर बिगा़ना। ४. किसी को उचित या नियत मार्ग से हटाकर अनुचित या दूषित मार्ग पर लगाना या ले जाना। जैसे—(क) बुरी आदतें सिखाकर लड़कों को बिगाड़ना। (ख) उलटी सीधी बातें कहकर किसी का मिजाज बिगाड़ना। (ग) डरा-धमका कर किसी का गवाह बिगाड़ना। ५. कुमारी अथवा स्त्री के संबंध में कौमार्य या सत्तीत्व नष्ट करना। ६. रुपए-पैसे के संबंध में व्यर्थ नष्ट या व्यय करना। जैसे—आज मेले में हम भी पाँच रुपए बिगाड़ आये।
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बिगाना  : वि०=बेगाना (पराया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगार  : पुं०=बिगाड़। स्त्री०=बेगार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगारना  : अ० [सं० विकीर्ण] १. चारों ओर फैलाना। २. मरना या समाना। उदाहरण—ज्यूँ बिंबहि प्रतिबिंब समाना, उदिक कुंभ बिगराना।—कबीर। स०=बिगाड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगारि  : स्त्री०=बेगार।
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बिगारी  : स्त्री०=बेगारी। पुं०=बेगार।
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बिगास  : पुं०=विकास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगासना  : स०=विकासना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगाहा  : पुं०=बिग्गाहा।
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बिगिर  : अव्य०=बगैर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगुन  : वि० [सं० विगुण] जिसमें कोई गुण न हो। गुण रहित। वि०=वेगुन (बिना रस्सी का)।
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बिगुरचन  : स्त्री०=बिगूचन।
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बिगुरचना  : अ० [सं० बिकुंचन०] असमंजस कठिनता या संकोच में पड़ना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगुरदा  : पुं० [देश०] मध्ययुग का एक प्रकार का हथियार।
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बिगुर्चन  : स्त्री०=बिगूचन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिगुल  : पुं० [अ०] १. पाश्चात्य ढंग की एक प्रकार की तुरही जो प्रायः सैनिकों को एकत्र करने अथवा इसी प्रकार का कोई और काम करने के लिए संकेत रूप में बजाई जाती है। २. उक्त वाद्य का शब्द।
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बिगूतना  : अ०=बिगूचना। स० [सं० विगत] १. नष्ट करना। २. बिगाड़ना। अ० १. नष्ट होना। २. विकृत होना। बिगड़ जाना। ३. दुर्दशाग्रस्त होना। उदाहरण—मै मेरी करि बहुत बिगूता।—कबीर। अ० १. दे० बिगूचना। २. दे० बिगुरचना।
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बिगूधना  : स्त्री० [सं० विकुंचन अथवा विवेचन] १. वह अवस्था जिसमें मनुष्य किकर्तव्य-विमूढ़ हो जाता है। असमंजस। २. कठिनता। दिक्कत। अड़चन।
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बिगूलर  : पुं० [अ०] फौज में बिगुल बजानेवाला।
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बिगोउ, बिगोऊ  : पुं० [हिं० बिगोना] १. नाश। बरबादी। २. खराबी। बुराई।
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बिगोना  : स० [सं० विगोपन] १. खराब या नष्ट करना। बिगाड़ना। २. दुरूपयोग करना। ३. छिपाना। चुराना। ४. तंग, दिक या परेशान करना। ५. धोखा देना। ६. बहकाना। ७. व्यतीत करना। बिताना।
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बिग्गाहा  : पुं० [सं० बिगाथा] आर्या छंद का एक भेद जिसे उदगीति भी कहते हैं। इसके पहले पद में १२, दूसरे में १५ तीसरे में १२ और चौथे में १८ मात्राएँ होती है।
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बिग्यान  : पुं०=विज्ञान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिग्रह  : पुं० [सं० विग्रह] १. शरीर। देह। २. झगड़ा। लड़ाई। ३. विभाग । ४. दे० ‘विग्रह’।
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बिग्रूधना  : अ० [सं० विकुंचन] १. कठिनता या दिक्कत में पड़ना। २. असमंजस से पड़ना। ३. पकड़ा या दबाया जाना। स० धर दबाना। दबोचना।
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बिघटना  : स० [सं० विघटन] १. विघटित करना। तोड़ना-फोड़ना। २. नष्ट करना। अ० विघटित होना। नष्ट या भ्रष्ट होना।
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बिघन  : पुं०=विघ्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिघनहरन  : वि० [सं० विघ्नहरण] बाधा या विघ्न हरनेवाला। बाधा दूर करनेवाला। पुं०=गणेश।
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बिघार  : पुं०=बाघ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिच  : क्रि० वि०=बीच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचकना  : अ० [सं० विकुंचन] (मुँह) इस प्रकार कुछ टेढ़ा होना जिससे अप्रसन्नता, अरुचि आदि सूचति हो। जैसे—मुझे देखते ही उनका मुँह बिचक जाता है।
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बिचकाना  : स० [हिं० बिचकना का स०] १. कोई चीज देखकर उसके प्रति अपनी अप्रसन्नता अरुचि आदि प्रकट करते हुए मुँग कुछ टेढ़ा करना। जैसे—किसी को देखकर या किसी चीज के अप्रिय स्वाद के कारण मुँह बिचकाना। २. किसी का उपहास करने या मुँह चिढ़ाने के लिए उसकी तरह कुछ विकृत मुँह बनाना। किसी को चिढ़ाने के लिये बिगाड़कर उसी की तरह मुँह बनाना।
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बिचच्छन  : वि०=विचक्षण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचरना  : अ० [सं० विचरण] १. इधर-उधर घूमना चलना-फिरना। विचरण करना। २. यात्रा या सफर करना।
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बिचलना  : अ० [सं० विचलन] १. विचलित होना। इधर-उधर हटना। २. कहकर मुकरना। ३. साहस या हिम्मत छोड़ना। हतोत्साह होना। ४. सम्बन्ध छोड़कर अलग होना। अ० १.=बिछलना (फिसलना) २. बिछड़ना। ३. मचलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचला  : वि० [हि० बीच+ला(प्रत्यय)] [स्त्री० बिचली] १. बीच में होने या पड़नेवाला। २. जो न बहुत बड़ा हो और न बहुत छोटा। ३. मध्य श्रेणी का।
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बिचलाना  : स० [सं० विचलन] १. विचलित करना। डिगाना। २. उचित मार्ग से इधर-उधर करना। बहकाना। ३. तितर-बितर करना। बिखेरना। ४. हिलाना।
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बिचवई  : पुं० [सं० बीच+वई (प्रत्यय)] १. दीच-बचाव करनेवाला। २. मध्यस्थ। स्त्री० दो आदमियों का झगड़ा निपटाने के लिए की जानेवाली मध्यस्थता।
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बिचवान  : पुं०=बिचवई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचवानी  : स्त्री०=बिचवई (मध्यस्थता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचार  : पुं०=विचार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचारना  : अ० [सं० विचार+ना (प्रत्यय)] १. विचार करना। सोचना। गौर करना। २. प्रश्न करना। पूछना।
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बिचारा  : वि० [स्त्री० बिचारी]=बेचारा।
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बिचारी  : पुं० [हि० बिचारना] विचार करनेवाला। विचारशील।
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बिचाल  : पुं० [सं० विचाल] अंतर। फरक। स्त्री०=बे-चाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचुरना  : अ० [सं० विचयन] १. चयन करना। चुनना। २. कपास से बिनौले अलग करना। स० [सं० विचूर्णन] चूर्ण या टुकड़े-टुकड़े करना।
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बिचेत  : वि० [सं० विचेतस्] १. मूर्च्छित। बेहोश। अचेत। २. जिसकी बुद्धि ठिकाने पर न रह गई हो। बद-हवास।
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बिचौलिया  : पुं०=बिचौली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिचौली  : पुं० [हिं० बीच+औली (प्रत्यय)] १. वह व्यक्ति जो उत्पादक से माल खरीदकर और बीच में कुछ नफा खाकर दुकानदारों आदि के हाथ बेचता हो। वह व्यक्ति जो किसी प्रकार का देन चुकानेवालों से वसूल करके मूल अधिकारी या स्वामी को देता हो और इस प्रकार बीच में स्वयं भी कुछ लाभ करता हो। (मिडिल मैन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—जमींदार, जागीरदार आदि सरकार और किसानों के बीच में रहकर बिचौली का काम करते थे।
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बिचौहा  : वि० [हिं० बीच+औहाँ (प्रत्यय)] बीच का। बीचवाला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिच्छा  : पुं० [हि० बीच] १. बीच की दूरी या जगह। २. बीच का काल या समय। ३. अन्तर। फरक। पुं० [स्त्री० बिच्छी] बिच्छू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिच्छू  : पुं० [सं० वृश्चिक] [स्त्री० बिच्छी] १. एक प्रसिद्ध छोटा जहरीला जानवर जो प्रायः गरम देशों में अंधेरे स्थानों में (जैसे—लकड़ियों या पत्थरों के नीचे, बिलों में रहता है। २. एक प्रकार की घास जो शरीर से छू जाने पर जलन उत्पन्न करती है। ३. काकतुंडी का पौधा या फल।
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बिच्छेप  : पुं०=विक्षेप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछड़न  : स्त्री० [हिं० बिछड़ना] १. बिछड़ने की क्रिया या भाव। २. बिछड़े हुए होने की अवस्था या भाव। २. बिछोह। वियोग।
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बिछड़ना  : अ० [सं० विच्छेदन] १. साथ रहनेवाले दो व्यक्तियों का एक-दूसरे से अलग होना। जुदा होना। अलग होना। २. प्रेमी और प्रेमिका का किसी कारण इस प्रकार एक-दूसरे से अलग होना कि दोनों का मन दुखी हो। ३. साथी के अलग या छूट जाने के कारण अकेला पड़ जाना।
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बिछत  : स्त्री० [अ० बिदअत] १. पुरानी अच्छी बात का बिगाडनेवाली नई खराब बात। २. खराबी। दोष। ३. कष्ट। तकलीफ। ४. विपत्ती। संकट। ५. अत्याचार। जुल्म। ६. दुर्दशा। क्रि० प्र०—भोगना।—सहना।
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बिछना  : अ० [हिं० बिछाना का अ०] १. (बिस्तर आदि का) बिछाया जाना। फैलाना जाना। २. (छोटी-छोटी चीजों का दूर तक फैलाया या बिखेरा जाना। जैसे—जमीन पर फूलों का बिछना। ३. (व्यक्ति का) मारे-पीटे जाने के कारण पर गिर या लेट जाना। जैसे—दंगो में बहुत से आदमी बिछ गये (या लाशे बिछ गई)
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बिछलना  : अ०=फिसलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछलाना  : अ०=फिसलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछवाना  : स० [हिं० बिछाना का प्रे०] बिछाने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को बिछाने में प्रवृत्त करना।
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बिछान  : पुं०=बिछौना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछाना  : स० [सं० विस्तरण] १. (बिस्तर या कपड़े आदि का) जमीन पर उतनी दूर तक फैलाया जितनी दूर तक फैल सके। जैसे—बिछौना बिछाना। २. बिछाना। कोई चीज या चीजें जमीन पर दूर तक फैलाना या बिखेरना। जैसे—फर्श पर फूल बिछाना। ३. इस प्रकार मारना-पीटना कि आदमी जमीन पर गिरकर पड़ या लेट जाय।
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बिछायत  : स्त्री०=बिछावन। (बिछौना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछावन  : पुं०=बिछौना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछावना  : स०=बिछाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछिआ  : स्त्री० [हिं० बिच्छू+इया (प्रत्यय)] पैर की उँगलियों में पहनने का एक प्रकार का छल्ला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछिप्त  : वि०=विक्षिप्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछुआ  : पुं० [हिं० बिच्छू] १. पैर में पहनने का एक प्रकार का गहना। २. एक प्रकार का छोटा टेढ़ा छुरा जिससे प्रायः प्रहार करते हैं। ३. अगियासन। ४. घास आदि का पूला।
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बिछुड़न  : स्त्री०=बिछड़न।
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बिछुड़ना  : अ०=बिछड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछुरंता  : पुं० [हिं० बिछुड़ना+अंता (प्रत्यय)] १. बिछड़नेवाला। २. बिछड़ा हुआ।
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बिछुरना  : अ०=बिछड़ना।
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बिछुरनि  : स्त्री०=बिछड़न। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछुवा  : पं०=बिछुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछूना  : वि० [हिं० बिछुड़ना] बिछड़ा हुआ। जो बिछड़ गया हो। पुं०=बिछोह (वियोग) उदाहरण—जल मुँह अगिनि सो जान बिछूना।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछोई  : वि० पुं० दे० ‘बिछूना’।
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बिछोड़ा  : पुं० [हिं० बिछुड़ना] १. बिछड़ने की क्रिया या भाव। अलग-अलग होना। २. बिछड़े हुए होने की अवस्था। बिछोह। वियोग।
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बिछोय  : पुं०=बिछोह (वियोग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछोया  : पुं०=बिछोह (वियोग) उदाहरण—मित्र बिछोया कठिन है, जनि दीजौ करतार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछोह  : पुं०=बिछोड़ा (वियोग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिछोही  : वि० [हिं० बिछोह] १. जिसमें कोई बिछुड़ गया हो। २. जो बिछोह या वियोग के फलस्वरूप दुःखी हो।
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बिछौन  : पुं०=बिछौना।
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बिछौना  : पुं० [हिं० बिछाना] १. दरी, गद्दी, चादर आदि ऐसे कपड़े जो बैठने या लेटने के लिए जमीन पर बिछाये जाते हैं। बिछावन। बिस्तर। क्रि० वि० बिछाना। २. बिछी या बिछाई हुई ऐसी वस्तुओं का विस्तार जिस पर लेटा जाय। जैसे—काँटों का बिछौना, फूलों का बिछौना, पत्थरों का बिछौना। स०=बिछाना।
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बिजई  : वि०=विजयी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजउर  : पुं०=बिजौरा (नींबू)।
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बिजड़  : स्त्री० [?] तलवार। खंग। (डि० )
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बिजड़ा  : पुं० [हिं० बिजड़] बड़ी तलवार।
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बिंजन  : पुं०=व्यंजन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजन  : पुं० [फा० विजन] जनता का वध। कत्ले-आम। पुं०=व्यंजन। (पंख)। वि०=विजन (जन-रहित)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजना  : पुं० [सं० व्यंजन] पंखा। वि० [सं० विजन] १. एकान्त। (स्थान) २. जिसके साथ कोई न हो। अकेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजनी  : स्त्री० [सं० विजन] हिमालय पर रहनेवाली एक जंगली जाति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजय  : स्त्री०=विजय।
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बिजयघंट  : पुं० [सं० विजयघण्ट] वह बड़ा घंटा जो मंदिरों में लटका रहता है।
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बिजयसार  : पुं० [सं] एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली पेड़ जिसके पत्ते पीपल के पत्तों से कुछ छोटे होते हैं। इस पेड़ की लकड़ी ढोल आदि बनाने के काम आती है।
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बिजरी  : स्त्री०=बिजली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजली  : स्त्री० [सं० विद्युत, प्रा० बि्ज्जु] १. एक प्रसिद्ध प्राकृतिक शक्ति जो तत्त्वमात्र के मूल-भूत अणुओं या कणों मे नहिक और सहिक अथवा ऋणात्मक और धनात्मक रूपों में वर्तमान रहती है और जो संघर्ष तथा रासायनिक परिवर्तन या विकारों से उत्पन्न होती है। विद्युत (इलेक्ट्रिसिटी) विशेष—इसका कार्य चारों ओर अपनी किरणें या धाराएँ फैलाना, आकर्षण तथा विकर्षण करना और पदार्थों में रासायनिक परिवर्तन या विकार उत्पन्न करना है। २. उक्त का वह रूप जो कुछ विशिष्ट रासायनिक प्रक्रियाओं अथवा जलप्रपातों के संघर्ष आदि से कुछ विशिष्ट यंत्रों के द्वारा उत्पादित किया जाता है और जिसका उपयोग घरो में प्रकाश करने गाड़ियाँ पंखे आदि चलाने और कल-कारखाने चलाने के लिए तारों के द्वारा चारों ओर वितरित किया जाता है। विशेष—प्रायः ढाई हजार वर्ष पूर्व थेल्स नामक व्यक्ति ने पहले-पहल यह देखा था कि रेशम के साथ कुछ विशिष्ट चीजें रगड़ने से उसमें हलकी चीजों की अपनी ओर खीचने की शक्ति आ जाती है बाद में लोगों ने देखा कि मोर का पंख थोड़ी देर तक रगड़ने रेशम को शीशे से रगड़ने तथा लोहे को फलालेन से रगड़ने पर भी यह शक्ति उत्पन्न होती है। तब से पाश्चात्य वैज्ञानिक इसके संबंध में अनेक प्रकार के अनुसंधान और परीक्षण करने लगे, जिनके फलस्वरूप अब यह शक्ति सारे संसार के सभ्य-जीवन का एक प्रदान अंग बन गई है, और इससे सैकड़ों तरह के काम लिए जाने लगे हैं। यह धातुओं प्राणियों के शरीर, जल आदि में बहुत ही तीव्र गति से चलती हैं। ऊन, चूना, मोम, रेशम, लोहा, शीशा आदि अनेक ऐसे पदार्थ भी है, जिनमें इनका संचार नहीं होता। अब इसका उपयोग बिना तार के सम्पर्क के दूर-दूर तक समाचार भेजने और अनेक प्रकार के रोगों की चिकित्सा करने में भी होने लगा है। ३. उक्त शक्ति का वह घनीभूत रूप जो आकाश के बादलों में प्रवाहित होता और कभी-कभी बहुत ही घोर शब्द करता हुआ तीव्र वेग से तथा क्षणिक प्रबल आकाश से युक्त होकर पृथ्वी पर आता या गिरता हुआ दिखाई देता है और जिसमें बहुत अधिक नाशक शक्ति होती है। चपला (लाइटनिंग) क्रि० प्र०—कड़कना।—चमकाना। मुहावरा—बिजली कडकना=बादलों में बिजली का प्रवाह या संचार होने के कारण बहुत जोर का शब्द होना, जिसके परिणामस्वरूप बहुत तीव्र प्रकाश दिखाई देता है। और कभी-कभी बिजली गिरती भी है। बिजली गिरना या पड़ना=आकाश से बिजली तिरछी रेखा के रूप में पृथ्वी की ओर बडे़ वेग से चलकर आती है, जिससे रास्ते में पड़नेवाली चीजें जलकर नष्ट हो जाती या टूट-फूट जाती है। ४. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना, जिसमें बहुत चमकीला लटकन लगा रहता है। ५. गले में पहनने का उक्त प्रकार का हार। ६. आम की गुठली के अन्दर की गिरी। वि० १. बिजली की तरह बहुत अधिक चमकीला। २. बिजली की तरह बहुत अधिक तीव्र गति या वेगवाला। ३. बिजली की तरह चंचल या चपल।
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बिजली-घर  : पुं० [हिं० ] वह स्थान जहाँ रासायनिक प्रक्रियाओं, जलप्रपातों आदि से बिजली उत्पन्न करके कल-कारखाने आदि चलाने और घरों में प्रकाश आदि करने के लिए जगह-जगह तार की सहायता से पहुँचाई जाती है।
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बिजली-बचाव  : पुं० [हिं०] लोहे का वह टुकड़ा और तार जो ऊंची इमारतों आदि पर आकाश से गिरनेवाली बिजली आकृष्ट करके जमीन के अन्दर पहुँचाने के लिए लगा रहता है और जिसके फलस्वरूप बिजली गिरने के नाशक प्रभावों से रक्षा होती है। तडित्रक्षक (लाइटनिंग प्रोटेक्टर)
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बिजली-मार  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का बहुत सुन्दर और छायादार बड़ा वृक्ष।
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बिजहन  : पुं० [हिं० बीज+हन] अनाजों आदि का ऐसा दाना या ऐसा बीज जिसकी उत्पादन-शक्ति नष्ट हो चुकी हो। निर्जीव बीज।
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बिजाती  : वि० [सं० विजातीय] १. दूसरी जाति का। और जाति या तरह का। २. जाति से निकाला हुआ। जाति से बहिष्कृत।
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बिजान  : वि०=अनजान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजाय  : पुं० [सं० विजय] बाजूबंद (गहना)।
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बिजार  : पुं० [देश] १. बैल। २. साँड़।
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बिजुरी  : स्त्री०=बिजली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजूका  : पुं०=बिजूखा।
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बिजूखा  : पुं० [देश] १. खेत में गाड़ा हुआ छोटा बाँस या डंडा जिस पर काली हाँडी टँगी होती है और जिसका मुख्य प्रयोजन पशु-पक्षियों को डराकर फसल से दूर रखना होता है धोखा। २. छल। धोखा।
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बिजै  : स्त्री०=विजय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजैसार  : पुं०=विजयसार।
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बिजोग  : पुं०=वियोग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजोना  : स० [हिं० जोवना या जोहना] १. अच्छी तरह देखना। २. देख-रेख करना। [हिं० बीज=बिजली] बिजली चमकना। स० [हिं० बीज] बीज बोना। उदाहरण—आछी भाँति सुधारि कै खेत किसान बिजोय।—दीनदयाल गिरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजोरा  : वि० [सं० वि+फा० जोर=ताकत] कमजोर। अशक्त। निर्बल। पुं० बिजौरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिजौरा  : पुं० [सं० बीजपुरक] एक प्रकार का नीबू। वि० [हिं० बीज+औरा (प्रत्यय)] बीज से उत्पन्न होनेवाला। बीजू। ‘कलमी’ से भिन्न।
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बिजौरी  : स्त्री० [हिं० बीज+औरी (प्रत्यय)] बड़ी कुम्हड़ौरी।
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बिज्जल  : स्त्री०=बिजली।
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बिज्जु  : स्त्री०=बिजली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिज्जुपात  : पुं० [सं० विद्युत्पात] आकाश से बिजली गिरना। वज्रपात
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बिज्जुल  : पुं० [सं० बिज्जुल] त्वचा। छिलका। स्त्री०=बिजली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिज्जू  : पुं० [देश] बिल्ली की तरह का एक जंगली जानवर। बीजू।
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बिज्जूहा  : पुं० [?] एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण होते हैं।
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बिझकना  : अ०=बिचकना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिझरा  : पुं० [हिं० मेझरना=मिलाना] एक में मिला हुआ मटर, चना, गेहूँ और जौ।
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बिझँवारी  : स्त्री० [देश] छत्तीसगढ़ में बोली जानेवाली एक उपभाषा या बोली।
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बिझुकना  : अ० [हिं० झुकना] १. भड़कना। २. डरना। ० ३. तनने के कारण कुछ टेढ़ा होना। ४. चंचल होना। अ०=बिचकना।
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बिझुका  : पुं०=बिजूखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिझुकाना  : स० [हिं० बिझुकना] १. भड़काना। २. डराना। ३. टेढ़ा करना। अ०=बिझुकना।
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बिंट  : पुं०=वृत्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिट  : पुं० [सं० विट्] १. वैश्य। २. दे० ‘विट’। स्त्री०=बीठ (पक्षियों की विष्ठा)।
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बिटक  : पुं० [सं० बिटक] [स्त्री० अल्पा० बिटका] फोड़ा।
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बिटंड  : पुं०=वितंडा। उदाहरण—करसि बिटंड बरम नहिं करसी।—जायसी।
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बिटप  : पुं०=विटप (वृक्ष)।
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बिटपी  : पुं०=विटपी।
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बिटंबना  : अ० [हिं० बिडबना] हँसी उडाना। स्त्री०=बिडंबना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिटरना  : अ० [हिं० बिटारना का अ० रूप] घँघोले जाने पर गंदा होना।
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बिटारना  : स० [सं० विलोडन] १. घँघोलना। २. घँघोलकर गंदा करना।
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बिटिनिया  : स्त्री०=बेटी।
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बिटिया  : स्त्री०=बेटी।
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बिटौरा  : पुं० [सं० विट] १. सूखे कंडे का ढेर। २. ढेर। राशि उदाहरण—कर्यौ सबनि परनाम बिटौरा रूप पेटतर।—भगवत रसिक। वि० बहुत बडा और भारी।
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बिट्ठल  : पुं० [सं० विष्णु, महा० बिठोया] १. विष्णु का एक नाम। २. विष्णु की एक विशिष्ट मूर्ति जिसकी उपासना प्रायः दक्षिण भारत में होती है और जिसकी प्रधान मूर्ति पंढरपुर में है।
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बिठलाना  : स०=बैठाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिठाना  : स०=बैठाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिठालना  : स०=बैठाना।
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बिड  : पुं०=[सं० विट] १. गुह। मल। विष्ठा। २. एक प्रकार का नमक। वि० १. दुष्ट। पाजी। २. नीच।
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बिडंब  : पुं० [सं० विडम्ब] आडंबर। दिखावा।
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बिडंबना  : अ० [सं० वि√डम्ब+युच्-अन] किसी को चिढ़ाने या उपाहास्यपद बनाने के लिए उसकी नकल उतारना। स्त्री०=बिडम्बना।
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बिडर  : वि० [हिं० बिडरना] बिखरा या छितराया हआ। वि०=निडर। वि०=विरल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिडरना  : अ० [सं० विट्=तीखे स्वर से पुकारना, चिल्लाना] १. बिखरना। २. पशुओं आदि का बिचकना या बिदकना। ३. नष्ट होना। ४. बिगड़ना। [हिं० डरना] भयभीत होना। डरना।
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बिडराना  : स० [सं० विट्=जोर से चिल्लाना] १. इधर-उधर करना। तितर-बितर करना। बिखराना। २. भागना। स०=डराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिडवना  : स० [सं० विट्=जोर से चिल्लाना] तोड़ना।
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बिड़से  : वि, ०=बिड़ायते। (दलाल)।
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बिड़ायते  : वि० [सं० बद्धायते] अधिक। ज्यादा। (दलाल)।
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बिड़ारना  : स० [हिं० बिडरना] १. भयभीत करके भगाना। २. बाहर करना। निकालना। स०=बिगाड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिड़ाल  : पुं० [सं० बिडाल] १. बिल्ली। बिलाव। २. दोहे के बीसवें भेद का नाम। २. अक्षर गुरु और ४२ अक्षर लघु होते हैं। ३. आँख का ढेला। ४. आँख के रोगों की एक प्रकार की चिकित्सा। ५. दे० ‘बिड़ालाक्ष’।
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बिड़ालक  : पुं० [सं० बिडालक] १. आँख का गोलक। नेत्र-पिंड। २. आँखों पर लेप चढ़ाना। ३. नर बिड़ाल। बिल्ला।
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बिड़ालपाद  : पुं० [सं० बिड़ालपाद] एक तौल जो एक कर्ष के बराबर होती है।
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बिड़ालवृत्तिक  : वि० [सं० बिडालवृत्तिक] बिल्ली के समान स्वभाववाला। लोभी, कपटी, दंभी हिंसक सबकों धोखा देनेवाला और सबसे टेढ़ा रहनेवाला।
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बिड़ालाक्ष  : वि० [सं० विडालाक्ष] जिसकी आँखें बिल्ली की आँखों के समान हो। पुं० एक प्रसिद्ध राक्षस जिसे दुर्गा ने मारा था।
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बिड़ालिका  : स्त्री० [सं० बिडालिका] १. बिल्ली। २. हरताल।
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बिड़ाली  : स्त्री० [सं० बिडाली] १. बिल्ली। २. आँखों में होनेवाला एक प्रकार का रोग। ३. एक योगिनी जो उक्त रोग की अधिष्ठाती कहीं गई हैं।
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बिड़िक  : स्त्री० [सं० विदिक] पान का बीड़ा। गिलौरी।
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बिड़ी  : स्त्री०=बीड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिड़ौजा  : पुं० [सं० बिडौजस्] इंद्र का एक नाम।
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बिढ़तो  : पुं० [हिं० बदना] नफा। लाभ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिढ़वना  : स० [सं० वृद्धि, हिं० बढ़ना] १. बढ़ाना। २. इक्ट्ठा करना।
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बिढ़ाना  : स०=बिढ़वना।
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बित  : पुं०=दे० ‘बित्त’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बितत  : भू० कृ० [सं० वि√तन् (विस्तार होना)+क्त] १. फैला हुआ। विस्तृत। २. खींचा या ताना हुआ। जैसे—वितत धनुष। ३. झुका हुआ। पुं० १. वीणा नाम का बाजा। २. वीणा की तरह का एक बाजा।
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बितताना  : अ० [सं० व्यथित] १. व्यथित होना। २. विलाप करना। बिलखना। स० दुःखी या संतप्त करना। अ० [सं० वितान] परसना। फैलना। स० पसारना। फैलाना।
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बितनु  : वि०=बितनु (कामदेव)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बितपन्न  : वि०=व्युत्पन्न। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बितरना  : स० [सं० वितरण] १. वितरण करना। बाँटना। च० चारों ओर फैलाना। बिखेरना। वि० [स्त्री० बितेरनी] बाँटनेवाला। उदाहरण—चतुरानन हरि ईस परम पद बिसद बितरनी।—रत्ना०।
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बितराना  : स० [हिं० वितरना] १. वितरण करना। २. चारो ओर फैलाना। अ० [?] १. बुरा कहना या बताना। ऐब या दोष लगाना। २. किसी को झूठा बनाना। यह कहना कि अणुक झूठा है या झूठ बोलता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बितवना  : स०=बिताना।
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बिता  : पुं०=बित्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिताना  : स० [सं० व्यतीत, हिं० बीतना का संक्षिप्त रूप] अवधि, समय आदि के सम्बन्ध में व्यय या व्यतीत करना। जैसे—उन्होने सारा दिन सोकर बिताया।
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बिताल  : पुं०=बैताल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बितावना  : स०=बिताना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बितिरिक्त  : वि०=व्यतिरिक्त (अधिक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बितीतना  : अ० [सं० व्यतीत] व्यतीत होना। बीतना। स०=बिताना।
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बितु  : पुं०=बित्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बितुंड  : पुं०=बितुंड (हाथी)।
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बित्त  : पुं० [सं० वित्त] १. धन। दौलत। २. निजी साधनों के बल पर। कोई काम करने की समर्थता। बिसात। बूता। ३. आर्थिक सम्पन्नता। औकात। हैसियत। ४. ऊंचाई या आकार।
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बित्ता  : पुं० [?] १. मनुष्य के एक हाथ के अँगूठे और कनिष्ठिका के सिरों के बीच की अधिकतम दूरी। २. उक्त दूरी की एक नाप जो नौ इंच के बराबर होती है। पद—बित्ता भर=आकार में बहुत छोटा।
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बित्ती  : स्त्री० [सं० वित्त] आय आदि में से धर्म-कार्यों के लिए निकाला हुआ धन। वि० १. बित्तवाला। सम्पन्न। २. समर्थ। स्त्री० [?] लडकों का एक प्रकार का खेल जिसमें एक लड़का कंकड़ या ठीकरा दूर फेंकता और दूसरा उसे उठाकर लाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिथकना  : अ० [हिं० थकना] १. थकना। २. चकित होना। ३. मोहित होना।
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बिथकाना  : स० [हिं० बिथकना] १. थकाना। २. चकित करना। ३. मोहित करना। अ०=बिथकना।
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बिथरना  : अ० [सं० विस्तरण] १. छितराना। २. अलग-अलग होना। ३. छिन्न-भिन्न या नष्ट-भ्रष्ट होना। स० १. बिखेरना। २. (बीज) होना। उदाहरण—बारि बीज बिथरै।—सूर।
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बिथा  : स्त्री०=व्यथा।
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बिथारना  : स० [हिं० बिथरना] बिखेरना।
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बिथित  : वि०=व्यथित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिथुरना  : अ०=बिथरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिथुराना  : अ०=बिथराना (बिखेरना) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिथुरित  : भू० कृ० [हिं० बिथुरना] १. बिखरा हुआ २. छिन्न-भिन्न। नष्ट-भ्रष्ट। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिथुलना  : अ०=बिथुरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिथोरना  : स०=बिथराना।
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बिंद  : पुं० [सं० बिंदु] १. पानी की बूँद। २. वीर्य की बूंद जिससे गर्भाधान होता है। ३. दोनों भौहों के बीच का स्था। भ्रू-मध्य। ४. माथे पर लगाई जानेवाली बिंदी। ५. दे० ‘बिंदु’। पुं० [?] दूल्हा। वर। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिद  : वि० [सं० विद्] जाननेवाला। ज्ञाता। जैसे—जोग बिद=योग का ज्ञाता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिंदक  : वि०=विंदक।
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बिदकना  : अ० [सं० विदारण] १. कुछ डरते हुए पीछे हटना। भड़कना। २. विदीर्ण होना। चिरना। फटना। ३. घायल होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिदकाना  : स० [सं० विदारण] १. चौंका या डराकर पीछे हटाना। भड़काना। २. चीरना या फाड़ना। ३. घायल करना।
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बिंदना  : स० [सं० वन्दन] १. वंदना करना। २. ध्यान करना। उदाहरण—सबद बिंदौरे अवधूस बद बिंदौ।—गोरखनाथ। ३. प्रशंसा करना। उदाहरण—कोई निन्दौ कोई बिन्दौ म्हे तो गुण गोविंद।—मीराँ।
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बिदर  : पुं०=ब्रीदर (विदर्भ देश)। पुं०=विदुर (दे०)।
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बिदरन  : स्त्री० [सं० विदीर्ण] १. विदीर्ण होने अर्थात् फटने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. दरज। दरार। वि० विदीर्ण करने या फाड़नेवाला। (यौ० के अंत में)
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बिदरना  : अ० [सं० विदारण] १. विदीर्ण होना। फटना। उदाहरण—जो बासना न बिदरत अंतर तेई-तेई अधिक अनुअर चाहत।—सूर। २. नष्ट होना। स० विदीर्ण करना। फाड़ना।
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बिदरी  : वि०, स्त्री०=बीदरी।
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बिदलना  : अ० [सं० विदलन] १. दलित करना। २. छिन्न-भिन्न या नष्ट-ब्रष्ट करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिदहना  : स० [सं० विदहन] १. भस्म करना। जलाना। २. बहुत अधिक दुखी या संतप्त करना। ३. धान या ककुनी आदि की फसल में आरम्भ में पाटा या हेंगा चलाना।
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बिदहनी  : स्त्री० [हिं० विदहना] बिदहने की क्रिया या भाव।
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बिंदा  : पुं० [सं० बिंदु] १. माथे पर का गोल और बड़ा टीका। बेंदा। बुंदा। बड़ी बिंदी। २. उक्त आकार का कोई चिन्ह। स्त्री०=वृन्दा (गोपी)
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बिदा  : स्त्री० [फा० बिदाअ] १. कहीं से कुछ अधिक समय के लिए चले जाना या प्रस्थान करना। रवाना होना। प्रस्थान। २. उक्त के लिए मिलने या माँगी जानेवाली अनुमति या आज्ञा। क्रि० प्र०—देना।—माँगना।—मिलना। ३. विवाहिता पुत्री का मायके से ससुराल जाना। ४. द्विरागमन गौना।
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बिदाई  : स्त्री० [फा० बिदाअ+हिं० आई (प्रत्यय)] १. बिदा होने की अवस्था या भाव। २. वह धन जो विदा होनेवाले को विदा देनेवाले देते हैं। ३. वह उत्सव जिसमें किसी को सम्मानपूर्वक बिदा किया जाता है। ४. बिदा होने के लिए मिलनेवाली आज्ञा। ५. विवाहिता कन्या बहू अथवा दामाद को बिदा करने की रस्म।
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बिदाम  : पुं०=बादाम।
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बिदामी  : वि०, स्त्री०=बादामी।
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बिदायगी  : स्त्री०=बिदाई।
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बिदायत  : पुं० [सं० विद्यापति] गाने बजानेवालों का वह दल या मण्डली जो मिथिला में घूम-घूम कर मैथिल कोकिल विद्यापति के पद गाती है।
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बिदारना  : स० [सं० विदारण] १. विदीर्ण करना। चीरना। फाड़ना। २. नष्ट करना। न रहने देना।
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बिदारी  : पुं० [सं० विदारी] १. शालपर्णी। २. भुई कुम्हड़ा। ३. एक प्रकार का कंठरोग। ४. दे० ‘बिदारी कंद’।
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बिदारीकंद  : पुं० [सं० विदारी कंद] एक प्रकार का कंद जिसकी बेल के पत्ते अरूई के पत्तों के समान होते हैं। बिलाई कंद।
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बिदाहना  : स० [?] खेत को उस समय पुनः जोतना जब उसमें नई फसल के अंकुर निकल आते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिदिसा  : स्त्री०=विदिशा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिंदी  : स्त्री० [सं० बिंदु] १. शून्य का सूचक चिन्ह। सिफर। सुन्ना। २. उक्त आकार का छोटा टीका जो माथे पर लगाया जाता है। ३. इस प्रकार का कोई चिन्ह या पदार्थ। ४. दे० ‘टिकुली’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिदीरना  : स०=बिदारना।
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बिंदु  : पुं० [सं०√विद् (विभक्त करना)+उ] १. पानी या किसी तरल पदार्थ की बूँद। कतरा। २. किसी पदार्थ का बहुत ही छोटा कण। ३. लेख आदि की बिंदी। सून्य। सिफर। ४. बहुत ही छोटा गोलाकार अंकन या चि्ह्र। ५. ज्यामिति में उक्त प्रकार का वह अंकन या चिन्ह जिसके विभाग न हो सकते हों। ६. लेखन आदि में उक्त प्रकार की वह बिंदी जो अनुस्वार की सूचक होती है। ७. प्रेमी या प्रेमिका के शरीर पर दाँत गड़ाकर किया जानेवला क्षत। दंत-क्षत। ८. भौहों और ललाट के बीचोबीच का स्थान। ८. नाटक में अर्थ-प्रकृति की पाँच स्थितियों में से दूसरी जिसमें कोई गौण घटना आदि उसी प्रकार बढ़कर प्रधान या मुख्य घटना के समान जान पड़ने लगती है, जिस प्रकार पानी पर गिरी हुई तेल की बूँद फैलकर उस पर छा जाती है। १॰. योग में अनाहत नाद के प्रकाश का व्यक्त रूप। स्त्री०=बेंदी (गहना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिंदु-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. चौसर आदि खेलने की बिसात और पासा। २. गेंद।
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बिंदु-देव  : पुं० [सं० ष० त०]=शिव।
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बिंदु-पत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] भोजपत्र।
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बिंदु-फल  : पुं० [उपमि० स०] मोती।
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बिंदु-बिब  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का चित्तीदार हिरन।
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बिंदु-रेखक  : पुं० [सं० ब० स० कप्०] १. अनुस्वार। २. एक तरह का पक्षी।
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बिंदु-रेखा  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह रेखा जो बिन्दुओं केयोग से बनी हो जैसे...।
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बिंदुक  : पुं० [सं० बिंदु+कन्] १. बूँद। २. बिंदी।
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बिंदुकित  : भू० कृ० [सं० बिंदुक+इतच्] जिस पर बिंदु लगे या लगाये गये हों।
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बिदुराना  : अ०=मुस्कराना।
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बिदुरानी  : स्त्री० [हिं० बिदुराना] मुस्कराहट। मुस्कान।
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बिंदुरी  : स्त्री०=बिंदी।
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बिदुल  : स्त्री० [सं० बिंदु] स्त्रियों के माथे का टीका या बिंदी।
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बिंदुली  : स्त्री०=बिंदी।
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बिंदुवासर  : पुं० [सं० ष० त०] वह दिन जिसमें स्त्री को गर्भाधान हुआ हो।
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बिदूरित  : भू० कृ० [सं०=बिदूर+इतच्, विदूरित] दूर किया हुआ या हटाया हुआ।
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बिदूषना  : अ० [सं० विदूषण] १. दोष या कलंक लगाना। २. खराब करना। बिगाड़ना।
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बिदूसक  : वि० पुं०=बिदूषक।
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बिदेस  : पुं० [सं० विदेश] अपने देश के अतिरिक्त और कोई देश। परदेस। विदेस।
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बिदेसिया  : पुं० [हि० विदेशी] पूरब में गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत जिनमे विदेश गये हुए पति के संबंध में उसकी प्रियतमा के उदगार होते है और जिनके प्रत्येक चरण के अन्त में बिदेसिया सब्द होती है। जैसे—दिनवाँ बितैला सइयाँ बटिया जोहत तोर रतिया बीतैली जागि जागि रे बिदेसिया।
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बिदेसी  : वि०=विदेशी।
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बिदोख  : पुं० [सं० विद्वेष] वैर। वैमनस्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिदोरना  : स० [सं० विदारण] दीनतापूर्व मुँह या दाँत खोलकर दिखाना।
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बिद्ध  : वि०=विद्ध०
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बिद्धत  : स्त्री० [अ० बिद्धअत] १. खराबी। बुराई। २. कष्ट। ३. विपत्ति। ४. अत्याचार। ५. दुर्दशा।
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बिंद्रावन  : पुं०=वृन्दावन।
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बिद्रूप  : वि०=विद्रूप।
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बिंध  : पुं०=विध्याचल।
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बिध  : स्त्री० [सं० विधि] १. विधाता। ब्रह्या। २. तरह। प्रकार। उदाहरण—जाही बिध राखे राम ताही विधि रहिये। क्रि० प्र०—बैठना।—बैठाना। ३. जमा या खर्च की मदों को जोड़ते-घटाते हुए उनका हिसाब मिलाने की क्रिया या भाव। मुहावरा—बिध मिलना=(क) जोड़ने-घटाने पर आय-व्यय आदि का योग ठीक होना। हिसाब मिलना। (ख) किसी के साथ मेल या संगति बैठना। अनुकूलता होना। जैसे—वर और वधू के ग्रहों की बिध मिलना। बिध मिलाना=(क) आय और व्यय की मदों का जोड़ लगाकर यह देखना कि लेखा ठीक है या नहीं। (ख) यह देखना कि अनुकूलता या संगति बैठती है या नहीं। पुं० [?] हाथियों का चारा या रातिब।
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बिंधना  : अ० [सं० वेधन] १. बींधना का अकर्मक रूप। बींधा जाना। छेदा जाना। विरूद्ध होना। २. अटकना। उलझना। फँसना।
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बिधना  : पुं० [सं० विधि+उन (प्रत्यय)] ब्रह्या। विधाता। अ०=बिंधना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिधबंदी  : स्त्री० [सं० विधि=जमा+फा० बंदी] मध्य युग में भूमि-कर देने की वह रीति जिसमें बीघे आदि के हिसाब से कोई कर नियत नहीं होता था, बल्कि सारी जमीन के लिए यों ही अंदाज से कुछ रकम दे दी जाती थी। बिलमुकता।
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बिधवपन  : पुं०=वैधव्य।
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बिधवा  : वि०=विधवा।
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बिंधवाना  : स० [हिं० बिंधना का प्रे०] बींधने का काम किसी से कराना।
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बिधवाना  : स०=बिंधवाना।
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बिधँसना  : स० [सं० विध्वंसन] विध्वंस करना। नष्ट करना।
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बिधाई  : पुं० [सं० विधायक] वह जो विधान करता हो। विधायक।
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बिधाता  : पुं०=विधाता।
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बिधान  : पुं०=विधान।
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बिंधाना  : सं०=बिंधवाना। अ०=बिंधना।
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बिधाना  : स०=बिधाना। अ०=बिंधना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिधानी  : पुं०=विधायक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिधाँसना  : स० [सं० विध्वंसन] विध्वंस करना। नष्ट करना।
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बिधि  : स्त्री०=विधि। पुं०=विधि (ब्रह्मा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिधितात  : पुं० [सं० विधि+तात] ब्रह्मा का नजक अर्थात् कमल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिधिना  : स्त्री०=बिधना (विधाता)।
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बिधिबान  : पुं० दे० ‘ब्रह्मास्त्र’।
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बिंधिया  : पुं० [हिं० बींधना+ईया (प्रत्यय)] वह जो मोती बींधने का काम करता हो। मोती में छेद करनेवाला कारीगर।
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बिधुतुद  : पुं०=बिधुतुद (राहु)।
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बिधुली  : पुं० [देश] एक प्रकार का बाँस जो हिमालय की तराई में पाया जाता है। नल-बाँस। देव-बाँस। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिधुंसना  : स० [विध्वंसन] विध्वंस करना। नष्ट करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिन  : अव्य०=बिना (बगैर)। पुं० बिंद नाम की जाति। पुं० [अ०] पुत्र। पुं० बेटा।
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बिनई  : वि०=विनयी। स्त्री०=बिनाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनउ  : स्त्री०=विनय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनकार  : वि० [हि० बुनना] बुनकर। जुलाहा।
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बिनकारी  : स्त्री० [हिं० बिनकार] जुलाहे का काम।
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बिनठना  : स्त्री० [सं० विनष्ट] नष्ट होना। स० नष्ट करना।
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बिनता  : स्त्री० [देश] पिंडकी नाम की चिड़िया। स्त्री० [हिं० विनती] १. विनय। २. विवशता। ३. दीनता।
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बिनति  : स्त्री०=विनती।
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बिनती  : स्त्री० [सं० विनय] १. विनय। निवेदन। अर्ज़।
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बिनन  : स्त्री० [हिं० बिनना=चुनना] १. बिनने या चुनने की क्रिया या भाव। २. बिने या चुनने पर निकलनेवाला कूड़ा करकट। ३. चुने हुए होने की अवस्था, क्रिया या भाव। बुनावट।
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बिनना  : स० [सं० वीक्षण] १. छोटी-छोटी वस्तुओं को एक-एक करके उठाना। ‘चुनना’। बीनना। २. छाँटकर अलग करना। ३. दे० ‘बुनना’। स०=बींधना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनय  : स्त्री०=विनय।
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बिनयना  : स० [सं० विनयन] विनय या प्रार्थना करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनरी  : स्त्री०=अरनी (वृक्ष)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनवट  : स्त्री० [?] रूमाल या रस्सी में पैसा आदि बाँधकर बनेठी भाँजने की क्रिया या खेल। स्त्री० १.=बिनावट। २.=बुनावट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनवना  : अ० [सं० विनय] विनय करना। प्रार्थना करना।
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बिनवाना  : स० [हिं० बीनना] बीनने या चुनने का काम किसी से कराना। स०=बुनवाना।
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बिनसना  : अ० [सं० विनाश] नष्ट होना। बरबाद होना। स० नष्ट या बरबाद करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनसाना  : स० [सं० विनाश] विनाश करना। बिगाड़ डालना० नष्ट कर देना। अ० नष्ट या बरबाद होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनस्टी  : स्त्री०=विनाश। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनह  : अव्य०=बिना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिना  : अव्य० [सं० बिना] १. न रहने या होने की दशा में। २. बगैर। जैसे—रुपये के बिना काम न चलेगा। ३. अतिरिक्त। सिवा। उदाहरण—राम बिना कछु जानत नाहीं। स्त्री० [अ०] १. नींव। बुनियाद। २. कारण। सबब। जैसे—यहीं तो सारे झगड़े की बिना है।
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बिनाई  : स्त्री० [हिं० बिना या बीनना] १. बीनने या चुनने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. दे० ‘बुनाई’। स्त्री० [अ० बीनाई] आँखों की ज्योति।
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बिनाती  : स्त्री०=बिनती।
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बिनाना  : स०=बुनवाना।
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बिनानी  : वि० [सं० विज्ञानी] अज्ञानी। अनजान। स्त्री० [सं० विज्ञान] विशिष्ट रूप में किया जानेवाला चिन्तन या विचार।
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बिनावट  : स्त्री०=बुनावट।
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बिनास  : स्त्री० [सं० पीनसः] नाक से खून गिरना या जाना। नकसीर। क्रि० प्र०—फूटना। पुं०=विनाश।
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बिनासना  : स० [सं० विनष्ट] १. विनष्ट करना। बरबाद करना। २. संहार करना।
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बिनाह  : पुं०=विनाश। उदाहरण—साकत संग न कीजिए जाते होइ बिनाह।—कबीर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनि  : अव्य०=बिना।
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बिनु  : अव्य०=बिना (बगैर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनुआ  : वि० [हिं बीनना] १. जो बीन तथा चुनकर इकट्ठा किया गया हो। जैसे—बिनुआ कंडे। २. छाँटा हुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनूठा  : वि० [हिं० अनूठा] अनूठा। अनोखा। विलक्षण।
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बिनै  : स्त्री०=विनय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनैका  : पुं० [सं० विनायक] वह पकवान जो पहले धान में से निकालकर गणेश जी के निमित्त अलग कर देते हैं।
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बिनौरा  : पुं०=बिनौला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिनौरिया  : स्त्री० [हिं० बिनौला] एक प्रकार की घास जो खरीफ के खेतों में पैदा होती है।
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बिनौरी  : स्त्री० [हिं० विनौला] बिनौले के छोटे-टुकड़े।
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बिनौला  : पुं० [?] कपास का बीज।
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बिपक्ष  : पुं०=विपक्ष।
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बिपक्षी  : वि० पुं०=विपक्षी।
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बिपच्छ  : पुं० [सं० विपक्ष] शत्रु। बैरी। दुश्मन। वि० १. जो विरोधी पक्ष मे हो। २. अप्रसन्न। नाराज।
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बिपच्छी  : पुं०=विपक्षी।
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बिपणि  : स्त्री०=विपणि।
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बिपता  : स्त्री०=विपत्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिपति  : स्त्री०=विपत्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिपत्त  : स्त्री०=विपत्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिपत्ति  : स्त्री०=विपत्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिपथ  : पुं०=विपथ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिपद  : स्त्री० [सं० विपद] आफत। मुसीबत। विपत्ति।
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बिपदा  : स्त्री०=विपद।
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बिपर  : पुं०=विप्र (ब्राह्मन)।
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बिपरसा  : पुं० [?] दे० बाँस (वृक्ष)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिपाक  : पुं०=विपाक।
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बिफर  : पुं०=विफल।
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बिफरना  : अ० [सं० विप्लवन] १. नाराज होना। बिगड़ना। २. हठ करना। ३. अभिमान आदि में फूलना। ४. लड़ने को तैयार होना। ५. विद्रोह या विप्लव करना। बागी होना। अ०=बफरना।
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बिफुलता  : स्त्री०=प्रफुल्लता। उदाहरण—जो तन दुति बिफुलता कहैं देति छवि निरखत बात।—ललित किशोरी।
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बिंब  : पुं० [सं०√वी (गमन)+बन्, नि० सिद्धि०] १. किसी आकृति की वह झलक जो किसी पारदर्शक पदार्थ में दिखाई पड़ती हैं। २. परछांही। ३. प्रतिमूति। ४. चंद्रमा या सूर्य का मंडल। ५. कोई गोलाकार चिन्ह। मंडल। ६. सूर्य। ७. आभास। झलक। ८. कमंडलु। ९. गिरगिट। १॰. कुँदरू नामक फल। ११. एक प्रकार का छन्द। १२. साहित्य में, शब्द का लक्षणा या व्यंजना शक्ति से निकनलेवाला अर्थ। संकेत का विपर्याय। १३. चंद्रमा सूर्य या किसी ग्रह का थाली के आकार का वह चिपटा रूप जो साधारण देखने पर सामने रहता हैं।
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बिंब-ग्रहण  : पुं० [सं० ष० त०] भाषा विज्ञान और मनोविज्ञान मे वह बौद्धिक या मानसिक प्रक्रिया जिससे कोई शब्द या बात सुनकर अभिधा शक्ति से निकलनेवाले साधारण अर्थ से भिन्न कोई विशेष अर्थ या आशय ग्रहण किया जाता है।
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बिंब-प्रतिबिंब-भाव  : पुं० [सं० बिंब-प्रतिबिंब, द्व० स० बिंबप्रतिबिंब-भाव० ष० त०] वह अवस्था जिसमें दो वस्तुएँ एक दूसरी की छाया या बिंब से युक्त और उसके प्रतिबिंब के रूप में होती या जान पड़ती है।
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बिंब-फल  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुँदरू।
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बिंब-सार  : पुं०=बिंबसार।
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बिंबक  : पुं० [सं० बिम्ब+कन्] १. चंद्रमा या सूर्य का मंडल। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाला। ३. कुँदरू। ४. साँचा।
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बिबछना  : अ० [सं० विपक्ष] १. विरोधी पक्ष में जाना, रहना या होना। २. अटकना। उलझना। फँसना।
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बिबर  : पुं०=विवर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबरजित  : भू० कृ०=विवर्जित।
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बिबरन  : वि० [सं० विवर्ण] १. जिसका रंग खराब हो गया हो। बदरंग। २. चिता आदि के कारण जिसका रंग फीका पड़ गया हो। पुं०=विवरण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबराना  : स० [सं० विवरण] १. (बाल) सुलझाना। २. उलझन या विकटता दूर करना। ३. स्पष्ट रूप से विवरण बतलाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबर्ध  : वि०=विवरध। (बहुत बढ़ा हुआ)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबस  : वि० [सं० विवश] १. मजबूर। विवश। २. परादीन। परवश। क्रि० वि० विवश होकर। लाचारी हालत में।
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बिबसना  : अ० [हिं० बिबस] विवश होना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबहार  : पुं०=व्यवहार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिंबा  : पुं० [सं० बिम्ब+अच्+टाप्] १. कुँदरू। २. प्रतिच्छाया। बिंब। ३. चंद्रमा या सूर्य का मंडल।
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बिबाई  : स्त्री०=बिवाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबाक  : वि०=बेबाक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबाकी  : स्त्री०=बेबाकी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबादना  : अ० [सं० विवाद] विवाद करना। झगड़ना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबाहना  : स० [सं० विवाह] ब्याह करना। ब्याहना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबि  : वि० [सं० द्वि] १. दो। २. दोनों।
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बिंबित  : भू० कृ० [सं० बिम्ब+इतच्] जिस पर बिंब या प्रतिबिंब पड़ा हो।
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बिबिंसार  : पुं० [सं०] मगध का एक प्राचीन राजा जो अजातशत्रु के पिता और गौतमबुद्ध के समकालीन थे।
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बिंबु  : पुं० [सं०] सुपारी का पेड़।
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बिबेक  : पुं०=विवेक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिबेचना  : स० [सं० विवेचन] विवेचन करना। स्त्री०=विवेचन।
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बिंबो (बौ)  : वि० [सं० बिंब-ओष्ठ, ब० स० पररूप] [स्त्री० बिबोष्ठी] जिसके होंठ कुँदरू की तरह लाल हो। पुं० कुँदरू जैसा लाल होंठ।
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बिब्बोक  : पुं० [सं० विव्वोक] स्वाभिमान, गर्व आदि के फलस्वरूप प्रिय के प्रति प्रदर्शित की जानेवाली उदासीनता।
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बिभचारी  : वि० पुं०=व्यभिचारी।
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बिभाना  : अ० [सं० विभा+हिं० ना(प्रत्यय)] १. चमकना। २. सुशोभित होना। स० १. चमकाना। २. सुशोभित करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिभिचारी  : वि० पुं०=व्यभिचारी।
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बिभिनाना  : स० [सं० विभिन्न] अलग या पृथक् करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिभीषक  : वि०=विभीषक।
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बिभीषका  : स्त्री०=विभीषिका।
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बिभै  : पुं०=विभव।
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बिभोर  : वि०=विभोर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिभौ  : पुं०=विभव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिमन  : वि० [सं० विमिनस्] [स्त्री० बिमना] जिसका मन या चित्त ठिकाने न हो। अन्य-मनस्क। विमन।
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बिमफल  : पुं०=बिंबफल (कुदरू)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिमला  : स्त्री०=विमना। (दे०)
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बिमली  : स्त्री० [सं० विमल] इड़ा नाड़ी।
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बिमान  : पुं०=विमान। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिमानी  : वि० [सं० वि+मान] जिसे अभिमान न हो। निरभिमान। स्त्री०=बेईमानी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिमुद  : वि० [सं० वि+मुद्] १. जिसे मोद या प्रसन्नता न हो। फलतः खिन्न या दुःखी। २. चितित।
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बिमोचना  : स० [सं० विमोचन] मुक्त करना। छुड़ाना।
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बिमोहना  : स०=मोहना। अ०=मोहित होना।
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बिमौट, बिमौटा  : पुं०=बाँबी (बाल्मीक)।
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बिमौर  : पुं० [सं० बल्मीक] बाँबी। (दे०)।
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बिय  : वि० [सं० द्वि] १. दो। युग्म। २. दूसरा। द्वितीय। ३.अन्य़। और। पुं०=बीया (बीज)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियत  : पुं० [सं० वियत्] १. आकाश। २. एकांत स्थान।
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बियन  : पुं० [सं० विजन] एकान्त स्थान। सुनसान। जगह। उदाहरण—बियन भजन दृढ़ गहि रहै तजि कुटुंब परिवार।—ध्रुवदास।
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बियना  : स०=बीजना। पुं०=बीज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियर  : स्त्री० [अ०] एक तरह की विलायती मादक तथा शीतल पेय जो जौ के रस को सड़ाकर बनाया जाता है। यविरा।
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बियरसा  : पुं० [देश] एक प्रकार का ऊंचा पहाड़ी वृक्ष।
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बियहुता  : वि०=ब्याहता।
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बिया  : वि० [सं० द्वि] दूसरा। अन्य। अपर। पुं० शत्रु। (डि०)। पुं०=बीया (बीज)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियाज  : पुं०=ब्याज (१. सूद २. बहाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियाजू  : वि० [सं० ब्याज+ऊ] १. ब्याज या सूद संबंधी। २. ब्याज के रूप में या ब्याज पर दिया जानेवाला (धन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियाड़  : पुं० [हिं० बिया+ड़ (प्रत्यय)] वह खेत जिसके पौधे उखाड़कर अन्य खेतों में रोपे जातने को हों।
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बियाध (धा)  : पुं०=व्याध (बहेलिया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियाधि  : स्त्री०=व्याधि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियान  : पुं० [हि० बियाना] बियाने अर्थात् बच्चा देने की क्रिया या भाव। प्रसव।
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बियाना  : स०=ब्याना (पशुओं का बच्चा देना)।
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बियापना  : अ० [सं० व्याप्त] व्याप्त होना।
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बियाबान  : पुं० [सं० वि+आप् (जल-रहित) से फा०] जंगल। वन।
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बियाबानी  : वि० [फा०] १. बियावन का जंगल-संबंधी। २. जंगली।
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बियारी  : स्त्री०=ब्यालू (रात का भोजन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियारू  : स्त्री०=ब्यालू।
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बियाल  : पुं०=ब्याल।
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बियालू  : स्त्री०=ब्यालू (रात का भोजन)।
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बियाव  : पुं० १.=बियान। २.=विवाह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियावर  : वि० स्त्री० [हिं० बियाना=बच्चा देना] (मादा जीव या पशु) जो गाभिन हो और जल्दी ही बच्चा देने को हो। जैसे—बियावर गाय या भैंस। पद—बरस बियावर (देखें)।
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बियाह  : पुं०=विवाह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियाहता  : वि०=ब्याहता।
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बियाहना  : स० [हिं० ब्याह] ब्याह करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बियाहा  : वि० [सं० विवाहिता] [स्त्री० बियाही] जिसका विवाह हो चुका हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बियो  : पुं० [डिं] बेटे का बेटा। पोता।
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बियोग  : पुं०=वियोग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरई  : स्त्री० [हिं० बिरवा] १. छोटा पौधा। २. जड़ी-बूटी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरख  : पुं०=वृक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरखभ  : पुं०=वृषभ (बैल)।
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बिरखा  : स्त्री०=वर्षा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरंग (ा)  : वि० [सं० विरंग] [स्त्री० बिंरगी] १. कई रंगोंवाला। २. बिना किसी प्रकार के रंग का। वर्णहीन।
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बिरगिड़  : पुं० [अ० ब्रिगेड] सेना का एक विभाग जिसमें कई रेजिमेंट या पलटने होती हैं।
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बिरंचना  : स०=बिरचना।
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बिरचना  : स० [सं० विरचन] रचना। बनाना। [सं० वि+रुचि] १. मन उचटना। ऊबना। उदाहरण—बिरच्यौ किहि दोष न जानि सकौं जु गयौ मन मों तजि रोषन तौं।—नआनंद। २. अप्रन्नन होना। नाराज होना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरछ  : पुं०=वृक्ष।
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बिरछिक  : पुं=वृच्छिक।
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बिरंज  : पुं० [फा०] १. चावल। २. पका हुआ चावल। भात।
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बिरज  : पुं०=ब्रज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरजफूल  : पुं० [?] एक प्रकार का जड़हन। धान।
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बिरंजी  : स्त्री० [?] लोहे की छोटी कील। छोटा काँटा। वि० [फा० बिरंग] चावल या भात सम्बन्धी।
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बिरझना  : अ० [सं० विरूद्ध] १. उलझना। २. झगड़ना।
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बिरझाना  : स० [सं० बिरझाना] १. उलझाना। २. लडाई झगड़े में किसी को प्रवृत्त करना। अ०=बिरझना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरतंत  : पुं०=वृत्तांत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरता  : पुं०=बूता (सामर्थ्य)।
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बिरतांत  : पुं०=वृत्तांत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरताना  : स०=बरताना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरतिया  : पुं० [सं० वृत्ति+इया (प्रत्यय)] १. वह व्यक्ति (विशेषतः नाई या भाट) जो एक पक्ष की ओर से दूसरे पक्षवालों के यहाँ वैवाहिक संबंध स्थिर करने के लिए तथा उनकी आर्थिक तथा सामाजिक स्थित का पता लगाने के लिए भेजा जाता था। २. वह जो दान, पुण्य, आदि प्राप्त करके जीविका चलाता हो।
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बिरथा  : अव्य०=वृथा( व्यर्थ)। वि०=वृथा (निरर्थक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरद  : पुं०=विरुद्ध। (यश)। वि०=विरद (दंतहीन)।
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बिरदैत  : पुं० [सं० विरद+ऐत (प्रत्यय)] कीर्तिवान। योद्धा। यशस्वी। वीर। वि० प्रसिद्ध। मशहूर।
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बिरध  : वि० [स्त्री० विरधा]=वृद्ध। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरधाई  : स्त्री० [हिं० वृद्ध+आई(प्रत्यय)] वृद्धावस्था। बुढ़ापा।
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बिरधापन  : पुं० [सं० वृद्ध+हिं० पन(प्रत्यय)] वृद्द होने की अवस्था या भाव। बुढ़ापा।
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बिरमना  : अ० [सं० विरमण] १. किसी पर आसक्त या मोहित होकर उसके प्रेमपाश में फँसना या फँसकर उसके पास रुक जाना। २. विलंब करना। देर लगाना। [सं० विराम] १. विराम करना। ठहरना। २. आराम करना। सुस्ताना। ३.अलग होना। उदाहरण—अपने कृत तै हौं नहिं बिरमत।—सूर।
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बिरमाना  : स० [हिं० बिरमना का स० रूप] १. किसी को बिरमने में प्रवृत्त करना। (दे० ‘बिरमना’)। २. किसी को अपने पर आसक्त या मोहित करना। ३. (समय) गुजारना। बिताना। अ० दे० ‘बिरमना’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरला  : वि० [सं० विरल] [स्त्री० बिरली] १. जो सब जगह या अधिकता में, नहीं बल्कि कभी-कभी और कहीं-कहीं दिखाई देता या मिलता हो। इक्का-दुक्का। जैसे—उसका स्वभाव भी कुछ बिरला ही है। २. अनेक या बहुतों में से ऐसा कोई जिसमें किसी विशिष्ट काम को करने की समर्थता तथा साहस होता है। जैसे—कलियुग में परोपकारी कोई बिरला ही होता है। विशेष—इसके साथ ही का प्रयोग होता है।
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बिरव  : पुं०=बिरवा।
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बिरवा  : पुं० [सं० विटपक, प्रा० बिरवआ] १. वृक्ष। पेड़। २. पौधा। उदाहरण—होनहार बिरवान के होत चीकने पान।— ३. चना। बूट।
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बिरवाही  : स्त्री० [हिं० बिरवा+हिं० (प्रत्यय)] १. वह स्थान जहाँ बहुत से पेड़-पौधे हों। २. वह स्थान जहाँ छोटे-छोटे पौधे बिक्री रोपाई आदि के लिए उगाये जाते हों।
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बिरषभ  : पुं०=वृषभ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरष्य  : पुं० [सं० वृत्त] पेड़।
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बिरस  : वि० [सं० विरस] जिसमें रस न हो। रसहीन। पुं० रस (प्रेम) का अभाव। २. जहर। विष। (डि० ) ३. अनबन। बिगाड़। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरसना  : अ० [सं० विलास] १. विलास करना। २. भोगना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरह  : पुं०=विरह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरहना  : स० [सं० विराधन] १. खंडित करना। तोड़ना-फोड़ना। २. नष्ट करना। अ० १. खंडित होना। २. नष्ट होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरहा  : पुं० [सं० विरह] भोजपुरी बोली में, दो पंक्तियों वाला एक प्रसिद्ध लोकछंद।
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बिरहागि  : स्त्री० [सं० विरह+हिं० आग] विरह के कारण प्रिया (या प्रेयसी) को होनेवाली हार्दिक पीड़ा या कष्ट।
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बिरहाना  : अ० [सं० विरह] विरह-व्यथा काअनुभव करना। उदाहरण—राधा बिरह देख बिराहनी।—सूर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरही  : पुं०=विरही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरहुला  : पुं० [पा० बिरूल्हक=नाग] [स्त्री० बिरहुली] साँप। सर्प। उदाहरण—बोइनी सातो बीज बिरहुली।—कबीर।
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बिरहुली  : स्त्री० [हिं० बिरहुला का अल्पा० स्त्री० रूप] १. सर्पिणी। २. साँप के काटने पर उसका विष उतारने का मंत्र।
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बिरागना  : अ० [सं० विराग] १. विरक्त होना। २. संन्यास ग्रहण करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिराजना  : अ० [सं० वि+रंजन] १. शोभित होना। शोभा होना। उदाहरण—सीस मोतियन का सेहरा बिराजै।—गीत। २. बैठना। (आदरसूचक) जैसे—आइए बिराजिए। उदाहरण—राज-सभा रघुराज बिराजा
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बिरादनराना  : वि० [फा० बरादरानः] (व्यवहार) जैसा भाइयों में होता या होना चाहिए। भाइयों जैसा।
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बिरादर  : पुं० [फा० बरादर] भाई। भ्राता।
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बिरादरी  : स्त्री० [फा० बरादरी] १. भाईचारा। बंधुत्व। २. ऐसे लोगों का दल या वर्ग जिनमें परस्पर बंधुत्व या भाईचारे का व्यवहार होता हो। ३. विशेषतः किसी एक ही जाति या वर्ग के सब लोग जो सामाजिक उत्सवों पर एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते हों। जैसे—हिन्दुस्तानी बिरादरी।
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बिरान  : वि०=बिराना (पराया)। वि०=वीरान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिराना  : स० [सं० विरव या अनु०] किसी को चिढ़ाने या हास्यापद बनाने के लिए उसकी आवृत्ति को बिगाड़कर या उसकी मुद्रा का विलक्षण अनुकरण करना। जैसे—किसी का मुँह बिराना। वि०=बेगाना (पराया)।
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बिराम  : वि० [हिं० वे+आराम] १. बीमार। रोगी। २. बैचेन। विकल। पुं०=विराम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिराल  : पु०=बिड़ाल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
बिरावना  : स०=बिराना।
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बिरास  : पुं०=विलास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
बिरासी  : वि०=बिलासी।
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बिरिख  : पुं०=वृक्ष। २.=वृष।
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बिरिछ  : पुं०=वृक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
बिरिध  : वि०=वृद्ध। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरियाँ  : स्त्री० [हिं० बेला] १ समय। वक्त। बेला। स्त्री० [सं० वार] १. बार। दफा। मरतबा। २. पारी। बारी। उदाहरण—मेरी बिरियाँ बिरह कितै बिसरायौ।—सूर।
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बिरिया  : स्त्री० [हिं० बाली] १. छोटी कटोरी के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पश्चिमी जिलों में इसे ढार भी कहते हैं। २. चरखे के बेलन में की कपड़े या लकड़ी की वह गोल टिकिया जो इस हेतु लगाई जाती है कि चर्खे की मूड़ी खूँटे से रगड़ न खाए। स्त्री०=बिरियाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरियानी  : स्त्री० [फा०] एक प्रकार का नमकीन पुलाव।
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बिरी  : स्त्री०=बीड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरुआ  : पुं० [देश] एक प्रकार का राजहंस।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
बिरुझना  : अ० [सं० विरूद्ध या हिं० उलझना] १. उलझना। २. झगड़ा करना। झगड़ना।
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बिरुझाना  : स० [हिं० बिरुझना] १. उलझाना। २. लोगों से झगड़ा करना। अ०=बिरुझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरुद  : पुं०=विरुद (यश)।
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बिरुदैत  : पुं०=बिरदैत।
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बिरुधाई  : स्त्री०=वृद्धावस्था। स्त्री० [सं० विरुद्ध] विरुद्ध होने की अवस्था या भाव। विरोध।
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बिरूप  : वि०=विरूप।
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बिरोग  : पुं० [सं० वियोग] १. बियोग। २. दुःख। ३. चिंता।
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बिरोगी  : पुं० [स्त्री० बिरोगिन]=बियोगी।
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बिरोजा  : पुं० दे० ‘गंधा बिरोजा।’
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बिरोधना  : अ० [सं० विरोध] १. (किसी व्यक्ति या बात का) विरोध करना। २. किसी से विरोध या शत्रुता करना। ३. मार्ग अवरुद्ध करना।
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बिरोलना  : स०=बिलोड़ना।
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बिरौना  : स०=बिलोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिरौनी  : स्त्री० [?] कोदों, बाजरे आदि के खेतों में होनेवाली एक प्रकार की जोताई जो उनके अंकुरित होने पर की जाती है।
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बिर्छ  : पुं०=वृक्ष। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिर्ध  : वि०=वृद्ध। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिल  : पु० [सं०√बिल् (भेदन)+क] १. जमीन में, तल से नीचे की ओर गया हुआ वह रेखाकार मार्ग या खाली स्थान जिसे कीड़े-मकोडे चूहों आदि ने अपने रहने के लिए बनाया होता है। मुहावरा—बिल ढूँढ़ते फिरना=अपनी रक्षा का उपाय ढूँढ़ते फिरना। बहुत पेरशान होकर अपने बचने की तरकीब ढूँढना (व्यंग्य) पुं० [अं०] १. वह पुरजा जिसमें उन वस्तुओं का विवरण तथा मूल्य लिखा रहता है जो किसी के हाथ बेची गई हों या उन सेवाओं का विवरण हो जिनका पारिश्रमिक प्राप्य हो। प्राप्यक २. दे० ‘विधेयक’।
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बिल-फर्ज  : अव्य० [अ०] यह फर्ज़ करते हुए। यह मान कर।
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बिल-वास  : वि० [सं० ब० स०] दे० ‘बिलकारी’।
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बिलकना  : अ०=बिलखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलकारी (रिन्)  : पुं० [सं० बिल√कृ (करना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] चूहा। वि० बिल मे रहनेवाला।
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बिलकुल  : अव्य० [अ० बिल्कुल] १. जितना हो, उतना सब। कुल। सब। सारा। जैसे—उनका हिसाब बिलकुल साफ कर दिया गया। २. निरा। निपट। जैसे—वह भी बिलकुल बेवकूफ हैं। ३. बिना कुछ भी बाकी छोड़े हुए। ४. कुछ भी। तनिक भी। जैसे—मैंने बिलुकल देखा ही नहीं।
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बिलखना  : अ० [सं० विकल या विलाप] १. विलाप करना। रोना। २. रोते अथवा संतप्त होते हुए निरंतर अपने दुःख की चर्चा करना। [?] संकुचित होना। सिकुड़ना।
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बिलखाना  : स० [हिं० बिलखना का स०] ऐसा काम करना जिसमें कोई बिलखे। बहुत ही दुःखी या संतप्त करना। अ०=बिवखना। उदाहरण—विकसित कंज कुमुद बिलखाने।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलग  : वि० [हिं० बिलगना] अलग। पृथक्। पुं० १. विलग अर्थात् अलग या पृथक् होने की अवस्था या भाव। पार्थक्य। २. परकीय होने की अवस्था या भाव। परायापन। ३. पार्थक्य आदि के कारण मन में होनेवाला कुभाव या दुर्भाव। उदाहरण—देवि करौ कछु बिनय सो बिलगु मानब।—तुलसी। क्रि० प्र०—मानना।
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बिलगना  : अ० [सं० विलग्न] अलग या पृथक् होना।
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बिलगाऊ  : वि० [हिं० बिलग+आना (प्रत्यय)] अलग होना। पृथक् होना। दूर होना। स० १. अलग या पृथक् करना। २. चुनना। छाँटना।
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बिलगाव  : पुं० [हिं० बिलग+आव (प्रत्यय)] बिलग या अलग होने की अवस्था या भाव। अलगाव। पार्थक्य।
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बिलंगी  : स्त्री०=अलगनी।
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बिलगी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का संकर राग।
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बिलच्छन  : वि०=विलक्षण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलछना  : अ० [सं० लक्ष] लक्ष करना। ताड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलटना  : अ० [सं० बिलुटन] १. उलटा या विपरीत होना। उदाहरण—बिधि ही बिलटती दीखती है नियत नरकुल कर्म की।—मैथिलीशरण। २. तहस-नहस होना। विनष्ट होना। ३. परीक्षा प्रयत्न आदि में विफल होना। स०=बिलटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलटाना  : स० [हिं० बिलटना] १. उलटा या विपरीत करना। २. तहस-नहस या विनष्ट करना।
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बिलटी  : स्त्री० [अं० बिलेट] रेल में से जानेवाले माल की वह रसीद जिसे दिखलाने पर पानेवाले को माल मिलता है।
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बिलंद  : वि० [फा० बुंलद] १. जो बुरी तरह पराजित या विफल हुआ हो। २. दे० ‘बुलंद’।
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बिलंदना  : वि० [हिं० बिलंदना] १. नष्ट-भ्रष्ट। २. पराजित। ३. भ्रष्ट या हीन चरित्रवाला।
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बिलनपा  : अ० [सं० विलाप] विलाप करना। रोना।
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बिलना  : अ० [हिं० बेलना का अ०] बेला जाना।
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बिलनी  : स्त्री० [हिं० बिल] १. काली भौरी जो दीवारों या किवाड़ों पर अपने रहने के लिए मिट्टी की बाँबी बनाती है। २. आँख पर होनेवाली गुहांजनी नाम की फुंसी।
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बिलफेल  : अव्य० [अ०] वर्तमान अवस्था में इस समय। अभी। संप्रति।
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बिलंब  : पुं०=बिलंब।
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बिलंबत  : वि०=विलंबित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलंबना  : अ० [सं० विलंब] १. बिलंब करना। देर करना। २. ठहरना। रुकना। अ०=विरमना।
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बिलबिलाना  : अ० [अनु०] १. छोटे-छोटे कीड़ों का इधर-उधर रेगंना। २. विकल होकर बे-सिर पैर की बातें करना। प्रलाप करना। ३. विलाप करना। रोना-चिल्लाना। ४. दे० ‘बलबलाना’।
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बिलंबी  : पुं० [?] एक प्रकार का वृक्ष और उसका फल।
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बिलम  : पुं०=बिलंब। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलमना  : अ० [सं० विलंब] विलंब करना। देर करना। [सं० विरमण] किसी के प्रेम पश में बँधकर कहीं ठहर या रूक जाना।
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बिलमाना  : स० [हिं० बिलमना का स०] १. ऐसा काम करना जिससे कोई बिलमे। उदाहरण—भाव बुद्धि के सोपानों में बिलमाये न हृदय मन।—पन्त। स० [सं० विरमण] किसी को अपने प्रेम-पाश में बाँधकर ठहरा या रोक रखना।
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बिललाना  : अ० [सं० बिलाना अथवा अनु०] १. बलिखकर रोना। विलाप करना। २. विकल होकर असंब्ध प्रलाप करना।
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बिलल्ला  : वि० [हिं० लल्ला (बच्चा) का अनु०] [स्त्री० बिल्ललगी] जिसे कुछ भी बुद्धि या शहूर न हो निरा मूर्ख।
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बिलवाना  : स० [हिं० बिलाना का स०] १. विलीन कराना। २. गुम कराना। खोवाना। ३. नष्ट या बरबाद कराना। ४. छिपवाना। लुकवाना। सं० यो० क्रि०—देना। स० [हिं० बेलना का स०] किसी से बेलने का काम कराना।
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बिलवारी  : स्त्री० [?] बुदेंलखंड में कुआर में गाया जानेवाला एक प्रकार का गीत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलवासी (सिन्)  : वि० [सं० बिल√वस् (निवास)+णिनि, दीर्घ, नलोप] दे० ‘बिलकारी’।
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बिलशय  : वि० [सं० बिल√शी (शयन करना)+अच्] बिल मे रहनेवाला।
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बिलशायी (यिन्)  : वि० [हिं० बिल√शी (शनय करना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] बिल में रहने वाला। पुं० बिल मे रहने वाला जन्तु।
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बिलसना  : अ० [सं० विलसन] विशेष रूप से शोभा देना। बहुत भला जान पड़ना। स० उपयोग में लाना। भोग करना। भोगना। जैसे—संपत्ति या सुख विलसना।
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बिलसाना  : स० [हिं० बिलसना का स०] किसी को बिलसने में प्रवृत्त करना।
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बिलस्त  : पुं०=बालिश्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलहरा  : पुं० [हिं० बेल] बाँस की पतली तीलियों का बना हुआ एक प्रकार का छोटा डिब्बा जिसमे पान के बीड़े बनाकर रखे जाते हैं।
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बिला  : अव्य० [अ०] बिना। बगैर।
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बिलाई  : स्त्री० [सं० बिडाल] १. बिल्ली। २. सिटकिनी। ३. संतों की परिभाषा में बुरी बुद्धि। कुबुद्धि। ४. दे० ‘बिलैया’।
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बिलाई कंद  : पुं०=बिदारी कंद।
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बिलाना  : अ० [सं० बिलायन] १. विलीन होना। न रह जाना। २. नष्ट या बरबाद हो जाना। ३. छिपना। लुकना।
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बिलापना  : अ० [सं० विलाप] विलाप करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलार  : पुं० [सं० बिडाल] [स्त्री० बिलारी] बिल्ला। मार्जार।
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बिलारी  : स्त्री०=बिल्ली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलारी कंद  : पुं० [सं० बिदारी कंद] एकप्रकार का कंद। दे० ‘बिदारी कंद’।
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बिलाव  : पुं० दे० ‘बिलार’।
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बिलावर  : पुं०=बिल्लौर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलावल  : पुं० [देश] षाड़व-संपूर्ण जाति का एक राग जो रात के पहले पहर में गाया जाता है।
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बिलासखानी टोड़ी  : स्त्री० [बिलास खाँ (व्यक्ति)+हिं० टोड़ी] संगीत में एक प्रकार की टोड़ी रागिनी।
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बिलासना  : स० [सं० विलसन] १. भोग करना। भोगना। २. विलास या आनन्द-मंगल करना।
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बिलिंबी  : स्त्री० [मलाया० बलिंबा] एक प्रकार का कमरख का फल या उसका पेड़।
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बिलियर्ड  : पुं० [अं०] एक प्रकार का पाश्चात्य खेल जो लाल, सफेद तथा चितकबरे रंग के तीन गेदों और लंबी छड़ियों की सहायता से एक विशेष आकार-प्रकार की मेज पर खेला जाता है।
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बिलिया  : स्त्री० [देश०] गाय, बैल आदि के गले की एक बीमारी। स्त्री० हिं० बेला (कटोरा) का अल्पा० स्त्री०।
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बिलिश  : पुं० [?] १. मछली फँसाने का काँटा। २. उक्त में लगाया जाने वाला चारा।
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बिलुठना  : अ०=लोटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलुलित  : वि० [सं० विलुलित] अस्तव्यस्त। उदाहरण— बिलुलित अलक धूरि-धूसर तन, गगन लोट भुव आवनि।—ललित किशोरी।
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बिलूर  : पुं०=बिल्लौर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिलैया  : स्त्री० [हिं० बिल्ली] १. बिल्ली। पद—बिलैया दंडवत्=केवल दिखाने के लिए बिल्ली की तरह बहुत ही झुककर किया जानेवाला नमस्कार। बिलैया भगत=वह जो केवल दूसरों को दिखाने के लिए भक्तों का सा वेश धारण किये हों। २. लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जो अन्दर से दरवाजा कसने के लिए लगाया जाता है और आवश्यकतानुसार उठाया तथा गिराया जा सकता है। काठ की सिटकिनी। ३. कुएँ में गिरा हुआ बरतन आदि निकालने का काँटा जो प्रायः लोहे का बनता है। ४. कद्दूकश (देखें)।
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बिलोकना  : स० [सं० बिलोकन] १. अच्छी तरह या ध्यानपूर्वक देखना। २. जाँच-पड़ताल करने के लिए अच्छी तरह देखना।
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बिलोकनि  : स्त्री० [सं० विलोकन] देखने की क्रिया या भाव। कटाक्ष। दृष्टिपात।
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बिलोड़ना  : स०=बिलोना।
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बिलोन  : वि० [सं० वि=लावण्य]=बिलोना।
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बिलोना  : स० [सं० बिलोड़न] १. किसी तरल पदार्थ में कोई चीज डालकर अच्छी तरह मिलाना। २. धंधोलना। ३. चीजें इधर-उधर करना। अस्त-व्यस्त करना। ४. (आँसू) गिराना या बहाना। वि० [हिं० बि+लोन=नाक] [स्त्री० बिलोनी] १. जिसमें नमक न पड़ा हो। बिना नमक का। अलोना। उदाहरण—लोनि बिलोनि तहाँ को कहाँ।—जायसी। २. लावण्य या सौन्दर्य से रहित। कुरूप। भद्दा। ३. नीरस। फीका।
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बिलोरना  : स०=बिलोना।
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बिलोलना  : अ० [सं० बिलोलन] इधर-उधर लहरें मारना। स० इधर-उधर हिलाना लहराना।
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बिलोवना  : स०=बिलोना।
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बिलौर  : पुं०=बिल्लौर।
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बिल्कुल  : अव्य०=बिलकुल।
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बिल्मुक्ता  : वि० [अ० बिलमुक्तः] सब फुटकर मदों को मिलाकर एक में किया हुआ। जैसे—आय बिल्मुक्ता सौ रुपए दें, सब हिसाब साफ हो जाएँगे। पुं० मध्ययुग में लगान का वह प्रकार जिसमें सब मदों के लिए एक साथ कुछ निश्चित रकम दे दी जाती थी।
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बिल्ला  : पुं० [स० विडाल] [स्त्री० बिल्ली] बिल्ली का नर। पुं० [सं० पटल] कपड़े आदि की वह चौड़ी पटटी जो कुछ विशिष्ट प्रकार का काम करनेवाले लोग अपनी पहचान के लिए छाती पर लगाते या बाँह पर बाँधते है। जैसे—स्वयं-सेवकों का बिल्ला, कुलियों या चपरासियों का बिल्ला।
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बिल्ली  : स्त्री० [सं० बिड़ाल, हिं० बिलार] १. चीते, शेर आदि की जाति का पर अपेक्षया बहुत ही छोटे आकार का एक प्रसिद्ध जन्तु जो प्रायः घरों में पाला जाता है। मुहावरा—बिल्ली के गले में घंटी बाँधना=किसी काम का सबसे कठिन अंश पूरा या संपादित करना। २. किवाड़ की सिटकिनी जिसे कोढ़े में डाल देने से ढकेलने पर किवाड़ नहीं खुल सकता। ३. भारतीय नदियों में पाई जानेवाली एक प्रकार की मछली।
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बिल्ली-लोटन  : स्त्री० [हिं० बिल्ली+लोटना] एक प्रकार की बूटी जिसकी गंध से बिल्ली मस्त होकर लोटने लगती है।
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बिल्लूर  : पुं०=बिल्लौर।
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बिल्लौर  : पुं० [सं० वैदूर्य़्य, प्रा० बेलुरिय, मि० फा० बिल्लूर] [वि० बिल्लौरी] १. एक प्रकार का स्वच्छ पत्थर जो शीशे के समान पारदर्शी होता है। स्फटिक। (क्रिस्टल) २. उक्त की तरह स्वच्छ और बढ़िया शीशा।
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बिल्लौरी  : वि० [हिं० बिल्लौर] १. बिल्लौर-संबंधी। २. बिल्लौर पत्थर का बना हुआ। ३. बिल्लौर की तरह चमकीला सफेद और स्वच्छ जैसे—बिल्लौरी चूड़ियाँ।
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बिल्व  : पुं० [सं] बेल का वृक्ष और फल।
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बिल्वपत्र  : पुं० [सं] बेल के वृक्ष के पत्ते जो पवित्र मानकर शिवजी पर चढ़ाये जाते हैं।
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बिल्हण  : पुं० [सं] कश्मीर का एक प्रसिद्ध कवि जिसने विक्रमांक देव रचित की रचना की थी।
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बिवरना  : स० [सं० विवरण] १. एक में उलझी या गुथी हुई वस्तुओं को अलग-अलग करना। सुलझाना। जैसे—कंघी से सिर के बाल बिवरना। २. पूरा विवरण देना या बतलाना। ३. साफ करना। स्वच्छ करना। उदाहरण—बिवरौ काया पावौं सिद्धि।—गोरखनाथ। अ० १. सुलझाना। २. विवरण से युक्त या विस्तृत होना।
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बिवराना  : स० [हिं० बिवरना का प्रे०] १. आपस में उलझी या गुथी हुई चीजों को अलग-अलग करना सुलझवाना। जैसे—बाल बिवराना। २. विवरण सहित वर्णन कराना।
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बिवसाइ  : पुं०=व्यवसायी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिवाई  : स्त्री० [सं० विपादिका] एक रोग जिसमें प्रायः जाड़े के दिनों में पैर के तलुए का चमड़ा फट जाता या उसमें छोटे-छोटे घाव हो जाते हैं।
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बिवान  : पुं०=विमान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिशप  : पुं० [अं०] मसीही धर्म का आचार्य।
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बिश्नी  : पुं०=बिसनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिषान  : पुं०=विषाण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिषारा  : वि० [सं० विष+आरा (प्रत्यय)] जहरीला। विषाक्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिषिया  : स्त्री०=विषया। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिस  : पुं० [सं० विष] जहर। विष। पद—बिस की गाँठ=ऐसा पदार्थ या व्यक्ति जिससे सदा बहुत बड़ा अपकार, अहित या हानि ही होती हो। बहुत अधिक अनर्थों, दोषों आदि का मूल।
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बिस-खपरा  : पुं० [सं० विष+खर्पर] १. गोह की जाति का एक विषैला सरीसृप जंतु। २. एक प्रकार की जड़ी या बूटी जिसकी पत्तियाँ वनगोभी की सी पर कुछ अधिक हरी और लंबी होती है। ३. गदहपूरना। पुनर्नवा।
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बिसकरमा  : पुं०=विश्वकर्मा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसकुसुम  : पुं० [मध्य० स०] पद्य पुष्प।
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बिसखापर  : पुं०=बिसखपरा।
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बिसखोपड़ा  : पुं०=बिस-खपरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसंच  : पुं० [सं० वि-संचय] १. संचय का अभाव। वस्तुओं की संभाल न रखना। २. उपेक्षा। लापरवाही। ३. कार्य में होनेवाली बाधा या हानि। ४. अमांगलिक या अशुभ बात की आशंका।
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बिसटी  : स्त्री० [देश] बेगार (डिं०)
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बिसतरना  : स० [सं० विस्तरण] विस्तार करना। बढ़ाना। फैलाना। अ०=विस्तृत होना।
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बिसतार  : पुं०=विस्तार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसथार  : पुं०=विस्तार। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसद  : पुं०=विशद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसन  : पुं०=व्यसन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसनमउ  : वि० [सं० विस्मय] १. आश्चर्य। ताज्जुब। २. दुःख। रंज। हरष समय बिसमउ कत कीजै।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसनी  : वि० [सं० व्यसनी] १. जिसे किसी बात का व्यसन हो। किसी काम या बात का शौकीन। पुं० १. छैला। २. दुर्व्यसनी। ३. वेश्यागामी। रंडीबाज।
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बिसँभर  : वि० [सं० वि०+हिं० सँभार] १. जो ठीक स्थिति में रह या संभल न सके। २. (व्यक्ति) जो अपने आप को सँभाल न सके। असावधान। ३. गाफिल। बेहोश। उदाहरण—राधौ मारा बीजुरी। बिसंभर कछु नसंभार।—जायसी।
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बिसँभर  : पुं०=विश्वम्भर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसँभार  : वि० [सं० वि+हिं० सँभार] जिसे तन-बदन की खबर न हो। गाफिल।
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बिसमय  : पुं०=विस्मय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसमरना  : स० [सं० विस्मरण] विस्मृत करना। भूल जाना।
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बिसमाद  : पुं०=विषाद। उदाहरण—तहँ विसमाद बीच मुख सोहै।—नूर मुहम्मद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसमिल  : वि०=बिस्मिल।
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बिसमिल्ला (हृ)  : अव्य०=विस्मिल्लाह।
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बिसयक  : पुं० [सं० विषय] १. देष। प्रदेश। २. छोटा राज्य। रियासत्त।
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बिसरना  : अ० [सं० विस्मरण, प्रा० बिम्हरण, बिस्म] विस्मृत होना। भूलना। स० विस्तृत करना। भुला देना।
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बिसरात  : पुं० [सं० वेशर] खच्चर।
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बिसराना  : स० [हिं० बिसरना] विस्मृत करना। भुला देना।
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बिसराम  : वि०=विश्राम।
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बिसरामी  : वि० [सं० विश्राम] १. विश्राम करने या देनेवाला। २. सुखद। ३. किसी के साथ रहकर सुख भोगनेवाला।
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बिसरावना  : स०=बिसराना।
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बिसवा  : पुं०=विस्वा। स्त्री०=वेश्या। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसवार  : पुं० [सं० विषय=वस्तु+हिं० वार (प्रत्यय)] वह पेटी जिसमें नाई हजामत का सामान रखते हैं। किसबत।
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बिसवास  : पुं०=विश्वास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसवासी  : वि० [सं० विश्वासिन्] [स्त्री० विश्वासिनी] १. जो विश्वास करे। २. जिस पर विश्वास हो। विश्वसनीय। वि० [सं० अविश्वासिन्] १. जिस पर विश्वास न हो। २. विश्वासघाती। उदाहरण—पै यह पेट भएउ बिसवासी।—जायसी।
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बिससना  : स० [सं० विश्वसन] विश्वास करना। स० [सं० विशसन] १. मार डालना। वध करना। खत्म करना। २. शरीर के अंग काटना। ३. काटकर टुकड़े-टुकड़े करना।
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बिसहना  : स०=बिसाहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसहर  : पुं०=विषधऱ (साँप)। वि०=विषाक्त (जहरीला)।
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बिसहरू  : पुं० [हिं० बिसहना+रू (प्रत्यय)] मोल लेनेवाला। खरीददार। ग्राहक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसहिनी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की चिड़िया।
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बिसा  : पुं०=बिस्वा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसाख  : पुं०=वैशाख। स्त्री०=विशाखा (नक्षत्र)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसात  : स्त्री० [अ०] १. वह कपड़ा या चटाई जिस पर छोटे दूकान दार बिक्री की चीजें फैलाकर रखते हैं। २. वह कपड़ा, कागज आदि जिस पर चौपट, शतरंज आदि खेलने और गोटियों, मोहरें आदि रखने के लिए खाने बने होते हैं। ३. धन-संपत्ति आदि के विचार से होनेवाला सामर्थ्य। औकात। बिना। हैसियत। ४. पास में होनेवाला धन। जमा पूँजी। ५. शारीरिक शक्ति, योग्यता आदि के विचार से होनेवाला सामर्थ्य। ६. कुछ ग्रहण या धारण करने के विचार से होनेवाला सामर्थ्य। समाई।
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बिसात-खाना  : पुं० [अ० बिसातखानाः] १. बिसाती की दुकान। २. बिसाती की दुकान पर बिकनेवाला सामानों का समूह।
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बिसातबाना  : पुं० [हिं० ] वे सब सामान जो बिसातियों की दूकानों पर मिलते हैं।
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बिसाती  : पुं० [अ०] १. वह जो बिसात पर सामान फैलाकर बेचता हो। २. सूई, तागा, बटन, साबुन, तेल आदि फुटकर सामान बेचने वाला दूकानदार।
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बिसाना  : अ० [सं० वश] वश चलना। काबू या जोर चलना। अ० [सं० विष=बिस+ना (प्रत्यय)] विष का प्रभाव करना। जहर का असर करना। जहरीला होना। स० विष से युक्त या जहरीला करना। स०=बिसाहना (मोल लेना)।
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बिसायँध  : वि० [सं० वसा=मज्जा, चरबी+गंध] सड़ी मछली या मांस की-सी गंधवाला।
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बिसारद  : पुं०=विशारद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसारना  : स० [हिं० बिसरना] स्मरण न ऱखना। ध्यान में नरखना। विस्मृत करना। भुलाना। संयो० क्रि०—देना।
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बिसारा  : वि० [सं० विषालु] [स्त्री० बिसारी] विष भरा। विषाक्त। जहरीला। पुं०=बिसायँध।
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बिसास  : पुं० १.=विश्वास। २.=दे० ‘विश्वासघात’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसासी  : वि० [सं० अविश्वसिन्] [स्त्री० विसासिन, बिसासिनी] १. जिस पर विश्वास न किया जा सके। २. कपटी। धोखेबाज। पुं० [सं० विश्व+आशिन्] विश्व का भक्षक, अर्थात् काल।
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बिसाह  : पुं० [सं० व्यवसाय] बिसाहने की क्रिया या भाव। विश्वास (पश्चिम)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसाहन  : पुं० [हिं० बिसाहना] मोल लेने की वस्तु। काम की वह चीज जो खरीदी जाय। सौदा।
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बिसाहना  : स० [हिं० बिसाह] १. दाम देकर कोई वस्तु लेना। क्रय करना। २. जान-बूझकर अपने पीछे या साथ लगाना। जैसे—किसी से पैर बिसाहना। पुं० १. बिसाहने की क्रिया या भाव। २. मोल लेना। खरीदना। उदाहरण—पूरा किया बिसाहना बहुरि न आवै हद।—कबीर।
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बिसाहनी  : स्त्री० [हिं० बिसाहना] १. क्रय-विक्रय का काम। व्यापार। २. मोल ली जाने वाली चीजें।
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बिसाहा  : पुं० [हिं० बिसाहना] वह वस्तु जो मोल ली जाय। सौदा।
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बिसिअर  : पुं०=विषधर। वि०=विषाक्त। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसिख  : पुं०=विशिख (तीर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसियर  : पुं० वि०=बिसिअर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसुकर्मा  : पुं०=विश्वकर्मा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसुनना  : अ० [हिं० सुरकना, सुनकना] खाने के समय किसी अन्नकण का कंठ के बदले नासिका के ऊपरी छिद्र में चला जाना।
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बिसुनी  : स्त्री० [सं० विष्णु] अमरबेल (अनेकार्थ)। वि०=बिसनी।
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बिसुवा  : पुं०=बिस्वा। स्त्री०=वेश्या। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसूरना  : अ० [सं० विसूरणा=शोक] १. सोच करना। चिंता करना। खेद करना। मन में दुःख मानना। २. मन में दुःख होने पर निरंतर कुच समय तक धीरे-धीरे रोते रहना उदाहरण—(क) ना मेरे पंख, न पाँव बल, मैं अपंख, पिय दूर। उड़ न सकूँ गिर गिर पड़ूँ, रहूँ विसूर बिसूर। (ख) पिस्सू के मछाहारों से रोवे कोई विसूर।—नजीर। पुं० १. बिसूरने की क्रिया या भाव। २. चिन्ता। फिक्र। उदाहरण—लालची लबार बिललात द्वारे द्वार, दीन बदन मलीन मन मिटै ना बिसूरना।—तुलसी।
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बिसेक  : वि० पुं०=विशेष।
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बिसेख  : वि०=विशेष। पुं०=विशेषता। उदाहरण—इन नैनन का यही बिसेख। वह भी देखा, यह भी देखा। (कहा०)।
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बिसेखता  : स्त्री०=विशेषता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसेखना  : स० [सं० विशेष] १. विशेष प्रकार का वर्णन करना। ब्योरेवार वर्णन करना। विशेष रूप से कहना। विकृत करना। २. विशिष्ट रूप से निर्धारित या निश्चित करना। ३. विशिष्ट रूप से जान पड़ना या प्रतीत होना।
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बिसेखा  : पुं० [सं० विशेष] अधिकता अथवा विशिष्ट रूप में होनेवाला कोई काम, चीज या बात। उदाहरण—शोखी शरारत, मक्र ओ फन सब का बिसेखा है यहाँ।—कोई शायर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसेन  : पुं० [?] क्षत्रियों की एक शाखा जिसका राज्य किसी समय वर्तमान गोरखपुर के आस-पास के प्रदेश से नैपाल तक था।
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बिसेषक  : पुं० [सं० विशेषक] माथे पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक।
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बिसेस  : पुं०=विशेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसेसर  : पुं०=विश्वेशर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसैधा  : वि० [हिं० बिसायँध] १. विसायँध से युक्त। उदाहरण—कवँल बिसैध सौं मन लावा।—जायसी। २. जिसमें से बिसायँध अर्थात् सड़े मांस या मछली आदि की-सी गंध निकल रही हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसैला  : पुं० [सं० विष] उँगली पर होनेवाला एक प्रकार का जहरीला घाव या फोड़ा। वि०=विषैला। (जहरीला)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिसैसा  : वि० [स्त्री० बिसैसी]=विशेष।
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बिसोक  : वि० [सं० विशोक] शोक रहित। पुं०=अशोक (वृक्ष) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिस्कुट  : पुं० [अं०] एक प्रकार का खस्ता मीठा या नमकीन टिकिया जो आटे को दूध में सानकर तथा उसमें घी, चीनी (या नमक) आदि मिलाकर और सांचों में भरकर तथा भट्ठी में सेककर पकाई जाती है।
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बिस्तर  : पुं० [सं० विस्तर से फा०] बैठने, लेटने आदि के लिए बिछाया जाने वाला कपड़ा। बिछावन। बिछौना। पुं०=विस्तार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिस्तारना  : स० [सं० विस्तारण०] १. विस्तृत करना। फैलाना। २. विस्तारपूर्वक वर्णन करना।
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बिस्तुइया  : स० [सं० विष=तूना=(टकना, चूना)] छिपकली। गृहगोधा।
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बिस्माना  : स० [सं० विस्मरण] १. विस्मृत करना। भूलना। २. सदा के लिए छोड़ना। त्यागना।
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बिस्मिल  : वि० [ फा०] १. जबह किया हुआ। २. आहत। घायल। जख्मी।
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बिस्मिल्ला  : अव्य० [अ० बिस्मिल्लाह] ईश्वर का नाम लेकर या लेते हुए (कोई कार्य आरंभ करते समय)। पुं० १. कुरान की एक आयत जिसका अर्थ है—मैं उस ईश्वर का नाम लेकर प्रारंभ करता हूँ जो बड़ा दयालु और महाकृपालु हैं। २. ईश्वर का नाम लेकर किसी काम या बात का किया जानेवाला आरंभ। शुभारंभ। ३. उक्त पद कहते हुए किसी पशु की हत्या करने की क्रिया या भाव (मुसलमान)।
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बिस्राम  : पुं०=विश्राम। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिस्वा  : पुं० [हिं० बीसवाँ] जमीन की एक नाप जो एक बीघे का बीसवाँ भाग हैं। पद—बीस बिस्वे=(क) बहुत अधिक संभव है कि जैसे—मैं तो मसझता हूँ कि बीस बिस्वे वेअशव्य यहाँ आयँगे। (ख) निश्चित रूप से। अवश्य। निस्सन्देह। उदाहरण—बीस बिसे व्रत भंग भयो, सो कहौ अब केशव को धनु ताने।—केशव।
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बिस्वादार  : पुं० [हिं० बिस्वा+फा० दार] १. हिस्सेदार। पट्टीदार। २. मध्ययुग में किसी बडे़ जमींदार के अधीन रहनेवाला छोटा जमींदार
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बिस्वास  : पुं०=विश्वास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिह  : पुं० [सं० विधि] विधाता। उदाहरण—छत्रपति गयंद हरि हंस गति बिह बनाय संचै सचिय।—चंदबरदाई। पुं० [सं० विद्ध या वेध] किसी चीज में किया हुआ छेद। जैसे—नथ पहनने के लिए नाक का या बाली पहनने के लिए कान का बिह मूँगे या मोती को पिरोने के लिए उसमें किया जानेवाला बिह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहंग  : पुं०=विहंग (पक्षी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहग  : पुं०=विहग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहंगम  : पुं०=विहंग (पक्षी)। वि०=बेहंगम (वेढब या भद्दा)।
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बिहंडना  : स० [सं० बिघटना, पा० विहंडन] १. खंड-खंडकर डालना। तोड़ना। २. काटना-छाँटना या चीरना-फाड़ना। ३. जोर से हिलाना। झकझोरना। उदाहरण—घाइ धार अपार वेग सों वायु बिंहड़ित।—रत्ना। ४. मार डालना। वध करना। ५. नष्ट या बरबाद करना।
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बिहड़ना  : अ०, स०=बिहरना।
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बिहतर  : वि०=बेहतर।
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बिहतरी  : स्त्री०=बेहतरी।
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बिहद्द  : वि०=बेहद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहन  : वि०=विहीन।
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बिहरना  : अ० [सं० विहरण] बिहार करना। घूमना। फिरना। सैर करना। स० [सं० विघटन, प्रा० बिहडन] १. फटना। दरकना। विदीर्ण होना। २. टूटना-फूटना। स० १. फाड़ना। २. तोड़ना-फोड़ना।
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बिहराना  : स० [हिं० बिहरना] बिहरने में प्रवृत्त करना। अ०=बिहारना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहरी  : स्त्री०=बेहरी। (चंदा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहवल  : वि०=विह्वल।
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बिहँसना  : अ० [सं० विहसन] १. मंद-मंद हँसना। मुस्कराना। २. हँसना। ३. फूलों आदि का खिलना। ४. प्रफुल्लित या प्रसन्न होना।
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बिहँसाना  : अ०=बिहँसना। स०=हँसाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहँसौहाँ  : वि० [हिं० बिहँसना] हँसता हुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहाग  : पुं० [?] ओड़व संपूर्ण जाति का एक राग जो आधी रात के बाद लगभग २ बजे के गाया जाता है। यह हिंडोल राग का पुत्र भी माना जाता है।
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बिहागड़ा  : पुं० [सं० विहाग] संगीत में बिहाग राग का एक प्रकार या भेद।
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बिहान  : पुं० [सं० विभात, प्रा० बिहाड, विहाण] १. सबेरा। प्रातःकाल। २. आनेवाला दूसरा दिन। आगामी कल। पुं०=बियान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहाना  : स० [सं० वि+हा=छोड़ना] छोड़ना। त्यागना। स०=बिताना (व्यतीत करना)।
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बिहार  : पुं० [सं० विहार] १. गणतंत्र भारत का एक राज्य जो उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश बंगाल और आसाम राज्यों से घिरा है। २. दे० ‘बिहार’।
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बिहारना  : अ० [सं० विहरण] बिहार करना।
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बिहारी  : पुं० [हिं० बिहारी] बिहार राज्य का निवासी। स्त्री० बिहार की बोली। वि० १. बिहार संबंधी। बिहार का। २. बिहार में होनेवाला।
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बिहाल  : वि०=बेहाल।
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बिहास  : पुं० [हिं० बिहास] १. व्यवसाय। २. व्यवसायी। व्यापारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहि  : पुं०=विधि (ब्रह्या)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहित  : वि०=विहित।
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बिहिश्त  : पुं० [फा०] स्वर्ग। बैकुंठ।
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बिहिश्ती  : पुं० [फा०] १. बिहिश्त या स्वर्ग-संबंधी। स्वर्गीय। ३. स्वर्ग में होने या रहनेवाला। पुं० स्वर्ग का वासी। पुं०=भिश्ती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिही  : स्त्री० [फा०] १. एक प्रकार का पेड़। जिसके फल अमरूद से मिलते-जुलते हैं। २. उक्त पेड़ का फल। ३. अमरूद। (क्व०)। स्त्री० [फा०] भलाई। पद—बिहीख्वाह=शुभ चिंतक। हितैषी।
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बिहीदाना  : पुं० [फा०] बिही नामक फल का बीज जो दवा के काम मे आता है।
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बिहीन  : वि०=विहीन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहुँ  : वि० [सं० द्वि०] दो० उदाहरण—कनक बेलि बिहुँपान किरि।—प्रिथीराज।
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बिहुरना  : अ०=बिथरना (बिखरना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहुँसन  : पुं०=बिहसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बिहोरना  : अ०=बिछुड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बी  : स्त्री० [फा० बीबी का संक्षिप्त रूप] दे० ‘बीबी’। उदा०—बड़ी बी, आपको क्या हो गया है ?—अकबर।
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बीका  : वि० [सं० वक्] टेढ़ा। वक। मुहा०—बाल तक बीका न होना=कुछ भी कष्ट या हानि न पहुँचना।
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बीख  : पुं० [?] पद। कदम। डग। पु०=विष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीग  : पुं० [सं० वृक] [स्त्री० बीगिन] भेड़िया।
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बीगना  : स० [सं० विकिरण] १. छितराना। बिखेरना। २. फेंकना। बीहगाटी—स्त्री० [हिं० बीधा+टी (प्रत्य)] वह लगान जो बीधे के हिसाब से लिया जाता हो।
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बीच  : पुं० [सं० विच्=अलग करना] १. किसी वस्तु का वह केन्द्रीय अंश या भाग जहाँ से उसके सभी छोर समान दूरी पर पड़ते हों। २. किसी वस्तु के दो छोरों के भीतर का कोई विंदु या स्थान। जैसे—काशी से दिल्ली जाते समय इलाहाबाद, कानपुर और अलीगढ़ बीच में पड़ते हैं। पद—बीच खेत=(क) खुले मैदान। सबके सामने। प्रकट रूप में। (ख) निश्चित रूप से। अवश्य। बीच बीच में।=(क) रह-रहकर। थोड़ी थोड़ी देर में। (ख) थोड़ी थोड़ी दूर पर। २. जगह। स्थान। जैसे—वहाँ तिल घरने को बीच नहीं है। ३. अन्तर। फरक। कि० प्र०—डालना।—पड़ना। मुहा०—बीच डालना या पारना=पार्थक्य या भेद उत्पन्न करना। बीच रखना=मन में पार्थक्य का भाव रखना। दूसरा या पराया समझना। ४. दो पक्षों में झगड़ा या विवाद होने पर उसे निपटाने के लिए की जाने वाली मध्यस्थता। पद—बीच बचाव=दो विरोधी पक्षों के बीच में आकर दोनों पक्षों के हितों की की जानेवाली रक्षा। मुहा०—बीच करना=(क) लड़नेवालों को लड़ने से रोकने के लिए अलग-अलग करना। (ख) दो दलों या पक्षों का आपस का झगड़ा निपटाना। ५. दो वस्तुओं या खंडों के बीच का अन्तर या अवकाश दूरी। मुहा०—(किसी को) बीच मान या रखकर=(क) किसी को मध्यस्थ बनाकर। (ख) किसी को साक्षी बनाकर। जैसे—ईश्वर को बीच मानकर प्रतिज्ञा करना। बीच में कूदना=अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करना। व्यर्थ टाँग अड़ाना। बीच में पड़ना=(क) झगड़ा निपटाने के लिए मध्यस्थ बनना या होना। पंच बनना। (ख) किसी का जमानतदार या जिम्मेदार बनना। ६. अवसर। मौका। उदा०—चतुर गंभीर राम महतारी। बीच का निज बात सवाँरी।—तुलसी। अव्य० दरमियान। अन्दर में। स्त्री०=वीचि (लहर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीचु  : पुं०=बीच।
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बीचोबीच  : कि० वि० [हिं० बीच] बिलकुल बीच में। जैसे—सड़क के बीचो बीच नहीं चलना चाहिए।
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बीछना  : स० [सं० विचयन] १. चुनना। छाँटना। २. सबको अलग अलग करके देखना।
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बीछी  : स्त्री० [सं० वृश्चिक] बिच्छू। मुहा०—बीछी चढ़ना=बिच्छू के डंक का विष चढ़ना। बीछी मारना=बिच्छू का अपने डंक से किसी पर आघात करना। बिच्छू का काटना।
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बीछू  : पुं० १.=बिच्छू। २.=बिछुआ।
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बीज  : पुं० [सं० बीज] १. अन्न का वह कण जो खेत में बोने के काम आता है। कि० प्र०—उगना।—डालना।—बोना। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसी आरंभिक बात जो आगे चलकर बहुत बड़ा रूप धारण करती हो। ३. किसी काम, चीज या बात का मुख्य अथवा मूल कारण। ४. जड़ी। ५. कारण। सबब। हेतु। ६. वीर्य। शुक्र। ७. नाटय-शास्त्र में अर्थ प्रकृति की पाँच स्थितियों में से पहली स्थिति जो उसे हेतु का संकेत करती है और जो आगे चलकर फल का कारण होता है। ८. वह भावपूर्ण अव्यक्त सांकेतिक वर्ग-समुदाय या शब्द जिसका अर्थ या आशय सब लोग न समझ सकते हों, केवल जानकर समझ सकते हों। ९. वह अव्यक्त ध्वनि या शब्द जिसमें तंत्रानुसार किसी देवता को प्रसन्न करने की शक्ति मानी गई हो। पद—बीज-मंत्र=बीजाक्षर। (देखे) १॰. मंत्र का प्रधान अंश या भाग। ११. वह अक्षर या चिन्ह जो कोई अज्ञात अथवा अव्यक्त राशि या संख्या सूचित करने के लिए पयुक्त होता है। पद—बीचगणित। (देखें) स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीज  : पुं० [?] घोड़ों का एक भेद। स्त्री० [?] पासंग नामक बकरे की मादा।
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बीज-कोश  : पुं० [सं० बीचकोश] वनस्पति का वह अंश जिसके अन्दर उसके बीज या दाने बंद रहते हैं।
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बीजक  : पुं० [सं० वीजक] १. सूची। फिहरिस्त। २. वह सूची जिसमें किसी को भेजे जानेवाले माल का ब्यौरा, दर, मूल्य आदि लिखा रहता है। (इन्वॉयस) ३. वह सूची जो मध्य युग में जमीन में गाड़ी जानेवाली धन-संपत्ति के साथ प्रायः घातु के पत्तर पर उत्कीर्ण कर रखी जाती थी और जिस पर गाड़ने वाले का नाम, समय और धन संपत्ति का विवरण अंकित रहता था। ४. किसी संत या महात्मा के प्रामाणिक पदों या आणियों का संग्रह। जैसे—कबीर का बीजक, दरियादास का १ बीजक आदि। ५. वैद्यक में, जन्म के समय बच्चे की वह अवस्था जब उसका सिर दोनों भुजाओं के बीच में होकर योनि द्वार पर आ जाता है। ६. अनाज़ों, फलों आदि का दाना। बीज। ७. बिजौरा नींबू। ८. असना नामक वृक्ष।
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बीजक्रिया  : स्त्री [सं० बीजक्रिया] बीजगणित के नियमानुसार गणित के किसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए जानेवाली किया।
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बीजखाद  : पुं० [हिं० बीज+खाद] वह रकम जो मध्य युग में जमींदारों, महाजनों आदि की ओर से किसानों को बीज और खाद आदि खरीदने के लिए दी जाती थी।
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बीजगणित  : पुं० [सं० बीजगणित] गणित का वह प्रकार जिसमें अक्षरों को अज्ञात संख्याओं के स्थान पर मानकर वास्तविक मान या संख्याएँ जानी जाती हैं। (अलजबरा)।
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बीजगर्भ  : पुं० [सं० बीज गर्भ] परवली।
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बीजगुप्ति  : स्त्री० [सं० बीजगुप्ति] १. सेम। २. फली। ३. भूसी। बीजत्य
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बीजदर्शक  : पुं० [सं० वीजदर्शक] नाटकों में वह व्यक्ति जो नाटकों के अभिनय की अवस्था की व्यवस्था करता हो परिदर्शक।
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बीजद्रव्य  : पुं० [सं० वीजद्रव्य] किसी पदार्थ का मूल तत्त्व या द्रव्य।
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बीजधान्य  : पुं० [सं० वीजधान्य] धनियाँ।
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बीजन  : पुं० [सं० व्यजन] पंखा। पुं० [हिं० बीजना] १. बीजने या बोने की किया, ढंग या भाव। २. बीज।
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बीजना  : सं० [हिं० बीज] १. किसी अनाज, पेड़ या पौधे का बीज बोना। २. किसी काम या बात का बीजारोपण करना। पुं० [सं० व्यंजन] पंखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजपादप  : पुं० [सं० वीजपादप] भिलावाँ।
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बीजपुष्प  : पुं० [सं० बीजपुष्प] १. मरुआ। २. मदन वृक्ष।
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बीजपूर  : पुं० [सं० १ वीजपूर] १. बिजौरा नींबू। २. चकोतरा।
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बीजपूरक  : पुं०=बीजपूर।
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बीजबंद  : पुं० हि० बीज+बाँधना] खिरैंटी या बरियारे का बीज। बला।
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बीजमंत्र  : पुं० [सं० वीजमंत्र] १. तंत्रशास्त्र में, किसी देवता के उद्देश्य से निश्चित किया हुआ मूल-मंत्र। २. कोई काम करने का वह ढंग जो सबसे सुगम हो और जिससे वह काम निश्चित रूप से पूरा होता हो। मूल-मंत्र गुर।
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बीजमातृका  : स्त्री० [सं० वीजमातृका] कमलगट्ठा।
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बीजमार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] वाममार्ग का एक भेद।
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बीजमार्गी  : पुं० [सं० वीजमार्गी] बीजमार्ग पंथ के अनुयायी।
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बीजरत्न  : पुं० [सं० वीजरत्न] उड़द की दाल।
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बीजरी  : पुं०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजरेचन  : पुं० [सं० वीजरेचन] जमालगोटा।
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बीजल  : पुं० [सं० वीजल] वह जिसमें बीज हो। वि० बीज-युक्त। स्त्री० [हिं० बिजली] तलवार। (डिं०)
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बीजवाहन  : पुं० [सं० वीजवाहन] शिव।
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बीजवृक्ष  : पुं० [सं० वीजवृक्ष] असना का पेड़।
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बीजसि  : स्त्री० [सं० द्वितीय] चांद्र मास की दूसरी तिथि। द्वितीया। दूज। उदा०—पड़वा आनंदा बीजसि चंदा पाँचों लेबा पाली—गोरखनाथ।
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बीजसू  : स्त्री० [सं० वीजयू] पृथ्वी।
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बीजहरा  : स्त्री० [सं० वीजहरा] १. एक डाकिनी का नाम। २. जादूगरनी।
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बीजा  : वि० सं० द्वितीया, पा० द्वितियों, प्रा० दुओ पु० हि० दूज्जा] दूसरा। पुं०=बीज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजांक प्रक्रिया  : स्त्री० [सं० वीजांक प्रक्रिया] गुप्त रूप से पत्र आदिलिखने या समाचार भेजने की वह प्रकिया जिसमें अभिप्रेत अक्षरों के स्थान पर सांकेतिक रूप से कुछ दूसरे ही अक्षर, जिन्ह आदि अंकित किये अथवा कुछ विशिष्ट और असाधारण कम से रखे जाते हैं। (साइफ़र प्रोसिज्योर)
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बीजांकुर  : पुंय [सं० वीजांकुर] बीज से निकलनेवाला अंकुर।
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बीजांकुर न्याय  : पुं० [सं० वीजांकुर न्याय] तर्कशास्त्र में वह स्थिति जिसमें यह पता न चले कि दो तत्त्वों में से कौन किसका कारण या मूल है। जैसे—पहले बीज हुआ या वृक्ष अथवा पहले अंडा बना या चिड़िया।
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बीजाक्षर  : पुं० [सं० वीजाक्षर] किसी बीज मंत्र का पहला अक्षर।
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बीजाख्य  : पुं० [सं० वीजाख्य] जमालगोटा।
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बीजांड  : पुं० [सं० वीज+अंड] १. जीव-विज्ञान में भ्रूण का वह आरम्भिक और मूल रूप जिसके विकसित होने पर भ्रूण का रूप बनता है। २. वनस्पति विज्ञान में, बीज का आरम्भिक और मूल रूप। (ओव्यूल)
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बीजारोपण  : वि० [सं० वीज-आरोपण] १. खेत में बीज बोना। २. छोटे रूप में कोई ऐसा काम करना जिसका आगे चलकर बहुत बड़ा परिणाम हो।
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बीजाश्व  : पुं० [सं० वीज-अश्व] कोतल घोड़ा।
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बीजित  : भू० कृ० [सं० वीजित] जिसमें बीज बोया जा चुका हो। बोया हुआ।
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बीजी  : वि० [सं० वीजिन्] १. बीज या बीजों से युक्त। जिसमें बीज हो या हों। २. बीज-संबंधी। पुं० पिता। बाप। स्त्री० [हिं० बीज] १. फल के अंदर की गिरी। मींगी। २. फल की गुठली। स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजुपाता  : पुं०=वज्त्रपात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजुरी  : स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजू  : वि० [हिं० बीज+ऊ (प्रत्य०)] १. (पौधा) जो बीज बोने से उगा हो। कलमी से भिन्न। २. (फल) जो उक्त प्रकार के पौधे या वृक्ष का हो। जैसे—बीजू आम, बीजू नींबू। पुं० १.=बिज्जु। २.=बिज्जू।
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बीजोदक  : पुं० [सं० वीज-उदय] ओला।
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बीज्य  : वि० [सं० वीज्य] १. अच्छे बीज से उत्पन्न। २. अच्छे कुल में उत्पन्न। कुलीन।
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बींझ  : पुं० [?] चना।
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बीझ  : वि० [?] घना। सधन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बीझना  : अ०=बझना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीझा  : वि० [सं० विजन] (स्थान) जहाँ मनुष्य न हों। निर्जन। एकांत। पुं० निर्जन स्थान।
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बींट  : पुं० [?] घेरा (राज०)।
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बीट  : स्त्री० [सं० विट्] १. पक्षियों की विष्ठा। चिड़ियो का गुह। २. गुह। मल। ३. बहुत ही तुच्छ या हेय वस्तु। (व्यंग्य) पुं०=विटलवण।
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बीटिका  : स्त्री०=वीटिका (पान की बीड़ा)।
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बीठल  : पुं०=बिट्ठल।
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बींड़  : पुं० १.=बीड़ा। २.=बीड़ा। स्त्री०=बीड़।
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बीड़  : स्त्री० [सं० वीट या वीटक] एक पर रखे हुए सिक्कों का थाक। जैसे—रुपयों की बीड़। पुं०=बींड।
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बीड़ा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० बीड़ी] १. पेड़ की पतली टहनियों से बुनकर बनाया हुआ मेडरे के आकार का लंबा नाल जो कच्चे कुएँ में भगाड़ की मजबूती के लिए लगाया जाता है। २. धान के पयाल को बुन और लपेटकर बनाई हुई गेंड़ुरी जिसपर घड़े रखे जाते हैं। ४. किसी चीज को लपेटकर बनाया हुआ गोला पिंड। लुंड़ा। ५. कोई चीज बाँध या लेपटकर बनाया हुआ बोझ।
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बीड़ा  : पुं० [सं० वीटक] १. पान के पत्ते पर कत्था, चूना आदि लगाकर तथा उस पर सुपारी आदि रखकर उसे (पत्ते को) विशेष प्रकार से मोड़कर दिया जानेवाला तिकोना रूप। खीली। गिलौरी। रखकर यह कहना कि जो इसका भार अपने ऊपर लेना चाहता हो, वह यह बीड़ा उठा ले। विशेष—मध्य युग में राज-दरबारों में यह प्रथा थी कि जब कोई विकट काम सामने आता था, तब थाली में पान का बीड़ा, सबके बीच में रख दिया जाता था। जो व्यक्ति वह काम करने का उत्तरदायित्व या भार अपने ऊपर लेने को प्रस्तुत होता था, वह पान का बीड़ा उठा लेता था। इसी से उक्त मुहा०—बने हैं। २. उक्त प्रथा के आधार पर, परवर्ती काल में, कोई काम करने के लिए किसी को नियुक्त करने के संबंध में होनेवाला पारस्परिक निश्चय। मुहा०—बीड़ा-देना=(क) किसी को कोई काम करने का भार सौपना। (ख) नाचने-गाने, बाजा बजाने आदि का पेशा करनेवालों को कुछ पेशगी धन देकर यह निश्चय करना कि अमुक दिन या अमुकसमय पर आकर तुम्हें अपनी कला का प्रदर्शन करना होगा। ३. तलवार की म्यान के ऊपरी सिरे की वह डोरी जिससे तलवार की मूठ से म्यान बाँधी जाती है।
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बींड़िया  : पुं० [हिं० बीड़ी] तीन बैलोंवाली गाड़ी में सबसे आगे जोता हुआ बैल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीड़िया  : वि० [हिं० बीड़ा+इया (प्रत्य)] बीड़ा उठानेवाला। पुं० अगुआ नेता।
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बीड़ी  : स्त्री० [हिं० बीड़ा] १. वह मोटी और कपड़े आदि में लपेटी हुई रस्सी जो उस बैल के आगे गले के सामने छाती में रहती है जो तीन बैलों की गाड़ी में सबसे आगे रहता है। २. रस्सी या सूत की वह पिडी जो लकड़ी या किसी और चीज के ऊपर लपेट कर बनायी जाती है। ३. वह लकड़ी जिस पर उक्त सूत लपेटा जाता है। ४. बोझ के नीचे रखने की गेड़ुरी।
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बीड़ी  : स्त्री० [हिं० बीड़ा] १. पान का छोटा बीड़ा। २. मिस्सी, जिसे मलने से होंठ उसी प्रकार रंगीन हो जाते हैं, जिस प्रकार पान खाने से होते हैं। ३. तम्बाकू। ४. कुछ विशिष्ट प्रकार के पत्तों में तम्बाकु का चूर्ण लपेटकर बनाया जानेवाला एक तरह का छोटा लंबोतरा पिंड जिसे सुलगाकर सिगरेट की तरह पीया जाता है। ५. एक प्रकार की नाव। ६. कलाई पर पहनने का चूड़ी की तरह का एक गहना। ७. दे० ‘बीड़’ (गड्डी)। ८. वह सामान तथा नकदी जो विवाह की बात पक्की होने पर कन्यापक्षवालों के यहाँ से वरपक्षों के यहां भेजी जाती है। (पूरब)
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बीत  : स्त्री० [सं० वृत्त] वह धन जो छोटे-मोटे काम करनेवाले लोगों नेगियों आदि को पारिश्रमिक या वृत्ति के रूप में दिया जाता है। बीतक
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बीतना  : अ० [सं० व्यतीत] १. काल-मान की दृष्टि से घटना, बात आदि का वर्तमान से होते हुए भूत में जाना। जैसे—दिन या समय बीतना। २. लाक्षणिक अर्थ में किसी घटना, बात आदि का फल-भोग सहन किया जाना। जैसे—उन दिनों हम पर जो बीती थी, वह हम ही जानते हैं। ३. किसी काम, चीज या बात का अन्त या समाप्ति होना। उदा०—(क) बीती ताहि बिसारि देइ, आगे की सुध लेई।—गिरधर। (ख) सब के भय बीते।
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बीता  : पुं०=बित्ता (लंबाई की नाप)।
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बीथि (थी)  : स्त्री०=वीथी।
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बीथित  : वि०=व्यथित।
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बींदना  : स० [सं० विद्] अनुमान करना। स०=बींधना।
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बीदर  : पुं० [सं० विदर्भ] १. विदर्भ देश का एक नगर। २. एक प्रकार की उपधातु जो ताँवे और जस्ते के मेल से बनती है। (आरंभ में वह बीदर नगर में बनी थी, इसीलिए इसका यह नाम पड़ा।
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बीदरी  : स्त्री० [हिं० बीदर] जस्ते और ताँबें के मेल में बरतन आदि बनाने का काम जिसमें बीच-बीच में सोने या चाँदी के तारों से नक्काशी की हुई होती है। बीदर की धातु का काम। वि० १. बीदर-संबंधी। बीदर का। २. बीदरी की धातु का बना हुआ।
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बीदरीसाज  : पुं० [हिं० बीदर+फा० साज] वह जो बीदर की धातु से बरतन आदि बनाता हो। बीदर का काम बननेवाला।
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बीध  : अव्य० [सं० विधि] विधिपूर्वक।
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बींधन  : स्त्री० [हिं० बींधना] १. बीधने की क्रिया या भाव। २. बींधने पर पड़नेवाला चिन्ह या निशान। ३. कठिनता। दिक्कत। उदा०—उसने अपनी कुछ बींधने गिनाई। वृन्दावनलाल वर्मा।
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बीधन  : स्त्री०=बींघन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बींधना  : स० [सं० विद्ध] १. किसी चीज में आर-पार छेद करने के लिए उसमें नोकदार चीज गड़ाना या धँसाना। विद्ध करना। छेदना। जैसे—कान बींधना, मोती बींधना। २. ऊपर से छेद करके अन्दर गड़ाना या धसाना। जैसे—किसी के शरीर में तीर बींधना। ३. बहुत ही चुभती या लगती हुई बात कहना। ४. उलझाना। फँसाना। (क्व०) १. विद्ध या आबद्ध होना। २. फँसा या उलझा रहना।
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बीधना  : सं०=बींधना। अ०=विधना।
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बीधा  : पुं० [सं० विउगह, प्रा० विग्गह] खेत नापने का एक वर्ग-मान जो बीस विस्वे का होता है। एक एकड़ का ३/५ वाँ भाग।
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बीधा  : पुं० [सं० विधान] मालगुज़ारी निश्चित करने की किया या भाव।
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बीन  : स्त्री० [सं० वीणा] १. सितार की तरह का पर उससे बड़ा एक प्रकार का प्रसिद्ध बाजा। वीणा। २. सँपेरों के बजाने की तूमड़ी। ३. उक्त के बजाने पर होनेवाला शब्द। ४. बाँसुरी। वि० [सं० वीक्षण से फा०] [भाव० बीनी] १. देखनेवाला। यौ० के अन्त में। जैसे—तमाशबीन। २. दिखानेवाला। जैसे—दूरबीन।
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बीनकार  : पुं० [हिं० बीन+फा० कार] [भाव० बीनकारी] वह जो बीन या वीणा बजाने में प्रवीण हो।
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बीनना  : स० [सं० विनयन] १. दे० ‘चुनना’। २. छोटी-छोटी चीजों तो उठाना। ३. चीजें अलग करना। छाँटना। स० १.=बींधना। २.=बुनना। उदा०—बीनो स्नेह सुरुचि संयम से शील-वसन नव भव यौवन का।—पंत।
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बीना  : पुं० [फा० बीम=भय] १. किसी प्रकार की हानि विशेषतः आर्थिक हानि पूरी करने की वह जिम्मेदारी जो कुछ निश्चित धन मिलने पर उसके बदले में अपने ऊपर ली जाती है। कुछ धन लेकर इस बात का भार अपने ऊपर लेना कि यदि अमुक कार्य में अमुक प्रकार की हानि होगी तो उसकी पूर्ति हम इतना धन देकर कर देंगे। (इन्श्योरेंन्स) विशेष—ऐसी जिम्मेदारी बाहर भेजी जानेवाली चीजों और दुर्घटनाओं से होनेंवाली धन-जन की हानि के संबंध मे, पारस्परिक समझौते से होती है, और बीमा करनेवाले को उसके बदले में कुछ निश्चित धन एक साथ अथवा कुछ किश्तों में देना पड़ता है। २. वह पत्र जिसपर उक्त प्रकार के समझौते की शर्तें लिखी होती हैं और जिस पर दोनों पक्षों के हस्ताक्षर होते हैं। ३. वह पत्र या पारसल जिसकी हानि आदि के संबंध में उक्त प्रकार की जिम्मेदारी ली या सौंपीं गई हो।
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बीनी  : स्त्री० [फा०] देखने की किया या भाव। जैसे—तमाशबीनी, सैरबीनी आदि।
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बीफै  : पुं० [सं० बृहस्पति] बृहस्पतिवार। गुरुवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीबी  : स्त्री० [फा०] १. कुल बधू। कुलीन स्त्री। महिला। २. जोरू। पत्नी। ३. पश्चिम में स्त्रियों के लिए आदरसूचक सम्बोधन। जैसे—बीबी हरबंस कौर। ४. अविवाहित कन्या तथा माता के लिए सम्बोधन। (पश्चिम)
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बीभच्छ  : वि०=वीभत्स।
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बीभत्स  : वि०=वीभत्स।
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बीभत्सु  : पुं० [सं० बध्+सन्, द्वित्वादि,+उ] १, अर्जुन। २. अर्जुन नामक वृक्ष।
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बीम  : पुं० [अं०] १. शहतीर। २. जहाज के पार्श्व में लंबाई के बल में लगा हुआ बड़ा शहतीर। आड़ा। (लश०) ३. जहाज का मस्तूल। पुं० [फा० [डर। भय।
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बीमार  : विं० [फा०] १. जो किसी रोग विशेषतः किसी ज्वर से पीड़ित हो। कि० प्र०—पड़ना।—होना। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा व्यक्ति जो किसी उग्र भावावेश, संताप आदि के कारण उत्क्षिप्त तथा अस्वस्थ बना रहता हो।
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बीमारदार  : वि० [फा०] [भाव० बीमारदारी] रोगी की सेवा-सुश्रूषा करनेवाला।
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बीमारदारी  : स्त्री० [फां०] रोगियों की सेवा-सुश्रूषा।
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बीमारी  : स्त्री० [फा०] १. बीमार होने की अवस्था या भाव। जैसे—बीमारी में भी वे भोजन किये चलते हैं। २. वह विकार जिसके फल-स्वरूप शरीर अस्वस्थ तथा रुग्ण रहता है। ३. बुरी आदत। दुव्यर्सन। ४. झगड़े या झंझट का काम।
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बीय  : वि०=बीजा (दूसरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीया  : वि० [सं० द्वितीय] दूसरा। पुं० [हिं० बीज] बीज। (दे० ) पुं०=बया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीर-बहूटी  : स्त्री० [सं० विर+बधूटी] गहरे लाल रंग का छोटा रेंगनेवाला कीड़ा, जो देखने में बहुत ही सुन्दर होता है।
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बीरउ  : पुं०=बिरवा।
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बीरज  : पुं०=वीर्य।
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बीरत  : पुं०=वीरत्व (वीरता)।
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बीरन  : पुं० [सं० वीर] स्त्रियों का अपने भाई के लिए सम्बोधन। वीर।
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बीरनि  : स्त्री० [सं० वीर] कान में पहनने का एक प्रकार का गहना। तरना। बीरी।
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बीरा  : पुं० [हिं० बीड़ा] १. वह फूल, फल आदि जो देवता के प्रसाद स्वरूप भक्तों आदि को मिलता है। २. दे० ‘बीड़ा’।
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बीरी  : स्त्री० [सं० वीरि या हिन्दी बीड़ा] १. ढरकी के बीच में लंबाई के बल वह छेद जिसमें से नरी भरकर तागा निकाला जाता है। २. लोहे का वह छेददार टुकड़ा जिस पर कोई दूसरा लोहा रखकर लोहार छेद करते हैं। ३. कान में पहनने का तरना या बिरिया नाम का वगहना ४. दे० ‘बीड़ी’।
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बीरौ  : पुं०=‘बिरवा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बील  : वि० [सं० विल] अंदर से खाली। खोखला। पोला। पुं० वह नीची भूमि जिसमें पानी जमा होता है। जैसे—झील आदि की भूमि। पुं० [सं० विल्व] १. एक प्रकार की ओषधि। २. बेल (वृक्ष और फल)। पुं० [सं० वीज मंत्र] मंत्र। उदा०—जब तै वह सिर पढ़ि दियौ हेरन मैं हित बील।—रसनिधि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीवी  : स्त्री०=बीबी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीस  : वि० [सं० विशर्ति, प्रा० वीशति, वीसा] १. जो संख्या में दस का दूना या उन्नीस से एक अधिक हो। पद—बीस बिस्वै=(क) इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि। अधिकतम संभावित रूप में। जैसे—बीस बिस्वे वे आज ही यहाँ आ जायँगे। (ख) भली-भाँति। अच्छी तरह। बीसहू कै=बीस बिस्वे। भली-भाँति। उदा०—मातु-पिता बंधु हित...मोको बीसहू कै ईस अनुकूल आज भो।—तुलसी। २. किसी की तुलना में अच्छा या बढ़कर। जैसे—कुश्ती में यह लड़का औरों से बीस पड़ता है। कि० प्र०—ठहरना।—पड़ना। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती हैं— २॰।
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बीसना  : स० [सं० वेशन] शतरंज या चौसर आदि खेलने के लिए बिसात बिछाना। खेल के लिए बिसात फैलाना।
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बीसरना  : अव्य०=बिसरना (भूलना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बीसवाँ  : विं० [हिं० बीस+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० बीसवीं] कम, गिनती आदि में बीस के स्थान पर पड़नेवाला।
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बीसी  : स्त्री० [हिं० बीस] १. एक ही तरह की बीस चीज़ों का समूह। कोड़ी। २. गिनती का वह प्रकार जिसमें बीस बीस वस्तुओं के समूह को एक-एक इकाई मान कर गिना जाता है। ३. गणित ज्योतिष में, साठ संवत्सरों विष्णुबीसी और तीसरी रुद्रबीसी कहलाती है। ४. भूमि की एक प्रकार की नाप जो एकड़ से कुछ कम होती है। ५. उतनी भूमि जिसमें बीस नालियाँ हों। ६. वह लगान जो बीस बिस्वे अर्थात् पूरे बीघे के हिसाब से लगता हो। स्त्री० पुं० [सं० विशिख] तौलने का काँटा। तुला।
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बीह  : पुं० [सं० भस] भय। डर। उदा०—भिड़ दहूँ ऐ भाजै नहीं, नहीं मरण रौ बीह।—बाँकीदास। वि० बीस।
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बीहड़  : वि० [सं० निकट] १. ऊँचा-नीचा ऊबड़खाबड़ विषय जैसे—बीहड़ भूमि। २. जो सम या सरल न हो, अर्थात् बहुत विकट। जैसे—बीहड़ काम। पुं० ऊँची-ऊँची और ऊबड़-खाबड़ भूमि। उदा०—इन लोगों ने अपनी पैदल पल्टन पूर्व और दक्षिण के बीहड़ में छिपा ली।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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बीहर  : वि० [सं० बहिर्] अलग। पृथक्। जुदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुअजानि  : स्त्री० [स० प्रभंजन] वायु। पवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुआ  : स्त्री०=बूआ।
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बुआई  : स्त्री०=बोआई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुक  : स्त्री० [फा० बुक़] १. कलफ किया हुआ एक प्रकार का महीन कपड़ा जो बच्चों की टोपियों में अस्तर देने या अँगिया, कुरती, जनानी चादरें आदि बनाने के काम में आता है। २. एक प्रकार की महीना पन्नी या वरक। स्त्री० [अं०] किताब। पुस्तक।
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बुकचा  : पुं० [तुं० बुक्चः] [स्त्री० अल्पा० बुकची] १. वग गठरी जिसमें कपड़े बँधे हुए हों। २. गठरी।
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बुकची  : स्त्री० [हिं० बुकची+ ई (प्रत्य०) १. छोटी गठरी। २. वह थैली जिसमें दरजी सुई, धागा आदि रखते हैं। स्त्री०=बकुची। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुकंदना  : सं० [सं० भक्षण हि० भखना] भोजन करना। खाना। उदा०—भीलणी का बेर सुदामा का तंदुल भर मुठड़ी।—मीराँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुकना  : अ० [हिं० बुकना का अ०] बुका या पीसा जाना। चूर्ण होना। पुं०=बुकनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुकनी  : स्त्री० [हिं० बूकना+ई (प्रत्य०)] किसी चीज का महीन पीसा हुआ चूर्ण। जैसे—रंग की बुकनी।
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बुकवा  : पुं० [हिं० बूकना] १. उबटन। वटना। २. दे० ‘बुक्का’।
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बुकस  : पुं० [सं० बुक्का] भंगी। मेहतर। हलाल खोर।
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बुका  : पुं०=बुक्का।
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बुकार  : पुं० [देश०] वह बालू जो बरसात के बाद नदी अपने तट पर छोड़ जाती हो और जिसमें कुछ अन्न आदि बोया जा सकता हो। भाट।
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बुकुन  : पुं० [हिं० बूकना] १. बुकनी। २. किसी प्रकार का पाचक चूर्ण।
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बुकौर  : पुं० [हिं० बूक=कलेजा] संतप्त होकर मन ही मन रोने की क्रिया या भाव।
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बुक्क  : पुं० [सं० बुक्क् (शब्द करना)+अच्] १. हृदय। २. बकरा। ३. समय।
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बुक्कन  : पुं० [सं० बुकक्√(कहना)+ल्युट् अन] १. कुत्ते को भौंकना। २. पशुओं का शब्द करना।
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बुक्कस  : पुं० [सं०=पुक्कस पृषो० पस्यव
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बुक्का  : स्त्री० [सं बुक्क+टाप्] १. हृदय। कलेजा। २. गुरदे का मांस। ३. रक्त। लहू। ४. बकरी। ५. फूँककर बजाया जानेवाला एक तरह का पुरानी चाल का बाजा। पुं० [हिं० बूकना] १. बूका अर्थात् पीसा हुआ चूर्ण विशेषतः चूर्ण के रूप में लाया हुआ पदार्थ। २. अबरक का चूर्ण।
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बुक्की  : स्त्री० [सं० बुक्क+ङीष्] हृदय।
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बुखार  : पुं० [फा० बुखार] १. वाष्प। भाप। २. शरीर मे किसी प्रकार का रोग होने के कारण उसका बढ़ा हुआ ताप-मान। विकार जन्य शारीरिक ताप-वृद्धि। ज्वर। कि० प्र०—उतरना।—चढ़ना। २. उत्कट मनोवेग के फलस्वरूप होनेवाली उत्तेजना। जैसे—रुपए का नाम लेने पर उन्हें बुखार चढ़ जाता है।
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बुखारचा  : पुं० [फा० बुखार्च
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बुग  : पुं० [देश०] मच्छर। (बंदेलखंड) स्त्री०=बुक (कपड़ा)।
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बुगचा  : पुं० [फा० बुगचः] [स्त्री० अल्पा० बुगची] बगल में दबाई जाने-वाली पोटली।
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बुगदा  : पुं० [अ० बुग्दः] कसाइयों का छुरा जिससे वे पशुओं की हत्या करते है।
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बुगला  : पुं०=बगला (पक्षी)।
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बुगिअल  : पुं० [देश०] पशुओं के चरने का स्थान। चरी। चरागाह।
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बुगुल  : पुं०=बिगुल।
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बुग्ज  : पुं० [अ, बुग़ज़] मन में छिपाकर रखा हुआ वैर। कि० प्र०—निकालना।
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बुचका  : पुं० [स्त्री० अल्पा० बुचकी]=बुकचा।
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बुज  : स्त्री० [फा० बुज] बकरी। बूचड़। वि० डरपोक।
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बुज-कसाब  : पुं० [फा०] वह जो पशुओं की हत्या करता अथवा उनका मांस आदि बेचता हो। बकर-कसाव। कसाई।
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बुजदिल  : वि० [फा० बुज़दिल] [भाव० बुज़दिली] कायर। डरपोक। भीरु।
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बुजदिली  : स्त्री० [फा० बुजदिली] कायरता। भीरुता।
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बुजनी  : स्त्री० [देश०] करनफूल के आकार का कान का एक गहना है जिसके नीचे झमका भी लगा होता है।
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बुजियाला  : पुं० [फां० बुज] १. बकरी का वह बच्चा जिसे कलंदर लोग तमाशा करना सिखलाते हैं। २. वह बन्दर जिसे नचाकर मदारी, तमाशा दिखाते हैं। (कलंदर)
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बुजुर्ग  : वि० [फा० बुजुर्ग] जिसकी अवस्था अधिक हो। वृद्ध। पुं० बाप, दादा आदि। पूर्वज। पुरखे।
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बुजुर्गी  : स्त्री० [फा० बुजुर्गी] बुजुर्ग होने की अवस्था या भाव। बड़प्पन।
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बुज्जा  : पुं० [देश०] करांकुल की जाति का एक प्रकार पक्षी।
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बुज्जी  : स्त्री० [फा० बुज] बकरी। (डिं०)
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बुज्झा  : पुं०=बुज्जा (पक्षी)।
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बुझना  : अ० [सं० उज्झति] १. जलते हुए पदार्थ का जलना बंद हो जाना। जलने का अंत या समाप्ति होना। जैसे—आग बुझना, दीया बुझना। २. किसी जलते या तपे हुए पदार्थ का पानी में पड़ने के कारण ठंडा होना। तपी हुई या गरम चीज का पानी में पड़कर ठंढ़ा होना। जैसे—(क) तपी हुई धातु का पानी बुझना। (ख) सफेदी करने के लिए पानी में चूना बुझना। ३. किसी प्रकार के ताप का पानी अथवा किसी और प्रकार के पदार्थ से शांत या समाप्त होना। जैसे—प्यास बुझना ४. किसी विशिष्ट प्रकार स प्रस्तुत किये हुए तरल पदार्थ में किसी चीज का इस प्रकार डूबाया जाना कि उसमें तरल पदार्थ का कुछ गुण या प्रभाव आ जाय। जैसे—जहर के पानी से छुरे या तलवार का बुझना। ५. चित्त का आवेग, उत्साह, बल आदि-आदि मंद पड़ना। जैसे—ज्यों-ज्यों बुढ़ाया आता है० त्यों त्यों जी बुझता जाता है। उदा०—शाम से ही बुझा सा रहता है, दिल हुआ है चिराग मुफलिस का।—मीर। मुहा०—बुझकर रह जाना= अप्रमाणित या लज्जित होकर चुप हो जाना। उदा०—महफिल चमक उठी और मियाँ मजनूँ बुझकर रह गये।—फिराक गोरखपुरी। ६. खाद्य पदार्थों का जलने, पकने आदि पर मात्रा या मान में पहले से बहुत कम हो जाना। जैसे—सेर भर साग पकाने पर बुझकर पाव भर रह गया। संयो० कि०—जाना।
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बुझाई  : स्त्री० [हिं० बुझाना+ ई (प्रत्य०)] बुझाने की किया, भाव या मजदूरी।
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बुझाना  : सं० [हिं० बुझना का स०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे आग अथवा किसी जलते हुए पदार्थ का जलना बंद हो जाय। जैसे—दीया बुझाना। २. किसी जलती हुई धातु या ठोस पदार्थ को ठंडे पानी में डाल देना जिससे वह पदार्थ भी ठंडा हो जाय। तपी हुई चीज को पानी में डालकर ठंढ़ा करना। जैसे—तपा हुआ, लोहा पानी में बुझाना। पद—जहर का बुझाया हुआ=दे० ‘जहर’ के मुहा०। मुहा०—(कोई चीज) जहर में बुझाना=छुरी, बरछी आदि शस्त्रों के फलों तो तपाकर किसी जहरीले तरल पदार्थ में इसलिए बुझाना कि वह फल भी जहरीला हो जाय। ३. कोई चीज तपाकर इसलिए ठंढ़े पानी में डालना कि उस चीज का कुछ गुण या प्रभाव उस पानी में आ जाय। पानी को छौंकना। जैसे—इनको लोहे का बुझाया हुआ पानी पिलाया करो। ४. पानी की सहायता से किसी प्रकार का ताप शांत या समाप्त करना। पानी डालकर ठंढ़ा करना। जैसे—प्यास बुझाना, चूना बुझाना। ५. किसी किया से चित्त का आवेग या उत्साह आदि शांत करना। जैस—दिल की लगी बुझाना। संयो० कि०—डालना।—देना। स० [हिं० बूझना का प्रे० रूप] १. बुझने का काम दूसरे से कराना। किसी को बूझने में प्रवृत्त करना। जैसे—पहेली बुझाना। २. किसी को कुछ समझने में प्रवृत्त करना। बोध करना। समझाना। जैसे—किसी को समझा-बुझाकर ठीक रास्ते पर लाना। ३. समझाकर तृप्त या संतुष्ट करना।
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बुझारत  : स्त्री० [हिं० बुझाना=समझाना] १. किसी गाँव के जमींदारों के वार्षिक आय-व्यय आदि का लेखा। २. पहेली। कि० प्र०—बुझाना।—बूझना।
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बुझौअल  : स्त्री० [हिं० बुझाना] १. किसी को चकित करके उसकी बुद्घि की थाह लगाने के लिए सीधे-सादे शब्दों में पूछी जानेवाली कोई पेचीली बात। पहेली। २. लाक्षणिक अर्थ में इस प्रकार कही हुई बात जो किसी की समझ में जल्दी भली-भाँति न आती हो।
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बुट  : स्त्री०=बूटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुटना  : अ० [?] दौड़कर चला जाना या हट जाना। भागना।
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बुट्ठ  : स्त्री० [सं० वृष्टि] वर्षा। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुड़की  : स्त्री०=डुबकी (गोता)।
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बुडढ़ा  : वि० [सं० वृद्ध] [स्त्री० बुड्ढी] १. युवावस्था पार करने के उपरांत जिसकी अवस्था अधिक हो गई हो। जैसे—बुड्ढा आदमी, बुड्ढ़ बैल। २. (जीव) जो साधारणतः मानी जानेवाली पूर्ण आयु का आधे से अधिक या लगभग तीन-चौथाई पार कर चुका हो।
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बुड़ना  : अ०=बूड़ना। (डूबना)।
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बुड़बुड़ाना  : अ० [अनु०] मन ही मन कुढ़कर या क्रोध में आकर अस्पष्ट रूप से कुछ बोलना। बड़बड़ करना। बड़बड़ाना। बुढ़ापे में होनेवाली हिरस।
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बुड़भस  : स्त्री० [हिं० बूढ़ा+भस= इच्छा भोग] बुढ़ापे में होनेवाली हिरस।
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बुड़भूँजा  : पुं० दे० ‘भड़भूँजा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुड़व  : वि० [हिं० बूढ़ा+बक-बगला] ना-समझ। मूर्ख।
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बुड़ाना  : सं०=डुबाना।
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बुड़ार  : स्त्री० [हिं० बूड़ना ?] एक प्रकार की छोटी पनडुब्बी बतख जिसका मुख्य भोजन पानी से उगनेवाले पेड़ों की जड़ें हैं। ‘करछिया’ और ‘लालसर’ इसके दो मुख्य भेद हैं।
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बुड़ाव  : पुं०=डुबाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुड़ीत  : वि० [हिं० बूढ़ना] (प्राप्य धन) जो वसूल न हो सकता हो और इसी लिए डूबा हुआ मान लिया गया हो।
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बुढ़ऊ  : वि०=बुडढा। पुं० १. बुड्ढ़ा आदमी। २. पिता या दादा जो बहुत बुड्ढ़ा हो गया हो। बुढ़ना—पुं० [?] छड़ीला। पत्थर फूल। वि०=बूढ़ा (बुड्ढा।) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुढ़वा  : वि० [स्त्री० बुढ़िया]=बुड्ढा।
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बुढ़ाई  : स्त्री० [हिं० बूढ़ा+आई (प्रत्य०) वृद्ध या बुड्ढ़े होने की अवस्था या भाव। वृद्धावस्था। बुढ़ापा।
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बुढ़ाना  : अ० [हिं० बूढ़ा+ना (प्रत्य०) वृद्घावस्था को प्राप्त होना। स० बुड्ढ़ा या बुड्ढों के समान कर देना। जैसे—रोग ने उन्हें बुढ़ा दिया है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुढ़ापा  : पुं० [हिं० बूढ़ा+ या (प्रत्य०)] बुड्ढ़े होने की अवस्था या भाव। वृद्धावस्था।
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बुढ़िया  : स्त्री० [सं० वृद्धा] बूढ़ी औरत। पद—बाढ़ता का काता= एक प्रकार की चीनी की मिठाई जो देखने में काते हुए सूत के लच्छों की तरह होती है।
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बुढ़िया-बैठक  : स्त्री० [हिं० बुढ़िया+बैठक=कसरत] एक प्रकार की बैठक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुढ़ौती  : स्त्री०=बुढापा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुत  : पुं० [सं० बुद्ध से फा०] १. मूर्ति। प्रतिभा। विशेष—प्राचीन फारस में इसलाम के प्रचार से पहले स्थान स्थान पर गौतम बुद्ध की मूर्तियाँ और मन्दिर बहुत अधिक संख्या में थे। इसीलिए इसलाम का प्रचार होने पर यहाँ के लोग प्रतिमा या मूर्ति मात्र को बुत कहने लगे थे। २. किसी की आकृति के अनुरूप बना हुआ चित्र या प्रतीक। ३. गढ़ी हुई मूर्तियों के सौन्दर्य और कठोरता के आधार पर फारसी-उर्दू कविताओं में प्रियतमा या प्रेमी की संज्ञा। वि० १. मूर्ति की तरह मौन और निश्चल। २. मूर्ख। ३. नशे में बेहोश।
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बुत-परस्त  : पुं० [फा०] [भाव० बुतपरस्ती] मूर्तिपूजक। मूर्तियों का आराधक।
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बुत-परस्ती  : स्त्री० [फा०] मूर्तिपूजा।
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बुत-शिकन  : पुं० [फा०] वह जो मूर्ति-पूजा का विरोधी होने के कारण प्रतिमाओं को तोड़ता या नष्ट करता हो।
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बुतना  : अ०=बुझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुतात  : स्त्री० [अ० मुअताद] १. किसी चीज की मात्रा या मान। २. खर्च। व्यय।
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बुताना-बूताम  : सं०=बुझाना। अ०=बुझना। पुं०=बटन।
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बुत्त  : वि० , पुं०=बुत।
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बुत्ता  : पुं० [हिं० बुत= मूर्ख ?] बातों में मूर्ख बनाकर किसी को दिशा जानेवाला चकमा या धोखा। पद—दम बुत्ता। (देखें)
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बुत्थि  : वि०=बहुत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बुंद  : स्त्री०=बूँद। वि० बूँद भर, अर्थात् बहुत जरा-सा या थोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुद  : वि० [देश०] पाँच। (दलाल)
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बुंदका  : पुं० [सं० विदुक] [स्त्री० अल्पा० बुंदकी] बड़ी बुंदकी।
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बुंदकी  : स्त्री० [हिं० बुंदका का स्त्री रूप] १. छोटी गोल बिंदी। २. किसी चीज पर बना हुआ छोटा गोल चिन्ह, जाग या निशान। ३. छोटा बुंदा।
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बुँदकीदार  : वि० [हिं० बुँदकी+फा० दार] जिस पर बुँदकियाँ पड़ी या बनी हों। जिसपर बूँदों के से चिन्ह हों। बुँदकीवाला।
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बुदबुद  : पुं० [सं० बुद्+क, पृषों० द्वित्व] पानी का बुलबुला।
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बुदबुद, बुदवुदा  : पुं० [सं० बुद् बुद्] पानी का बुलबुला। बुल्ला।
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बुदबुदाना  : अ० [अनु०] १. किसी तरल पदार्थ में बुलबुले आना। मन ही मन या बहुत धीरे-धीरे इस प्रकार बोलना कि और लोग सुन न सकें।
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बुदलाय  : वि० [दलाल बुद+लाय(प्रत्य० )] पन्द्रह। दस और पाँच। (दलाल)
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बुँदवान  : स्त्री० [हिं० बूंद+वान (प्रत्य)] छोटी-छोटी बूँदों की वर्षा। बुंदा
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बुँदिया  : स्त्री० दे० ‘बूँदी’। स्त्री० [हिं० बूँद+इया (प्रत्य०) १. छोटी बूँद। २. छोटी बूँदों या दानों के रूप में बननेवाला एक पकवान जो मीठा और नमकीन दोनों प्रकार का होता है, तथा जो बेसन के घोल को पौने से छानकर और घी, तेल आदि में तलने पर तैयार होता है।
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बुँदीदार  : वि० [हिं० बूँदी+ फा० दार (प्रत्य०)] जिसमें छोटी छोटी बिदियाँ बनी या लगी हों।
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बुंदेलखंड  : पुं० [हिं० बुंदेला जाति से] उत्तर प्रदेश के झाँसी, जालौन, बाँदा, हमीरपुर आदि जिलों और उनके आस-पास के जिलों के भू-भाग का नाम।
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बुंदेलखंडी  : वि० [हिं० बुंदेल खंड+ई (प्रत्य०)] बुंदेलखंड-संबंधी बुंदेल खंड का। पुं० बुंदेलखंड का निवासी। स्त्री० बुंदेलखड की बोली। बुंदेली।
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बुंदेला  : पुं० [हिं० बूँद+एला (प्रत्य०)] १. क्षत्रियों की एक शाखा जो मध्ययुग में बुंदेलखंड में बसी हुई थी। २. बुंदेलखंड का निवासी।
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बुँदेली  : स्त्री० [हिं० बुंदेलखंड] बुंदेलखंड की बोली जो पश्चिमी हिंदी की एक शाखा मानी जाती है।
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बुंदोरी  : स्त्री० [हिं० बूँद+ ओरी (प्रत्य०)] बुँदिया या बूँदी नाम की मिठाई।
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बुद्घ  : वि० [सं० बुध् (ज्ञान करना)+क्त] १. जो जागा हुआ हो। जागरित। २. ज्ञान-सम्पन्न। ज्ञानी। ३. पंडित। पुं० शाक्य वंशीय राजा शुद्धोदन के पुत्र और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक सिद्धार्थ गौतम का प्रचलित और प्रसिद्ध नाम (जन्म ई० पू० ५६६ ? मृत्यु ई० पू० ४८३ ?)।
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बुद्घिमान्  : वि० [सं० बुद्धि+ मतुप, नुम्, दीर्घ] जिसकी बुद्धि बहुत प्रखर हो। जो बहुत समझदार हो। अक्लमंद। जिसमें अच्छी और यथेष्ट बुद्धि हो। जो सोच-समझकर कोई काम करता अथवा किसी काम में हाथ डालता हो।
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बुद्घिवंत  : वि०=बुद्धिमान्।
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बुद्धत्व  : पुं० [सं० बुद्ध+त्व] बुद्ध होने की अवस्था या भाव।
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बुद्धागम  : पुं० [सं० बुद्ध-आगम, ष० त०] बौद्ध धर्म के सिद्धान्त।
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बुद्धि  : स्त्री० [सं०√बुध्+क्ति्न] १. शरीर का वह तत्त्व या शक्ति जिसके द्वारा किसी चीज या बात के विषय में आवश्यक ज्ञान प्राप्त होता है और जिसकी सहायता से तर्क वितर्क-पूर्वक सब प्रकार के अन्तर-सम्बन्ध आदि समझ में आते हैं। ज्ञान या बोध प्राप्त करने और निश्चय विचार आदि करने की शक्ति। अक्ल। समझ। मनीषा घी। विशेष—दार्शनिक दृष्टि से यह मन में भिन्न तत्त्व या शक्ति है। हमारे यहाँ इसे अन्तःकरण की चार वृत्तियों में से एक वृत्ति माना है, पर पाश्चात्य विद्वान् इसका अधिष्ठान मस्तिष्क में मानते हैं। सांख्यकार ने इसे २५ तत्वों के अन्तर्गत दूसरा तत्त्व माना है। २. एक प्रकार का छंद जिसके चारों पदों में कम से १६, १४, १४, १३, मात्राएँ होती है। इसे लक्ष्मी भी कहते हैं। ३. उक्त वृत्त का चौदहवा भेद जिसे सिद्धि भी करते हैं। ४. छप्पय छंद का ४२ वाँ भेद।
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बुद्धि-कृत  : भू० कृ० [तृ० त०] सोच-समझकर किया हुआ।
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बुद्धि-कौशल  : पुं० [ष० त०] १. बहुत ही समझ-बूझकर तथा ठीक ढंग से काम करने की कला। २. चतुराई।
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बुद्धि-गम्य  : वि० [तृ० त०] बुद्धि के द्वारा जिसे जाना या समझा जा सकता हो।
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बुद्धि-ग्राह्य  : वि० [तृ० त०] बुद्धि द्वारा ग्रहण किये जाने के योग्य। जिसे बुद्धि ठीक मान सके।
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बुद्धि-चक्षु (स्)  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र।
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बुद्धि-दौर्बल्य  : पुं० [सं०] बुद्धि के बहुत ही दुर्बल होने की अवस्था, भाव या रोग। बालिश्य (एमेन्शिया)
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बुद्धि-पर  : वि० [पं० त० ] जो बुद्धि की पहुँच से परे हो।
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बुद्धि-प्रामाण्य-वाद  : पुं० [ष० त०] यह सिद्धान्त कि वही बात ठीक मानी जानी चाहिए जो बुद्धि-ग्राह्य हो।
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बुद्धि-भ्रंश  : पुं० [ष० त० या ब० स०] दे० ‘मनोभ्रंश’।
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बुद्धि-मोह  : पुं० [ष० त०] वह स्थिति जिसमें बुद्धि कुछ गड़बड़ा तथा चकरा गई हो।
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बुद्धि-योग  : पुं० [ष० त०] पर-ब्रह्य के साथ होनेवाला बौद्धिक संपर्क।
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बुद्धि-वाद  : पुं० [ष० त०] १. यह दार्शनिक मत या सिद्धान्त कि मनुष्य को समस्त ज्ञान बुद्धि द्वारा ही प्राप्त होते है। (इन्टलेकचुअलिज्म) २. आज-कल यह मत या सिद्धान्त कि धार्मिक आदि विषयों में वही बातें मानी जानी चाहिए जो बुद्घि और युक्ति की दृष्टि से ठीक सिद्ध हों। (रैशनलिज़्म)
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बुद्धि-विलास  : पुं० [ष० त०] १. बौद्धिक कामों में लगकर मन बहलाना। २. कल्पना।
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बुद्धि-शील  : वि० [ब० स०] बुद्धिमान्।
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बुद्धि-सख  : पुं० [ब० स०] १. मंत्री। २. परामर्शदाता।
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बुद्धि-सहाय  : पुं० [स० त०] १. मंत्री। वजीर। २. परामर्शदाता।
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बुद्धि-हत  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि नष्ट या भ्रष्ट हो हई हो।
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बुद्धि-हीन  : वि० [तृ० त०] [भाव, बुद्घिहीनता] जिसमें बुद्धि न हो। निर्बुद्धि।
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बुद्धिजीवी (विन्)  : वि० [सं० बुद्धि√जीव् (जीना)+णिनि] १. बुद्धि-पूर्वक काम करनेवाला। विचारशील। २. जिसकी जीविका दिमागी कामों से चलती हो। जैसे—वकील, मंत्री आदि।
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बुद्धितत्त्व  : पुं०=दे० ‘महत्त्व’। (सांख्य)
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बुद्धिद्यूत  : पुं० [तृ० त०] शतरंज का खेल।
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बुद्धिमत्ता  : स्त्री० [सं० बुद्धि+मतुप्+तल्, टाप्] बुद्धिमान होने की अवस्था या भाव। समझदारी। अक्लमंदी।
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बुद्धिमानी  : स्त्री० [हिं० बुद्घिमान्+ई (प्रत्य०)] १. बुद्धिमान् होने की अवस्था या भाव। बुद्धमत्ता। २. बुद्धिमान् का किया हुआ कोई कार्य।
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बुद्धिवादी (दिन्)  : वि० [सं० बुद्धि√वद् (बोलना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] बुद्धि-वाद सम्बन्धी। पुं० बुद्धिवाद का अनुयायी। (इन्टलेकचुअलिस्ट)
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बुद्धिशाली (लिन्)  : वि० [सं० बुद्धि√शाल् शोभित होना+णिनि] बुद्धिमान्।
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बुद्धिहा (हन्)  : वि० [सं० बुद्धि√हन् (मारना)+क्विप्, दीर्घ, नलोप] (पदार्थ) जो बुद्घि का नाश करता हो। जैसे—मदिरा।
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बुद्धी  : स्त्री०=बुद्धि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुद्धींद्रिय  : स्त्री० [बुद्धि-इंद्रिय, कर्म० स०] ज्ञानेंद्रिय। मन।
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बुध  : पुं० [सं०√बुध् (ज्ञान प्राप्त करना)+क] १. बुद्धिमान् और विद्वान् व्यक्ति। पंडित। २. देवता। ३. सौर जगत् का सबसे छोटा ग्रह जो सूर्य से अन्य ग्रहों की अपेक्षा समीप है। सूर्य से इसकी दूरी ३६०००००० मील है और यह सूर्य की परिकमा ८८ दिनों में करता है। (मर्करी) विशेष
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बुध-चक्र  : पुं० [ष० त० मध्य० स०] ज्योतिष में, एक चक्र जिससे बुध नक्षत्र की गति का शुभाशुभ फल जाना जाता है।
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बुंधगड़  : वि० [सं० बुद्घि+हि० अंगड़ (प्रत्य०)] मूर्ख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुधजन  : पुं० [सं० कर्म० स०] पंडित। विद्वान।
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बुधजायी  : पुं० [सं० बुध+हिं० जन्मना=उत्पन्न होना] बुध ग्रह को जन्म देनेवाला, चन्द्रमा।
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बुधवान्  : वि०=बुद्धिमान्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुधवार  : पुं० [सं० कर्म० स०] सात वारों में से एक। मंगलवार और गुरुवार के बीच का वार।
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बुधि  : स्त्री०=बुद्धि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुधियार  : वि०=बुद्धिमान्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुधिल  : वि० [सं० बुध+किलच्] बुद्धिमान्।
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बुधिवाही  : वि०=बुद्धिमान्। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बुध्य  : वि० [सं० बोध्य] जो जाना जा सके। जिसका बोध हो सके।
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बुनकर  : पुं० [हिं० बुनना] कपड़ा बुननेवाला कारीगर। (वीवर)
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बुनना  : सं० [पुं० हि० बिनना] १. करघे के द्वारा ताने तथा बाने के तारों को इस प्रकार एक दूसरे में ऊपर नीचे करके फँसाना के वे वस्त्र का रूप धारण कर लें। जैसे—दरी बुनना। २. सलाइयों आदि के द्वारा विशेष रूप से किसी एक ही डोरी में विशिष्ट प्रकार से फंदे डालते हुए उसे वस्त्र का रूप देना। जैसे—स्वेटर बुनना। ३. सीधे तथा बेड़े बल में बहुत से तार आदि स्थापित करके कोई चीज तैयार करना। जैसे—चटाई बुनना, जाला, बुनना।
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बुनवाई  : स्त्री० [हिं० बुनवाना] १. बुनवाने की किया। भाव या पारिश्रमिक। २. दे० ‘बुनाई,
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बुनवाना  : सं० [हिं० बुनना] [भाव० बुनवाई] बुनने का काम दूसरे से करना।
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बुनाई  : स्त्री० [हिं० बुनना+ई (प्रत्य०)] १. बुनने की किया, ढंग भाव। २. बुनने का पारिश्रमिक या मजदूरी। ३. कपड़े बुनने का ढंग या प्रकार। जैसे—बुनाई घनी है। ४. दे० ‘बुनवाई’।
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बुनावट  : स्त्री० [हिं० बुनना+ आवट (प्रत्य०)] बुनने में सूतों की मिलावट का ढंग। सूतों के बुनने का प्रकार।
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बुनिया  : स्त्री०=बुँदिया। पुं०=बुनकर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुनियाद  : स्त्री० [फा० बुन्याद] १. आधार। नींव। २. जड़। मूल। ३. आरंभ।
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बुनियादी  : वि० [फा० बुन्यादी] १. नींव या बुनियाद-संबंधी। २. नींव या बुनियाद के रूप में होनेवाला। ३. आरंभिक। प्रारंभिक। ४. दे० ‘आधारिक’।
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बुबुक  : स्त्री० [अनु०] १. जोर से रोने कि किया। रुलाई। २. भभक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुबुकना  : अ० [अनु०] जोर जोर से रोना।
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बुबुकारी  : स्त्री० [अनु० बुबुक+आरी (प्रत्य०)] जोर जोर से रोने का शब्द। कि० प्र०—देना।—भरना।
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बुभुक्षा  : स्त्री० [सं०√भुज् (खाना)]+सन्, द्वित्वादि टाप्] खाने की इच्छा। भूख।
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बुभुक्षित  : भू० कृ० [सं० बुभुक्षा+इतच्] जिसे भूख लगी हो। भूखा। क्षुधित।
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बुभुत्सा  : स्त्री० [सं०√बुध+सन्, द्वित्वादि टाप्] अनोखी या विचित्र चीज या बात को जानने की प्रबल इच्छा या आतुरता।
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बुयाम  : पुं०=बयाम।
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बुर  : स्त्री० [सं० बुलि] स्त्री की योनि। भग।
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बुरकना  : स्त्री० [अनु०] चुटकी में चूर्ण आदि भर कर छितराना या छिड़कना। पुं० बच्चों के लिखने की वह दवात जिसमें खड़िया मिट्टी घोलकर रखी जाती थी।
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बुरका  : पुं० [अ० बुर्क] १. मुसलमान स्त्रियों का एक पहनावा जिससे वे सिर से लेकर एड़ी तक अपने सब अंग ढक लेती हैं। २. नकाब। ३. वह झिल्ली जिसमें जन्म के समय बच्चा लिपटा रहता है। खेड़ी।
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बुरकाना  : सं०=बुरकना।
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बुरकापोश  : वि० [अ० बुर्कः+फा० पोश] १. जो बुरका पहने हुए हो। २. जो बुरका पहनती हो।
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बुरकी  : स्त्री० [हिं० बुरकना] १. मंत्र-तंत्र आदि के समय प्रयुक्त होनेवाली धूल या राख। २. उक्त की सहायता से किया जानेवाला जादू-टोना। मुहा०—बुरकी मारना= मंत्र पढ़कर किसी पर कुछ धूल या राख फेंकना। उदा०—मैं आगे जनाखे के कुछ बोल नहीं सकती। क्या जानिए क्या उसने मारी है मुझे बुरकी।—रंगीन।
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बुरदू  : पुं० [अ० बोर्ड] १. पार्श्वय। बगल। २. जहाज का बगलवाना भाग। ३. जहाज का वह भाग जो तूफान या हवा के रुख पर नहीं, बल्कि पीछे की ओर पड़ता हो। (लश०)
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बुरबक  : वि० हि० बूढ़ा+बक] १. अवस्था ढलने के फलस्वरूप जो दूसरों की दृष्टि में मूर्खों का-सा आचरण करने लगा हो। २. बहुत बड़ा बेवकूफ। मूर्ख।
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बुरा  : वि० [सं० विरूप] [स्त्री० बुरी, भाव० बुराई] १. जड़ों वैसा न हो, जैसा उसे साधारण या उचित रूप में होना चाहिए। जो अच्छा या ठीक न हो। खराब। निकृष्ट। ‘अच्छा’ का विपर्याय’। २. (व्यक्ति) जिसमें कोई स्वभावजन्य दुर्गुण या दोष हो। खराब। दूषित। ३. (आचरण) जा धार्मिक, नैतिक या सामाजिक दृष्टि से परम अनुचित और निदनीय हो। जैसे—बुरा चाल-चलन। ४. जिसका रूप-रंग आकार-प्रकार देखकर मन में अरुचि, घृणा या विराग उत्पन्न हो। जैसे बुरी सूरत। ५. जो बहुत अधिक कष्ट या दुर्दशा में पड़ा हो। जैसे—आज-कल उनका बुरा हाल है। ६. जिसमें उग्रता, कठोरता, तीव्रता आदि बहुत बढ़ी हुई हो। जैसे—(क) किसी को बुरी तरह से कोसना या मारना-पीटना। (ख) लालच बुरी बला है। ७. जिसमें क्षति, हानि या अनिष्ट की आशंका हो। जैसे—(क) आवारा लड़कों के साथ घूमना या जूआ खेलना बुरा है। (ख) बुरे आदमी सदा दूसरों की बुराई ही करते हैं। ८. जो अमंगल-कारक या अशुभ हो अथवा सिद्ध हो सकता हो। जैसे—बुरी घड़ी, बुरी खबर, बुरी नजर, बुरी साइत। ९. जिसमें किसी प्रकार का अनौचित्य, खराबी या दोष हो। पद—बुरा काम=किसी के साथ स्थापित किया जानेवाला लैंगिक सम्बन्ध। संभोग। बुरा-भला=(क) हानि-लाभ। अच्छा और खराब परिणाम। जैसे—अरना बुरा-भला सोचकर सब काम करने चाहिए। (ख) उचित और अनुचित सभी तरह की बातें। मुख्यतः उक्त प्रकार की ऐसी बातें जो किसी की भर्त्सना करने के लिए जायँ। जैसे—वह नित्य अपने नौकरों को बुरा-भला कहते रहते हैं। बुरे-दिन=कष्ट, दुर्भाग्य या पतन का समय। जैसे—जब आदमी के बुरे दिन आते हैं, तब उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुरी वस्तु=गंदगी। मैला। मुहा०—(किसी से) बुरा बनना=किसी की दृष्टि में दोषी या द्वेवपूर्ण भाव रखनेवाला ठहरना या बनना। (किसी से) बुरा मानना=मन में द्वेश या बैर लगाना=अनुचित या अप्रिय जान पड़ना।
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बुराई  : स्त्री० [हिं० बुरा+ई (प्रत्य०)] १. वह तत्त्व जिसके फलस्वरूप किसी चीज को बुरा कहा जाता है। २. किसी को बुरा कहने की किया या भाव। ३. अनुचित या निन्दनीय आचरण अथवा व्यवहार। जैसे—जो तुम्हारे साथ बुराई करे, उसके साथ भी भलाई करो। ४. आपस में होनेवाला द्वेष, मनोमालिन्य या वैर-भाव। जैसे—दोनों भाइयों में बुराई पड़ गई है। कि० प्र०—पड़ना। ५. अवगुण। दोष। ऐब। जैसे—उसमें बुराई यही है कि वह बहुत झूठ बोलता है। ६. किसी से की जानेवाली किसी की निन्दा या शिकायत। जैसे—वह जगह जगह तुम्हारी बुरारी करता फिरता है।
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बुराई-भलाई  : स्त्री० [हिं०] १. अच्छी और बुरी घटनाएँ। नेकी-बंदी। जैसे—वह सबकी बुराई-भलाई में साथ देते हैं। २. किसी की निन्दा या शिकायत और किसी की प्रशंसा या तारीफ। जैसे—तुम्हें किसी की बुराई-भलाई करने से क्या मतलब।
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बुराक  : पुं० [अ० बुराक०] वह घोड़ा जिस पर रसूल चढ़कर आकाश में गए थे।
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बुरादा  : पुं० [फा० बुराद
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बुरापन  : पु०=बुराई।
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बुरुज  : पुं० बुर्ज।
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बुरुड़  : पुं० [देश०] एक जाति जो टोकरे, चटाइयाँ आदि बनाने का काम करती थी।
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बुरुल  : पुं०=रावरखा (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुरुल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा वृक्ष।
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बुरुश  : पुं० [अं० ब्रुश] १. तारों, बालों अथवा किसी चीज का बना हुआ वह उपकरण जिससे रगड़कर कोई चीज साफ की जाती अथवा पोती जाती है। २. तूलिका।
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बुरैया  : पुं० [हिं० बुरा] १. बुरा काम करनेवाला आदमी। २. दुष्ट। पाजी। ३. वह जो दूसरों की बुराई या निन्दा करता फिरे। ४. दुश्मन। शत्रु। (पूरब) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुर्ज  : पुं० [अ०] १. किले आदि की दीवारों में कोनों पर ऊपर की ओर निकला हुआ गोल या पहलदार भाग जिसमें बीच में बैठने आदि के लिए थोड़ा सा स्थान होता है। गरगज। २. उक्त आकार प्रकार की मीनार का ऊपरी भाग। ३. गुंबद। ४. गुब्बारा। ५. फलित ज्योतिष का राशि-चक्र।
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बुर्जतोप  : स्त्री० [हिं०] वह तोप जो मुख्यतः किले के बुर्ज पर रखकर चलाई जाती है।
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बुर्जी  : स्त्री० [बुर्ज का अल्पा० रूप] छोटा बुर्ज।
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बुर्द  : स्त्री० [फा०] १. ऊपरी आमदनी। ऊपरी लाभ। २. प्रतियोगिता। होड़। ३. प्रतियोगिता आदि में लगाई जानेवाली बाजी या शर्त। ४. शतरंज के खेल में किसी पक्ष की वह स्थिति जिसमें उसके बादशाह को छोड़कर अन्य मोहरे मारे जाते हैं। यह स्थिति आधी मात की सूचक होती है। वि० १. डूबा हुआ। २. नष्ट-भ्रष्ट। चौपट। बरबाद। जैसे—उसने जुए में सारा घर बुर्द कर दिया।
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बुर्दबार  : वि० [फा०] [भाव० बुर्दबारी] १. शान्तिप्रिय। २. सहन-शील।
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बुर्दाफरोश  : पुं० [फा० बर्दः फ़रोश] [भाव० बुर्दा फरोशी] १. वह जो मनुष्य बेचने का व्यापार करता हो। २. वह व्यक्ति जो जवान स्त्रियों को भगाता और दूसरों के हाथ बेचकर धन कमाता हो।
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बुर्राक  : वि० [फा०] १. चमकता हुआ। चमकीला। २. बहुत ही साफ और स्वच्छ। जैसे—बुर्राक कपड़े। ३. बहुत ही तीव्र गतिवाला। ४. चतुर। चालाक।
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बुर्री  : स्त्री० [हिं० बरकना] बोने का वह ढंग जिसमें बीज हल की जोत में डाल दिये जाते हैं और उसमें से आपसे आप गिरते चलते हैं।
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बुर्श  : पुं०=बुरुश।
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बुल-डाग  : पुं० [अं०] मझोले आकार किन्तु डरावनी सूरत के कुत्तों की एक जाति।
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बुलंद  : वि० बलंद] [भाव० बुलंदी] १. जिसकी उँचाई बहुत अधिक हो। बहुत ऊँचा। २. उत्तुंग। भारी जैसे—बुलंद आवाज। ३. बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा या उन्नत। जैसे—इकबाल बुलंद होना।
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बुलबुल  : स्त्री० [फा०] एक प्रसिद्ध गानेवाली चिड़िया जो तई प्रकार की होती और एशिया, यूरोप तथा अमेरिका में पाई जाती है। विशेष—उर्दूवाले प्रायः इसे पुंलिंग मानते हैं और इसे आशिक के प्रतीक के रूप में ग्रहण करते है।
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बुलबुल-चश्म  : स्त्री० [फा०] एक प्रकार की सहिली (चिड़िया)।
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बुलबुलबाज  : पुं० [फां०] [भाव० बुलबुलबाजी] वह जो बहुत सी बुलबुलें पालता तथा लड़ता हो।
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बुलबुलबाजी  : स्त्री० [फा०] बुलबुलें पालने या लड़ाने का काम या शौक।
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बुलबुलहजार दास्ताँ  : स्त्री० [फा०] बहुत ही मधुर स्वरवाला एक प्रसिद्ध ईरानी पक्षी जिसकी चर्चा अरबी और फारसी काव्यों में अधिकता से होती है। संस्कृत में इसे ‘कलबिक’ कहते हैं।
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बुलबुला  : पुं० [सं० बुद्बुद] १. किसी तरल पदार्थ या पानी की बूँद का वह खोखला और फूला हुआ रूप जो उसे अन्दर हवा भर जाने के कारण प्राप्त होता है। बुदबुदा। बल्ला। २. लाक्षणिक रूप में कोई क्षणभंगुर चीज या बात। जैसे—जिन्दगी पानी का बुलबुला है।
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बुलवाना  : स० [हिं० बुलाना का प्रे०] १. किसी को बोलने में प्रवृत्त करना। बोलने का काम किसी दूसरे से कराना। २. किसी को किसी के द्वारा यह कहलाना कि तुम यहाँ आओ। किसी को बुलाने का काम किसी के द्वारा कराना। संयो० कि०—भेजना।
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बुलाक  : पुं० [तु०] १. नाक की बीचवाली हड्डी। २. नाक में पहनी-जानेवाली नथ। ३. वह लंबोतरा मोती जो नथ में लटकाया जाता है।
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बुलाकी  : पुं० [तु० बुलाक] घोड़े की एक जाति। उदा०—मुश्की और हिरमंजि इराकी। तूरकी कंगी मथोर बलाकी।—जायसी।
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बुलाना  : स० [हिं० बोलना का स० रूप] १. किसी को बोलने में प्रवृत्त करना। बोलने का काम किसी से कराना। २. किसी को अपने पास आने या अपनी ओर प्रवृत्त करने के लिए आवाज देना। पुकारना। ३. किसी से यह कहना या कहलाना कि तुम यहाँ या हमारे पास आओ। संयो० कि०—भेजना।
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बुलावा  : पुं० [हिं० बुलाना+आवा (प्रत्य०)] १. बुलाने की किया या भाव। २. आवाहन। निमंत्रण। कि० प्र०—आना।—जाना।—भेजना।
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बुलाह  : पुं० [सं० वोल्लाह] वह घोड़ा जिसकी गरदन और पूँछ के बाल पीले हों। (अश्व वैद्यक)
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बुलाहट  : स्त्री० [हिं० बुलाना] किसी को कहीं बुलाने के लिए भेजी जाने-वाली आज्ञा या संदेश। बुलावा।
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बुलिन  : स्त्री० [अं० बुलियन] एक प्रकार का रस्सा जो चौकोर पाल के लग्धे में बाँधा जाता है। (लश०)
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बुलेटिन  : पुं० [अं०] किसी सार्वजनिक बात या विषय में संबंध रखनेवाला वह संक्षिप्त सूचनापत्र जो किसी की ओर से आधिकारिक रूप से प्रकाशित किया गया हो।
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बुलेली  : स्त्री० [तामिल] मँझोले आकार का एक तरह का पेड़।
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बुलौआ  : पुं०=बुलावा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुल्लन  : पुं० [देश०] १. गिरई की तरह की पर भूरे रंग की एक मछली जिसके मूँछें नहीं होतीं। २. चेहरा। मुँह। दलाल) पुं० [अनु०] पानी का बुलबुला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुल्ला  : पुं०=बुलबुला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुवाई  : स्त्री०=बोआई।
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बुसना  : अ० [हिं० बासी] खाद्य पदार्थ का बासी पड़ने के कारण दुर्गंन्ध युक्त होना। जैसे—कढ़ी तो १ बुस गई है।
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बुहरी  : स्त्री०=बहुरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बुहारना  : सं० [सं० बहुकर+ना (प्रत्य झाड़ू से जगह साफ करना। झाडू देना। झाड़ना। २. लाक्षणिक अर्थ में अवांछित तत्त्व दूर करना बाहर निकालना।
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बुहारा  : पुं० [हिं० बुलारना] [स्त्री० अल्पा० बुहारी] ताड़ की सींकों का बना हुआ बड़ा झाड़।
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बुहारी  : स्त्री० [सं० बहुकरी, हिं० बुहारना+ई (प्रत्य०)] झाड़ू। बढ़नी।
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बू  : स्त्री० [फा०] १. बास। गंध। महक। २. दुर्गंध। बदबू। ३. लाक्षणिक रूप में, किसी प्रकार का आभास। जैसे—(क) उसकी बातों में शरारत की बू रहती है। (ख) उनमें से अभी तक रईसी की बू नहीं गई है। पद—बू-बास=हलकी गंध।
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बूआ  : स्त्री० [देश०] १. पिता की बहन। फूफी। २. बड़ी बहन। ३. स्त्रियों का परस्पर आदर-सूचक संबोधन। (मुसल०) ४. एक प्रकार की मछली। ककसी।
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बूई  : स्त्री० [देश०] एक तरह की वनस्पति।
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बूक  : पुं० [देश०] ऊँची पहाड़ियों पर होनेंवाला माजूफल की जाति का एक वृक्ष। पु० [हिं० बकोटा] हाथ के पंजों की वह स्थिति जो उँगलियों को बिना हथेली से लगाये किसी वस्तु को पकड़ने, उठाने या लेने के समय होती है। चंगुल। बकोटा। पुं० [सं० वक्ष] १. कलेजा। हृदय। २. छाती। वक्षःस्थल। स्त्री०=बुक (कपड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूकना  : स० वृक्ण=तोड़ा-फोड़ा हुआ] १. सिल और बट्टे की सहायता से किसी चीज को महीन पीसना। पीसकर चूर्ण करना। २. अनावश्यक और हास्यास्पद रूप में अपने किसी गुण, योग्यता आदि का प्रदर्शन करना। बधारना। जैसे—अंगरेजी या संस्कृत बूकना, कानून या कारीगरी बूकना।
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बूका  : पुं० [देश०] वह भूमि जो नदी के हटने से निकल आती है। गंगबरार। पुं०=बुक्का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूगा  : पुं० [अं० बंच=गुच्छा] कपड़े, कागज या चमड़े आदि का वह टुकड़ा जो बंदूक आदि में गोली या बारूद को यथास्थान स्थिर रखने के लिए उसके चारों ओर लगाया जाता है। (लश०) पु० [अ० ब्रूच] बड़ी मेख। (लश०) मुहा०—बूच मारना=गोले या गोली आदि की मार से होनेवाला छेद डाट लगाकर बंद करना
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बूँच  : स्त्री० [हिं० गूंछ] एक प्रकार की मछली जिसे गूँध भी कहते हैं।
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बूचड़  : पुं० [अं० बुचर] वह जो पशुओं का मांस आदि बेचने के लिए उनकी हत्या करता है। कसाई।
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बूचड़खाना  : पुं० [हिं० बूचड़+फा० खाना] कसाई-खाना।
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बूचा  : वि० [सं० बुस=विभाग करना] [स्त्री० बूची] १. जिसके कारण कटे हुए हों। कनकटा। २. जो कुछ अंग या अवयव कट जाने के कारण कुरूप या भद्दा जान पड़े। जैसे—बूचा पेड़। ३. जो किसी चीज के अभाव के कारण अशोभन या भद्दा जान पड़े। जैसे—बूचे हाथ, जिनमें चूड़ियाँ या गहने न हों। (स्त्रियाँ)
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बूची  : स्त्री० [हिं० बूचा] वह भेड़ जिसके कान बाहर निकले हुए न हों। बल्कि जिसके कान के स्थान में केवल छोटा सा छेद ही हो। गुजरी।
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बूजन  : पुं० [फा० बूज़नः] बंदर। (कलंदर)
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बूजना  : स० [?] किसी को धोखा देने के लिए कुछ छिपाना।
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बूझ  : स्त्री० [सं० बुद्धि] १. बूझने की किसी या भाव। २. बुझने की शक्ति। बुद्धि। समझ पद—समझ बूझ=समझने की और ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता या शक्ति ३. पहेली या बुझारत।
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बूझन  : स्त्री०=बूझ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूझना  : स० [ हिं० बूझ] १. किसी प्रकार का ज्ञान या बोध प्राप्त करना। जानना और समझना। २. कोई गूढ़ या रहस्यपूर्ण बात समझना या उसकी तह तक पहुँचना। जैसे—पहेली बूझना। ३. प्रश्न करना। बूझना। ३. प्रश्न करना। बूझना।
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बूझनी  : स्त्री० [हिं० बूझना, स० बुध्य] १. प्रश्न। सवाल। उदा०—जब अति सखिन बूझनी लई, तब हंसि कुँवरि गोद लुठि गई।—नन्ददास। २. पहेली। बुझारत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूट  : पुं० [सं० विटप, हि० बूटा] १. चने का हरा पौधा। २. चने का हरा दाना। ३. पेड़ या पौधा। पुं० [अं०] एक तरह का विलियाती ढंग का फीतेवाला जूता।
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बूट पुलाव  : पुं० [हिं०] वह पुलाव जो चावल और हरे चने को मिलाकर पकाया जाता है।
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बूटना  : अ० [?] भागना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूटनि  : स्त्री० [हिं० बहूटी] बीर बहूटी नाम का कीड़ा।
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बूटा  : पुं० [सं० विटप] १. छोटा वृक्ष। पौधा। २. उक्त आकार का कोई अंकन या चित्रण। जैसे—कपड़े या दीवार पर बने हुए बेल-बूटे। ३. एक प्रकार का छोटा पहाड़ी पौधा।
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बूटी  : स्त्री० [हिं० बूटा का स्त्री० रूप] १. ऐसी जंगली वनस्पति जिसका उपयोग औषध आदि के रूप में होता है। पद—जड़ी-बूटी। (दे०) २. छोटे पौधों या फूलों के आकार का कोई अंकन या चित्रण। जैसे—अशरफी बूटी। ३. भाँग। विजया। ४. ताश के पत्तों पर अंकित रंग के चिन्ह। ५. एक प्रकार का पौधा जिसके रेशों से रस्सियाँ बनाई जाती है। ऊदल। गुल-बादला।
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बूटेदार  : वि० [हिं० बूटा+फा० दार (प्रत्य)] जिस पर बूटे बने हों।
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बूठना  : अ० [सं० वर्षण] बरसाना। वर्षा होना। उदा०—आँधी पीछे जो जल बूठा।—जायसी।
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बूड़  : स्त्री० [हिं० बूड़ना] जल की इतनी गहराई जिसमें आदमी डूब सके। डुबाव।
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बूड़  : पुं० [हिं० बूढ़ा] १. बीरबहूटी। २. बीरबहुटी की तरह का गहरा लाल रंग। वि०=बूढ़ा (वृद्ध)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूड़न  : स्त्री०=बुड़ (डुबाव)।
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बूड़ना  : अ० [सं० व्रुड=डूबना] १. निमज्जित होना। डुबना। २. किसी काम या बात या विषय में निमग्न या लीन होना। उदा०—अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग।—बिहारी। संयो० कि०—जाना।
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बूड़ा  : पुं० [हिं० डूबना] १. वर्षा आदि के कारण होनेवाली जल की बाढ़। २. उतना गहरा पानी जिसमें आदमी डूब सकता हो।य़ डुबाव। कि० प्र०—आना।
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बूड़िया  : पुं० [हिं० बूड़ना] गहरे पानी में गोता लगाकर चीजें निकालने-वाला। गोताखोर। डुब्बा।
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बूढ़ा  : पुं० [स्त्री० बूढ़ी]=बुड्ढा (वृद्ध)। पद—बूढ़ा आढ़ां= बुढ़ापे के बहुत कुछ पास पहुँचा हुआ। स्त्री०=बुढ़िया (वृद्धा स्त्री)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूढ़ी  : स्त्री०=बीर बहूटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूत  : पुं०=बूता। उदा०—है काकर अस बूता।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूता  : पुं० [हिं० वित्त] १. बल। पराकम। २. शक्ति। सामर्थ्य।
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बूथड़ी  : स्त्री० [देश०] १. आकृति। २. चेहरा। सरत। शकल। ३. रुआँसा मुँह।
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बूँद  : स्त्री० [सं० बिंदु] १. जल अथवा किसी तरल पदार्थ का कण। कतरा। पद—बूंदें गिरना या पड़ना=धीमी वर्षा होना। थोड़ा-थोड़ा सा मुहा०—बूँदें गिरना या पड़ना=धीमी वर्षा होना। थोड़ा-थोड़ा सा पानी बरसना। २. पुरुष के वीर्य का वह अंश जो स्त्री के गर्भाशय में पहुँचकर उसे गर्भवती करता है। मुहा०—बूँद चुराना=स्त्री का पुरुष के संभोग के कारण गर्भवती होना। ३. एक प्रकार का रंगीन देशी कपड़ा जिसमें बूँदों के आकार की छोटी छोटी बूटियाँ बनी होती है और जो स्त्रियों के लहँगे आदि बनाने के काम में आता है। वि० बहुत तेज (अस्त्र)।
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बूँदा  : पुं० [हिं० बूँद] १. सुराहीदार मणि या मोती जो कान में या नथ में पहना जाता है। २. दे० ‘बूंदा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूँदा-बाँदी  : स्त्री० [बूँद] हलकी या थोड़ी वर्षा।
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बूँदी  : स्त्री० [हिं० बूँद+ई (प्रत्य०)] १. वर्षा के जल की बूंद। २. एक प्रकार की मिठाई जो झरने में से घुले हुए बेसन की छोटी छोटी बूंदें टपकाकर बनाई जाती है। बुंदिया।
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बूना  : पुं० [देश०] चनार नाम का वृक्ष।
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बूबक  : पुं० [देश०] मूर्ख व्यक्ति।
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बूबला  : पुं० [?] बाजरे की भूसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूबास  : स्त्री० [फा०+हिं०] १. गंध। महक। २. किसी परम्परा का चिन्ह या लक्षण। (प्रायः नहिक प्रयोगों में प्रयुक्त) जैसे—उसमें बड़ों की बू-बास नहीं है।
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बूबू  : स्त्री० [अनु०] १. बड़ी बहिन। ३. बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों के लिए सम्बोधन।
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बूम  : पुं, [फा०] १. उल्लू। २. बंजर भूमि।
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बूर  : पुं० [देश०] १. पश्चिमी भारत में होनेवाली एक प्रकार की घास जिसके खाने से गौओं, भैसों आदि का दूध और अन्य पशुओं का बल बहुत बढ़ जाता है। खोई। २. पशुओं के खाने का कटा हुआ चारा। ३. निकम्मी, फालतू या रद्दी चीज। ४. कुछ विशिष्ट प्रकार के कपड़ों के ऊपर निकले हुए रोएँ। जैसे—बूरदार कम्बल, बूरदार तौलिया। ५. एक प्रकार की मिठाई जो अन्न की भूसी या छिलके से तैयार की जाती है। उदा०—बूर के लड्डू खाये तो पछताये, न खाये तो पछताये। (कहा०) स्त्री०=बुर (भग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बूरा  : पु० [हिं० भूरा] १. कच्ची चीनी जो भूरे रंग की होती है। शक्कर। २. एक प्रकार की साफ की हुई बढ़िया चीनी। ३. महीन चूर्ण।
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बूरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बहुत छोटी वनस्पति जो पौधों उनके तनों, फूलों और पत्तों आदि पर उत्पन्न हो जाती है और जिसके कारण वे सड़ने या नष्ट होने लगते हैं।
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बूलंदी  : स्त्री० [फा० बलंदी] १. बुलंद होने की अवस्था या भाव। ऊँचाई।
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बूला  : पुं० [देश०] पयाल का बना हुआ जूता। लतड़ी।
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बूहम  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार की घोड़ागाड़ी जिसे ब्रूहम नामक डाक्टर ने डाक्टरों के लिए प्रचलित किया था।
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बृच्छ  : पुं०=वृक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बृटिश  : वि०=ब्रिटिश।
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बृंद  : पुं० दे० ‘वृंद’।
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बृंदा  : स्त्रीं० दे० वृंदा।
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बृंदारण्य  : पुं० [सं० वृंदारण्य] वृंदावन।
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बृष  : पुं० [सं० वृष] १. सौड़। २. बैल। ३. मोरपंख। ४. इंद्र। ५. दे० ‘वृष’।
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बृहज्जन  : पुं० [सं० वृहद-जन,कर्म० स०] नामी, यशस्वी या बहुत बड़ा आदमी।
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बृंहण  : वि० [स्०√बृंह (वृद्धि करना)+ल्यूट्—अन] पोषक। पुष्टि। कर। पुं० १. पुष्ट करने की किया या भाव। २, एक प्रकार की मिठाई।
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बृहत  : वि० [सं०√ वृह (बृद्धि)+ अति नि० सिद्घि] १. बहुत बड़ा या भारी। विशाल। २. दृढ़ पक्का। मजबूत। ३. बलवान। ४. (स्वर) ऊँचा या भारी। ५. पर्याप्त। यथेष्टा। ६. घना। निविड़। पुं० एक मरुत् का नाम।
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बृहतिका  : स्त्री० [सं० वृहती+ कन्+ टाप्-ह्नस्व] उपरना। दुपट्टा।
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बृहती  : स्त्री० [सं० वृहत्+ङीष्] १. कटाई। बरहंटा। बनभंटा। २. भटकैटया ३. वाक्य। ४. उत्तरीय वस्त्र। उपरना। ५. विश्वावसु गंघर्व की वीणा का नाम। ५. सुश्रुत के अनुसार एक मर्मस्थान जो रीढ़ के दोनों ओर पीठ के बीच में है। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नौ अक्षर होते हैं।
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बृहतीपति  : पुं० [सं० ष० च०] बृहस्पति।
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बृहतुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स० , डीष्] सन का पेड़। सनई।
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बृहत्कंद  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णुकंद। २. गाजर।
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बृहत्केतु  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि]
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बृहत्तर  : वि० [सं० बृहत्+तरप्] १. किसी बड़े या बृहत् की तुलना में और भी बड़ा। जिसमें मूल क्षेत्र के अतिरिक्त आसपास के क्षेत्र भी मिले हों। जैसे—बृहत्तर भारत।
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बृहत्ताल  : पुं० [कर्म० स०] हिताल।
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बृहत्तृण  : पुं० [सं० कर्म० स०] बाँस।
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बृहत्त्पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. हाथी कंद। २. सफेद लोध। ३. कासमर्द।
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बृहत्त्वक् (च्)  : पुं० [सं० ब० स०] नीम का वृक्ष।
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बृहत्पर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] सफेद लोध
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बृहत्पाद  : पुं० [सं० ब० स०] वटवृक्ष। का पेड़।
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बृहत्पीलु  : पुं० [सं० कर्म० सं०] महापीलु। पहाड़ी अखरोट।
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बृहत्पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. पेठा। २. केले का पौधा।
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बृहत्फल  : पुं० [सं० ब० स०] १. चिचिड़ा। चिचड़ा। २. कुम्हड़ा। ३. कटहल। ४. जामुन। ५. तितलौकी। ६. महेन्द्र-वारुणी।
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बृहद  : वि०=वृहत्।
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बृहदभानु  : पुं० [सं० ब० स०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. चित्रक नामक वृक्ष। चीता। ४. विष्णु।
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बृहदवल्ली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] करेला।
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बृहदारण्यक  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रसिद्ध उपनिषद् जो दस मुख्य उपनिषदों के अन्तर्गत है। यह शतपथ ब्राह्यण के मुख्य उपनिषदों, में से और उसके अंतिम ६ अध्यायों या ५ प्रपाठकों में है।
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बृहदेला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] बड़ी इलाइची।
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बृहद्दंती  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार की दंती जिसके पत्ते एरंड के पत्तों के समान होते हैं। दे० ‘दंती’।
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बृहद्बला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. महाबला। २. सफेद लोध। ३. लज्जावंती। लजालू।
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बृहद्रथ  : पुं० [सं० ब० स०] १. इन्द्र। २. सामवेद का एक अंश। २. यज्ञ-पात्रष।
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बृहद्वर्ण  : पुं० [सं० ब, स०] सोनामक्खी। स्वर्णामाक्षिक।
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बृहद्वादी (दिन्)  : वि० [सं० बृहत्√वद् (कहना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] बहुत अधिक या बढ़-बढ़कर बातें करनेवाला।
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बृहन्नट  : पु० [सं० कर्म० स०] अर्जुन।
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बृहन्नल  : पुं० [सं, कर्म० स०] १. अर्जुन। २. बाहु। बाँह।
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बृहन्नारदीय  : पुं० [सं० बृहत-नारदीय, कर्म० स०] एक उपपुराण।
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बृहन्नारायण  : पुं० [सं० बृहत्-नारायण, कर्म० स०] याज्ञिकी उपनिषद् का दूसरा नाम।
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बृहन्निंब  : पुं० [सं० बृहत्-निम्ब, कर्म० स०] महानिब।
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बृहस्पति  : पुं० [सं० बृहत-पति, ष० त० सुट्, नि०] १. एक प्रसिद्ध देवता जो अंगिरस के पुत्र और देवताओं के गुरु कहे गये हैं। २. सौरजगत् का पाँचवाँ और सबसे बड़ा ग्रह जिसका व्यास ८७००० मील है। यह लगभग ११० वर्षों में सूर्य की परिकमा करता है। (जुपिटर)
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बृहस्पति चक्र  : पुं० [ष० त०] ६0 संवत्सरों का चक्र। (गणित ज्योतिष)
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बृहस्पतिवार  : पुं० [ष० त०] बुधवार के बाद और शुक्रवार से पहले पड़नेवाले दिन की संज्ञा। गुरुवार। बीफै।
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बे  : अव्य० [सं० वि० मि० फा० बे] बिना। बगैर। (इसका प्रयोग प्रायः अरबी, फारसी आदि शब्दों के साथ यौगिक बनाते समय पूर्व पद के रूप के रूप में होता है। जैसे—बेइज्जत, बेईमानी आदि। अव्य० [अनु०] हिं० अबे का संक्षिप्त रूप जिसका प्रयोग उपेक्षा सूचक संबोधन के लिए होता है। मुहा०—बे ते करना= किसी को तुच्छ समझते हुए उसके साथ अशिष्टता पूर्वक बातें करना।
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बे-खता  : वि० [फा० बे+अ० खता=कुसूर] १. जिसने कोई खता या अपराध न किया हो। निरपराध। बेकसूर। २. जो कहीं खता न करे; अर्थात् कहीं न चूकनेवाला। अचूक। अमोध। जैसे—बेखता निशाना लगाना।
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बे-गम  : वि० [हिं० बे+अ० गम] जिसे किसी बात का गम या चिन्ता न हो। निश्चिन्त।
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बे-जाब्तगी  : स्त्री० [फा० बे+अ० ज़ाब्तगी] बेजाब्ता अथवा अनियमित या नियमविरुद्ध होने की अवस्था या भाव।
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बे-तकल्लुफी  : स्त्री० [फा०] बेतकल्लुफ होने की अवस्था या भाव। सरलता। सादगी।
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बे-तकसीर  : वि० [फा० वे+ अ० तक़सीर] जिसने कोई तकसीर या अपराध न किया हो। निरपराध। निर्दोष। बेगुनाह।
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बे-तमीज  : वि० [फा० बे+अ० तमीज़] [भाव० बेतमीजी] जिसे तमीज न हो। अशिष्ट और उद्दंड।
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बे-तरतीब  : वि० [फा० बे+अ० तर्तीब] [भाव० बेतरतीबी] १. जो किसी क्रम से न रखा हुआ हो। क्रमहीन। २. अस्त-व्यस्त।
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बे-तरह  : कि० वि० [फा० बे+अ० तरह] १. विकट रूप से। २. असाधारण रूप से। बहुत अधिक। जैसे—आज तो बे-तरह पानी बरसा।
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बे-तरीका  : वि० [फा० बे+ तरीक़ा] जो सही ढंग से न हुआ हो। कि० वि० बिना तरीके या ठीक ढंग के।
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बे-तहाशा।  : कि० वि० [फा० बे+ अ० तहाशा] १. अकस्मात् और तेजी से। अचानक और वेगपूर्वक। २. बहुत घबराकर या बिना सोचे-समझे।
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बे-ताब  : वि० [फा०] [भाव० बेताबी] १. जिसमें धैर्य या सब्र न हो। २. विकल। व्याकुल। ३. परम उत्सुक। ४. अशक्त।
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बे-ताबी  : स्त्री० [फा०] १. बेताब होने की अवस्था या भाव। २. विकलता। ३. परम उत्सुकता।
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बे-ताला  : वि० [फा० बे+हिं० ताल] [स्त्री० बैताली] १. जो ठीक ताल के हिसाब से गाता या बजाता न हो। २. गाना या बजाना) जो ताल के हिसाब से ठीक न हो। (संगीत)
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बे-तुका  : वि० [फा० बे+ हिं० तुका] [स्त्री० बेतुका] १. (पद्यमय रचना) जिससी तुर्के न मिलती हों। अंत्यानुप्रास-हीन। २. (बात) जो अवसर, प्रसंग आदि के विचार से बहुत ही अनुपयुक्त तथा महत्त्वहीन हो। मुहा०—बेतुकी हाँकना= बेढंगी बात कहना। ऐसी बात कहना जिसका कोई सिर-पैर न हो। ३. (व्यक्ति)जो अवसर-कुअवसर का ध्यान न रखकर बेंढंगे या भद्दे काम करता अथवा बातें कहता हो। ४. (पदार्थ) जो ठीक ढंग या ठिकाने का न हो। जैसे—बेतुकी पगड़ी।
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बे-दखल  : वि० [फा० बे+अ० दख्ल] [भाव० बेदखली] जिसका किसी चीज पर दखल अर्थात् कब्जा न रह गया हो। अधिकार-च्युत।
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बे-दम  : वि० [फा०] १. जिसमें जीवनी शक्ति न हो अथवा नहीं के समान हो। २. मुरदा। मृतक। ३. जिसकी जीवनी-शक्ति बहुत कुछ नष्ट हो चुकी हो। जर्जर। बोदा।
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बे-दर्द  : वि० [फ़ा० ] [भाव० बेदर्दी] जो दूसरों के दुःख का अनुभव न करता हो। दसरों के कष्टों को देखकर दुःखी न होनेवाला। कठोर हदय। पाषाण हृदय।
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बे-दर्दी  : स्त्री० [फा०] बेदर्द होने की अवस्था या भाव। निर्दयता। बेरहमी। कठोरता। वि०=बेदर्द।
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बे-दाम  : वि० [फा०] बिना दाम का। जिसका कुछ मूल्य न दिया गया हो। कि० वि० बिना दाम या मूल्य दिये। वि०=बादाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-दार  : वि० [फा०] [भाव० बेदारी] जो जाग्रत तथा सचेत हो। जागा हुआ।
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बे-धड़क  : कि० वि० [फा० बे+हिं० धड़क] १. भय, मर्यादा अथवा संकोच की परवाह न करते हुए। २. बिना किसी आज्ञा या खटके या भय के। ३. बिना किसी बात की चिन्ता या परवाह किये हुए। ४. बिना कुछ सोचे-समझे हुए। वि० १. जिसे किसी प्रकार का संकोच या खटका न हो। निर्द्वद्व। २. जिसे किसी प्रकार की आशंका या भय न हो।
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बे-धर्म  : वि० [फा० बे+सं० धर्म] [भाव० बेधर्मी] १. जिसे अपने धर्म का ध्यान न हो। २. जो अपना धर्म छोड़ चुका हो। धर्मच्युत।
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बे-नजीर  : पुं० [फा० बे+अ० नज़ीर] अद्वितीय। अनुपम।
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बे-नसीब  : वि० [फां०+अ०] [भाव० बेनसीबी] अभागा। भाग्यहीन।
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बे-नाम  : वि० [फा०] १. जिसका कोई नाम न हो। २. अप्रसिद्ध।
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बे-नामी  : वि. [हि. बे+नाम] (सम्पत्ति) जिस पर उसके वास्वतिव स्वामी ने अपना नाम न चढ़वाकर अपने किसी अधीनस्थ या दूसरे विश्वसनीय आदमी का नाम चढ़वा रखा हो।
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बे-नियाज़  : वि० [फा०] [भाव० वनियाज़ी] निःस्पृह।
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बे-परदगी  : स्त्री० [फा० बे-पर्दगी] १. बे-परदा होने की अवस्था या भाव। २. स्त्री का परदे में न रहना। बिना परदा किये तथा निस्संकोच भाव से स्त्रियों का पर-पुरुषों के सामने आना।
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बे-परवा  : वि० [फा० बेपर्वा] [भाव० बेपरवाई] १. जिसे कोई परवा न हो। बेफिक्र। २. जो किसी बात की परवा न करता हो। ला-परवाह। ३. बहुत बड़ा उदार और दानी।
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बे-पाय  : वि० [हिं बे+सं० उपाय] जिसे घबराहट के कारण कोई उपाय न सूझे। भौचक। हक्काबक्का। उदा०—पाय महावर देइ को, आप भई बे-पाय।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-फायदा  : वि० [फा० बे-फ़ाइदः] जिससे कोई फायदा न हो। जिससे कोई लाभ न हो सके। व्यर्थ का। क्रि वि० बिना किसी फायदे या लाभ के। निरर्थक। व्यर्थ।
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बे-फिकरा  : वि० [फा० वे-फ़िक्र] १. जिसे कोई फ़िक्र या चिन्ता न हो। २. अपनी अपनी ही मौज में रहनेवाला तथा घर-बार की कुछ भी चिन्ता न रखनेवाला। ३. आवारा और निकम्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-फिकरी  : स्त्री० [फा० बेफ़िक्री] बेफिक्र होने की अवस्था या भाव। निश्चिंतता।
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बे-फिक्र  : वि० [फा० बेफ़िक्र] [भाव०] [भाव० बे-फिकरी] जिसे कोई फिक्र न हो। निश्चित। बेपरवा।
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बे-बखली  : स्त्री० [स्त्री० [फा० बे+अ० दख्ली] दखल या कब्जे का हटाया जाना अथवा न होना। अधिकार में न रहने देने की अवस्था या भाव।
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बे-बसी  : स्त्री० [हिं० बेबस+ई (प्रत्य) १. बेबस होने की अवस्था या भाव। लाचारी। मजबुरी। विवशता। २. पर-वशता।
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बे-बाक  : वि० [फा० बे+अ० बाक़] १. (देय) जो चुका दिया गया हो, और इसीलिए जिसका कुछ भी अंश बाकी न रह गया हो। चुकता किया हुआ। चुकाया हुआ। २. ऋणमुक्त। वि० [फ़ा] [भाव० बेबाकी] निडर। निर्भय।
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बे-ब्याहा  : वि० [फा० बे+हिं० ब्याहा] [स्त्री० बे-ब्याही] जिसका विवाह न हुआ हो। आविवाहित कुँआरा।
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बे-भाव  : कि० [फा० बे+ हि० भाव] बिना किसी भाव (गिनती) या हिसाब) के। बेहिसाब। वि० बहुत अधिक। बेहद। मुहा० बेभाव की पड़ना= (क) बहुत अधिक मार पड़ना। (ख) बहुत अधिक भर्त्सना होना।
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बे-मग्ज  : वि० [फा० बे+अ० मग्ज़] निर्बुद्घि।
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बे-मन  : क्रि० वि० [फा० बे+ हि० मन] बिना मन लगाये। बिना दत्तचित्त हुए। वि० (काम में) जिसका मन न लगता हो या न लग रहा हो।
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बे-मरमती  : स्त्री० [फा०] बेमरम्मत होने की अवस्था या भाव। वि० बेमरम्मत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-मरम्मत  : वि० [फा०+अ०] [भाव० बेमरम्मती] जिसकी मरम्मत होने को हो, पर न हुई हो। टूटा-फूटा और बिगड़ा हुआ।
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बे-मुनासिब  : वि० [फा०] जो मुनासिब न हो। अनुचित। ना-मुनासिब।
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बे-मुरव्वत  : वि० [फा०] जिसमें मुरव्वत न हो। जिसमें शील या संकोच का अभाव हो। तोता-चश्म।
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बे-मुरव्वती  : स्त्री० [फ़ा०] बेमुरव्वत होने की अवस्था या भाव।
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बे-मेल  : [फा. बे+ हिं० मेल] जिसका किसी से मेल न बैठता हो। अनमेल
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बे-मौका  : वि० [फा० बेमौका] जो अपने मौके पर न हो। जो अपने उपयुक्त अवसर या स्थान पर न हो। क्रि० वि० बिना मौके या उपयुक्त अवसर का ध्यान रखे हुए। पुं० मौके अर्थात उपयुक्त अवसर का अभाव।
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बे-मौत  : अव्य० [फा० बे+हि० मौत]बिना मौत आये ही। जैसे—हम तो बे-मौत मर गए।
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बे-मौसिम  : वि० [फा०] १. जिसका मौसिम न हो। २. मौसिम न होने पर भी होनेवाला।
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बे-रसना  : सं० [सं० विलसन] १. विलास करना। २. भोगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-रहम  : वि० [फा० बेरहम] [भाव०] जिसके हृदय में रहम अर्थात् दया न हो। निर्दय। निष्ठुर।
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बे-राग  : वि० [फा० बे+सं० राग] जिसमें किसी प्रकार का राग या प्रवृत्ति न हो। राग-रहित। उदा०—कौतुक देखत फिरेउ बेरागा।—तुलसी। पुं०=वैराग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-राह  : वि० [फा०] गलत या बुरे रास्ते पर चलनेवाला। पथभ्रष्ट।
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बे-रोजगार  : वि० [फा० बेरोजगार] [भाव० बेरोजगारी] व्यवसायहीन। बेकार।
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बे-रोजगारी  : स्त्री० [फा०] बेरोजगार होने की अवस्था या भाव अर्थात् व्यवसायहीन या बेकार होने की अवस्था या भाव।
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बे-रौनक  : वि० [फा० बेरौनक़] १. जिसमें या जिस पर रौनक न हो। २. श्रीहीन। शोभाहीन। ३. (स्थान) जहाँ चहल-पहल न हो।
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बे-रौनकी  : स्त्री० [बेरौनक़ी] बेरौनक होने की अवस्था या भाव। क्रि० प्र०—छाना।
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बे-लगाम  : विं० [फा०] १. (घोड़ा) जिसके मुँह में लगाया न लगी हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, मुँह-फट।
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बे-लज्ज़त  : वि० [फा० बेलज्ज़त। १. जिसमें किसी प्रकार की लज्जत अर्थात् स्वाद न हो। स्वाद-रहित। २. नीरस। फीका। ३. जिसमें कोई आनन्द आ सुख न हो। जैसे—गुनाह बेलज्जत।
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बे-लाग  : वि० [फा० बे+हि० लाग=लगावट] १. जिसमें किसी प्रकार की लगावट या संबंध न हों। बिलकुल अलग और साफ या स्वतंत्र। २. सच्चा और साफ। खरा।
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बे-लौस  : वि० [फा० बे+ अ० लौस] [भाव० बेलौसी] जो किसी से लौस अर्थात् कामनापूर्ण लगाव या सम्बन्ध न रखता हो, अर्थात् खरा और सच्चा व्यवहार करनेवाला। पाक-साफ।
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बे-वक्त  : अव्य० [फा०+अ०] कुसमय में।
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बे-वजह  : अव्य० [फा०+अ०] बिना किसी वजह अर्थात् कारण या हेतु के। निष्प्रयोजन।
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बे-वतन  : वि० [फा०] १. जिसका कोई वतन अर्थात् देश न हो। २. जिसके रहने आदि का कोई ठिकाना न हो। बे-घर बार का। ३. परेदेसी। विदेशी।
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बे-वफ़ा  : वि० [फा० बे+अ० वफ़ा] [भाव० बेवफाई] १. जिसमें वफा अर्थात् निष्ठा, सद्भाव आदि बातें न हों; फलतः कृतध्न। २. वचन भंग करनेवाला। दगाबाज।
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बे-शऊर  : वि० [फा० बे०+अ० शुऊर] [भाव० बेशऊरी] जिसे शऊर न हो। अर्थात् जिसे कोई काम ठीक तरह से करने का ढंग न आता हो। मूर्ख।
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बे-शक  : अव्य० [फा० बे+अ० शक] १. बिना किसी प्रकार के शक या संदेश के। २. अवश्य। जरूर। निःसन्देह।
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बे-शरम  : वि० [फा० बेशर्म] [भाव० बेशरमी] जिसे शरम हया न हो। निर्लज्ज। बेहया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-शरमी  : स्त्री० [फा० बेशर्मी] निर्लज्जता। बेहयाई।
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बे-शुबहा  : अ० [फा० बे+अ० शुब्हः] बिना किसी शक या शुबहा के। निःसंदेह। बेशक।
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बे-सबब  : अव्य० [फा०] बिना कारण। अकारण।
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बे-सबर (ा)  : वि० [फा० बे+अ० सब्र+हि० आ (प्रत्य) हि० आ (प्रत्य)] [भाव० बेसवरी] जिसे सब्र या संतोष न होता हो। जो संतोष न रख सके। अधीर।
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बे-सबरी  : स्त्री० [फा० बे+अ० सब्री] बेसबर होने की अवस्था या भाव अधीरता।
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बे-संभार  : वि० [फा० बे+हिं० सँभाल=सुध] जो अपने आपको सँभाल न सकता हो अर्थात् अचेत या बेसुध।
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बे-समझ  : वि० [फा० बे+हिं० समझ] मूर्ख। निबुर्द्धि। ना-समझ।
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बे-समझी  : स्त्री० [हिं० बेसमझ+ई (प्रत्य०)] बे-समझ होने की अवस्था या भाव। मूर्खता। नासमझी।
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बे-सरोसामान  : वि० [फा०] १. जिसके पास कुछ भी सामान या सामग्री न हो। २. दरिद्र। कंगाल।
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बे-सलीका  : वि० [फा० बे+अ० सलीक़ः] [भाव० बेसलीकगी] १. जिसे काम करने का सलीका या ढंग न आता हो। २. अशिष्ट और असम्य।
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बे-सिलसिले  : अव्य० [हिं० बे+फा० सिलसिला] बिना किसी कम या सिलसिले के। अव्यवस्थित रूप से।
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बे-स्वाद  : वि० [हिं०+सं० स्वादु] १. जिसमें कोई अच्छा स्वाद न हो। स्वाद-रहित। २. नीरस। फीका।
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बे-हया  : वि० [फा०] [भाव० बेहयाई] (व्यक्ति) जिसे हया या लज्जा न हो। निर्लज्ज। बेशर्म।
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बे-हयाई  : स्त्री० [फा०] बेहया होने की अवस्था या भाव। बेशर्मी। निर्लज्जता।
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बे-हाथ  : वि० [फा० बे+हि० हाथ] १. जो अपने हाथ (अर्थात् कार्य करने की शक्ति या साधन) से रहित या हीन हो चुका हो। जैसे—फारखती लिखकर तो तुम बे-हाथ हो चुके हो। २. जो हाथ (अर्थात् अधिकार या वश) के बाहर हो गया हो। जैसे—अब तो लड़का तुम्हारे हाथ से निकल कर बे-हाथ हो चुका हो।
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बे-हाल  : वि० [फा० बे+अ० हाल] [भाव० हाली] १. जिसका बेहाल अर्थात् दशा बहुत बिगड़ गई हो। मरणासन्न। २. दुर्दशाग्रस्त। ३. अचेत। संज्ञाहीन। ४. व्याकुल। विकल।
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बे-हाली  : स्त्री [फा०] १. बेहाल होने की अवस्था या भाव। २. बेचैनी। व्याकुलता।
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बे-हिसाब  : अव्य० [फा० बे+अ० हिसाब] बहुत अधिक। बहुत ज्यादा। वि० असंख्य।
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बे-हुनर  : वि० [फा०] १. जिसे कोई हुनर न आता हो। २. जो कुछ भी काम न कर सकता हो। मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-हुनरी  : स्त्री० [फा०] किसी प्रकार का हुनर या गुण न होने की अवस्था या भाव।
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बे-हुरमत  : वि० [फा०] [भाव० बेहुरमती] जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो। बेइज्जत।
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बे-हूदगी  : स्त्री० [फा०] १. बेहूदा होने की अवस्था या भाव। असभ्यता। अशिष्टता। २. बेहूदेपन से भरा हुआ काम या बात।
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बे-हून  : अ० य० [सं० विहीन] बिना। बगैर। रहित।
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बे-हैफ  : वि० [फा० बेहैफ] बेफिक्र। जिससे कोई चिंता न हो। चिंतारहित।
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बे-होश  : वि० [फा०] [भाव० बेहोशी] जिसे होश न रह गया हो। मूर्च्छित। बेसुध। अचेत।
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बे-होशी  : स्त्री० [फा०] बेहोश होने की अवस्था या भाव। मूर्च्छा। अचेतनता।
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बेअकल  : वि० [फा० बे+अ० अक्ल] [भाव० बेअकली] जिसे अकल न हो। निर्बुद्धि।
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बेअकली  : स्त्री० [फा० बे+अ० अक्ल] नासमझी। मूर्खता। बेवकूफी।
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बेअंत  : वि० [हिं० बे=सं० अंत] जिसका कोई अंत न हो। अनंत। समीप। बेहद। पद—बेअंत माया=अत्यधिक मात्रा में होनेवाली कोई चीज। (व्यंग्य)
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बेअदब  : वि० [फा० बे+अ० अदब] [भाव० बेअदबी] १. जो बड़ों का अदब या आदर न करता हो। २. जो मर्यादा का ध्यान न रखकर अशिष्ट आचरण करता हो। अशिष्ठ। उद्दंड। धृष्ट।
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बेआब  : वि० [फा० बे+अ० आब] [भाव० बेआबी] १. जिसमें आब (चमक) न हो। २. जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो।
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बेआबरू  : वि० [फा०] [भाव० बे-आबरुई] जिसकी कोई आबरू या प्रतिष्ठा न हो। फलतः अपमानित और तिरस्कृत।
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बेआबी  : स्त्री० [फा० बे+अ० आब] १. बेआब होने की अवस्था या भाव। मलिनता। निस्तेजता। २. अप्रतिष्ठा।
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बेआरा  : पुं० [देश०] एक में मिला हुआ जौ और चना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेइज्जत  : वि० [फा० बे+अ० इज़्ज़त] १. जिसकी कोई इज्जत या प्रतिष्ठा न हो। अप्रतिष्ठित। २. जिसका अपमान किया गया हो अपमानित।
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बेइज़्ज़ती  : स्त्री० [फा०+अ०] १. अप्रतिष्ठा। २. अपमान।
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बेइंतिहा  : वि० [अ०+फा०] अपार। असीम। बेहद।
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बेइलि  : पुं० दे० ‘बेला’। स्त्री०=(वल्ली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेइल्म  : वि० [फा० बे+इल्म] [भाव० बेइल्मी] बे पढ़ा-लिखा। अपढ़।
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बेइंसाफ  : वि० [फा०] [भाव० बेइंसाफी] अन्यायी।
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बेईमान  : वि० [फा० बे०+अ० ईमान] [भाव० बेईमानी] १. जिसका ईमान ठीक न हो। जिसे धर्म का विचार न हो। अधर्मी। २. अविश्वसनीय।
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बेईमानी  : स्त्री० [फा० बे+अ० ईमान] १. बेईमान होने की अवस्था या भाव। २. बुरी नियत से किया जानेवाला कोई कार्य।
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बेउ  : वि० [सं० द्वि+अपि] दोनों। उदाहरण-बाहाँ तिकरि पसारी बेउ। -प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेउँगा  : पुं० [देश०] बाँस का वह चोंगा जिसे कंबल की पट्टियाँ बुनते समय ताने की साथी अलग करने के लिए रखते है।
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बेउज्र  : वि० [फा० बे+उज्ज्] जो उडज्ज या आपत्ति न करता हो।
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बेउसूल  : कि० वि० [फा०+अ०] बिना किसी सिद्धांत के। वि० जिसका कोई उसूल या सिद्धांत न हो। सिद्धांतहीन।
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बेएतबार  : पु० [फा०+अ०] [भाव० बे०-एतवारी] अविश्वास। वि० १. जिस पर विश्वास न किया जा सके। २. जो विश्वास न करता हो।
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बेएब  : वि० [फा०+अ०] निर्दोष।
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बेओनी  : स्त्री० [देश०] जुलाहों का कंघी की तरह का एक औजार जिसे वे ताने के सूतों के बीच में रखते हैं।
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बेऔलाद  : वि० [फा०+अ०] निःसंतान।
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बेकति  : पुं०=व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेकदर  : वि० [फा० बे+अ० क़द्र] [भाव० बेकदरी] १. जिसकी कछल भी कदर न हो। २. जो किसी की कदर न करता हो।
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बेकदरा  : वि०=बेकदर।
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बेकदरी  : स्त्री० [फा०] १. बेकदर होने की अवस्था या भाव। २. अनादर।
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बेकरा  : पुं० [देश०] पशुओं का खुरपका नामक रोग। खुरहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेकरार  : वि० [फा० बे+अ० क़रार] [भाव० बेकरारी] १. बेचैन। विकल। २. परम उत्सुकता।
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बेकरारी  : स्त्री० [फा० बेक़रारी] १. बेकरार होने की अवस्था या भाव। बेचैनी। व्याकुलता। २. परम उत्सुकता।
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बेकल  : वि० [सं० विकल] व्याकुल। विकल। बेचैन।
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बेकली  : स्त्री० [हिं० बेकल+ई (प्रत्य० )] १. बेकल होने की अवस्था या भाव। बेचैनी। व्याकुलता। २. स्त्रियों का एक रोग जिसमें उनकी धरन या गर्भाशय अपने स्थान से कुछ हट जाता है और जिसमें रोगी को बहुत अधिक पीड़ा होती है। उदा०—मीर गुल से अब रहने में हुई वह बेकली। टल गई का नाफदानी, पेडू पत्थर हो गया।—जान साहब।
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बेकस  : वि० [फा०] [भाव० बेकसी] १. निःसहाय। निराश्रय। २. दीन-हीन। २. कष्टग्रस्त।
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बेकसूर  : वि० [फा० बे+अ० कुसूर] [भाव० बेकसूरी] जिसका कोई कसूर न हो। निरपराध।
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बेकहा  : वि० [फा० बे+हिं० कहना] [स्त्री० बेकही] जो किसी का कहना न मानता हो। किसी के कहने के अनुसार न चलनेवाला।
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बेकानूनी  : वि० [फा० बे०+कानून] अवैध।
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बेकाबू  : वि० [फा० बे+अ० काबू] १. जो काबू में किया या वश में लाया न जा सके। २. जिस पर किसी का काबू या वश न हो। अनियंत्रित। ३. निरंकुश।
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बेकाम  : वि० [फा० बे०+हिं० कम] १. जिसे कोई काम न हो। निकम्मा। निठल्ला। २. जिसमें कोई काम न निकल सके। रद्दी। कि० वि० निरर्थक। व्यर्थ।
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बेकायदा  : वि० [फा० बे+अ० क़ायदा] जो कायदे अर्थात् नियम या विधान के विरुद्ध हो। अनियमित।
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बेकार  : वि० [फा०] [भाव० बेकारी] १. जो काम में न लगा हुआ हो। २. जो काम न कर सकता या किसी काम में न आ सकता हो। निरर्थक। निकम्मा। कि० वि० व्यर्थ। बे-फायदा।
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बेकारा  : पुं० [सं० बेकुरा=शब्द] किसी को जोर से बुलाने का शब्द। जैसे—अरे, हो आदि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेकारी  : स्त्री० [फा०] बेकार होने की अवस्था या भाव। ऐसी स्थिति जिसमें आदमी या कुछ लोगों के हाथ में कोई काम, धन्धा या रोजगार न हो और इसीलिए जिसकी आय या जीविका-निर्वाह का को आई साधन न हो। (अन्-एम्प्लॉयमेन्ट)
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बेंकूप  : वि०=बेवकूफ। उदा०—सबै स्वान बेकूप।—भगवान रसिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेख  : स्त्री० [फा०] जड़। मूल। पुं० १.=बेष। २.=स्वाँग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेखटक  : वि० [हिं० बे+हि० खटका] बिना किसी प्रकार के खटके के। बिना किसी प्रकार की रुकावट या असमंजस के। निस्संकोच। अव्य०=बेखटके।
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बेखटके  : अव्य० [हिं० बेखटत] बिना आशंका या खटके के। फलतः निर्भय होकर।
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बेखबर  : वि० [फा० बे+खबर] [भाव० बेखबरी] १. जिसको किसी बात की खबर न हो। अनजान। नावाफिक। २. जिसे कुछ भी खबर न हो। बेसुध। बेहोश। जैस—सब लोग बेखबर सोये थे।
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बेखबरी  : स्त्री० [फा० बें०+अ० खबरी] १. बेखबर होगे की अवस्था या भाव। अज्ञानता। २. बेहोशी।
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बेखुद  : वि० [फा० बेखुद] [भाव० बेखुदी] जो आपे में न हो। अपनी सुध-बुध भूला हुआ।
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बेखुदी  : स्त्री० [फा०] बेखुद होने की अवस्था या भाव। आपे में न होना।
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बेखुर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसका शिकार किया जाता है।
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बेखौफ  : वि० [फा० बे+अ० खौफ़] जिसे खौफ या भय न हो। निर्भय।
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बेंग  : पुं० [सं० व्यंग] मेढ़क।
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बेग  : पुं० [अ० बैग] कपड़े, चमड़े, प्लस्टिक आदि लचीले पदार्थों का कोई ऐसा थैला जिसमें चीजें रखी जाती हों और जिसका मुँह ऊपर से बंद किया जा सकता हो। थैला। पुं० [तृ०] [स्त्री० बेगम] १. अमीर। धनवान्। २. नेता। सरदार। ३. मुगलों का अल्ल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं०=वेग। कि० वि० वेगपूर्वक। जल्दी से। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगड़ी  : पुं० [देश०] १. हीरा काटनेवाला कारीगर। हीरा तराश। २. जौहरी। ३. नगीने बनानेवाला कारीगर। हक्काक।
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बेगती  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
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बेंगनकुटी  : स्त्री० [देश०] अबाली। (दे०)
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बेगना  : अ० [हिं० वेग] १. वेगपूर्वक कोई काम करना। २. जल्दी करना या मचाना।
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बेगना  : पुं० बैगनी (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगम  : स्त्री० [तु० बेग का स्त्री०] [बहु० बेगमात] १. भले घर की स्त्री। महिला। २. किसी बड़े नवाब, बादशाह या सरदार की पत्नी। ३. ताश का वह पत्ता जिस पर रानी या स्त्री का चित्र बना रहता है।
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बेगम-फूली  : पुं० [तु० बेगम हिं० फूल+ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का बढ़िया आम।
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बेगम-बेलिया  : पुं० [अ० ब्रिगनोलिया] एक प्रकार की लता जिसमें कई रंगों के फूल लगते हैं।
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बेगमा  : स्त्री० ‘हिं० ‘बेगम’ का सम्बोधन कारक में रूप।
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बेगमी  : वि० [तु० बेगम+ई (प्रत्य०)] १. बेगम-संबंधी। बेगम का। २० बेगमों के लिए उपयुक्त अर्थात् उत्तम। बहुत बढ़िया। वि० [फा० बे+अ० गमी] निश्चितता। बेफिकी। पुं० १. एक प्रकार का बढ़िया कपूरी पान। २. एक प्रकार का बढ़िया चावल। ३. एक प्रकार का पनीर जिसमें नमक कम होता है।
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बेगर  : अव्य०=बगैर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगरज  : वि० [फा० बे+अ० ग़रज] [भाव० बेगरजी] जिसे कोई गरज या परवा न हो। कि० वि० बिना किसी गरज। प्रयोजन या मतलब के। निःस्वार्थ रूप से।
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बेगरजी  : स्त्री० [फा० बे+अ० ग़रज+ई (प्रत्य)] बेरगज होने की अवस्था या भाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)वि०=बेगरज। जैसे—बेगरजी नौकर, बेगरजी सैंया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगरा  : वि० [?] १. अलग। २. दूर का। अव्य० दूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगल  : अव्य०=बैगर।
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बेगला  : वि०, अव्य०=बेगरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगवती  : स्त्री, [सं० वेग+मतुप्, म=व, ङीष्] एक प्रकार का वर्णा-र्द्धवृत्त जिसके विषमपादों में ३ सगण, १ गुरु और समपादों में ३ भगड़ और २ गुरु होते हैं।
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बेगसर  : पुं० [सं० वेद√सृ (जाना)+अच्]। खच्चर। (डिं०)
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बेगा  : पु० [?] आत्मीय। ‘पराया’ का विपर्याय। उदा०—वेगा० कै मुदई मिलत।—घाघ।
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बेगानगी  : स्त्री० [फा०] १. बेगाना होने की अवस्था या परायापन। २. अपरिचय।
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बेगाना  : वि० [फा० बेगाना] १. जो अपना न हो। ग़ैर। पराया। २. जिससे आत्मीयता पूर्ण जान-पहचान, परिचय या सम्बन्ध न हो। ३. जो किसी काम या बात से अनजान या अपरिचित हो। ना-बाकिफ।
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बेगार  : स्त्री० [फा०] १. वह काम जो किसी से जबरदस्ती और बिना कुछ अथवा उचित पारिश्रमिक दिये कराया जाय। २. उक्त के आधार पर बिना किसी पारिश्रमिक या पुरस्कार की संभावना के चलता किया जानेवाला काम। मुहा०—बेगार टालना=बिना चित्त लगाये कोई काम यों ही चलता करना। पीछा छुड़ाने के लिए कोई काम जैसे—तैसे पूरा करना। ३. ऐसा व्यर्थ और झगड़े का काम जिसका कोई अच्छा फल न हो। उदा०—नाहि तो भव बेगारि महँ परिहौ छूटत अति कठिनाई रे।—तुलसी।
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बेगारी  : पुं० [फा०] १. वह मजदूर जिसमें बिना मजदूरी दिये जबरदस्ती का लिया जा। बेगार में काम करनेवाला आदमी। कि० प्र०—पकड़ना। २. मन लगाकर काम न करनेवाला। काम चलता करनेवाला। स्त्री०=बेगार।
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बेगि  : वि० [सं० वेग] १. जल्दी से। शीघ्रतापूर्वक। २. चटपट। तुरंत।
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बेगुन  : पुं०=बैंगन। वि०=विगुण (गुण रहित)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगुनाह  : वि० [फा०] [भाव० बेगुनाही] १. जिसने कोई गुनाह न किया हो। जिसने कोई पाप न किया हो। निष्पाप। २. जिसने कोई अपराध न किया। निरपराध।
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बेगुनी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की सुराही। वि०=विगुण (गुण रहित)।
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बेगैरत  : वि० [फा० बे०+अ० गैरत] [भाव० बेगैरती] निर्लज्ज।
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बेंच  : स्त्री० [अं०] १. पत्थर आदि का बना हुआ पाश्चात्य ढँग का एक आसन जो कुरसी से कई गुना लंबा होता है। तथा जिस पर कई आदमी एक साथ बैठ सकते हैं। २. राजकीय न्यायालयों मे न्यायाधीशों के बैठने का स्थान। ३. संसद भवन मे दल विशेष के सदस्यों का बैठने का स्थान।
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बेचक  : पुं० [हिं० बेचना] बेचनेवाला। बिक्री करनेवाला। विक्रेता।
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बेंचना  : स०=बेचना।
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बेचना  : संय [सं० विक्रय] १. अपनी कोई चीज या संपत्ति किसी से दाम लेकर उसे दे देना। संयो० कि०—डालना।—देना। मुहा०—बेच खाना= पूरी तरह से रहित, वंचित या हीन हो जाना। जैसे—तुमने तो लाज-शरम बेच खाई है। २. स्वार्थ-सिद्धि के उद्देश्य से अपने किसी गुण को खो या छोड़ बैठना। जैसे—ईमान या धर्म बेचना।
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बेचवाना  : स०=बिकवाना।
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बेचवाल  : पु० [हिं० बेचना+वाना (प्रत्य,)] माल या सौदा बेचनेवाला। ‘लिवाल’ का विपर्याय।
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बेचाना  : सं०=विकवाना।
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बेचारगी  : स्त्री० [फा०] बेचारा होने की अवस्था या भाव।
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बेचारा  : वि० [फा० बेचार] [भाव० बेचारगी] [स्त्री० बेचारी] १. जिसके लिए कोई चारा (उपाय या साधन) न रह गया हो। २. जो दीन और निःस्सहाय हो। जिसका कोई साथी या अलंवब न हो। गरीब। दीन।
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बेचिराग  : वि० [फा० बे+अ० चिराग़]१. (स्थान) जहाँ दीया तक न जलता हो; अर्थात् उजड़ा हुआ। २. निःसंतान। बे-औलाद।
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बेची  : स्त्री० [हिं, बेचना] १. बिक्री। विक्रय। २. बेचने के सम्बन्ध में लिखा हुआ लेख। जैसे—इस हुंडी पर बेची तो है ही नहीं।
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बेचु  : पुं० [हिं० बेचना] बेचने वाला। विक्रेता।
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बेचैन  : वि. [फा.] जिसे किसी प्रकार चैन न पड़ता हो। व्याकुल। विकल। बेकल।
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बेचैनी  : स्त्री० [फा०] बेचैन होने की अवस्था या भाव। विकलता। व्याकुलता। बेकली।
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बेजड़  : वि० [फा० बे+हिं० जड़] जिसकी कोई जड़ या बुनियाद न हो। जिसके मूल में कोई तत्त्व या सार न हो। जो यों ही मन में गढ़ या बना लिया गया हो। निर्मूल।
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बेजबान  : वि० [फा० बे+ज़बान] [भाव० बेजबानी] १. जो कुछ कहना न जानता हो। २. जो किसी बात की शिकायत न करके सब कुछ चुपचाप सह लेता हो। ३. जो दीनता या नम्रता के कारण किसी प्रकार का दुःख या विरोध न करे। दीन। गरीब।
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बेजबानी  : स्त्री० [फा०] १. बेजबान होने की अवस्था या भाव। २. चुप रहना। ३. शिकायत न करना।
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बेजर  : वि० [फा० बेज़र] [भाव० बेजरी] धनहीन। निर्धन।
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बेजा  : वि० [फा०] जो उचित या संगत न हो।
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बेजान  : वि० [फा०] १. जिसमें जान न हो। निर्जीव। २. मरा हुआ। मृत। ३. जिसमें कुछ भी दम या शक्ति न हो। बहुत ही अशक्त या दुर्बल।
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बेजाब्ता  : वि० [फ़ा० बे+ अ० ज़ाब्ता] [भाव० बेजाब्तगी] जो जाब्ते के अनुसार न हो। कानून या नियम आदि के विरुद्ध। अवैध।
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बेजार  : वि० [फ़ा० बेज़ार] [भाव० बेजारी] १. जो किसी बात से बहुत तंग आ गया हो। जिसका चित्त किसी बात से बहुत दुःखी हो चुका हो। जैसे—आप तो जिंदगी से बेज़ार हुए जाते हैं। २. बहुत ही अप्रसन्न, खिन्न या नारज। ३. विमुख। पराङमुख।
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बेजुर्म  : वि० [फा०+अ०] जिसने कोई जुर्म या अपराध न किया हो। निरपराध।
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बेजू  : पुं० [अं० बैजर] डेढ़ दो हाथ लंबा एक प्रकार का जंगली जानवर जो प्रायः सभी गरम देशों में पाया जाता है।
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बेजोड़  : वि० [फा० बे+हि० जोड़] १. जिसमें जोड़ न हो। जो एक ही टुकड़े का बना हो। अखंड। २. जिसके जोड़ या मुकाबले का और कोई न हो। अद्वितीय। अनुपम।
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बेझ  : पुं० दे० ‘बेझा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेझड़  : पुं० [हिं० मेझरना=मिलाना] एक में मिले हुए कई तरह के अन्न। जैसे—गेहँ, चने और जौ का बेझड़।
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बेझना  : स०=बेधना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेझरा  : पुं०=बेझड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेझा  : पुं० [सं० वेघ] निशाना। लक्ष्य।
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बेंट  : स्त्री० [सं० वंट] औजारों आदि में लगा हुआ काठ आदि का दस्ता मूठ। दस्ता। जैसे—छुरी की बेंट।
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बेट  : स्त्री०=बेंट।
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बेटकी  : स्त्री० [हिं० बेटा] १. बेटी। २. पुत्री। ३. कन्या। लड़की।
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बेटला  : पुं० [स्त्री० बेटली]=बेटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेटवा  : पुं०=बेटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेटा  : पुं० [सं० बटु=बालक] [स्त्री० बेटी] पुत्र। सुत। लड़का। पद—बेटेवाला=वर का पिता अथवा वरपक्षका और कोई बड़ा आदमी।
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बेटा-बेटी  : पुं० [हिं० बेटा] बाल-बच्चे। औलाद।
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बेटी  : स्त्री० [सं०] १. लड़की। पुत्री। पद—बेटी का बाप= (क) वैसा ही दीन और नम्र जैसा विवाह के समय वधु का पिता होता है। (ख) सब प्रकार से दीन-हीन और विवश। बेटीवाला=वधु का पिता अथवा बधू-पक्ष का और कोई बड़ा आदमी। मुहा०—बेटी देना—अपनी पुत्री का किसी के साथ विवाह करना। उदा०—जिससे बेटी दी उसने सब कुछ दिया। (कहा०)
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बेटौना  : पुं०=बेटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेट्टा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का भैंसा जो मैसूर देश में होता है। पुं०=बेटा (पुत्र) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंठ  : स्त्री०=बेंट।
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बेठ  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार की ऊसर जमीन जिसे बीहड़ भी कहते है। २. ऋण के रूप में लिया हुआ वह पेशगी धन जो मजदूर, कारीगर आदि धीरे-धीरे कुछ काम करके या सामान देकर चुकाते हैं। मुहा०—बेठ भरना=काम करके या सामान देकर उक्त प्रकार का ऋण चुकाना। उदा०—नित उठ कोरिया बेठ भरत है।...।—कबीर।
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बेठन  : पुं० [सं० वेष्ठन] वह वस्त्र जो किसी चीज को धूल, मिट्टी आदि से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उस पर लपेटा जाता है। पद—पोयी का बेठन=(क) जो कुछ भी पढ़ा-लिखा न हो। (ख) जो पढ़ा-लिखा होने पर भी किसी काम का न हो।
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बेठिकाने  : वि० [फा० बे+हि० ठिकाना] १. जो अपने स्थान पर न हो। स्थानच्युत। २. जिसका कोई ठौर-ठिकाना न हो। ३. जिसका कोई सिर-पैर न हो। ४. निरर्थक। व्यर्थ। अव्य० ठिकाने अर्थात् उपयुक्त या निश्चित स्थान पर न होकर किसी अन्य स्थान पर। अनुपयुक्त अवसर या स्थान पर।
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बेंड  : पुं० [देश०] १. वह भेड़ा जो भेड़ों के झुंड में बच्चे उत्पन्न करने के लिए छूटा रहता है। (गड़रिये) २. नगद रुपया। (दलाल) ३. किसी भारी चीज को गिरने से बचाने के लिए उसके नीचे लगाया जानेवाला सहारा। चाँड़। ४. पड़ाव। (क्व) स्त्री० [हिं० बेड़ा] टेक। चाँड़।
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बेड़  : पुं० [हिं० बाढ़] खेतों या वृक्षों के चारों ओर लगाई हुई बाढ़। मेंड़। पु० [हिं० बीड] नगद रुपया। सिक्का। (दलाल) पुं० [?] [स्त्री० बेड़नी, बेड़िन] नटों आदि के वर्ग की एक छोटी जाति जो गाने-बजाने का पेशा करती है।
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बेंड़ना  : स०=बेढ़ना (बाढ़ लगाना)।
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बेड़ना  : सं० [हिं० बेड़+ना (प्रत्य०)] नये वृक्षों आदि के चारों ओर उनकी रक्षा के लिए छोटी दीवार आदि खड़ी करना। थाला बाँधना। भेंड़ या बाढ़ लगाना। स० [सं० विडंवन ?] तोड़ना-फोड़ना नष्ट-भ्रष्ट करना। उदा० बिजड़ा मुट्ठे बेड़ते बलभद्र।—प्रिथीराज।
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बेड़नी  : स्त्री० [हिं० बेड़] बड़े जाति की स्त्री जो प्रायः देहातों में गाने-बजाने का पेशा करती है।
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बेंडा  : पुं०=बेंवड़ा। वि० [हिं० बेड़ा (आड़ा या तिरछा)] १. आड़ा। तिरछा। २. कठिन। पुं०=ब्योंड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेड़ा  : पुं० [सं० वेष्ट] १. बड़े लट्ठों, लकड़ियों या तख्तों आदि को एक में बाँधकर बनाया हुआ ढाँचा जिस पर बाँस का टट्रटर बिछा देते हैं और जिस पर बैठकर नदी आदि पार करते है। तिरना। मुहा०—बेड़ा डूबना=विपत्ति में पड़कर पूर्ण रूप से विनष्ट होना (किसी का) बेड़ा पार करना या लगाना=किसी को संकट से पार लगाना या छुड़ाना। विपत्ति के समय सहायता करके किसी का काम पूरा कर देना या रक्षा करना। २. बहुत सी नाबों या जहाजों आदि का समूह। जैसे—उन दिनों भारतीय महासागर में अमरीकी बेड़ा आया हआ था। ३. नाव। (ड़ि०) ४. झुंड। समूह। (पूरब) मुहा०—बेड़ा बाँधना=बहुत से आदमियों को इकट्ठा करना। लोगों को एकत्र करना। वि० [हिं० आड़ा का अनु० या सं० बलि=टेढ़ा] १. जो आँखों के समानांतर दाहिनी ओर से बाई ओर अथवा बाईं ओर से दाहिनी ओर गया हो। आड़ा। २. कठिन। मुश्किल। विकट। जैसे—बेड़ा काम।
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बेड़िचा  : पुं० [देश०] बाँस की कमाचियों की बनी हुई एक प्रकार की टोकरी जो थाल के आकार की होती है और जिससे किसान लोग के खेत सींचने के लिए तालाब से पानी निकालते हैं।
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बेड़िन  : स्त्री०=बड़नी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंड़ी  : स्त्री० [देश०] १. एक तरह की चौड़े मुँहवाली छिछली टोकरी जिससे गड्ढे आदि में भरा हुआ पानी खेतों में उलीचा जाता है। २. हँसिया के आकार का लोहे का एक औजार जिससे बरतनों पर जिला करते है।
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बेड़ी  : स्त्री० [सं० वलय] लोहे के कड़ों की जोड़ी या जंजीर जो कैदियों या पशुओं आदि को इसलिए पहनाई जाती है जिसमें वे स्वतंतापूर्वक घूम-फिर न सकें। निगड़। कि० प्र०—डालना।—देना।—पड़ना।—पहनना।—पहचाना। २. बाँस की टोकरी जिसके दोनों ओर रस्सी बँधी रहती है और जिसकी सहायता से नीचे से पानी उठाकर खेतों में डाला जाता है। ३. साँप काटने का एक इलाज जिसमें काटे हुए स्थान को गरम लोहे से दाग देते हैं। स्त्री० [हिं, बेड़ा का स्त्री० अल्पा०] १. नदी पार करने का अट्टर आदि का बना हुआ बेड़ा। २. नाव। (पश्चिम)
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बेडौल  : वि० [हिं० बे+डौल=रूप] १. जिसका डौल या रूप अच्छा न हो। भद्दा। २. जो अपने स्थान पर उपयुक्त न जान पड़े। बेढ़ंगा।
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बेढ़  : पुं० [?] जहाज के खंभे के ऊपरी सिरे पर लगा रहनेवाला घातु का पत्तर जो हवा का रुख बतलाता है। (लश)
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बेढ़  : पुं० [?] १. नाश। बरबादी। २० बोया हुआ वह बीज जिसमें अंकुर निकल आया हो। स्त्री० वृक्षों आदि के चारों ओर लगा हुआ घेरा। बाढ़।
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बेढ़आ  : पुं० [देश०] गोल मेथी।
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बेढ़ई  : स्त्री० [हिं० बेड़ना] वह रोटी या पूरी जिसमें दाल, पीठी आदि कोई चीज भरी हो। कचौड़ी।
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बेढ़ंग  : वि०=बेढ़ंगा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंढ़गा  : वि० [हिं० वे+हि० ढंग+ आ (प्रत्य० )] १. जिसका ढंग ठीक न हो। बुरे ढंगवाला। २. जो ठीक कम या प्रकार से लगाया, रखा या सजाया न गया हो। बेतरतीब। ३. कुरूप। भद्दा। भोंडा।
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बेढ़ंगापन  : पुं० [हिं० बेढंगा+पन (प्रत्य०)] बेढ़ंगे होने की अवस्था या भाव।
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बेढ़न  : पुं० [हि० बेड़ना] वह जिससे कोई चीज़ घेरी हुई हो। बेठन। घेरा।
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बेढ़ना  : सं० [सं० वेष्टन] १. वृक्षों या खेतों आदि को, उनकी रक्षा के लिए चारों ओर टट्टी बाँधकर, काँटे बिछाकर या और किसी प्रकार घेरना। रूँधना। २. चौपायों को घेरकर हाँक ले जाना।
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बेढ़नी  : स्त्री०=बेड़नी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेढ़व  : वि० [हिं० बे+ढव] १. जिसका ढब या ढंग अच्छा या ठीक न हो। २. भद्दा। भोंडा। कि० वि० १. बुरी तरह से। अनुचित या अनुपयुक्त रूप से। २. अनावश्यक या असाधारण रूप से।
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बेढ़ा  : पुं० [हिं० बेढ़ना=घेरना] १. हाथ में पहनने का एक प्रकार का कड़ा २. घर के आसपास वह छोटा सा घेरा हुआ स्थान जिसमें तरकारियाँ आदि बोई जाती हों।
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बेढ़ाआ  : स० [हिं० बेढ़ना का प्रे०] १. घेरने का काम दूसरे से कराना। घिरवाना। २. ओढ़ना या ढाँकना।
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बेणीफूल  : पुं० दे० ‘सीसफूल’।
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बेंत  : पुं० [सं० बेतस्] १. खजूर, ताड़ आदि की जाति की एक प्रसिद्धलता जो पूर्वी एशिया और उसके आस-पास के टापुओं में जलाशयों के पास अधिकता से होती है। इसकी छड़िया बनती है और इसके छिलकों आदि से कुर्सियाँ, टोकरियाँ आदि बुनी जाती हैं। २. उक्त के डंठल की बनी हुई छड़ियाँ बनती हैं और इसके छिलकों आदि के कुर्सियाँ, टोकरियाँ आदि बुनी जाती है। २. उक्त के डंढल की बनी हुई छड़ी या डंडा। मुहा०—बेंत की तरह काँपना= थरथर काँपना। बहुत अधिक डरना। जैसे—यह लड़का आपको देखते ही बेंत की तरह काँपता है।
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बेत  : पुं०=बेंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेतकल्लुफ  : वि० [फा० बे+अ० तकल्लुफ़] [भाव० बेतकल्लुफी] जो तकल्लुफ अर्थात् दिखावटी ऊपरी शिष्टाचार का विशेष ध्यान न रखता हो। सीधा सादा और सच्चा व्यवहार करनेवाला, और मन की बात स्पष्ट में कहनेवाला। कि० वि० १. बिना किसी प्रकार के तकल्लुफ़ या दिखावटी शिष्टाचार के। २. निःसंकोच। बेधड़क।
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बेतना  : अ० [?] जान पड़ना।
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बेतला  : वि० [?] [स्त्री बेतली] अभागा।
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बेतवा  : स्त्री० [सं० वेत्रवती] बुंदेलखंड की एक नदी।
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बेताल  : पुं० [सं० वैतालिक] भाट। बंदी। पुं०=वैताल।
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बेतुका छंद  : पुं० [हिं० बेतुका+सं० छंद] ऐसा छंद जिसके तुकांत आपस में न मिलते हों। अमिताक्षर छंद।
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बेतौर  : कि० वि० [फा० बे+अ० तौर] बुरी तरह से। बेढ़ंगेपन से। बेतरह। वि० जिसका तौर-तरीका या रंग-ढंग ठीक न हो।
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बेद  : पुं० १.=वेद। २. बेंत। ३.=मुश्क बेद।
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बेद-मजनूँ  : पुं० [फा०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी शाखाएँ बहुत झुकी हुई रहती हैं और जो इसी कारण बहुत मुरझाया और ठिठुरा हुआ जान पड़ता है।
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बेद-माल  : पुं० [देश०] लकड़ी की वह तख्ती जिस पर रंगड़कर सिकलीगर औज़ार चमकाते हैं।
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बेद-मुश्क  : पुं० [फा०] एक प्रकार का वृक्ष जो पश्चिम भारत और विशेषतः पंजाब में अधिकता से होता है।
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बेद-लैला  : पुं० [फा०] एक प्रकार का पौधा जिसमें सुन्दर फूल लगते हैं।
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बेदक  : पुं० [सं० वैदिक] हिंदू। (डिं०)
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बेदन  : पुं० [सं० वेदन] १. पशुओं का एक प्रकार का संक्रामक भीषण ज्वर जिसमें रोगी पशु काँपने लगता है। और उसे पाखाने के साथ आँव निकलती है। २. दे० ‘वेदन’।
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बेदना  : स्त्री०=वेदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेदरी  : वि०=बीदरी।
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बेंदली  : स्त्री०=बिंदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेदवा  : पुं० [सं० वेद] वेदों का ज्ञाता और अनुयायी। (उपेक्षासूचक)
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बेदा  : पुं० [सं० बिदु] १. माथे पर लगाया जानेवाला चंदन आदि का गोल टीका। २. माथे पर पहनने का बंदी या बेंदी नाम का गहना।
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बेदाग  : वि० [फा० बेदाग़] १. जिसमें या जिसपर कोई दाग या धब्बा न हो। साफ। २. (व्यक्ति, उसका चरित्र या स्वभाव) जिसमें कोई ऐब या दोष न हो। बे-ऐब। निर्दोष। ३. निरपराध। बेकसूर। कि० वि० बिना किसी प्रकार की त्रुटि या दोष के। जैसे—वेदाग निशाना लगाना।
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बेदाना  : पुं० [हिं० विहीदाना या फा० बे+ दाना] १. पतले छिलकेवाला एक प्रकार का बढ़िया अनार जिसके दानों में मिठास अधिक होती है। २. बिहीदाना नामक फल। २. उक्त फल के बीज जो रेचक और ठंढ़े होते हैं। ४. दारु-हल्दी। ५. एक प्रकार का छोटा शहतूत। ६. बहुत छोटे दानोंवाली बुँदिया नामक मिठाई। वि०=नादान (नासमझ)। वि० [फा० बेदानः] (फल) जिसमें बीच न हों। जैसे—बेदाना अमरूद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेदारी  : स्त्री० [फा०] जाग्रत और सचेत होने की अवस्था या भाव। जाग्रति।
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बेदिल  : वि० [फा०] [भाव० बेदिली] उदास। खिन्न।
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बेंदी  : स्त्री० [सं० बिंदु० हि० विदी] १. टिकली। बिंदी। २. बिदी। सिफर। सुन्ना। ३. माथे पर पहनने का बेंदी नाम का गहना। ४. सरों के पेड़ की तरह का अंकन या चित्रण।
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बेदी  : स्त्री०=वेदी। पुं० [सं० वेद] वेदों पर श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेध  : पुं० [सं० वेध] १. छेद। २. मोती, मूँगे आदि में किया हुआ छेद। ३. दे० ‘वेध’।
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बेधना  : सं० [सं० बेचन] १. किसी नुकीली चीज की सहायता से छेद करना। भेदना। जैसे—मोती बेधना। २. शरीर पर किसी प्रकार का क्षत या घाव करना।
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बेधिया  : पुं० [सं० वेध] अंकुश। वि० बेधने या छेदनेवाला।
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बेधी  : वि०=वेधी। स्त्री०=वेदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेधीर  : वि०=अधीर।
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बेन  : पुं० [सं० वेणु] १. वंशी। मुरली। बाँसुरी।बाँस। ३. सँपेरों के बजाने की बीन। महुअर। ४. एक प्रकार का वृक्ष। ५. दे० ‘वेणु’। पुं० [अ० वेन] एक प्रकार की झंडी जो जहाज के मस्तूल पर लगा दी जाती है और जिसके फहराने से यह पता चलता है कि हवा का रुख किधर है। (लश०) पुं० [अं० विंड] वायु। हवा लाश०)
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बेनउर  : पुं०=बिनौला।
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बेनंग  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पहाड़ी बाँस जो प्रायः लता के समान होता है।
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बेनट  : स्त्री० [अं० बायोनेट] लोहे की वह छोटी किरच जो सैनिकों की बंदूक के अगले सिरे पर लगी रहती है। संगीन।
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बेनवर  : पुं०=बिनौला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेनसगाई  : स्त्री० [हिं० बैन+सगाई] रचना में होने वाला अनुप्राय। वर्णमैत्री। (राज०)
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बेना  : पुं० [सं० वीरण] खस। पुं० [सं० वेणु] १. बाँस। २. बाँस का बना हुआ पंखा। पुं० [सं० वेणी] एक गहना जो माथे पर बेंदी के बीच मे पहना जाता है। पद–बेना-बंदी=बेना और बेंदी नाम के गहने जो प्रायः एक साथ पहने जाते हैं।
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बेनागा  : क्रि० वि० [फा० बे+अ० नाग़ा] बिना नागा किये। निरंतर। लगातार। नित्य।
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बेनी  : स्त्री० [स० वेणी] १. स्त्रियों की चोटी। २. किवाड़ के एक पल्ले में लगी हुई हुई एक छोटी लकड़ी जो दूसरे पल्ले को खुलने से रोकती है। ३. एक प्रकार का धान जो भादों के अंत या कुआर के आरंभ में तैयार होता है। ४. दे० ‘त्रिवेणी’।
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बेनी-पान  : पुं०=बेंदी (गहना)।
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बेनुली  : स्त्री० [हिं० बिदली] जाँते या चक्की में वह छोटी सी लकड़ी जिसके दोनों सिरों पर जोती रहती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेनू  : स्त्री० १.=बेन। २. वेणु।
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बेनौटी  : वि० [हिं० बिनौला] कपास के फूल की तरह हलके पीले रंग का कपासी। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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बेनौरा  : पुं०=बिनौला।
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बेनौरी  : स्त्री० [हिं० बिनौला] ओला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपरद  : वि० [फा० बेपर्द
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बेपर्द  : वि०=बेपरद।
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बेपार  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जो हिमालय की तराई में ६००० से ११००० फुट की ऊँचाई तक अधिकता से पाया जाता है। फेल। पुं०=व्यापार। वि०=अपार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपारी  : पुं०=व्यापारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपीर  : वि० [फा० बे+ हिं० पीर=पीड़ा] १. जिसके हृदय में किसी के दुःख के लिए सहानुभूति न हो। दूसरों के कष्ट को कुछ न समझनेवाला। २. निर्दय। बेरहम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपेंदा  : वि० [हिं० बे+पेंदा] [स्त्री० बेपेंदी] जिसमें पेंदा न हो और इसी कारण जो इधर-उधर लुढ़कता हो। पद—बेपेंदी का लोटा=व्यक्ति जो अपने किसी निश्चय पर स्थिर न रहता हो। बल्कि दूसरों की बातें सुन-सुनकर अपना निश्चय बारबार बदलता रहता हो।
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बेबस  : वि० [सं० विवश] [भाव० बेबसी] १. जिसका कुछ वश न चले। लाचार। २. पर-वश। पराधीन।
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बेबाकी  : स्त्री० [फा० बेवाकी] ऋण का चुकता होना। पूर्ण परिशोध। बे-बुनियाद
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बेम  : स्त्री० [देश०] जुलाहों की कंघी। बय। बैसर।
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बेमजगी  : स्त्री० [फा० बेमज़गी] बेमजा होने की अवस्था या भाव।
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बेमजा  : वि० [फा० बेमज़
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बेमारी  : स्त्री०=बीमारी।
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बेमालूम  : क्रि० वि० [फा०] ऐसे ढंग से जिसमें किसी को मालूम न हो। बिना किसी को पता लगे। वि० जो ऊपर से देखने पर मालूम न पड़ता हो।
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बेमुख  : वि०=विमुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेयरा  : पुं०=बेरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेर  : पुं० [सं० बदरी] १. एक प्रसिद्ध पेड़ जिसके कांड रेखा युक्त और विदीर्ण होते हैं, पत्र गोल, काँटेदार तथा वक्र, फल हरे तथा पकने पर पीले होते हैं। २. उक्त के फल जिनमें लम्बोतरी या गोल गुठली भी होती है। स्त्री० [सं० बेला, हि० वार] १. बार। दफा। २. देर। विलंब। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेर-जरी  : स्त्री० [हिं० बेर+झड़ी ?] झड़बेरी। जंगली बेर।
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बेर-हड्डी  : स्त्री० [बेर ?+ हि० हड्डी] घुटने के नीचे की हड्डी में का उभार।
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बेरंग  : वि० [फा०] निर्लज्ज। वि० [अ० बियरिंग] (डाक द्वारा भेजा हुआ वह पत्र) जिस पर टिकट लगा ही न हो अथवा कम मूल्य का लगा हुआ हो।
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बेरजा  : पुं०=बिरोजा।
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बेरवा  : पुं० [देश०] कलाई पर पहनने का एक प्रकार का कड़ा। पुं०=ब्योरा (विवरण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरस  : वि० [फा० बे+हिं० रस] १. जिसमें रस का अभाव हो। नीरस। रस-हीन। फीका २. जिसमें कुछ स्वाद न हो। ३. जिसमें कोई आनन्द या मजा न हो।
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बेरहमी  : स्त्री० [फा़] बेरहम होने की अवस्था या भाव। निर्दयता। निष्ठुरता।
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बेरा  : पुं० [सं० वेला] १. समय। वक्त। बेला। २. प्रभाव का समय तड़का। पुं० [हिं० मेझरा ?] एक में मिला हुआ जौ और चना। बेरी। पुं०=बेड़ा। पुं० [अ० बेअरर= वाहक] चपरासी, विशेषत
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बेरादरी  : स्त्री०=बिरादरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेराम  : वि० [हिं० बे+आराम] बीमार। रोगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरामी  : स्त्री० [हिं० वे+आरामी] बीमारी। रोग।
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बेरास  : पुं०=विलास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरिआ  : स्त्री० [सं० वेला=समय] बेला। समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरियाँ  : स्त्री० [हिं० वेर] समय। वक्त। काल। बेला।
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बेरी  : स्त्री० [हिं० वेर (फल) १. हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की लता। इसे ‘भुरकूल’ भी कहते हैं। २. बेर का छोटा वृक्ष। स्त्री० [?] एक में मिली हुई तीसी और सरसो। स्त्री० [हिं० बार=दफा] १. उतना अनाज जितना एक बार चक्की में पीसने के लिए डाला जाता है। २. बेर। दफा। स्त्री० १.=बेड़ी (पैरों की)। २. बेड़ी (नाव)। उदा०—नाव फाटी प्रभु पाल बाँधों बूड़त है बेरी।—मीराँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरी-छत  : पुं० [देश०] एक पद जो महावत लोग हाथी को किसी काम से मना करने के लिए कहते है।
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बेरी-बेरी  : पुं० [सिंह, बेरी=दुर्बलता] एक प्रकार का भीषण संक्रामक ज्वर। विशेष दे० ‘वातवलासक’।
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बेरुआ  : पुं० [देश०] बाँस का वह टुकड़ा जो नाव खींचने की गुन में आगे की ओर बँधा रहता है और जिसे कंधे पर रखकर मुल्लाह नाव खींचते हुए चलते हैं।
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बेरुई  : स्त्री० [हिं० बेड़िन] वेश्या। रंडी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरुकी  : स्त्री० [देश०] बैलों का एक रोग जिसमें उनकी जीभ पर काले छाले हो जाते हैं।
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बेरुख  : वि० [फा० बेरुख] [भाव० बेरुखी] १. जो समय पड़ने पर (मुँह) फेर ले। बेमुरव्वत। २. अप्रसन्न। नाराज। कि० प्र०—पड़ना। होना।
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बेंरुखी  : स्त्री० [फा० बेरुखी] १. बेरुख होने की अवस्था या भाव। २. अपेक्षा। क्रि० प्र०—दिखलाना।
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बेरोक  : वि० [फा० बे+हि० रोक] जिस पर रोक न लगी हुई हो। अव्य० बिना रोक के। स्वच्छंद रूप में।
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बेर्रा  : पुं० [देश०] १. मिले हुए जौ और चले का आटा। २. कोई का फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेर्रा-बरार  : पुं० [हिं० बेर्रा=जौ और चना+फा० बरार=लादा हुआ] अन्न की उगाही।
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बेल  : पुं० [सं० बिल्व] १. एक प्रसिद्ध बहुत बड़ा पेड़ जिसकी त्वचा श्वेत वर्ण की होती तथा जिसके तने में नहीं, बल्कि शाखाओं में बँटे होते है। यह बहुत पवित्र माना जाता है और इसकी पत्तियाँ शिवजी पर चढ़ाई जाती है २. उक्त वृक्ष का गोलाकार फल जिसका गुदा पेट के रोग के लिए बहुत गुणकारी होता है। स्त्री० [सं० वल्ली] वनस्पति का वह प्रकार या वर्ग जिसमें अधिक मोटा कांड या तना नहीं होता और जो जमीन पर चारों ओर दूर तक फैलती या बाँसों, वक्षों आदि के सहारे ऊपर की ओर बढ़ती है। लहर लता। मुहा०—बेल मँढ़ें चढ़ना=किसी कार्य का अन्त तक ठीक-ठीक या पूरा उतरना। आरंभ किये हुए कार्य में पूरी सफलता होना। २. उक्त के आकार-प्रकार का अंकन या चित्रकारी। जैसे—बेल-दार किनारे की साड़ी। पद—बेल-बूटे। ३. रेशमी या मखमली फीते आदि पर जर-दोजी आदि से बनी हुई इसी प्रकार की फूल-पत्तियाँ जो प्रायः पहनने के कपड़ों पर टाँकी जाती है। जैसे—इस दुपट्टे पर बेल टँक जाय तो और भी अच्छा हो। क्रि० प्र०—टाँकना।—लगाना। ४. लाक्षणिक रूप में, वंश या सन्तान की परम्परा। मुहा०—बेल बढ़ना=वंश-वृद्धि होना। पुत्र-पौत्र आदि होना। ५. विवाह आदि। कुछ विशिष्ट अवसरों पर संबंधियों और बिरादरी वालों की ओर से हज्जामों, गानेवालियों और इसी प्रकार के नेगियों को मिलनेवाला थोड़ा-थोड़ा धन, जिसे पाकर वे वंश-बृद्धि का आशीर्वाद देते या शुभ कामना प्रकट करते हैं। क्रि० प्र०—देना।—पड़ना। ६. नाव खेने का डाँड़ा। बल्ली। ७. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनके पैर सूज जाते हैं। स्त्री० [सं० वेला] १. तरंग। लहर। २. जलाशय का किनारा। तट। उदा०—गहि सु-बेल बिरलई समुझि बहिगे अपर हजार।—तुलसी। पुं० [फा० बेलच
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बेल-खजी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके हीर की लकड़ी लाल होती है।
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बेल-गगरा  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
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बेल-गिरी  : स्त्री० [हिं० बेल+गिरी=भींगी] बेल के फल का गूदा।
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बेल-हाजी  : स्त्री० [हिं, बेल+ हाजी ?] धोती आदि के किनारों पर लहरियेदार बेल छापने का लकड़ी का ठप्पा। (छीपी)
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बेल-हाशिया  : पुं० [हिं० बेल+फा० हाशिया] धोती आदि के किनारों पर बेल छापने का ठप्पा।
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बेलक  : पुं० [फा० बेल्च
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बेलकी  : पुं० [हिं० बेल] चरवाहा।
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बेलचक  : पुं०=बेलचा।
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बेलचा  : पुं० [फा० बेल्चः] १. एक प्रकार की छोटी कुदाल जिससे माली लोग बाग की क्यारिया आदि बनाते हैं। २. किसी प्रकार की छोटी कुदाली। ३. एक प्रकार की लंबी खुरपी।
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बेलड़ी  : स्त्री० [हिं० बेल+ ड़ी (प्रत्य०) छोटी बेल या लता। बौंर।
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बेलंद  : वि० [फा० बलंद] १. ऊँचा। २. जो बुरी तरह परास्त या विफल हुआ हो। (व्यंग्य) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलदार  : पुं० [फा०] वह मज़दूर जो फावड़ा चलाने, ज़मीन खोदने आदि का काम करता हो। वि० [हिं० बेल+फा० दार] जिसमें बेल-बूटे बने हों। जैसे—बेलदार साड़ी।
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बेलदारी  : स्त्री [फा०] फावड़ा चलाने का काम, भाव या मजदूरी।
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बेलन  : पुं० [हिं० बेलना] १. लकड़ी, पत्थर, लोहे आदि का वह भारी, गोल और दंड के आकार का खंड जो अपने अक्ष पर घूमता है और जिसे लुढ़काकर कोई चीज पीसते, किसी स्थान को समतल करते अथवा कंकड़, पत्थर आदि कूटकर सड़के बनाते है। (रोलर) २. यंत्र आदि में लगा हुआ इस आकार का कोई बड़ा पुरज़ा जो घुमाकर दबाने आदि के काम में आता है। जैसे—छापने की मशीन का बेलन।य़ ३. कोल्ह का जाठ। ४. रुई धुनने की मुठिया या हत्था। ५. करधे में का पौसार। ६. रोट। पूरी आदि बेलने का बेलना’ नामक उपकरण। पुं० [देश०] १. एक प्रकार का जड़हन धान। २. एक में मिलाई हुई वे दो नावें जिनकी सहायता से डूबी हुई नाव पानी में से निकाली जाती है।
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बेलना  : सं० [सं० वलन] १. रोटी, पूरी, कचौरी आदि के पेड़े या लोई को चकले पर रखकर बेलने (उपकरण) की सहायता से आगे-पीछे बार-बार चलाते हुए बढ़ाकर बड़ा पतला करना। मुहा०—(की तरह के) पापड़ बेलना=अनेक प्रकार के ऐसे काम करना जिनमें से किसी में भी सफलता न हो। जैसे—वे कई तरह के पापड़ बेल चुके है। २. कपास ओटना। ३. चौपट या नष्ट करना। मुहा०—पापड़ बेलना=काम बिगाड़ना। चौपट करना। जैसे—यह सारा पापड़ आपका ही बेला हुआ है। ४. मनोविज्ञान के लिए जलाशय में एक दूसरे पर पानी के छीटे उड़ाना। पुं० काठ। पीतल आदि का बना हुआ एक प्रकार का लंबा उपकरण जो बीच में मोटा और दोनों ओरकुछ पतला होता है और जो प्रायः रोटी, पूरी कचौरी आदि की लोई को चकले पर रखकर बेलने के काम आता पूरी, कचौरी आदि की लोई को चकले पर रखकर बेलने के काम आता है।
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बेलनी  : स्त्री० [हिं० बेलना] कपास ओटने की चरखी।
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बेलपत्ती  : सत्री=बेलपत्र।
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बेलपत्र  : पुं० [सं० बिल्वपत्र] बेल (वृक्ष) के पत्ते।
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बेलपात  : पुं०=बेलपत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलंब  : पुं०=विलंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलबागुरा  : पुं० [डिं०] हिरनों को पकड़ने का जाल।
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बेलबूटे  : पुं० [हिं० बेल+बूटे] किसी चीज पर अंकित या चित्रित लताओं, पेड़-पौधों आदि के अंकन या चित्र।
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बेलवाना  : सं० [हिं० बेलना का प्रे०] बेलने का काम दूसरे से कराना।
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बेलसना  : अ० [सं० विलास+ना (प्रत्य०)] भोग-विलास करना। सुख लूटना। आनंद करना।
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बेलहरा  : पुं० बिलहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलहरी  : पुं० [हिं० बल+ हरी (प्रत्य,)। साँची पान।
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बेला  : पुं० [सं० मल्लिका ?] १. चमेली आदि की जाति का एक प्रकार का छोटा पौधा जिसमें सफेद रंग के सुगंधित फूल लगते हैं। इसके मोतिया, मोगरा और मदनवान नामक तीन प्रकार होते है। २. मल्लिका। त्रिपुरा। ३. बेले के फूल के आकार का एक प्रकार का गहना। स्त्री० [सं० वेला] १. समय। वक्त। जैसे—सबेरे की बेला। मुहा०—बेला- बाँटना=सेबेरे या सन्ध्या के समय नियमित रूप से गरीबों को अन्न, धन आदि बाँटना। २. पानी की लहर। ३. समुद्र का किनारा जहाँ लहरें आकर टकराती हैं। ४. एक प्रकार का छोटा कटोरा। ५. चमड़े की बनी हुई एक प्रकार की छोटी कुल्हिया जिसमें लकड़ीकी लंबी ड़डी लगी रहनी है और जिसकी सहायता से तेल नापते या दूसके पात्र में डालते हैँ। स्त्री० [अ० वायोलिन] सारंगी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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बेलाई  : स्त्री० [हिं० बेलना+आई (प्रत्य०)] १. बेलने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. धातु के पत्तरों को यंत्र की सहायता से दबाकर चौड़ा या लंबा करना। स्त्री०=बिलाई (बिल्ली)।
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बेलावल  : पुं० [सं० वल्लभ] १. पति। २. प्रियतम। स्त्री० [सं० वल्लभा] १. पत्नी। २. प्रियतमा। पुं०=बिलावल (राग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंलि  : स्त्री०=बेल (वल्ली)। उदा०—अँसुवन तन सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलिया  : स्त्री० [हिं० बेला का अल्पा०] छोटी कटोरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेली  : पुं० [हिं० बल ?] रक्षक और सहायक। जैसे—गरीबों का भी है अल्लाह बेली।—कोई शायर। स्त्री० [सं० वल्ली] १. बेल। लता। २. रहस्य-संप्रदाय में (क) विषय-वासना। (ख)। ईश्वर-भक्ति के रूप में फैलनेवाली बेल।
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बेलुत्फ  : वि० [फा०+अ०] [भाव० बेलुत्फी] जिससे कोई लुत्फ या मजा न मिल रहा हो। बेमजा।
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बेवकूफ  : वि० [फा० बे+अ० वुकूफ़] [भाव० बेवकूफी] जिसे किसी प्रकार का वकूफ़ अर्थात् शऊर न हो। मूर्ख। निर्बुद्धि। नासमझ। बेवकूफी
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बेवट  : स्त्री० [?] १. विवशता। २. संकट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंवड़ा  : पुं०=ब्योंड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवतना  : स०=ब्योंतना।
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बेंवताना  : सं० [हिं० व्योतना का प्रे०] ब्योंतनें का काम दूसरे से कराना। सिलाने के लिए किसी से कपड़ा नपवाना और कटवाना।
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बेवपार  : पुं०=व्यापार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवपारी  : पुं०=व्यापारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवफाई  : स्त्री० [फा०+अ०] १. बेवफा होने की अवस्था या भाव। कृतध्नता। २. वचन भंग। दगाबाजी।
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बेवर  : पुं० [देश०] एक तरह की घास जो रस्सी बुनने के काम आती है।
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बेवरा  : पुं०=ब्योरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवरेबाजी  : स्त्री [हिं० ब्यौरा+फा० बाजी] चालाकी। चालबाजी। (बाजारू)
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बेवरेवार  : वि० [हिं० बेवरा+ वार (प्रत्य० )] तफसीलवार। विवरण-सहित।
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बेवसाउ  : पुं०=व्यवसाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवस्था  : स्त्री०=व्यवस्था।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवहना  : अ० [सं० व्यवहार] १. व्यवहार करना। बरताव करना। बरतना। २. सूद पर रुपयों का लेन-देन करना।
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बेवहरिया  : पुं० [सं० व्यवहार+इया (प्रत्य०)]१. सूद पर रुपया का लेन-देन करनेवाला। महाजन। २. बही-खाता लिखनेवाला। लिपिक। मुनीम।
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बेवहार  : पुं० [सं० व्यवहार] १. सूद पर रुपए उधार देने का व्यवसाय। महाजनी। २. रोजगार। व्यापार। ३. दे० ‘व्यवहार’।
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बेवहारी  : पुं०=बेवहरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवा  : स्त्री० [फा० बेव
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बेवाई  : स्त्री०=बिवाई (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवाई  : स्त्री०=बिवाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवान  : पुं०=विमान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेश  : वि० [फा०] [भाव० बेशी] अधिक। ज्यादा। जैसे—वेश कीमत=बहुत अधिक मूल्य का। अव्य० ऐसा ही सही। अच्छा। (पूरब) पुं०=भेस (वेष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेश-कीमत  : वि० [फा० बेश+अ० कीमत] बहुमूल्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेश-कीमती  : वि०=बेशक़ीमत।
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बेशऊरी  : स्त्री० [फा० बे+शऊर+हि० ई (प्रत्य०)] बे-शऊर होने की अवस्था या भाव।
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बेशी  : स्त्री० [फा०] १. बेश होने की अवस्था या भाव। २. अधिकता। ज्यादती। ३. लाभ। नफा।
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बेशुमार  : वि० [फा०] [भाव० बेशुमारी] जो गिना न जा सके। अगणित। असंख्य। अनगिनत।
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बेशोकम  : वि० [फा०] थोड़ा-बहुत।
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बेश्म  : पुं० [सं० वेश्म] घर। मकान।
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बेस  : स्त्री० [सं० वयम्] उम्र। अवस्था। उदा०—बाल बेस ससि ता समीप, अम्रित रस पिन्निय।—चंदबरदाई। पुं० वि०=बेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसंदर  : पुं० [सं० वैश्वानर] अग्नि।
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बेसन  : पुं० [देश०] चने की दाल का चूर्ण। चने का आटा।
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बेसनी  : वि० [हिं० बेसन+ई (प्रत्य० )] १. बेसन का बना हुआ। जैसे—बेसनी लड्डू। २. जिसमें बेसन पड़ा या मिला हो। जैसे—बेसनी पूरी या रोटी। स्त्री० १. बेसन की बनी हुई पूरी। २. बेसन भरकर बनाई हुई कचौरी।
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बेसर  : स्त्री० [?] नाक में पहनने की एक तरह की बुलाक। पुं० १. गधा। २. खज्जर। ३. एक अंत्यज जाति।
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बेसरा  : वि० [फा० बे+सरा= ठहरने का स्थान] जिसके लिए ठहरने का कोई स्थान न हो। आश्रयहीन। पु० एक प्रकार की चिड़िया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसवा  : स्त्री०=वैश्या। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसवार  : पुं० [देश०] वह सड़ाया हुआ मसाला जिससे शराब चुआई जाती है।
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बेसहना  : स०=बेसाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसा  : स्त्री०=वेश्या। पुं० भेस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसाख्ता  : अव्य० [बे+साख़्तः] [भाव० बेसाख्तगी] बिलकुल आप से आप और स्वाभाविक रूप से।
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बेसारा  : वि० [हिं० बैठाना, गुज० बैसाना] १. बैठानेवाला। २. जमाकर रखने या स्थापित करनेवाला।
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बेसाहना  : स० [सं० व्यवसन] १. मोल लेना। खरीदना। २. जान-बूझकर अपने ऊपर लेना अथवा पीछे या साथ लगाना। बिसहना। जैसे—किसी से झगड़ा या बैर बेसाहना।
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बेसाहनी  : स्त्री० [हिं० बेसाहना] १ खरीदने या मोल लेने की किया या भाव। क्रय। २. मोल ली हुई चीज। सौदा। ३. जान-बूझकर अपने पीछे लगाई हुई चीज या बात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसाहा  : पुं० [हिं० बेसाहना] १. खरीदी हुई चीज। सौदा। सामग्री। २. जान-बूझकर अपने ऊपर लिया हुआ संकट।
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बेसी  : स्त्री०=बेशी। वि०=बेश।
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बेसुध  : वि० [फा०+हिं० सुध-होश] १. जिसे सुध अर्थात् होश न हो। अचेत।बेहोश। २. जिसका होश-हवास ठिकाने न हो। बहुत घबराया हुआ। बद-हवास।
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बेसुधी  : स्त्री० [हिं, बेसुध+ई (प्रत्य०)] बेसुध होने की अवस्था या भाव।
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बेसुर  : वि०=बेसुरा।
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बेसुरा  : वि० [हिं० बे+सुर=स्वर] १. जो नियमित स्वर में न हो। जो अपने नियत स्वर से हटा हुआ हो। (संगीत) जैसे—बेसुरा गाना। २. (व्यक्ति) जो ठीक स्वर में न गाता हो। ३. जो उपयुक्त अथवा ठीक अवसर या समय पर न हो। बे-मौका।
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बेसूद  : वि० [फा०] जिसमें कुछ भी लाभ न हो। बेफायदा।
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बेस्या  : स्त्री० [सं० वेश्या] १. रंडी। वेश्या। २. एक प्रकार की बर्रे जो देखने में बहुत सुन्दर होती है पर जिसका डंक बहुत जहरीला होता है।
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बेह  : पुं० [सं० बेध] १. छेद। सुराख। २. दे० ‘वेध’।
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बेहंगम  : वि० [सं० विहंगम] १. जो देखने में भद्दा हो। बेढंगा। २. बेढब। ३. विकट।
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बेहड़  : वि० पुं०=बीहड़ पुं०=बेहट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहतर  : वि० [फा०] अपेक्षाकृत अच्छा। किसी की तुलना या मुकाबले में अच्छा। किसी से बढ़कर। अव्य० प्रार्थना या आदेश के उत्तर में स्वीकृति-सुचक अव्यय। अच्छा। (प्रायः इस अर्थ में इसका प्रयोग ‘बहुत’ शब्द के साथ होता है। जैसे—आप कल सुबह आइयेगा ? उत्तर—बहुत बेहतर।
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बेहतरी  : स्त्री० [फा०] १. बेहतर होने की अवस्था या भाव। अच्छापन। २. उपकार। भलाई। ३. कल्याण। मंगल।
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बेहद  : वि० [फ़ा०] १. जिसकी हद या सीमा न हो। असीम। अपार। २. बहुत अधिक।
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बेहन  : पुं० [सं० वपन] अनाज आदि का बीज जो खेत में बोया जाता है। बीया। कि० प्र०—डालना।—पड़ना। वि० [?] जर्द। पीला।
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बेहना  : पुं० [देश०] १. जुलाहों की एक जाति जो प्रायः रूई घुनने का काम करती है। २. धुनिया।
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बेहनौर  : पुं० [हिं० बेहन+और (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ धान या जड़हन का बीज डाला जाय। पनीर। बियाड़ा
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बेहर  : पुं० [?] पहाड़ी इलाकों में वह नीची और ऊबड़-खाबड़ भूमि जिसकी बहुत सी मिट्टी नदी या वर्षा के जल से बह गई हो, और जगह जगह गहरे गड्ढ़े पड़ गये हों।
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बेहर  : वि० [सं० विहृ ?] १. अचर। स्थावर। २. अलग। जुदा। पृथक्। उदा०—बेहर बेहर भाऊ तेन्ह खँड-खँड ऊपर जा।—जायसी। पुं० [?] वापी।= बावली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहरना  : अ० [हिं० बेहर] किसी चीज का फटना या तड़क जानआ। दरार पड़ना।
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बेहरा  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार की घास जिसे चौपाये बहुत चाव से खाते हैं। (बुंदेल०) २. मूँज की घास जिसे चौपाये बहुत चाव से खाते हैं। (बुंदेल०) २. मूँज की बनी हुई गोल या चिपटी पिटारी जिसमें नाक में पहनने की नथ रखी जाती है। वि० [हिं० बेहर] अलग। जुदा। पृथक्। पुं०=बेयरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहराना  : सं० [हिं० बेहरना का स०] फाड़ना।
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बेहरी  : स्त्री० [सं० विहृति= बलपूर्वक लेना] १. किसी विशेष कार्य के लिए बहुत से लोगों से चंदे के रूप में माँगकर थोड़ा-थोड़ा धन इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—उगाहना—माँगना। २. उक्त प्रकार से इकट्ठा किया हुआ धन। ३. वह किस्त जो असामी शिकमीदार को देता है। बाछा।
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बेहला  : पुं० [अं० वायोलिन] सारंगी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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बेहँसना  : अ०=विहँसना (ठठाकर हँसना)।
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बेहाई  : स्त्री० [फा बे-हयाई] बेहया होने की अवस्था या भाव। निर्लज्जता। बेशरमी। क्रि० वि० बे-हया बनकर। निर्लज्जता-पूर्वक। उदा०—आए नैन घाइ कै लीजै, आवत अब बेहया बेहाई।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहान  : पुं०=बिहान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेही  : स्त्री० [?] नव विवाहित वर-बधू को गाँव के कुम्हारों द्वारा दिया जानेवाला नया बर्तन। (पूरब) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहूदा  : वि० [फा० बेहूदः] १. (व्यक्ति) जिसे तमीज़ या समझ न हो और इसीलिए जो शिष्टता या सभ्यतापूर्वक आचरण या व्यवहार करना न जानता हो। (२. काम या बात) जो शिष्टता या सभ्यता ते विरुद्ध हो। अशिष्टता-पूर्ण।
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बेहूदापन  : पुं० [फा० बेहूदा+पन (प्रत्य०)] बेहुदा होने की अवस्था या भाव। बेहूदगी। अशिष्टता।
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बै  : स्त्री० [अ० बे] रुपए, पैसे आदि के बदले में कोई वस्तु दूसरे को इस प्रकार दे देना कि उस पर अपना कोई अधिकार न रह जाय। बेचना। बिक्री। स्त्री० [सं० याय] करघे में की कंघी। बैसर। स्त्री०=वय (अवस्था या उमर)।
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बैंक  : पुं० [अं०] दे० ‘बंक’ (महाजनी कोठी)।
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बैकना  : अ०=बहकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंकर  : पुं० [अं०] महाजन।
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बैकल  : वि० [सं० विकल, मि० फा० बेफल] १. विकल। बेचैन। २. पागल। उन्मत्त।
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बैकुंउ  : पुं०=वैकुण्ठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैखरी  : स्त्री०=वैखरी।
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बैखानस  : वि० बैखानस।
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बैंगन  : पुं० [सं० वंगण ?] १. एक पौधा जिसके लंबोतरे फलों की तरकारी बनाई जाती है। भंटा। २. उक्त पौधे का फल जिसकी तरकारी बनाई जाती है। भंटा। २. उक्त पौधे का फल जिसकी तरकारी बनती है। ३. दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का धान और उसका चावल।
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बैगन  : पुं०=बैगन।
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बैंगनी  : वि० [हिं० बैगन+ई (प्रत्य०)] बैंगन के रंग का। जो ललाई लिये नीले रंग का हो। बैंजनी। पुं० उक्त प्रकार का रंग। स्त्री० एक प्रकार का पकवान जो बैंगन के टुकड़ों को घुले हुए बेसन में लपेटकर और घी या तेल में तलकर बनाया जाता है।
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बैंच  : पुं० [?] एक प्रकार का वृक्ष और उसका फल। स्त्री०=बेंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैज  : पुं० [अं०] १. चिन्ह। निशान। २. चपरास। ३. संस्था आदि का चिन्ह सूचित करनेवाला पट्टा का कागज अथवा कपड़े का टुकड़ा। बिल्ला।
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बैजई  : वि० [फा० बैजावी] हलके नीले रंग का। पुं० उक्त प्रकार का अर्थात् हलका नीला रंग।
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बैजनाथ  : पुं०=बैद्यनाथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंजनी  : वि०=बैंगनी।
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बैंजनी  : स्त्री० [सं० बैजयंती] १. फूल के एक पौछे का नाम जिसके पत्ते हाथ-हाथ भर लंबे और चार पाँच अंगुल चौड़े धड़ या मूल कांड से लगे हुए होते हैं। २. विष्णु के गले की माला का नाम।
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बैजला  : पुं० [देश०] १. उर्द का एक भेद। २. कवड्डी नामक खेल।
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बैजवी  : वि० [अ० वज़ावी] १. अंडे का। २. अंडाकार।
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बैजा  : पुं० [अ० बैज़] १. अंडा। २. गलका नामक रोग जिसकी गिनती चेचक या शीतला में होती है।
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बैजावी  : वि० [अ० बज़ावी] अंडाकार।
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बैजिक  : वि० [सं० बीज+ठक्—इक] १. बीज-संबंधी २. मूल-संबंधी। ३. पैतृक। पुं० १. अंकुर। २. कारण। ३. आत्मा।
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बैटरी  : स्त्री० [अ०] १. तांबे या पीतल आदि का वह पात्र जिसमें रासायनिक पदार्थों के योग से रासायनिक प्रक्रिया द्वारा बिजली पैदा करके काम में लाई जाती है। (बैटरी) मुहा०—बैटरी चढाना= बैटरी या बिजली की सहायता से किसी चीज पर किसी धातु का मुलम्मा करना। २. तोपखाना।
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बैंटा  : पुं०=बेंट (मुठिया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैटा  : स्त्री० [देश०] रूई ओटने की चरखी। ओटनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैठ  : पुं० [हिं० बैठना=पड़ता पड़ना] सरकारी मालगुजारी या लगान की दर। राजकीय कर या उसकी दर।
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बैठ-हड़ताल  : स्त्री०=बैठकी हड़ताल।
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बैठक  : स्त्री० [हिं० बैठना] १. बैठने की क्रिया, ढंग भाव या मुद्रा। जैसे—इस जानवर की बैठक ही ऐसी होती है। बैठकी। २. घर का वह कमरा जिसमें प्रायः आये-गये लोग बैठकर आपस में बात-चीत करते हैं। बैठका। ३. बैठने के लिए बना हुआ कोई आसन या स्थान। उदा०—अति आदर सों बैठक दीन्ही।—सूर। ४. नीचे का वह आधार जिस पर खंभा। मूर्ति या ऐसी ही और कोई चीज खड़ी की या बैठाई जाती है। पद-स्तल। ५. सभा सम्मेलन आदि का एक बार में और एक साथ होनेवाला कोई अधिवेशन। (सिटिंग) जैसे—आज सम्मेलन की दूसरी बैठक होती। ६. कुछ लोगों के आपस में प्रायः संग मिलकर बैठने की किया या भाव। बैठकी। ७. एक प्रकार की कसरत जिसमें बार-बार खड़ा होना और बैठना पड़ता है। बैठकी। क्रि० प्र०—लगाना। ८. किसी विशिष्ट उद्देश्य से किसी स्थान पर जाकर जब तक बैठने की क्रिया, जब तक वह काम पूरा न हो जाय। ९. काँच, धातु आदि का दीवट जिसके सिरे पर बत्ती जलती या मोमबत्ती खोंसी जाती है। बैठकी। १॰. दें० ‘बैठकी’।
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बैठका  : पुं० [हिं० बैठक] १. वह चौपाल या दालान आदि जहाँ कोई बैठता हो और जहाँ जाकर लोग उससे मिलते या उसके पास बैठकर बातचीत करते हों। २. बैठक।
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बैठकी  : स्त्री० [हिं० बैठक+ई (प्रत्य०)] १. किसी स्थान पर प्रायः जाकर बैठने की क्रिया। जैसे–आज-कल वकील साहब के यहाँ उनकी बहुत बैठकी होती है। २. बार-बार बैठने और उठने की कसरत। बैठक। ३. बैठने का आसन। बैठक। ४. वेश्याओं का वह गाना जिसमें वे बैठकर गाती है, नाचती नहीं। ५. शीशे का वह झाड़ जो जमीन पर रखकर जलाया जाता है। (छत में लटकाये जानेवाले झाड़ से भिन्न) ६. वह नगीना जो किसी गहने में जड़कर बैठाया जाता है। (बेधकर पिरोये जानेवाले नगीने से भिन्न) जैसे—अँगूठी में जड़ा जाने-वाला मोती ‘बैठकी’ कहलाता है। वि० बैठने से सम्बन्ध रखनेवाला। जैसे—बैठकी हड़ताल।
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बैठकी हड़ताल  : स्त्री० [हिं०] हड़ताल का वह प्रकार या रूप जिसमें किसी कर्मशाला या कार्यालय में कर्मचारी लोग उपस्थित तो होते हैं, पर अपने अपने स्थान पर खाली बैठे रहते हैं, अपना काम नहीं करते। बैठ-हड़ताल। (सिट डाउन स्ट्राइक)
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बैठन  : स्त्री० [हिं० बैठना] १. बैठने की किया, ढंग या भाव। २. आसन। पुं०=बेठन।
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बैठना  : अ० [सं० वेशन, विष्ठ, प्रा० बिट्ठ+ना (प्रत्य०)] १. प्राणियों का अपने घुटने टेक या टाँगे मोड़कर शरीर को ऐसी स्थिति में करना या लाना कि धड़ सीधा ऊपर की ओर रहे और उसका सारा भार चूतड़ों और जाघों के नीचेवाले तल पर पड़े। शरीर का नीचेवाला आधा भाग किसी आधार पर टिका या रखकर पट्ठों के बल आसीन या स्थित होना। (खड़े रहने और लेटने या सोने से भिन्न) जैसे—कुरसी, चौकी या जमीन पर बैठना। विशेष—पक्षियों को बैठने के लिए प्रायः अपने पैर मोड़ने नहीं पड़ते और उनका खड़ा रहना तथा बैठना दोनों समान होते है। जब वे उड़ना छोड़कर जमीन या पेड़ की डाल पर खड़े होते हैं, तब उनकी वही स्थिति ‘बैठना’ भी कहलाती है। पर अंडे सेने के समय जब वे बैठते हैं, तब उनकी टाँगे भी मुड़ जाती है। पद—(कहीं या किसी के साथ) बैठना-उठना या उठना-बैठना=किसी के संग या साथ रहकर बात-चीत करना और समय बिताना। जैसे—उनका बैठना-उठना सदा से बड़े आदमियों के यहाँ (या साथ) ही रहा है। बैठते-उठते या उठते-बैठते=अधिकतर अवसरों पर। प्रायः। हर समय। जैसे—बैठते उठते। (या उठते-बैठते) ईश्वर का ध्यान रखना चाहिए। बैठे-बैठे= (क) अचानक। सहसा। उदा०—बैठे-बैठे हमें क्या जानिए क्या याद आया।—कोई शायर। (ख) बिना कुछ किये। जैसे—चलो, बैठे-बैठे तुम्हें भी सौ रुपये मिल गये। (ग) दें० ‘बैठे-बैठाये तुमने यह झगड़ा मोल ले लिया। मुहा०—बैठे रहना=कर्तव्य, कार्य आदि का ध्यान छोड़कर यथा-साध्य उससे अलग या दूर रहना। जैसे—तुम जहाँ जाते हों वही बैठ रहते हो। बैठे रहना= (क) कुछ भी काम-धंधा न करना। जैसे—छुट्टी के दिन वे घर पर ही बैठे रहते हैं, कहीं आते-जाते नहीं। (ख) किसी काम या बात में योग न देना अथवा हस्तक्षेप न करना। जैसे—मैं भी वहाँ चुपचाप बैठा रहा। कुछ बोला नहीं। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के लिए आसन या स्थान ग्रहण करना। जैसे—(क) विद्यार्थी का पढ़ने के लिए (या परीक्षा में) बैठना। (ख) अधिकारी का काम के समय अपनी जगह पर या मालिक का गद्दी पर) बैठना। (ग) अपना चित्र अंकित कराने के लिए चित्रकार के सामने बैठना। (घ) चिड़ियों या मछलियों का अंडे सेने के लिए बैठना। ३. किसी का किसी पद या स्थान पर अधिकारी या स्वामी बनकर आसीन होना। जैसे—(क) उनके बाद उनका लड़का गद्दी पर बैठा। (ख) कल राज्य में नये राज्यपाल बैठेंगे। ४. जिस काम के लिए कोई उद्यत, तत्पर या सत्रद्ध हुआ हो, उससे अलग दूर या विरत होना अथवा संबंध छोड़ना। जैसे—(क) चुनाव के लिए जो चार उम्मेदार थे, उनमें से दो बैठ गये। (ख) अब उनके सभी सहायक और साथी बैठ गये हैं। ५. किसी प्रकार की सवारी पर आसीन या स्थित होना। जैसे—घोडे, नाव, मोटर या रेल पर बैठना। ६. किसी चीज का नीचेवाला अंश या भाग या जमीन में अच्छी तरह यथास्थान स्थित होना। ठीक तरह से लगना। जैसे—(क) यहाँ अभी एक खंभा और बैठेगा। (ख) इस जमीन में जड़हन (या धान) नहीं बैठेगा। ७. किसी स्थान पर जमकर या दृढ़तापूर्वक आसीन या स्थित होना। उदा०—हजरते दाग जहाँ बैठ गये, बैठ गये।—दाग। ८. स्त्रियों के संबंध में, किसी के साथ अवैध सम्बन्ध करके उसके घर में जाकर पत्नी के रूप में रहना। जैसे—विधवा होने पर वह अपने देवर के घर जा बैठी। ९. नर और मादा का संभोग करने के लिए किसी स्थान पर आना या होना, अथवा संभोग करना। (बाजारू) जैसे—इस बार यह कुतिया किसी बाजारू कुत्ते के साथ बैठी थी। १॰. किसी रखी जानेवाली अथवा अपने स्थान से हटी हुई चीज का उपयुक्त और ठीक रूप से उस स्थान पर जमना, फिर से आना या स्थित होना; जहाँ उसे वस्तुतः आना, रहना या होना चाहिए। जैसे—(क) धरन या पत्थर का अपनी जगह पर बैठना। (ख) टोपी या पगड़ी का सिर पर ठीक से बैठना। (ग) उखड़ी हुई नस या हड्डी का फिर से अपनी जगह पर बैठना। ११. जो ऊपर की ओर उठा या खड़ा हो, उसका गिर या हटकर नीचे आना या धराशायी होना। गिर पड़ना या जमीन से आ लगता। जैसे—(क) इस बरसात में पचासों मकान बैठ गये। (ख) कड़ाके की धूप या पाले से सारी फसल बैठ गई। (ग) भार की अधिकता के कारण नाव बैठ गई। १२. किसी काम, चीज या बात का अपने उचित या साधारण रूप में न चौपट या नष्ट हो जाना। जैसे—(क) लगातार कई बरसों तक घाटा होने के कारण उसका कारबार बैठ गया। (ख) अधिक व्यय और कुव्यवस्था के कारण संस्था बैठ गई। १३. तरल पदार्थ में घुली या मिली हुई चीज का निथर कर तल में जा लगना। जैसे—पानी में घोला हुआ चूना या रंग बैठना। १४. किसी उभारदार चीज का नष्ट या विकृत होकर कुछ गहरा या समतल हो जाना। पिचकना जैसे—(क) पुल्टिस लगाने से फोड़ा (या दवा लगाने से सूजन) बैठना। (ख) पुल्टिस लगाने से फोड़ा (या दवा लगाने से सूजन) बैठना। (ख) शीतला के प्रकोप से किसी की आँख बैठना। (ग) बीमारी या बुढ़ापे में गाल बैठना। १५. किसी चीज का गल, पिघल या सड़कर अपना गुण, रूप, स्वाद आदि गँवा देना। जैसे—(क) अधिक आँच लगने से गुड़ का बैठना। (ख) गंदे हाथ लगने से अचार का बैठना। (ग) पानी अधिक हो जाने से मात का बैठना। (घ) अधिक उमस के कारण अमरूद या आम बैठना। १६. नापने-तौलने, पड़ता निकालने या हिसाब लगाने पर किसी निश्चित मात्रा, मान, मूल्य आदि का ज्ञात अथवा स्थिर होना। जैसे—(क) तौलने पर गेहूँ का बोरा सवा दो मन बैठा। (ख) नाव और उसका सामान खरीदने में तीन सौ रुपये बैठे। (ग) घर तक ले जाने में यह कपड़ा तीन रुपये गज बैठेगा। १७. प्रहार आदि के लिए अस्त्र-शस्त्र, शारीरिक अंग अथवा ऐसी ही किसी चीज का चलाये जाने या फेंके जाने पर अपने ठीक लक्ष्य पर जाकर लगता। जैसे—(क) निशाने पर गोला या गोली बैठना। (ख) शरीर पर थप्पड़ या मुक्का बैठना। १८. ग्रहों, तारों आदि का आकाश में नीचे उतरना या उतरते हुए क्षितिज के नीचे जाना। अस्त होना। जैसे—सूर्य के बैठने का समय हो चला था। १९. अर्थ, उक्ति, कथन सिद्धांत आदि का कहीं इस प्रकार लगना कि उसका ठीक ठीक आशय या रूप समझ मे आ जाय अथवा वह उपयुक्त रूप से घटित या चरितार्थ हो। जैसे—(क) यहाँ इस चौपाई का ठीक अर्थ नहीं बैठता। (ख) आपका वह कथन (या सिद्धांत) यहाँ बिलकुल ठीक बैठता है। २॰ कार्यो, क्रियाओं आदि के सम्बन्ध में, हाथ का इस प्रकार अभ्यस्त होना कि सहज में स्वभावतः उससे ठीक और पूरा परिणाम निकले। जैसे—बाजे पर (या लिखने में) अभी उसका हाथ ठीक नहीं बैठता है। संयो० कि०—जाना। विशेष—‘बैठना’ क्रिया का प्रयोग कुछ मुख्य क्रियाओं के साथ संयोज्य क्रिया के रूप में प्रायः नीचे लिखे अर्थों में भी होता है। (क) अवधारण या अधिक निश्चय सूचित करने के लिए; जैसे—कोई चीज खो या गँवा बैठना। (ख) कार्य की पूर्णता सूचित करने के लिए; जैसे—कहीं जा बैठना या मालिक बन बैठना। (ग) अनजान में या सहसा होनेवाली आकस्मिकता सूचित करने के लिए; जैसे—कह बैठना, दे बैठना या मार बैठना और (घ) दृढ़ता या धृष्टता सूचित करने के लिए; जैसे—चढ़ बैठना, पूछ बैठना, बिगड़ बैठना।
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बैठनि  : स्त्री०=बैठन (बैठक)।
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बैठनी  : स्त्री० [हिं० बैठन] वह आसन या स्थान जिस पर बैठकर जुलाहे करघे से कपड़ा बुनते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैठवाँ  : वि० [हिं० बैठना+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० बैठवीं] बैठा या दबा हुआ। फलतः चिपटा। जैसे—बैठवाँ जूता।
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बैठवाई  : स्त्री० [हिं० बैठवाना] १. बैठवाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘बैठाई’।
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बैठवाना  : स० [हिं० बैठाना का प्रे०] बैठाने का काम दूसरे से कराना।
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बैठाना  : सं० [हिं० बैठना का स०] १. किसी को बैठने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कोई बैठे। आसीन, उपविष्ट या स्थित करना जैसे—जो लोग खड़े हैं, उन्हें यथा-स्थान बैठा दो। २. किसी उद्देश्य की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के लिए किसी को किसी पद या स्थान पर आसीन या नियुक्त करना। जैसे—(क) किसी को कहीं का प्रबंधक बनाकर बैठाना। (ख) झगड़ा निपटाने के लिए पंचायत बैठाना। (ग) रखवाली के लिए पहरा बैठाना। ३. आये हुए व्यक्ति या व्यक्तियों को आदरपूर्वक उचित आसन या स्थान पर आसीन करना। जैसे—अतिथियों को बैठाना। ४. किसी को किसी काम में इस प्रकार लगाना कि वह वहाँ आसन जमाकर काम करे। जैसे—पंड़ित को पूजा-पाठ के लिए या लड़के को किसी के यहाँ काम सीखने के लिए बैठाना। ५. जिस काम के लिए कोई उद्धत, तत्पर या सत्रद्ध हुआ हो, उससे उसे रोककर उम्मेदवार को बैठाना। ६. जो चीज किसी प्रकार उठी, उभरी या अपने स्थान से बढ़ी य़ा हटी हो० उसे फिर यथा-स्थान करना या लाना। जैसे—नस, सूजन या हड्डी बैठाना। ७. किसी को किसी यान या सवारी पर आसीन कराना। जैसे—बगीचे में पेड़-पौधे बैठाना। ९. उबालने, गरम करने, पकाने आदि के लिए आग या चूल्हे पर चढ़ाना या रखना। जैसे—दाल या दूध बैठाना। पद—बैठा भात=वह भात जो चावल और पानी एक ही साथ आग पर रखकर पकाया गया हो। १॰. किसी प्रकार या रूप में नीचे की ओर गिराना, दबाना या धँसाना। जैसे—उस कमरे के बोझ ने सारा मकान बैठा दिया। ११. कोई चलता हुआ काम इस प्रकार विकृत करना कि उसका अंत या नाश हो जाय। जैसे—ये नये कार्यकर्त्ता तो चार दिन में कारखाने (या संस्था) को बैठा देंगे। १२. किसी वस्तु या व्यक्ति को ऐसी अवस्था में लाना कि वह निक्म्मा, रद्दी या बेकार हो जाय। जैसे—(क) बीमारी (या बुढ़ाये) ने उन्हें बैठा दिया है। (क) तुमने लापरवाही से सारा अचार बैठा दिया। १३. किसी स्त्री को उपपत्नी बनाकर अपने घर ले आना और रखना। जैसे—उन्होंने एक वेश्या को बैठा लिया था। १४. नर और मादा को संभोग करने के लिए एक साथ रखना। जोड़ा खिलाना। जैसे—मुरगे को मुरगी के साथ बैठाना। १५. पानी आदि में घुली वस्तु को तल में ले जाकर जमाना। जैसे—यह दवा सब मैल नीचे बैठा देगी। १६. किसी काम में कौशल प्राप्त करने के लिए इस प्रकार अभ्यास करना कि शरीर का कोई अंग ठीक तरह से काम करने लगे। जैसे—चित्रकारी में हाथ बैठाना। १७. प्राहर के समय फेंक या चलाकर कोई चीज ठीक जगह पर पहुँचाना। क्षिप्त वस्तु को निर्दिष्ट लक्ष्य या स्थान पर जमाना या लगाना। जैसे—निशाना बैठाना। १८. उक्ति, कथन, सिद्धान्त आदि कहीं इस रूप में लगाना कि वह उपयुक्त या सार्थक जान पड़े। घटित करना। घटाना। जैसे—(क) आप अपना यहसिद्धान्त हर जगह नहीं बैठा सकते। (ख) इस दोहे का अर्थ बैठाओ तोजानें उत्तर याफल निकालने के लिए उचित किया या हिसाब करना। जैसे—जोड़ पड़त या हिसाब बैठना। २0 फगाहने आदि के लिए कर या शुल्क नियत करना जैसे। अब तो नित्य नए नए कर बैठाय जाते हैं। २१. कोई चीज किसी के पास गिरवी या रेहन रखना। (जुआरी) जैसे—उसके दाँव चुकाने के लिए अँगूठी बैठा दी। संयो० क्रि०—देना।
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बैठारना  : स०=बैठाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैठालना  : स०=बैठाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंड  : पुं० [अं०] १. झुंड। दल। २. अँगरेजी बाजा बजाने वालों का दल जिसमें सब लोग मिलकर एक साथ बाजा बजाते हैं। ३. पाश्चात्य ढंग के कुछ विशिष्ट बाजों का समूह दो एक साथ बजाये जाते हैं।
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बैंड़ना  : सं०=बेड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंडा  : वि०=बेंड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैड़ाल  : वि० [सं० विड़ाल+अण्] बिल्ली-सम्बन्धी।
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बैडाल-व्रत  : पुं० [सं० उप० स०] बिल्ली की तरह ऊपर से सौजन्य औक सद्भाव प्रकट करने पर भी मन में कपट छिपाये रखना और घात में लगे रहना।
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बैड़ालव्रती  : पुं० [सं० बैडालव्रच+इति] १. वह जो बैड़ालव्रत धारण किये हो। बिल्ली के समान से सीधा-सादा पर समय पर घात करनेवाला। कपटी। २. ऐसा व्यक्ति जो स्त्री के अभाव में ही सदाचारी बना हुआ हो, अपनी इन्द्रियों पर वश रखने के कारण सदाचारी न हो।
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बैंडी  : स्त्री० [?] तालाब या जलाशय में सींचने के लिए पानी उछालने का कार्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैढ़ना  : सं०=बेढ़ना (घेरना)।
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बैण  : पुं० [सं० वैण] बाँस की खपाचियों से टोकरियाँ तथा अन्य सामान बनानेवाला कारीगर।
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बैंत  : पुं० १.=बैत। २. बेंत।
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बैत  : स्त्री० [अ०] किसी शेर (पद्य) के दोनों चरण। मिसरों में से कोई मिसरा।
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बैतड़ा  : वि० [फा० बदतर ?] १. बदमाश। लुज्जा। २. बेहुदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैतबाजी  : स्त्री० [अ०+फा०] वह प्रतियोगिता जिसमें एक बालक एक शेर पढ़ता है और दूसरा बालक उक्त शेर के अन्तिम शब्द से आरम्भ होनेवाला दूसरा शेर पढ़ता है और इसी प्रकार यह प्रतियोगिता चलती रहती है।
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बैतरनी  : स्त्री० [सं० वतरणी] १. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है। २. दे० ‘वैतरणी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैतरा  : पुं०=बैतड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैताल  : पुं०=बेताल।
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बैतालिक  : वि० पुं०=वैतालिक।
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बैतुल्लाह  : पुं० [अं०] १. खुदा का घर। २. मुसलमानों का काबा तीर्थ।
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बैद  : पु० [स्त्री० बैदिन]=वैद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैदई  : स्त्री० [हिं० वैद] वैद्य का काम, पेशा या भाव। बैदगी। उदा०—अर्थ, सुनारी, बैदई, करि जानत पतिराम।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैदाई  : स्त्री०=बैदई।
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बैदूर्य  : पुं०=वैदूर्य।
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बैदेही  : स्त्री०=वैदेही।
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बैन  : पुं० [अ०] १. थैला। झोला। २. बोरा।
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बैन  : पुं० [सं० वचन, प्रा० वपन] १. वचन। बात। मुहा०—बैन झरना= मुँह से बात निकलना। २. वेणु। बाँसुरी। उदा०—मोहन मन हर लिया सुबैन बजाय कै।—आनंदघन। ३. घर में मृत्यु होने पर कुछ विशिष्ट शोकसूचक पद या वाक्य जिन्हें स्त्रियाँ कह कहकर रोती है। (पंजाब)
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बैनतेय  : पुं०=बैनतेय।
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बैना  : पुं० [सं० वापन] शुभ अवसरों पर इष्ट-मित्रों तथा सम्बन्धियों के यहाँ से आने अथवा उनके यहाँ भेजी जानेवाली मिठाई। क्रि प्र०—देना।—बाँटना।—भेजना। स० [सं० वपन] (बीज) बोना। पुं०=बेंदा। पुं०=बैन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैनामा  : पुं० [अ० बै+फा० नामा] वह पत्र जिसमें किसी वस्तु विशेषतः मकान या जमीन, जायदाद आदि के बेचने और उससे संबंध रखनेवाली शर्तों का उल्लेख होता है। विक्रय-पत्र। (सेल डीड)
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बैपर  : स्त्री० [सं० बधूवर=हिं० बहुअर] औरत।
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बैपार  : पुं०=व्यापार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैपारी  : पुं०=व्यापारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैमातेय  : वि०=वैमात्रेस।
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बैयाँ  : अव्य० [?] घटनों के बल। घटनों के सहारे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बैया  : पुं० [सं० बाय] बै। बैसर। (जुलाहे)
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बैर  : पुं० [सं० बैर] १. किसी का बहुत बड़ा अहित या अपकार करने की मन में होनेवाली उत्कट भावना जो स्वभावजन्य, कारण-जन्य अथवा ईर्ष्याजन्य होती है। २. बदला लेने की भावना। मुहा०—वैर काढ़ना= किसी का अहित या अपकार करके उसके द्वारा किये हुए अहित या अपकार का बदला चुकाना। बैर चितारना, चुकाना या साधना= पुराना बैर याद करके उसका बदला लेना। उदा०—पपैया प्यारे कब को बैर चिताइयों।—मीराँ। बैर ठानना=बदला लेने के लिए अथवा दुर्भावनाश किसी का अपकार करने के लिए तत्पर होना। बैर डालना= विरोध उत्पन्न करना। दुश्मनी पैदा करना। बैर निकालना= बैर काढ़ना। (किसी के) बैर पड़ना=प्रायः जान-बूझकर किसी को सताना। बैर बढ़ाना= अधिक दुर्भाव उत्पन्न करना। दुश्मनी बढ़ाना। ऐसा काम करना जिससे अप्रसन्न या कुपित मनुष्य और भी अपसन्न और कुपित होता जाय। बैर बिसाहना या मोल लेना=जिस बात से अपना कोई संबंध न हो, उसमें योग देकर दूसरे को व्यर्थ अपना विरोधी या शत्रु बनाना। बिना मतलब किसी से दुश्मनी पैदा करना। बैर मानना। दुश्मनी रखना। बैर लेना= किसी का अपकार करके वैर का बदला चुकाना। पुं० [सं० बदरी] बेर का पेड़ और उसका फल। पुं० [देश०] तल में लगा हुआ चिलम के आकार का चोंगा जिसमें भरे हुए बीज हल चलाने में बराबर कूँड़ में पड़ते जाते हैं।
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बैरक  : पुं० [तु० बैरक़] १. छोटा झंडा। झंडी। २. अधिकार में लाई हुई अथवा जीती हुई जमीन में हाड़ा जानेवाला झंडा। मुहा०—बैरक बाँधना= कोई अनुष्ठान करने अथवा दूसरों को अपना अनुयायी बनाने के लिए झंडा करना। उदा०—अपने नाम की बैरक बाँधों सुबस बसौ इहि गाँव—सूर। स्त्री० [अं०] छावनी में वह इमारत अथवा इमारतों की श्रृंखला जिसमें सैनिक समूह रहते हों।
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बैरख  : पुं०=बैरक (झंडा)।
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बैरंग  : वि० [अं० बियरिंग] १. वह (चिट्ठी) जिस पर टिकट न लगाया हो फलतः जिसका महसूल उसे पानेवाले को चुकाना पड़ता हो। २. विफल। मुहा०—बैरंग लौटना=बिना काम हुए, विफल लौटना।
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बैरन  : स्त्री० [हिं० बैरी का स्त्री० रूप] १. वह स्त्री जो किसी से शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती हो। २. सौत।
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बैरा  : पुं० [देश०] १. हल के मूठे में बाँधा जानेवाला एक प्रकार का चोंगा जिसमें बोते समय बीज डाले जाते हैं। माला। २. ईट के टुकड़े, रोड़े आदि जो मेहराब बनाते समय उसमें चुनी हुई ईटों को जमी रखने के लिए खाली स्थान में भर देते हैं। पु० [अ० बेयरर] होटलों आदि में वह व्यक्ति जो अभ्यागतों को भोजन पहुँचाता है।
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बैराखी  : स्त्री०=बेरखी।
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बैराग  : पुं०=बैराग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैरागर  : पुं० [बैर ?+सं० आगार] रत्नों आदि की खान। उदा०—गुणमणि बैरागर धीरज को सागर।—केशव।
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बैरागी  : पुं०=वैरागी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैराग्य  : पुं०=वैराग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैराना  : अ० [हिं० बाई=वायु] वातग्रस्त होना। अ०=बौराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैरिस्टर  : पुं० [अं०] इंग्लैंड के उच्चतर न्यायालयों में बहस करने की मान्यता प्राप्त करनेवाला अधिवक्ता या वकील।
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बैरिस्टरी  : स्त्री० [अ० बैरिस्टरी+हिं० ई (प्रत्य०)] बैरिस्टरी का काम या पेशा।
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बैरी  : वि० [सं० वैरी, वैर+इनि] जिसका किसी से वैर हो। पुं० शत्रु।
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बैरोमीटर  : पुं० [अं०] वायु के दबाव या भार का सूचक एक वैज्ञानिक उपकरण।
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बैल  : पुं० [सं० बलिवर्दः] १. गाय से उत्पन्न प्रसिद्ध नर चौपाया जो गाड़ी, हल आदि में जोता जाता है। २. लाक्षणिक अर्थ में० (क) बहुत बड़ा मूर्ख व्यक्ति। (ख) परिश्रमी व्यक्ति। ३. रहस्य संप्रदाय में (क) शरीर (ख) त्रिगुण।
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बैल-मुतनी  : स्त्री० दे० ‘गौमूत्रिका’।
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बैलर  : पुं० [अं० ब्वायलर] पीपे के आकार का लोहे का बड़ा देग जो भाप से चलनेवाली कलों में होता है।
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बैलून  : पुं० [अं०] १. गुब्बारा। २. आज-कल वह बहुत बड़ा गुब्बारा जो विशिष्ट वैज्ञानिक अनुसंधानों आदि के लिए आकाश में उड़ाया जाता है; अथवा जिसके सहारे लोग कुछ दूर तक ऊपर आकाश में उड़ते हैं।
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बैल्व  : वि० [सं० बिल्व+ अण्] १. बेल वृक्ष अथवा उसकी लकड़ी से संबंध रखनेवाला। २. बेल की लकड़ी का बना हुआ। ३. (स्थान) जिसमें बहुत से बेल के वृक्ष हों।
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बैषानस  : पुं०=वैखानस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैष्क  : पुं० [सं०] शिकार किये हुए पशु का मांस।
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बैस  : स्त्री० [सं० वयस्] १. वयस। वर। उमर। उदा०—बारी बैस गुलाब की, सींचत मनमथ छैल।—रसनिधि। २. युवास्था। जवानी कि० प्र०—चढ़ना। पुं०=वैश्य। पुं० (किसी मूल पुरुष के नाम पर) क्षत्रियों की एक प्रसिद्ध शाखा जो अधिकतर कन्नौज से अंतर्वेद तक बसी है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैसंदर  : पुं०=बैसंतर (अग्नि)।
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बैसना  : सं०=बैठना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैसरा  : स्त्री० दें० ‘कंघी’ (जुलाहों की)।
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बैसवाड़ा  : पुं० [हिं० बैस+बाड़ा (प्रत्य०)] [वि० बैसवाड़ी] अवध के दक्षिण-पश्चिमी भू-भाग का नाम।
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बैसवाड़ी  : वि० [हिं० बैसवाड़ा] बैसवाड़े में होनेवालास्त्री० बैसवाड़े की बोली। पुं० बैसवाड़े का निवासी।
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बैसा  : पुं० [सं० वंश बाँस] औजारों की मूठ या दस्ता। उदा० वैसी लगै कुठार को...। वृंद।
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बैसाख  : पुं० [सं० बैशाख] चैत के बाद और जेठ के पहले का महीना। वैशाख।
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बैसाखी  : स्त्री० [सं० वैशाख] १. सौर वैशाख का पहला दिन। २. उक्त दिन मनाया जानेवाला त्यौहार। स्त्री० [सं० द्विशाखी= दो शाखाओंवाला] १. वह डंडा जिसे बगल के नीचे रखकर लंगड़े चलते है। २. डंडा।
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बैसारना  : सं०=बैठाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैसिक  : पुं०=वैशिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैस्वा  : स्त्री०=वेश्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैहर  : वि० [सं० वैर=भयानक] भयानक। विकट। स्त्री० [सं० वायु०] वायु। हवा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बॉयस्कोप  : पुं० [अं०] एक प्रसिद्ध यन्त्र जिसके द्वारा परदे पर चल-चित्र दिखलाये जाते हैं।
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बो-जोत  : स्त्री० [हिं० बोना+जोतना] खेती-बारी। कृषि-कर्म।
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बोअनी  : स्त्री०=बोनी (बोआई)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोआई  : स्त्री० [हिं० बोना] बोने की क्रिया, ढंग, भाव या मजदूरी।
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बोआना  : सं० [हिं० बोना] बोने का काम दूसरे से कराना।
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बोंक  : पुं० [हिं० बंक, बाँक ?] लोहे की वह नुकीली मोटी कील जो पुरानी चाल के दरवाजों में चूल का काम देती है।
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बोक  : पुं०=बकरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोकरा  : पुं०=बकरा।
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बोकरी  : स्त्री०=बकरी।
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बोकला  : पुं०=बकला (छिकला)। पुं=बकरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोका  : पुं० [हिं० बोक=बकरा] १. बकरे की खाल। २. चमड़े का डोल। वि० मूर्ख। (पूरब)
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बोक्काण  : पुं० [सं०] वह पात्र जिसमें घोड़े के खाने के लिए दाना आदि डालकर उसके गले में बाँध दिया जाता है।
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बोखार  : पुं०=बुखार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोगदा  : पुं० [?] ऊँचे पहाड़ के बीचोबीच खोदकर बनाया हुआ रास्ता। (टनेल)
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बोंगना  : पुं० दे० ‘बहुगुना’।
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बोगस  : वि० [अं०] १. रद्दी। व्यर्थ का। २. कृत्रिम। जाली। ३. झूठा या नकली।
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बोगुआ  : पुं० [?] घोड़े के पेट में होनेवाला एक तरह का शूल।
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बोजा  : स्त्री० [फा० बोज
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बोझ  : पुं० [?] १. भारी होने की अवस्था या भाव। भार। २. भारी गट्ठर। ३. भारी गट्ठर का भार। वजन। ४. उतनी वस्तु जितनी एक खेप में ले जाई या ढोल जाती है। जैसे—चार बोझ लकड़ी ५. लाक्षाणिक अर्थ में, ऐसा विकट और श्रम-साध्य कार्य जो भार-स्वरूप जान पड़ता तथा जिसे करने की रुचि बिलकुल न हो। मुहा०—बोझ उठाना=कोई कठिन काम करने का उत्तरदायित्त्व अपने पर लेना। बोझ उतारना=कोई विकट और श्रमसाध्य काम संपत्र करना अथवा उससे छुट्टी पाना।
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बोझना  : स० [हिं० बोझ] बोझ से युक्त करना। भार रखना। लादना। जैसे—नाव या बैलगाड़ी बोझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोझल  : वि०=बोझिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोझा  : पुं० [?] वह कोठरी जिसमें राब के बोरे इसलिए नीचे ऊपर रखे जाते हैं कि शीरा या जूसी निकल जाय। पुं०=बोझ (भार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोझाई  : स्त्री० [हिं० बोझना+ आई (प्रत्य०)] बोझने या लादने का काम, ढंग, भाव या मजदूरी।
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बोझिल  : वि० [हिं० बोझ] १. अधिक बोझवाला। भारी। वजनदार। वजनी। २. जिस पर अधिक बोझ लदा हो। ३. (काम) जो विकट हो तथा जिसमें रुचि न लगती हो।
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बोट  : स्त्री० [अं०] १. नाव। नौका। २. जहाज। पुं० [?] टिड्डा नाम का कीड़ा।
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बोटा  : पुं० [सं० वृंत, प्रा० वोण्ट=डाल० लट्ठा] [स्त्री० अल्पा० बोटी] १. लड़की का वह मोटा टुकड़ा जो लंबाई में हाथ दो हाथ से अधिक का न हो। कुंदा। २. किसी चीद का बड़ा टुकड़ा।
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बोटी  : स्त्री० [हिं० बोटा] मांस का छोटा टुकड़ा। विशेषतः ऐसा टुकड़ा जिसमें हड्डी भी हो। मुहा०—बोटी-बोटी काटना=तलवार, छुरी आदि से शरीर को काट कर खंड-खंड करना। (किसी की) बोटी बोटी फड़कना= उद्दंडता, धृष्टता, युवावस्था आदि के कारण शरीर के सभी अंगों का बहुत अधिक चंचल होना। स्त्री०=टिड्डा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोड़  : स्त्री० [देश०] सिर पर पहनने का एक आभूषण। स्त्री०=बौर (वल्ली)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोड़ना  : सं०=डुबाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोंडरी  : स्त्री०=बोड़री।
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बोड़री  : स्त्री० [हिं० बोंडी] तोंदी। नाभि।
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बोड़ल  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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बोंडा  : पुं० [?] बारूद में आग लगाने का पलीता।
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बोड़ा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की पतली लंबी कली जिसकी तरकारी बनती है। लोबिया। बजरबट्टू। पुं० [सं० वोडू] अजगर। (पूरब)
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बोंड़ी  : स्त्री०=बौंड़ी।
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बोड़ी  : स्त्री० [?] १. एक प्रकार का कोमल फली जिसका अचार और तरकारी बनती है। २. कौड़ी। कपर्दिका। ३. बहुत ही थोड़ा धन।
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बोत  : पुं० [देश] घोड़ों की एक जाति। स्त्री० [हिं० बोना] पान की पहले वर्ष की उपज या खेती।
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बोतल  : स्त्री० [अ० बाँट्ल] १. काँच का लंबी गरदन का गहरा बरतन जिसमें द्रव पदार्थ रखा जाता है। शीशी। २. शराब जो प्रायः बोतलों में रहती है। जैसे—उन्हें तो हर वक्त दो बोतल का नशा रहता है। मुहावरा—बोतल चढ़ाना=मद्य या शराब पीना।
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बोतलिया  : वि०=बोतली।
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बोतली  : स्त्री० [हिं० बोतल] छोटी बोतल। वि० साधारण बोतल की तरह का कालापन लिए हरा। पुं० उक्त प्रकार का हरा रंग।
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बोता  : पुं० [सं० पोत] ऊंट का ऐसा बच्चा जिसपर अभी सवारी न होती हो।
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बोंद  : पुं० [?] घास-पात में रहनेवाला एक प्रकार का छोटा कीड़ा।
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बोद  : वि०=बोदा उदाहरण—निसँहें बोद बुद्धि बल भूला।—जायसी।
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बोदक  : स्त्री० [देश] कुसुम या बर्रे की एक जाति जिसमें कांटे नहीं होते और जिसके केवल फूल रँगाई के काम में आते हैं। इसके बीजों से तेल नहीं निकाला जाता।
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बोदर  : स्त्री० [?] पतली छड़ी।
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बोदला  : वि०=बोदा।
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बोदा  : वि० [सं० अबोध] [स्त्री० बोदी] १. जिसकी बुद्धि तीव्र या प्रखर न हो। कम-समझ। २. मट्ठर। सुस्त। ३. जिसमें अधिक दृढ़ता या शक्ति न हो। कमजोर। डरपोक। ५. तुच्छ। निकम्मा।
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बोदापन  : पुं० [हिं० बोदा+पन (प्रत्यय)] बोदे होने की अवस्था या भाव।
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बोद्धव्य  : वि० [सं०√बुध् (जानना)+तव्यत्] १. जानने या ध्यान देने योग्य। २. जाग्रत करने योग्य।
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बोद्धा (दृध्)  : पुं० [सं०√बुध्+तृच्] नैयायिक।
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बोध  : पुं० [सं० बुध्+घञ्] १. किसी के अस्तित्व प्रकार, स्वरूप आदि का होनेवाला मानसिक भान। २. शब्दों के द्वारा होनेवाला किसी चीज या बात का ज्ञान। अर्थ। ३. तसल्ली। धीरज। सान्त्वना।
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बोधक  : वि० [सं०√बुध्+णिच्-ण्वुल्-अक] १. बोध या ज्ञान करानेवाला। जतानेवाला। ज्ञापक। पुं० [सं०] श्रृगार रस के हावों में से एक हाव जिसमें किसी संकेत या क्रिया द्वारा एक-दूसरे को अपना मनोगत भाव जताया जाता है।
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बोधगम्य  : वि० [सं०] (विषय) जिसका बोध हो सके। समझ में आने योग्य।
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बोधन  : पुं० [सं०√बुध्+णिच्+ल्युट—अन] १. बोध या ज्ञान कराने की क्रिया या भाव। ज्ञापन। जताना। २. सोते हुए को जगाना। ३. अग्नि, दीपक आदि प्रज्वलित करना। ४. तेज या प्रबल करना। उद्दीपन। ५. मंत्र आदि सिद्ध करना या जगाना।
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बोधना  : स० [सं० बोधन] १. बोध या ज्ञान कराना। जताना। २. कुछ कह-सुनकर संतुष्ट या शांत कराना। समझाना-बुझाना उदाहरण—मुकता पानिस सरिस स्वच्छ कहिं कछु मन बोधत।—रत्ना। ३. उद्दीप्त या प्रज्वल्लित करना।
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बोधनी  : स्त्री० [सं० बोधन+ङीष्] १. प्रबोधिनी एकादशी। २. पिप्पली।
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बोधव्य  : वि० [सं० बोद्धव्य] १. जिसका बोध प्राप्त किया जा सकता हो या किया जाने को हो। २. जिसे किसी बात का बोध कराया जा सके या कराया जाय।
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बोधि  : पुं० [सं०√बुध्+इन्] १. एक प्रकार की समाधि। २. पीपल का पेड़।
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बोधि तरु  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘बोधिवृक्ष’।
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बोधित  : भू० कृ० [सं०√बुध् (जानना)+णिच्+क्न, गुण, इट्] जिसे बोध हो चुका हो।
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बोधितव्य  : वि० [सं०√बुध्+णिच्+तव्य] जानने योग्य।
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बोधिद्रुम  : पुं० दे० ‘बोधिवृक्ष’।
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बोधिवृक्ष  : पुं० [सं० कर्म० स०] बुद्धगया में पीपल का वह वृक्ष जिसके नीचे बुद्ध को बोध हुआ था।
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बोधिसत्व  : पुं० [सं० उपमि० स०] वह जो बुद्धत्व प्राप्त प्राप्त करने का अधिकारी हो, पर बुद्ध न हो पाता हो। (बौद्ध)
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बोधी (धिन्)  : वि० [सं० बोध+इनि] जाननेवाला।
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बोध्य  : वि० [सं०√बुध् (जानना)+ण्यत्] जानने योग्य।
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बोना  : स० [सं० वपन] १. बीज, पौधे आदि को इस उद्देश्य से जमीन पर स्थापित करना कि वह बढ़े तथा फूले-फले। २. किसी बात का सूत्रपात करना। ३. ऐसा काम करना जिसका फल आगे चलकर दिखाई दे। उदाहरण—कलम बोती है अपने गान।—दिनकर।
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बोनी  : स्त्री० [हिं० बोना] १. बोने की क्रिया या भाव। २. बीज आदि बोने का मौसम।
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बोबा  : पुं० [अनु] [स्त्री० बोबी] १. स्तन। थन। चूँची २. ऐसा छोटा बच्चा जो अभी माता का दूध पीकर रहता हो। ३. घर गृहस्थी का सामान, विशेषतः टूटा-फूटा समान अंगड़-खंगड़। ४. बड़ी गठरी। गट्ठर। वि० निरा मूर्ख। गावदी।
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बोय  : स्त्री० [फा० बू] १. गंध। बास। २. दुर्गंध। बदबू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोर  : पुं० [हिं० बोरना] १. पानी आदि में बोरने अर्थात् डुबाने की क्रिया या भाव। जैसे—दो बोर की रंगाई। २. गोता। डुबकी। क्रि० प्र०—देना। पुं० [सं० वर्तुल] १. चाँदी या सोने का बना हुआ गोल और कँगूरेदार घुँघरू जो आभूषणों में गूँथा जाता है। जैसे—पाजेब के बोर। २. सिर पर पहनने का एक गहना जिसमें मीनाकारी का काम होता है। इसे बीजू भी कहते हैं। पुं० [?] १. गड्ढा। २. आहार। भोजन। (पूरब) २. घमंड। दर्प। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोरका  : पुं० [हिं० बोरना] १. मि्टटी की वह दवात जिसमें लड़के घड़िया घोलकर रखते हैं। २. दवात। पुं०=बुरका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोरना  : स० [हिं० बूड़ना] १. जल या किसी तरल पदार्थ मे निमग्न करना। डुबाना। २. अच्छी तरह से तर करना। भिगोना। ३. बुरी तरह से चौपट या नष्ट करना। जैसे—कुल का नाम बोरना। ४. किसी चीज या बात में पूरी तरह से युक्त करना। उदाहरण—कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।—तुलसी।
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बोरसी  : स्त्री० [हिं० गोरसी] मिट्टी का बरतन जिसमें आग रखकर जलाते हैं। अँगीठी।
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बोरा  : पुं० [सं० पुर=दोना या पत्र] [स्त्री० अल्पा० बोरी] १. टाट का बना हुआ थैला जिसमें अनाज आदि कहीं ले जाने के लिए रखते हैं। पुं० [सं० वर्तुल] घुँघरू (दे० ‘बोर’)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोराबंदी  : स्त्री० [हिं० बोरा+बंद (करना)] १. अनाज बोरों आदि में भरकर बन्द करने का काम। २. अनाज आदि की बिक्री का वह प्रकार जिसमें पूरे और भरे हुए बोरे ही बेचे जाते हैं, खोलकर फुटकर रूप में नहीं।
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बोरिका  : पुं०=बोरका।
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बोरिया  : पुं० [फा०] १. चटाई। २. बिस्तर। बिछौना। पद—बोरिया-बंधन=घर गृहस्थी का बहुत थोड़ा सा सामान। मुहावरा—(कहीं से) बोरिया या बोरिया-बंधना उठाना= चलने की तैयारी करना। प्रस्थान करना। स्त्री० बोरी छोटा बोरा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोरी  : स्त्री० [हिं० बोरा] टाट की छोटी थैली। छोटा बोरा।
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बोरी  : स्त्री० [सं० बोरव] एक प्रकारका मोटा धान जो नदी के किनारे की सीड़ में बोया जाता है।
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बोरी-बाँस  : पुं० [देश० बोरो+हिं० बाँस] एक प्रकार का बाँस जो पूर्वी बंगाल में होता है।
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बोर्जुआ  : पुं० [जर०] मध्यवर्ग का ऐसा व्यक्ति जो पुरानी प्रथाएँ मानता हो और अपने आपको निम्नवर्ग की तुलना में बहुत प्रतिष्ठित समझता हो तथा लोभी और स्वार्थी हो।
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बोर्ड  : पुं० [अं०] १. किसी स्थायी कार्य के लिए बनी हुई समिति। जैसे—म्युनिसिपिल बोर्ड। २. माल के मामलों के फैसले या प्रबन्ध के लिए बनी हुई समिति या कमेटी। ३. कागज की मोटी दफ्ती। गत्ता।
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बोल  : पुं० [हिं० बोलना] १. बोलने पर मनुष्य के मुख से निकला हुआ सार्थक पद, वाक्य या शब्द। वाणी। क्रि० प्र०—बोलना। मुहावरा—दो बोल पढ़वाना=धार्मिक दृष्टि से कुछ मंत्रों आदि का उच्चारण कराते हुए साधारण रूप से लड़की का विवाह करा देना। जैसे—कोई अच्छा लड़का मिले तो मैं भी इसके दो बोल पढ़वाकर छुट्टी पाऊँ। (किसी के कान में) बोल मारना=किसी को कोई बात अच्छी तरह सुना और समझा देना। जैसे—तुम तो उनके कान में बोल मार ही आये हो, वे अब मेरी बातें क्यों सुनने लगे। २. कही हुई बात। उक्ति। कथन। वचन। जैसे—तुम्हारी बात का भी कोई मोल है। (अर्थात् तुम्हारी बात का कोई विश्वास नहीं)। उदाहरण—(क) सुन रे ढोल बहू के बोल।—कहा०। (ख) परदेशी दूर का मुख के बोल सँभाव।—लोक गीत। ३. किसी की कही हुई बात का ऐसा भाव या महत्त्व जो उसकी प्रमाणिकता, शक्तिमत्ता आदि का सूचक होता है। उदाहरण—पंचन में मेरी पत रहे, सखियन में रहे बोल। साई से साँची रहूँ बाज बाज रे ढोल।—लोकगीत। पद—बोल-बाला=हर जगह होने वाली प्रतिष्ठा या सम्मान। जैसे—सच्चे का बोल बोलबाला झूठे का मुँह काला।—कहा०। मुहावरा—(किसी का) बोल बाला रहना=(क) बात की खास बनी रहना। (ख) ऐसी प्रतिष्ठा या मर्यादा बनी रहना कि हर जगह जीत और मान हो। जैसे—सरकार का सदा बोलबाला रहे। बोल बाला होना=प्रताप, भाग्य मान-मर्यादा यश आदि की वृद्धि होना। (किसी का) बोल रहना=मान मर्यादा या साख बनी रहना। ३. चुभती या लगती हुई अथवा व्यंग्य पूर्ण उक्ति। ताना। बोली। क्रि० प्र०—सुनाना। मुहावरा—बोलमारना=व्यपूर्ण बात कहना। उदाहरण—ननदिया री काहे मारे बोल।-गीत। ४. अदद या संख्या सूचक शब्द। जैसे—सौ बोल लडडू आये थे सो चार-चार सब को बाँट दिये। (स्त्रियाँ)। ५. वे शब्द जिनंमें गीत का कोई चरण या पद बना हो। जैसे—इस गीत के बोलहैं-बाँसुरिया कैसी बजाई श्याम। मुहावरा—बोल बनाना=संगीत में गाने के समय किसी गीत के एक-एक शब्द का कई बार अलग-अलग तरह से बहुत ही कोमल और सुन्दरता पूर्वक नये-नये रूपों में उच्चारम करना। ६. संगीत में बाजों से निकलनेवाली अलग-अलग ध्वनियों के वे गठे या बँधे हुए शाब्दिक रूप जो विद्यार्थियों को सुगमतापूर्वक सिखाने आदि के लिए कल्पित कर लिये गये हैं। जैसे—तबले के बोल धा धा धिन ता और सितार के बोल दा दा दि दारा आदि। पुं० [देश] एक प्रकार का सुगंधित गोंद जो स्वाद में कड़ुवा होता है।
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बोल-चाल  : स्त्री० [हिं० बोलना+चालना] १. मिलने-चुलने या साथ रहनेवाले लोगों में होनेवाली बात-चीत। वार्तालाप। जैसे—आज-कल उन दोनों में बोल-चाल बंद हैं। २. वह संबंध-सूचक अवस्था या स्थिति जिसमें परस्पर उक्त प्रकार की बात-चीत होती है। ३. बात-चीत करने का ढंग या प्रकार। जैसे—बोल-चाल से तो वे पंजाबी ही जान पड़ते हैं। ४. साहित्यिक क्षेत्र में मुहावरों से भिन्न वे विशिष्ट गढ़े हुए पद जिनका प्रयोग कुछ निश्चित प्रचलित अर्थ में ही होता है। जैसे—(क) मुझे डर है कि कहीं कुछ उन्नीस-बीस (अर्थात् कोई सामान्य अनिष्ट कारक बात) न हो जाय। (ख) वे घर बार छोड़कर त्यागी हो गये। (ग) उन लोगों में खूब तू तू मैं मैं हुई। (घ) आज-कल तो उन दोनों में साहब-सलामत भी बन्द हैं। उक्त वाक्यों में उन्नीस-बीस घर-बार, तू-तू मैं मैं और साहब-सलामत पर बोल-चाल के हैं। विशेष—ऐसे अवसरों पर उन्नीस-बीस की जगह बीस-इक्कीस घर-बार की जगह मकान-बार, तू-तू मैं-मैं की जगह हम तुम तुम-तुम और साहब सलामत की जगह जनाब-सलामत या साहब-खैरियत सरीखे पदों का प्रयोग नहीं हो सकता। उर्दू में इसी को ‘रोजमर्रा’ कहते हैं।
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बोल-तान  : स्त्री० [हिं०] संगीत में ऐसी तान जिसमें विशुद्ध स्वरों के स्थान पर उनके नामों के संक्षिप्त रूपों का उच्चारण होता हो। सरगम से युक्ततान।
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बोलक  : पुं० [देश] जल-भ्रमर। (डिं०)
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बोलचाली  : स्त्री०=बोलचाल।
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बोलता  : पुं० [हिं० बोलना] १. ज्ञान कराने और बोलनेवाला तत्त्व अर्थात् आत्मा। उदाहरण—बोलते को जान ले पहचान ले० बोलता जो कुछ कहे सो मान ले। २. जीवनी शक्ति या प्राण। ३. सार्थक बातें कहनेवाला प्राणी, अर्थात् मनुष्य। ४. हुक्का। वि० १. बोलनेवाला। जैसे—बोलता सिनेमा। २. बोल-चाल में चतुर। वाक-पटु। ३. बहुत बोलनेवाला। बकवादी।
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बोलती  : स्त्री० [हिं० बोलना] बोलने की शक्ति। वाक। वाणी। २. बोलने मे अत्यधिक पटु, जीभ। मुहावरा—बोलती बंद होना या मारी जाना=बहुत अधिक बड़बड़ करना बंद होना। जैसे—मुझे देखते ही उनकी बोली बंद हो गई।
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बोलनहार  : वि० [हिं० बोलना+हार (प्रत्यय)] बोलनावाला। पुं० आत्मा जिससे बोलने की शक्ति प्राप्त होती है।
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बोलना  : अ० [सं० वल्ल, प्रा० बोल्ल] १. शब्द ध्वनि आदि का साधारण स्वर में (गाने, चिल्लाने आदि से भिन्न) उच्चरित करना। जैसे—किसी की जय या जयजयकार बोलना। मुहावरा—बोल उठना=एकाएक कुछ कहने लगना। मुँह से सहसा कोई बात निकाल देना। जैसे—बीच में तुम क्यों बोल उठे। २. शब्दों द्वारा कहकर अपना विचार प्रकट करना। जैसे—झूठ बोलने में उन्हें लज्जा नहीं आती। ३. किसी से बात-चीत करना और इस प्रकार उससे आपसदारी का संबंध बनाये रखना। जैसे—उनके क्षमा मांगने पर ही मैं उनसे बोलूँगा। पद—बोलना चालना=परस्पर बातचीत करना। ३. किसी का नाम आदि लेकर इसलिए चिल्लाना जिसमें वह सुन सके। उदाहरण—ग्वाल सखा ऊंचे चढ़ि बोलत बार-बार लै नाम।—सूर। मुहावरा—(किसी को) बोल पठाना=किसीके द्वारा बुलवाया या बुला भेजना। ५. किसी प्रकार की छेड़छाड़ या रोक-टोक करना । किसी रूप में बाधक होना। जैसे—तुम चुप-चाप चले जाओ। कोई कुछ नहीं बोलेगा। ६. वस्तुओं के संबंध में उनका किसी प्रकार का शब्द करना। जैसे—सिक्के का टनटन बोलना। ७. किसी चीज का विशेष रूप से अपनी उपस्थिति जतलाना। जैसे—खीर में केसर बोल रहा है। ८. इतना जीर्ण-शीर्ण होना कि काम में आ सकने योग्य न रह जाय। संयों०, क्रि०—जाना। मुहावरा—(व्यक्ति का) बोल जाना=(क)मर जाना। संसार में न रह जाना। (बाजारू) (ख) किसी के सामने बिलकुल दब या हार जाना। (ग) दिवालिया हो जाना। जैसे—सट्टे में बड़े-बड़े धनी बोल जाते हैं। (पदार्थ का) बोल जाना=(क) निशेष या समाप्त हो जाना। बाकी न रह जाना। चुक जाना। (ख) इतना निकम्मा पुराना या रद्दी हो जाना कि उपयोग में आने योग्य न रह गया हो। जैसे—यह कुरता तो अब बोल गया है। स० १. मन्नत पूरी होने पर भक्तिपूर्वक कुछ करने की प्रतिज्ञा करना। जैसे—एक रुपए का प्रसाद बोलो तो तुम्हारी कामना पूरी हो। २. आवाज देकर पास बुलाना। उदाहरण—मुनिवर निकट बोलि बैठाये।—तुलसी। संयो० क्रि०—पठाना। ३. आज्ञा, या आदेश देकर किसी को किसी काम के लिए नियुक्त करना। जैसे—आज पहरे पर उसकी नौकरी बोली गई है।
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बोलपट  : पुं० [हिं० बोलना+मरा० पट] वह चलचित्र जिसमें पात्रों को कथोपकथन गीत आदि सुनाई पड़ते हों। (टॉकी)
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बोलबाला  : पुं० [हिं० बोल+फा० बाला=ऊँचा] १. वचन या बात जिसे सर्वोपरि महत्त्व प्राप्त होता हो। २. ऐसा स्थिति जिसमे किसी विशिष्ट व्यक्ति की बात को सबसे अधिक आदर मिलता या प्राप्त होता हो।
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बोलवाना  : स० [हिं० बोलना का प्रे०] १. किसी को बोलने में प्रवृत्त करना। २. उच्चारण कराना। जैसे—पहाड़े बोलवाना। स० [हिं० बुलाना] बुलवाना।
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बोलसर  : स्त्री०=मौलसिरी। पुं० [?] एक प्रकार का घोड़ा।
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बोलाना  : स०=बुलाना।
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बोलावा  : पुं०=बुलावा।
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बोलांस  : पुं० [हिं० बोला+अंश] वह अंश जिसे किसी को देने का वचन दिया गया हो।
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बोली  : स्त्री० [हिं० बोलना] १. बोलने की क्रिया या भाव। २. किसी प्रकार के प्राणी केमुँह से निकला हुआ शब्द। मुँह से निकली हुई आवाज या बात। वाणी। जैसे—जानवरों या बच्चों की बोली। ३. ऐसी बात या वाक्य जिसका कुछ विशिष्ट अर्थ या अभिप्राय हो। ४. किसी भाषा की वह शाखा जो किसी छोटे क्षेत्र या वर्ग में बोली जाती हो। स्थानिक भाषा। विभाषा। जैसे—अवधी, मैथिली, ब्रज आदि की गिनती आधुनिक हिन्दी की बोलियों में ही होती है। क्रि० प्र०—बोलना। ५. विशिष्ट अर्थवाली कोई ऐसी उक्ति या कथन जिसमे किसी को चिढाने या लज्जित करने के लिए कोई कूट या गूढ़ व्यंग्य मिलता हो। पद—बोली ठोली (देखें)। मुहावरा—बोली या बोली ठोली छोड़ना, बोलना या मारना= किसी को चिढ़ाने के लिए व्यंग्यपूर्ण बात कहना। ६. नीलाम के द्वारा चीजों के बिकने का वह दाम जोकोई खरीदकर अपनी ओरसे लगाता है। जैसे—उस मकान पर हमारी भी पाँच हजार रुपयों की बोली हुई थी। क्रि० प्र०—बोलना।
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बोली ठोली  : स्त्री० [हिं० बोली+अनु० ठोली] ताने या व्यंग्य से भरी हुई बात। बोली (देखें)। क्रि० प्र०—छोड़ना।—बोलना।—मारना।—सुनाना।
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बोलीदार  : पुं० [हिं० बोली+फा० दार] वह असामी जिसे जोतने के लिए खेत यों ही जबानी कहकर दिया जाय, कोई लिखा-पढ़ी न की जाय।
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बोल्लक  : पुं० [सं० बोल्ल+कन्] वह जो बहुत बोलता हो।
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बोल्लाह  : पुं० [देश] घोडों की एक जाति।
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बोल्शेविक  : पुं० [रूसी] रूस की बोल्शेविक दल, आधुनिक कम्युनिष्ट दल का सदस्य।
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बोल्शेविकी  : पुं० [रूसी] मार्क्सवाद के सिद्धांतों का समर्थक एक रूसी राजनतिज्ञ दल जिसका नाम सन् १९१८ से कम्युनिस्ट पार्टी हो गया है।
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बोल्शोविज्म  : पुं० [रूसी] मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुसार शासन व्यवस्था अपनाने का वह विचार या सिद्धान्त जिसमें राष्ट्र की सारी प्रजा और संपत्ति पर शासन का पूरा-पूरा अधिकार होता है।
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बोवना  : स०=बोना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोवाई  : स्त्री०=बोआई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोवाना  : स० [हिं० बोना का प्रे०] बोने का काम दूसरे से कराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोह  : स्त्री० [हिं० बोर, या सं० वाह] डुबकी। गोता। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।—लेना।
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बोहड़  : पुं०=बड़ (बरगद)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोहथ्थ  : पुं०=बोहित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बोहना  : अ० [हिं० बोह] डुबकी लगाना। स० [सं० वयन, हिं० बोना का पु० रूप] उत्पन्न करना। पैदा करना। उदाहरण—फटिक सिला के बाद बिसाल मन बिस्मय बोहत।—रत्ना०।
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बोहनी  : स्त्री० [सं० बोधन=जगाना] १. दुकान खुलने अथवा दुकाने पर दीया जलाने पर या फेरीवालें की होनेवाली पहली बिक्री। २. उक्त बिक्री से प्राप्त हुआ धन। ३. लाक्षणिक अर्थ में कोई काम आरंभ करते ही होनेवाली प्राप्ति या सफलता।
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बोहनी बटा  : पुं० [हिं०] किसी चीज की पहले-पहल होनेवाली बिक्री और उससे मिलनेवाला धन।
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बोहरा  : पुं० [हिं० व्यवहारिया=व्यापारी] १. गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों में रहनेवाले एक प्रकार के मुसलमान जो बहुधा व्यापार करते हैं। २. रोजगारी। व्यापारी।
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बोहारना  : स०=बुहारना।
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बोहारी  : स्त्री०=बुहारी (झाड़ू)।
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बोहित  : पुं० [सं० वोहित्य] १. नाव। २. जहाज़।
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बोहित्थ  : पुं०=बोहित (जहाज)।
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बोहिया  : स्त्री० [देश] एक तरह की काली पत्तीवाली चाय।
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बोहियाना  : स०=बहाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौआना  : अ० [सं० वायु, हिं० वाउ+आना (प्रत्यय)] १. सपने में निरर्थक बातें कहना। स्वप्नावस्था में प्रलाप करना। २. पागलों की तरह व्यर्थ की बातें बकना। बड़बड़ाना।
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बौखल  : वि० [हिं० बौखलाना] १. बौखलाया हुआ। २. पागल। सनकी।
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बौखलाना  : अ० [हि० वाउ+सं० स्खलन] १. आवेश या क्रोध में आकर अंड-बंड बकना। २. होश-हवास में न रहकर पागलों का-सा आचरण या व्यवहार करना।
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बौखा  : स्त्री० [सं० वायु+स्खलन] हवा का तेज झोंका जो वेग में आँधी से कुछ हलका होता है।
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बौंगा  : पुं० [अनु०] बेवकूफ। मूर्ख। पुं०=चोंगा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौछाड़  : स्त्री०=बौछार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौछार  : स्त्री० [सं० वायु+क्षण] १. वायु के झोंके से वर्षा की तिरछी आती हुई बूँदों का समूह। बूँदों की झड़ी जो हवा के झोंके से तिरछी गिरती हो। झटास। क्रि० प्र०—आना—। पड़ना। २. उक्त प्रकार या रूप से होनेवाला बहुत सी चीजों का पात। जैसे—गोलियों या ढेलों की बौछार। ३. बहुत अधिक संख्या में लगातार किसी वस्तु का उपस्थित किया जाना। बहुत-सा देते जाना या सामने रखा जाना। झड़ी। जैसे—लड़के के ब्याह में उसने रुपयों की बौछार कर दी। ४. किसी के प्रति लगातार कही जानेवाली व्यंग्यपूर्ण या लगती हुई बातों की झड़ी। आक्षेप से युक्त करके कही जानेवाली बातें। जैसे—उनके भाषण में आधुनिक राजनीति नेताओं पर खूब बौछार थी। क्रि० प्र०—छूटना। छोड़ना।—पड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौंड़  : स्त्री० [सं० वोण्ट=वृत्त, टहनी] १. वृक्ष की वह टहनी जो दूर तक डोरी के रूप में गई हो। २. बेल। लता।
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बौंड़ना  : अ० [हिं० बौंड़] १. लता की भाँति बढ़ना। २. टहनी का बढ़कर फैलना।
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बौंड़ना  : अ०=बौरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौंडम  : पुं० [?] पागल। सनकी।
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बौंडर  : पुं०=बवंडर।
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बौंड़हा  : वि० [सं० वातुल, हिं० वाउर+हा(प्रत्यय)] [स्त्री० बौंड़ही] बावला। पागल।
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बौंड़ी  : स्त्री० [हिं० बौंड़] १. पौधों या लताओं के वे कच्चे फल जो सार रहित होते है। डोडा। जैसे—मदार या सेमल के बौंड़ी। २. छीमी। फली।
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बौंड़ी  : स्त्री० [?] १. जमीन की एक नाप। २. कौंड़ी का बीसवाँ भाग।
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बौद्ध  : वि० [सं० बुद्ध+अण्] १. बुद्ध-संबंधी। २. बुद्ध द्वारा प्रचारित। जैसे—बौद्ध मत। ३. गौतम बुद्ध के धर्म का अनुयायी।
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बौद्ध-धर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] बुद्ध द्वारा प्रवर्तित धर्म।
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बौद्धिक  : वि० [सं० बुद्ध या बुद्धि+ठक्-इक] १. बुद्धि संबंधी। बुद्धि का। २. बुद्धि द्वारा ग्रहण किये जाने के योग्य। (इन्टलेकचुअल)
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बौध  : पुं० [सं० बुध+अण्] बुध का वृक्ष। पुरूरवा।
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बौना  : पुं० [सं० वामन] [स्त्री० बौनी] बहुत ही छोटे कद का आदमी।
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बौनी  : स्त्री०=बोनी (बोआई)।
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बौर  : पुं० [सं० मुकुल, प्रा० मुउड़] आण की मंजरी। मौर। वि० दे० ‘बौरा’ (पागल)।
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बौरई  : स्त्री० [हिं० बौराना] पागलपन। सनक।
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बौरना  : अ० [हिं० बौर+ना (प्रत्यय)] बौर से युक्त होना।
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बौरहा  : वि० [हिं० बौरा+हा (प्रत्यय)] [स्त्री० बौरही] पागल। विक्षिप्त।
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बौरा  : वि० [सं० वातुल, प्रा० वाउड़, पुं० सि० बाउर] [स्त्री० बौरी] १. बावला। पागल। विक्षिप्त। २. भोला-भाला। सीधा-सादा। ३. गूँगा। (क्व०)।
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बौराई  : स्त्री० [हिं० बौरा+ई] बावलापन। पागलपन।
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बौराना  : अ० [हिं० बौरा+ना (प्रत्यय)] १. पागल हो जाना। सनक जाना० विक्षिप्त हो जाना। २. विवेक आदि से रहित होकर उन्मत्त होना। स० १. किसी को बावला या पागल बनाना। २. बेवकूफ बनाना। अ०=बौरना।
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बौराह  : वि० [हिं० बौरा] बावला। पागल। सनकी।
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बौरी  : स्त्री०=बावली। वि० हिं० ‘बौरा’ का स्त्री।
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बौलड़ा  : पुं० [हिं० बहु+लड़] सिकड़ी के आकार का सिर पर पहनने का एक गहना।
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बौलसिरी  : स्त्री०=मौलसिरी।
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बौलाना  : अ० स०=बौराना।
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बौसाना  : अ० [सं० वस्=रहना] १. भोग-विलास करते हुए आनन्द लेना। २. उन्नति करना। बढ़ना।
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बौसिक  : पुं०=बोहित (जहाज)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौहर  : स्त्री०=बहू (वधू)। पुं०=व्यवहार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौहरगत  : स्त्री० [सं० व्यवहार=लेन-देन+गत] सूद पर रुपए उधार देने का व्यवसाय। (व्रज)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बौहरा  : पुं० [हिं० व्यवहरिया] कर्ज देनेवाला महाजन। साहूकार। ब्यवहारिया।
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ब्यक्ति  : पुं०=व्यक्ति।
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ब्यंग्य  : पुं०=व्यंग्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यंजन  : पुं०=व्यंजन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यजन  : पुं०=व्यजन।
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ब्यतीतना  : स० [सं० व्यतीत+हिं० ना (प्रत्यय)] व्यतीत होना। गुजरना। बीतना।
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ब्यथा  : स्त्री०=व्यथा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यथित  : वि०=व्यथित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यलीक  : वि०=व्यलीक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यवसाय  : पुं०=व्यवसाय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यवस्था  : स्त्री०=व्यवस्था। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यवहरिया  : पुं० [हिं० व्यवहार] वह महाजन जो सूद पर रुपए उधार देता हो।
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ब्यवहार  : पुं० [सं० व्यवहार] १. सूद पर रुपयों का किया जानेवाला लेन-देन। महाजनी। २. उक्त प्रकार के लेन-देन का लगाव या सम्बन्ध। ३. आपस में होनेवाला आत्मीयता का बरताव। व्यवहार। ४. दे० ‘व्यवहार’।
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ब्यवहारी  : पुं० [सं० व्यवहार] १. व्यवहारिता। २. महाजनी सूद पर रुपए उधार देने का काम। ३. वह जिसके साथ मैत्री संबंध हो।
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ब्यसन  : पुं०=व्यसन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यसनी  : पुं०=व्यसनी।
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ब्याज  : पुं० [सं० ब्याज] १. वह धन जो ऋण लेनेवाले को मूल धन के अतिरिक्त देना पड़ता है। उधार दिये हुए रुपयों का सूद। वृद्धि। क्रि० प्र०—जोड़ना।—फैलाना।—लगाना। २. दे० ‘ब्याज’।
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ब्याज खोर  : पुं० [हिं० ब्याज+फा० खोर] वह जो सूद पर रुपया कर्ज दे। ब्याद की कमाई खानेवाला।
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ब्याजू  : वि० [हिं० ब्याज] १. ब्याज संबंधी। २. ब्याज अर्थात् सूद पर लगाया हुआ। (धन)।
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ब्याध  : पुं०=व्याध। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्याधा  : स्त्री०=व्याधि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्याधि  : स्त्री०=व्याधि।
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ब्यान  : पुं० [हिं० ब्याना] मादा पशुओं के संबंध में, प्रसव करने की क्रिया या भवा। पुं०=बयान (वर्णन)।
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ब्याना  : स० [सं० बीज, हिं० बिया+ना (प्रत्यय)] मादा पशुओं का सन्तान प्रसव करना। बच्चा जनना। अ० मादा पशुओं में सन्तान का प्रसव होना। अ०=ब्याहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यापक  : वि०=व्यापक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यापना  : अ० [सं० व्यापन] १. किसी वस्तु या स्थान में इस प्रकार फैलना कि उसका कोई अंश बाकी न रह जाय। किसी स्थान मे पूरी तरह भर जाना। व्याप्त होना। जैसे—कलियुग का घर-घर ब्यापना। २. चारों ओर से घिरना। ३. इस प्रकार ग्रस्त होना कि किसी दूसरी चीज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे। जैसे—शरीर में गरमी ब्यापना। ४. मन में किसी बात की अनुभूति या ज्ञान होना। उदाहरण—यह सभा मोंहि निस दिन ब्यापै। कोई न कह सुमुझावै।—कबीर। संयो० क्रि०—जाना।
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ब्यापार  : पुं०=व्यापार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यापारी  : पुं०=व्यापारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्यार  : स्त्री०=बयार (हवा)।
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ब्यारी  : स्त्री० [सं० विहार]=ब्यालू (रात का भोजन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्याल  : पुं० [स्त्री० ब्याली]=ब्याल (साँप)। पुं०=व्यालि (शिव)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्याला  : स्त्री०=ब्यालू।
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ब्यालू  : पुं० [सं० विहार] संध्या समय किया जानेवाला भोजन।
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ब्याव  : पुं० १.=ब्याह। २.=ब्यान। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्याह  : पुं० [सं० विवाह] देश, काल और जाति के नियम और प्रथा के अनुसार वह रीति या रस्म जिससे स्त्री और पुरुष में पति-पत्नी का संबंध स्थापित होता है। पाणि-ग्रहण। विवाह। मुहावरा—ब्याह रचाना=विवाह सम्बन्धी उत्सव तथा कृत्य की व्यवस्था करना।
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ब्याहता  : वि० [सं० विवाहिता] (स्त्री) जो ब्याह कर लाई गई हो। रखेली से भिन्न। पुं० स्त्री का विवाहित पति।
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ब्याहना  : स० [सं० विवाह+ना (प्रत्यय)] [वि० ब्याहता] विवाह का सम्बन्ध स्थापित करना। ब्याह करना। जैसे—किसी की लड़की के साथ अपना लड़का ब्याहना। क्रि० प्र०—डालना।—देना।
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ब्योंगा  : पुं० [देश] राँपी की तरह का लकड़ी का एक औजार जिससे चमार चमड़ा रगड़कर सुलझाते या सीधा करते हैं।
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ब्योंचना  : अ० [सं० विकुंचन, प्रा० विउंचन] नस का अपना स्थान से हट-बढ़ या खिसक जाना जिसके फलस्वरूप अंग या अंगों में पीड़ा और सूजन होने लगती है। क्रि० प्र०—जाना।
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ब्योंची  : स्त्री० [हिं० ब्योंचना] उलटी। कै। वमन।
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ब्योंत  : स्त्री० [हिं० ब्योंतना] १. ब्योतने की क्रिया, ढंग भाव या व्यवस्था। जैसे—कपड़े की ब्योंत, काम की ब्योंत। पद—कपर-ब्योंत। क्रि० प्र० करना।—बैठना।—बैठाना। मुहावरा—ब्योंत खाना=शक्ति साधना सामग्री आदि के विचार से ऐसी अवस्ता या स्थिति होना जिससे काम ठीक तरह से और पूरा हो सके। जैसे—जहाँ तक ब्योंत खाये वहीं तक कोई काम (या खर्च) करना चाहिए। ब्योंत फैलना=ब्योंत खाना। २. पहनने के कपड़े बनाने के लिए कपड़े को काट-छाँटकर और जोड़ या सीकर तैयार करने की क्रिया या भाव। जैसे—इस कपड़ें में कुरते और टोपी की ब्योंत नहीं बैठती। क्रि० प्र०—बैठना।—बैठाना। ३. पहनने के कपड़ों की काट-छाँट का ढंग। तराश। जैसे—इस बार किसी और ब्योंत की कमीज सिलवानी। चाहिए। ४. कार्य-साधन की उपयुक्त प्रणाली। ढंग। तरीका। विधि। ५. उपाय। तरकीब। युक्ति। क्रि० प्र०—निकलना।—बनना।—बनाना।—बैठना।—बैठाना। ६. किसी काम या बात का आयोजन या उपक्रम। तैयारी। ७. इन्तजाम। प्रबंध। व्यवस्था। क्रि० प्र०—बाँधना। ८. कोई काम या बात होने का अवसर या संयोग। नौबत। ९. विस्तृत विवरण। ब्योरा। हाल। उदाहरण—बलि बामन को ब्योंत सुनि को बलि तुमहिं पत्याय।—बिहारी।
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ब्योतना  : स० [?] १. कपड़ों की युक्ति पूर्वक काटने और सीने की क्रिया या भाव। २. मारना० पीटना। ३. मार डालना। (बाजारू)।
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ब्योंताना  : स० [हिं० ब्योतना का प्रे०] दरजी के नाप के अनुसार कपड़ा काटना।
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ब्योपार  : पुं०=व्यापार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्योपारी  : पुं०=व्यापारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्योरन  : स्त्री० [हिं० ब्योरना] १. ब्योरने अर्थात् सुलझाने, सँवारने की क्रिया या ढंग। २. विवरण या ब्योरे से युक्त कही जानेवाली बात। ३. दे० ‘ब्योरा’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्योरना  : स० [सं० विवरण] १. ब्योरेवार कोई बात बतलाना। २. उलझे हुए बालों या सूतो को सुलझाना। अ० (किसी बात के सब अंगों पर) अच्छी तरह विचार करना। सोचना-समझना।
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ब्योरा  : पुं० [हिं० ब्योरना] १. किसी घटना के अन्तर्गत एक-एक बात का उल्लेख या कथन। विवरण से युक्त कथन या वर्णन। विस्तृत वृत्तांत। तफसील। २. बीच में पड़ने या होनेवाली कोई ऐसी बात जो अपनी समझ मे न आती हो। उदाहरण—बेई कर ब्यौरनि वहै ब्योरो कौन विचार।—बिहारी। पद—ब्योरेवार। २. किसी विषय के अंग-प्रत्यंग के संबंध रखनेवाली भीतर की सारी बातें। किसी बात को पूरा करनेवाला एक-एक खंड। जैसे—जो बड़ी-बड़ी रकमें खर्च हुई है, उनका ब्योरा भी आना चाहिए। ३. पूरा वृत्तांत। सारा हाल।
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ब्योरेबाज  : वि० [हिं०+फा] [भाव० ब्योरेबाजी] १. युक्तिपूर्वक काम करनेवाला। २. धूर्त। चालाक।
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ब्योरेबाजी  : स्त्री० [हिं०+फा] चालाकी। धूर्तता।
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ब्योरेवार  : वि० [हिं० ब्योरा+वार (प्रत्यय)] एक-एक बात के उल्लेख के साथ। विस्तार के साथ। विवरण-युक्त।
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ब्योसाय  : पुं०=व्यवसाय।
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ब्योहर  : पुं०=व्यवहार। स०=व्यवहारना।
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ब्योहरा  : पुं०=ब्यवहरिया।
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ब्योहरिया  : पुं०=व्यवहरिया।
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ब्योहार  : पुं०=व्यवहार।
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ब्यौहर  : पुं०=ब्योहर।
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ब्यौहरिया  : पुं०=ब्यवहरिया।
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ब्यौहार  : पुं०=व्यवहार।
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ब्रज  : पुं०=व्रज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्रजना  : अ० [सं० व्रजन] गमन करना। चलना।
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ब्रजबादिनी  : स्त्री० [सं० ब्रजवादिनी] एक प्रकार का आम जिसका पेड़ लता के रूप में होता है। पुं० उक्त पेड़ का फल।
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ब्रंद  : पुं०=वृन्द (समूह)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्रध्न  : पुं० [सं०√बन्ध (बाँधना)+नक्, ब्रधादेय] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. शिव। ४. दिन। दिवस। ५. घोड़ा। ६. वृक्ष की जड़। ७. एक प्रकार का रोग।
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ब्रनंन  : पुं० दे० ‘वर्णन’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्रन्न  : पुं० १.=वर्ण। २.=व्रण।
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ब्रश  : पुं० [अ०] बुरुश।
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ब्रह्म (न्)  : पुं० [सं०√बृंह+मनिन, नकारस्य, अकार, रत्वम्] १. वेदांत दर्शन के अनुसार वह एक मात्र चेतन, नित्य और मूल सत्ता जो अखंड अनंत, अनादि, निर्गुण और सत् तथा आनंद से युक्त कही गई हैं। विशेष—साधारणतः यही सत्ता सारे विश्व का मूल कारण मानी जाती है। परन्तु अधिक गंभीर दार्शनिक दृष्टि से यह माना जाता है कि यही जगत का निमित्त भी है और उपादान भी। इसी आधार पर यह जगत उस ब्रह्म का विवर्त (देखें) मात्र माना जाता है, और कहा जाता है कि ब्रह्म ही सत्य है, और बाकी सब मिथ्या या उसका आभास मात्र है। प्रत्येक तत्त्व और प्रत्येक वस्तु के कण-कण में ब्रह्म की व्याप्ति मानी जाती है, और कहा जाता है कि अंत या नाश होने पर सबका इसी ब्रह्म में लय होता है। २. ईश्वर। परमात्मा। ३. उक्त के आधार पर एक की संस्था का सूचक पद। ४. अन्तरात्मा। विवेक। जैसे—हमारा ब्रह्म वहाँ जाने को नहीं कहता। ५. ब्राह्मण (विशेषतः समस्त पदों के आरंब में) जैसे—ब्रह्मद्रोही, ब्रह्महत्या। ६. ब्रह्मा का वह रूप जो उसे समस्त पदों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—ब्रह्म-कन्यका। ७. ऐसा ब्राह्मण जो मर कर प्रेत हो गया हो। ब्रह्म-राक्षस। मुहावरा—(किसी को) ब्रह्म लगना=किसी पर ब्राह्मण प्रेत का आविर्भाव होना। ब्राह्मण प्रेत से अभिभूत होना। ८. वेद। ९. फलित ज्योतिष में २७ योगों में से २४वाँ योग जो सब कार्यों के लिए शुभ कहा गया है। १॰. संगीत में ताल के चार मुख्य भेदों में से एक।
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ब्रह्म-कन्यका  : स्त्री० [सं०] १. ब्रह्मा की कन्या सरस्वती। २. ब्राह्मी नाम की बूटी।
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ब्रह्म-कल्प  : वि० [सं० ब्रह्मन्+कल्पन्] जो ब्रह्म के समान हो। ब्रह्म तुल्य। पुं० [ष० त०] उतना काल या समय जितने में एक ब्रह्म का अस्तित्व रहता और कार्य होता है।
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ब्रह्म-काष्ठ  : पुं० [सं० मध्य० स०] तूत का पेड़। शहतूत।
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ब्रह्म-गति  : स्त्री० [सं० स० त०] १. मरने पर ब्रह्म में विलीन होने की अवस्था, अर्थात् मुक्ति। २. प्रायः साधु-संन्यासियों के संबंध में उनके देहावसान या मृत्यु का वाचक पद।
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ब्रह्म-ग्रंथि  : स्त्री० [सं० ष० त०] यज्ञोपवीत या जनेऊ के डोरे में लगाई जानेवाली मुख्य गाँठ। ब्रह्मगाँठ।
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ब्रह्म-घातक  : वि० [सं० ष० त०] ब्राह्मण की हत्या करनेवाला।
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ब्रह्म-घातिनी  : स्त्री० [सं० ब्रह्मन्√णिनि+ङीष्, उप० स०] रजस्वला स्त्री की वह संज्ञा जो उसे रजस्राव के दूसरे दिन प्राप्त होती है।
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ब्रह्म-जन्म (न्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] उपनयन संस्कार।
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ब्रह्म-दर्भा  : स्त्री० [सं० ब० स०] अजवायन।
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ब्रह्म-दाता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] वेद पढ़ानेवाला आचार्य।
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ब्रह्म-दान  : पुं० [सं० ष० त०] वेद पढ़ाना।
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ब्रह्म-दाय  : पुं० [सं० ष० त०] वेद का वह भाग जिसमें ब्रह्म का निरूपण हैं।
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ब्रह्म-दारू  : पुं० [सं० ष० त०] तूत का पेड़। शहतूत।
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ब्रह्म-दिन  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा का एक दिन जो १00 चतुर्युगियों का माना जाता है।
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ब्रह्म-देया  : स्त्री० [सं० च० त०] ब्रह्म विवाह में दी जानेवाली कन्या।
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ब्रह्म-दैत्य  : पुं०=ब्रह्मराक्षस।
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ब्रह्म-दोष  : पुं० [सं० मध्य० स०] ब्राह्मण को मारने का दोष। ब्रह्म-हत्या का पाप।
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ब्रह्म-दोषी (विन्)  : वि० [सं० ब्रह्मदोष+इनि] जिसे ब्रह्म हत्या लगी हो।
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ब्रह्म-दोही (हिन्)  : वि० [सं० ष० त०] ब्राह्मणों से वैर रखनेवाला।
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ब्रह्म-द्रुम  : पुं० [सं० ष० त०] पलास। टेसू।
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ब्रह्म-द्वव  : पुं० [सं० ष० त०] गंगाजल।
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ब्रह्म-द्वार  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्म-रंध्र।
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ब्रह्म-नाड़ी  : स्त्री० [सं० ष० त०] हठ योग में सुषुम्ना के अन्तर्गत वह नाड़ी जिससे होकर कुंडलिनी ब्रह्म-रंध्र तक पहुँचती हैं।
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ब्रह्म-नाभ  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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ब्रह्म-निष्ठ  : वि० [सं० ब० स०] १. ब्राह्मणों के प्रति निष्ठा और भक्ति रखनेवाला। २. ब्रह्मज्ञान से युक्त या संपन्न। पुं० पीपल।
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ब्रह्म-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] पलास का पत्ता।
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ब्रह्म-पद  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मत्व। २. ब्राह्मण का पद या स्थिति। ब्राह्मणत्व। ३. मुक्ति। मोक्ष।
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ब्रह्म-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] पिठवन नाम की लता।
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ब्रह्म-पादक  : पुं० [सं० मध्य० स०] पलास का पेड़।
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ब्रह्म-पाश  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह का पाश या अस्त्र जो ब्रह्म शक्ति से परिचालित होता था।
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ब्रह्म-पुत्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सरस्वती देवी। २. सरस्वती नदी। ३. वाराही कन्द।
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ब्रह्म-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मलोक। २. हृदय, जिसमें ब्रह्म की अनुभूति होती है। ३. पुराणानुसार ईशान कोण का एक देश।
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ब्रह्म-पुराण  : पुं० [सं० मध्य० स०] अठारह पुराणों में से एक।
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ब्रह्म-प्राप्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] मृत्यु।
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ब्रह्म-फाँस  : स्त्री०=ब्रह्मपाश। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्रह्म-बंधु  : पुं० [सं० ष० त० या ब० स०] कर्महीन ब्राह्मण। पतित या नाम-मात्र का ब्राह्मण।
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ब्रह्म-बल  : पुं० [सं० ष० त०] वह तेज या शक्ति जो ब्राह्मण को तप आदि के द्वारा प्राप्त हो
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ब्रह्म-बिंदु  : पुं० [सं० मध्य० स०] वेद पाठ करते समय मुँह से निकला हुआ थूक की छींटा।
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ब्रह्म-भाव  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्म में समाना या लीन होना। २. मृत्यु।
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ब्रह्म-भूत  : भू० कृ० [सं० स० त०] ब्रह्म में लीन या समाया हुआ।
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ब्रह्म-भूय  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मत्व। २. मुक्ति। मोक्ष।
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ब्रह्म-भोज  : पुं० [सं० ष० त०] बहुते से ब्रह्मणों को एक सात पंगत में बैठाकर भोजन कराना। ब्राह्मण-भोजन।
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ब्रह्म-मय  : वि० [सं० ब्रह्मान्+मयट्] १. ब्रह्म से युक्त। २. वेदों से संबंध रखनेवाला।
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ब्रह्म-मुहूर्त  : पुं०=ब्राह्म मूहूर्त।
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ब्रह्म-मेखला  : पुं० [सं० ष० त०] मुँज नामक तृण। मूँज।
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ब्रह्म-यज्ञ  : पं० [सं० मध्य० स०] विधिपूर्वक किया जानेवाला वेदों का अध्ययन और अध्यापन।
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ब्रह्म-यष्टि  : स्त्री० [सं० ष० त०] भारंगी। ब्रह्मनेटी।
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ब्रह्म-योग  : पुं० [सं० ष० त०] १. संगीत में १८ मात्राओं का एक ताल जिसमें १२ आपात और ६ खाली होते हैं।
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ब्रह्म-योनि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. ब्रह्म की प्राप्ति के लिए किया जानेवाला उसका ध्यान। २. [ब० स०] गया का एक तीर्थ। ३. सरस्वती। वि० ब्रह्म से उत्पन्न।
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ब्रह्म-रंध्र  : पुं० [सं० ष० त०] हठयोग में, मस्तिष्क के ऊपरी मध्य भाग में माना जानेवाला वह छिद्र या रंध्र जहाँ सुषुम्ना, इंगला और पिंगला ये तीनों नाड़ियाँ मिलती है। कहते है कि पुणात्मा लोगों और योगियों के प्राण इसी रंध्र को भेदकर निकलते हैं। विशेष—ब्रह्म-रंध्र को शरीर का दसवाँ द्वार कहा जाता है। अन्य द्वार इन्द्रियाँ है जो खुली रहती है। किन्तु यह दसवाँ द्वार सदा बन्द रहता है। तपस्या द्वारा इसे खोला जाता है। इसके खुलने पर सहस्रार चक्र से अमृत रस निकलने लगता है जिससे योगी को अमर काया प्राप्त हो जाती है।
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ब्रह्म-राक्षस  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. प्रेत-योनि में लगा हुआ ब्राह्मण। वह ब्राह्मण जो मरकर प्रेत या भूत हुआ हो। कहते है कि जिस ब्राह्मण की अकाल-मृत्यु या हत्या होती है, वह प्रायः इसी योनि में जाता है। २. शिव का एक गण।
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ब्रह्म-रात  : पुं० [सं० ब० स०] १. शुक्रदेव। २. याज्ञवल्क्य मुनि।
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ब्रह्म-रात्र  : स्त्री० [सं० रात्रि+अण्, ब्रह्म-रात्र, ष० त०] रात के अन्तिम चार दंड। ब्राह्म मुहूर्त।
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ब्रह्म-रात्रि  : स्त्री० [सं० ष० त०] ब्रह्मा की एक रात जो कल्प की मानी जाती है।
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ब्रह्म-राशि  : पुं० [सं० ष० त०] १. परशुराम का एक नाम। २. बृहस्पति से अक्रांत श्रवण नक्षत्र।
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ब्रह्म-रीति  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का पीतल।
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ब्रह्म-रूपक  : पुं० [सं० ब० स०+कप्, अथवा, ष० त०] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में गुरु लघु के क्रम से १६ अक्षर होते हैं। इसे चंचला और ‘चित्र’ भी कहते हैं।
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ब्रह्म-रूपिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] बाँदा।
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ब्रह्म-रेखा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] पुराणानुसार ललाट पर ब्रह्म द्वारा लिखी हुई भाग्य-रेखा या भाग्य-लिपि।
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ब्रह्म-लेख  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा द्वारा मनुष्य के ललाट पर लिखी हुई वे पंक्तियाँ जो उसके भाग्य की सूचक होती है। २. ऐसा लेख जो कभी अन्यथा या मिथ्या न हो सकता हो।
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ब्रह्म-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह लोक जिसमें ब्रह्म का निवास माना गया है। २. एक प्रकार का मोक्ष।
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ब्रह्म-वध  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्म हत्या।
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ब्रह्म-वर्चस्  : पुं० [सं० ष० त०] वह शक्ति जो ब्राह्मण तप और स्वाध्याय द्वारा प्राप्त करे। ब्रह्मतेज।
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ब्रह्म-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] वह सिद्धांत कि संपूर्ण विश्व ब्रह्म से निकला है और उसी की प्रेरणा तथा शक्ति से चल रहा है।
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ब्रह्म-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वह विद्या जिसके द्वारा ब्रह्मा का ज्ञान होता है। उपनिषद् विद्या। २. दुर्गा।
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ब्रह्म-वृक्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पलाश। २. गूलर।
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ब्रह्म-वेत्ता (त्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्म क समझनेवाला। ब्रह्मज्ञानी। तत्त्वज्ञ।
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ब्रह्म-वैवर्त  : पुं० [सं० ष० त०+अच्] १. वह प्रतीत जो ब्रह्म के कारण हो। जैसे—जगत की प्रतीति। २. जगत् जिसकी प्रतीति और सृष्टि ब्रह्म के द्वारा होती है। ३. श्रीकृष्ण। ४. अठारह पुराणों में से एक पुराण जो श्रीकृष्ण भक्ति के सम्बन्ध में हैं।
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ब्रह्म-शल्य  : पुं० [सं० ब० स०] बबूल का पेड़।
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ब्रह्म-शासन  : पुं० [सं० ष० त०] १. वेद या स्मृति की आज्ञा। २. ब्रह्माण को दान में मिली हुई भू-संपत्ति।
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ब्रह्म-शिर (स्)  : पुं० [सं० ब० स०] एक अस्त्र जिसका उल्लेख रामायण और महाभारत में हुआ है।
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ब्रह्म-सती  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] सरस्वती नदी।
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ब्रह्म-सदन  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ में ब्रह्मा का आसन।
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ब्रह्म-सभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा की सभा। २. ब्राह्मणों की सभा या समाज।
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ब्रह्म-समाज  : पुं० [सं० ष० त०] एक आधुनिक संप्रदाय जिसके प्रवर्तक बंगाल के राजा राममोहन राय थे। ब्राह्मण-समाज।
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ब्रह्म-सर (स्)  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्राचीन तीर्थ। (महाभारत)
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ब्रह्म-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] मरीचि आदि ब्रह्म के पुत्र।
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ब्रह्म-हृदय  : पुं० [सं० ष० त०] प्रथम वर्ग के १९ नक्षत्रों में से एक नक्षत्र जिसे अँग्रेजी में कैपेल्ला कहते हैं।
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ब्रह्मकर्म (न्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वेद विहित कर्म। २. ब्राह्मणों के लिए विहित कर्म।
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ब्रह्मक्षत्र  : पुं० [सं०] ब्राह्मण और क्षत्रिय से उत्पन्न एक जाति (विष्णुपुराण)।
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ब्रह्मगाँठ  : स्त्री०=ब्रह्म-ग्रंथि।
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ब्रह्मघाती (तिन्)  : वि० [सं० ब्रह्मन्√हन्+णिनि] [स्त्री० ब्रह्मघातिनी] जिसने ब्राह्मण की हत्या की हो।
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ब्रह्मघोष  : पुं० [सं० ष० त०] १. वेद-ध्वनि। २. वेद-पाठ।
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ब्रह्मचक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. संसार चक्र। (उपनिषद्) २. एक तरह का मायावी चक्र।
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ब्रह्मचर्य  : पुं० [सं० च० त०] १. भारतीय आर्यों की वह अवस्था तथा व्रत जिसमें विद्यार्थी को वेदों का अध्ययन करना पड़ता है, सब प्रकार के संसारिक बंधनों से दूर रहकर सातित्क जीवन बिताना पड़ता है और अपने वीर्य को अक्षुण्ण रखना पड़ता है। २. अष्ट-विष्ट मैथुनों से बचने का व्रत। ३. योग में एक प्रकार का यम। वीर्य को रक्षित रखने का प्रतिबंध। मैथुन से बचने की साधना।
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ब्रह्मचारिणी  : स्त्री० [सं० ब्रह्मन्√चर्+णिनि, वृद्धि, ङीष्] १. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करनेवाली स्त्री। २. सरस्वती। ३. दुर्गा। ४. ब्रह्मी बूटी।
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ब्रह्मचारी (रिन्)  : पुं० [सं० ब्रह्मन्√चर् (करना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] [स्त्री० ब्रह्मचारिणी] वह व्यक्ति जो ब्रह्मचर्य आश्रम में हो।
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ब्रह्मछिद्र  : पुं०=ब्रह्म-रंध्र।
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ब्रह्मज  : वि० [सं० ब्रह्मन्√जन् (पैदा करना)+ड] जो ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. यह जगत जो ब्रह्म से उत्पन्न माना गया है। २. कार्तिकेय। ३. हिरण्य-गर्भ।
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ब्रह्मजीवी (विन्)  : वि० [सं० ब्रह्मन्√जीव् (जीना)+णिनि्, उप० स०] शुद्ध ज्ञान का व्यापारिक लाभ उठानेवाला।
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ब्रह्मज्ञ  : वि० [सं० ब्रह्मन्√ज्ञा (जानना)+क] ब्रह्म का ज्ञाता। ब्रह्मज्ञानी।
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ब्रह्मज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्म का जानना। २. परमतत्व का ज्ञान।
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ब्रह्मज्ञानी (निन्)  : वि० [सं० ब्रह्मज्ञान+इनि, दीर्घ, नलोप] परमार्थ तत्त्व का बोध रखनेवाला ब्रह्म-ज्ञान से युक्त या सम्पन्न।
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ब्रह्मंड  : पुं०=ब्रह्मांड। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्रह्मण्य  : वि० [सं० ब्रह्मन्+यत्] १. ब्राह्मणों से संबंध रखनेवाला। २. ब्रह्म-संबंधी। ३. सभ्य तथा शिष्ट समाज के उपयुक्त। पुं० १. ब्राह्मण होने की अवस्था या भाव। २. वह जो ब्राह्मणों के प्रति निष्ठा रखता हो। ३. शहतूत।
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ब्रह्मताल  : पुं० [सं०] संगीत में १४ मात्राओं का एक ताल जिसमें १0 आघात और ४ खाली रहते हैं।
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ब्रह्मतीर्थ  : पुं० [सं० ष० त०] नर्मदा के तट का एक प्राचीन तीर्थ (महाभारत)।
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ब्रह्मतेज  : पुं० [सं० ष० त०] वह तेज जो उच्च कोटि के कर्मशील ब्राह्मणों के मस्तक पर झलकता है।
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ब्रह्मत्व  : पुं० [सं० ब्रह्मन्+त्व, नलोप] १. ब्रह्म होने की अवस्था या भाव। २. ब्रह्मा नामक ऋत्विज होने की अवस्था या भाव। ३. ब्राह्मणत्व।
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ब्रह्मदंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह दंड जो ब्राह्मण ब्रह्मचारी धारण करता है। २. ब्राह्मण के द्वारा मिला हुआ शाप। ३. ऐसा केतु जिसकी तीन शिखाएँ हों।
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ब्रह्मदंडी  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्रकार की जंगली जड़ी जिसकी पत्तियों और फलों पर काँटे होते हैं। अजदंती।
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ब्रह्मपवित्र  : पुं० [सं० स० त० उपमि० स० वा] कुश।
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ब्रह्मपिता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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ब्रह्मपुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा का पुत्र। २. नारद। ३. मनु। ४. वशिष्ठ। ५. मरीचि। ६. सनकादिक। ७. एक प्रकार का विषाक्त कन्द। ८. असम तथा बंगाल में बहनेवाला एक प्रसिद्ध नद जिसका उदगम मानसरोवर है।
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ब्रह्मर्षि  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-ऋषि, कर्म० स०] वशिष्ठ आदि मंत्रद्रष्टा ऋषि।
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ब्रह्मर्षि-देश  : पुं० [सं० ष० त०] वह प्राचीन भू-भाग जिसके अंतर्गत कुरूक्षेत्र, मत्स्य, पांचाल, और शूरसेन देश थे। (मनु०)
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ब्रह्मवर्चस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० ब्रह्मवर्चस्+णिनि] ब्रह्मतेजवाला।
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ब्रह्मवर्त  : पुं० [सं०] ब्रह्मावर्त। (दे०)
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ब्रह्मवाणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वेद।
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ब्रह्मवादिनी  : स्त्री० [सं०] गायत्री।
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ब्रह्मवादी (दिन्)  : वि० [सं० ब्रह्मन्√वद् (बोलना)+णिनि] ब्रह्मवाद संबंधी। पुं० [स्त्री० ब्रह्मवादिनी] वह जो सारे विश्व को ब्रह्ममय मानता हो।
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ब्रह्मविद्  : वि० [सं० ब्रह्मन्√विद् (जानना)+क्विप्] १. ब्रह्म को जानने या समझनेवाला। २. वेदों और उनके अर्थ का ज्ञाता।
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ब्रह्मसत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] विधिपूर्वक किया जानेवाला वेदपाठ। ब्रह्मयज्ञ।
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ब्रह्मसमाजी (जिन्)  : वि० [सं० ] ब्रह्म-समाज सम्बन्धी। पुं० ब्रह्म समाज का अनुयायी।
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ब्रह्मसावर्णि  : पुं० [सं० मध्य० स०] दसवें मनु का नाम।
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ब्रह्मसिद्धांत  : पुं० [सं० ष० त०] ज्योतिष की एक सिद्धांत पद्धति।
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ब्रह्मसुता  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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ब्रह्मसूत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. यज्ञोपवीत। जनेऊ। २. व्यास का शारीरिक सूत्र जिसमें ब्रह्म का प्रतिपादन है और जो वेदान्त दर्शन का आधार है।
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ब्रह्मसृज्  : वि० [सं० ब्रह्मन्√सृज् (सिरजना)+क्विप्] ब्रह्मा को उत्पन्न करनेवाला। पुं० शिव।
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ब्रह्मस्तेय  : पुं० [सं० ष० त०] गुरु की अनुमति बिना किसी को पढ़ाया हुआ पाठ सुनकर अध्ययन करना जिसे मनु ने अनुचित कहा है।
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ब्रह्मस्व  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्राह्मण का अंश या भाग। ० २. ब्राह्मण का धन।
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ब्रह्महत्या  : पुं० [सं० ष० त०] ब्राह्मण को मार डालने का पाप।
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ब्रह्मा (ह्मान्)  : पुं० [सं० दे० ब्रह्मन्] १. हिन्दू धर्म में त्रिदेवों में से पहले देव (अन्य दो देव विष्णु और महेश हैं) जो ब्रह्म के तीन सगुण रूपों में से एक और सृष्टि की रचना करनेवाले माने गये हैं और इसीलिए पितामह तथा विधाता कहे जाते हैं। २. यज्ञ का एक ऋत्विक्। ३. एक प्रकार का धान जो जल्दी पककर तैयार होता है।
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ब्रह्माक्षर  : पुं० [सं० ब्रह्मन् (अक्षर) मध्य० स०] ऊँकार मंत्र।
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ब्रह्मांड  : पुं० [सं० ब्रह्मान्-अंड, ष० त०] १. चौदहों भुवनों का समूह जो अंडाकार माना गया है। संपूर्ण विश्व जिसके अनेक लोक है। विश्व गोलक। २. मत्स्य-पुराणानुसार एक महादान जिसमें सोने का विश्व गोलक (जिसमें लोक लोकपाल आदि बने रहते हैं) दान दिया जाता है। ३. कपाल। खोपड़ी। मुहावरा—ब्रह्मांड चटकना=(क) खोपड़ी फटना। (ख) बहुत अधिक ताप आदि के कारण सिर में बहुत पीड़ा होना।
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ब्रह्मांडीय  : वि० [सं०] समस्त ब्रह्मांड में होने या उससे संबंध रखनेवाला विश्वक (कास्मिक)।
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ब्रह्माणी  : स्त्री० [सं० ब्रह्मन्√अन् (कीर्तिन करना)+णिच्+अम्+ङीष्] १. ब्रह्मा की स्त्री० ब्रह्म की शक्ति। २. सरस्वती। ३. रेणुका नामक गंध द्रव्य। ४. उड़ीसा की एक छोटी नदी जो वैतरणी में मिलती है।
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ब्रह्माण्डकिरण  : स्त्री० [सं०] प्रबल भेदक शक्तिशाली एक प्रकार की किरणें जो सुदूर अंतरिक्ष से आकर इस पृथ्वी पर पड़ती है और कई प्रकार के परिणाम या प्रभाव उत्पन्न करती है। अंतरिक्ष किरण विश्ववक किरण (कास्मिक रेज)। विशेष—इस किरण का पता शती के पहले चरण में उस समय लगा था जब वायुयानों की उड़ान के लिए वायु की चालकता के संबंध में अनेक प्रकार के प्रयोग किये जा रहे थे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ये किरणें हमारी ही मंदाकिनी या आकाश गंगा से निकली है।
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ब्रह्मानन्द  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-आनंद, मध्य० स०] ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव होने पर प्राप्त होनेवाला आनन्द जो सब प्रकार के आनन्दों से बढ़कर माना जाता है। ब्रह्मज्ञान से उत्पन्न आत्मतृप्ति।
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ब्रह्माभ्यास  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-अभ्यास, ष० त०] वेदाध्ययन।
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ब्रह्मारण्य  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-अरण्य, ष० त०] १. एक प्राचीन वन। २. वेदपाठ-भूमि।
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ब्रह्मार्पण  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-अर्पण, च० त०] अपने किये हुए सभी कार्मों के फल परमात्मा को अर्पित करने की क्रिया।
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ब्रह्मावर्त  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-आवर्त्त, ष० त०] सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के प्रदेश का पुराना नाम।
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ब्रह्मासन  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-आसन्, ष० त०] १. वह आसन जिस पर बैठकर ब्रह्म का ध्यान किया जाता है। २. तांत्रिक पूजा का एक आसन।
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ब्रह्मास्त्र  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-अस्त्र, मध्य० स०] १. ब्रह्म-शक्ति से परिचालित होनेवाला अमोघ अस्त्र। २. एक प्रकार का अस्त्र जो मंत्र से पवित्र करके चलाया जाता था। ३. वैद्यक में एक रसौषध जो सन्निपात में दिया जाता है।
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ब्रह्मिनष्ठ  : वि० [सं० ब्रह्मन्-इष्ठन्] वेदों का पूर्ण ज्ञाता।
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ब्रह्मिनष्ठा  : स्त्री० [सं० ब्रह्मिष्ठ+टाप्] दुर्गा।
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ब्रह्मोपदेश  : पुं० [सं० ब्रह्मन्-उपदेश, ष० त०] ब्रह्मज्ञान की शिक्षा।
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ब्रात  : पुं०=व्रात्य।
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ब्राह्म  : वि० [सं० ब्रह्मन्+अण्] ब्रह्म-संबंधी। ब्रह्मा का। जैसे—ब्राह्मदिन। पुं० १. हिन्दू धर्म-शास्त्र के अनुसार आठ प्रकार के विवाहों में से एक। २. ब्रह्म-पुराण। ३. नारद। ४. नक्षत्र। ५. प्राचीन राजाओं का एक धर्म जिसमें उन्हें गुरुकुल से लौटे हुए ब्राह्मणों की पूजा करनी पड़ती थी।
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ब्राह्म समाजी (जिन्)  : पुं० [सं० ब्राह्म समाज+इनि,] ब्राह्म समाज का अनुयायी। वि० १. ब्रह्म समाज संबंधी। २. ब्रह्म समाजियों का।
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ब्राह्म-मुहूर्त  : पुं० [सं० कर्म० स] सूर्योंदय के पहले दो घड़ी तक का समय (जो बहुत ही पवित्र तथा शुभ माना गया है)।
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ब्राह्म-विवाह  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘ब्राह्म’ के अन्तर्गत।
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ब्राह्म-समाज  : पुं० [सं० कर्म० स०] वंग देश में प्रवर्तित एक आधुनिक संप्रदाय। ब्रह्म-समाज।
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ब्राह्मण  : पुं० [सं० ब्रह्मन्+अण्] [स्त्री० ब्राह्मणी] १. हिदुओं के चार वेदों में से पहला और सर्वक्षेष्ठ वर्ण जिसके मुख्य वेदों का पठन-पाठन यज्ञ-ज्ञानोपदेश आदि हैं। २. उक्त जाति या वर्ण का मनुष्य। द्विज। विप्र। ३. वेदों का वह भाग जो उनके मंत्र भाग से भिन्न हैं। ४. विष्णु। ५. शिव। ६. अग्नि।
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ब्राह्मण ब्रुव  : पुं० [सं० ब्राह्मण√ब्रू (बोलना)+क] कर्म और संस्कार से हीन तथा नाममात्र का ब्राह्मण।
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ब्राह्मण भोजन  : पुं० [सं० ष० त०] बहुत से ब्राह्मणों को बुलाकर कराया जानेवाला भोजन।
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ब्राह्मणक  : पुं० [सं० ब्राह्मण+कन्] निंदनीय या बुरा ब्राह्मण।
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ब्राह्मणत्व  : पुं० [सं० ब्राह्मण+त्व] ब्राह्मण होने की अवस्था, धर्म या भाव। ब्राह्मण-पन।
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ब्राह्मणायन  : पुं० [सं० ब्राह्मण+फक्—आयन] विद्वान और विशुद्ध। ब्राह्मणकुल में उत्पन्न ब्राह्मण।
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ब्राह्मणी  : स्त्री० [सं० ब्राह्मण+ङीष्] १. ब्राह्मम जाति की स्त्री। २. बुद्धि। ३. एक प्राचीन तीर्थ।
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ब्राह्मण्य  : पुं० [सं० ब्राह्मण+यत्] १. ब्राह्मण का धर्म या गुण। ब्राह्मणत्व। २. ब्राह्मणों का वर्ग या समाज। ३. शनि ग्रह।
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ब्राह्मधर्म  : पुं०=ब्रह्म-समाज।
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ब्राह्मप्रलय  : पुं०=नैमित्तिक प्रलय (देखें)।
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ब्राह्मी  : स्त्री० [सं० ब्राह्म+ङीष्] १. दुर्गा। २. शिव की आठ मातृकाओं में से एक। ३. रोहिणी नक्षत्र। ४. भारतवर्ष की एक प्राचीन लिपि जिससे नागरी, बँगला आदि आधुनिक लिपियाँ विकसित हुआ हैं। हिन्दुस्तान की एक प्रकार की पुरानी लिखावट। ५. औषध के काम में आनेवाली एक बूटी जो छत्ते की तरह जमीन में फैलती हैं। यह बहुत ठंड़ी होती है और मस्तिष्क के लिए बहुत गुणकारी कही गई है
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ब्राह्य-तपशचर्या  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] जैनियों के अनुसार तपस्या का एक भेद जिसमें अनशन, औनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और लीनता ये छः बातें होती है।
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ब्रिगेड  : पुं० [अं०] १. सेना का एक वर्ग। २. किसी विशिष्ट प्रकार के कार्यकर्त्ताओं का दल। जैसे—फायर ब्रिगेड।
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ब्रिज  : पुं० [अं०] १. पुत्र। सेतु। २. तास का एक प्रकार का खेल।
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ब्रिटिश  : वि० [अं०] १. ब्रिटेश-संबंधी। २. अँगरेजों का।
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ब्रिटेन  : पुं० [अं०] इंग्लैण्ड, वेल्स और स्काटलैंड नामक देशों का सम्मिलित नाम।
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ब्रीड़  : पुं०=व्रीड़ा।
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ब्रीड़ना  : अ० [सं० व्रीडन] लज्जित होना। लजाना।
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ब्रीड़ा  : स्त्री०=व्रीड़ा
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ब्रीविया  : पुं० [अं०] छापेखाने में, एक प्रकार का छोटा टाइप जो आठ प्वाइंट का अर्थात् पाइका का २/३ होता है।
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ब्रीहि  : पुं०=व्रीहि।
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ब्रुश  : पुं० [अं०] बुरुश।
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ब्रूरना  : अ०=बूड़ना (डूबना)।
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ब्रूहि  : अव्य० [सं० ] उच्चारण करो। कहो।
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ब्रेक  : पुं० [अं०] गाड़ियों में पहिये या गति-चक्र की गति रोकनेवाला उपकरण।
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ब्लाउज़  : पुं० [अं०] विलायती ढंग की जनाना कुरती।
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ब्लाक  : पुं० [अं०] १. वह ठप्पा जिस पर से कोई चित्र छापा जाय। २. भूमि का कोई चौकोर खंड या टुकड़ा। ३. किसी विशिष्ट कार्य के लिए नियत किया हुआ भू-भाग।
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ब्वै  : वि०=बिय (दो०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ब्वौना  : स०=बोना।
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