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शब्द का अर्थ

पत  : स्त्री० [सं० प्रतिष्ठा ?] प्रतिष्ठा। आबरू। इज्जत। लाज। क्रि० प्र०—जाना।—रखना।—रहना। मुहा०—(किसी की) पत उतारना=किसी को अपमानित करना। (किसी की) पत रखना=अपमानित होनेवाले की अथवा अपमानित होते हुए की इज्जत बचाना। लाज रखना। पत लेना=पत उतारना। पुं० [सं० पति] १. पति। स्वामी। पुं० [हिं० पत्ता] पत्ता का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—पत-झड़।
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पत-खोवन  : वि० [हिं० पत+खोवन=खोनेवाला] अपनी अथवा दूसरों की प्रतिष्ठा नष्ट करनेवाला।
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पत-झड़  : पुं० [हिं० पत्ता+झड़ना] १. पेड़ों के पत्तों का झड़ना। २. शिशिर ऋतु जिसमें अधिकांश पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं। ३. उन्नति के उपरांत होनेवाला ह्रास। विशेषतः ऐसी स्थिति जिसमें वैभव,संपत्ति आदि नष्ट हो चुकी होती है।
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पत-पानी  : पुं० [हिं० पत+पानी] प्रतिष्ठा। मान। इज्जत। आबरू।
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पतई  : स्त्री० १.=पत्ती। २.=पताई।
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पतउड़  : पुं० [सं० पति+उडु] चन्द्रमा। (डिं०)
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पतंखा  : पुं०=पतोखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतंग  : वि० [सं०√पत् (गिरना)+अंगच्] १. जो गिरता हुआ जाता हो। २. उड़नेवाला। पुं० १. सूर्य। २. मकड़ी। ३. पतिंगा। शलभ। ४. चिड़िया। पक्षी। ५. कंदुक। गेंद। ६. एक गंधर्व का नाम। ७. एक प्राचीन पर्वत। ८. बदन। शरीर। ९. नाव। नौका। १॰. जैनों के एक देवता जो वाणव्यंतर नामक देवगण के अन्तर्गत हैं। ११. चिनगारी। १२. जड़हन धान। १३. जलमछुआ। १४. एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी रक्त चन्दन की लकड़ी जैसी परन्तु निर्गन्ध होती है। स्त्री० [सं० पतंग=उड़नेवाला] कागज की वह बहुत बड़ी गुड्डी जो डोर की सहायता से हवा में उड़ाई जाती है। कन-कौआ। चंग। तुक्कल। क्रि० प्र०—उड़ाना।—लड़ाना। मुहा०—पतंग काटना=पेंच लड़ाकर किसी की पतंग की डोरी काट देना। पतंग बढ़ाना=डोर ढीलते हुए पतंग और अधिक ऊँचाई या दूरी पर पहुँचाना। पुं० [सं० पत्रंग] एक तरह का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी से बढ़िया लाल रंग निकाला जाता है। (सपन)। पुं० [फा०] १. रोशनदान। २. खिड़की।
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पतग  : पुं० [सं० पत√गम् (गति)+ड] पक्षी। चिड़िया। पखेरू।
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पतंग-छुरी  : वि० [सं० पतंग=उड़ानेवाला अथवा चिनगारी+हिं० छुरी] पीठ पीछे बुराई करनेवाला। चुगलखोर।
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पतंगबाज  : पुं० [हिं० पतंग+फा० बाज] [भाव० पतंगबाजी] वह जिसको पतंग उड़ाने का शौक या व्यसन हो।
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पतंगबाजी  : स्त्री० [हिं० पतंगबाज+ई (प्रत्य०)] पंतग उड़ाने की क्रिया, भाव या शौक।
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पतंगम  : पुं० [सं० पतद्√गम्+खच्,नि० सिद्धि] १. पक्षी। चिड़िया। २. पतिंगा। शलभ।
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पतंगा  : पुं० [सं० पतंग] १. परोंवाला वह कीड़ा जो हवा में उड़ता हो। २. एक तरह का साधारण कीड़ों से बड़ा कीड़ा जो पेड़ों की पत्तियाँ, फसलें आदि खाता तथा नष्ट-भ्रष्ट करता है। ३. दीये का फूल। ४. चिनगारी।
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पतंगिका  : स्त्री० [सं० पतंग+कन्—टाप्, इत्व] १. छोटा पक्षी। २. एक तरह की मधुमक्खी।
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पतंगी (गिन्)  : पुं० [सं० पतंग+इनि] पक्षी।
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पतंगेंद्र  : पुं० [सं० पतंग-इंद्र,ष० त०] पक्षियों के स्वामी,गरुड़।
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पतगेंद्र  : पुं० [सं० पतंग-इन्द्र,ष० त०] पक्षिराज। गरुड़।
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पतंचल  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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पतंचिका  : स्त्री० [सं० पतम्+चिक्क (पीड़ा) पृषो० सिद्धि] धनुष का चिल्ला। प्रत्यंचा।
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पतचौली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा।
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पतंजलि  : पुं० [सं० पतत्-अंजलि, ब० स०, शक० पर रूप] पाणिनी के सूत्रों पर महाभाष्य नामक टीका लिखनेवाले एक प्रसिद्ध ऋषि जो योगदर्शन के प्रतिपादक भी कहे जाते हैं।
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पतझर  : पुं०=पत-झड़।
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पतझल  : स्त्री०=पत-झड़।
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पतझाड़  : स्त्री०=पत-झड़।
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पतझार  : स्त्री०=पत-झड़।
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पतता  : स्त्री० [सं० पतिता]=पतित्व। उदा०—परी है विपत्ति पति लागि पतता नहीं।—सेनापति।
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पतत्  : वि० [सं०√पत्+शतृ] १. नीचे की ओर आता, उतरता या गिरता हुआ। २. उड़ता हुआ। पुं० चिड़िया।
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पतत्पतंग  : पुं० [सं० पतत्-पतंग,कर्म० स०] अस्त होता हुआ सूर्य।
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पतत्प्रकर्ष  : वि० [सं० पतत्-प्रकर्ष, ब० स०] जो प्रकर्ष से गिर चुका हो। पुं० साहित्यिक रचना का एक दोष जो उस समय माना जाता है जब कोई बात आरंभ में तो उत्कृष्ट रूप में कही जाती है परन्तु आगे चलकर वह उत्कृष्टता कुछ घट या नष्टप्राय हो जाती है। जैसे—पहले तो किसी को चन्द्रमा कहना और बाद में जुगनूँ कहना। (एन्टीक्लाइमैक्स)
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पतत्र  : पुं० [√पत्+अत्रन्] १. पक्ष। डैना। २. पंख। पर। ३. वाहन। सवारी।
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पतत्रि  : पुं० [सं०√पत्+अत्रिन्] पक्षी। चिड़िया।
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पतत्रि-केतन  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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पतत्रि-राज  : पुं० [ष० त०] गरुड़।
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पतत्रि-वर  : पुं० [स० त०] गरुड़।
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पतत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० पतत्र+इनि] १. पक्षी। २. वाण। ३. घोड़ा
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पतद्-भीरु  : पुं० [सं० ब० स०] बाज पक्षी।
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पतद्ग्रह  : पुं० [सं०पतद्√ग्रह् (पकड़ना)+अच्] १. उगालदान। पीकदान। २. भिक्षा- पात्र। ३. संरक्षित सेना।
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पतन  : पुं० [सं०√पत्+ल्युट्—अन] १. ऊपर से नीचे आने या गिरने की क्रिया या भाव। २. नीचे घँसने या बैठने की क्रिया या भाव। ३. व्यक्ति का उच्च आदर्श, स्तुत्य आचरण आदि छोड़कर निन्दनीय और हीन आचरण या कार्य करने में प्रवृत्त होना। ४. जाति, राष्ट्र आदि का ऐसी स्थिति में आना कि उसकी प्रभुता और महत्ता नष्ट प्राय हो जाय। ५. मृत्यु। ६. पाप। पातक। ७. उड़ने की क्रिया या भाव। उड़ान। ८. किसी नक्षत्र का अक्षांश। वि० [√पत्+ल्यु—अन] १. गिरता हुआ या गिरनेवाला। २. उड़ता हुआ या उड़नेवाला।
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पतन-शील  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० पतनशीलता] जिसका पतन हो रहा हो; अथवा जिसकी प्रवृत्ति पतन की ओर हो। गिरता हुआ या गिरनेवाला।
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पतना  : पुं० [?] योनि का किनारा। अ० [सं० पतन] १. गिरना। २. पतन होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=पाथना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतनारा  : पुं० [?] नाबदान। पनाला। मोरी।
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पतनीय  : वि० [सं०√पत्+अनीयर्] जिसका पतन होने को हो अथवा जिसका पतन होना संभावित या स्वाभाविक हो।
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पतनोन्मुख  : वि० [सं० स० त० पतन-उन्मुख] जो पतन की ओर उन्मुख हो।
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पतम  : पुं० [सं०√पत्+अम] १. चन्द्रमा। २. चिड़िया। पक्षी। ३. पतिंगा। शलभ।
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पतयालु  : वि० [सं०√पत्+णिच्+आलु] पतनशील।
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पतयिष्णु  : वि० [सं०√पत्+णिच्+इष्णुच्] पतनशील।
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पतर  : वि०=पातर (पतला)। पुं०=पत्र। स्त्री०=पत्तल।
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पतरा  : पुं० [सं० पत्र] १. वह पत्तल जो तँबोली लोग पान रखने के टोकरे या डलिये में बिछाते हैं। २. सरसों का साग या पत्ता। पुं०=पत्रा (पंचांग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [स्त्री० पतरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतराई  : स्त्री०=पतलाई।
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पतरिंगा  : पुं० [?] गोरैया के आकार का लंबी चोंच तथा लंबी पूँछवाला एक पक्षी जिसका रंग सुनहलापन लिये हरे रंग का होता है तथा आँखें लाल रंग की तथा नुकीली चोंच काले रंग की होती है।
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पतरी  : स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतरेंगा  : पुं०=पतरिंगा (पक्षी)।
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पतरौल  : पुं० [अं० पेट्रोल] गश्त लगानेवाला सैनिक।
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पतला  : वि० [सं० पत्रालः] [स्त्री० पतली, भाव० पतलापन] १. तीन विमाओंवाली ठोस वस्तु के संबंध में, जिसमें मोटाई या गहराई उसकी लंबाई तथा चौड़ाई की अपेक्षा कम हो। जैसे—पतला डंडा, पतली बाँह। २. व्यक्ति जिसका शरीर हृष्ट-पुष्ट न हो, बल्कि कृश या क्षीण हो। पद—दुबला-पतला। ३. कपड़े, कागज आदि के संबंध में, जो तल की मोटाई के विचार से झीना या महीन हो। ४. जिसका घेरा अपेक्षया बहुत कम हो। जैसे—पतली कमर। ५. जिसकी चौड़ाई बहुत कम हो। जैसे—पतली गली। ६. तरल पदार्थ के संबंध में, जिसमें गाढ़ापन न हो। जिसमें तरलता अधिक हो। जैसे—पतला दूध, पतला रसा। ७. लाक्षणिक अर्थ में, जिसमें शक्ति या समर्थता न हो अथवा जिस रूप में या जितनी होनी चाहिए, उस रूप में अथवा उतनी न हो। पद—पतला हाल=निर्धनता और विपत्ति की अवस्था। पतली फसल=ऐसी फसल जिसमें अन्न बहुत कम हुआ हो। पतले कान=ऐसे कान (फलतः उन कानों से युक्त व्यक्ति) जिनमें सुनी-सुनाई बातें बिना विचार किये मान लेने की विशेष प्रवृत्ति हो। जैसे—उनके कान पतले हैं, उनसे जो कुछ कहा जाय, उसे वे सच मान लेते हैं।
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पतलाई  : स्त्री०=पतलापन।
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पतलापन  : पुं० [हिं० पतला+पन (प्रत्य०)] ‘पतला’ होने की अवस्था या भाव।
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पतली  : स्त्री० [लश०] जूता। द्यूत। वि० स्त्री० हिं० पतला का स्त्री० रूप।
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पतलून  : पुं० [अं० पैंटलून] खुली मोहरियों, सीधे पायँचों तथा जेबोंवाला एक तरह का विदेशी पायजामा जिसमें मियानी नहीं होती।
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पतलूननुमा  : वि० [हिं० पतलून+फा० नुमा=दर्शक] जो देखने में पतलून की तरह हो। पुं० वह पाजामा जो देखने में पतलून से मिलता-जुलता हो।
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पतलो  : स्त्री० [देश०] १. सरकंडे या सरपत की पताई। २. सरकंडा। सरपत।
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पतवर  : क्रिं० वि० [सं० हिं० पाँती+वार (प्रत्य०)] १. पंक्तिक्रम से। २. बराबर-बराबर।
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पतवा  : पुं० [हिं० पत्ता+वा (प्रत्य०)] जंगली जानवरों का शिकार करने के लिए बनाई हुई एक तरह की ऊँची मचान। पुं० १.=पत्ता। २.=पता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतवार  : स्त्री० [सं० पत्रबाल, पात्रपाल, प्रा० पात्तवाड़] १. बड़ी नावों और विशेषतः पुराने देशी समुद्री जहाजों का वह तिकोना पिछला अंग या उपकरण जो आधा जल में और आधा जल के बाहर रहता है और जिसके संचालन से नाव का रूख दूसरी ओर घुमाया जाता है। कर्ण। २. ऐसा सहारा या साधन जो कठिन समय में भवसागर से पार उतारे। पुं० [हिं० पत्ता] १. पौधों विशेषतः सरकंड़ों आदि की सूखी पत्तियाँ। २. कूड़ा-करकट। जैसे—खर-पतवार।
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पतवारी  : स्त्री० [हिं० पता, पत्ता] ऊख का खेत। स्त्री०=पतवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतवाल  : स्त्री०=पतवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतवास  : स्त्री० [सं० पतत्=चिड़िया+वास] पक्षियों का अड्डा। चिक्कस।
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पतस  : पुं० [सं०√पत्+असच्] १. पक्षी। चिड़िया। २. पतिंगा। शलभ। ३. चंद्रमा।
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पतस्वाहा  : पुं० [हिं०] अग्नि।
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पता  : पुं० [सं० प्रत्यय, प्रा० पत्तय=अग्नि] १. किसी काम,चीज जगह या बात का परिचायक वह विवरण जिसकी सहायता से उसके पास तक पहुँचा जा सके या उसके रूप स्थिति आदि का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। पद—पता-ठिकाना (दे०)। २. चिट्ठी आदि के ऊपर का वह विवरणात्मक लेख जो सूचित करता है कि वह पत्र किस स्थान के निवासी किस व्यक्ति का है अथवा किसके पास पहुँचना चाहिए। ३. किसी अज्ञात विषय, व्यक्ति आदि के संबंध की ऐसी जानकारी जो अभी तक प्राप्त न हुई हो और जिसे प्राप्त करना अभीष्ट या आवश्यक हो। जैसे—चोर (या मुजरिम) का अभी तक पता नहीं है। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना।—लगना।—लगाना। पद—पते का=वास्तव में उस स्थान का जिसका सब को परिचय न हो। ४. किसी बात या विषय के गूढ़ तत्त्व या रहस्य की ऐसी जानकारी जो प्राप्त की जाने को हो। जैसे—यह पता लगाना चाहिए कि उसके पास रुपया कहाँ से आता है। पद—पते की बात=ऐसी बात जिससे कोई भेद खुल जाता या रहस्य स्पष्ट हो जाता है। जैसे—वाह ! तुमने भी क्या पते की बात कही है। विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग केवल ‘पते की’ के रूप में भी होता है। स्त्री० [लता का अनु०] लता या उसी तरह की और चीज। लता के साथ प्रयुक्त। जैसे—लता-पता।
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पताई  : स्त्री० [हिं० पत्ता (वृक्ष का)] १. वृक्ष या पौधे की ऐसी पत्तियाँ जो सूखकर झड़ गई हों। मुहा०—पताई लगाना=चूल्हे, भट्ठी आदि में सूखी पत्तियाँ झोंकना। (किसी के मुँह में) पताई लगाना=मुँह फूँकना (स्त्रियों की गाली) २. कूड़ा-करकट। स्त्री० [हिं० पत्ता (कान का)] गहना। जेवर। जैसे—गहना-पताई कुछ नहीं मिला।
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पताकरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो बंगाल, आसाम और पश्चिमी घाट में होता है। इसके फल खाए जाते हैं।
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पताका  : स्त्री० [सं०√पत्+आकन्—टाप्] १. लकड़ी आदि के डंडे के सिरे पर पहनाया हुआ वह तिकोना या चौकोना कपड़ा जिस पर कभी कभी किसी राजा या संस्था का विशिष्ट चिह्न भी अंकित रहता है। झंडा। झंडी। फरहरा। २. झंडा। ध्वजा। (मुहा० के लिए दे० ‘झंडा’ के मुहा०) पद—विजय की पताका=युद्ध आदि में किसी स्थान पर विजयी पक्ष की वह पताका जो विजित पक्ष की पताका गिराकर उसके स्थान पर उड़ाई जाती है। विजय-सूचक। पताका। ३. वह डंडा जिसमें पताका पहनाई हुई होती है। ध्वज। ४. सौभाग्य। ५. तीर चलाने में उँगलियों की एक विशिष्ट प्रकार की स्थिति। ६. दस खर्ब की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जायगी— १०००००००००००० । ७. पिंगल के नौ प्रत्ययों में से आठवाँ जिसके द्वारा किसी निश्चित गुरु, लघु वर्ण के छंद अथवा छंदों का स्थान जाना जाय। ८. साहित्य में, नाटक की प्रासंगिक कथा के दो भेदों में से एक। वह कथा जो रूपक (या नाटक की) आधिकारिक कथा की सहायतार्थ आती और दूर तक चलती है। इसका नायक अलग होता है और पताका नायक कहलाता है। जैसे—प्रसाद के स्कंद गुप्त नाटक में मालव की कथा ‘पताका’ है और उसका नायक वभ्रुवर्मा पताका नायक है। (दूसरा भेद प्रकरी कहलाता है)।
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पताका-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] बाँस आदि जिसमें पताका लगी होती है।
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पताका-वेश्या  : स्त्री० [सं०] बहुत ही निम्न कोटि की वेश्या। टकाही रंडी।
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पताका-स्थानक  : पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में, नाटक के अंतर्गत वह स्थिति जिसमें किसी प्रसंग के द्वारा आगे की या तो अन्योक्ति पद्धति पर या समासोक्ति पद्धति पर सूचित की जाती है।
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पताकांक  : पुं० [सं० पताका-अंक, ष० त०, ब० स०] दे० ‘पताका स्थान’।
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पताकांशु  : पुं० [सं० पताका-अंशु, ष० त०] झंडा। झंडी। पताका।
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पताकिक  : पुं० [सं० पताका+ठन्—इक] वह जो आगे आगे झंडा या पताका लेकर चलता हो।
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पताकित  : वि० [सं० पताका+इतच्] (स्थान) जिस पर पताका लगाई गई हो।
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पताकिनी  : स्त्री० [सं० पताका+इनि—ङीप्] १. सेना। फौज। २. एक देवी का नाम।
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पताकी (किन्)  : वि० [सं० पताका+इनि] [स्त्री० पताकिनी] झंडा लेकर चलनेवाला। पुं० १. रथ। २. फलित ज्योतिष में राशियों का एक विशेष वेध जिससे जातक के अरिष्ट काल की अवधि जानी जाती है।
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पतामी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की नाव।
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पतार  : पुं० [सं० पाताल] १. घना जंगल। सघन वन। २. नीची भूमि। ३. दे० ‘पाताल’।
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पतारी  : स्त्री० [देश०] जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक तरह की चिड़िया जिसका शिकार किया जाता है।
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पताल  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पताल-आँवला  : पुं० [सं० पाताल-आमकली] औषध के काम में आनेवाला एक पौधा।
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पताल-कुम्हड़ा  : पुं० [सं० पाताल-कुष्मांड] एक तरह का जंगली पौधा।
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पताल-दंती  : पुं०=पातालदंती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतावर  : पुं० [हिं० पत्ता] पेड़ के सूखे झड़े हुए पत्ते।
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पतासा  : पुं०=पताशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतासी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की छोटी रुखानी (बढ़ई)।
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पति  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+डति] [स्त्री० पत्नी] १. किसी वस्तु का मालिक या स्वामी। अधिपति। प्रभु। जैसे—गृहपति। २. स्त्री की दृष्टि से वह पुरुष जिसके साथ उसका विधिवत् विवाह हुआ हो। खाविंद। दूल्हा। शौहर। विशेष—साहित्य में श्रृंगार रस का आलम्बन वह नायक ‘पति’ माना जाता है, जिसने नायिका का विधिवत् पाणि-ग्रहण किया हो। ३. पाशुपत दर्शन के अनुसार सृष्टि, स्थिति और संहार का वह कारण जिसमें निरतिशय, ज्ञान-शक्ति और क्रियाशक्ति होती है और ऐश्वर्य से जिसका नित्य संबंध होता है। ईश्वर। ४. जड़। मूल। स्त्री० [हिं० पत=प्रतिष्ठा] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लज्जा। शर्म। उदा०—जो पति संपति हूँ बिना, जदुपति राखे जाह।—बिहारी।
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पति-कामा  : वि० [सं० ब० स०, टाप्] (स्त्री) जिसके मन में किसी पुरुष से विधिवत् विवाह करने की इच्छा हो।
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पति-देवा  : वि० [ब० स०] (ऐसी स्त्री) जो अपने पति या स्वामी को ही सबसे बड़ा देवता मानती हो; अर्थात् पतिव्रता।
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पति-धर्म  : पुं० [ष० त०] १. पति और स्वामी का कर्तव्य और धर्म। २. पति के प्रति पत्नी का कर्त्तव्य और धर्म।
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पति-प्राणा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] पति को प्राणों के समान समझनेवाली अर्थात् पतिव्रता स्त्री।
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पति-रिपु  : वि० [सं० ब० स०] पति से द्वेष या शत्रुता करनेवाली। पति से वैर रखनेवाली। (स्त्री)।
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पति-लंघन  : पुं० [सं० ष० त०] स्त्री का दूसरे पति से विवाह करके पहले मृत-पति का तिरस्कार करना।
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पति-वेदन  : वि० [सं० ष० त०] जो पति प्राप्त करावे। पति प्राप्त करानेवाला। पुं० महादेव शिव।
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पति-वेदना  : स्त्री० [सं० ष० त०] तंत्र-मंत्र या और किसी उपचार से पति को प्राप्त करनेवाली स्त्री।
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पति-व्यूह  : पुं० [ष० त०] वह सैनिक व्यूह-रचना जिसमें आगे कवचधारी सैनिक हों और पीछे धनुर्धर।
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पति-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] विवाहिता स्त्री का वह व्रत कि मैं सदा पति में अनन्य भक्ति रखूँगी, आज्ञाकारिणी बनकर सेवा करूँगी और पर-पुरुष की ओर कभी कुदृष्टि से नहीं देखूँगी। पातिव्रत्य।
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पतिआना  : स०=पतियाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतिआर  : वि० [हिं० पतियाना] जिस पर विश्वास किया जा सके। पुं०=विश्वास।
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पतिक  : पुं० [सं० प्रतिकः] कार्षापण नाम का पुराना सिक्का।
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पतिंग  : पुं०=पतंगा।
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पतिंगा  : पुं०=पतंगा।
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पतिघातिनी  : स्त्री० [सं० पति√हन् (हिंसा)+णिनि—ङीप्] १. पति की हत्या करनेवाली स्त्री। पति को मार डालनेवाली स्त्री। २. फलित ज्योतिष में, ऐसी स्त्री जिसका ग्रहों के प्रभाव के कारण विधवा हो जाना अवश्यम्भावी या निश्चित हो। ३. सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार स्त्रियों के हाथ में होनेवाली एक रेखा जिसके प्रभाव से उनका विधवा हो जाना निश्चित माना जाता है।
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पतिघ्न  : वि० [सं० पति√हन्+ठक्] पति को मार डालनेवाला या वाली। पुं० स्त्रियों में होनेवाला वह अशुभ चिन्ह या लक्षण जिससे उसके पति के शीघ्र ही मर जाने की संभावना सूचित होती है।
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पतिघ्नी  : स्त्री० [सं० पतिघ्न+ङीप्]=पतिघातिनी।
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पतिजिया  : स्त्री० [सं० पुत्रजीवा] जीया पोता नामक वृक्ष।
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पतित  : भू० कृ० [सं०√पत् (गिरना)+क्त] [स्त्री० पतिता, भाव० पतितता] १. ऊपर से नीचे आया या गिरा हुआ। २. नीचे की ओर झुका हुआ। नत। ३.(व्यक्ति) जिसका नैतिक दृष्टि से पतन हो चुका हो। ४. ऊपरी जाति या वर्ग के धर्म या धार्मिक प्रथाओं, विश्वासों आदि को न माननेवाला, उनका उल्लंघन करनेवाला अथवा उन्हें हेय समझनेवाला। ५. बहुत बड़ा अधम, नीच या पापी। ६. जो अपनी जाति, धर्म या समाज से किसी हीन आचरण के कारण निकाला या बहिष्कृत किया गया हो। ७. जो युद्ध आदि में गिरा, दबा या हरा दिया गया हो। ८. अपवित्र। मलिन। ९. गिराया या फेंका हुआ।
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पतित-उधारन  : वि० [सं० पतित+हिं० उधारना (सं० उद्धरण)] पतितों का उद्धार करनेवाला तथा उन्हें सद्गति देनेवाला। पुं० ईश्वर।
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पतित-पावन  : वि० [पतित√पाव+ल्युट्—अन] [स्त्री० पतितपावनी] पतित को भी पवित्र करनेवाला पतितों को शुद्ध करनेवाला। पुं० परमेश्वर।
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पतित-वृक्ष  : वि० [कर्म० स०] पतित दशा में रहनेवाला। जातिच्युत होकर जीवन बितानेवाला।
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पतित-सावित्रीक  : वि० [ब० स० कप्] (ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा शूद्र) जिसका यज्ञोपवीत विधिवत् न हुआ हो अथवा हुआ ही न हो।
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पतितता  : स्त्री० [सं० पतित+तल्—टाप्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। २. जाति या धर्म से च्युत होने का भाव। ३. अपवित्रता। ४. अधमता। नीचता।
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पतितव्य  : वि० [सं०√पत्+तव्यत्] जो पतित होने को हो या पतित होने के योग्य हो।
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पतित्व  : पुं० [सं० पति+त्व] १. प्रभुत्व। स्वामित्व। २. पति या पाणिग्राहक होने की अवस्था, भाव या समर्थता।
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पतिधर्मवती  : वि० [सं० पतिधर्म+मतुप्, वत्व, ङीप्] (स्त्री) जो पति के प्रति अपने कर्तव्य करने के लिए सचेत हो।
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पतिनी  : स्त्री०=पत्नी(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतिपारना  : स० [सं० प्रतिपालन] १.प्रतिपालन करना। पूरा करना। २.पालन-पोषण करना।
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पतिया  : स्त्री०=पाती (चिट्ठी या पत्री)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतियाना  : स० [सं० प्रत्यय+हिं० आना (प्रत्य०)] १. किसी की कही हुई बात आदि पर विश्वास करना। सच समझना। २. किसी व्यक्ति को विश्वसनीय या सच्चा समझना।
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पतियार (ा)  : वि० [हिं० पतियाना] विश्वसनीय। पुं० प्रत्यय। विश्वास।(पतियारा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतिलोक  : पुं० [सं० ष० त०] पुराणानुसार वह लोक जिसमें स्त्री का मृत पति रहता है और जहाँ अच्छी स्त्री भी मरने पर भेजी जाती है।
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पतिवंती  : वि० [सं० पति-मती] (स्त्री) जिसका पति जीवित या वर्तमान हो। सधवा।
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पतिवती  : वि०=पतिवंती।
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पतिवत्नी  : वि० स्त्री० [सं० पति+मतुप्, वत्व, ङीप्, नुक् ]=पतिवंती।
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पतिंवरा  : वि० [सं० पति√वृ (वरण करना)+खच्, मुम्] १.(स्त्री) जो अपना पति स्वयं चुने। स्वेच्छा से पति का वरण करनेवाली (स्त्री)। स्वयंवरा। स्त्री० काला जीरा।
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पतिवर्त्ता  : स्त्री०=पतिव्रता।
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पतिवाह  : पुं० [?] उत्तर प्रदेश के कुछ पूर्वी जिलों में रहनेवाली अहीरों की एक जाति।
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पतिव्रता  : वि० [सं० ब० स०, टाप्] पति-धर्म ही जिसका व्रत हो। अर्थात् पति में पूर्ण निष्ठा रखनेवाली तथा उसका अनुसरण करनेवाली सच्चरित्रा (स्त्री)।
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पतिष्ठ  : वि० [सं० पतितृ+इष्ठन् ‘तृ’ का लोप] पूरी तरह से पतन की ओर प्रवृत्त रहने या होनेवाला। अत्यन्त पतन-शील।
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पती  : पुं०=पति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीआ  : स्त्री०=प्रतिज्ञा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीजना  : अ० [हिं० प्रतीत+ना (प्रत्य०)] प्रतीति या एतबार करना। भरोसा या विश्वास करना। उदा०—इहौ राहु भा भानहिं, राधौं मनहिं पतीजु।—जायसी।
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पतीणना  : स०=पतीतना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीतना  : स०=पतीजना (विश्वास करना)।
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पतीना  : स०=पतीतना (विश्वास करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीर  : स्त्री० [सं० पंक्ति] कतार। पंक्ति। वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीरी  : स्त्री० [हिं० पात=पत्ता] एक प्रकार की चटाई।
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पतील  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीला  : पुं० [सं० पतिली] [स्त्री० अल्पा० पतीली] ताँबे, पीतल आदि का ऊँचे तथा खड़े किनारेवाला और गोल घेरेवाला एक प्रसिद्ध बरतन। वि०=पतील (पतला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीली  : स्त्री० हिं० पतीला का स्त्री० अल्पा० रूप।
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पतुका  : पुं० [सं० पात्र] [स्त्री० अल्पा० पतुकी ] १.बड़ी हाँड़ी। मटका। उदा०—पतुकी धरी श्याम खिसाई रहे उत ग्वारि हंसी मुख आंचल कै।—केशव। २. पतीला। (बुंदे०)।
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पतुरिया  : स्त्री० [सं० पतिली=स्त्री विशेष] १. वेश्या, विशेषतः नाचने, गाने का पेशा करनेवाली वेश्या। पातुरी। २. दुश्चरित्रा और व्यभिचारिणी स्त्री। पुंश्चली। (दे० पातुरी)
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पतुली  : स्त्री० [देश०] कलाई में पहनने का एक गहना। (अवध)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतुही  : स्त्री० [हिं० पत्ता] मटर की वह हरी फली जिसमें पूरे तथा पुष्ट दाने न हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतूखी  : स्त्री०=पतोखी (पतोखा का स्त्री० रूप)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतेना  : स्त्री० [?] हरे सुनहले रंग की एक चिड़िया जिसकी गरदन और पेट नीला होता है। इसकी चोंच नीचे की ओर झुकी हुई, नुकीली और लंबी होती है।
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पतोई  : स्त्री० [देश०] ईख का रस खौलाते समय उसमें से निकलनेवाली मैली झाग।
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पतोखर  : स्त्री० [सं० हिं० पत्ता] वह ओषधि जो किसी वृक्ष, पौधे, तृण, पत्ते, फूल आदि के रूप में हो। खर-बिरई। पुं० [सं० ओषधिपति] चंद्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतोखरी  : स्त्री०=पतोखा।
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पतोखा  : पुं० [हिं० पत्ता] [स्त्री० अल्पा० पतोखी] १. पत्ते अथवा पत्तों का बना हुआ अंजुली या कटोरे के आकार का पात्र। २. पत्तों का बना हुआ छाता। ३.एक प्रकार का बगला पक्षी। पतंखा।
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पतोखी  : स्त्री० [हिं० पतोखा] १.एक पत्ते का बना हुआ छोटा दोना। २.पत्तों का बना हुआ छोटा छाता।
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पतोरा  : पुं०=पत्योरा (एक तरह का पकवान)।
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पतोह (हू)  : स्त्री० [सं० पुत्रवधू, प्रा० पुत्रबहू] पुत्र की स्त्री। पुत्रवधू।
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पतौआ  : पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतौखा (षा)  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पतौखी (षी)] =पतोखा।
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पत्त  : पुं०=पत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्तंग  : पुं० [सं० पत्रांग, पृषो० सिद्धि] पतंग नामक लकड़ी। बक्कम।
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पत्तन  : पुं० [सं०√पत्+तनन्] १. छोटा नगर। कस्बा। २. मृदंग।
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पत्तन-आयुध  : पुं० [सं० ष० त०] वे आयुध जिनसे नगर की रक्षा की जाती हो।
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पत्तन-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्तन या कस्बा जिसका शासन तथा व्यवस्था वहाँ के निर्वाचित लोग करते हों। (टाउन एरिया)।
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पत्तन-पाल  : पुं० [सं०पत्तन√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] पत्तन या कस्बे का प्रधान शासक।
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पत्तर  : पुं० [सं० पत्र] धातु आदि का कागज के समान लचीला तथा पतला टुकड़ा। स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्तल  : स्त्री० [सं० पत्र, हिं० पत्ता] १. पलाश, महुए आदि के पत्तों को छोटी-छोटी सीकों की सहायता से जोड़कर थाली के सदृश बनाया हुआ गोलाकार आधार। कहा०—जिस पत्तल में खाना, उसी में छेद करना=अपने उपकारक, पालक, संरक्षक आदि का भी अपकार करना। पद—एक पत्तल के खानेवाले=परस्पर घनिष्ठ सामाजिक संबंध रखनेवाले। परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार करनेवाले। सजातीय। जूठी पत्तल=किसी की जूठी हुई भोजन सामग्री। उच्छिष्ट। मुहा०—पत्तल खोलना=जिस काम की प्रतिज्ञा की या शर्त रखी गई हो, उसके पूरे होने पर ही भोजन करना। (दे० नीचे ‘पत्तल बाँधना’) पत्तल पड़ना=भोजन के समय खानोंवालों के लिए पत्तलें क्रम से बिछाई या रखी जाना। पत्तल परसना=(क) खानेवालों के सामने पत्तलें रखना। (ख) उक्त पत्तलों पर भोजन की सामग्री रखना। पत्तल बाँधना=यह प्रतिज्ञा करना या लगाना कि जब तक अमुक काम न हो जायगा, तब तक भोजन नहीं किया जायगा। (किसी की) पत्तल में खाना=(किसी के साथ) खान-पान का संबंध करना या रखना। पत्तल लगाना=पत्तल परसना (दे० ऊपर)। २. पत्तल पर परोसे हुए खाद्य पदार्थ। क्रि० प्र०—लगाना। ३. उतना भोजन जितना एक साधारण आदमी करता हो। जैसे—जो खाने के लिए न आवे, उसके घर पत्तल भेज देना।
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पत्ता  : पुं० [सं० पत्र] [स्त्री० पत्ती] १. पेड़-पौधों आदि के तनों, शाखाओं आदि में लगनेवाले प्रायः हरे रंग के चिपटे लचीले अवयवों में से हर एक जो हवा में लहराता या हिलता-डुलता रहता है। पर्ण। मुहा०—पत्ता खड़कना=(क) किसी प्रकार की गति आदि की आहट मिलना। (ख) किसी प्रकार की आशंका या खटका होना। पत्ता तक न हिलना=हवा का इतना बंद रहना या बिलकुल न चलना कि वृक्षों के पत्ते तक न हिल रहे हों। पत्तातोड़ भागना=जान बचाने या मुँह छिपाने के लिए बहुत तेजी से भागकर दूर निकल जाना। (फल आदि में) पत्ता लगना=पत्ते से सटे रहने के कारण फल में दाग पड़ जाना या उसके कुछ अंश सड़ जाना। पत्ता हो जाना=बहुत तेजी से भागकर अदृश्य या गायब हो जाना। २. उक्त के आधार पर, चाट आदि वे वस्तुएँ जो पत्तों पर रखकर बेची जाती हैं। जैसे—एक पत्ता दही बड़ा इन्हें भी दो। मुहा०—पत्ते चाटना=बाजारी चीजें खाना। ३. पत्ते के आकार का वह चिह्न जो कपड़े, कागज आदि पर छापा, बनाया या काढ़ा जाता है। ४. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना जो बालियों में लटकाया जाता है। ५.ताश की गड्डी में का कोई एक कागज का खंड। ६. सरकारी चलनसार नोट। जैसे—दस रुपए का पत्ता,सौ रुपए का पत्ता। वि० पत्ते की तरह का बहुत पतला और हलका।
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पत्ता-फेर  : पुं०=पटा-फेर।
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पत्ति  : पुं० [सं०√पद् (जाना)+क्तिन्] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। २. पैदल सिपाही। प्यादा। ३. योद्धा। वीर। ४. नायक। स्त्री० प्राचीन भारतीय सेना की एक इकाई जो सेनामुख की एक तिहाई होती थी।
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पत्ति-काय  : पुं० [ष० त०] १. पैदल सेना। २. पैदल चलने वाला सिपाही।
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पत्ति-गणक  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत में, वह सैनिक अधिकारी जो पत्ति अर्थात् पैदल सेना की गणना करता था।
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पत्ति-सैन्य  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘पत्ति-काय’।
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पत्तिक  : वि० [सं० पत्ति+कन्] पैदल चलनेवाला।
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पत्तिगण  : पुं०=पत्ति-गणक।
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पत्तिपाल  : पुं० [सं० पत्ति√पाल् (रक्षा)+णिच्=अण्, ष० त०] पत्ति का नायक।
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पत्ती  : स्त्री० [हिं० पत्ता+ई (प्रत्य०)] १. पेड़-पौधों का बहुत छोटा पत्ता। जैसे—गेंदें, नीम या बेले की पत्ती। २. भाँग नामक पौधे में लगने वाले छोटे-छोटे पत्ते जो नशीले होते हैं। (पूरब)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) ३. तमाकू के बड़े-बड़े पत्तों का विशेष प्रक्रिया से बनाया हुआ चूरा जिसे लोग पान आदि के साथ खाते हैं। (पूरब)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) ४. फूल की पंखुड़ी। ५. लकड़ी धातु आदि का छोटा टुकड़ा। ६. लोहे का तेज धार वाला वह छोटा पतला टुकड़ा जिसकी सहायता से दाढ़ी बनाई जाती है। (ब्लेड) ७. ताश का कोई पत्ता। ८. रोजगार, व्यवसाय आदि में होनेवाला साझे का अंश। जैसे—इस व्यवसाय में इनकी भी दो आना पत्ती है।
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पत्तीदार  : वि० [हिं० पत्ती+फा० दार=रखनेवाला] १. (पौधा या वृक्ष) जिसमें पत्तियाँ हों। २. (व्यक्ति) जिसकी किसी व्यापार या सम्पत्ति में पत्ती (भाग या हिस्सा हो)।
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पत्तूर  : पुं० [सं०√पत्त+ऊर्,नि० सिद्धि] १. शांति या शालिंच नामक साक। २. जल-पीपल। ३.पाकर का पेड़। ४. शमी का पेड़। ५.पतंग या बक्कम नामक वृक्ष की लकड़ी।
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पत्थ  : पुं० १.=पथ्य। २.=पथ।
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पत्थर  : पुं० [सं० प्रस्तर, प्रा० पत्थर] [वि० पथरीला, क्रि० पथराना] १. धातुओं से भिन्न वह कड़ा, ठोस और भारी भू-द्रव्य जो खानों के नीचे बनता है। भू-कम्प आदि के कारण यही भू-द्रव्य ऊपर उठकर पर्वतों का रूप धारण कर लेता है। २. खानों में से खोदकर या पर्वतों में से काटकर निकाला हुआ उक्त भू-द्रव्य का कोई खंड या पिंड। पद—पत्थर का कलेजा, दिल या हृदय=अत्यन्त कठोर हृदय। किसी के कष्ट से न पसीजनेवाला दिल या हृदय। पत्थर का छापा=पुस्तकों आदि की एक प्रकार की छपाई जिसमें छापे जानेवाले लेख की एक प्रतिलिपि पत्थर पर उतारी जाती है और उसी पत्थर पर कागज रखकर छापते हैं। लीथो की छपाई। पत्थर की छाती=(क) ऐसा हृदय जो बहुत बड़े-बड़े कष्ट भी सहज में और चुपचाप सह लेता हो। (ख) ‘दे० ऊपर पत्थर का कलेजा’। पत्थर कील कीर=ऐसी प्रतिज्ञा या बात, जो उसी प्रकार दृढ़ और स्थायी हो, जैसी पत्थर के ऊपर छेनी आदि से खींची हुई लकीर होती है। मुहा०—पत्थर को (या में) जोंक लगाना=बिलकुल अनहोनी या असंभव बात करना। ऐसा काम करना जो औरों के लिए असंभव या बहुत अधिक कठिन हो। (शस्त्र आदि को) पत्थर चटाना=छुरी, कटार आदि की धार पत्थर पर घिसकर तेज करना। पत्थर तले हाथ आना या दबना=ऐसे संकट में पड़ना या फँसना जिससे छूटने का कोई उपाय न सूझता हो। बुरी तरह फंस जाना। पत्थर तले से हाथ निकालना=बहुत बड़े संकट या विकट स्थिति में से किसी प्रकार बचकर निकलना। पत्थर निचोड़ना=(क) अनहोनी बात या असंभव बात कर दिखाना। (ख) ऐसे व्यक्ति से कुछ प्राप्त कर लेना जिससे प्राप्त कर लेना औरों के लिए बिल्कुल असंभव हो। पत्थर पिघलना या पसीजना=(क) बिलकुल अनहोनी या असंभव बात होना। परम कठोर हृदय का भी द्रवित होना। पत्थर सा खींच या फेंक मारना=बहुत ही रुखाई से उत्तर देना या बात करना। पत्थर से सिर फोड़ना या मारना=असंभव काम या बात के लिए प्रयत्न करना। व्यर्थ सिर खपाना। ३. सड़कों पर लगा हुआ वह पत्थर जिस पर वहाँ से विशिष्ट स्थान की दूरी अंकित होती है। ४. ओला। बिनौला। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। पद—पत्थर पड़े=चौपट हो जाय। नष्ट हो जाय, मारा जाय। ईश्वर का कोप पड़े। (अभिशाप या गाली) जैसे—पत्थर पड़े तुम्हारी इस करनी (या बुद्धि) पर। मुहा०—(किसी चीज या बात पर) पत्थर पड़ना=बुरी तरह से चौपट या नष्ट-भ्रष्ट हो जाना। जैसे—तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गया है। पत्थर पानी पड़ना=बहुत जोरों की वर्षा होना और उसके साथ ओले गिरना। ५. नीलम, पन्ना, लाल, हीरा आदि रत्नों जो वस्तुतः बहुमूल्य पत्थर ही होते हैं। जवाहिर। ६. ऐसी चीज जो पत्थर की ही तरह कठोर, जड़ या ठोस या भारी हो। जैसे—(क) यह गठरी क्या है, पत्थर है। (ख) तुम्हारा कलेजा क्या है, पत्थर है। ७. ऐसा अन्न आदि जो जल्दी गलता या पचता न हो। अव्य० नाम को भी कुछ नहीं। बिलकुल नहीं। जैसे—वहाँ क्या रखा है, पत्थर !
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पत्थर-कला  : स्त्री० [हिं० पत्थर+कल] एक तरह की पुरानी चाल की बन्दूकें जिसमें लगे हुए चकमक पत्थर की सहायता से बारूद दागा जाता था।
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पत्थर-चटा  : पुं० [हिं० पत्थर+अनु० चट चट] एक प्रकार की घास जिसकी टहनियाँ नरम और पतली होती हैं। पुं० [हिं० पत्थर+चाटना] १.एक प्रकार का साँप जो प्रायः पत्थर चाटता हुआ दिखाई देता है। २. एक प्रकार की समुद्री मछली जो प्रायः चट्टानों से चिपटी रहती है। ३. वह जो प्रायः घर के अन्दर रहता हो और जल्दी घर से बाहर न निकलता हो। ४. वह जो बहुत बड़ा कंजूस या मक्खीचूस हो।
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पत्थर-चूर  : पुं० [हिं० पत्थर+चूर] एक तरह का पौधा।
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पत्थर-फूल  : पुं० [हिं० पत्थर+फूल] दवा तथा मसाले के काम में आनेवाला एक तरह का पौधा जो प्रायः पथरीली भूमि में होता है। छरीला। शिलापुष्प।
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पत्थर-फोड़  : पुं० [हिं० पत्थर+फोड़ना] १.पत्थर तोड़ने का पेशा करनेवाला। संगतराश। २. छरीला या शैलाख्य नामक पौधा जो पत्थरों की संधियों में उत्पन्न होता है। ३. दे० ‘हुदहुद पक्षी’।
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पत्थरबाज  : वि० [हिं० पत्थर+फा० बाज] [भाव० पत्थरबाजी] पत्थर फेंक-फेंककर लोगों को मारनेवाला। पुं० वह जिसे ढेलवाँस से कंकड़-पत्थर फेंकने का अभ्यास हो। ढेल-वाह।
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पत्थरबाजी  : स्त्री० [हिं० पत्थरबाज] दूसरों पर पत्थर फेंकने की क्रिया या भाव। ढेलेबाजी।
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पत्थल  : पुं०=पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्थार  : पुं०=विस्तार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्नी  : स्त्री० [सं० पति+ङीप्, नुक्] किसी पुरुष से संबंध के विचार से वह स्त्री जिसके साथ वह पुरुष का विधिवत् पाणि-ग्रहण या विवाह हुआ हो। भार्या। जोरू।
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पत्नी-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री से गमन न करने का व्रत या संकल्प।
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पत्नी-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] यज्ञ में वह गृह जो पत्नी के लिए बनाया जाता था। यह यज्ञशाला के पश्चिम की ओर होता था।
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पत्नीव्रती (तिन्)  : वि० [सं० पत्नीव्रत+इनि] जिसने पत्नी-व्रत धारण किया हो, अथवा जो पत्नी-व्रत का पालन करता हो।
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पत्य  : पुं० [सं० पति+यत्] पति होने की अवस्था,धर्म या भाव। जैसे—पातिव्रत्य।
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पत्याना  : स०=पतियाना।
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पत्यारा  : वि०, पुं०=पतियारा।
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पत्यारी  : स्त्री० [सं० पंक्ति] पंक्ति। कतार।
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पत्योरा  : पुं० [हिं० पत्ता+और (प्रत्य०)] अच्चू के पत्ते का रिकवँछ।
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पत्र  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+ष्ट्रन्] १. वृक्ष का पत्ता। पत्ती। पर्ण। २. वह कागज जिस पर किसी को भेजने के लिए कोई संदेश या समाचार लिखा हो। खत। चिट्ठी। विशेष—प्राचीन काल में, जब कागज नहीं होता था, संदेश, समाचार आदि प्रायः वृक्षों के बड़े पत्तों पर ही लिखकर भेजे जाते थे; इसलिए यह शब्द अब खत या चिट्ठी का वाचक हो गया है। ३. वह कागज या धातु-पट जिस पर विशेष व्यवहार के प्रमाण-स्वरूप कुछ लिखा गया हो। जैसे—दान-पत्र, प्रतिज्ञा-पत्र। ४. वह लेख जो किसी व्यवहार या घटना के प्रमाण-स्वरूप लिखा गया हो। कोई पट्टा या दस्तावेज। ५. समाचार पत्र। अखबार। ६. समाचार-पत्रों या सामयिक पत्रों का वर्ग या समूह। (प्रेस) ७. पुस्तक आदि का पृष्ठ। पन्ना। ८. धातु आदि का पत्तर। जैसे—स्वर्ण-पत्र। ९. पक्षियों का वह पर जो तीर में बँधा या लगाया जाता है। पंख। १॰. सौंदर्य-वृद्धि के लिए रंगों, सुगंधित द्रव्यों आदि से बनाई जानेवाली आकृतियाँ या अंकन। ११. तेजपात। १२. पक्षी। चिड़िया। १३. वाहन। सवारी। १४. छुरी, तलवार आदि का दल। पुं० [सं० पात्र ] बरतन। उदा०—ऊँधा पत्र बुदबुद जल आकृति।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्र-कर्तक  : पुं० [सं० ष० त०] उपकरण जिससे कागज आदि काटे जाते हैं। (पेपर कटर)।
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पत्र-कारी  : स्त्री०=पत्रकारिता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्र-काहला  : स्त्री० [सं० ष० त०] पक्षी के परों के फड़फड़ाने अथवा पत्तों के हिलने से होनेवाला शब्द।
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पत्र-कृच्छ्र  : पुं० [मध्य० स०] एक व्रत जिसमें पत्तों का काढ़ा पीकर रहना पड़ता है।
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पत्र-गुप्त  : पुं० [सं० ब० स०] तिधारा। थूहर। त्रिकंटक।
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पत्र-घना  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] सातला नाम का पौधा।
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पत्र-जात  : पुं० [ष० त०] १. किसी संस्था, सभा अथवा किसी विषय से संबंध रखनेवाले सभी आवश्यक कागज। कागज-पत्तर (पेपर्स)। २. इस प्रकार के पत्रों की नत्थी (फाइल)।
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पत्र-तंडुली  : स्त्री० [सं० पत्र-तंडुल, ब० स० ङीष्] यवतिक्ता लता।
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पत्र-तरू  : पुं० [मध्य० स०] दुर्गन्ध खैर।
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पत्र-दारक  : पुं० [सं०√दृ (विदारण)+णिच्+ण्वुल्—अक, पत्र-दारक, ष० त०] लकड़ी चीरने का आरा।
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पत्र-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] ताड़ का पेड़।
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पत्र-नाड़िका  : स्त्री० [ष० त०] पत्ते की नस।
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पत्र-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] वह पंजी या रजिस्टर जिसमें आनेवाले पत्रों और उनके दिये जानेवाले उत्तरों का विवरण रखा जाता है। (लेटरबुक)।
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पत्र-परशु  : पुं० [स० त०] सुनारों की छेनी।
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पत्र-पाल  : पुं० [ब० स०] १. बड़ी छुरी। २. दे० ‘डाकपाल’।
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पत्र-पाश्या  : स्त्री० [ ष० त०] पुरानी चाल का एक तरह का आभूषण जो स्त्रियाँ माथे पर बाँधती थीं।
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पत्र-पिशाचिका  : स्त्री० [सुप्सुपा समास] पत्तियों की बनी हुई छतरी।
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पत्र-पुट  : पुं० [ष० त०] पत्ते का बना हुआ पात्र। दोना।
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पत्र-पुरा  : स्त्री० [सं०] पुरानी चाल की एक तरह की नाव जिसकी लम्बाई ९६ हाथ चौड़ाई और ऊँचाई ४८-४८ हाथ होती थी।
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पत्र-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. लाल तुलसी। २. एक विशेष प्रकार की तुलसी जिसकी पत्तियाँ छोटी-छोटी होती हैं। ३. सत्कार या पूजा की बहुत ही साधारण सामग्री। ४. सामान्य या तुच्छ उपहार।
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पत्र-पुष्पक  : पुं० [सं० पत्रपुष्प+कन् ] भोजपत्र।
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पत्र-पुष्पा  : स्त्री० [सं० पत्रपुष्प+टाप् ] १. तुलसी। २. छोटी पत्तियों वाली तुलसी।
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पत्र-पेटी  : स्त्री० [ष० त०] १. पत्र रखने की पेटी। २. डाक-विभाग द्वारा विभिन्न स्थानों पर स्थापित किया हुआ वह बड़ा डिब्बा जिसमें बाहर भेजे जानेवाले पत्र छोड़े जाते हैं। ३. उक्त के आधार पर वह डिब्बा जो किसी के घर पर लगा होता अथवा जिस पर किसी का नाम लिखा होता है और जिसमें डाकिये आदि उस विशिष्ट व्यक्ति की डाक डाल जाते हैं। (लेटरबाक्स, उक्त तीनों अर्थों में)।
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पत्र-बंध  : पुं० [ब० स०] १. फूलों से बाँधना या सजाना। २. फूलों से किया जानेवाला एक तरह का श्रृंगार।
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पत्र-भंग  : पुं० [ब० स०] पत्तियाँ, फूलों आदि के आकार का वह रेखांकन जो विशिष्ट अवसरों पर स्त्रियों के मुख की शोभा बढ़ाने के लिए कस्तूरी, केसर आदि के लेप से किया जाता है।
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पत्र-भंगी  : स्त्री० [सं० पत्रभंग+ङीष् ] दे० ‘पत्रभंग’।
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पत्र-भद्र  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पौधा।
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पत्र-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] पत्रयक्त मंजरी के आकार का एक तरह का तिलक।
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पत्र-माल  : पुं० [ब० स०] बेंत।
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पत्र-मित्र  : पुं० [मध्य० स०] एक दूसरे से दूर रहनेवाले ऐसे व्यक्ति जिनका कभी साक्षात्कार तो न हुआ हो, फिर भी जो केवल पत्र-व्यवहार के द्वारा आपस में मित्र बन गये हों। (पेन फ्रेंड)
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पत्र-यौवन  : पुं० [ब० स०] नया और कोमल पत्ता। किसलय।
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पत्र-रचना  : स्त्री० पत्रभंग। (दे०)
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पत्र-रथ  : पुं० [ब० स०] पक्षी।
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पत्र-रेखा  : स्त्री० पत्रभंग। (दे०)
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पत्र-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] १. सजावट के लिए बनाई जानेवाली फूल-पत्तियाँ या बेल-बूटे। पत्रावली। २. पत्रभंग। साटी।
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पत्र-लवण  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का नमक जो एरंड, मोरवा, अंडूसा, कुंज, अमिलतास और चीते के हरे पत्तों से निकाला जाता है।
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पत्र-लेखा  : स्त्री० [सं०] १.=पत्रभंग। २. चित्रों में सजावट के लिए फूल-पत्तियाँ या बेल-बूटे आदि अंकित करना।
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पत्र-वल्लरी  : स्त्री० [मध्य० स०] पत्रभंग। (दे०)
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पत्र-वल्ली  : स्त्री० [ष० त० या मध्य० स०] १. शंकरजटा। २. तांबूल। पान। ३. पलाशी नाम की लता। ४. पर्ण लता।
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पत्र-वाज  : पुं० [ब० स०] १. पक्षी। चिड़िया। २. तीर। बाण।
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पत्र-वाहक  : वि० [ष० त०] पत्र ले जानेवाला। पुं० वह व्यक्ति जिसके हाथ कोई पत्र किसी के पास भेजा जाय।
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पत्र-विशेषक  : पुं० [ब० स०, कप् ] १. तिलक। २. पत्रभंग। साटी।
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पत्र-विष  : पुं० [मध्य० स०] पत्रों से निकलनेवाला विष।
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पत्र-वृश्चिक  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार का उड़नेवाला छोटा कीड़ा जिसके काटने से बड़ी जलन होती है। पतबिछिया। पनबिछिया।
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पत्र-वेष्ट  : स्त्री० [ब० स०] एक तरह का करनफूल।
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पत्र-व्यवहार  : पुं० [ष० त०] पत्राचार। (दे०)
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पत्र-शवर  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन काल की एक अनार्य जाति।
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पत्र-शाक  : पुं० [मध्य० स०] वह पौधा जिसके पत्तों का साग बनाया जाता हो। जैसे—चौलाई, पालक आदि।
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पत्र-शिरा  : स्त्री० [ष० त०] पत्ते की नस।
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पत्र-श्रृंगी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] मूसाकानी लता।
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पत्र-श्रेणी  : स्त्री० [ष० त०] १. पत्तों की श्रेणी। पत्रावली। २. मूसाकानी।
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पत्र-श्रेष्ठ  : पुं० [स० त०] बेल का पत्ता। बिल्वपत्र। [ब० स०] बिल्ववृक्ष।
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पत्र-साहित्य  : पुं० [सं०] ऐसा साहित्य जिसमें किसी बड़े आदमी के लिखे हुए पत्रों (चिट्ठियों आदि) का संग्रह हो।
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पत्र-सूची  : स्त्री० [ ष० त०] १. कांटा। कंटक। २. बाहर भेजे जानेवाले अथवा बाहर से आये हुए पत्रों की सूची।
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पत्रक  : पुं० [सं० पत्र+कन्] १. पत्ता। २. पत्तियों की श्रृंखला। पत्रावली। ३. शांति नामक साग। ४. तेजपत्ता। ५. वह पत्र जिस पर स्मृति के लिए सूचना आदि के रूप में कोई बात लिखी हो। स्मृति-पत्र (मेमो, नोट)। वि० १. पत्र-संबंधी। २. पत्र या कागज का बना हुआ या पत्र के रूप में होनेवाला। जैसे—पत्रक-धन।
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पत्रक-धन  : पुं० [सं० मध्य० स०] निश्चित मान का वह धन जो छपे हुए कागज या पत्र अर्थात् धन-पत्र के रूप में हो। (पेपर मनी)।
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पत्रकार  : पुं० [सं० पत्र√कृ (करना)+अण्] वह व्यक्ति जो समाचार पत्रों को नित्य नये समाचारों की सूचना देता, उन पर टीका-टिप्पणी करता और दूसरों द्वारा भेजे हुए समाचारों को सम्पादित करता है। (जरनलिस्ट)।
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पत्रकारिता  : स्त्री० [सं० पत्र√कृ+णिनि+तल्+टाप्] १. पत्रकार होने की अवस्था या भाव। २. पत्रकार का काम। ३. वह विद्या जिसमें पत्रकारों के कार्यों, कर्तव्यों उद्देश्यों आदि का विवेचन होता है। (जरनलिज्म)।
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पत्रंग  : पुं० [सं० पत्र-अंग, ष० त०, शक पररूप] पतंग नाम की लकड़ी या पेड़। बक्कम।
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पत्रघ्न  : स्त्री० [सं० पत्र√हन् (हिंसा)+टक्] सेंहुँड़। थूहर।
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पत्रज  : पुं० [सं० पत्र√जन् (उत्पन्न होना)+ड] तेजपत्ता।
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पत्रणा  : स्त्री० [सं० पत्र√नम् (झुकना)+ड, णत्व, टाप्] १. पत्ररचना। २. बाण में पंख लगाना।
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पत्रपाली  : स्त्री० [सं० पत्रपाल+ङीष्] १. बाण का पिछला भाग। २. कैंची।
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पत्रपेटिका  : स्त्री०=पत्र-पेटी।
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पत्रवाह  : पुं० [सं० पत्र√वह् (ढोना)+अण्] १. वह जो पत्र लेकर कहीं जाय। पत्रवाहक। २. वह सरकारी कर्मचारी जिसका काम पत्र आदि लोगों के यहाँ पहुँचाना होता है। चिट्ठीरसाँ। डाकिया। ३. चिड़िया। पक्षी। ४. तीर। बाण।
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पत्रवाह-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] वह पंजी जिसमें पत्रवाहक द्वारा भेजे हुए पत्रों का विवरण होता है और जिस पर पत्र पानेवाले व्यक्ति के हस्ताक्षर भी कराये जाते हैं। (पियन बुक)।
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पत्रा  : पुं० [सं० पत्र] १. तिथिपत्र। २. पुस्तक का पन्ना। पृष्ठ।
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पत्राख्य  : पुं० [पत्र-आख्या, ब० स०] १. तेजपात। २.तालीशपत्र।
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पत्रांग  : पुं० [पत्र-अंग, ब० स०] १. लाल चन्दन। २. पतंग या बक्कम नाम का वृक्ष। ३. भोजपत्र। ४. कमलगट्टा।
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पत्रांगुलि  : स्त्री० [पत्र-अंगुलि, ब० स०] केसर, चन्दन आदि के लेप से किसी के ललाट मुख,कंठ आदि पर बनाये जानेवाले चिह्न या अलंकरण।
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पत्राचार  : पुं० [पत्र-आचार, ष० त०] १. परस्पर एक दूसरे को पत्र लिखना; अथवा आये हुए पत्रों के उत्तर देना। २. इस प्रकार लिखे हुए पत्र।
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पत्रांजन  : पुं० [पत्र-अंजन, ष० त०] स्याही।
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पत्राढ्य  : पुं० [पत्र-आढ्य, तृ० त०] १. पीपलामूल। २. पर्वत नामक तृण। ३. लाल चन्दन। ४. पतंग। बकक्म। ५. नरसल। ६. तालीशपत्र।
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पत्रान्य  : पुं० [सं० पत्रंग, पृषो० सिद्धि] १. पतंग। बक्कम। २. लाल चन्दन।
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पत्रालय  : पुं० [पत्र-आलय, ष० त०] डाकखाना। डाकघर।
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पत्रालाप  : पुं० [पत्र-आलाप, तृ० त०] पत्राचार (दे०)।
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पत्राली  : स्त्री० [पत्र-आली, ष० त०] १.पत्रों की श्रृंखला। २. एक आकार के कटे हुए कोरे या निरंक कागज की वह गड्डी जिसके पत्रों पर चिट्ठियाँ लिखी जाती हैं। (पैड)
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पत्रालु  : पुं० [सं० पत्र+आलुच्] १. कासालु। २. इक्षुदर्भ।
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पत्रावली  : स्त्री० [पत्र-आवली, ष० त०] १. सजावट के लिए बनाई जानेवाली फूल-पत्तियाँ या बेल-बूटे आदि। पत्र-लता। २. सुगंधित द्रव्यों और रंगों से चेहरे पर की जानेवाली पत्र-रचना। (देखें) ३.गेरू।
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पत्राहार  : पुं० [पत्र-आहार, ष० त०] पत्तों का किया जानेवाला भोजन।
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पत्राहारी (रिन्)  : वि० [सं० पत्राहार+इनि] वृक्षों के पत्ते खाकर ही रहनेवाला।
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पत्रिका  : स्त्री० [सं० पत्री+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. चिट्ठी। खत। पत्र। २. कोई छोटा लेख। जैसे—लग्न पत्रिका। ३. जन्मपत्री। ४. प्रायः नियमित रूप से निकलनेवाली ऐसी पुस्तिका जिसमें विभिन्न विषयों पर लेख, कहानियाँ कविताएँ आदि होती हैं। जैसे—सम्मेलन पत्रिका।
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पत्रिकाख्य  : पुं० [सं० पत्रिका-आख्या, ब० स०] एक प्रकार का कपूर। पानकपूर।
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पत्रिणी  : स्त्री० [सं० पत्र+इनि, ङीष्] बड़ा पत्ता।
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पत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० पत्र+इनि] जिसमें पत्तें हों। पत्रयुक्त। पत्तोंवाला। पुं० १. बाण। तीर। २. चिड़िया। पक्षी। ३. बाज पक्षी। ४. पेड़। वृक्ष। ५. पर्वत। पहाड़। ६. ताड़ का पेड़। ७. रथ का सवार। रथी। स्त्री० [सं० पत्र+ङीष्] १. चिट्ठी। खत। २. कोई छोटा लेख। पत्रिका। जैसे—जन्मपत्रिका, लग्नपत्री। ३. पत्तों का बना हुआ दोना। ४. धमासा। ५. खैर का पेड़। ६. ताड़ का पेड़। ७. महातेज पत्र। स्त्री० [हिं० पत्तर] हाथ में पहनने का जहाँगीरी नाम का गहना।
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पत्रोपस्कर  : पुं० [सं० पत्र-उपस्कर, ब० स०] कसौंदी। कासमर्द।
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पत्रोर्ण  : पुं० [सं० पत्र-ऊर्ण, मध्य० स०+अच्] १. रेशमी वस्त्र। २. सोनापाठा।
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पत्रोल्लास  : पुं० [सं० पत्र-उल्लास, ष० त०] अँखुआ। कोपल।
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