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धान्य-वर्धन  : पुं० [ब० स०] अन्न उधार देने की वह रीति जिसमें मूल और ब्याज दोनों अन्न के रूप में ही लिया जाता था।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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