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ध  : देवनागरी वर्णमाला का उन्नीसवाँ व्यंजन जो व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से दंत्य, घोष, महाप्राण और स्पर्शी है। पुं० धैवत स्वर का सूचक संक्षित रूप। (संगीत)
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धई  : स्त्री० [देश०] एक तरह का जंगली कंद, जिसे पहाड़ी जातियों के लोग खाते हैं।
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धउरहर  : पुं०=धौरहर।a
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धक  : स्त्री० [अनु०] १. भय आदि के कारण कलेजे के सहसा धड़कने से होनेवाला परिणाम। जैसे—चोर को देखते ही कलेजा धक-धक करने लगा। मुहा०—जी धक-धक करना=कलेजा धड़कना। जी धक होना=(क) भय या उद्वेग से जी धड़क उठना। डर से जी दहल जाना। (ख) चौंक पड़ना। २. मन की उमंग या भाव। ३. साहस। हिम्मत। उदा०—तौ भी सौधक कंतरी, मूँछाँ भूह मिलाय।—कविराजा सूर्यमल। ४. तृष्णा। लालसा। क्रि० वि० १. एक-बारगी। अचानक। सहसा। २. वेगपूर्वक। तेजी से। उदा०—दरै कति कुप्पि धर धक दाव भरैं कति भूरि मरै मृत भान।—कविराजा सूर्यमल। स्त्री० [देश०] सिर में पड़नेवाली एक प्रकार की जूँ।
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धक-धकी  : स्त्री० [अनु० धक] १. कलेजे के धक-धक करने की अवस्था, क्रिया या भाव। हृदय की धड़कन। २. आशंका। खटका। ३. आगा-पीछा। असमंजस। दुबधा। ४. दे० ‘धुकधुकी’।
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धक-पक  : स्त्री० [अनु०] १. कलेजे की धड़कन। धकधकी। २. मन में होनेवाली आशंका। खुटका। क्रि० वि० १. धक-धक या धक-पक करते हुए। २. धड़कते हुए कलेजे से।
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धकधकना  : अ०=धक धकाना।
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धकधकाना  : अ० [अनु० धक] १. भय, उद्वेग आदि के कारण हृदय का धक-धक करना। कलेजा या हृदय धड़कना। २. (आग) दहकना। सुलगना। स० (आग) दहकाना या सुलगाना।
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धकधकाहट  : स्त्री०=धकधकी।a
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धकपकाना  : अ० [अनु० धक] जी में दहलना। मन में डरना। स० किसी को डराने या दहलने में प्रवृत्त करना।
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धकपेल  : स्त्री०=धका-पेल।
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धंका  : पुं०=धक्का।b
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धका  : पुं०=धक्का। स्त्री०=धाक।a
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धका-धकी  : स्त्री०=धका-पेल।
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धका-धूम  : स्त्री०=धका-पेल।
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धका-पेल  : स्त्री० [हिं० धक्का+पेलना] भीड़भाड़ में होनेवाली धक्के-बाजी। धक्कमधुक्का। क्रि० वि० दूसरों को धक्के देकर हटाते हुए। जैसे—सब लोग धकापेल घुसते चले जा रहे थे।
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धकाना  : स० [हिं० दहकाना] (आग) दहकाना। सुलगाना। अ०=(आग) दहकाना। सुलगना।a
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धकार  : पुं० [देश०] १. कान्यकुब्ज और सरजूपारी ब्राह्मणों के वर्ग का वह ब्राह्मण, जो उनकी दृष्टि में निम्न कुल का हो। २. एक राजपूत जाति। ३. कम या थोड़े पानी में होनेवाला एक तरह का धान। (पंजाब) स्त्री०=धिक्कार।a वि०=दोगला।a
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धकारा  : पुं० [अनु० धक] धकधकी। आशंका। खटका। क्रि० प्र०—पड़ना।—लगना।
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धकियाना  : स० [हिं० धक्का] १. धक्का देना। ढकेलना। २. धक्का देकर बाहर निकालना। ३. आगे बढ़ने के लिए विशेष रूप से प्रेरित तथा प्रोत्साहित करना।
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धकेलना  : स० [हिं० धक्का] १. धक्का देना। ढकेलना। २. इस प्रकार किसी को धक्का देना कि वह गिर पड़े। ३. पशु यान आदि के संबंध में, पीछे से इस प्रकार धक्का देना कि वह आगे बढ़ने या चलने लगे। ४. आगे बढ़ने में प्रवृत्त करना। आगे बढ़ना।
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धकेलू  : पुं० [हिं० धकेलना] १. धकेलने या धक्का देनेवाला। २. स्त्री का उपपति या यार (बाजारू)।
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धकैत  : वि० [हिं० धक्का+ऐत (प्रत्य०)] धक्कम धक्का करनेवाला।
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धकोना  : स०=धकियाना।a
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धक्क  : स्त्री०=धक।
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धक्क-पक्क  : स्त्री०, क्रि० वि०=धक-धक।
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धक्कम-धक्का  : पुं० [हिं० धक्का] १. बार-बार बहुत अधिक या बहुत से आदमियों का परस्पर धक्का देने की क्रिया या भाव। २. ऐसी भीड़, जिसमें लोगों को बार-बार उक्त प्रकार से धक्के लगते हों।
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धक्का  : पुं० [सं० धम, हिं० धमक या सं० धक्क=नष्ट करना] १. किसी को धकेलने या आगे बढ़ाने के लिए उसके पीछे की ओर से डाला जानेवाला दबाव या किया जानेवाला आघात। जैसे—दरवाजा धक्के से खुलेगा। २. किसी ओर से वेगपूर्वक आकर लगनेवाला वह आघात जो किसी को धकेलता या दबाता हुआ उसके स्थान से आगे बढ़ा, हटा या गिरा दे। जैसे—गाड़ी के धक्के से वह जमीन पर गिर पड़ा। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ३. किसी को अनादर या उपेक्षापूर्वक कहीं से निकालने या हटाने के लिए किया जानेवाला उक्त प्रकार का आघात। जैसे—कुछ लोग तो वहाँ से धक्का देकर निकाले गये। क्रि० प्र०—देना।—मारना।—सहना। मुहा०—धक्के खाना=बार-बार धक्कों का आघात सहते हुए हटाया जाना। जैसे—बहुत दिनों तक वह जगह-जगह धक्के खाता रहा। (किसी को) धक्का (या धक्के) देकर निकालना=बहुत ही अनादर या तिरस्कारपूर्वक दूर करना या हटाना। ४. किसी को दुर्दशाग्रसत करने या हीन स्थिति में पहुँचाने के लिए किया जानेवाला कोई कार्य। जैसे—अँग्रेजी शासन को एक धक्का और लगा। ५. जन-समूह या भीड़ की वह स्थिति, जिसमें चारों ओर से लोगों को धक्के लगते हों। जैसे—मेले-तमाशों में धक्का बहुत होता है। ६. लाक्षणिक रूप में, किसी दुःखद बात के परिणामस्वरूप होनेवाला मानसिक आघात; जैसे—लड़के की मृत्यु के धक्के ने उन्हें बहुत दुर्बल कर दिया है। क्रि० प्र०—पहुँचना।—लगना। ७. कोई ऐसा आघात जिसमें किसी प्रकार की विशेष क्षति हो। जैसे—(क) आप की बातों के फेर में हमें भी सौ रुपये का धक्का लगा। (ख) बाहर से माल आ जाने के कारण बाजार (या व्यापारियों) को बहुत धक्का लगा है। क्रि० प्र०—बैठना।—लगना। ८. कुश्ती का एक पेंच, जिसमें बायाँ पैर आगे रखकर विपक्षी की छाती पर दोनों हाथों से धक्का देते हुए नीचे गिराते हैं। छाप। ठोंढ़।
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धक्का-मार  : वि० [हिं०] १. धक्का देने या बल-प्रयोग करनेवाला। २. उद्दंडतापूर्वक आघात करनेवाला। (आचरण या व्यवहार)।
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धक्का-मुक्की  : स्त्री० [हिं० धक्का+मुक्का] ऐसी लड़ाई, जिसमें एक दूसरे को धक्के देते हुए घूसों से मारें। मुठ-भेड़।
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धक्काड़  : वि० [हिं० धाक] १. चारों ओर जिसकी महत्ता की खूब धाक जमी हो। २. अपने विषय का बहुत बढ़ा-चढ़ा विशेष ज्ञाता या पंडित। ३. बहुत बड़ा।
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धग-धगाना  : अ० [हिं०] १. धड़कना। २. दहकना। स० (आग) दहकाना। सुलगाना।
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धगड़  : पुं०=धगड़ा।
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धगड़बाज  : वि० स्त्री० [हिं० धगड़ा+फा० बाज] धगड़ा या उपपति बनाने या रखनेवाली। कुलटा। व्यभिचारिणी।
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धगड़ा  : पुं० [सं० धव=पति] [स्त्री० धगड़ी] १. किसी स्त्री का जार। उपपति। २. वह जिसे किसी स्त्री ने बिना विवाह किये अपना पति बना लिया हो। ३. बदमाश। लुच्चा।
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धगड़ी  : स्त्री० [हिं० धगड़ा] १. व्यभिचारिणी स्त्री। कुलटा स्त्री। २. उपपत्नी। रखेली। ३. धाय (पूरब)।
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धंगर  : पुं० [देश०] १. चरवाहा। २. ग्वाला। अहीर।
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धगरा  : पुं०=धगड़ा।
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धगरिन  : स्त्री० [हिं० धाँगर] धाँगर जाति की स्त्री, जो तुरन्त के जनमे हुए बच्चे की नाल काटती है। स्त्री०=धगड़ी।a
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धगवरी  : वि० [हिं० धगड़ा=पति या यार] १. पति की दुलारी या मुँह-लगी। २. कुलटा। व्यभिचारिणी।a
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धंगा  : पुं० [देश०] खाँसी।a
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धगा  : पुं०=धागा (तागा)।a
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धगुला  : पुं० [देश०] हाथ में पहनने का एक आभूषण।a
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धग्गड़  : पुं० [?] आटे आदि की वह टिकिया, जो फोड़े, सूजन आदि पर उन्हें दबाने के लिए बाँधी जाती है। पुं०=धगड़ा।a
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धचकचाना  : स० [देश०] डराना। दहलाना। अ० धचकना।a
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धचकना  : अ० [देश०] १. दलदल में धँसना। २. संकट में पड़ना। स० हलका आघात करते हुए दबाना।
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धचका  : पुं० [हिं० धचकना] १.धचकने की क्रिया या भाव। २. धक्का। ३. क्षति। नुकसान। हानि। क्रि० प्र०—उठाना।
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धचकाना  : स० [हिं० धचकना] १. दलदल में फँसाना। २. संकट में डालना। ३. दबाने के लिए हलका आघात करना।
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धचना  : अ० [देश०] शान्त या स्थिर होना। ठहरना।a
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धज  : स्त्री० [सं० ध्वज=चिह्न, पताका] १. मोहित करनेवाली सुंदर चाल-ढाल या रंग-ढंग। २. कोई काम करने का सुन्दर ढंग या प्रकार। ३. बनाव-सिंगार। उदा०—वाह ! क्या धज है मेरे भोले की। शक्ल कोले की हैट सोले की।—अकबर। ४. ठसक। नखरा। ५. शोभा।
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धजबड़  : स्त्री० [?] तलवार। (डि०)
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धजा  : स्त्री० [सं० ध्वज] १. ध्वजा। पताका। २. कपड़े की कतरन या धज्जी।
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धजीला  : स्त्री०=धव। वि० [हिं० धज+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० धजीली] १. आकर्षक। मनोहर अथवा सुन्दर धजवाला। २. बनाव-सिंगार किया हुआ।a
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धज्जी  : स्त्री० [सं० धटी] कपड़े, कागज, चादर, धातु पत्थर, लकड़ी आदि का वह पतला लंबा टुकड़ा या पट्टी जो उन्हें काटने, चीरने, फाड़ने आदि पर निकलती है। मुहा०—(किसी चीज की) धज्जियाँ उड़ाना=काट, चीर तोड़ या फाड़कर इतने छोटे-छोटे टुकड़े करना कि वे किसी काम के न रह जायँ। (किसी व्यक्ति की) धज्जियाँ उड़ाना=(क) बहुत अधिक मारना पीटना। (ख) दोषों या बुराइयों की इतने जोरों से चर्चा करना कि लोग उसका वास्तविक स्वरूप समझकर उसके प्रति उपेक्षा या घृणा का व्यवहार करने लगें। (किसी बात या सिद्धांत की) धज्जियाँ उड़ाना= गलत या दोषपूर्ण सिद्ध करते हुए उसका सारा महत्त्व नष्ट करना। निरर्थक सिद्ध करना। (किसी को) धज्जियाँ लगना=इतना अधिक दीन-हीन या दरिद्र हो जाना कि चीथड़े लपेट कर रहना पड़े। (किसी का) धज्जियाँ लेना=(किसी की) धज्जियाँ उड़ाना। (किसी व्यक्ति का) धज्जी हो जाना=बहुत ही कृश, क्षीण या दुर्बल हो जाना।
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धट  : पुं० [सं० ध=धन√अट् (प्राप्ति)+अच्, पररूप] १. तुला। तराजू। २. तुला राशि। ३. तुलापरीक्षा। ४. धर्म।
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धटक  : पुं० [सं० धट्√कै (प्रकाशित होना)+क] ४२ रत्तियों के बराबर की एक पुरानी तौल।
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धटिका  : स्त्री० [सं० धटी+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. पाँच सेर की एक पुरानी तौल। पंसेरी। २. कपड़े की धज्जी। चीर। ३. कौपीन। लँगोटी।
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धटी  : पुं० [सं० धट+ङीष्] १. तुला राशि। २. शिव। वि० [सं० धटिन] [स्त्री० धटिनी] तराजू की डंडी पकड़कर चीजें तौलनेवाला। तुला-धारक। स्त्री० १. कपड़े की धज्जी। छीर। २. कौपीन। लँगोटी। ३. वे वस्त्र जो प्राचीन काल में स्त्रियों को गर्भवती होने पर पहनने के लिए दिये जाते थे।
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धड़  : पुं० [सं० धर+धारण करनेवाला] १. मनुष्य के शरीर का वह बीचवाला अंश, जिसके अंतर्गत छाती, पीठ और पेट होते हैं। सिर और हाथ-पैर को छोड़ शरीर का बाकी भाग। कमर के ऊपर और गले के नीचे का भाग। २. पशु-पक्षियों में हाथ, पैर, दुम पर और सिर को छोड़कर शरीर के बीच का बाकी सारा भाग। मुहा०—(कोई चीज) धड़ में डालना=निगल या खा जाना। पेट में उतारना। (किसी का) धड़ रह जाना=लकवे या ऐसे ही किसी रोग के कारण देह या शरीर निष्क्रिय और स्तब्ध हो जाना। धड़ से सिर अलग करना=सिर काट लेना, जिससे मृत्यु हो जाय। ३. पेड़ का वह सबसे मोटा और कड़ा भाग, जो जड़ से कुछ दूर ऊपर तक रहता है और जिसके ऊपरी भाग में से निकलकर डालियाँ इधर-उधर फैलती रहती हैं। पेड़ी। तना। पुं० [अनु०] एक प्रकार का बड़ा ढोल या नगाड़ा। पुं० [अनु०] किसी चीज के जोर से गिरने का शब्द। धड़ाम। जैसे—वह धड़ से गिर पड़ा। पद—धड़ से=चटपट। तुरन्त। जैसे—तुम भी धड़ से नहा लो।
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धड़-टूटा  : वि० [हिं० धड़+टूटना] १. कमर झुकने के कारण जिसका धड़ आगे की तरफ लटका हो। २. कुबड़ा।
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धड़-धड़  : स्त्री० [अनु०] किसी भारी वस्तु के वेगपूर्वक या एक बारगी गिरने, फेकें जाने या छूटने से उत्पन्न होनेवाला धड़-धड़ शब्द। जैसे—गोलियों की धड़-धड़ सुनकर हम लोग घर के बाहर निकल आये। क्रि० वि० १. धड़-धड़ शब्द करते या होते हुए। जैसे—उस पर धड़-धड़ मार पड़ने लगी। २. दे० ‘धड़ाधड़’।
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धड़क  : स्त्री० [हिं० धड़कना] १. धड़कने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. अनाभ्यास, भय, संकोच आदि के कारण कोई काम करने से पहले या करते समय मन में होनेवाला असमंजस या आशंका। मुहा०—(किसी बात या काम में) धड़क खुलना=पहले की सी आशंका, भय या संकोच न रह जाना। पद—बेधड़क=बिना किसी प्रकार के भय या संकोच के। भय रहित या निसंकोच होकर। ३. दे० ‘धड़कन’।
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धड़कन  : स्त्री० [हिं० धड़क] १. धड़कने की क्रिया या भाव। २. हृदय की गति बहुत तीव्र होने पर उसका तीव्र और स्पष्ट स्पंदन। ३. हृदय का एक रोग जिसमें वह प्रायः धड़कता रहता है। धड़की। ४. दे० ‘धड़क’।
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धड़कना  : अ० [अनु०] १. धड़-धड़ शब्द उत्पन्न होना। २. आशंका उद्वेग आदि तीव्र मनोविकारों अथवा कुछ रोगों के कारण हृदय में इस प्रकार जोर की गति होना कि उसमें से धड़-धड़ या हलका शब्द होने लगे। कलेजा धक-धक करना। जैसे—डाकुओं को देखते ही स्त्रियों का कलेजा (या दिल) धड़कने लगा। अ०, स०=धड़धड़ाना।a
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धड़का  : पुं० [अनु० धड़] १. दिल की धड़कन। २. दिल धड़कने से उत्पन्न होनेवाला शब्द। ३. आशंका। खटका। भय। जैसे—चलो मार खाने का धड़का छूटा। ४. खेतों में से चिड़ियों को उड़ाकर भगाने के लिए खड़ा किया जानेवाला वह पुतला या बाँस जिसे खट-खटाने से धड़-धड़ शब्द होता है। धोखा। पुं०=धड़ाका।a
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धड़काना  : स० [हिं० धड़क] १. किसी के दिल में धड़क पैदा करना। धड़कने में प्रवृत्त करना। २. किसी के मन में आशंका या खटका उत्पन्न करके उसे दहलाना। संयो० क्रि०—देना। ३. धड़-धड़ शब्द उत्पन्न करना।
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धड़क्का  : पुं० १. धड़का। २. धड़ाका। ३. ‘धूम’ का निरर्थक अनुकरणात्मक शब्द।
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धडंग  : वि० [हिं० धड़+अंग] नंगा। जैसे—नंग-धडंग खड़े हो जाना।
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धड़धड़ाना  : स० [अनु० धड़धड़] १. इस प्रकार कोई काम करना कि उससे धड़-धड़ शब्द हो। २. किसी प्रकार धड़-धड़ शब्द करना। अ० धड़-धड़ शब्द होना।
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धड़ल्ला  : पुं० [अनु० धड़] १. वेग के साथ गिरने, पड़ने आदि का धड़-धड़ शब्द। धड़ाका। २. तेजी। वेग। ३. निर्भीकता तथा उत्साह पूर्वक कोई काम करने की उत्कट प्रवृत्ति। ४. धूम-धाम। ५. बहुत अधिक भीड़। कश-मकश।
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धड़वा  : पुं० [देश०] मैना के आकार का एक तरह का पक्षी।a
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धड़वाई  : पुं० [हिं० धड़ा] अनाज आदि तौलनेवाला। बया।a
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धड़ा  : पुं० [सं० धट] [स्त्री० धड़ी] १. एक प्रकार की पुरानी तौल जो कहीं चार सेर की और कहीं पाँच सेर की मानी जाती थी। २. तौलने का बटखरा। बाट। ३. तराजू। तुला। मुहा०—धड़ा उठाना=तौलने के लिए तराजू उठाकर हाथ में लेना। धड़ा करना=तौलने से पहले तराजू उठाकर यह देखना कि दोनों पलड़े बराबर हैं या नहीं और यदि दोनों में कुछ अन्तर हो, तो किसी ओर पासंग रखकर वह अंतर दूर करना। धड़ा बाँधना=(क) धड़ा करना। (ऊपर देखें) (ख) लाक्षणिक रूप में, ऐसी युक्ति करना कि कोई दूसरा आदमी दोषी सिद्ध हो। पुं० जत्था। झुण्ड। दल। मुहा०—धड़ा बाँधना=अपना अलग दल या वर्ग बनाना। दलबंदी करना।
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धड़ा-धड़  : क्रि० वि० [अनु० धड़] १.धड़-धड़ शब्द करते हुए। जैसे—धड़ा-धड़ ईंट-पत्थर फेंकना या चलाना। २. जल्दी-जल्दी और बराबर। निरंतर लगातार। जैसे—धड़ाधड़ बोलते चलना।
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धड़ाक  : क्रि० वि० [अनु०] १. धड़ शब्द करते हुए। जैसे—वह धड़ाक से गिर पड़ा। २. एकाएक। सहसा। जैसे—इतने में वह वहाँ धड़ाक से आ पहुँचा।a पुं०=धड़ाका।a
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धड़ाका  : पुं० [अनु० धड़] १. ‘धड़’ से होनेवाला जोर का शब्द धमाका। जैसे—तोप या बंदूक का धड़ाका। क्रि० वि० चटपट। तुरंत। जैसे—वह धड़ाका उठकर चल खड़ा हुआ। पद—धड़ाके से=चट-पट। तुरंत। धड़ल्ले से।
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धड़ाबंदी  : स्त्री० [हिं० धड़ा+फा० बंदी] १. कोई चीज तौलने से पहले तराजू का धड़ा, पासंग आदि रखकर ठीक करने की क्रिया या भाव। २. किसी प्रकार की प्रतियोगिता, विरोध आदि के लिए प्रस्तुत होने के समय अपने सब अंग और पक्ष ठीक करना। ३. युद्ध के समय दोनों पक्षों का अपना सैनिक बल शत्रु के सैनिक बल के बराबर करना।
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धड़ाम  : पुं० [अनु० धड़] ऊँचाई से वेगपूर्वक नीचे आकर पड़ने, गिरने आदि का शब्द। धड़ या धम शब्द। पद—धड़ाम से=जल्दी या वेगपूर्वक और धड़ या धड़ाम शब्द करते हुए। जैसे—वह धड़ाम से नदी में कूद पड़ा।
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धड़िया  : पुं० [?] बच्चों की लँगोटी।a
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धड़ी  : स्त्री० [सं० धटिका,धटी] १. चार या पाँच सेर की पुरानी तौल। धड़ा। २. मान, संख्या आदि की बहुलता या यथेष्टता। मुहा०—धड़ी-धड़ी करके लूटना=खूब अच्छी तरह या बहुत लूटना। ३. पाँच सौ रुपये की रकम। ४. ढेर। राशि। उदा०—सज्जाणिया सावण हुया, धड़ि उकती भंडार।—ढोला मारू। ५. मोटी रेखा या लकीर। जैसे—मिस्सी लगाये या पान खाने से होंठों पर धड़ी जम जाती है। क्रि० प्र०—जमना। मुहा०—धड़ी जमाना=मिस्सी करके होंठों पर काली या नीली मोटी रेखा बनाना।
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धण  : स्त्री० [सं० धन्या] १. स्त्री। नारी। उदा०—धण नागर देखे सधण।—प्रिथीराज। २. पत्नी। जोरू। ३. कन्या। बेटी। पुं० [सं० धन्य, हिं० धणियों का पुं०] १. पति। २. प्रियतम। उदा०—धणियाँ धण सालण लगा।—ढोलामारू। पुं०=धन।a
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धणी  : पुं०=धनी।a
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धत  : अव्य० [अनु०] १. दुतकारने या तिरस्कारपूर्वक हटाने का शब्द। दूर हो। हटजा। २. हाथी को पीछे हटाने का शब्द। (महावत) स्त्री० लत (बुरी आदत या बान)।a क्रि० प्र०—पड़ना।—लगना।a
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धतकारना  : स० १. दुतकारना। २. धिक्कारना।
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धता  : वि० [अनु० धत] जो दूर हो गया हो या किया गया हो। हटा या हटाया हुआ। मुहा०—धता बताना=अपना पीछा छुड़ाने के लिए इधर-उधर की बातें करके उपेक्षापूर्वक किसी को चलता करना या दूर हटाना। (बाजारू)
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धतिया  : वि० [हिं० धत] जिसे किसी बात की धत या बुरी लत पड़ गयी हो।
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धतींगड़  : वि० [देश०] १. बहुत बड़ा, भारी या मोटा ताजा। २. जारज। दोगला।
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धतींगड़ा  : वि०=धतींगड़।
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धतूर  : पुं० [अनु० धू+सं० हूर] नरसिंहा नाम का बाजा। धूतू। सिंहा। तुरही। पुं०=धतूरा।a
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धतूरा  : पुं० [सं० धुस्तूर] १. दो तीन हाथ ऊंचा एक प्रकार का पौधा, जिसके पत्ते पान के आकार के नोकदार तथा कोमल होते हैं तथा फल सेब की तरह गोल होते हैं किन्तु ऊपर छोटे-छोटे काँटे होते हैं। इसके फल तथा बीज बहुत अधिक जहरीले तथा मादक होते हैं; इसीलिए फल शिवजी को चढ़ाये जाते हैं। २. उक्त पौधे का फल जो बहुत जहरीला होता है। ३. कोई जहरीली वस्तु। मुहा०—धतूरा खाये फिरना=इस प्रकार उन्मत्त और नशे में चूर होकर घूमना, मानों धतूरे के बीज अथवा ऐसी ही कोई जहरीली चीज खा ली हो।
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धतूरिया  : पुं० [हिं० धतूर+इया (प्रत्य०)] ठगों का वह दल, जो पथिकों को धतूरे का बीज खिलाकर बेहोश करता और लूटता था।
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धत्ताँ  : वि० [?] बहुत अधिक (गहरा या तेज) उदा०—ये तो रँग धत्ताँ लग्यों माय।—मीराँ।a
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धत्ता  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का छंद, जिसके विषय चरणों में १ ८ और सम चरणों में १ ६ मात्राएँ होती हैं। अंत में तीन लघु होते हैं। २. थाली की बाढ़ का ढालुआँ अंश या भाग।
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धत्तानंद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १ १ +७+१ ३ के विश्राम से ३१ मात्राएँ और अंत में एक नगण होता है।
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धत्तूर  : पुं० [सं०√धे (पीना)+उरच्, पृषो० सिद्धि] धतूरा।
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धत्तूरक  : पुं० [सं० धत्तूर+कन्] धतूरा।
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धत्तूरक  : स्त्री० [सं० धत्तूरक+टाप्]धतूरा
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धंदर  : पुं० [देश०] पुरानी चाल का एक प्रकार का धारीदार कपड़ा।
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धंध  : पुं० [सं० द्वंद्व] झंझट। बखेड़ा।a
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धंधक  : पुं० [हिं० धंधा] झंझट। बखेड़ा। पुं० [?] एक प्रकार का ढोल।
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धधक  : स्त्री० [हिं० धधकना] १. धधकने की क्रिया दशा या भाव। २. आग की लपट। ३. आँच। ताप। क्रि० प्र०—उठना।—जाना।
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धंधक-धेरी  : पुं०=धंधक-धोरी।
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धंधक-धोरी  : पुं० [हिं० धंधक+धोरी] सांसारिक झंझटों या बखेड़ों में फँसा रहनेवाला व्यक्ति।
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धधकना  : अ० [हिं० धधक] १. आग की लपटें छोड़ते तथा शब्द करते हुए जलना। दहकना। २. भड़कना।
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धँधका  : पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा धँधकी] एक प्रकार का ढोल।
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धधकाना  : स० [हिं० धधकना] ऐसी क्रिया करना जिससे आग धधकने लगे। दहकाना। संयो० क्रि०—देना।
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धँधरक  : पुं० [हिं० धंधा] काम-धंधे का जंजाल, बखेड़ा या बोझ।
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धँधरक-धोरी  : पुं०=धंधक-धोरी।
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धंधला  : पुं० [हिं० धाँधल] १. कपटपूर्ण आचरण या व्यवहार। छल-छंद। २. आडंबर। ढोंग। ३. बहाना। मिस। हीला। (स्त्रियाँ)। ४. दे० ‘धाँधली’।
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धँधलाना  : अ० [हिं० धँधला] १. छल छंद करना। ढंग रचना। अ० [हिं० धाँधली] १. धाँधली करना। २. जल्दी मचाना।
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धंधा  : पुं० [सं० धन-धान्य] १. वह उद्योग या कार्य जो जीविका-निर्वाह के लिए किया जाय। जैसे—अब उन्होंने वकालत (या वैद्यक) का धंधा छोड़ दिया है। २. व्यवसाय। व्यापार। ३. ऐसा काम जिसमें कुछ समय तक लगा रहना पड़े। जैसे—घर का भी कुछ धंधा किया करो। ३. दूसरों का चौका-बरतन करने की नौकरी। पुं०=द्वंद्व (राज०)।a
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धधाना  : अ०=धधकना।a स०=धधकाना।
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धँधार  : स्त्री० [हिं० धूँआ] १. आग की लपट। २. बहुत अधिक मानसिक संताप। वि० अकेला। एकाकी।a पुं० भारी लकड़ियाँ, पत्थर आदि उठाने के काम आनेवाला लकड़ी का एक तरह का लंबा डंडा।
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धंधारि  : स्त्री० १.=धँधार। २.=धंधारी।b
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धंधारी  : स्त्री० [हिं० धंधा] गोरखपंथी साधुओं का गोरख धंधा। स्त्री० [?] १. अकेलापन। २. एकान्त या सुनसान स्थान। ३. निस्तब्धता। सन्नाटा।
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धंधाला  : स्त्री० [हिं० धंधा] कुटनी। दूती।
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धंधालू  : वि० [हिं० धंधा] जो किसी काम या धंधे में लगा रहता हो।
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धँधेरा  : पुं० [देश०] राजपूतों की एक जाति।
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धँधौरा  : पुं० [अनु० धाँय-धाँय=आग दहकने का शब्द] १. होलिका। होली। २. आग की लपट। ज्वाला।
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धन  : पुं० [सं०√धन (शब्द)+अच्] १. वह मूल्यवान पदार्थ, जिससे जीवन निर्वाह में यथेष्ट सहायता मिलती हो और जिसे अर्जित या प्राप्त करने के लिए परिश्रम करना और पूँजी तथा समय लगाना पड़ता हो। जैसे—खेत, जमीन, मकान, रुपया-पैसा आदि। २. यथेष्ट मात्रा या संख्या में उक्त प्रकार की कोई चीज। उदा०—गो-धन, गज-धन, बाजि-धन और रतन-धन खान। जब आवै संतोष-धन सब धन धूरि समान।—तुलसी। ३. लोक-व्यवहार में मुख्य रूप से चांदी, ताँबे सोने आदि के सिक्के। रुपया-पैसा। जैसे—व्यापार में धन लगाना। क्रि० प्र०—कमाना।—भोगना।—लगाना। ४. प्राणों के समान परम प्रिय व्यक्ति। जैसे—भगवान ही हमारे जीवन धन हैं। ५. जन्म, कुंडली में जन्म लग्न से दूसरा स्थान, जिसे देखकर यह विचार किया जाता है कि अमुक व्यक्ति धनी होगा या निर्धन। ६. लेन-देन में उधार दी हुई वह रकम, जिसमें अभी ब्याज का सूद न जोड़ा गया हो। मूल। ७. गणित में, जोड़ने या मिलाने का वह चिह्न, जो इस प्रकार लिखा जाता है-+। ८. व्यवहार में, वह स्थिति, जिसमें किसी विशिष्ट गुण, तथ्य, तत्त्व या वस्तु की सत्ता वर्तमान होती है अभाव नहीं होता। ‘ऋण’ का विपर्याय। जैसे—धन विद्युत्। ९.खनकों की परिभाषा में, खान से निकली और बिना साफ की हुई कच्ची धातु। वि० १. लेखे आदि में जो ‘हाँ’ के पक्ष का हो। २. हिसाब-किताब में जो जोड़ा या बढ़ाया जाने को हो। ३. किसी के यहाँ से अमानत या उधार के रूप में आया हुआ। जो हिसाब-किताब में किसी के नाम से जमा हो। (क्रेडिट) ४. दे० ‘सहिक’। वि०=धन्य। उदा०—धन धन भारत की छत्रानी।—भारतेन्दु।a स्त्री० [सं० धन्या] १. पत्नी या वधू। २. सुन्दर या स्नेह-पात्र युवती या स्त्री। पुं० हिं० धान का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक शब्दों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—धन-कटी, धन-कर, धन-कुट्टी आदि-आदि।a
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धन-कटी  : स्त्री० [हिं० धान+कटना] १. धान की कटाई या उसका समय। २. पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा।
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धन-कर  : पुं० [हिं० धान+कर (प्रत्य०)] १. वह कड़ी मिट्टी, जिसमें धान बोया जाता है और जिसमें बिना अच्छी वर्षा हुए हल नहीं चल सकता। २. वह खेत जिसमें धान होता है।
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धन-कुट्टी  : स्त्री० [हिं० धान+कूटना] १. धान कूटने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. धान कूटने का मूसल या ऊखल। ३. खूब अच्छी तरह मारने-पीटने की क्रिया या भाव। (परिहास और व्यंग्य) ४. लाल रंग का एक तरह का फतिंगा जो अपना धड़ इस प्रकार ऊपर नीचे हिलाता है, जिस प्रकार धान कूटने की ढेकली हिलती है।
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धन-कुबेर  : पुं० [हिं० धन=कुबेर] बहुत बड़ा धनवान और सम्पन्न व्यक्ति।
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धन-केलि  : पुं० [ब० स०] कुबेर।
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धन-कोटा  : पुं० [देश०] हिमालय के कुछ भागों में होनेवाला एक तरह का पौधा जो कागज बनाने के काम आता है। चमोई सतबखा। सतपुरा।
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धन-चिड़ी  : स्त्री० [हिं० धान+चिड़ी] एक तरह की चिड़िया।
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धन-जन  : पुं० [सं० धन+जन] १. वह व्यक्ति जिसके पास धन-दौलत हो। उदा०—करत रहत धन-जन के, चरन की गुलामी।—हरिश्चन्द्र। २. धन-संपत्ति और व्यक्ति। जैसे—इस आँधी पानी में धन-जन का भी कुछ नाश हुआ है।
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धन-तेरस  : स्त्री० [सं० धन=हिं० तेरस (त्रयोदशी)] कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी। इस दिन धन की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी का पूजन करने का विधान है।
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धन-दंड  : पुं० [तृ० त०] अर्थ-दंड। जुरमाना।
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धन-देव  : पुं० [ष० त०] धन के स्वामी; कुबेर।
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धन-धानी  : स्त्री० [ष० त०] कोष। खजाना।
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धन-धान्य  : पुं० [द्व० स०] धन और खाद्य पदार्थ।
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धन-धाम  : पुं० [द्व० स०] धन बार और धन-संपत्ति।
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धन-धारी (रिन्)  : पुं० [सं० धन√धृ (धारण)+णिनि] १. कुबेर। २. धनवान।
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धन-नाथ  : पुं० [ष० त०] कुबेर।
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धन-नायकी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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धन-पक्ष  : पुं० [ष० त०] १. बही-खाते आदि में वह पक्ष या विभाग जिसमें दूसरों से मिलनेवाले रुपये या अन्य चीजें और उनका मूल्य लिखा जाता है। जमावाला पक्ष। (क्रेडिट साइड) २. वह पक्ष जिसमें पूँजी, लाभ या उपयोगी बातों का विचार या उल्लेख हो।
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धन-पति  : पुं० [ष० त०] १. कुबेर। २. धनवान व्यक्ति। ३. पुराणानुसार एक वायु का नाम।
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धन-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. शासन या सरकार द्वारा प्रचलित किया हुआ वह मुद्रित कागज का टुकड़ा जो सिक्कों के सदृश और उनके स्थान पर लेन-देन में काम आता है। (करेन्सी नोट)। २. बही-खाता।a
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धन-पात्र  : पुं० [ष० त०] धनवान्। धनी।
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धन-पालिनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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धन-प्रयोग  : पुं० [ष० त०] व्यापार में धन लगाने या ब्याज पर उधार देने का कार्य। पूंजी का उपयोग।
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धन-प्रिया  : स्त्री० [उपमि० स०] एक प्रकार का छोटा जामुन।
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धन-बहेड़ा  : पुं० दे० ‘अमलतास’ (वृक्ष)।
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धन-मद  : पुं० [ष० त०] वह अभिमान या मद। जो पास में यथेष्ठ धन होने पर होता है।
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धन-राशि  : स्त्री० [ष० त०] १. धन का ढेर। २. बहुत अधिक धन। ३. लेन-देन आदि विशेष कार्यों के लिए देय या प्राप्य नियत धन। रकम। (एमाउन्ट, सम)
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धन-विधेयक  : पुं० [ष० त०] वह अर्थ-संबंधी विधेयक, जो विधान सभा के समक्ष विचारार्थ रखा जाता है, और जिसमें किसी माँग की स्वीकृति के लिए अथवा कोई नया कर लगाने का प्रस्ताव होता है। (मनी बिल)
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धन-संपत्ति  : स्त्री० [द्व० स०] सभी प्रकार की वे वस्तुएँ जिनका अधिक मूल्य हो तथा जिनका क्रय-विक्रय हो सकता हो। रुपये जमीन-जायदाद आदि मूल्यवान् वस्तुएँ। २. किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र आदि के अधिकार में रहनेवाली उक्त वस्तुएँ।
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धन-स्वामी (मिन्)  : पुं० [ष० त०] कुबेर।
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धन-हीन  : वि० [तृ० त०] जिसके पास धन न हो। निर्धन। गरीब।
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धनई  : स्त्री०=धनुई (छोटा धनुष)।a
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धनक  : पुं० [सं०] १. धन पाने की इच्छा। २. लालच। लोभ। ३. राजा कृतवीर्य के पिता का नाम। स्त्री० [सं० धनुष] स्त्रियों की एक प्रकार की ओढ़नी।a पुं० १. धनुष। २. इंद्र धनुष।a
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धनखर  : पुं० [हिं० धान] धान बोने का खेत। धन्नऊँ।a
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धनंजय  : वि० [सं० धन√जि (जीतना)+खच्, मुम्] धन जीतने अर्थात् प्राप्त करनेवाला। पुं० १. विष्णु। २. अग्नि। आग। ३. चित्रक या चीता नाम का वृक्ष। ४. पाँचों पांडवों में के अर्जुन का एक नाम। ५. अर्जुन वृक्ष। ६. एक नाग जो जलाशयों का अधिपति कहा गया है। ७. शरीर में रहनेवाली पाँच वायुओं में से एक जिसकी गिनती उप-प्राणों में होती है और जिसमें जँभाई आती है। ८. एक गोत्र का नाम। ९.सोलहवें द्वापर के व्यास का नाम।
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धनंतर  : पुं० [सं० धन्वंतरु=सोम का एक भेद] एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियाँ मोटी और फूल नीले होते हैं। पुं०=धन्वंतरि।a
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धनद  : वि० [सं० धन√दा (देना)+क] [स्त्री० धनदा] १. धन देनेवाला। २. उदार तथा दानी (पुरुष)। पुं० १. कुबेर। २. अग्नि। आग। ३. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ४. समुद्र-फल। हिज्जल। ५. धनपति नामक वायु। ६. हिमालय में उत्तरा खंड के अन्तर्गत एक प्राचीन तीर्थ।
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धनद-तीर्थ  : [सं० कर्म० स०] कुबेर तीर्थ जो ब्रज मंडल में है।
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धनदा  : स्त्री० [सं० धनद+टाप्] आश्विन कृष्ण एकादशी। स्त्री० सं० ‘धनद’ का स्त्री०।
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धनदाक्षी  : स्त्री० [सं० धनद-अक्षि, ब० स०+ङीष्] लता करंज।
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धनदायन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जिसके काढ़े से ऊनी कपड़ों पर माड़ी लगाते हैं।
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धननंद  : पुं० [सं०] सिंहल का महावंश (ग्रंथ) के अनुसार मगध के नंद वंश का अंतिम राजा, जिसका नाश चाणक्य ने किया था।
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धनपाल  : वि० [सं० धन√पाल् (रक्षा)+क] धन का रक्षक। पुं०=कुबेर।
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धनमान  : वि०=धनवान्।
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धनमाली  : पुं० [सं०] अस्त्रों का एक प्रकार का संहार।
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धनवंत  : वि० [स्त्री० धनवंती]=धनवान्।
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धनवती  : स्त्री० [सं० धनवत्+ङीप्] धनिष्ठा नक्षत्र। वि० सं० ‘धनवान’ का स्त्री०।
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धनवा  : पुं० [हिं० धान] एक प्रकार की घास। पुं०=धन्वा (धनुष)।a
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धनवान् (वत्)  : वि० [सं० धन+मतुप्] [स्त्री० धनवती] जिसके पास अत्यधिक या बहुत धन हो। धनी। दौलत-मंद।
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धनशाली (लिन्)  : वि० [सं० धन√शाल् (शोभित होना)+ णिनि] [स्त्री० धनशालिनी] धनवान्। धनी।
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धनसार  : पुं० [हिं० धान+सार (शाला)] अनाज आदि रखने की ऐसी कोठरी जिसमें केवल दो खिड़कियाँ क्रमात् अनाज रखने और निकालने के लिए होती हैं।
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धनसिरी  : स्त्री० [सं० धन+श्री] एक प्रकार की चिड़िया।
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धनसू  : पुं० [सं०] धनेस नाम की चिड़िया।
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धनस्यक  : वि० [सं० धन+क्यच्, सुक्+ण्वुल्—अक] जिसे धन की लालसा हो। पुं० गोखरू (वनस्पत्ति)।
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धनहर  : वि० [सं० धन√हृ (हरण)+ट] धन का अपहरण करनेवाला। पुं० १. चोर। २. डाकू। लुटेरा। ३. चोर नामक गंधद्रव्य। पुं०=धनखर।a
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धना  : स्त्री० [सं० धनिका, हिं० धनिया=युवती] १. युवती। २. वधू। स्त्री० [?] संगीत में एक प्रकार की रागिनी। पुं०=धनिया।a
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धनांक  : पुं० [सं० धन-अंक, ष० त०] लेन-देन आदि के लिए किसी निश्चित धन राशि का सूचक शब्द। धन-राशि। रकम (एमाउन्ट)।
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धनाग्र  : पुं० [धन-अग्र, ष० त०] विद्युत-शास्त्र में धन दण्ड का वह भाग जिसमें विद्युत निकलकर ऋणदंड में पहुँचती है। (एनोड)
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धनाढ़य  : वि० [धन-आढ़य तृ० त०] बहुत बड़ा धनी। धनवान्।
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धनाणु  : पुं० [सं० धन-अणु, ष० त० ?] वह अणु जो सदा धनात्मक विद्युत से आविष्ट रहता है। (पाजिटिव)
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धनात्मक  : वि० [धन-आत्मन्, ब० स०, कप्] १. धन-पक्ष संबंधी। २. धनवाले तत्त्व से युक्त। विशेष दे० ‘सहिक‘।
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धनादेश  : पुं० [धन-आदेश ष० त०] १. किसी को कुछ धन देने का आदेश या आज्ञा। २. डाकखाने के द्वारा किसी अन्य स्थान पर रहनेवाले व्यक्ति को भेजा जानेवाला धन। (मनी आर्डर)। ३. किसी बैंक (अधिकोष) को, जिसमें किसी व्यक्ति का हिसाब हो, दिया गया इस आशय का लिखित आदेश कि वाहक अथवा अमुक निर्दिष्ट व्यक्ति को लिखित रकम मेरे खाते से दे दें। (पे आर्डर)
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धनाध्यक्ष  : पुं० [धन-अध्यक्ष, ष० त०] १. कोषाध्यक्ष। खजानची। २. कुबेर।
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धनाना  : अ० [सं० धेनु=नवसूतिका गाय] साँड़ आदि के संयोग से गाय, भैंस आदि का गर्भवती होना। स० गाय, भैंस आदि का गर्भाधान कराना।
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धनापहार  : पुं० [धन-अपहार, ष० त०] १. अर्थदंड। जुरमाना। २. लूट।
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धनार्चित  : वि० [धन-अर्चित, तृ० त०] धन आदि की भेंट देकर सम्मानित या संतुष्ट किया हुआ।
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धनार्थी  : वि० [सं० धन√अर्थ (चाहना)+णिनि] धन का इच्छुक।
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धनाश्री  : स्त्री० [सं०] संगीत में ओड़व-संपूर्ण जाति की एक रागिनी। जो हनुमत् के मत से श्रीराग की तीसरी पत्नी है। इसका प्रयोग प्रायः वीर रस में होता है।
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धनासी  : स्त्री० [सं० धन्या+श्री] १. पत्नी। २. प्रेमिका।b
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धनि  : स्त्री० [सं० धनी] १. युवती स्त्री। २. पत्नी। वधू। वि०=धन्य। उदा०—धनि धनि भारत की छत्रानी।—भारतेन्दु।
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धनिक  : वि० [सं० धन+ठन्—इक] [स्त्री० धनिका] जिसके पास धन हो। धनी। पुं० १. धनवान् व्यक्ति। अमीर। २. स्त्री का पति। स्वामी। ३. वह जो लोगों को धन उधार देता हों। महाजन। ४. [धनिक√कै+क] धनिया।
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धनिक-तंत्र  : पुं० [ष० त०] [वि० धनिक-तंत्री] आधुनिक राजनीति में, ऐसी शासन-प्रणाली जिसमें शासन का वास्तविक सूत्र प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से देश के बड़े-बड़े धनवानों के ही हाथ में रहता हो। (प्लुटो क्रैसी) विशेष—ऐसी प्रणाली राजसत्ताक देशों में भी होती सकती है और प्रजासत्ताक देशों में भी। (ख) इंग्लैड और अमेरिका की आधुनिक शासन-प्रणालियाँ मुख्यतः धनिक-तंत्री ही मानी जाती हैं।
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धनिका  : स्त्री० [सं० धनिक+टाप्] १. धनी स्त्री। २. युवती और सुन्दर स्त्री। ३. पत्नी। वधू। ४. प्रियंगु वृक्ष।
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धनिता  : स्त्री० [सं० धनिक+तल्—टाप्] धन-संपन्न होने की अवस्था या भाव।
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धनियाँ  : पुं०, स्त्री०=धनिया।a
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धनिया  : पुं० [सं० धन्याक,धनिका] एक प्रकार का छोटा पौधा, जिसके सुगंधित बीज मसाले के काम में आते हैं; और इसकी सुगंधित पत्तियों की चटनी बनाई जाती है। २. उक्त पौधे के बीज, जो मसाले के रूप में बाजार में मिलते हैं। वैद्यक में इसे त्रिदोषनाशक, तथा खाँसी और कृमिघ्न माना गया है। मुहा०—(किसी को) धनिये की खोपड़ी का पानी पिलाना=बहुत तंग या परेशान करना। (स्त्रियाँ) स्त्री० [सं० धन्या] १. पत्नी। वधू। २. सुन्दर और स्नेह पात्र स्त्री। प्रेमिका। उदा०—कोठवा पर से झाँकैली बारी से धनियाँ, से नासि अइलैना। (पूरबी लोकगीत)
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धनिया-माल  : स्त्री० [हिं० धनी+माला] गले में पहनने का एक तरह का गहना।
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धनिष्ट  : वि० [सं० धनिन्+इष्ठन्, इन-लोप] [स्त्री० धनिष्ठा] धनी। धनाढ्य।
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धनिष्ठा  : स्त्री० [सं० धनिष्ठ+टाप्] सत्ताईस नक्षत्रों में से तेइसवाँ नक्षत्र जो 9 ऊर्ध्वमुख नक्षत्रों में से एक है और जिसमें पाँच तारे हैं।
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धनी (निन्)  : पुं० [सं० धन+इनि] १. जिसके पास धन हो। धनवान्। मालदार। दौलतमंद। २. मालिक। स्वामी। ३. वह जो किसी चीज का मालिक हो अथवा उसे अपनी समझकर उसकी देख-रेख करता हो। पद—धनी-धोरी=मालिक और रक्षक। जैसे—जान पड़ता है कि इस मकान का कोई धनी-धोरी ही नहीं है। धनी सिर जोखिम=दे० ‘जोखिम’ के अंतर्गत ‘जोखिम धनी सिर’। बात का धनी=अपनी कही हुई बात या दिए हुए वचन पर दृढ़ रहनेवाला। ५. स्त्री का पति। शौहर। ६. वह जो किसी प्रकार के कौशल, गुण आदि में बहुत श्रेष्ठ हो। जैसे—तलवार का धनी=तलवार चलाने में बहुत कुशल। बात का धनी=अपनी बात या वचन का पक्का और पूरी तरह से पालन करनेवाला। स्त्री० [सं० धन+अच्—ङीष्] १. पत्नी। वधू। २. स्नेह-पात्री युवती। प्रेमिका।
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धनी-मानी  : वि० [हिं०] जिसके पास यथेष्ट धन भी हो और जिसका अच्छा मान या प्रतिष्ठा भी हो।
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धनीयक  : पुं० [सं० धन+छ—ईय+कन्] धनिया।
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धनु  : पुं० [सं०√धन (शब्द)+उ] १. धनुष। चाप। कमान। २. चार हाथ लंबी एक पुरानी नाप। ३. किसी गोलाकार क्षेत्र का आधे से कम भाग जो धनुष के आकार का होता है। ४. ज्योतिष की बारह राशियों में से नवीं राशि, जिसके अंतर्गत मूल और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र तता उत्तराषाढ़ा का एक चरण आता है। इसे तौक्षिक भी कहते हैं। ५. फलित ज्योतिष में एक लग्न। ६. हठ योग में, एक प्रकार का आसन। ७. पयाल वृक्ष। ८. नदी का रेतीला किनारा।
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धनु-पानि  : पुं० [सं० धनुष्+पाणि=हाथ] १. वह जिसके हाथ में धनुष हो। २. धनुर्द्धर। रामचन्द्र।b
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धनुआ  : पुं० [सं० धन्वन्, धन्वा] [स्त्री० अल्पा० धनुई] १. धनुष। कमान। २. धनुष के आकार का वह उपकरण जिससे धुनिए रूई धुनते हैं। धुनकी। धन्वा।
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धनुई  : स्त्री० [सं० धनु+ई (प्रत्य०)] १. छोटा धनुष। २. धुनकी।a
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धनुक  : पुं० [सं० धनुष] १. कमान। धनुष। उदा०—भौहें धनुक साँधि सर फेरी।—जायसी। २. इंद्रधनुष।a
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धनुक-बाई  : स्त्री० [हिं० धनुक+बाई] लकवे की तरह का एक वायु रोग जिसमें जबड़े आपस में सट जाते हैं और मुँह नहीं खुलता।
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धनुकना  : स०=धुनकना।a
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धनुःपट  : पुं० [सं० धनुस्-पट् ब० स०] पयाल वृक्ष। चिरौंजी का पेड़।
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धनुर्गुण  : पुं० [सं० धनु—गुण, ष० त०] धनु की चोरी। पतंचिका। चिल्ला।
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धनुर्गुणा  : स्त्री० [सं० धनुस्-गुण ब० स०, टाप्] मूर्वा। मरोड़-फली।
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धनुर्ग्रह  : पुं० [सं० धनुस्√ग्रह् (पकड़ना)+अच्] १. धनुष-चलानेवाला योद्धा। २. धनुर्विद्या। ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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धनुर्दात  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का वायु रोग, जिससे शरीर धनुष की तरह झुककर टेढ़ा हो जाता है। २. धनुक-बाई नामक रोग। ३. शरीर के घाव या व्रण के विषाक्त होने पर होनेवाला उक्त रोग। धनुष टंकार। (टिटैनस)
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धनुर्द्धर  : पुं० [सं० धनुस्√धृ (धारण)+अच्] १. धनुष धारण करने वाला और चलाने वाला व्यक्ति। कमनैत। तीरंदाज। २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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धनुर्द्धारी (रिन्)  : वि० [सं० धनुस्√धृ+णिनि] [स्त्री० धनुर्द्धारिणी] धनुष धारण करने वाला। पुं० [सं०] धनुष रखने और चलानेवाले योद्धा।
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धनुर्द्रुम  : पुं० [सं० धनुस्-द्रुम, ष० त०] बाँस।
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धनुर्भृत्  : पुं० [सं० धनुस्√भृ (धारण+क्विप्] धनुष धारण करनेवाला योद्धा।
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धनुर्माला  : स्त्री० [सं० धनुस्-माला, ष० त०] मूर्वा। मरोड़फली।
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धनुर्मुख  : पुं० [सं० धनुस्-मख, मध्य० स०] धनुर्यज्ञ
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धनुर्यज्ञ  : पुं० [सं० धनुस-यज्ञ, तृ० त०] १. प्राचीन भारत का एक प्रकार का उत्सव जिसमें धनुष का पूजन तथा उसे चलाने की प्रतियोगिता होती थी। २. उक्त प्रकार का वह समारोह जो जनक ने सीता के स्वयंवर के समय किया था।
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धनुर्यासा  : पुं० [सं० धनुस्-यास्, उपमि० स०] जवासा।
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धनुर्लता  : स्त्री० [सं० धनुस्-लता, उपमि० स०] सोमलता।
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धनुर्वक्त्र  : पुं० [सं० धनुष्-वक्त्र, ब० स०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
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धनुर्विद्या  : स्त्री० [सं० धनुष्-विद्या ष० त०] धनुष चलाने की विद्या। तीरंदाजी।
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धनुर्वृक्ष  : पुं० [सं० धनुस्-वृक्ष ष० त०] १. धामिन का पेड़। २. बाँस। ३. भिलावाँ। ४. पीपल का वृक्ष।
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धनुर्वेद  : पुं० [सं० धनुष्-वद ष० त०] यजुर्वेद का उपवेद जिसमें विशेष रूप से धनुष चलाने की विद्या का निरूपण है।
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धनुःशाखा  : पुं० [सं० धनुस्-शाखा ब० स०] पयाल वृक्ष।
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धनुःश्रेणी  : स्त्री० [सं० धनुस्-श्रेणी, ष० त०] १. मूर्वा। मुर्रा। २. महेन्द्र-वारुणी।
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धनुष (स्)  : पुं० [सं०√धन् (शब्द)+उस्] १. अर्ध गोलाकार का एक उपकरण जो बाँस या लोहे के लचीले डंडे को झुकाकर और उनके छोरों के बीच डोरी या ताँत बाँधकर बनाया जाता है। और जिसपर तानकर तीर दूर फेंका जाता है। कमान। २. दूरी की चार हाथ की एक पुरानी नाप। ३. रहस्य संप्रदाय में, परमात्मा का ध्यान। ४. हठयोग का एक आसन। ५. चिरौंजी का पेड़। पयाल।
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धनुष-टंकार  : पुं० [सं०] १. धनुष की प्रत्यंचा के हिलने से होने वाला शब्द। २. एक घातक रोग जिसमें व्रण आदि के विषाक्त होने पर शरीर अकड़कर धनुष के समान टेढ़ा हो जाता है। धनुर्वात। (टिटैनस)
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धनुष-यज्ञ  : पुं० =धनुयज्ञ।
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धनुष्कोटि  : पुं० [सं०] रामेश्वर से दक्षिण पूर्व का एक स्थान, जहाँ समुद्र में स्नान करने का माहात्म्य है।
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धनुष्मान (ष्मत्)  : पुं० [सं० धनुष+मतप्] उत्तर दिशा का एक पर्वत। (बृहत्संहिता)
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धनुस  : पुं० =धनुष।
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धनुस्स्वन  : पुं० [सं०] धनुष की टंकार।
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धनुहाई  : स्त्री० [हिं० धनु+हाई] १. धनुष से तीर चलाने की कला या विद्या। २. तीर-धनुष से होनेवाला युद्ध या लड़ाई।
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धनुहिया  : स्त्री०= धनुही।a
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धनुही  : स्त्री० [हिं० धनु+ही (प्रत्य०)] लड़कों के खेलने की छोटी कमान।a
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धनू  : स्त्री०[सं०√धन् (शब्द)+उ] धनुष। पुं० अन्न का भण्डार।
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धनूयक  : पुं० [सं०] धनिया।
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धनेश  : पुं० [सं० धन-ईश, ष० त०] १. धन का स्वामी। २. कुबेर। ३. विष्णु। ४. जन्म-कुण्डली में लग्न से दूसरा स्थान जिसके अनुसार व्यक्ति की धन-संपन्नता का विचार होता है।
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धनेश्वर  : पुं० [सं० धन-ईश्वर, ष० त०] १. धन का स्वामी। २. कुबेर। ३. विष्णु।
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धनेस  : पुं० [देश०] लंबी गरदन तथा लंबी चोंचवाली एक तरह की बगले के आकार की चिड़िया।
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धनैषणा  : स्त्री० [सं० धन-एषणा ष० त०] धन पाने की इच्छा।
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धनैषी (षिन्)  : वि० [सं० धन√इष् (चाहना)+णिनि] धन पाने का इच्छुक। धन चाहने वाला।
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धनोष्मा (मन्)  : स्त्री० [सं० धन-ऊष्मन्, ष० त०] धन की गरमी या घमंड।
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धन्न  : वि०=धन्य।b
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धन्ना  : पुं० = धरना।a पुं० १. दे० ‘धन्नाभगत’। २. दे० ‘धन्ना सेठ’।
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धन्नाभगत  : पुं० [?] राजस्थान के एक प्रसिद्ध जाट भक्त जो ई० १ ५वीं शताब्दी में हुए थे।
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धन्नासिका  : स्त्री० [सं०] एक रागिनी जिसका ग्रह षड़ज है और जिसमें ऋ वर्जित है।
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धन्नासेठ  : पुं० [हिं० धन+सेठ] बहुत बड़ा धनवान् व्यक्ति। (परिहास और व्यंग्य) पद—धन्ना सेठ का नाती=अमीरे घराने में पैदा व्यक्ति। (परिहास और व्यंग्य)
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धन्नि  : स्त्री०=धन्या।a
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धन्नी  : स्त्री० [सं० (गो)धन] १. गायों, बैलों की एक जाति जो पंजाब में होती है। २. घोड़ों की एक जाति। पुं० [?] वह आदमी जो किसी काम के लिए बेगार में पकड़ा गया हो।a
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धन्य  : वि० [सं० धन+यत्] [स्त्री० धन्या] [भाव० धन्यता] १. जिसमें कोई ऐसी बहुत बड़ी योग्यता विशेषता हो, जिसके कारण सब लोग उसका अभिनन्दन और प्रशंसा करें। अच्छे काम करने वाला और पुण्यवान। सुकृति। २. कृतार्थ। जैसे—आपके इस कुटिया में पधारने से हम धन्य हुए। ३. धन देने वाला। धनद। पुं० १. विष्णु। २. नास्तिक। ३. धनिया। ४. अश्वकर्ण वृक्ष।
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धन्य-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी को धन्य कहना या मानना। प्रशंसा। वाह-वाही। साधुवाद। २. एक प्रकार का औपचारिक या हार्दिक कथन जिसमें किसी के प्रति उसके द्वारा किये हुए अनुग्रह, कृपा आदि के लिए कृतज्ञता का भाव निहित होता है। जैसे—(क) आपका पत्र मिला; एतदर्थ धन्यवाद। (ख) इस उपहार के लिए धन्यवाद।
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धन्यता  : स्त्री० [सं० धन्य+तल्—टाप्] धन्य होने की अवस्था या भाव।
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धन्यमन्य  : वि० [सं० धन्य√मन् (मानना)+खश्, मुम्] अपने को धन्य या भाग्यशाली माननेवाला।
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धन्या  : स्त्री० [सं० धन्य+टाप्] १. वन-देवी। २. उप-माता। विमाता। ३. ध्रुव की पत्नी जो मनु की कन्या थी। ४. धनिया। ५. छोटा आँवला। वि० स्त्री० ‘धन्य’ का स्त्री रूप।
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धन्याक  : पुं० [सं०√धन्+आकन, नि० सिद्धि] धनिया।
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धन्व  : पुं० [सं०√धन् (शब्द)+वन्] १. धनुष। २. मरु- प्रदेश रेगिस्तान।
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धन्व-दुर्ग  : पुं० [सं० मध्य० स०] मरुभूमि में स्थित दुर्ग।
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धन्व-यवास  : पुं० [सं० मध्य० स०] दुरालभा। जवासा।
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धन्वंग  : पुं० [सं० धनु-अंग, ब० स०] धामिन का पेड़।
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धन्वज  : वि० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+ड] रेगिस्तान में उपजने या जनमनेवाला।
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धन्वंतर  : पुं० [सं०] चार हाथ की एक प्राचीन माप।
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धन्वंतरि  : पुं० [सं० धनु-अंत, ष० त०, धन्वत√ऋ (गति)+इ] १. देवताओं के प्रधान चिकित्सक जिनके संबंध में प्रसिद्ध है कि वे समुद्र मंथन के समय हाथ में अमृत का पात्र लिए हुए उसमें से प्रकट हुए थे। २. विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक।
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धन्वन  : पुं० [सं०√धन्व्+ल्यु—अन] धामिन का पेड़।
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धन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं०√धन्व् (गति)+कनिन्] १. धनुष। कमान। २. मरुभूमि। रेगिस्तान। ३. सूखी जमीन (स्थल)। ४. आकाश।
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धन्वाकार  : वि० [सं० धन्वन्-आकार, ब० स०] कमान या धनुष के आकार का। अर्द्ध चन्द्राकार।
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धन्वायी (यिन्)  : वि० [सं० धन्वन्√इ (गति)+णिनि] धनुर्द्धर। पुं० रुद्र का एक नाम।
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धन्विन  : पुं० [सं० धन्व+इनन्] शूकर। सूअर।
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धन्वी (न्विन्)  : वि० [सं० धनु+इनि] १. धनु धारण करने वाला। २. चतुर। होशियार। पुं० १. पाँचों पाण्डवों में से अर्जुन का एक नाम। २. अर्जुन वृक्ष। ३. बकुल। मौलसिरी। ४. जवासा। ५. विष्णु। ६. शिव। तामस मनु का एक पुत्र।
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धप  : स्त्री० [अनु०] १. भारी चीज के मुलायम चीज पर गिरने से होनेवाला शब्द। २. सिर पर मारा जानेवाला थप्पड़। धौल। क्रि० प्र०—जड़ना।—देना।—मारना।—लगाना।।
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धपना  : अ० [सं० धावन, या हिं० धाप] १. जल्दी-जल्दी या तेजी-तेजी से चलना। २. झपटना।। स० [हिं० धप+ना (प्रत्य०)] १. सिर पर थप्पड़ मारना। २. मारना। पीटना।
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धपाड़  : स्त्री० [हिं० धपना] धपने की क्रिया या भाव। जैसे—दौड़-धपाड़।a
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धपाना  : स० [हिं० धपना] १. जल्दी जल्दी या तेजी से चलना । २. झपटने में प्रवृत्त करना। झपटाना।
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धप्पड़  : पुं०=थप्पड़।a
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धप्पा  : पुं० [अनु० धप] १. हाथ से किसी को किया जाने वाला हल्का आघात। हल्का थप्पड़। (पश्चिम) २. ऐसा आघात जिससे आर्थिक हानि हो। क्रि० प्र०—बैठना।—लगना।
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धप्पाड़  : स्त्री०=धपाड़।a
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धब-धब  : स्त्री० [अनु०] १. भारी और मुलायम चीज के गिरने का शब्द। २. भारी और मोटे आदमी के टलने के समय जमीन पर पैर पड़ने का शब्द।
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धबकना  : अ० [अनु०] चमकना। उदा०—धड़ि धड़ि धबाकि धार धारू जलु।—प्रिथीराज।b स० (थप्पड़ आदि) जड़ना। मारना। जैसे—पीठ पर मुक्का या मुँह पर थप्पड़ धबकना।
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धबला  : पुं० [देश०] १. कमर के नीचे के अंग ढकने का कोई ढीला-ढाला पहनावा। २. स्त्रियों का घाघरा। लहँगा।
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धब्बा  : पुं० [?] १. किसी तल पर लगा हुआ किसी रंग का ऐसा चिह्न, जिससे उस तल की शोभा बहुत घटे या नष्ट हो जाए। जैसे—कपड़े पर लगा हुआ स्याही का धब्बा, दीवार पर लगा हुआ तेल का धब्बा। २. प्रायः रँगे हुए कपड़े के संबंध में, ऐसा चिह्न जो कहीं अधिक और कहीं कम चढ़ने के कारण बना हो। ३. कलंक। दाग।
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धम  : स्त्री० [अनु०] भारी चीज के गिरने का शब्द। धमाका। जैसे—धम से गिरना। पद—धमसे=(क) धम शब्द करते हुए। धड़ाम से। (ख) धमाधम। (ग) निरंतर। लगातार। पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. यम। ३. चन्द्रमा। ४. श्रीकृष्ण का एक नाम।।
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धम-गजर  : पुं० [अनु० धम+सं० गर्जन] १. उत्पात। ऊधम। उपद्रव। २. ऐसी लड़ाई-झगड़ा, जिसमें मार-पीट भी हो।
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धम-धम  : पुं० [सं०] कार्तिकेय के गण जो पार्वती के क्रोध से उत्पन्न हुए थे। (हरिवंश) क्रि० वि०=धमाधम।
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धम-धूसर  : वि० [अनु० धम+सं० धूसर=मटमैला, या गंदला] बहुत भद्दा या मोटा। स्थूल और बेडौल।
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धमक  : स्त्री० [हिं० धमकना] १. धमकने की क्रिया या भाव। २. किसी भारी चीज के जमीन पर गिरने के कारण होनेवाला वह धम शब्द जिसके साथ जमीन में हलका कंपन भी हो। जैसे—फरश पर किसी चीज के गिरने या किसी के चलने से होने वाली धमक। ३. वह कंप जो भारी चीज के गिरने, चलने आदि से आस-पास के स्तर पर होता है। जैसे—रेल के चलने से आस-पास की जमीन में होनेवाली धमक। ४. आघात। प्रहार। ५. रोग, विकार आदि के कारण शरीर के किसी अंग में होनेवाला हलका कष्ट-दायक कंप या संवेदन। जैसे—बुखार के कारण सिर में (या सारे शरीर में) होनेवाली धमक। ६. रास्ते में पड़नेवाला गड्ढा। (पालकी ढोने वालों की परिभाषा में) वि० [सं०] [स्त्री० धमिका] धौंकनेवाला। पुं० लोहार।
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धमंकना  : स० [हिं० धौकना] १. न रहने देना। नष्ट करना। उदा०—काटित पातक ब्यूह विकट जम-जूह धमंकति।—रत्नाकर। २. दे० ‘धौंकना’।
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धमकना  : अ० [हिं० धमक] १. गिरने के कारण धम शब्द होना। २. उक्त प्रकार के शब्द के कारण कुछ-कुछ काँपना या हिलना। ३. सहसा भारी बोझ पड़ने से हिलते हुए दबना। उदा०—चरण भार से सुदृढ़ धरा कँप गई धमक कर।—मैथलीशरण। ४. यौगिक क्रिया के रूप में, आना और जाना क्रियाओं के साथ लगने पर वेगपूर्वक इस प्रकार गमन करना कि लोग कुछ डरकर सहम जाएँ। जैसे—इतने में पुलिस वाले वहाँ आ धमके। ५. रह-रहकर हलका आघात और उसके कुछ साथ कंप-सा होता हुआ जान पड़ना। जैसे—बुखार में सिर धमकना। स० इस रूप में आघात करा या दंड देना कि वह कुछ अनुचित या उग्र-सा जान पड़े। जैसे—(क) उन्होंने बिना सोचे-समझे उसे एक मुक्का धमक दिया। (ख) अदालत ने उन्हें सौ रुपये जुर्माना धमक दिये। स०= धौंकना।a
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धमका  : पुं० [सं० धमा] उमस। गरमी। उदा०—धमका विषम ज्यौं न पात खरकत हैं।—सेनापति।
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धमकाना  : स० [हिं० धमकी+आना (प्रत्य०)] यह कहना कि यदि तुम ऐसा काम करोगे (अथवा अमुक काम न करोगे) तो हम तुम्हें अमुक प्रकार का कष्ट या दंड देंगे।
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धमकी  : स्त्री० [हिं०] वह बात जो किसी को धमकाते हुए कही जाय। इस प्रकार का कथन कि यदि तुम आगे ऐसा करोगे (अथवा अमुक काम न करोगे) तो हम तुम्हें अमुक प्रकार का कष्ट या दंड देंगे। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—(किसी की) धमकी में आना=किसी के धमकाने या धमकी देने पर उससे डरते हुए उसके अनुकूल आचरण या व्यवहार करना।
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धमक्का  : पुं०=धमाका।a
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धमधमाना  : स० [अनु० धम] १. कूद-फाँद या चल-फिर कर धम-धम शब्द उत्पन्न करना। २. धम-धम शब्द करते हुए थप्पड़ मुक्के आदि लगाना। अ० धम-धम शब्द होना।
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धमन  : पुं० [सं०√धम् (शब्द)+ल्युट—अन] १. किसी चीज में हवा फूँककर भरना। २. भाथी से हवा करना। धौंकना। ३. उक्त काम के लिए बनी हुई पोली नली। ४. धौंकनी। ५. नरकट।
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धमन-भट्टी  : स्त्री० [सं० धमन+हिं० भट्ठी] धातुएँ आदि गलाने की एक विशेष प्रकार की भट्ठी, जिसमें आग सुलगाने के लिए हवा बहुत तेजी से पहुँचायी जाती है। (ब्लास्ट फर्नेस)
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धमना  : स० [सं० धमन] १. धौंकना। २. नल आदि में भरकर हवा के जोर से कोई चीज अंदर पहुँचाना।a
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धमना  : अ०= धाना (दौड़ना)।
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धमनि  : स्त्री० [सं० धम्+अनि] १. प्रह्लाद के भाई ह्लाद की स्त्री जो वातापि और इल्वल की माता थी। २. वाक्-शक्ति। वाणी। ३. धमनी। नाड़ी।
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धमनिका  : स्त्री०[सं०] १. छोटी और पतली धमनी। (आर्टरी पोल) २. तुरही नाम का बाजा। (कौ०)
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धमनी  : स्त्री० [सं० धमनि+ङीष्] १. गर्दन। गला। २. शरीर के अंदर की उन नलियों या नसों या समूहों जिनके द्वारा हृदय से निकलकर चलने वाला रक्त सारे शरीर में पहुँचता या फैलता है। (आर्टरी) विशेष—सुश्रुत में इनकी संख्या २४ बतलायी गई है और कहा गया है कि इनकी छोटी-छोटी हजारों शाखाएँ सारे शरीर में फैली हुई हैं। इन छोटी-छोटी शाखाओं को धमनिका कहते हैं। ३. गमन या यातायात का कोई मुख्य मार्ग या साधन। जैसे—नदियाँ अथवा रेलें और सड़कें हमारे देश की धमनियाँ हैं।
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धमसा  : पुं० = धौंसा।a
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धमा-चौकड़ी  : स्त्री० [अनु० धम+हिं० चौकड़ी] १. ऐसी उछल-कूद, उपद्रव या ऊधम जिसमें रह-रहकर धम-धम शब्द भी होता हो। २. ऐसी मारपीट जिसमें उठा-पटक भी होती हो। ३. उपद्रव। ऊधम। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना।
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धमा-धम  : क्रि० वि० [अनु० धम] १. धम-धम शब्द करते हुए (क) लड़के धमाधम नीचे कूद पड़े। (ख) उनपर धमा-धम थप्पड़ और मुक्के पड़ने लगे। २. लगातार। निरंतर। स्त्री० १. लगातार होनेवाला धमधम शब्द। लगातार गिरने, पड़ने आदि की आवाज। २. ऐसा आघात, प्रहार या मार-पीट जिसमें धम-धम शब्द भी होता हो। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना।
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धमाका  : पुं० [अनु०] १. भारी वस्तु के गिरने से होने वाला धम शब्द। वेगपूर्वक नीचे कूदने या गिरने का शब्द। २. बहुत जोर से होने वाला ‘धम’ का सा शब्द। जैसे—बंदूक छूटने का धमाका। ३. धक्का। ४. आघात। प्रहार। ५. पथर कला बंदूक। ६.वह तोप जो हाथी पर लादकर चलती थी।
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धमार  : स्त्री० [अनु०] १. उछल-कूद। धमा-चौकड़ी। २. उत्पात। उपद्रव। ३. नटों की उछलकूद, कलाबाजी आदि। ४. एक विशेष प्रकार के लोकगीत जो मुख्यतः फागुन में पाये जाते हैं। अब इनका प्रवेश शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में भी हो गया है। मुहा०—धमार खेलना = आनंद-मंगल और क्रीड़-कौतुक करना। ५. उक्त गीत के साथ बजने वाला ताल। ५. वह क्रिया जिसमें कुछ लोग मंत्र-बल से दहकती हुई आग या जलते हुए कोयले पर चलते हैं।
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धमारिया  : पुं० [हिं० धमार] १. नट जो प्रायः उछल-कूद करते रहते हैं। २. उत्पाती या उपद्रवी व्यक्ति। ३. वह जो धमार गाने में निपुण हो। ४. वह जो मंत्र-बल आदि से जलती हुई आग या दहकते हुए अंगारों पर चलता हो।
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धमारी  : वि० [हिं० धमार]=धमारिया। स्त्री०=धमा-चौकड़ी।
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धमाल  : स्त्री०=धमार।a
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धमाला  : पुं० [सं० धूम्रनेत्र] [स्त्री० अल्पा० धमाली] दीवार में बना हुआ वह छेद, जिसका ऊपरी मुँह छत में खुलता है और जिसमें से धूआँ निकलकर बाहर जाता है।
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धमाली  : स्त्री० [हिं० धमार] जोगीड़े की तरह एक प्रकार के अश्लील गीत।
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धमासा  : पुं० [सं० यवासा] एक हाथ ऊँचा एक तरह का क्षुप, जिसमें तीक्ष्ण कंटक होते हैं। इसकी जड़ ताम्रवर्ण होती हैं।
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धमिका  : स्त्री० [सं०] लोहार जाति की स्त्री। लोहारिन।
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धमिल  : पुं० [सं०] सिर के बालों का बँधा हुआ जूड़ा।
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धमूका  : पुं० [अनु० धम] १. धमाका। २. घूँसा। मुक्का।a
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धमेख  : स्त्री० [सं० धर्म चक्र] सारनाथ (काशी) के पास का वह स्तूप जो उस स्थान पर बनाया गया था, जहाँ बुद्धदेव ने अपना धर्मचक्र अर्थात् धर्मोपदेश आरंभ किया था।
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धम्मन  : पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे चरवा भी कहते हैं।
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धम्माल  : स्त्री०=धमार।
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धम्मिल्ल  : पुं० [सं०√धम् (शब्द)+विच्,√मिल् (मिलन)+ क, पृषो० सिद्धि] सिर के बालों को लपेटकर बनाया जानेवाला जूड़ा।
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धम्हा  : पुं० दे० ‘धमन-भट्ठी’।a
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धयना  : अ०=धाना (दौड़ना)।
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धर  : वि० [सं०√धृ (धारण)+अच्] १. धारण करने या अपने ऊपर लेनेवाला। २. समस्त पदों के अंत में; उठाने या धारण करने वाला। हाथ में पकड़ने या रखनेवाला जैसे—गिरिधर, चक्रधर, महीधर। पुं० १. कच्छप जो पृथ्वी को अपने ऊपर धारण किये हुए हैं। २. विष्णु। ३. श्रीकृष्ण। ४. पर्वत। ५. एक वसु का नाम। ६. व्यभिचारी। ७. कपास का डोडा। ८. तलवार। स्त्री० [हिं० धरना] धरने अर्थात पकड़ने की क्रिया या भाव। पद—धर-पकड़। (देखें) स्त्री० [सं० धरा] पृथ्वी। उदा०—मानहुँ शेष अशेष धर धरनहार बरिबंड।—केशव। पद—धर-अंबर=पृथ्वी के आकाश तक। पुं०=धड़।a
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धर-पकड़  : स्त्री० [हिं० धरना+पकड़] १. धरने या पकड़ने की क्रिया या भाव। २. सिपाहियों आदि द्वारा अनेक संदिग्ध अभियुक्तों को पकड़कर थाने ले जाना।
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धरक  : पुं० सं०] अनाज तौलने का काम करनेवाला। स्त्री०= धड़क।a
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धरकना  : अ०=धड़कना।b
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धरका  : पुं०=लड़का।a
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धरकार  : पुं० [?] एक जाति जो बाँसों आदि की टोकरियाँ बनाने का काम करती है।
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धरण  : पुं० [सं०√धृ+ल्युट्—अन] १. धारण करने की क्रिया या भाव। धारण। २. एक प्रकार की पुरानी तौल जो २४ रत्ती की, कहीं १ ६ मासे की और कहीं १॰. पल की कही गयी है। ३. जगत्। संसार। ४. सूर्य। ५. छाती। स्तन। ६. धान। ७.जलाशय का बाँध। ८. पुल। ९.एक नाग का नाम। स्त्री०=धरणी (पृथ्वी)।b
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धरणि  : स्त्री० [सं०√धृ+अनि]=धरणी।
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धरणि-धर  : पुं० [ष० त०] धरणीधर।
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धरणी  : स्त्री० [सं० धरणि+ङीष्] १. पृथ्वी। २. नस। नाड़ी। ३. सेमल का पेड़। शाल्मली। ४. शहतीर।
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धरणी-कंद  : पुं० [मयू० स०] एक प्रकार का कंद जिसे बनकंद भी कहते हैं।
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धरणी-कीलक  : पुं० [ष० त०] पर्वत। पहाड़।
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धरणी-धर  : वि० [ष० त०] पृथ्वी को धारण करनेवाला। पुं० १. शेषनाग। २. कच्छप। कछुआ। ३. विष्णु। ४. शिव। पर्वत। पहाड़।
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धरणी-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर।
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धरणी-सुत  : पुं० [ष० त०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर राक्षस।
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धरणी-सुता  : स्त्री० [ष० त०] सीता। जानकी।
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धरणीपूर  : पुं० [सं० धरणी√फूर (पूर्ति)+अण्] समुद्र।
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धरणीभृत्  : पुं० [सं० धरणी+भृ (धारण)+क्विप्] १. शेषनाग। २. विष्णु। ३. पर्वत। पहाड़। ४. राजा।
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धरणीय  : वि० [सं० धृ+अनीयर] १. धारण किये जाने योग्य। २. जिसे पकड़कर सहारा ले सकें।
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धरणीश्वर  : पुं० [सं० धरणी-ईश्वर, ष० त०] १. शिव। २. विष्णु। ३. राजा।
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धरंता  : वि० [हिं० धरना=पकड़ना] १. धरने या पकड़नेवाला। २. दे० ‘धरता’।
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धरता  : वि० [हिं० धरना] [स्त्री० धरती] १. धारण करने वाला। २. अपने ऊपर किसी कार्य का भार लेने वाला। पद—करता धरता=सब-कुछ करने धरने वाला। पुं० १. वह जिसने किसी से कुछ धन उधार लिया हो। ऋणी। कर्जदार। २. बँधा हुआ अंश जो किसी को रकम देने के समय धर्मार्थ अथवा किसी उद्देश्य से काट लिया जाता हो। कटौती।
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धरति  : स्त्री०=धरती (पृथ्वी)।a
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धरती  : स्त्री० [सं० धरित्री] १. पृथ्वी। जमीन। मुहा०— धरती बहाना=(क) खोत जोतना। (ख) हल जोतने की तरह का बहुत अधिक परिश्रम करना। पद—धरती का फूल=(क) खुमी। छत्रक। (ख) मेढक। (ग) ऐसा व्यक्ति जो अभी हाल में अमीर हुआ हो। २. जगत। संसार।
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धरधर  : पुं० [सं० धराधर] पर्वत। उदा०—धरधर श्रृंग सधर सुपनि पयोधर।—प्रिथीराज। स्त्री०=धड़-धड़।a पुं०=धरहर।a
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धरधरा  : पुं० [अनु०] १. कलेजे की धड़कन। २. धड़की।
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धरधराना  : अ०, स०=धड़धड़ाना।
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धरन  : स्त्री० [हिं० धरना] १. धरने की क्रिया, ढंग या भाव। पकड़। २. अपनी बात पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहने की अवस्था, क्रिया या भाव। हठ। जिद। टेक। मुहा०—धरन धरना=अपनी बात पर अड़े रहना। हठ या जिद न छोड़ना। स्त्री० [सं० धरणी] १. आमने-सामने दीवारों के सिरे पर रखा जाने वाला वह मजबूत मोटा लट्ठ या छोटा शहतीर, जिसके सहारे पर ऊपर की छत टिकी रहती या पाटी जाती है। कड़ी। धरनी। २. स्त्रियों के गर्भाशय के ऊपरी भाग की वह नस, जो उसे इधर उधर से रोके रखकर यथास्थान स्थित रखती है। मुहा०—धरन खिसकना, टलना या सरकना=गर्भाशय की उक्त नस का अपने स्थान से इधर-उधर हो जाना, जिससे गर्भाशय के आस-पास बहुत पीड़ा होती है। ३. गर्भाशय। पुं०=धरना।a स्त्री०=धरणी (पृथ्वी)।a वि०=धरण (धारण करनेवाला)।a
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धरनहार  : वि० [हिं० धरना+हार (प्रत्य०)] धारण करनेवाला। वि० [हिं० धरना=पकड़ना] धरने या पकड़नेवाला।
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धरना  : स० [सं० धारण] १. कोई चीज इस प्रकार दृढ़ता से पकड़ना या हाथ में लेना कि वह जल्दी छूट न सके अथवा इधर-उधर न हो सके। पकड़ना। थामना। संयो० क्रि०—लेना। २. ग्रहण या धारण करना। ३. अधिकार या रक्षा में लेना। मुहा०—धर दबाना=(क) पकड़कर वश में कर लेना। आक्रांत करना। जैसे—बिल्ली ने कबूतर को धर दबाया। (ख) लाक्षणिक रूप में, वेगपूर्वक कोई ऐसी बात कहना जिससे विपक्षी दब जाए या चुप हो जाय। धर दबोचना=धर पकड़ना। पद—धर-पकड़कर=किसी की इच्छा न होते हुए भी उसके प्रति कुछ बल-प्रयोग करते हुए। जैसे—धर-पकड़कर मुझे भी लोग वहाँ ले ही गये। ४. किसी स्थान पर किसी चीज को रखना। जैसे—संदूक में कपड़े धरना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। मुहा०— किसी चीज या बात का) धरा रह जाना=इस रूप में व्यर्थ पड़ा रहना कि समय पर काम न आ सके। जैसे—उनके सामने जाते ही आपकी सारी चालाकी (या बहादुरी) धरी रह जायगी। पद—धरा-ढका=समय पर काम करने के लिए बचाकर रखा हुआ। जैसे—ये सब कपड़े यों ही धरे ढके रहने दो; समय पर काम आवेंगे। ५. किसी के अधिकार में देना या किसी के पास रखना। जैसे—ये पुस्तकें किसी मित्र के पास धर दो। ६. निश्चित या स्थिर करना। जैसे—किसी काम के लिए कोई दिन धरना। ७. धारण करना। जैसे—बहरूपिए तरह-तरह के रूप धरते हैं। ८. पत्नी (या पति) के रूप में किसी को अपने यहाँ रखना। उदा०—ब्याहौ लाख, धरौ दस कुबरी, अंतहि कान्ह हमारो।—सूर। ९. कोई चीज गिरवी या रहन रखना। बंधक रखना। उदा०—वह अँगूठी धरकर रुपये ले आया है। १॰.. फैलने वाली वस्तु का किसी दूसरी वस्तु में लगना या उस पर प्रभाव डालना। जैसे—आग धरा। पुं० अपनी प्रार्थना या बात मनवाने, अपनी माँग पूरी करने या किसी को कोई अनुचित काम करने से रोकने के लिए उसके दरवाजे पर, पास या सामने तब तक अड़कर बैठे रहना, जब तक वह प्रार्थना या माँग पूरी न हो जाय अथवा वह अनुचित काम बंद न हो जाय। (पिकेटिंग) क्रि० प्र०—देना।
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धरनि  : स्त्री० [हिं० धरना] जिद। टेक। हठ।b स्त्री०= धरणी।b
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धरनी  : स्त्री० [हिं० धरना या सं० धारण] किसी बात पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहने की क्रिया या भाव। जिद। टेक। हठ। क्रि० प्र०—धरना। स्त्री०=धरणी (पृथ्वी)।
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धरनैत  : पुं० [हिं० धरना+एत (प्रत्य०)] किसी काम या बात के लिए अड़कर किसी स्थान पर बैठने या धरना देनेवाला।
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धरबी  : स० [सं० धारण] १. धारण करेगा। २. पकड़ेगा। (बुंदेल०)
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धरम  : पुं०=धर्म।a
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धरमसार  : स्त्री० धर्मशाला।a
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धरमाई  : स्त्री०=धार्मिकता। उदा०—होहिं परिच्छा तौ कछु परहि जानि धरमाई।—रत्ना०।
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धरमी  : वि० [सं० धर्म्म] १. धर्म के अनुसार आचरण करने वाला। २. किसी धर्म या मत का अनुयायी। ३. धर्म-संबंधी। धार्मिक। ४. दे० ‘धर्मी’।
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धरमेसुर  : वि०=धर्मेश्वर।a
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धरवाना  : स० [हिं० धरना का प्रे०] १. धरने का काम किसी दूसरे से कराना। २. पकड़वाना। थमाना। ३. रखवाना।
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धरषना  : अ०, स०=धरसना।
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धरसना  : स० [सं० धर्षण] १. अच्छी तरह कुचलते या रौंदते हुए दबाना। मर्दन करना। २. अपमानित करना। ३. दुर्दशा करना। अ० अच्छी तरह कुचला या दबाया जाना। २. अपमानित होना। ३. दुर्दटनाग्रस्त होना। ४. डर या सहम जाना।
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धरसनी  : स्त्री०=धर्षणी।a
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धरहर  : स्त्री० [हिं० धरना+हर (प्रत्य०)] १. दो या अधिक लड़नेवालों को धर-पकड़कर अलग करने या लड़ाई बंद कराने का कार्य। बीच-बचाव। २. किसी को पकड़ जाने या मार खाने से बचाने के लिए किया जाने वाला काम। बचाव। रक्षा। ३. धीरज। धैर्य। ४. दृढ़ निश्चय। उदा०—जमकरि मुँह तर हरि पर्यौ, इहिं धरि हरि चित्त लाउ।—बिहारी। ५. दे० ‘धर-पकड़’। वि० रक्षक।
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धरहरना  : अ० १. दे० ‘धड़कना’। २. दे० ‘धड़धड़ाना’।b स० दे० ‘धड़धड़ाना’।
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धरहरा  : पुं० [हिं० धुर=ऊपर+घर] १. खंबे के सदृश ऐसी ऊंची वास्तु-रचना, जिस पर चढ़ने के लिए अंदर से सीढ़ियाँ बनी होती हैं। धौरहर। मीनार। २. ’जल-स्तंभ’।
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धरहरि  : स्त्री०, वि०=धरहर।
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धरहरिया  : पुं० [हिं० धरहरि] १. धर-पकड़कर बचानेवाला। बीच-बचाव करनेवाला। २. रक्षक।
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धरा  : स्त्री० [सं०√धृ+अप्+टाप्] १. पृथ्वी। जमीन। धरती। २. जगत। दुनिया। संसार। ३. गर्भाशय। ४. चरबी। मेद। ५. नस। नाड़ी। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और एक गुरु होता है। पुं०=धड़ा।
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धरा-कदंब  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कदंब।
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धरा-तल  : पुं० [ष० त०] १. पृथ्वी का ऊपरी तल। जमीन। धरती। २. कोई ऐसा अलग या स्वतंत्र विस्तार जिसका विचार दूसरे तलों से बिलकुल अलग किया जाय। तल। सतह। जैसे—आपने अपनी मीमांसा से यह विषय एक नये धरातल पर ला रखा है। ३. किसी चीज की चौड़ाई और लंबाई का गुणनफल। रकबा। ४. पृथ्वी।
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धरा-धर  : पुं० [ष० त०] १. वह जो पृथ्वी को धारण करे। २. शेष नाग। ३. विष्णु। ४. पर्वत। पहाड़।
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धरा-धरन  : पुं०=धराधर।a
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धरा-धरी  : स्त्री०=धर-पकड़।
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धरा-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर।
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धरा-सुत  : पुं० [ष० त०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर।
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धरा-सुर  : पुं० [सं० त०] ब्राह्मण।
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धराउर  : स्त्री०=धरोहर।a
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धराऊ  : वि० [हिं० धरना+आऊ (प्रत्य०)] १. (ऐसा माल) जो बहुत दिन का पड़ा या रखा हो और फलतः बिका न हो पुराना। २. जो अप्राप्य या दुर्लभ होने के कारण केवल विशेष अवसरों के लिए रखा रहे।
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धराका  : पुं०=धड़ाका।
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धरात्मज  : पुं० [धरा-आत्मज, ष० त०] १. मंगलग्रह। २. नरकासुर।
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धरात्मजा  : स्त्री० [धरा-आत्मजा ष० त०] सीता। जानकी।
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धराधार  : पुं० [धरा-आधार ष० त०] शेषनाग।
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धराधिप, धराधिपति  : पुं० [धरा-अधिप, ष० त०, धरा-अधिपति, ष० त०] राजा।
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धराधीश  : पुं० [धरा-अधीश, ष० त०] राजा।
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धराना  : स० [हिं० ‘धरना’ का प्रे०] १. पकड़ाना। थमाना। २. पकड़वाना। ३. किसी को कहीं कुछ धरने या रखने में प्रवृत्त करना। जैसे—चोरों से माल धराना। ३. रखवाना। रखना। ४. नियत, निश्चित या स्थिर कराना। जैसे—किसी काम या बात के लिए दिन धराना; अर्थात निश्चित कराना। जैसे—मुहूर्त धराना।
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धरामर  : पुं० [सं०] ब्राह्मण।
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धरामृत  : पुं० [सं० धरा√भृ (धारण)+क्विप्, तुक्-आगम] पर्वत। पहाड़।
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धरावत  : स्त्री० [हिं० धरना] १. धरने की क्रिया, ढंग या भाव। २. जमीन की वह माप या क्षेत्र-फल जो कूतकर मान लिया गया हो।
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धरावना  : स०= धराना।a
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धराशायी (यिन्)  : वि० [सं० धरा+शी (सोना)+णिनि] [स्त्री० धराशायिनी] १. जमीन पर पड़ा, लेटा या सोया हुआ। जैसे—युद्ध में वीरों का धराशायी होना, अर्थात गिर पड़ना मर जाना। २. गिर, ढह या टूटकर जमीन के बराबर हो जाना। जैसे—भवन या स्तूप धराशायी होना।
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धरास्त्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र, जिसका प्रयोग विश्वामित्र ने वशिष्ठ पर किया था।
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धराहर  : पुं० [हिं० धुर=ऊपर+घर]=धौरहर (मीनार)।a
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धरिंगा  : पुं० [देश०] एक तरह का चावल।
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धरित्री  : स्त्री० [सं०] धरती। पृथ्वी।
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धरिमा (मन्)  : स्त्री० [सं०√धृ (धारण)+इमनिच्] १. तराजू। २. रूप। शक्ल।
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धरी  : स्त्री० [हिं० धरना] १. अवलंब। आश्रय। उदा०—अब मौकों धरि (धरी) रहीन कोऊ तातैं जाति भरी।—सूर। २. अर्थात उपपत्नी के रूप में रखी हुई स्त्री। रखेली। स्त्री० [हिं० ढार] कान में पहनने का ढार या बिरिया नाम का गहना। स्त्री०=धड़ी।a स्त्री० [हिं० धार] १. जल की धार। २. वर्षा की झड़ी।a
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धरीचा  : वि० [हिं० धरना] १. धरा या पकड़ा हुआ। पुं० दे० ‘धरेला’।
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धरुण  : वि० [सं०√धृ+उनन्] धारण करने वाला। १. ब्राह्मण। २. स्वर्ण। ३. जल। ४. राय। ५. वह स्थान जहाँ कोई वस्तु सुरक्षित अवस्था में रखी जा सके। ६. अग्नि। ७. दुधमुहाँ बछड़ा।
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धरेचा  : वि०, पुं०=धरेला।
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धरेजा  : पुं० [हिं० धरना=रखना+एजा (प्रत्य०)] किसी विधवा स्त्री की पत्नी को पत्नी की तरह घर में रखने की क्रिया या प्रथा। स्त्री० इस प्रकार रखी हुई स्त्री।
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धरेला  : वि० [हिं० धरना] [स्त्री० धरेली] जो किसी रूप में धर या पकड़कर अपने पास रखा या अपने अधिकार में किया गया हो। पुं० १. किसी स्त्री की दृष्टि से, वह पुरुष जिसे उसने अपना पति बनाकर अपने पास या साथ रखा हो। २. कुछ जातियों में प्रचलित वह प्रथा, जिसमें बिना विवाह किये ही लोग विधवा स्त्री को सगाई आदि करके अपनी पत्नी बनाकर रख लेते हैं; और उनके समाज में उनका ऐसा संबंध विधि-संगत माना जाता है।
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धरेली  : स्त्री० [हिं० धरेला] रखेली। उपपत्नी।
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धरेवा  : पुं० दे० ‘करेवा’। (विवाह का एक प्रकार)।
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धरेश  : पुं० [सं० धरा-ईश, ष० त०] राजा।
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धरेस  : पुं०=धरेश।
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धरैया  : वि० [हिं० धरना] १. धरने या पकड़नेवाला। २. धारण करनेवाला। पुं० कच्छप, शेषनाग आदि जो पृथ्वी को धारण करनेवाले कहे जाते हैं। स्त्री० वह प्रथा जिसके अनुसार कोई व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) किसी दूसरे व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) को अपना जीवन-सहचर बनाकर रखता है।
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धरोड़  : स्त्री०=धरोहर।a
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धरोहर  : स्त्री० [हिं० धरना] १. वह धन या संपत्ति, जो किसी विश्वस्त व्यक्ति के पास कुछ समय तक सुरक्षित रखने के लिए रखी जाय। अमानत। क्रि० प्र०—धरना—रखना। २. वस्तु या गुण जो निधि के रूप में हमें पूर्वजों से मिला हो। थाती। जैसे—हमें यह संस्कृति अपने पूर्वजों से धरोहर के रूप में मिली है।
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धरौंआ  : पुं० [हिं० धरना] बिना विधिपूर्वक विवाह किये स्त्री या पुरुष को पत्नी या पति बनाकर रखने की प्रथा। धरैया। वि० उक्त प्रथा के अनुसार अपने साथ या पास रखा हुआ (व्यक्ति)।
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धरौना  : पुं०=धरैया (प्रथा)।
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धरौली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़, जो भारत वर्ष में प्रायः सब जगह विशेषतः हिमालय की तराई में पाया जाता है। इसमें सफेद, लाल या पीले फूल लगते हैं।
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धर्ता (र्तृ)  : वि० [सं०√धृ (धारण)+तृच्] १. धारण करनेवाला। २. अपने ऊपर किसी काम या बात का भार लेनेवाला। पद—कर्ता-धर्ता। (दे० ‘कर्ता’ के अन्तर्गत)
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धर्ती  : स्त्री०=धरती।
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धर्तूर  : पुं० [सं० धुस्तुर पृषो० सिद्धि] धतूरा।
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धर्त्र  : पुं० [सं०√धृ+त्र] १. घर। ग्रह। सहारा। टेक। ३. यज्ञ। ४. पुण्य। ५. नैतिकता।
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धर्म  : पुं० [सं०√धृ+मन्] [वि० धार्मिक] १. पदार्थ का वह प्राकृतिक तथा मूलगुण, विशेषता या वृत्ति, जो उसमें बराबर स्थायी रूप से वर्तमान रहती हो, जिससे उसकी पहचान होती हो और उससे कभी अलग न की जा सकती हो। जैसे—आग का धर्म जलना और जलाना या जीव का धर्म जन्म लेना और मरना है। २. सामाजिक क्षेत्र में नियम, विधि, व्यवहार आदि के आधार पर नियत तथा निश्चित वे सब काम या बातें जिनका पालन समाज के अस्तित्व या स्थिति के लिए आवश्यक होता है और जो प्रायः सर्वत्र सार्विक रूप से मान्य होती है। जैसे—अहिंसा, दया, न्याय, सत्यता आदि का आचरण मनुष्य मात्र का धर्म है। ३. लौकिक क्षेत्र में वे सब कर्म तथा कृत्य, जिनका आचरण या पालन किसी विशिष्ट स्थिति के लिए विहित हो। जैसे—(क) माता-पिता की सेवा करना पुत्र का धर्म है। (ख) पढ़ना-पढ़ाना यज्ञ आदि करना, किसी समय ब्राह्मण का मुख्य धर्म माना जाता है। ४. आध्यात्मिक क्षेत्र में, ईश्वर, देवी-देवता, देव-दूत (पैगम्बर) आदि के प्रति मन में होने वाले विश्वास तथा श्रद्धा के आधार पर स्थित वे कर्तव्य कर्म अथवा धारणाएँ, जो भिन्न-भिन्न जातियों और देशों के लोगों में अलग-अलग रूपों में प्रचलित हैं और जो कुछ विशिष्ट प्रकार के आचार-शास्त्र तथा दर्शन-शास्त्र पर आश्रित होती हैं। जैसे—ईसाई-धर्म, बौद्ध-धर्म, हिंदू-धर्म आदि। विशेष—साधारणतः ऐसे धर्म या तो किसी विशिष्ट महापुरुष द्वारा प्रवर्तित और संस्थापित होते हैं, या किसी मुख्य और परम मान्य ग्रंथ पर आश्रित होते हैं, जिसे धर्मग्रन्थ कहते हैं। ऐसे ग्रन्थों में उल्लिखित बातों का पालन, पारलौकिक सुख या स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से उस धर्म के अनुयायियों के लिए आवश्यक या कर्तव्य समझा जाता है। पद—धर्म-कर्म, धर्म-ग्रंथ, धर्म-चर्चा आदि। मुहा०—धर्म कमाना=धर्म करके उसका फल संचित करना। धर्म-खाना=धर्म का साक्षी बनाकर या धर्म की शपथ करते हुए कोई बात कहना। धर्म रखना=धर्म के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। धर्म लगती या धर्म से कहना =धर्म का ध्यान रखकर उचित और न्याय संगत बात कहना। उचित, ठीक या सच बात कहना। ५. भारतीय नागर नीति में, वे सब नैतिक या व्यवहारिक नियम और विधान, जो समाज का ठीक तरह से संचालन करने के लिए प्राचीन ऋषि-मुनि समय-समय पर बनाते चले आये हैं और जो स्वर्गादि शुभ फल देने वाले कहे गये हैं। जैसे—धर्म-शास्त्र क्षेत्र में उक्त प्रकार के तथ्यों या बातों से मिलती-जुलती वे सब धारणाएँ विचार और विश्वास, जिनका आचरण तथा पालन कुछ लोग अपने लिए आवश्यक और कर्तव्य समझते हैं। जैसे—मानवता (या राष्ट्रीयता) के सिद्धान्तों का पालन करना ही हमारा धर्म है। ७. सदाचार। ८. पुण्य। सत्कर्म। ९.अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति, जो उपमेय और उपमान दोनों के समान रूप से वर्तमान रहती है और जिसके आधार पर एक वस्तु की उपमा दूसरी वस्तु से दी जाती है। १0. न्यायशीलता और विवेक-बुद्धि। मुहा०—धर्म में आना=मन में उचित या ठीक जान पड़ना। जैसे—जो तुम्हारे धर्म में आवे, सो करो। १ १. धर्मराज। यमराज। १ २. कमान। धनुष। १ ३. सोमपान करनेवाला व्यक्ति। १ ४. वर्तमान अवसर्पिणी के १ ५ वें अर्हत का नाम। (जैन) वि० संबंध सूचक शब्दों के आरम्भ में, धर्म के अनुसार या धर्म को साक्षी करके बनाया या माना हुआ। जैसे—धर्म-पत्नी, धर्म-पिता।
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धर्म-कर्म  : पुं० [ष० त०] १. वे कार्य जो धर्म-ग्रन्थों में मनुष्य मात्र के लिए कर्तव्य कहे गये हों। २. किसी विशिष्ट धर्म के अनुसार किये जाने वाले लौकिक कृत्य।
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धर्म-काम  : पुं० [सं० धर्म√कम् (चाहना)+णिङ+अण्] अपना कर्तव्य समझकर धार्मिक कृत्य करनेवाला व्यक्ति।
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धर्म-काय  : पुं० [च० त०] बौद्ध-दर्शन में बुद्ध का वह परमार्थ-भूत शरीर जो अनिवर्चनीय, अनंत, अपरिमेय और सर्वव्यापक माना गया है।
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धर्म-कोल  : पुं० [ष० त०] १. राज्य का शासन। २. शासन करनेवाली सत्ता।
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धर्म-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] १. कुरुक्षेत्र। २. भारतवर्ष, जो भारतीय आर्यों की दृष्टि में धर्म-कार्य करने के लिए विशेष रूप से उपयुक्त माना गया है।
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धर्म-खाता  : पुं० [सं० धर्म+हिं० खाता] कार्य के विभाग या व्यय का वह मद जो केवल दान, परोपकार आदि का कामों में लगाने के लिए हो।
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धर्म-गंडिका  : स्त्री० [सं०] यज्ञ आदि में वह खूँटा, जिस पर बलि चढ़ाये जाने वाले जानवरों का सिर रखा जाता था।
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धर्म-गुरु  : पुं० [ष० त०] १. धार्मिक उपदेश या गुरुमंत्र देनेवाला गुरु। २. किसी धर्म या सम्प्रदाय का प्रधान आचार्य। जैसे—कबीर, नानक, शंकराचार्य आदि।
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धर्म-ग्रंथ  : पुं० [ष० त०] किसी जाति या संप्रदाय का उसकी दृष्टि में पूज्य ग्रंथ, जिसमें मनुष्य के धार्मिक व्यवहारों, पूजन-विधियों तथा सामाजिक संबंधों का निर्देशन होता है।
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धर्म-घट  : पुं० [च० त०] १. दान के रूप में दिया जाने वाला सुगंधित जल से भरा हुआ घड़ा। २. बस्तियों में घर-घर रखा जानेवाला वह घड़ा, जिसमें दान कार्य के लिए नित्य थोड़ा अनाज डालकर इकट्ठा किया जाता है।
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धर्म-घड़ी  : स्त्री० [सं० कर्म+हिं० घड़ी] वह बड़ी घड़ी, जो ऐसे स्थान पर लगी हो, जहाँ उसे सब लोग देख सकें।
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धर्म-चक्र  : पुं० [ष० त०] १. धर्म का सारा क्षेत्र और उसके सब आचरण तथा व्यवहार। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ३. धर्मशिक्षा रूपी वह चक्र या पहिया, जो गौतम बुद्ध ने काशी में सबको धर्म की शिक्षा देने के लिए चलाया था। ४. गौतम बुद्ध, जो उक्त चक्र चलानेवाले थे।
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धर्म-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] धार्मिक ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुसार किये जाने वाले सब आचरण और व्यवहार।
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धर्म-चिंतन  : पुं० [ष० त०] धर्म-संबंधी बातों पर किया जानेवाला चिंतन, मनन या विचार।
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धर्म-च्युत  : वि० [पं० त०] [भाव० धर्मच्युति] अपने धर्म से गिरा या हटा हुआ। जिसने अपना धर्म छोड़ दिया हो।
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धर्म-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] युधिष्ठिर का एक नाम।
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धर्म-तंत्र  : पुं० [ष० त०] ऐसी शासन प्रणाली, जिसमें किसी विशिष्ट धर्म या मजहब का ही प्रभुत्व होता है और शासन व्यवस्था प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धर्म-पुरोहितों के हाथ में रहती है। (थियोक्रेसी)
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धर्म-दान  : पुं० [मध्य० स०] बिना किसी प्रकार की फल-प्राप्ति के निहित उद्देश्य से और केवल परोपकार की दृष्टि से दिया जानेवाला दान।
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धर्म-दारा  : स्त्री० [मध्य० स०] धर्मपत्नी। ब्याहता स्त्री।
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धर्म-देशक  : पुं० [ष० त०] धर्मोपदेशक।
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धर्म-धक्का  : पुं० [सं०+हिं०] १. ऐसा कष्ट जो धर्मानुसार कोई कार्य संपादित करते समय अथवा उसके फलस्वरूप सहना या उठाना पड़े। २. अच्छा काम करने पर भी मिलने वाली आपत्ति या बुराई।
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धर्म-धातु  : पुं० [सं० धर्म√धा (धारण)+तुन्] गौतमबुद्ध।
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धर्म-ध्वज  : पुं० [ब० स०] १. ऐसा व्यक्ति जो धर्म की आड़ लेकर स्वार्थ-साधन तथा अनेक प्रकार का कुकर्म करता हो। २. मिथिला के एक ब्रह्मज्ञानी राजा जो राजा जनक के वंशजों में से थे।
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धर्म-ध्वजता  : स्त्री० [सं० धर्मध्वज+तल्—टाप्] १. धर्म-ध्वज होने की अवस्था या भाव। २. धर्म की आड़ में किया हुआ आडम्बर।
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धर्म-ध्वजी  : पुं०=धर्मध्वज।
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धर्म-नंदन  : पुं० [ष० त०] युधिष्ठिर।
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धर्म-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. न्यायकर्ता। २. जैनों के पन्द्रहवें तीर्थंकर।
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धर्म-नाभ  : पुं० [धर्म-नाभि ब० स०, अच्] १. विष्णु २. एक प्राचीन नदी।
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धर्म-निरपेक्ष  : वि० [पं० त०] (राज्य अथवा शासन-प्रणाली) जहाँ अथवा जिसमें किसी धार्मिक सम्प्रदाय का पक्षपात या प्रभुत्व न हो। (सेक्युलर)
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धर्म-निष्ठ  : वि० [ब० स०] [भाव० धर्मनिष्ठा] जिसकी अपने धर्म में निष्ठा हो।
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धर्म-निष्ठा  : [स० त०] अपने धर्म के प्रति होने वाली निष्ठा या दृढ़ विश्वास।
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धर्म-पति  : पुं० [ष० त०] १. धर्म पर अधिकार रखनेवाला पुरुष। धर्मात्मा। २. वरुण देवता।
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धर्म-पत्तन  : पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार कूर्मविभाग में दक्षिण का एक जन-स्थान जो कदाचित् आधुनिक धर्मापटम (जिला मलाबार) के आस-पास रहा हो। २. श्रावस्ती नगरी। ३. काली या गोल मिर्च।
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धर्म-पत्नी  : स्त्री०[च० त०] संबंध के विचार से वह स्त्री, जिसके साथ धर्मशास्त्र द्वारा निर्दिष्ट रीति से विवाह हुआ हो।
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धर्म-पत्र  : पुं० [ब० स०] गूलर।
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धर्म-परायण  : वि० [धर्म-पर-अयन, ब० स०] [भाव० धर्म-परायणता] धर्म द्वारा निर्दिष्ट ढंग से काम करने वाला। धर्म के विधानों के अनुसार निष्ठापूर्वक काम करनेवाला। (रेलिजस)
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धर्म-परिणाम  : पुं० [ष० त०] १. योग-दर्शन के अनुसार सब भूतों और इंद्रियों के एक रूप या स्थिति से दूसरे रूप या स्थिति में प्राप्त होने की वृत्ति। एक धर्म की निवृत्ति होने पर दूसरे धर्म की प्राप्ति। २. धर्म।
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धर्म-परिषद  : स्त्री० [ष० त०] न्याय करने वाली सभा। धर्मसभा।
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धर्म-पाठक  : पुं० [ष०] धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन करने वाला व्यक्ति।
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धर्म-पिता (तृ)  : पुं० [तृ० त०] वह जो धार्मिक भाव से किसी का पिता या संरक्षक बन गया हो। (जन्मदाता पिता से भिन्न)।
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धर्म-पीठ  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान, जो धार्मिक दृष्टि से प्रधान या मुख्य माना जाता हो। २. वह स्थान, जहाँ से लोगों को धर्म की व्यवस्था मिलती हो। ३. काशी नगरी का एक नाम।
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धर्म-पीड़ा  : स्त्री० [ष० त०] १. धर्म या न्याय का उल्लंघन। २. अपराध।
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धर्म-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. धर्म के पुत्र युधिष्ठिर। २. नर-नारायण। ३. वह जो अपना औरस पुत्र तो न हो, परंतु धार्मिक रीति या विधि से अथवा धर्म को साक्षी रखकर अपना पुत्र बना लिया गया हो।
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धर्म-पुरी  : स्त्री० [ष० त०] १. धर्म राज या यमराज की यमपुरी, जहाँ शरीर छूटने पर प्राणियों के किये हुए धर्म और अधर्म का विचार होता है। २. कचहरी। न्यायालय।
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धर्म-पुस्तक  : स्त्री०[ष० त०]=धर्म-ग्रन्थ।
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धर्म-प्रतिरूपक  : पुं० [ष० त०] मनु के अनुसार ऐसा दान, जो अपने सगे संबंधियों के दीन-दुखी रहते हुए भी केवल नाम या यश कमाने के लिए दूसरों को दिया जाए। (ऐसा दान निन्दनीय और धर्म की विडम्बना करनेवाला कहा गया है।)
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धर्म-प्रभास  : पुं० [सं०] गौतम बुद्ध।
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धर्म-प्रवचन  : पुं० [धर्म-प्र√वच् (बोलना)+ल्युट्—अन] १. कर्तव्य-शास्त्र २. बुद्धदेव।
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धर्म-बुद्धि  : स्त्री० [स० त०] धर्म-अधर्म का विवेक। भले-बुरे का विचार।
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धर्म-भगिनी  : स्त्री० [मध्य० स०] १. वह स्त्री जो धर्म को साक्षी करके बहन बनायी जाए। २. गुरु-कन्या।
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धर्म-भागिनी  : स्त्री० [स० त०]=धर्मपत्नी।
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धर्म-भाणक  : पुं० [ष० त०] धर्म का बखान करनेवाला व्यक्ति। कथा-वाचक।
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धर्म-भिक्षुक  : पुं० [च० स०] मनु के अनुसार नौ प्रकार के भिक्षुकों में से वह जो केवल धार्मिक कार्यों के लिए भिक्षा माँगता हो।
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धर्म-भीरु  : वि० [स० त०] [भाव०] धर्म भीहता (व्यक्ति) जो धर्म के भय के कारण अधर्म या दूषित काम न करता हो।
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धर्म-भ्रष्ट  : वि० [पं० त०] [भाव० धर्म भ्रष्टता] जो अपने धर्म से गिरकर भ्रष्ट हो गया हो। धर्म-च्युत।
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धर्म-मत  : पुं० [मयू० स०] धर्म के रूप में प्रचलित मत या संप्रदाय। मजहब (धर्म के व्यापक अर्थ और रूप से भिन्न)।
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धर्म-मति  : स्त्री०=धर्म-बुद्धि।
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धर्म-मूल  : पुं० [प० त०] धर्म का मूल, वेद।
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धर्म-यज्ञ  : पुं० [तृ० त०] ऐसा यज्ञ जिसमें पशुओं की बलि न दी जाती हो।
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धर्म-युग  : पुं० [मध्य० स०] सत्ययुग।
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धर्म-युद्ध  : पुं० [तृ० त०] १. ऐसा युद्ध जिसमें छल-कपट या धोखा-धड़ी न हो, बल्कि नैतिक दृष्टि से उच्च स्तर पर हो और किसी की दुर्बलता का अनुचित रूप से लाभ न उठाया जाए। २. धर्म की रक्षा के लिए अथवा किसी बहुत अच्छे उद्देश्य से किया जाने वाला युद्ध।
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धर्म-योनि  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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धर्म-लिपि  : स्त्री० [ष० त०] १. वह लिपि जिसमें किसी धर्म की मुख्य पुस्तक लिखी हो। २. भिन्न-भिन्न स्थानों पर खुदे हुए सम्राट अशोक के धार्मिक प्रज्ञापन।
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धर्म-लुप्ता उपमा  : स्त्री० [धर्म-लुप्ता तृ० त०, धर्म-लुप्ता और उपमा व्यस्त पद] उपमा अलंकार का एक भेद, जिसमें धर्म अर्थात उपमान और उपमेय में समान रूप से पाई जानेवाली बात का कथन या उल्लेख नहीं होता।
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धर्म-वर्धन  : पुं० [ष० त०] शिव।
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धर्म-वासर  : पुं० [ष० त०] पूर्णिमा तिथि।
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धर्म-वाहन  : पुं० [ष० त०] १. धर्म के संबंध में किया जानेवाला चिंतन या विचार। २. धर्मराज का वाहन, भैंसा।
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धर्म-विवाह  : पुं० [तृ० त०] धार्मिक संस्कारों से किया हुआ विवाह।
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धर्म-विवेचन  : पुं० [ष० त०] १. धर्म के संबंध में किया जाने वाला चिंतन या विचार। २. धर्म और अधर्म का विचार। ३. इस बात का विचार कि अमुक काम अच्छा है या बुरा।
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धर्म-वृद्ध  : वि० [तृ० त०] जो निरंतर धर्माचरण करने के कारण श्रेष्ठ माना जाता हो।
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धर्म-वैतंसिक  : पुं० [स० त०] वह जो पाप के द्वारा धन कमाकर लोगों को दिखाने और धार्मिक बनने के लिए बहुत दान-पुण्य करता हो।
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धर्म-व्याध  : पुं० [मध्य० स०] मिथिला का निवासी एक प्रसिद्ध व्याध जिसने कौशिक नामक वेदाध्यायी ब्राह्मण को धर्म का तत्त्व समझाया था।
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धर्म-शाला  : पुं० [च० त०] १. वह स्थान जहाँ धर्म और अधर्म का निर्णय होता हो। न्यायलय। विचारालय। २. वह स्थान, जहाँ नियमपूर्वक धर्मार्थ के विचार से दीन-दुखियों को दान दिया जाता हो। ३. परोपकार की दृष्टि से बनवाया हुआ वह भवन जिसमें हिंदू यात्री किसी प्रकार शुल्क दिये कुछ समय तक ठहर या रह सकते हों।
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धर्म-शास्त्री (स्त्रिन)  : पुं० [सं० धर्मशास्त्र+इनि] वह जो धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवस्था देता हो।
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धर्म-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० धर्मशीलता] जिसकी प्रवृत्ति धर्म में हो। धार्मिक।
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धर्म-संकट  : पुं० [ष० त०] असमंजस या दुबधा की ऐसी स्थिति जिसमें धर्म का अनुसरण करनेवाला व्यक्ति यह समझता है कि दोनों में से किसी पक्ष में जाने पर धर्म का कुछ न कुछ उल्लंघन करना पड़ेगा। उभय-संकट। (डिप्लोमा)
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धर्म-संगीति  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘संगायन’।
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धर्म-सभा  : स्त्री० [ष० त०] १. वह सभा या संस्था जिसमें केवल धार्मिक बातों या विषयों का विचार और विवेचन होता हो। (सिनॉड) २. कचहरी। न्यायालय। ३. दे० ‘संगायन’।
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धर्म-सावर्णि  : पुं० [मय० स०] पुराणों के अनुसार ग्यारहवें मन।
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धर्म-सुत  : पुं० [ष० त०] युधिष्ठिर।
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धर्म-सूत्र  : पुं० [ष० त०] जैमिनि प्रणीत धर्मनिर्णय-संबंधी एक ग्रन्थ।
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धर्म-सेतु  : वि० [ष० त०] सेतु की तरह धर्म को धारण करने, अर्थात धर्म का पालन करनेवाला।
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धर्म-स्थ  : वि० [सं०धर्म√स्था (ठहरना)+क] धर्म में स्थित। पुं० धर्माध्यक्ष। न्यायाधीश
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धर्मकेतु  : [ब० स०] १. कश्यप वंशीय सुकेतु राजा के पुत्र का नाम। २. गौतम बुद्ध।
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धर्मगुप्  : पुं० [सं० धर्म√गुप् (रक्षा)+क्विप्] विष्णु।
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धर्मचारी (रिन्)  : वि० [सं० धर्म√चर् (गति)+णिनि] धार्मिक नियमों तथा सिद्धांतों के अनुसार आचरण करनेवाला।
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धर्मज  : वि० [सं० धर्म√जन् (उत्पत्ति)+ड] धर्म से उत्पन्न। पुं० १. किसी का वह औरस पुत्र जो उसकी धर्म-पत्नी से पहले-पहल उत्पन्न हुआ हो। २. धर्मराज युधिष्ठिर, जो धर्म के पुत्र माने गये हैं। ३. एक बुद्ध का नाम। ४. नर-नारायण।
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धर्मजीवन  : पुं० [सं० ब० स०] धार्मिक कृत्य कराकर जीविका उपार्जित करनेवाला ब्राह्मण।
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धर्मज्ञ  : वि० [सं० धर्म√ज्ञा (जानना)+क] १. धर्म-संबंधी नियमों तथा सिद्धांतों का ज्ञाता। २. धर्मात्मा।
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धर्मण  : पुं० [सं० धर्म√नम् (झुकना)+ड] १. धामिन वृक्ष। २. धामिन साँप। ३. धामिन पक्षी।
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धर्मणा  : क्रि० वि०=धर्मतः।
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धर्मतः (तस्)  : अव्य० [सं० धर्म+तस्] १. धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार। २. धर्म की दुहाई देते हुए। ३. धर्म के आधार पर।
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धर्मद  : वि० [सं० धर्म√दा (देना)+क] अपने धर्म का पुण्य या फल दूसरों को दे देनेवाला।
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धर्मद्रवी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] गंगा नदी।
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धर्मनंदी (दिन्)  : पुं० [सं०] अनेक बौद्धशास्त्रों का चीनी भाषा में अनुवाद करने वाला एक बौद्ध पंडित।
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धर्मपट्ट  : पुं० [ष० त०] शासन अथवा धर्माधिकारी की ओर से किसी को भेजा हुआ पत्र।
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धर्मपरायणता  : पुं० [सं० धर्मपरायण+तल्—टाप्] धर्म-परायण होने की अवस्था या भाव। (रेलिजसनेस)
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धर्मपाल  : वि० [सं० धर्म√पाल् (पालन)+णिच्+अण] धर्म का पालन या रक्षा करनेवाला। पुं० १. वह जो धर्म का पालन करता हो। २. दंड या सजा जिसके आधार पर धर्म का पालन किया या कराया जाता है। ३. राजा दशरथ के एक मंत्री।
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धर्मभृत्  : पुं० [सं० धर्म√भृ (धारण)+क्विप्] १. राजा। २. धर्म-परायण व्यक्ति।
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धर्ममेघ  : पुं० [सं० धर्म√मिह (बरसना)+अच्, घ आदेश] योग में वह स्थिति, जिसमें वैराग्य के अभ्यास से चित्त सब वृत्तियों से रहित हो जाता है।
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धर्मराई  : पुं०=धर्मराज।a
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धर्मराज  : पुं० [धर्म√राज् (शोभित होना)+अच्] १. धर्म का पालन करने वाला, राजा। २. युधिष्ठिर। ३. यमराज। ४. जैनों के जिन देव। ५. न्यायाधीश।
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धर्मराज परीक्षा  : स्त्री० [ष० त०] स्मृतियों के अनुसार एक प्रकार की दिव्य परीक्षा, जिसमें यह जाना जाता था कि धर्म की दृष्टि में अभियुक्त दोषी है या निर्दोष।
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धर्मराय  : पुं०=धर्मराज।a
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धर्मवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० धर्म√वृत्त् (बरतना)+णिनि] धर्म के अनुकूल आचरण करनेवाला।
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धर्मवान (वत)  : वि० [सं० धर्म+मतुप्] धर्मात्मा। धर्मनिष्ठ।
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धर्मविजयी (यिन्)  : पुं० [तृ० त०] वह जो नम्रता या विनय से ही संतुष्ट हो जाय।
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धर्मवीर  : पुं० [स० त०] वह जो धर्म करने में सदा तत्पर रहता हो।
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धर्मव्रता  : स्त्री० [सं०] विश्वरूपा के गर्भ से उत्पन्न धर्म नामक राजा की कन्या, जिसने पातिव्रत्य की प्राप्ति के लिए घोर तप किया था; और मारीच ने जिसे परम पतिव्रता देखकर अपनी पत्नी बनाया था।
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धर्मशास्त्र  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारतीय समाज तथा हिंदुओं में, पारस्परिक व्यवहार से संबंध रखने वाले वे सब नियम या विधान, जो समाज का नियंत्रण तथा संचालन करने के लिए बड़े-बड़े आचार्य तथा महापुरुष बनाते थे और जो लोक में धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण और मान्य समझे जाते थे। जैसे—मानव धर्म-शास्त्र।
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धर्मसारी  : स्त्री०=धर्मशाला।a
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धर्मसू  : वि० [सं० धर्म√सू (प्रेरणा)+क्विप्] धर्म की प्रेरणा करनेवाला। पुं० एक पक्षी।
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धर्मसेन  : पुं० [सं०] १. एक प्रचीन महास्थविर या बौद्ध महात्मा, जो ऋषिपत्तन (सारनाथ, काशी) संघ के प्रधान थे। २. जैनों के बारह अंगविदों में से एक।
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धर्मस्कंध  : पुं० [सं०] धर्मास्तिकाय पदार्थ। (जैन)
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धर्मस्थीय  : पुं० [सं०] न्यायालय।
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धर्मस्व  : वि० [च० त०] धर्मार्थ कामों में लगाया या समर्पित किया हुआ (धन आदि) पुण्यार्थ। पुं० ऐसा समाज या संस्था, जिसकी स्थापना धार्मिक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए हुई हो।
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धर्मांग  : पुं० [धर्म-अंग, ब० स०] बगला (शरीर के सफेद रंग के आधार पर)।
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धर्मागम  : पुं० [धर्म-आगम, ष० त०] धर्मग्रन्थ।
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धर्माचरण  : पुं० [धर्म-आचरण, ष० त०] [कर्ता धर्माचारी] किया जाने वाला पवित्र और शुद्ध आचरण।
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धर्माचार्य  : पुं० [धर्म-आचार्य, स० त०] १. धर्मपुत्र। २. धर्मराज। युधिष्ठिर।
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धर्मांतर  : पुं० [धर्म-अंतर, मयू० स०] स्वकीय या प्रस्तुत धर्म से भिन्न कोई और धर्म।
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धर्मांतरण  : पुं० [सं० धर्मांतर+क्विप्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० धर्मांत-रित] अपना धर्म छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करना।
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धर्मात्मा (त्मन्)  : वि० [धर्म-आत्मन्, ष० त०] १. धर्म-ग्रन्थों द्वारा प्रति-पादित सिद्धांतों के अनुसार आचरण करनेवाला। २. बहुत ही नेक और भला (व्यक्ति)।
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धर्मादा  : पुं० [सं० धर्म-दाय] धर्मार्थ निकाला हुआ धन।
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धर्मांध  : वि० [धर्म-अंध तृ० त०] १. (व्यक्ति) जो अपने धर्मशास्त्रों में बतलाई हुई बातों के अतिरिक्त दूसरी अथवा दूसरे धर्मों की आच्छी बातें भी मानने को तैयार न होता हो। २. स्वधर्म में अंध-श्रद्धा होने के फलस्वरूप दूसरे धर्मों के प्रति तिरस्कार या द्वेष की भावना रखनेवाला। ३. धर्म के नाम पर दूसरों से लड़ने अथवा अनुचित काम करने को तैयार होने वाला।
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धर्माधर्म  : पुं० [धर्म-अधर्म, द्व० स०] १. धर्म और अधर्म। २. धर्म और अधर्म का ज्ञान या विचार।
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धर्माधिकरण  : पुं० [धर्म-अधिकरण, ष० त०] वह स्थान, जहाँ राजा व्यवहारों (मुकदमों) पर विचार करता है। विचारालय।
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धर्माधिकरणी (णिन्)  : पुं० [सं० धर्माधिकरण+इन] न्यायाधीश।
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धर्माधिकरिणक  : पुं० [सं० धर्माधिकरण+ठन्—इक] धर्म-अधर्म का निर्णय करने वाला राज-कर्मचारी। न्यायाधीश।
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धर्माधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० धर्म-अधि√कृ (करना)+ णिनि] १. धर्म और अधर्म की व्यवस्था देने वाला, विचारक। न्यायाधीश। २. भारतीय देशी रियासतों और बड़े-बड़े धनवानों के यहाँ का वह अधिकारी जो निश्चय करता था कि किस धर्म में कितना धन व्यय किया जाए।
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धर्माधिकृत  : पुं० [धर्म-अधिकृत, स० त०]=धर्माध्यक्ष।
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धर्माधिष्ठान  : पुं० [धर्म-अधिष्ठान, ष० त०] न्यायालय।
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धर्माध्यक्ष  : पुं० [धर्म-अध्यक्ष, स० त०] १. धर्माधिकारी। २. विष्णु। ३. शिव।
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धर्मानुष्ठान  : पुं० [धर्म-अनुष्ठान, ष० त०]=धर्माचरण।
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धर्मापेत  : वि० [धर्म-अपेत] जो धर्म के अनुकूल न हो। अधार्मिक। अन्याय संगत। पुं० १. अधर्म। २. अन्याय। ३. पाप।
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धर्माभास  : पुं० [सं० धर्म+आ√भास् (दीप्ति)+अच्] ऐसा असद् धर्म जो नाम-मात्र के लिए धर्म कहलाता हो, पर वस्तुतः श्रुति-स्मृतियों की शिक्षाओं के विपरीत हो।
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धर्मारण्य  : पुं० [धर्म-अरण्य, मध्य० स०] १. तपोवन। २. पुराणानुसार एक प्राचीन वन, जिसमें धर्म उस समय लज्जा के मारे छिपा था, जब चन्द्रमा ने गुरुपत्नी तारा का हरण किया था। ३. गया के पास का एक तीर्थ। ४. पुराणानुसार कूर्म विभाग का एक प्रदेश।
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धर्मार्थ  : वि० [धर्म-अर्थ, ब० स०] १. धार्मिक कार्यों के लिए अलग किया या निकाला हुआ (धन)। २. (कार्य) जो धर्म, परोपकार, पुण्य आदि की दृष्टि से किया जाए। क्रि० वि० केवल धर्म, अर्थात परोपकार या पुण्य के उद्देश्य या विचार से। जैसे—वे हर महीने १॰., धर्माथ देते हैं। पुं० धार्मिक दृष्टि से किया हुआ दान।
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धर्मार्थी (र्थिन्)  : पुं० [धर्म-अर्थिन, ष० त०] वह जो धर्म और उसके फल की इच्छा या कामना रखता हो।
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धर्मावतार  : पुं० [पुं० धर्म-अवतार ष० त०] १. वह जो इतना बड़ा धर्मात्मा हो कि धर्म का साक्षात् अवतार जान पड़े। परम धर्मात्मा। २. धर्म और अधर्म का निर्णय करनेवाला। न्यायाधीश। ३. युधिष्ठिर।
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धर्मावस्थायी (यिन्)  : पुं० [सं० धर्म-अव√स्था (ठहरना)+ णिनि] धर्माधिकारी।
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धर्मासन  : पुं० [धर्म-आसन, च० त०] न्यायाधीश का आसन।
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धर्मास्तिकाय  : पुं० [धर्म-अस्तिकाय, ष० त०] जैन शास्त्रानुसार छः द्रव्यों में से एक जो अरूपी है और जीव तथा पुद्गल की गति का आधार या सहायक माना गया है।
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धर्मिणी  : स्त्री० [सं० धर्म+इनि+ङीप्]१. पत्नी। २. रेणुका। वि० सं० ‘धर्मी’ का स्त्री०।
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धर्मिष्ठ  : वि० [सं० धर्म-इष्ठन] १. धर्म पर आरूढ़ या स्थित रहने वाला। २. पुण्यात्मा।
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धर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० धर्म+इनि] [स्त्री० धर्मिणी] १. किसी विशिष्ट धर्म-गुण आदि से युक्त। जैसे—ताप-गर्मी, द्रव-धर्मी। २. धर्म की आज्ञाएँ और सिद्धान्त माननेवाला। ३. किसी विशिष्ट धर्म या मत का अनुयायी। जैसे—सनातन-धर्मी। पुं० १. वह जो किसी विशिष्ट धर्म, गुण या तत्व का आधार हो। २. धर्मात्मा व्यक्ति। ३. विष्णु। स्त्री० धर्म का भाव। जैसे—हठ-धर्मी।
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धर्मीपुत्र  : पुं० [सं०] १. नायक का कोई पात्र या अभिनय कर्ता। २. नट।
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धर्मेन्द्र  : पुं० [धर्म-इन्द्र, स० त०] १. यमराज। २. युधिष्ठिर।
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धर्मेयु  : पुं० [सं०] पुरुवंशी राजा रौद्राश्व का एक पुत्र। (महाभारत)
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धर्मेश, धर्मेश्वर  : पुं० [धर्म-ईश ष० त०, धर्म-ईश्वर ष० त०] यमराज।
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धर्मोत्तर  : वि० [धर्म-उत्तर ब० स०] जो धर्म-अधर्म का बहुत ध्यान रखता हो। अति धार्मिक।
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धर्मोन्माद  : पुं० [धर्म-उन्माद, तृ० त०] १. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का उन्माद या पागलपन, जिसमें मनुष्य दिन-रात धर्म-सम्बन्धी कार्यों या विचारों में मग्न रहता है। २. मनुष्य की वह मानसिक अवस्था जिसमें वह धर्म के नाम पर अंधा होकर भले-बुरे का विचार छोड़ देता है। (थियोमेनिया)
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धर्मोपदेश  : पुं० [धर्म-उपदेश ष० त०] १. धर्म-संबंधी तत्त्वों, शिक्षाओं, सिद्धान्तों आदि से संबंध रखने वाला वह उपदेश जो दूसरों को धर्मनिष्ठ बनाने के लिए दिया जाए। २. धर्मशास्त्र।
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धर्मोपदेशक  : पुं० [धर्म-उपदेशक, ष० त०] लोगों को धर्म संबंधी उपदेश देने वाला व्यक्ति।
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धर्मोपाध्याय  : पुं० [धर्म-उपाध्याय, ष० त०] पुरोहित।
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धर्म्य  : वि० [सं० धर्म+यत्] १. धर्म-संबंधी। २. धर्म-संगत। न्यायपूर्ण।
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धर्म्य-विवाह  : पुं० [कर्म० स०]=धर्म-विवाह।
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धर्ष  : पुं० [सं०√धृष् (झिड़कना, दबाना)+घञ्] १. ऐसा आचरण या व्यवहार जिसमें शिष्टता, शील आदि का पूरा आभाव हो। अविनय और धृष्टता का व्यवहार। गुस्ताखी। २. असहन-शीलता। ३. अधीरता। ४. अनादर। अपमान। ५. (किसी स्त्री का) सतीत्व नष्ट करने की क्रिया। ६. हिंसा। ७. अशक्तता। असमर्थता। ८. प्रतिबन्ध। रुकावट। रोक। ९. नपुंसकता। हिजड़ा।
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धर्ष-कारिणी  : वि० [सं० धर्षकारिन्+ङीप्] (स्त्री०) जिसका सतीत्व नष्ट हो चुका हो। व्याभिचारिणी।
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धर्षक  : वि० [सं०√धृष+ण्वुल्—अक] दबानेवाला दमन करनेवाला। २. अनादर या अपमान करनेवाला। ३. असहिष्णु। ४. स्त्रियों का सतीत्व नष्ट करनेवाला। व्याभिचारी। ५. अभिनेता। नट।
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धर्षकारी (रिन्)  : वि० [सं० धर्ष√कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० धर्षकारिणी]=धर्षक।
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धर्षण  : पुं० [सं०√धृष्+ल्युट्—अन] [वि० धर्षणीय, धर्षित] १. किसी को जोर से पकड़कर दबाने या दबोचने की क्रिया या भाव। २. किसी को परास्त करते हुए नीचा दिखाना। ३. अनादर। अपमान। ४. असहिष्णुता। ५. स्त्री के साथ किया जाने वाला प्रसंग। सम्भोग। ६. एक प्रकार का पुराना वस्त्र। ७. शिव का एक नाम।
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धर्षणा  : स्त्री० [सं०√धृष्+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. धर्षण करने की क्रिया या भाव। धर्षण। अपमान। अवज्ञा। ३. स्त्री का सतीत्व नष्ट करना। ४. स्त्री-प्रसंग। सम्भोग।
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धर्षणी  : स्त्री० [सं०√कृष् (खींचना)+अणि—ङीष्,क—घः] असती स्त्री। कुलटा।
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धर्षणीय  : वि० [सं०√धृष्+अनीयर] जिसका घर्षण किया जा सकता हो या किया जाना उचित हो।
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धर्षित  : भू० कृ० [सं०√धृष्+क्त] [स्त्री० धर्षिता] १. जिसका धर्षण किया गया हो। दबाया या दमन किया हुआ। २. पराभूत। हराया हुआ। ३. जिसे नीचे दिखाया गया हो। पुं० प्रसंग। मैथुन।
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धर्षिता  : स्त्री० [सं० धर्षित+टाप्] १. व्याभिचारिणी स्त्री। २. वेश्या
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धर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०√धृष्+णिनि] [स्त्री० धर्षिणी] १. धर्षण करनेवाला। २. दबाने या दबोचनेवाला। ३. अपमान या तिरस्कार करनेवाला। ४. परास्त करने या हरानेवाला। ५. नीचा दिखानेवाला।
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धलंड  : पुं० [सं०] अंकोल का पेड़। ढेरा।
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धव  : पुं० [सं०√धु (कंपन)+अच्] १. एक प्रकार का जंगली पेड़ जिसकी पत्तियाँ अमरूद या शरीफे की पत्तियों की-सी होती हैं। इन पत्तियों में चमड़ा सिझाया जाता है। इसकी पत्ती, फल और जड़ तीनों दवा के काम में आते हैं। धौ। २. स्त्री का पति या स्वामी। जैसे—माधव। ३. पुरुष मर्द। चालाक। धूर्त। ५. एक वसु का नाम।
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धवई  : स्त्री० [सं० धातकी, धवनी] एक प्रकार का पेड़ जो उत्तरीय भारत में अधिकता से होता है। इसे धाय भी कहते हैं। इससे एक प्रकार का गोंद भी निकलता है।
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धँवना  : स० [हिं० धौकना] आग सुलगाने के लिए भाथी से हवा करना। उदा०—बिरहा पूत लौहार का धवै हमारी देह।—कबीर।b
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धवनी  : स्त्री० [सं०] शालिपर्णी। सरिवन। स्त्री० [सं० धवल] १. धौंकनी। भाथी। २. दे० ‘धमनी’।a
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धवर  : पुं० [सं० धवला] पंडुक की तरह का एक प्रकार का पक्षी जिसका गला लाल और सारा शरीर सफेद होता है। वि०=धवल (सफेद)।a
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धँवरख  : स्त्री० [देश०] पंडुक (चिड़िया)।
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धवरहर  : पुं०=धौरहर।a
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धवरा  : वि० [सं० धवल] [स्त्री० धवरी] उजला। सफेद।a
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धवराहर  : पुं०=धौरहर।a
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धवरी  : स्त्री० [हिं० धवर] १. धवर पक्षी की मादा। २. सफेद रंग की गौ। वि० हिं० ‘धवर’ का स्त्री०।
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धवल  : वि० [सं०√धाव् (गति, शुद्धि)+कल, ह्रस्व] १. उजला सफेद। २. निर्मल। कुफ। स्वच्छ। ३. मनोहर। सुन्दर। पुं० १. सफेद कोड़। २. श्वेत कुष्ठ। २. धौ का पेड़। ३. चिनिया कपूर। ४. सिंदूर। ५. सफेद गोल मिर्च। ६. अर्जुन वृक्ष। ७. सफेद परेवा या धौरा नामक पक्षी। ८. बहुत बड़ा बैल। ९.छप्पय छन्द का ४२वाँ भेद। १॰.. एक राग जो भरत के मत से हिंडोल राग का ८वाँ पुत्र है। १ १. राजस्थान में गाये जाने वाले एक प्रकार के मंगल गीत।
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धवल-गिरि  : पुं० [कर्म० स०] हिमालय की एक प्रसिद्ध चोटी, जो सदा बरफ से ढकी रहती है।
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धवल-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] १. प्राचीन भारत में राजप्रासाद का वह ऊपरी और ऊँचा उठा हुआ खंड, जिसमें राजा और रानियाँ रहती थीं और जो प्रायः सफेद रंग का होता था। २. प्रासाद। महल।
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धवल-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. चांद्र मास का शुक्ल पक्ष। उजला पाख। २. हंस।
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धवल-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] सफेद अर्थात खरिया मिट्टी। दुद्धी।
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धवल-श्री  : स्त्री० [कर्म० स०] ओड़व जाति की एक रागिनी जो संध्या समय गायी जाती है।
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धवलता  : स्त्री० [सं० धवल+तल्+टाप्] धवल होने की अवस्था, गुण या भाव।
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धवलति  : भू० कृ० [सं० धवल+इतच्] १. जो धवल अर्थात सफेद किया गया हो। उज्ज्वल। जैसे—तुषार धवलित ‘पर्वत’। २. खूब साफ या स्वच्छ किया हुआ।
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धवलत्व  : पुं० [सं० धवल+त्व]=धवलता।
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धवलना  : स० [सं० धवल] उज्ज्वल करना। चमकाना। अ० उज्ज्वल होना।
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धवलहर  : पुं० [सं० धवल-ग्रह] १. प्रासाद। महल। उदा०— धवला गिरि कि ना धवलहर।—प्रिथीराज। २.दे० ‘धौरहर’।
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धवला  : स्त्री० [सं० धवल+टाप्] सफेद गाय। पुं० [सं० धवल] सफेद बैल। वि० सं० ‘धवल’ का स्त्री०।
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धवलाई  : स्त्री०=धवलता।b
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धवलांग  : वि० [धवल-अंग, ब० स०] धवल अर्थात् सफेद अंगों वाला। पुं० हंस।
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धवलागिरि  : पुं० [सं० धवल+गिरि]=धवलगिरि।
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धवलिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० धवल+इमनिच्] १. श्वेता। सफेदी। २. उज्जवलता।
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धवली  : स्त्री० [सं० धवय+ङीष्] १. सफेद गाय। २. सफेद गोल मिर्च। ३. समय से पहले बाल सफेद होने का रोग।
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धवलीकृत  : भू० कृ० [सं० धवल+च्वि√कृ (करना)+क्त] जो धवल अर्थात सफेद किया या बनाया गया हो।
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धवलीभूत  : भू० कृ० [सं० धवल+च्वि√भू (होना)+क्त] जो सफेद हो गया हो।
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धवलोत्पल  : पुं० [सं० धवल+उत्पन्न, कर्मं० स०] सफेद कमल।
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धवा  : पुं०=धव (वृक्ष)।a
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धवाना  : स० [हिं० धाना का प्रे०] किसी को धाने या दौड़ने में प्रवृत्त करना। दौड़ाना।a अ० [सं० ध्वनि] १. ध्वनि या शब्द होना। २. ध्वनित होना। स० ध्वनि या शब्द उत्पन्न करना।b
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धवित्र  : पुं० [सं०√धू (कंपन)+इत्र] हिरन की खाल का बना हुआ पंखा, जिससे यज्ञ की आग सुलगाई जाती थी।
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धँस  : स्त्री०=धँसना।a
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धस  : स्त्री० [?] एक प्रकार की जमीन जिसकी मिट्टी भुरभुरी होती है। स्त्री० [हिं० धँसना] धँसने की क्रिया या भाव। धँसान।a
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धसक  : स्त्री० [हिं० धसकना] १. धसकने की क्रिया या भाव। २. ईर्ष्या, द्वेष, भय आदि के कारणों से कलेजा या दिल धँसने या बैठने की अवस्था या भाव। ३. कोई काम करने में झिझकने या दहलने की अवस्था या भाव। स्त्री० [अनु०] १. खाँसने के समय गले में होने वाला खस-खस या घस-घस शब्द। २. सूखी खाँसी।
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धसकन  : स्त्री० [हिं० धसकना] १. धसकने की क्रिया, भाव या स्थिति। २. धसक (डर या भय)।
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धसकना  : अ० [हिं० धँसना] १. नीचे की ओर धँसना या दबाना। २. ईर्ष्या आदि के कारण मन का दुःखी होना। ३. (कलेजा या दिल) बैठना। उदा०—उठा धसक जिउ औ सिर धुन्न।—जायसी। ४. भय आदि के कारण झिझकना। ५. दहलना।
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धसका  : पुं० [हिं० धसक] चौपायों के फेफड़ों का एक संक्रमक रोग।
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धँसन  : स्त्री० [हिं० धँसना] १. धँसने की क्रिया, ढंग या भाव। २. ऐसा स्थान जिसमें कोई धँस सकता हो। ३. दलदल।
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धँसना  : स्त्री० [सं० दंशन] १. किसी नुकीली या भारी चीज का स्वयं अपने भार के कारण अथवा दाब आदि पड़ने के फलस्वरूप अपेक्षाकृत किसी नरम तल में नीचे की ओर जाना। जैसे—दल-दल में धँसना। २. दीवार, मकान आदि के संबंध में, उसके किसी पक्ष का जमीन में किसी प्रकार की कमजोरी होने के कारण प्रसम स्तर से नीचे जाना। ३. किसी प्रकार की कड़ी तथा नुकीली वस्तु का किसी तल में प्रविष्ट होना। गड़ना। जैसे—हाथ में सूई या पैर में काँटा धँसना। ४. नेत्रों के संबंध में, उनका शारीरिक निर्बलता के कारण कुछ दबा हुआ या अंदर की ओर घुसा हुआ-सा प्रतीत होना। ५. व्यक्ति का भीड़-भाड़ में लोगों को दबाते या हटाते हुए आगे की ओर बढ़ना। ६. किसी चीज का वेगपूर्वक किसी दूसरी चीज में प्रविष्ट होना। जैसे—शरीर में गोली या तीर धँसना। ७. बात या विचार के संबंध में, समझ में आना। जैसे—उनके दिमाग में तो कोई बात धँसती ही नहीं। अ० [सं० ध्वंसन] ध्वस्त होना। नष्ट होना। मिटना।a स० ध्वस्त या नष्ट करना। मिटाना।a
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धसना  : अ० [सं० ध्वंसन] ध्वस्त या नष्ट होना। मिटना। स० ध्वस्त या नष्ट करना। मिटाना। अ०=धँसना।a
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धँसनि  : स्त्री० १. धँसन। २. धँसान।a
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धसनि  : स्त्री०=धँसनि।
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धसमसाना  : अ०=धँसना।a स०=धँसाना।a
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धँसान  : स्त्री० [हिं० धँसना] १. धँसने की क्रिया, ढंग या भाव। २. कीचड़ या दल-दल से भरी वह जमीन जिसमें सहज में कोई धँस सकता हो। ३. ढालुआँ स्थान। (क्व०)। ४. भी़ड़-भाड़ में वेगपूर्वक लोगों को इधर-उधर ढकेलते या हटाते हुए आगे बढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे—भेड़िया धँसान।
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धसान  : स्त्री० [सं० दशार्ण] पूर्वी मालवा और बुंदलेखंड की एक छोटी नदी। स्त्री०=धँसान।a
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धँसाना  : स० [हिं० धँसना] १. किसी चीज को धँसने में प्रवृत्त करना। २. गड़ाना। चुभाना ३. जोर लगाकर अन्दर प्रविष्ट करना या कराना। ४. किसी तल पर ऐसा दबाव डालना कि वह नीचे की ओर धँसे।
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धसाना  : स०=धँसाना।
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धँसाव  : पुं० [हिं० धँसना] १. धँसने की क्रिया या भाव। २. ऐसा स्थान जिसमें कुछ या कोई सहज में धँस सके। ३. दे० ‘धँसान’।
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धसाव  : पुं०=धँवसा।
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धा  : वि० [सं०√धा (धारण)+क्विप्] धारक। धारण करने वाला। पुं० १. ब्रह्मा। २. बृहस्पति। प्रत्य० तरह का। प्रकार का। भाँति का। जैसे—नवधा भक्ति। पुं० [सं० धैवत] संगीत में धैवत स्वर का वाचक शब्द। पुं० [अनु०] तबले, मृदंग आदि का एक बोल। जैसे—कुड़ान धा। स्त्री०=धाप (दाई)।a पुं०=धव (धौ वृक्ष)a
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धा-भाई  : पुं० [हिं० धा=धाप+भाई] दो विभिन्न माताओं के गर्भ से उत्पन्न वे बच्चे जो एक ही धाय या धाई का दूध पीकर पलें हों। दूध-भाई।
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धाइ  : स्त्री०= धाय (दाई)। पुं०=धौ (वृक्ष)।
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धाई  : स्त्री०=धाय (दाई)।
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धाउ  : पुं०=धाव।a
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धाऊ  : पुं० [सं० धाना=दौड़ना] वह जो आवश्यक कामों के लिए इधर-उधर दौड़ाया जाए। हरकारा। पुं०=धव (वृक्ष)।a
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धाँक  : पुं० [देश०] भीलों की तरह की एक जंगली जाति। स्त्री०=धाक।a
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धाक  : पुं० [सं०√धा+क] १. वृष। साँड़। २. आहार। भोजन। ३. अन्न। अनाज। ४. खंभा। ५. आधार। सहारा। ६. पानी का हौज। ७. ब्रह्म। स्त्री० [?] १. किसी व्यक्ति के ऐश्वर्य, गुण, पद आदि का वह प्रभाव जिससे लोग दबे या भयभीत रहते और उसका सामना करने से डरते हों। आतंक। दबदबा। जैसे—आज-कल बाजार में उनकी धाक है। मुहा०—धाक जमना या बँधना=रोब या दबदबा होना। आतंक छाना। धाक जमाना या बाँधना= ऐसा कम करना जिससे लोगों पर दबदबा या रोब छा जाए। २. ख्याति। प्रसिद्धि। शोहरत। पुं०=ढाक (पलास)।a
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धाकड़  : वि० [हिं० धाक] १. जिसकी धाक या दबदबा चारो ओर हो। २. ख्याति। ३. प्रसिद्धि। हृष्ट-पुष्ट। तगड़ा। बलवान। पुं० १. साँड़। २. बैल। पुं०=धाकर।a
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धाँकना  : अ० स०=धाकना।a
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धाकना  : अ० [हिं० धाक+ना (प्रत्य०)] १. धाक या रोब जमाना। २. किसी की धाक से प्रभावित होना।b
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धाकर  : पुं० [?] १. कुलीन ब्राह्मण। २. राजपूतों की एक जाति। ३. एक तरह का गेहूँ जिसकी फसल को जल की आवश्यकता नहीं होती। वि० [?] वर्ण-संकर। दोगला।a वि०, पुं०=धाकड़।a
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धाकरा  : पुं०=धाकड़।
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धाख  : पुं० [हिं० धाक] १. डर। भय। २. दुःख। उदा०—कि सखि कहब कहेते धाख।—विद्यापति। पुं०=ढाक। (पलास)।b
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धाखा  : पुं०=ढाक (पलास)b
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धाँगड़  : पुं० [देश०] १. एक अनिवार्य जंगली जाति जो विंध्य और कैमोर की पहाड़ियों पर रहती है। २. एक जाति, जो कुएँ, तालाब आदि खोदने का काम करती है।
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धाँगर  : पुं०=धाँगड़।
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धागा  : पुं० [हिं० तागा] १. बटा हुआ महीन सूत जो प्रायः सीने-पिरोने के काम आता है। २. लाक्षणिक अर्थ में, दो पक्षों को जोड़नेवाली बात या वस्तु। सूत्र।
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धाड़  : स्त्री० [हिं० धार] १. डाकुओं का आक्रमण। २. आक्रमण। चढ़ाई। उदा०—महि अधण मेवाड़, राड़ धाड़ अकबर रचै।—दुरसाजी। क्रि० प्र०—पड़ना। ३. जीव-जन्तुओं का ऐसा दल या समूह जो दूर तक पंक्ति के रूप में चला गया हो। जैसे—च्यूँटियों या बन्दरों की धाड़। स्त्री० १. डाढ़। २. ढाड़।a स्त्री० [हिं० दहाड़] जोर-जोर से चिल्लाकर रोने का शब्द। क्रि० प्र०—मारना।
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धाड़ना  : अ०=दहाड़ना।a
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धाड़स  : पुं०=ढारस।a
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धाड़ी  : स्त्री० [हिं० धाड़] १. डाकुओं या लुटेरों का जत्था या दल। २. उक्त जत्थे का कोई व्यक्ति। डाकू। लुटेरा।
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धाणक  : पुं० [सं०√धा+आणक] एक प्राचीन परिणाम या मुद्रा। पुं० दे० ‘धानुक’।a
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धात  : स्त्री०=धातु।a
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धातकी  : स्त्री० [सं० धातु+णिच्,टिलोप+ण्वुल्—अक+ङीष्] १. एक प्रकार का झाड़ जिसके फूलों का व्यवहार रँगाई के काम में होता है। २. धव या धौ का पेड़ और उसका फूल।
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धातविक  : वि० [सं० धातु+ठक्—इक]=धातवीय।
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धातवीय  : वि० [सं० धातु+छ—ईय] १. धातु-संबंधी। धातु का। २. धातु का बना हुआ।
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धाता (तृ)  : वि० [सं०√धा+तृच्] १. धारण करनेवाला। २. पालन पोषण करनेवाला। पालक। ३. रक्षक। पुं० १. विधाता। ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. शेषनाग। ५. बारह सूर्यों में से एक। ६. ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम। ७. भृगु मुनि के एक पुत्र का नाम। ८. उनचास वायुओं में से एक। ९.साठ संवत्सरों में से एक। १॰. टगण का आठवाँ भेद। ११. सप्तर्षि। १२. उपपति।
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धातु  : स्त्री० [सं०√धा+तुन्] १. वह मूल तत्त्व जिससे कोई चीज बनी हो। पदार्थ या वस्तु का उपादान। २. पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँचों महाभूतों में से प्रत्येक जो अलग-अलग या पदार्थों की रचना या सृष्टि करते हैं। ३. शरीर को धारण करने या बनाये रखनेवाले तत्त्व जिनकी संख्या वैद्यक में ७ कही गई है। यथा—रस, रक्त, मांस, भेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। विशेष—कहा गया है कि जो कुछ हम खाते—पीते हैं, उन सबसे क्रमात् उक्त सात धातुएँ बनती हैं, जिनसे हमारा शरीर बनता है। कुछ लोग वात, पित्त और कफ की गणना भी धातुओं में ही करते हैं। कुछ लोग इन सात धातुओं में केश, त्वचा और स्नायु को भी सम्मिलित करके इनकी संख्या १॰. मानते हैं। ४. कुछ विशिष्ट प्रकार के खनिज पदार्थ जिनकी संख्या हमारे यहाँ ७ कही गई है। यथा—चाँदी, जस्ता, ताँबा, राँगा, लोहा, सीसा, सोना आदि। विशेष—उक्त सात धातुओं के सिवा हमारे यहाँ वैद्यक में सात उपधातुएँ भी कही गई हैं। काँसा तूतिया पीतल रूपामक्खी, सोनामक्खी, शिलाजीत, और सिन्दूर। इसके सिवा खड़िया, गंधक मैनसिल आदि सभी खनिज पदार्थों की गिनती हमारे यहाँ धातुओं में होती है। परन्तु आधुनिक विज्ञान की परिभाषा के अनुसार धातु उस खनिज पदार्थ को कहते हैं जो चमकीला तो हो, परन्तु पारदर्शी न हो, जिसमें ताप, विद्युत आदि का संचार होता हो, जो कूटने, खींचने पीटने आदि पर बढ़ सके अर्थात् जिसके तार और पत्तर बन सके। इन सात धातुओं के सिवा काँसा, पीतल आदि धातु ही है। खानों में ये धातुएँ अपने विशुद्ध रूप में नहीं निकलती, बल्कि उनमें अनेक दूसरे तत्त्व भी मिले रहते हैं। उन मिश्रित रूपों को साफ करने पर धातुएँ अपने बिलकुल शुद्ध रूप में आती हैं। ५. संस्कृत व्याकरण में, क्रियाओं के वे मूल रूप जिससे उनके भिन्न-भिन्न विकारी रूप बनते हैं। जैसे—अस्,कृ,घृ,भू आदि। विशेष-इन्ही के आधार पर अब हिन्दी में भी कर, खा, जा, आदि रुप धातु माने जाने लगे हैं। ६.गौतम बुद्ध अथवा अन्य बौद्ध महापुरुषों की अस्थियाँ जिनको उनके अनुयायी डिब्बों में बन्द करके स्मारक रूप में स्थापित करते थे। ७. बौद्ध दर्शन में वे तत्त्व या शक्तियां जिनसे सब घटनाएँ होती हैं। ८. पुरुष का वीर्य। शुक्र। मुहा०—धातु गिरना या जाना=पेशाब के रास्ते या उसके साथ वीर्य का पतला होकर निकलना जो एक रोग है। ९. परमात्मा। परब्रह्म। १॰..आत्मा। १ १. इंद्रिय। १ २. अंश खंड या भाग। १ ३. पेय पदार्थ।
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धातु-काशीस (कसीस)  : पुं० [मध्य० स०] दे० ‘कसीस’।
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धातु-क्षय  : पुं० [ष० त०] १. खाँसी का रोग जिससे शरीर क्षीण होता है। २. प्रमेह आदि रोग जिनेस धातु अर्थात् वीर्य का क्षय होता है। ३. क्षयरोग।
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धातु-गर्भ  : पुं० [ब० स०] वह डिब्बा या पिटारी जिसमें बौद्ध लोग बुद्ध या अपने अन्य साधु महात्माओं के दांत या हड्डियाँ आदि सुरक्षित रखते हैं। देहगोप।
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धातु-चैतन्य  : वि० [ब० स०] धातु को जाग्रत तथा चैतन्य करनेवाला।
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धातु-द्रावक  : वि० [ष० त०] धातु को गलाने या पिघलानेवाला। पुं० सुहागा जिसके योग से सोना आदि धातुएँ गलाई जाती हैं।
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धातु-नाशक  : वि०, पुं० [ष० त०]=धातुघ्न।
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धातु-पाठ  : पुं० [ब० स०] पाणिनी कृत संस्कृत व्याकरण के अनुसार उन धातुओं अर्थात् क्रियाओं के मूलरूपों की सूची जो सूत्रों से भिन्न है। (यह सूची भी पाणिनी की ही प्रस्तुत की हुई मानी जाती है)।
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धातु-पुष्ट  : वि० [ब० स०] शरीर का वीर्य बढ़ाने तथा पुष्ट करनेवाला।
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धातु-पुष्पिका  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्+कन्—टाप्, ह्रस्व] धव या धौ का फूल।
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धातु-पुष्पी  : [ब० स०, ङीष्]=धातु-पुष्पिका।
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धातु-प्रधान  : पुं० [स० त०] वीर्य। (डिं०)
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धातु-बैरी (रिन्)  : पुं० [ष० त०] गंधक।
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धातु-मर्म  : पुं०=धातुवाद। (देखें)
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धातु-मल  : पुं० [ष० त०] १. शरीरस्थ धातुओं के विकारी अंश जो कफ, नख, मैल आदि के रूप में शरीर से बाहर निकलते हैं। २. धातुओं आदि को गलाने पर उनमें से निकलनेवाला फालतू या रद्दी अंश। खेड़ी। (स्लैग)
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धातु-माक्षिक  : पुं० [मध्य० स०] सोनामक्खी नामक उपधातु।
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धातु-मान् (मत)  : वि० [सं० धातु+मतुप्] जिसमें या जिसके पास धातुएँ हों।
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धातु-मारी (रिन्)  : पुं० [सं० धातु√मृ (मरना)+णिच्+णिनि] गँधक।
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धातु-राजक  : पुं० [ष० त०+कन्] प्रधान या श्रेष्ठ शरीरस्थ धातु-शुक्र (वीर्य)।
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धातु-रेचक  : वि० [ष० त०] (वस्तु) जिसके सेवन से धातु का स्खलन हो।
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धातु-वर्द्धक  : वि० [ष० त०] धातु (वीर्य) का अभिवर्द्धन करनेवाला।
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धातु-वल्लभ  : पुं० [स० त०] सुहागा।
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धातु-वाद  : पुं० [ष० त०] १. वह कला या विद्या जिससे खान से निकली हुई कच्ची धातुएँ साफ की जाती और एक में मिली हुई कई धातुएँ अलग-अलग की जाती हैं। (इसकी गिनती ६४ कलाओं में की गई है) २. भिन्न-भिन्न धातुओं से सोना बनाने की विद्या। कीमियागरी। ३. रसायन शास्त्र।
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धातु-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि धातु में क्या क्या गुण या विशेषताएँ होती हैं, उसकी भौतिक रचना कैसे हुई है, किस प्रकार परिष्कृत या शुद्ध की जाती हैं और उन्हें किस प्रकार मिलाकर भिन्न वस्तुएँ बनाई जाती हैं। (मेटलर्जी)
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धातु-शेखर  : पुं० [ष० त०] १. कसीस। २. सीसा।
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धातु-संज्ञ  : पुं० [ब० स०] सीसा।
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धातु-स्तंभक  : वि० [ष० त०] (औषध या पदार्थ) जो वीर्य को शरीर में रोक रखे और जल्दी से निकलने या स्खलित न होने दे।
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धातुगोप  : पुं०=धातु-गर्भ।
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धातुघ्न  : वि० [सं० धातु√हन् (मारना)+टक्] धातु को नष्ट करने या मारनेवाला। पुं० वह पदार्थ जिससे शरीर का धातु नष्ट हो। जैसे—काँजी, पारा आदि।
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धातुज  : वि० [सं० धातु√जन् (उत्पत्ति)+ड] धातु से उत्पन्न, अर्थात् निकला या बना हुआ। पुं० खनिज या शैलज तेल।
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धातुप  : पुं० [सं० धातु√पा (रक्षा)+क] वैद्यक के अनुसार शरीर का वह रस या पतला धातु जो भोजन के उपरांत तुरन्त बनता है और जिससे शरीर की अन्य धातुओं का पोषण होता है।
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धातुबैरी  : पुं० [सं० धातुवैरिन्] गंधक।
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धातुभृत्  : वि० [सं० धातु√भृ (पोषण)+क्विप्] जिससे धातु का पोषण हो। पुं० पर्वत। पहाड़।
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धातुमत्ता  : स्त्री० [सं० धातुमत्+तल्—टाप्] धातुमान होने की अवस्था, गुण या भाव।
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धातुमय  : वि० [सं० धातु+मयट्] १. जिसमें धातु मिली हो। धातु से युक्त। २. (प्रदेश या स्थान) जिसमें धातुओं आदि की खाने हों।
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धातुमारिणी  : स्त्री० [सं० धातुमारिन्+ङीष्] सुहागा।
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धातुयुग  : पुं० [ष० त०] मानव जाति के इतिहास में वह युग जब उसने पहले पहल धातुओं का उपयोग करना प्रारंभ किया था। और जो प्रस्तर-युग के बहुत बाद आया था। (मैटलिक एज)
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धातुराग  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा रंग, जो धातुओं में से निकलता हो अथवा उनके योग से बनाया जाता हो। जैसे—ईंगुर, गेरू आदि।
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धातुवादी (दिन्)  : पुं० [सं० धातुवाद+इनि] १. वह जो धातुवाद का अच्छा ज्ञाता हो। २. रसायन शास्त्र का ज्ञाता।
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धातुहन  : पुं० [सं० धातु√हन् (नष्ट करना)+अच्] गंधक।
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धातू  : स्त्री०=धातु।
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धातूपल  : पुं० [धातु-उपल, मध्य० स०] घड़िया मिट्टी।
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धातृ-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमार।
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धातृ-पुष्पिका (पुष्पी)  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्+कन्,+ टाप्, ह्रस्व] धवर्क या धौ के फूल।
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धातृका  : स्त्री० [सं० धात्रिका] वह स्त्री जो रोगियों की सेवा-सुश्रुषा विशेषतः जच्चा और बच्चा की देख-रेख करती हो और ऐसे कार्य करने में प्रशिक्षित हो। (नर्स)
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धात्र  : पुं० [सं०√धा+ष्ट्रन्] १. पात्र। बरतन। २. आधान।
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धात्रिका  : स्त्री० [सं० धात्री+कन्—टाप्, ह्रस्व] छोटा आँवला। आमलकी।
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धात्री  : स्त्री० [सं० धात्र+ङीष्] १. माता। माँ। २. बच्चे को दूध पिलानेवाली दाई। धाय। ३. गायत्री स्वरूपिणी भगवती और माता। ४. पृथ्वी जो सब की माता है। ५. गौ, जिसका दूध माता के दूध के समान होता है। ६. गंगा नदी। ७. आँवला। ८. फौज। सेना। ९. आर्या छंद का एक भेद।
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धात्री-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. तालीस-पत्र। २. आँवले की पत्ती।
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धात्री-पुत्र  : पुं० [ष० त०] धाय का लड़का।
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धात्री-फल  : पुं० [ष० त०] आँवला।
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धात्री-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] वह विद्या जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि गर्भवती स्त्रियों को किस प्रकार प्रसव कराना चाहिए और प्रसूता तथा शिशु की किस प्रकार देख-रेख करनी चाहिए। (मिडवाइफरी)
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धात्रेयी  : स्त्री० [सं० धात्री+ढक्, एय+ङीप्] १. धात्री की बेटी। २. धात्री। दाई।
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धात्वर्थ  : पुं० [सं० धातु-अर्थ] शब्द या वह पहला या मूल अर्थ जो उसकी धातु (पद या शब्द की प्रकृति) से निकलता हो। प्राथमिक अर्थ। जैसे—प्रभाकर का धात्वर्थ है—प्रभा या प्रकाश करनेवाला।
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धात्वीय  : वि० [सं० धातु+छ—ईय] १. धातु-संबंधी। धातु का। २. धातु का बना हुआ।
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धाँधना  : स० [देश०] १. बन्द करना। भेड़ना। २. बहुत अधिक खाना। पेट में भोजन ठूँसना। ३. नष्ट-भ्रष्ट करना। ध्वस्त करना। ४. त्रस्त या परेशान करना। उदा०—धर कर धरा धूप ने धाँधी। धूल उड़ाती है यह आँधी।—मैथिलीशरण गुप्त। अ० दौड़-धूप करना।a
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धाधना  : स० [?] देखना।a अ०, स०,=धाँधना।
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धाँधल  : स्त्री०=धाँधली।a
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धाँधलपन  : पुं० [हिं० धाँधल+पन (प्रत्य०)] १. पाजीपन। शरारत। २. दे० ‘धाँधली’।
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धाँधली  : स्त्री० [अनु०] १. उत्पात। उपद्रव। ऊधम। २. पाजीपन। शरारत। ३. छल। धोखा। कपट। ४. ऐसा कार्य या प्रयत्न जो उचित या न्यायसंगत तथ्य या वास्तविकता का ध्यान न रखकर मनमाने ढंग से और बुरे उद्देश्य से किया जाए। ५. जबरदस्ती अपनी गलत बात भी ठीक ठहराने या सबसे ऊपर रखने का प्रयत्न करना। ६. शीघ्रतापूर्वक कोई काम करने अथवा किसी काम के लिए दूसरों को उद्यत करने के लिए की जाने वाली जल्दबाजी या ताकीद। क्रि० प्र०—मचाना।
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धांधा  : स्त्री० [सं०] इलायची।
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धान  : पुं० [सं० धान्य] १. तृण जाति का एक प्रसिद्ध पौधा जिसके बीजों का चावल होता है। ब्रीहि। शालि। (इसकी सैकड़ों जातियाँ या प्रकार होते हैं) २. चावल का वह रूप जिसमें उसके चारों ओर छिलका लगा रहता है। विशेष—जब धान कूटा जाता है तब उसका छिलका या भूसी उत्तर जाती है और अन्दर से चावल निकल आता है। ३. अन्न। अनाज। ४. किसी का दिया हुआ भोजन।
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धान-पान  : पुं० [हिं० धान+पान] विवाह के कुछ ही पहले होनेवाली एक रसम जिसमें वर-पक्ष से कन्या के घर धान और हल्दी भेजी जाती है। वि० धान और पान की तरह बहुत ही कोमल अथवा दुबला-पतला। नाजुक। उदा०—चोटी का बोझ ऊई, उठाये जो यह कमर, बूता नहीं है इतना मुझ धान पान में।—जान साहब।
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धानकी  : पुं० [हिं० धानुक] १. धनुर्धर। धनुर्द्धारी। २. कामदेव। (डिं०)
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धानजई  : पुं० [हिं० धान+जई] धान की एक किस्म।
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धानमाली  : पुं० [सं० ?] दूसरे के चलाये अस्त्र का प्रतिकार करने या उसे रोकने की एक क्रिया।
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धाना  : अ० [सं० धावन] १. दौड़ाना। २. बहुत तेजी से चलते हुए आगे बढ़ना। मुहा०—धाय पूजना=(क) धाकर और दौड़ते हुए जाकर किसी को पूजना। (ख) बिलकुल अलग या बहुत दूर रहना। (परिहास और व्यंग्य) ३. किसी काम के लिए प्रयत्न करते समय इधर-उधर दौड़-धूप करना। स्त्री० [सं० √धा(धारण)+न—टाप्] १. भुना। हुआ जौ या चावल। बहुरी। २. अन्न का कण या छोटा दाना। ३. सत्तू। ४. धान। ५. अनाज। अन्न। ६. पौधों आदि का अंकुर। ७. धनियाँ।
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धाना-चूर्ण  : पुं० [ष० त०] सत्तू।
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धाना-भर्जन  : पुं० [ष० त०] अनाज भूनना।
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धानी  : स्त्री० [सं०√धा+ल्युट्—अन+ङीप्] १. जगह। स्थान। २. ऐसा स्थान जिसमें किसी का निवास हो या कोई रहे। जैसे—राजधानी। ३. ऐसी जगह जो किसी के लिए आधार या आश्रय का काम दे। उदा०—संका तैं सकानी लंका रावन की राजधानी, पजरट पानी धूरि धानी भयो जात है।—सेनापति। ४. ऐसा आधार जिसमें या जिस पर कोई चीज रखी जाय। (स्टैंड) जैसे—शूकधानी। ५. धनियाँ। ६. पीलू वृक्ष। वि० [सं० धारण] धरण करनेवाला। स्त्री० [सं० धाना] भुना हुई गेहूँ या जौ। जैसे—गुड़धानी। स्त्री० [?] संपूर्ण जाति की एक रागिनी। वि० [हिं० धान] धान की हरी पत्तियों के से रंग का। हलका हरा। जैसे—धानी दुपट्टी। पुं० उक्त प्रकार का हलका हरा रंग जो धान की पत्तियों के रंग से मिलता-जुलता है।
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धानुक  : पुं० [सं० धानुष्क] १. धनुष चलाने में कुशल व्यक्ति। कमनैत। धनुर्द्धर। उदा०—धानुक आयु बेझ जग कीन्हा।—जायसी २. एक जाति जो प्रायः कहारों की तरह सेवा-कार्य करती है। ३. इस जाति का व्यक्ति।
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धानुक्की  : पुं०=धानुक (धनुर्धारी)।a
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धानुर्दंडिक  : पुं० [सं० धनुर्दंड+ठक्—इक]=धानुष्क।
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धानुष्क  : पुं० [सं० धनुस्+ठक्—क] कमनैत। धनुर्धर।
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धानुष्का  : स्त्री० [सं० धानुष्क+टाप्] अपामार्ग। चिचड़ा।
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धानुष्य  : पुं० [सं० धनुस्+ष्यञ्] एक प्रकार का बाँस जिससे धनुष बनते थे।
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धानेय  : पुं० [सं० धाना+ढक्—एय] धनियाँ।
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धान्य  : पुं० [सं०धान+यत्] १. अनाज। अन्न। गल्ला। २. ऐसा चावल जिसका छिलका निकाला न गया हो। धान। पद—धन-धान्य=आर्थिक संपत्ति और खाने-पीने के समस्त पदार्थ या साधन। ३. धनियाँ। ४. प्राचीन काल की चार तिलों के बराबर एक तौल या परिमाण। ५. केवटी मोथा। ६. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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धान्य-कूट  : पुं०=धान्य-कोष्ठक।
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धान्य-कोष्ठक  : पुं० [ष० त०] अनाज रखने के लिए बना हुआ बड़ा बरतन। कोठिला। गोला।
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धान्य-चमस  : पुं० [मयू० स०] चिड़वा।
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धान्य-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] अन्न की ढेरी जिसे गौ मानकर दान किया जाता था।
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धान्य-पंचक  : पुं० [ष० त०] १. शालि, ब्रीहि, शूक, शिंबी और क्षुद्र ये पाँच प्रकार के धान। २. वैद्यक में एक प्रकार का तैयार किया हुआ पानी जो पाचक कहा गया है। ३. वैद्यक में एक प्रकार का औषध।
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धान्य-पति  : पुं० [ष० त०] १. चावल। २. जौ।
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धान्य-पानक  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का पन्ना या पेय पदार्थ जो धनिये के योग से बनाया जाता है।
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धान्य-बीज  : पुं० [ष० त०] धनिये के बीज।
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धान्य-भोग  : पुं० [सं०] ऐसी उपजाऊ भूमि जिसमें अन्न बहुत अधिक मात्रा में उत्पन्न होता हो।
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धान्य-मुख  : पुं० [ब० स०] चीर-फाड़ करने का एक प्राचीन उपकरण। (सुश्रुत)
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धान्य-मूल  : पुं० [ब० स०] काँजी।
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धान्य-यूष  : पुं० [ष० त०] काँजी।
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धान्य-योनि  : स्त्री० [ब० स०] काँजी।
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धान्य-राज  : पुं० [ष० त०] जौ।
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धान्य-वर्धन  : पुं० [ब० स०] अन्न उधार देने की वह रीति जिसमें मूल और ब्याज दोनों अन्न के रूप में ही लिया जाता था।
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धान्य-वाप  : पुं० [ब० स०] ऐसी उपजाऊ भूमि जहाँ अन्न बहुतायत से पैदा होता हो।
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धान्य-वीज  : पुं० [ष० त०] १. धान का बीज। २. [ब० स०] धनियाँ।
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धान्य-वीर  : पुं० [स० त०] उड़द। माष।
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धान्य-शर्करा  : स्त्री० [मध्य० स०] चीनी मिला हुआ धनिए का पानी जो अंतर्दाह शांत करने के लिए पीया जाता है।
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धान्य-शीर्षक  : पुं० [ष० त०] गेहूँ, धान आदि पौधों की बाल।
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धान्य-शैल  : पुं० [मध्य० स०] दान करने के निमित्त लगाई हुई अन्न की बहुत बड़ी ढेरी।
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धान्य-सार  : पुं० [ष० त०] चावल।
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धान्यक  : पुं० [सं० धान्य+कन्] १. धनियाँ। २. धान।
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धान्यचारी (रिन्)  : पुं० [सं० धान्य√चर् (गति)+णिनि] चिड़िया। पक्षी।
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धान्यजीवी (विन्)  : वि० [सं० धान्य√जीव् (जीना)+णिनि] धान्य खाकर जीवन-निर्वाह करनेवाला। पुं० चिड़िया। पक्षी।
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धान्यतुषोद  : पुं० [सं०] काँजी।
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धान्यमालिनी  : स्त्री० [सं०] रावण के दरबार की एक राक्षसी जिसे उसने जानकी को बहकाने के लिए नियुक्त किया था।
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धान्यमाष  : पुं० [सं०] अन्न मापने का एक प्राचीन परिमाण।
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धान्या  : स्त्री० [सं० धान्य+टाप्] धनिया।
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धान्याक  : पुं० [सं० धान्य√अक् (गति)+अण्] धनिया।
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धान्याचल  : पुं० [धान्य-अचल, मध्य० स०]=धान्य-शैल।
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धान्याभ्रक  : पुं० [सं०] १. वैद्यक में भस्म लगाने के लिए धान की सहायता से शोधा और साफ किया हुआ अभ्रक। २. उक्त प्रकार से अभ्रक शोधने की क्रिया।
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धान्याम्ल  : पुं० [धान्य-अम्ल, मध्य० स०] काँजी।
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धान्याम्लक  : पुं० [सं० धान्याम्ल+कन्] धान से बनी हुई काँजी।
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धान्यारि  : पुं० [धान्य-अरि, ष० त०] धान का शत्रु, चूहा।
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धान्यार्थ  : पुं० [धान्य-अर्थ, मध्य० स०] अन्न या धान के रूप में होनेवाली संपत्ति।
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धान्याशय  : पुं० [धान्य-आशय, ष० त०] अन्नशाला। अन्न का भंडार।
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धान्यास्थि  : स्त्री० [धान्य-अस्थि, ष० त०] धान का छिलका। भूसी।
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धान्योत्तम  : पुं० [धान्य-उत्तम, स० त०] उत्तम प्रकार का धान, शालि।
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धान्व  : वि० [सं० धन्व+अण्] १. धन्व से संबंध रखनेवाला। २. धन्व देश में होनेवाला। ३. मरुदेश संबंधी।
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धान्वंतर्य  : पुं० [सं० धन्वन्तरि+ष्यञ्] धन्वतरि देवता के उद्देश्य से होनेवाले होम आदि।
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धान्वन  : वि० [सं०]=धान्व।
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धाप  : पुं० [हिं० धापना] १. धापने की क्रिया या भाव। २. दूरी की प्रायः एक अनिश्चित नाप। उतनी दूरी जितनी प्रायः एक साँस में दौड़कर पार की जा सके।a पद—धाप भर=थोड़ी दूर पर। पास ही में। ३. लंबा-चौड़ा मैदान। पुं० [?] पानी की धार (लश०)। स्त्री०[?] तृप्ति।
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धापना  : अ० [सं० धावन] १. दूर तक चलना। २. किसी काम के लिए इधर-उधर आना जाना या दौड़-धूप करना। ३. दौड़ना। ४. परेशान या हैरान होना। अ० [?] तृप्त होना या। अघाना। स० तुष्ट या तृप्त करना।
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धाबरी  : स्त्री० [देश०] कबूतरों का दरबा।
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धाबा  : पुं० [देश०] १. छत के ऊपर का कमरा। अटारी। २. वह स्थान जहाँ दाम देने पर पकी-पकाई कच्ची रसोई बैठकर खाने को मिलती हो। बासा।
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धाम (मन्)  : पुं० [सं०√धा (धारण)+मनिन्] १. रहने का स्थान। २. घर। मकान। ३. कोई बहुत बड़ा तीर्थ, देवस्थान या पुण्य-स्थान। जैसे—चारों धाम। पद—परम धाम=स्वर्ग। ४. ब्रह्मा। ५. परलोक। ६. स्वर्ग। ७. विष्णु। ८. आत्मा। ९.देह। शरीर। १॰.. जन्म। ११. किरण। उदा०—धाम की है निधि, जाके आगे चंद मंद-दुति...।—सेनापति। १२. ज्योति। उदा०—भाल मध्य निकर दहन दिन धाय के।—सेनापति। १३. तेज। १४. शोभा। १५. प्रभाव। १६. अवस्था। दशा। १७. बागडोर। लगाम। १८. चारदीवारी। प्राचीर। १ ९. देवताओं का एक वर्ग। (महाभारत) २0. फौज। सेना। २१. समूह। २२. कुटुंब या परिवार के आदमी। पुं० [देश०] फालसे की जाति का एक प्रकार का छोटा पेड़ जो मध्य और दक्षिण भारत में पाया जाता है।
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धामक  : पुं० [सं० धानक, पृषो० सिद्धि] माशा (तौल)।
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धामक-धूमक  : स्त्री०=धूम-धाम।a
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धामन  : पुं० [देश०] १. फासल से की एक जाति २. एक प्रकार का बाँस। स्त्री० रेतीली भूमि में होनेवाली एक प्रकार की घास। स्त्री०=धामिन।
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धामनिका  : स्त्री०=धामनी।
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धामनिधि  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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धामनी  : स्त्री०=धमनी।
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धामभाज्  : पुं० [सं० धामन्√भज् (पाना)+ण्वि] अपना भाग लेने के लिए यज्ञ में सम्मिलित होनेवाले देवता।
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धामश्री  : स्त्री० [सं०] एक रागिनी जिसके गाने का समय दिन में २५ दंड से २८ दंड तक माना गया है।
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धामस-धूमस  : स्त्री०=धूम-धाम।a
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धामा  : पुं० [हिं० धाम] १. ब्राह्मणों को मिलनेवाला भोजन का निमंत्रण। खाने का नेवता। २. बेंत का बुना हुआ एक प्रकार का टोकरा या बड़ी दौरी। ३. अनाज आदि रखने का बड़ा बरतन। (पश्चिम)।
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धामार्गव  : पुं० [सं० धा-मार्ग, ष० त० धामार्ग√वा (गति)+ क] १. लाल चिचड़ा। २. घीआ-तोरी।
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धामासा  : पुं०=धमासा।a
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धामिन  : स्त्री० [हिं० धाना=दौड़ना] हरे रंग की झलक लिए हुए सफेद रंग का साँप जो बहुत तेज चलने या दौड़ने के लिए प्रसिद्ध है। पुं०=धामन।
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धामिया  : पुं० [हिं० धाम] १. एक आधुनिक पंथ या संप्रदाय। २. उक्त पंथ का अनुयायी व्यक्ति।
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धांय  : स्त्री० [अनु०] बंदूक, तोप आदि के चलने से होने वाला शब्द। धायँ।
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धायँ  : स्त्री० [अनु०] १. बंदूक, तोप आदि चलाने से होने वाला भीषण शब्द। २. आग की लपटों से हवा के टकराने से होने वाला शब्द। पद—धायँ-धायँ=धायँ धायँ शब्द करते हुए। जैसे—चिता धायँ-धायँ जल रही थी।
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धाय  : स्त्री० [सं० धात्री] वह स्त्री जो किसी बच्चे को दूध पिलाती हो। दूध पिलाने वाली दाई। पुं० [सं०] पुरोहित। पुं० =धव (वृक्ष)।
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धायक  : वि० [सं०√धा+ण्वुल्—अक] धारण करने वाला। वि० [हिं० धाना]=धावक (दौड़नावाला)।
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धाया  : स्त्री० [सं०] वह वेद मंत्र जो अग्नि प्रज्वलित करते समय पढ़ा जाता है। स्त्री०=धाय (दाई)।
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धार  : पुं० [सं० धारा+अण्] १. जोरों से होनेवाली वर्षा। २. वर्षा का इकट्ठा किया हुआ जल। ३. उधार लिया हुआ धन या पदार्थ। ऋण। कर्ज। ४. प्रदेश। प्रांत। ५. विष्णु। ६. आमेला। ७. सीमा। ८. एक प्रकार का पत्थर। वि० [√धृ (धारण)+अण्] १. धारण करनेवाला। २. सहारा देने वाला। ३. बहता हुआ या बहने वाला। ४. गहरा। गम्भीर। स्त्री० [सं० धारा] १. किसी तरह पदार्थ के किसी दशा में निरन्तर बहते हुए होने की अवस्था। धारा। जैसे—पानी-कल की धार के नीचे बैठकर नहाना। मुहा०—धार टूटना=धार का प्रवाह बीच में खंडित होना या रुकना। (कोई चीज) धार पर मारना=(किसी चीज पर) धार मारना। धार बँधना=तरल पदार्थ का इस प्रकार गिरना या बहना कि उसकी धार बन जाए। (किसी चीज पर) धार मारना=इतनी अधिक उपेक्षा सूचित करना कि मानों उस पर पेशाब कर रहे हों। जैसे—ऐसी नौकरी पर हम धार मारते हैं। २. पानी का सोता। चश्मा। ३. जल-डमरू-मध्य। (लश०) ४. पशु आदि का स्तन दबाने पर उसमें से धार के रूप में निकलनेवाला दूध। मुहा०—धार चढ़ाना=पवित्र नदी, देवता आदि को दूध चढ़ाना। धार देना=धार चढ़ाना। (मादा पशु का) धार देना= दुहने पर दूध देना। धार निकालना=मादा पशुओं को दुहकर उसके स्तनों से दूध का धार निकालना। ५. काट करने वाले हथियार का वह तेज या पैना किनारा जिससे कोई चीज काटते हैं। बाढ़। जैसे—चाकू या तलवार की धार। मुहा०—(किसी हथियार की) धार बाँधना=मंत्र बल से ऐसा प्रभाव उत्पन्न करना कि हथियार की धार काट करने में असमर्थ हो जाय। ६. किनारा। छोर। सिरा। ७. सेना। फौज। ८. बहुत से लोगों के द्वारा कुछ लोगों पर होने पर आक्रमण अथवा उक्त प्रकार के आक्रमण के लिए होनेवाला अभियान। धाड़। मुहा०—धार पड़ना=उक्त प्रकार का आक्रमण होना। ९.बहुत बड़ा दल या समूह। जैसे—धार की धार बंदर आ गये। १॰..ओर। तरफ। दिशा। १ १. जहाज के फर्श में तख्तों के बीच का जोड़ या संधि जो सीधी रेखा के रूप में होती है। कस्तूरा। (लश०) १ २. पहाड़ों की श्रृंखला। पर्वत माला। १ ३. रेखा। लकीर। पुं० [सं० धारण] १. चोबदार या द्वारपाल। (ङिं०) २. लकड़ी का वह टुकड़ा जो कच्चे कुएँ के मुँह पर इसलिए लगाया जाता है कि ऊपर की मिट्टी कुएँ में न गिरने पावे। प्रत्य० [सं०] १. प्रत्यय जो कुछ संस्कृत शब्दों के अंत में लगकर ‘धारण करने वाला’ का अर्थ देता है। जैसे—कर्ण-धार। २. एक प्रत्यय जो कुछ हिंदी धातुओं के अंत में लगकर ‘कर्ता’, ‘धारक’ आदि का अर्थ देता है। जैसे—लिखधार=लिखनेवाला।
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धार-धूरा  : पुं० [हिं० धार+धूरा (धूल)] नदी के उतरने पर निकलनेवाली जमीन। गंगबरार
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धारक  : वि० [सं०√धृ+ण्वुल्—अक] धारण करनेवाला। २. रोकनेवाला। ३. उधार लेनेवाला। ४. (व्यक्ति) जो कोई चीज कहीं से लेकर जाए। वाहक। जैसे—इस चेक या हुंडी के धारक को रुपए दे दें। पुं० कलश। घड़ा।
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धारका  : स्त्री० [सं० धारक+टाप्] १. स्त्री की मूत्रेंद्रिय। २. भग। योनि।
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धारण  : पुं० [सं०√धृ+णिच्+ल्युट्—अन] १. कोई चीज ठीक तरह उठना, पकड़ना या सँभालना। जैसे—शस्त्र धारण करना। २. आभूषण, वस्त्र आदि के संबंध में अंगों पर रखना, लपेटना या चढ़ाना। पहनना। ३. स्मृति में रखना। याद रखना। ४. कोई बात, विचार या संकल्प मन में स्थिर करना। जैसे—व्रत धारण करना। ५. अंगीकार करना। ६. खाद्य के रूप में सेवन करना। खाना। ७. उधार या ऋण लेना। ८. शिव। ९.कश्यप के एक पुत्र का नाम।
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धारणक  : पुं० [सं०] ऋणी। कर्जदार।
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धारणा  : स्त्री० [सं०√धृ+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. धारण करने की अवस्था, क्रिया, गुण या भाव। २. वह आंतरिक शक्ति जिसके द्वारा जानी देखी या सुनी हुई बात का ज्ञान या ध्यान मन में स्थायी रूप से रहता है। ३. किसी कार्य, विषय या प्रसंग के संबंध में मन में बना हुआ कोई व्यक्तिगत विचार या विश्वास। जैसे—हमारी तो अब तक यही धारणा है कि रुपये वही चुरा ले गया है। ४. मर्यादा। ५. याद। स्मृति। ६. योग के आठ अंगों में से एक जिसमें प्राणायाम करते हुए मन को सब ओर से हटाकर निर्विकार, शांत और स्थिर किया जाता है। ७. मन की दृढ़ता और स्थिरता। ८. बृहत्संहिता के अनुसार ज्येष्ठ मास की शुक्ल अष्टमी से एकादशी तक पड़ने वाला एक योग, जिसमें वायु की गति देखकर यह निश्चित किया जाता है कि इस वर्ष अच्छी वर्षा होगी या नहीं।
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धारणावान् (वत्)  : वि० [सं० धारण+मतुप] [स्त्री० धारणावती] जिसकी धारणा शक्ति बहुत प्रबल हो। मेधावी।
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धारणिक  : पुं० [सं० धारण+ठक्—इक] १. ऋणी। कर्जदार। २. धन जमा करके रखने की जगह। खजाना। ३. वह व्यक्ति जिसके पास कोई चीज अमानत या धरोहर के रूप में जमा की जाय। महाजन।
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धारणी  : स्त्री० [सं०√धृ+णिच्+ल्युट्—अन, ङीष्] १. नाड़िका। नाड़ी। २. पंक्ति। श्रेणी। ३. सीधी रेखा या लकीर। ४. पृथ्वी जो सबको धारण किये रहती है। ५. बौद्ध-तंत्र का एक अंग।
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धारणीमति  : स्त्री० [सं०] योग में एक तरह की समाधि।
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धारणीय  : वि० [सं०√धृ+णिच्+अनीयर] [स्त्री० धारणीया] जो धारण किये जाने के योग्य हो। जिसे धारण करना आवश्यक या उचित हो। पुं० १. धरणीकंद। २. तांत्रिकों का एक प्रकार का मंत्र।
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धारना  : स० [धारण] १. अपने ऊपर रखना या लेना। धारण करना। २. ग्रहण करना। लेना। उदा०—दंड छोड़ कोदंड-कमंडलु, धार चला था।—मैथिली शरण। ३. ऋण या कर्ज लेना। ४. मन में कुछ निश्चय करना। धारणा बनाना। स०=ढारना या ढालना। स्त्री०=धारणा।a स० [हिं० धरना] स्थापित करना। रखना। उदा०—जहँ जहँ नाथ पाउँ तुम धारा।—तुलसी।a
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धारयिता (तृ)  : वि० [सं०√धृ+णिच्+तृच्] [स्त्री० धारयित्री] १. धारण करनेवाला। २. ऋण लेनेवाला।
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धारयित्री  : वि० स्त्री० [सं० धारयितृ+ङीष्] ‘धारयिता’ का स्त्री०। स्त्री० पृथ्वी।
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धारयिष्णु  : वि० [सं०√धृणिच्+इष्णुच्] धारण करने में समर्थ। जो धारण कर सकता हो।
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धारस  : पुं०=ढारस।a
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धारा  : स्त्री० [सं०√धृ+णिच्+अङ—टाप्] १. पानी या किसी तरल पदार्थ की तेज और लगातार बहनेवाली धार। तरल पदार्थ का एक रेखा में निरंतर चलता रहनेवाला क्रम। जैसे—नदी की धारा। रक्त की धारा। २. पानी या तरल पदार्थ का रेखा के रूप में ऊपर से निरंतर गिरता रहनेवाला क्रम। जैसे—बादलों में धारा के रूप में जल बरस रहा था। ३. लाक्षणिक रूप में, किसी चीज या बाह्यत का निरंतर चलने वाला क्रम। ४. किसी का निरंतर प्रवाह या स्रोत। जैसे—विद्युत की धारा। ५. पानी का झरना। सोता। चश्मा। ६. घड़े आदि में पानी गिरने के लिए बनाया हुआ छेद। ७. किसी चीज की किनारा या छोर। ८. हथियार की धार। बाढ़। ९. शब्दों की पंक्ति। वाक्यावली। १॰..बहुत जोरों से होने वाली वर्षा। ११. झुंड। दल। समूह। १ २. सेना का अगला भाग। १३. औलाद। संतान। १४. उत्कर्ष। उन्नति। तरक्की। १५. रथ का पहिया। १६. कीर्ति। यश। १७. मध्य भारत की एक प्रचीन नगरी जो मालवा की राजधानी थी। १८. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ। १९ .रेखा। लकीर। २॰. पहाड़ की चोटी। २१. घोड़े की गति या चाल। २२. आज-कल किसी नियम, नियमावली, विद्यान आदि का वह स्वतंत्र अंश जिसमें किसी एक विषय से संबंध रखने वाली सब बातों का एक अनुच्छेद में उल्लेख होता है और जिससे पहले क्रमात् संख्या-सूचक अंक लगे होते हैं। दफा। (सेक्शन) जैसे—भारतीय संविधान की १ ४४वीं धारा।
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धारा-कदंब  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का कदम का पेड़।
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धारा-ग्रह  : पुं० [मध्य० स०] १. प्रासाद या महल का वह कमरा जिसमें राज-परिवार के लोगों के नहाने के लिए फुहारे आदि लगे रहते थे। २. स्नानागार।
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धारा-धर  : पुं० [ष० त०] १. धाराओं को धारण करने वाला, बादल। २. तलवार।
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धारा-पूप  : पुं० [धारा-अपूप मध्य० स०] दूध में सने हुए मैदे का बना हुआ पूआ।
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धारा-प्रवाह  : पुं० [ष० त०] धारा का बहाव। धारा का वेग। क्रि० वि० नदी आदि की धारा के प्रवाह के रूप में या उसकी तरह। निरंतर तथा अटूट क्रम से। जैसे—वे संस्कृत में धारा-प्रवाह भाषण करते थे।
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धारा-फल  : पुं० [ब० स०] मदनवृक्ष। मैनफल वृक्ष।
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धारा-यंत्र  : पुं० [ष० त०] वह यंत्र जिसमें धारा के रूप में जल निकले। जैसे—पिचकारी, फुहारा।
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धारा-वर्ष  : पुं० [तृ० त०] धारा के रूप में होनेवाली बहुत तेज वर्षा।
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धारा-विष  : पुं० [ब० स०] खड्ग्। तलवार।
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धारा-संपात  : पुं० [ब० स०] बहुत तेज और अधिक दृष्टि। जोरों की बारिश।
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धारा-सभा  : स्त्री० [ष० त० ?] आधुनिक लोक-तंत्री शासन में, प्रजा के प्रतिनिधियों की वह सभा जो विधान आदि बनाती है। विधान-सभा। विधायिका।
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धारा-स्नुही  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] तिधारा थूहर।
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धारांकुर  : पुं० [सं० धारा-अंकुर ष० त०] १. सरल का गोंद। २. आकाश से गिरनेवाला ओला। घनोपल।
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धारांग  : पुं० [सं० धारा-अंग ब० स०] १. एक प्राचीन तीर्थ का नाम। २. खड्ग।
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धाराग्र  : पुं० [सं० धार-अग्र ष० त०] तीर या बाण का आगेवाला चौड़ा सिरा।
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धाराट  : पुं० [सं० धारा√अट् (गति)+अच्] १. चातक पक्षी। २. बागल मेघ। ३. चौड़ा। ४. मस्त हाथी।
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धाराल  : वि० [सं० धारा+लच्] (अस्त्र) जिसकी धार चौखी या तेज हो।
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धाराली  : स्त्री० [सं० धाराल] १. तलवार। २. कटार। (ङिं०)
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धारावनि  : पुं० [सं० धारा-अवनिः ष० त०] वायु। हवा।
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धारावर  : पुं० [सं० धारा√वृ (आच्छादन)+अचम] मेघ। बादल।
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धारावाहिक  : वि० [सं० धारावाहिन्+कन्] १. जिसका क्रम धारा की तरह निरंतर चलता रहे। २. (पत्र, पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित होने वाला लेख) जो क्रमशः खंडों के रूप में बराबर कई अंशों में प्रकाशित होता रहे।
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धारावाही (हिन्)  : वि० [सं० धारा√वह (बहना)+णिनि]= धारा-वाहिक।
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धारासार  : वि० [धारा-आसार ष० त०] धारा के रूप में लगातार होता रहने वाला। जैसे—धारासार वर्षा।
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धारि  : स्त्री० [सं० धारा] १. एक प्रकार के वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक रगण और एक लघु होता है। २. झुंड। समूह। ३. दे० ‘धार’।
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धारिणी  : स्त्री० [सं०√धृ (धारण)+णिनि—ङीष्] १. पृथ्वी। २. सेमल का पेड़। ३. एक प्रकार की पुरानी नाव जो १ ६0 हाथ लंबी, ३0 हाथ चौड़ी और १ ६ हाथ ऊँची होती थी। ४. चौदह देवताओं की स्त्रियाँ जिनके नाम ये हैं—शचि, वनस्पति, गार्गी, धूम्रोर्णा, रुचिराकृति, सिनीवाल, कुहू, राका, अनुमति, आयाति, प्रज्ञा, सेला और बेला। वि० सं० ‘धारी’ (धारण करनेवाला) का स्त्री०।
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धारित  : भु० कृ० [सं०√धृ+णिच्-क्त] १. धारण किया हुआ। २. अपने ऊपर लिया या सँभाला हुआ।
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धारिता  : स्त्री० [सं० धारिन+तल—टाप्] १. धारण करने का गुण योग्यता या सामर्थ्य। २. वस्तु, व्यक्ति आदि की उतनी पात्रता जितने में वह कुछ धारण कर सके। समाई। (कपैसिटी) जैसे—इस हंडे में एक मन पानी की धारिता है।
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धारी (रिन्)  : वि० [सं०√धृ+णिनि] १. धारण करने वाला। जैसे—शस्त्रधारी। २. पहनने वाला। जैसे—खद्दर धारी। ३. जिसकी धारणा शक्ति प्रबल हो। ४. ऋण लेनेवाला। ५. ग्रंथों आदि का तात्पर्य समझानेवाला। वि० [हिं० धार] १. किनारदार। २. तेजधारवाला।a स्त्री० [सं० धार] १. एक ही सीध में दूर तक गई हुई रेखा या लकीर। २. किसी एक रंग के तल पर खींची हुई किसी दूसरे रंग की सीधी रेखा। जैसे—कपड़े या कागज पर की धारियाँ। पद—धारीदार। ३. धातुओं, वनस्पतियों आदि में दिखाई देनेवाली (नसों की तरह की) लंबी रेखा। (वीन) ४. झुंड। दल। फौज। सेना। ६. जलाशय के किनारे बना हुआ पुश्ता या बाँध। पुं० १. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में पहले तीन जगड़ और तब एक यगड़ होता है। २. पीलू का पेड़। ३. दे० ‘धारि’।
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धारीदार  : वि० [हिं० धारी+फा० दार] १. जिसके कोई रेखाकार चिह्न बना हो। जैसे—धारीदार कागज। २. (कपड़ा) जिसकी जमीन एक रंग की और धारियाँ दूसरे रंग की हों।
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धारूजल  : स्त्री० [सं० धारा-जल] जल की तरह उज्ज्वल धारवाली तलवार। उदा०—धड़ि-धड़ि धबकि धार धारु जल।—प्रिथीराज।
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धारोष्ण  : वि० [सं० धारा-उष्ण स० त०] (दूध) जो तुरंत का दूहा हुआ और इसलिए कुछ गरम भी हो।
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धार्त्तरार्ष्ट्र  : वि० [सं० धृतराष्ट्र+अण्] [स्त्री० धार्त्तराष्ट्री] १. धृतराष्ट्र-संबंधी। धृतराष्ट्र का। २. धृतराष्ट्र के वंश का। पुं० १. एक नाग का नाम। २. एक प्रकार का हंस जिसकी चोंच और पैर काले होते हैं।
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धार्त्तराष्ट्र-पदी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] हंसपदी लता। लाल रंग का लज्जालु।
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धार्म  : वि० [सं० धर्म०+अण्] धर्म-संबंधी। धर्म का।
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धार्मपत  : वि० [सं० धर्मपति+अण्] धर्मपति-संबंधी।
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धार्मिक  : वि० [सं० धर्म+ठक्—इक] [भाव० धार्मिकता] १. (व्यक्ति) जो धर्म का सदा ध्यान रखता तथा पालन करता हो। धर्मशील। पुण्यात्मा। २. (कथन या विषय) जो धर्म से संबंध रखता हो। जैसे—धार्मिक ग्रंथ, धार्मिक भाषण। ३. (कार्य) जो धर्मशास्त्रों के अनुसार उचित और कर्तव्य हो। जैसे—धार्मिक कृत्य।
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धार्मिकता  : स्त्री० [सं० धार्मिक+तल्—टाप्] धार्मिक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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धार्मिक्य  : पुं० [सं० धार्मिक+यक्]=धार्मिकता।
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धार्मिण  : पुं० [सं० धर्मिन्+अण] धार्मिक व्यक्तियों की मंडली या समूह।
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धार्मिणेय  : पुं० [सं० धर्मिणी+ढक्—एय] [स्त्री० धार्मिणेयी] धर्मवती स्त्री का पुत्र।
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धार्य  : वि० [सं०√धृ+ण्यत्] [भाव० धार्यत्व] १. जो धारण किये जाने के योग्य हो। जिसे धारण कर सके। धारणीय। २. जिसे धारण करना उचित या आवश्यक हो। ३. जिसे धारणा-शक्ति ग्रहण कर सके। पुं० पहनने का कपड़ा। पोशाक।
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धार्यत्व  : पुं० [सं० धार्य+त्व] १. धार्य होने का भाव। ऋण, देन आदि जिसका चुकाना आवश्यक हो। (लायबिलिटी)
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धार्ष्ट, धाष्टर्य  : पुं० [सं० धृष्ट+अण्, धृष्ट+ष्यञ्] धृष्टता।
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धाव  : पुं० [सं० धव] एक प्रकार का लंबा और बहुत सुंदर पेड़ जिसे गोलरा, घावरा और बकली भी कहते हैं।
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धावक  : वि० [सं०√धाव् (दौड़ना)+ण्वुल्—अक] दौड़कर चलनेवाला। पुं० १. हरकारा। २. कपड़े धोनेवाला। धोबी। ३. संस्कृत के एक प्राचीन आचार्य और कवि।
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धावड़ा  : पुं० [हिं० धव] धव या धौ का पेड़।a
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धावण  : पुं० [सं० धावन] दूत। हरकारा। (डिं०)
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धावन  : पुं० [सं०√धाव्+ल्युट्—अन] १. बहुत तेजी से या दौड़कर जाना। २. दूत। हरकारा। जैसे—धारा धर धावन। ३. कपड़े धोने और साफ करने का काम। कपड़ों की धुलाई। ४. धोबी। ५. वह चीज जिसकी सहायता से कोई चीज धोकर साफ की जाए।
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धावना  : अ० [सं० धावन=गमन] वेग से चलना। दौड़ना। धाना।
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धावनि  : स्त्री० [सं०√धाव्+अनि] पिठवन। पृश्निपर्णी लता। स्त्री० [हिं० धावना=दौड़ना] १. धावने अर्थात दौड़ने की क्रिया या भाव। जल्दी-जल्दी चलना या दौड़ना। २. चढ़ाई धावा। स्त्री० हिं० धावन (हरकारा) का स्त्री०।a
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धावनि  : स्त्री० [सं० धावनि+ङीष्] १. पृश्निपर्णी लता। पिठवन। २. कंटकारी। ३. धौ का फूल।
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धावनिका  : स्त्री० [सं० धावनि+कन्—टाप्] १. कंटकारिका। कटेरी। २. पृश्निपर्णी। पिठवन। ३. काँटेदार मकोय।
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धावमान  : वि० [सं०√धाव्+लट्—शानच्] १. दौड़नेवाला। २. दौड़ता हुआ। ३. चढ़ाई करनेवाला।
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धावरा  : वि० [स्त्री० धावरी]=धौरा (धवल)। पुं०=धव।
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धावरी  : स्त्री०=धौरी (सफेद गाय)।a
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धावल्य  : पुं० [सं० धवल+व्यञ्] धवलता।
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धावा  : पुं० [हिं० धाना=तेजी से चलना] १. किसी काम के लिए बहुत तेजी से चलते हुए कहीं दूर जाने की क्रिया या भाव। द्रुत गमन। मुहा०—धावा मारना=बहुत तेजी से चलते हुए कहीं दूर जाना अथवा दूर से आना। जैसे—हम तो चार कोस से धावा मारकर यहाँ आये, और आपने ऐसा कोरा जवाब दिया। २. शत्रु पर आक्रमण करने के लिए दल-बल सहित उसकी ओर बढ़ने की क्रिया या भाव। आक्रमण या चढ़ाई के लिए जल्दी-जल्दी चलना या जाना। ३. हमला। मुहा०—(किसी पर) धावा बोलना=अपने साथियों या सैनिकों को यह आज्ञा देना कि शत्रु पर चढ़ चलो और उसका नाश करो।
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धावित  : वि० [सं०√धाव्+क्त] १. बहुत तेज दौड़ता हुआ। २. धोया और साफ किया हुआ।
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धाँस  : स्त्री० [अनु०] कटु तथा तीक्ष्ण वस्तुओं की वह उत्कट गंध, जिसके फलस्वरूप आँख, नाक, फेफड़े आदि में सुरसुराहट होने लगती है, या उनमें से कुछ पानी निकलने लगता है। जैसे—तमाकू या सुँधनी की धाँस; मिर्च या प्याज की धाँस।
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धाँसना  : अ० [अनु०] १. घोड़े आदि पशुओं की खांसना। २. घोड़े आदि की तरह जोर-जोर से खाँसना। ढाँसना।
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धाँसी  : स्त्री० [अनु०] १. घोड़ों की खाँसी। २. दे० ‘ढाँसी’।
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धाह  : स्त्री० [अनु०] १. जोर से चिल्लाकर रोना। धाड़। २. जोर से चिल्लाना। चीत्कार करना। मुहा०—धाह मेलना= जोर से आवाज करना। चिल्लाना। उदा०—धाह मेलि कै राजा रोवा।—जायसी। ३. आवाज। शब्द।
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धाही  : स्त्री०=धाय (दाई)।a
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धि  : प्रत्य० [सं०√धा (धारण)+कि (उत्तर पद होने पर)] जो समस्त पदों के अंत में लगकर निधि या भंडार का अर्थ देता है। जैसे—जलधि, वारिधि आदि।
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धिआ  : स्त्री० [सं० दुहिता, प्रा० धीआ] १. पुत्री। बेटी। २. कन्या। लड़की।
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धिआन  : पुं०=ध्यान।a
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धिआना  : स०=ध्याना (ध्यान करना)।
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धिक  : अव्य०=धिक्।
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धिकना  : अ० [सं० दग्ध या हिं० दहकना] १. आग का अच्छी तरह दहकना या जलना। २. आग की गरमी से किसी चीज का तपकर लाल होना।
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धिकलना  : स०=धकेलना।
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धिकाना  : स० [हिं० धिकाना का स०] १. आग को तेजी से जलाने की क्रिया करना। दहकाना। २. आग में तपकर खूब लाल करना।
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धिक्  : अव्य० [सं०√धक्क् (धरण या नाश)+डिकन्] घृणा और तिरस्कारपूर्वक भर्त्सना करने का शब्द। लानत है। जैसे—धिक् तुमने ऐसा दुष्कर्म किया।
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धिक्-पारुष्य  : पुं० [सं० व्यस्त पद] धिक्कार। भर्त्सना।
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धिक्कार  : स्त्री० [सं० धिक्-कार ष० त०] बहुत ही बुरा काम करनेवाले अथवा अपने कर्तव्य का निर्वाह न करनेवाले व्यक्ति का अपमान सूचक शब्दों में की जाने वाली भर्त्सना। लानत। विशेष—संस्कृत में धिक्कार पुं० है। अव्य० दे० ‘धिक’।
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धिक्कारना  : स० [सं० धिक्कार] अनुचित या दूषित काम करनेवाले की कठोर तथा अपमान-सूचक शब्दों में निन्दा करना। जैसे—इस देश-द्रोही को देश एक स्वर में धिक्कार रहा है।
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धिक्कृत  : भू० कृ० [सं० धिक्√कृ (करना)+क्त] जो धिक्कारा गया हो। जिसे ‘धिक’ कहा गया हो।
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धिंग  : स्त्री०=धींगा-धींगी।a
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धिग  : अव्य०=‘धिक’। पुं०=धिक्कार।
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धिंगरा  : पुं०=धींगड़ा।a
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धिंगा  : पुं० [सं० दृढ़ांग] १. उपद्रवी। शरारती। २. दुष्ट पाजी। बदमाश। ३. निर्लज्ज। बेशरम।
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धिंगा-धिंगी  : स्त्री०=धींगा-धींगी।
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धिंगाई  : स्त्री० [हिं० धिंगा] १. धींगापन। धींगा-मस्ती। २. उपद्रव। शरारत। ३. पाजीपन। बदमाशी। ४. निर्लज्जता। बेशरमी।
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धिंगाना  : अ० [हिं० धिंगा] धींगा-धिंगी करना। स० किसी को धींगा-धींगी करने में प्रवृत्त करना।a
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धिंगी  : स्त्री० [सं० दृढांगी] १. बदमाश स्त्री। दुश्चरित्रा। २. निर्लज्ज स्त्री। ३. दे० ‘धिंगाई’।
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धिग्दंड  : पुं० [सं० धिक्-दंड मध्य० स०] धिक्कारपूर्वक भर्त्सना के रूप में (किसी को) दिया जाने वाला दंड। जैसे—पंचों ने उसे धिग्दंड दोकर छोड़ दिया।
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धिग्वण  : पुं० [सं०] ब्राह्मण पिता और अयोगवी माता से उत्पन्न एक प्राचीन संकर जाति।
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धिठाई  : स्त्री०=ढिठाई।a
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धिमचा  : पुं० [देश०] एक तरह का इमली का पेड़।
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धिय  : स्त्री० [सं० दुहिता] १. पुत्री। बेटी। २. कन्या। लड़की।
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धिया  : स्त्री०=धिय। स्त्री०=धिक्कार। (क्व०)a
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धिया-वसु  : पुं० [सं० अलुक् समास] वैदिक युग के एक देवता जो ‘धी’ अर्थात बुद्धि के अधिष्ठाता माने जाते थे, और ‘सरस्वती’ के वर्ग के थे।
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धियान  : पुं०=ध्यान।b
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धियाना  : अ०=ध्याना (ध्यान करना)।
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धियानी  : वि०=ध्यानी।b
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धियांपति  : पुं० [सं०] बृहस्पति।
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धियारी  : स्त्री०=धी (पुत्री)।
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धिरकार  : स्त्री०=धिक्कार।
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धिरयना  : स०=धिरवना।b
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धिरवना  : स०=धिराना।
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धिराना  : स० [सं० धर्षण] १. भयभीत करना। डराना। २. धम-काना। स० [सं० धैर्य्य] १. धीरज दिलाना। २. शांत करना। अ० १. धीरज रखना। २. शांत होना। अ० [सं० धीर] १. मंद पड़ना। धीमा होना। उदा०—यों कहि धिरई चढ़ाई भौंह...।—रत्नाकर। २. ठहरना। ३. शांत होना।
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धिषण  : पुं० [सं०√धृष् (दबाना)+क्यु—अन, धिषादेश] १. बृहस्पति। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. गुरु। शिक्षक।
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धिषणा  : स्त्री० [सं० धिषण+टाप्] १. बुद्धि। अक्ल। २. प्रशंसा। स्तुति। ३. वाकशक्ति। वाणी। ४. पृथ्वी। ५. जगह। स्थान।
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धिषणाधिप  : पुं० [सं० धिषणा-अधिप ष० त०] बृहस्पति।
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धिष्ट्य  : पुं० [सं०=धिष्ण्य नि० णकोट] १. स्थान। जगह। २. घर। मकान। ३. नक्षत्र। ४. अग्नि। आग। ५. बल। शक्ति। ६. शुक्राचार्य का एक नाम।
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धिष्ण्य  : पुं० [सं०√धृष्+ण्य नि० ऋ को इ] १. जगह। स्थान। २. घर। मकान ३. अग्नि। आग। ४. नक्षत्र। ५. शक्ति। ६. शुक्र ग्रह। ७. शुक्राचार्य। ८. तारा। ९.एक प्रकार की उल्का।
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धी  : स्त्री० [सं०√ध्यै (चिन्तन)+क्विप् सम्प्रसारण] १. बुद्धि। अकल। समझ। २. मन। ३. कर्म। ४. कल्पना। ५. विचार। ६. भक्ति। ७. यज्ञ। ८. न्याय-बुद्धि। ९.जन्म कुंडली में लग्न से पाँचवाँ स्थान। स्त्री० [सं० दुहिता, प्रा० धीया] पुत्री। बेटी।a
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धी-पति  : पुं० [सं० ष० त०] बृहस्पति।
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धीआ  : स्त्री०=धी (पुत्री)।a
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धींग  : वि० [सं० दृढांग] १. हट्टा-कट्टा। हृष्ट-पुष्ट। २. ताकतवर। बलवान। ३. दृढ़। पक्का। मजबूत। ४. दुष्ट। पाजी। ५. खराब। बुरा। ६. कुमार्गी। दुराचारी।
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धीग  : पुं०, वि०=धींगड़ा।a
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धींग-धुकड़ी  : स्त्री० [हिं० धींग] १. धींगा-मस्ती। २. दुष्टता। पाजीपन। ३. शरारत।
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धींगड़  : पुं०, वि०=धींगड़ा।
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धींगड़ा  : वि० [सं० डिंगर] [स्त्री० धींगड़ी] १. मोटा-ताजा। हट्टा-कट्टा। २. दुष्ट। पाजी। शरारती। ३. दोगला। वर्ण-संकर। पुं० १. गुंडा। २. स्त्री का उपपति। जार। यार।
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धींगरा  : पुं०=धींगड़ा।
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धींगा  : वि०, पुं०=धींगड़ा।
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धींगा-धींगी  : स्त्री० [हिं० धींग] १. ऐसी उठा-पटक या लड़ाई-झगड़ा जो उपद्रवी या दुष्ट हट्टे-कट्टे लोगों में होता है। २. उपद्रव। धम। ३. दो पक्षों में होनेवाली ऐसी छीना-झपटी या लड़ाई-झगड़ा जिसमें जबरदस्ती या बल-प्रयोग होता हो। ४. अपना काम निकालने के लिए अनुचित रूप में की जाने वाली ऐसी जबरदस्ती जिसमें अपनी चालाकी या शक्ति का भी उपयोग किया जाता हो। जैसे—वे धींगा-धींगी करके हमारे हिस्से की चीजें भी उठा ले गये।
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धींगा-मस्ती  : स्त्री०=धींगा-मुश्ती।
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धींगा-मुश्ती  : स्त्री० [हिं० धींगा+फा० मुश्त=मुट्ठी] ऐसा उपद्रव या ऊधम जिसके साथ कुछ घूँसे-थप्पड़ भी चलें या मारपीट भी हो। हाथा-बाहीं। उदा०—बस, चलो बैठो परे, वर्ना बुरी तरह हो जाएगी। धींगा-मुश्ती में मेरी अँगिया की चोली चल गई।—नजीम।
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धीजना  : स० [सं० धृ०, धार्य, धैर्य] १. ग्रहण या स्वीकार करना। अंगीकार करना। २. प्रतीति या विश्वास करना। उदा०—उज्ज्वल देखिन धीजिए बग ज्यों माँडे ध्यान।—कबीर। अ० १. धैर्य से युक्त होना। धीर बनना। २. बहुत प्रसन्न होना। ३. शांत या स्थिर होना। उदा०—चित भूल तो भूलत नाहिं सुजान जु चंचल ज्यौं कछु धीजत है।—घनानंद।
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धीठ  : विं०=ढीठ।a
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धीत  : भू० कृ० [सं०√धे (पीना)+क्त] [भाव० धीति] १. जो पिया गया हो। २. जिसका अनादर या तिरस्कार हुआ हो। ३. जिसका आराधन किया गया हो। ४. जो संतुष्ट किया गया हो।
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धीति  : स्त्री० [सं०√धे+क्तिन्] १. पान करने की क्रिया। पीना। २. पिपासा। प्यास। ३. विचार। ४. आराधन। ५. संतुष्ट करना। तोषण।
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धीदा  : स्त्री० [सं०] १. बुद्धि। २. कुँआरी लड़की। ३. पुत्री। बेटी। ४. कुमारी कन्या।
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धींद्रिय  : स्त्री० [सं० धी-इंद्रिय मध्य० स०] १. वह इंद्रिय जिससे चीजों और बातों का ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञानेन्द्रिय। २. अक्ल। बुद्धि।
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धीन  : पुं० [डिं०] लोहा।
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धीनक  : पुं० [स० धन्याक, पृषो० सिद्धि] १. धनियाँ। २. एक रत्ती का चौथाई भाग। पु० [सं० धानुष्क] १. धनुर्धर। २. रूई धुननेवाला। धुनिया। ३. एक पहाड़ी जाति।
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धीम  : वि०=धीमा।a
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धीमर  : पुं०=धीवर।
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धीमा  : वि० [सं० मध्यम से वर्ण व०] [स्त्री० धीमी] १. जिसकी गति में तेजी न हो। ‘तेज’ का विपर्याय। २. जो अपनी साधारण चाल या वेग की अपेक्षा धीरे-धीरे या कम वेग से चल रहा हो। ३. जिसमें तीव्रता, तेजी या प्रचंडता बहुत कम हो। जिसमें प्रखरता न हो। ‘तेज’ का विपर्याय। जैसे—आग (या बत्ती) धीमी कर दो। ४. जो अप्रतिभ या निस्तेज हो गया हो। जैसे—अब वे पहले से बहुत धीमे पड़ गये हैं। क्रि० प्र०—पड़ना।
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धीमा तिताला  : पुं० [हिं० धीमा+तिताला] संगीत में १ ६ मात्राओं का एक ताल जिसमें तीन आघात और एक खाली होता है।
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धीमान (मत्)  : पुं० [सं० धी+मतुप्] [स्त्री० धीमती] १. ब्रहस्पति। २. बुद्धिमान्।
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धीमे  : अव्य० [हिं० धीमा] १. धीरे-धीरे हलकी गति या वेग से। जैसे—गाड़ी धीमे चल रही है। २. मंद स्वर में। जैसे—धीमे बोलो।a
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धीय  : स्त्री० [सं० दुहिता] पुत्री। बेटी। पुं० जामाता। दामाद। (डिं०)a
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धीयड़  : स्त्री०=धी (बेटी)। उदा०—थारी धीयड़ि ने परदेस दीजौ।—राज० लोक-गीत।
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धीया  : स्त्री० [सं० दुहिता, प्रा० धीदा, धीया] पुत्री। बेटी।
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धीर  : वि० [सं० धी√रा (देना)+क] १. (व्यक्ति) जो शांत स्वभाव वाला हो तथा जो विपरीत परिस्थितियों में भी जल्दी उद्विग्न या विचलित न होता हो। २. ठहरा हुआ। ३. बलवान्। शक्तिशाली। ४. नम्र। विनीत। ५. गंभीर। ६. मनोहर। सुन्दर। ७. धीमा। पुं० १.केसर। २. मंत्र। ३. समुद्र। ४. पंडित। विद्वान। ५. ऋषभ नाम की औषधि। ६. राजा बलि का एक नाम। ७. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में कृमशः तीन तगड़ और दो गुरु होते हैं। पुं० [सं० धैर्य] १. धैर्य। धीरज। २. मन की शांति या स्थिरता। ३. संतोष। सब्र। क्रि० प्र०—धरना।
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धीर-चेता (तस्)  : पुं० [ब० स०] दृढ़ तथा स्थिर चित्तवाला।
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धीर-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] जमीकंद।
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धीर-प्रशांत  : पुं०=धीर-शांत।
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धीर-ललित  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में, वह नायक जो हँसमुख और कोमल स्वभाववाला हो, विभिन्न कलाओं से प्रेम करता हो और सुखी तथा संपन्न हो। जैसे—स्वप्नवासवदत्ता का नायक उदयन।
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धीर-शांत  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में, वह नायक जिसमें सभी सामान्य गुण हों अर्थात जो दयालु, वीर, शांत और सुशील हो। जैसे—‘मालती माधव’ का नायक माधव।
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धीरक  : पुं०=धीरज (धैर्य)।b
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धीरज  : पुं०=धैर्य।a
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धीरजमान  : पुं०=धैर्यवान्।
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धीरट  : पुं० [?] हंस पक्षी। (डिं०)
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धीरता  : स्त्री० [सं० धीर+तल—टाप्] १. धीर होने की अवस्था, गुण या भाव। धैर्य २. स्थिरता। ३. संतोष। सब्र। ४. चातुर्य। चालाकी। ५. पांडित्य। विद्वता।
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धीरत्व  : पुं० [सं० धीर+त्व]=धीरता।
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धीरा  : स्त्री० [सं० धीर+टाप्] १. साहित्य में वह नायिका जो अपने प्रेमी के शरीर पर स्त्री-रमण के चिह्न देखकर शांत भाव से व्यंग्यपूर्ण शब्दों से कोप प्रकट करे। २. गिलोय। गुडुच। ३. काकोली। ४. मालकंगनी। वि०=धीमा।a पं०=धीरज।a
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धीराधीरा  : स्त्री० [धीरा-अधीरा कर्म० स०] साहित्य में, वह नायिका जो अपने नायक के शरीर पर परस्त्री रमण के चिह्न देखकर कुछ गुप्त और कुछ प्रकट रूप से रोष प्रकट करती हो।
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धीरावी  : स्त्री० [सं० धीर√अव् (प्रसन्न करना)+अण्—ङीप्] शीशम का पेड़।
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धीरी  : स्त्री [?] आँख की पुतली।
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धीरे  : क्रि० वि० [हिं० धीर] १. धीमी या मंद गति से। आहिस्ता। २. नीचे या हलके स्वर में। जैसे—बालिका धीरे बोलती है। ३. इस ढंग या प्रकार से कि जल्दी किसी को पता न चले। चुपके से। जैसे—वह धीरे से कपड़ा उठाकर चल दिया।
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धीरे-धीरे  : अव्य० [हिं०] १. हलकी चाल से। २. मंद स्वर में। ३. समीचीन गति से। जैसे—यह काम धीरे-धीरे करना चाहिए।
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धीरोदात्त  : पुं० [धीर-उदात्त कर्म० स०] १. साहित्य में, वह नायक जो अपनी भावनाओं पर पूर्ण नियंत्रण रखता हो तथा जो क्षमावान, गम्भीर, दृढ़-प्रतिज्ञ और विनयी हो। जैसे—रामचरित का नायक। २. वीर रस प्रधान नाटक का मुख्य नायक।
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धीरोद्धत  : पुं० [सं० धीर-उदात्त कर्म० स०] साहित्य में, वह नायक जो बहुत असहिष्णु, उग्र स्वभाव का तथा सदा अपने गुणों का बखान करता रहता हो।
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धीरोष्णि (ष्णिन्)  : पुं० [सं०] एक विश्वदेव।
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धीर्य  : पुं० [सं० धीर+यत्] कातर। पुं०=धैर्य।
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धीलटि, धीलटी  : स्त्री० [सं० धी√लट् (बच्चा बनना)+इन्] पुत्री। बेटी।
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धींवर  : पुं०=धीवर।
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धीवर  : पुं० [सं०√धा (धारण)+ष्वरच्] [स्त्री० धीवरी] १. एक जाति जो प्रायः नाव खेने, मछली पकड़ने और मछली बेचने का काम करती है। मछुआ। मल्लाह। केवट। २. पुराणानुसार एक प्राचीन देश। ३. उक्त देश का निवासी। ४. काले रंग का आदमी। ५. नौकर। सेवक।
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धीवरी  : स्त्री० [सं० धीवर+ङीष्] १. धीवर जाति की स्त्री। मल्लाहिन। २. मछली फँसाने की कटिया या बंसी।
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धीहड़ी  : स्त्री०=धी (बेटी)। उदा०—माई कहै सुन धीहड़ी।—मीराँ।a
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धु  : स्त्री० [सं०] कपन
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धुअ  : वि०, पुं०=ध्रुव।a
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धुँआँ  : पुं० = धूआँ।
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धुआँ  : पुं०=धूआँ।
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धुआँ  : पुं०=धूआँ (शव)।
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धुआँ  : पुं० [सं० धूम] १. काले या नीले रंग का वह वातीय पदार्थ जो किसी चीज के जलने पर उसमें से निकल कर ऊपर चढ़ता है और हवा के साथ इधर-उधर फैलता है। धूम। क्रि० प्र०—उठना।—देना।—निकलना। पद—धूएँ का धौरहर=ऐसी चीज या बात जो धुएँ की तरह थोड़ी देर में नष्ट हो जाए। अस्थायी और क्षणभंगुर चीज या बात। धुएँ के बादल=(क) ऐसे बादल जो देखने भर को हों पर जिनसे वर्षा न हो। (ख) कोई ऐसी चीज जो देखने में बहुत बड़ी जान पड़े पर जिसमें सार कुछ भी न हो। मुहा०—(किसी चीज का) धूआँ देना=जलने पर किसी चीज का अपने अंदर से धूआँ निकालना। जैसे—यह कोयला (या तेल) बहुत धूआँ देता है। (किसी चीज को दूसरी चीज का) धूआँ देना=कोई चीज जलाकर उसका धूआँ किसी दूसरी चीज पर लगाना। धुएँ के प्रभाव से युक्त करना। जैसे—(क) सिर के बालों को गूगल (या धूप) का धूआँ देना। (ख) बवासीर के मस्सों को बायविडंग का धुआँ देना (ग) किसी की नाक में मिरचों का धूआँ देना। (अपने अन्दर का) धुआँ निकालना= (क) मन में दबा हुआ कष्ट या रोष अपनी बातों से प्रकट करना। मन की भड़ास निकालना। (ख) अपने संबंध में बहुत बढ़-बढ़कर बातें करना। डींग या शेखी हाँकना। धुएँ के बादल उड़ाना=बिलकुल निरर्थक और व्यर्थ की बातें कहकर बहुत बड़ा आडम्बर खड़ा करना। झूठ-मूठ की बहुत बड़ी बड़ी बातें खड़ी करना या बनाना। धुएँ-सा मुँह होना या मुँह धुआँ होना=ग्लानि, लज्जा आदि के कारण चेहरे का रंग काला या फीका पड़ना। चेहरे की रंगत उड़ जाना। २. किसी चीज के उड़नेवाले ऐसे बहुत-से कण जो धुएँ की तरह चारों ओर फैलते हों। पद—धूआँ-धार। (देखें स्वतंत्र शब्द) ३. किसी चीज या बात की उड़ती हुई धज्जियाँ या धुर्रे। मुहा०—(किसी चीज के) धूएँ उड़ाना या बिखेरना= छिन्न-भिन्न या नष्ट-भ्रष्ट करना। धज्जियाँ या धुर्रे उड़ाना। ४. मृत शरीर। लाश। शव। उदा०—धूआँ देखि खर-दूषन केरा। आइ सुपनखा रावन प्रेरा।—तुलसी।
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धुआँकश  : पुं०=धूआँकश।
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धुआँदान  : पुं०=धूआँदान।
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धुआँधार  : वि० क्रि०, वि०=धूआँधार।
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धुआँना  : अ० [हिं० धूआँ+ना (प्रत्य०)] अधिक या निरंतर धुआँ लगने के कारण किसी चीज का रंग काला पड़ जाना और उसमें से धुएँ की गंध या स्वाद आना। जैसे—खीर या दूध का धुँआना। स० अधिक धुआँ लगकर किसी चीज या धुएँ की गंध या स्वाद से युक्त करना।
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धुआँना  : अ०=धुँआना।
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धुँआयँध  : वि० [हिं० धुआँ+गंध] जिसमें धूएँ की महक आ गई हो। धुएँ की तरह महकने वाला। जैसे—धुँआयँध डकार आना। स्त्री० १. धुएँ के कारण उत्पन्न होने वाली गंध। २. अन्न न पचने की दशा में, पेट के अंदर धुँआ से उठने की अनुभूति।
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धुआँयँध  : वि०, स्त्री०=धुआँयँध।
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धुँआरा  : वि० [हिं० धूआँ] धूएँ के रंग का काला। धूमिल। पुं० छत में धूआँ निकलने के लिए बना हुआ छेद या नल। चिमनी। वि०=धुँधला।a
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धुँआँस  : स्त्री०=धुवाँस।
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धुआँस  : पुं०=धुवाँस।
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धुँआँसा  : पुं० [हिं० धूआँ] बहुत अधिक धूआँ लगने के कारण जमने वाली कालिख।a वि० धुएँ की गंध या स्वाद से युक्त।
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धुँई  : स्त्री०=धूनी।a
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धुईं  : स्त्री०=धूनी।
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धुक  : स्त्री० [देश०] कलाबत्तू बटने की सलाई।
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धुकड़-पुकड़  : स्त्री० [अनु०] १. भय आदि की आशंका से होनेवाली मन की वह स्थिति जिसमें रह-रहकर कलेजे में हलकी धड़कन होती हो। २. आगा-पीछा। असमंजस।
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धुकड़ी  : स्त्री० [देश०] छोटी थैली। बटुआ। स्त्री०=धुकड़-पुकड़।
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धुकंता  : वि० [हिं० धुकना=दहकना] [स्त्री० धुकंती] धुकता अर्थात दहकता हुआ।a
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धुकंती  : स्त्री० [हिं० धुकना=दहकना] मन में निरंतर होता रहनेवाला बहुत अधिक मानसिक कष्ट या संताप।a
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धुकधुकी  : स्त्री० [अनु०] १. पेट और छाती के बीच का भाग जो कुछ गहरा-सा और छोटे गड्ढे की तरह होता है। २. कलेजा। हृदय। ३. भय, संकोच आदि के कारण होने वाली कलेजे या हृदय की धड़कन। ४. डर। भय। क्रि० प्र०—लगना। ५. गले में पहनने का एक प्रकार का गहना जिसका लटकन छाती के बीचवाले भाग पर पड़ता है।
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धुकना  : अ० [हिं० झुकना] १. नीचे की ओर ढलना। झुकना। २. गिरना। ३. वेगपूर्वक किसी ओर या किसी पर झपटना। टूट पड़ना। अ० [हिं० धुकधुक] धुक-धुक करना। धड़कना। स० [सं० धूम+करना] धूनी देना।a अ० १.=दहकना। २.=धुकरना।
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धुकनी  : स्त्री० १.=धौंकनी। २.=धूनी।a
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धुकरना  : अ० [अनु०] धुक-धुक शब्द होना।a
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धुकान  : स्त्री० [हिं० धुकना] १. धुकने की क्रिया या भाव। २. आक्रमण। चढ़ाई। उदा०—सैयद समर्थ भूप अली अकबर दल, चलत बजाय मारू दुंदुभी धुकान की।—गुमान। स्त्री०= धुकार।a
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धुकाना  : स० [हिं० धुकना] १. झुकना। नवाना। २. गिरना। ३. ढकेलना। ४. पछाड़ना। पटकना। ५. दहकाना। सुलगाना। ६. धूनी देना।
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धुँकार  : पुं० [सं० ध्वनि कार] जोर का शब्द। गड़गड़ाहट।
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धुकार  : स्त्री० [धू से अनु०] १. जोर का शब्द। २. नगाड़े का शब्द।
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धुँकारना  : अ० [हिं० धुँकार] हुंकारना।
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धुकारी  : स्त्री०=धुकार।
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धुक्कन  : स्त्री०=धुकार।a
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धुक्कना  : अ०=धुकना।
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धुक्कारना  : स०=धुकाना।
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धुगधुगी  : स्त्री०=धुकधुकी।a
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धुँगार  : स्त्री०=बघार (छौंक या तड़का)।
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धुँगारना  : स० [हिं० धुँगार] १. खाने की चीज में तड़का देना। छौंकना। बघारना। २. अच्छी तरह मारना-पीटना।
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धुंज  : वि०=धुँधला।a पुं०=धुंध।
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धुज  : पुं०=ध्वज। स्त्री०=ध्वजा।a
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धुजा  : स्त्री०=ध्वजा।a
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धुजानी  : स्त्री० [सं० ध्वजिनी] सेना।a
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धुजिनी  : स्त्री०=धुजानी।
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धुडंगा  : वि० [हिं० धूर+अंगी] [स्त्री० धुड़ंगी] १. जिसके शरीर पर धूल ही धूल हो, वस्त्र न हो। नंगा-धड़ंगा। २. जिस पर धूल पड़ी हो।
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धुड़ंगी  : वि०=धुड़ंगा।a
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धुड़ी  : स्त्री०=धूल।a
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धुत  : अव्य०=दुत।a
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धुतकार  : स्त्री०=दुतकार।
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धुतकारना  : स्त्री०=दुतकारना।
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धुताई  : स्त्री०=धूर्तता।b
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धुतारा  : वि० [स्त्री० धुतारी]=धूर्त।b
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धुतू  : पुं०=धूतू।a
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धुतूरा  : पुं०=धतूरा।a
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धुत्त  : वि० [अनु०] नशे में चूर। बेसुध। अव्य०=धुत (दुत)।a
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धुत्ता  : पुं० [सं० धूर्तता] १. धूर्तता। २. कपट। छल। दगाबाजी।a मुहा०—(किसी को) धुत्ता देना या बताना=कपट, छल या धूर्तता का व्यवहार करके किसी को दूर हटाना। स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।
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धुंद  : पुं० १.=धुंध। २. दुंद (द्वन्द्व या द्वंद्व)।
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धुंदुल  : पुं० [देश०] एक तरह का मझोले कद का पेड़।
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धुंध  : पुं० [सं० धूम्र-अंध] १. वह स्थिति जिसमें धुँधलापन हो। २. गरदे और धूल से भरी हुई हवा चलने के कारण वातावरण में छाने वाला अँधेरा। पद—अंधाधुंध। (देखें) ३. हवा में उड़ती हुई धूल ४. आँख का एक रोग जिसमें दृष्टि या देखने की शक्ति कम हो जाती है और आकृतियाँ, चीजें आदि धुँधली दिखाई देने लगती हैं।
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धुंधक  : पुं०=धुंध।a
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धुंधका  : पुं० [हिं० धुआँ] दीवार, छत आदि में का वह छेद या मार्ग जिसमें होकर धूआँ कमरे आदि से बाहर निकलता हो।
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धुंधकार  : पुं० [हिं० धुंकार] १. गरज। गड़गड़ाहट। धुंकार। २. अंधकार। अँधेरा।
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धुंधकार  : पुं० [हिं० धुंधु+कार] १. अंधकार। अँधेरा। २. धुँधलापन। ३. नगाड़ा बजने का शब्द। ४. आग के धू-धू करके जलने का शब्द।
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धुंधमार  : पुं०=धुंधुमार।
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धुंधमाल  : पुं०=धुंधुमार।a
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धुंधर  : स्त्री० [हिं० धुंध] १. हवा के साथ उड़ने वाली धूल। गरदा। गुबार। २. उक्त प्रकार की धूल के कारण छानेवाला अँधेरा
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धुँधरा  : वि० [स्त्री० धुँधरी]=धुंधला।
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धुँधराना  : अ०, स०=धुँधलाना।
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धुँधरी  : स्त्री० [हिं० धुँधरी] १. गर्द-गुबार से उत्पन्न अँधेरा। २. धुँधला-पन। ३. आँख का धुंध नामक रोग।
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धुँधरी  : स्त्री०=धुँधरी।a
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धुँधलका  : वि० [हिं० धुँधला]=धुँधला। पुं० वह समय या स्थिति जिसमें धुँआ प्रकाश हो। जैसे—सायंकाल का धुंधलका। पद—धुँधलके का समय=सबेरे या संध्या का समय जिसमें चीजें स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देतीं।
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धुँधला  : वि० [हिं० धुंध+ला] [स्त्री० धुँधली] १. धुंध से भरा हुआ। २. धूएँ की तरह का, कुछ-कुछ काला। ३. (नेत्र) जिसमें धुंध नामक राग होने के कारण चीजें अस्पष्ट दिखाई पड़ती हों। ४. (दर्पण) जिसकी चमक खराब हो जाने के कारण प्रतिबिंब स्पष्ट रूप से दिखाई न पड़े। ५. लाक्षणिक अर्थ में, (बात) जो अब ठीक-ठाक स्मरण न हो। जैसे—धुँधली स्मृतियाँ।
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धुँधलाई  : स्त्री०=धुँधलापन।a
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धुँधलाना  : अ० [हिं० धुँधला] धुँधला सा पड़ना या होना। स० धुँधला करना।
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धुँधलापन  : पुं० [हिं० धुँधला+पन] धुँधले या स्पष्ट होने की अवस्था या भाव।
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धुँधली  : स्त्री०=धुंध।a
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धुँधाना  : अ० [हिं० धुंध] धुँधला पड़ना या होना। स० धुँधला करना।
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धुंधार  : वि० १.=धुँधला। २. धूआँधार।
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धुंधि  : स्त्री०=धुंध।
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धुँधियारा  : वि०=धुंधला।
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धुंधु  : पुं० [सं०] एक राक्षस जो मधु नामक राक्षस का पुत्र था।
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धुंधुआना  : अ० [सं० धूम्र, हिं० धुआँ] इस प्रकार जलना कि खूब धुआँ उठे। धुआँ देते हुए जलना। स० इस प्रकार जलाना कि खूब धुआँ उठे।
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धुधुकार  : स्त्री० [धू धू से अनु०] १. धू-धू का-सा जोर का शब्द, जैसा आग जलने पर होता है। २. जोर का शब्द। गड़गड़ाहट। गरज। उदा०—सीमा पर बजने वाले धौंसों की अब धुधुकार नहीं।—दिनकर।
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धुधुकारी  : स्त्री०=धुधुकार।
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धुधुकी  : स्त्री० १.=धुधुकार। २.=धुकधुकी।a
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धुंधुमार  : पुं० [सं० धुंधु√मृ (मरना)+णिच्+अण] १. राजा त्रिशंकु का पुत्र। २. कुवलयाश्व का एक नाम।
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धुंधुराना  : अ०, स०=धुँधुआना।a
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धुंधुरित  : वि० [हिं० धुँधुर] १. धुँधला। २. धूमिल।
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धुँधेरी  : स्त्री०=धुँधरी।
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धुँधेला  : वि० [हिं० धुंध+ऐला (प्रत्य०)] १. दुष्ट। पाजी। २. धोखे-बाज। वि०=धुँधला।a
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धुन  : पुं० [सं०] १. आवाज या शब्द करना। २. रह-रहकर हिलना। काँपना। ३. सम्पूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। स्त्री० [हिं० धुनना, मि० स० धुन] १. धुनने की क्रिया या भाव। २. कोई विशिष्ट काम प्रायः करते रहने की स्वभावजन्य प्रवृत्ति या मनोदशा। ऐसी लगन जिसमें उद्देश्य को छोड़कर और किसी बात का ध्यान न रहे। जैसे—(क) आज-कल उन्हें नई-नई पुस्तकें पढ़ने (या रुपये कमाने की) धुन है। (ख) रामधुन लागी, गोपाल-धुन लागी।—लोकगीत। पद-धुन का पक्का=वह जो अपनी धुन से सहसा विरत न हो। कोई काम आरंभ करने पर उसे बिना पूरा किये न छोड़नेवाला अथवा बार-बार करता रहनेवाला। २. किसी काम या बात की ओर जाग्रत होने वाली प्रबल प्रवृत्ति। मन की तरंग या मौज। जैसे—जब धुन आई (या उठी) तब घूमने निकल पड़े। ३. किसी काम या बात का ऐसा चिंतन या मनन जो और कामों या बातों की ओर से ध्यान बिलकुल अलग कर दे। जैसे—आज-कल न जाने वे किस धुन में रहते हैं कि जल्दी लोगों से बात ही नहीं करते। क्रि० प्र०—चढ़ना।—लगना।—समाना।—सवार होना। (उक्त सभी अर्थों में) ४. संगीत में कोई चीज गाने या बजाने का वह विशिष्ट ढंग या प्रकार या शैली जिसमें स्वरों का उतार-चढ़ाव अन्य प्रकारों या शैलियों से बिलकुल अलग और निराला होता है। जैसे—(क) रामायण की चौपाइयाँ अनेक धुनों में गायी जाती हैं। (ख) यह गजल सोहिनी की धुन में भी गायी जाती है और भैरवी की धुन में भी।
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धुनक  : स्त्री० [हिं० धुनकना] धुनकने की क्रिया या भाव। पुं०=धनुष।a
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धुनकना  : स०=धुनना।
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धुनकी  : स्त्री० [सं० धनुस, हिं० धुनकना] १. लड़कों के खेलने का छोटा धनुष। २. धुनियों का एक प्रकार का प्रसिद्ध उपकरण, जिससे वे रुई धुनते हैं। पिंजा। फटका।
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धुनना  : स० [सं० धूननं] १. धुनकी की सहायता से रुई पर इस प्रकार बार-बार आघात करना कि उसके तार या रेशे अलग-अलग हो जाएँ और बिनौले निकल जाएँ। विशेषः अब मशीनों द्वारा भी रुई धुनी जाने लगी है। २. लाक्षणिक अर्थ में इस प्रकार निरन्तर आघात या प्रहार करना जिससे किसी को अत्यधिक शारीरिक कष्ट हो। मुहा०—सिर धुनना= दे० ‘सिर’ के अन्तर्गत। संयो० क्रि०—डालना।—देना। स० [हिं० धुन] १. धुन में आकर अपनी ही बात कहते चलना। २.कोई काम लगातार करते चलना। अ० [?] १. अधिकता या बहुतायत होना। २. ऊपर या चारों ओर से घिर आना। आच्छादित होना। छाना। उदा०—धामधाम धूपनि कौ धूम धुनियतु है।—देव।
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धुनवाई  : स्त्री० [हिं० धुनवाना] १. धुनवाने की क्रिया या भाव या मजदूरी। २. दे० ‘धुनाई’
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धुनवाना  : स० [हिं० धुनना] १. धुनने का काम किसी दूसरे से कराना। जैसे—रुई धुनवाना। २. खूब पिटवाना। मार खिलवाना।
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धुनवी  : स्त्री०=धुनकी।a
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धुना  : पुं०=धुनियाँ।a
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धुनाई  : स्त्री० [हिं० धुनना] धुनने की क्रिया या भाव या मजदूरी।
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धुनि  : स्त्री० [सं०√धु (कंपन)+नि] नदी। स्त्री० १.=ध्वनि। २.=धूनी।a
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धुनियाँ  : पुं० [हिं० धुनना] [स्त्री० धुनियाइन] वह व्यक्ति जो धुनकी की सहायता से रूई धुनने का काम या पेशा करता हो। बेहना।
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धुनिहाव  : पुं० [?] हड्डी में का दर्द।a
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धुनी  : स्त्री० [सं० धुनि+ङीष्] नदी। पद—सुर-धुनी। (दे०) स्त्री० १.=ध्वनि। २.=धूनी।a
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धुनेचा  : पुं० [देश०] सन की जाति का एक पौधा, जो बंगाल में काली मिर्च की बेलों पर छाया रखने के लिए लगाया जाता है।
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धुनेना  : पुं०=धूपदानी।a
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धुनेहा  : पुं०=धुनियाँ।a
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धुप-धूप  : वि० [हिं० धूप] १. साफ। स्वच्छ। २. उज्ज्वल। चमकीला।
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धुपना  : अ० [हिं० धूप] धूप आदि के धुएँ से सुगंधित किया जाना या होना। अ० [सं० धूपन=श्रांत होना] १. दौड़ना। २. हैरान होना। जैसे—दौड़ना-धुपना (धूपना)। अ०= धुलना। (पश्चिम)a
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धुपाना  : स० [हिं० धूप=सुगंधित द्रव्य] धूप आदि के सुगंधित धुएँ से बासना। स० [हिं० धूपना] किसी को धूपने में प्रवृत्त करना। स० [हिं० धूप] सुखाने के लिए धूप में रखना या धूप दिखाना। स०=धुलवाना।a
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धुपेली  : स्त्री० [हिं० धूप+एला (प्रत्य०)] धूप में अधिक घूमने अथवा गरमी के प्रभाव के कारण निकलनेवाले छोटे-छोटे दाने। पित्ती।
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धुप्पल  : स्त्री० [हिं० धोपा=धोखा] १. अपना काम निकालने के लिए किसी को आतंकित करते हुए दिया जानेवाला धोखा। धुप्पस। (ब्लफ) २. छल। धोखा।
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धुप्पस  : स्त्री०=धुप्पल।a
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धुबला  : पुं० [?] घाघरा। लहँगा।
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धुमई  : वि० [धूम्र+ई (प्रत्य०)] धुएँ के रंग का।a स्त्री० एक प्रकार का रंग जो देखने में धुएँ जैसा होता है। पुं० उक्त रंग का बैल, जो प्रायः बैलों की अपेक्षा अधिक सशक्त होता है।
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धुमरा  : वि० = धुआरा (धूमिल)।a
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धुमला  : वि० [सं० धूम्र+ला (प्रत्य०)] १. धूमिल। २. अंधा। (क्व०)a
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धुमलाई  : स्त्री०=धुमिलाई।a
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धुमारा  : वि०=धुआँरा।a
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धुमिलना  : स० हिं० धूमिल+आना (प्रत्य०)] १. धूमिल करना। २. धुँधला करना। अ० १. धूमिल होना। २. धुँधला होना। मंद पड़ना।b
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धुमिला  : वि०=धूमिल।a
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धुमिलाई  : स्त्री० [हिं० धूमिल+आई (प्रत्य०)] १. धूमिल होने की अवस्था या भाव। २. धुँधलापन। ३. अंधकार। अंधेरा।a
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धुमिलाना  : अ० [हिं० धूमिल] १. धूमिल होना। २. काला पड़ना। स०=धूमिल करना।
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धुमैला  : वि०=धूमिल।
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धुम्मर  : वि०=धूमिल।b पुं०=धूम्र (धूआँ)।
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धुर  : पुं० [सं०√धुर्वी+क] १.गाड़ी या रथ आदि का धुरा। अक्ष। २. ऊँचा और श्रेष्ठ स्थान। ३. बोझ। भार। ४. गाड़ी का धुरा। ५. बैलों के कंधे पर रखने का जुआ। ६. जमीन की एक नाप जो बिसवे के बीसवें भाग के बराबर होती है। धूर। बिस्वांसी। अव्य० [सं० धुर् या ध्रुव] एक अव्यय जो कई प्रकार के प्रयोगों में किसी नियत स्थान की अंतिम सीमा या सिरा सूचित करता है। ठेठ। जैसे—धुर ऊपर की छत। उदा०—(क) मोती लादन पिय गये, धुर पाटन गुजरात।—गिरधर। (ख) हमको तो सोई लखे जो धुर पूरब का होय।—कबीर। पद—धुर का=हद दरजे का। परम। धुर सिर से=बिलकुल आरंभ से। धुर से=धुर सिर से। वि० [सं० ध्रुव] १. दृढ़। पक्का। २. ठीक। दुरुस्त। पुं० [?] बीच। मध्य। स्त्री०=धरा (पृथ्वी)। उदा०—अज्ज गहौं प्रथिराज, बोल बुलंत गजंत धुरा।—चंदवरदाई।
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धुर-किल्ली  : स्त्री० [हिं० धुरा+कील] गाड़ी में वह कील जो धुरी की आँक में अटकाने के लिए अन्दर की ओर धुरी के सिरे पर लगी रहती है।
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धुरई  : स्त्री० [हिं० धुर] कुएँ के खंबे आदि के बीच में आड़े टिकाए हुए वे दोनों बाँस या लकड़ियाँ, जिनके नीचे वाले सिरे आपस में सटकर मजबूती से बँधे रहते थे।a
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धुरकट  : पुं० [हिं० धुर=सिर (आरंभ)+कट=कटौती] वह लगान जो असामी अपने जमींदार को जेठ में पेशगी देते थे।
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धुरचुट  : स्त्री० [?] अधिकता। प्रचुरता।a
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धुरजटी  : पुं०=धूर्जटी (शिव)।
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धुरड्डी  : स्त्री०=धुलेंडी।a
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धुरंधर  : वि० [सं० धुर√धृ (धारण)+खच्, मुम्] १. धुर अर्थात जुआ धारण करनेवाला। २. भार आदि से लदा हुआ। ३. जो बहुत अच्छे गुण या विद्याएँ धारण किये हो। किसी विषय में औरों से बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा श्रेष्ठ। जैसे—धुरंधर पंडित। ४. प्रधान। मुख्य। पुं० १. वह, जो बोझा ढोता हो। २. ऐसा पशु जिसपर बोझ लादा जाता हो। ३. एक राक्षस जो प्रहस्त का मंत्री था। ४. धौ का पेड़। धव।
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धुरना  : स० [सं० धूवर्ण] १. मारना-पीटना। २. बाजों आदि के संबंध में आघात करते हुए बजाना। ३. कोदों, धान आदि के सूखे डंठलों का भूसा बनाने के लिए उसे दाँना।
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धुरपद  : पुं०=ध्रुपद।a
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धुरमुट  : पुं०=दुरमुस।a
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धुरवा  : पुं० [सं० धुर्+वाह] बहुत दूरी पर दिखाई पड़नेवाला धुँधला बादल। उदा०—धुरवा होहि न अलि इहै धुआँ चहुँ ओर।—बिहारी।a
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धुरा  : पुं० [सं० धुर-टाप्] [स्त्री० धुरी] १. लकड़ी या लोहे का वह छड़ या डंडा जो पहियों की गराड़ी के बीचोबीच रहता है और जिसके सहारे ठहरा रहकर पहिया चारो ओर घूमता है। अक्ष। (एक्सिस) २. वह मुख्य या मूल आधार जिसके सहारे कोई चीज ठहरी रहती है और चक्कर लगाती या आपना काम करती है। पुं० [सं० धुरः] १. बोझ ढोने वाला पशु। २. बोझ। भार।
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धुरिया मलाल  : पुं०=धूरिया मलार।
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धुरिया-धुरंग  : वि० [?] १. जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। २. जिसके साथ उसके आवश्यक अंग-उपांग न हो। ३. (गीत) जिसके साथ कोई बाजा या साज न बजता हो।
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धुरियाना  : स० [हिं० धूर] १. किसी वस्तु को धूल से ढकना या युक्त करना। किसी वस्तु पर धूल डालना। २. ऊख का खेत पहले-पहल गोड़ना। ३. किसी कलंक, खराबी या बुराई पर धूल या मिट्टी डालना; अर्थात उसे दबाना और फैलने न देना। अ० १. किसी चीज का धूल पड़ने के कारण दबना या मैला होना। २. ऊख के खेत का पहले-पहल गोड़ा जाना। ३. कलंक, दोष आदि का छिपाया या दबाया जाना।
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धुरी  : स्त्री० हिं० ‘धुरा’ का स्त्री० अल्पा० रूप (दे० ’धुरा’)।
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धुरी-राष्ट्र  : पुं० [हिं० धुरी+सं० राष्ट्र] दूसरे महायुद्ध से पहले सार्वराष्ट्रीय राजनीति में जरमनी, इटली और जापान ये तीनों राष्ट्र, जिनका एक गुट था।
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धुरीण  : वि० [सं० धुर+ख—ईन] १. जो बोझ या भार सँभालने या ले चलने को योग्य हो। २. प्रधान। मुख्य। ३. दे० ‘धुरंधर’।
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धुरीन  : वि०=धुरीण।a
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धुरीय  : वि० [सं० धुर+छ—ईय] १. बोझ लादकर ले चलने वाला। २. धुर या धुरे से संबंध रखनेवाला।
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धुरेटना  : अ० [हिं० धूर+एटना (प्रत्य०)] १. धूल में लेटना। २. इस प्रकार लेटकर वस्त्र, शरीर आदि गंदे करना। धूल से युक्त करना। सं० धूल लगाना।
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धुरेंडी  : स्त्री०=धुलेंडी।a
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धुर्  : स्त्री० [सं० धुर्व् (हिंसा)+क्विप्] १. बैलों आदि के कंधे पर रखा जाने वाला जुआँ। २. बोझ। भार। ३. गाड़ी के पहियों का धुराः अक्ष। ४. खूँटी। ५. ऊँचा और श्रेष्ठ स्थान। ६. उँगली। ७. चिनगारी। ८. अंश। ९. धन-संपत्ति। १॰.. गंगा का एक नाम। ११. रथ का अगला भाग।
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धुर्य  : वि० [सं० धुर+यत्] १. जिस पर बोझ या भार लादा जा सके। बोझ ढोने के योग्य। २. जो अपने ऊपर उत्तरदायित्व या भार ले सके। ३. दे० ‘धुरंधर’। पुं० १. भार ढोनेवाला पशु। २. बैल। ३. विष्णु। ४. ऋषभ नामक औषधि।
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धुर्रा  : पुं० [हिं० धूर=धूल] १. धूल का कण। २. किसी चीज का छोटा या सूक्ष्म कण या टुकड़ा। मुहा०—(किसी चीज के) धुर्रे उड़ाना=बहुत छोटे-छोटे खंड या टुकड़े करके बेकाम कर देना। छिन्न-भिन्न करना। (किसी के विचारों आदि के) धुर्रे उड़ाना=पूरी तरह से खंडन करके तुच्छ सिद्ध करना। (किसी व्यक्ति के) धुर्रे उड़ाना या उड़ा देना=बहुत अधिक मारना-पीटना।
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धुलना  : अ० [हिं० धोना] १. वस्त्र आदि के संबंध में; जल, साबुन आदि की सहायता से स्वच्छ किया जाना। धोया जाना। जैसे—सिर धुलना। २. गंदगी आदि के बह या हट जाने के फलस्वरूप किसी चीज का साफ होना। जैसे—वर्षा के जल से सड़क धुलना। ३. लगे हुए कलंक, दो, बुराई आदि का छूटना, मिटना या न रह जाना। नष्ट होना। जैसे—पाप या बदनामी धुलना।
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धुलवाई  : स्त्री० [हिं० धुलवाना] १. धुलवाने की क्रिया, भाव या मजदूरी। दे० ‘धुलाई’।
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धुलवाना  : स० [हिं० धोना का प्रे०] धोने का काम किसी दूसरे से कराना।
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धुलाई  : स्त्री० [हिं० धोना] १. धुलने या धोये जाने की क्रिया या भाव। २. धोने के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक।
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धुलाना  : स०=धुलवाना।
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धुलिया-मिटिया  : वि० [हिं० धूल+मिट्टी] १. जिस पर धूल या मिट्टी पड़ी हो अथवा डाली गई हो और इसीलिए जो बिलकुल खराब या निकम्मा हो गया हो। जैसे—कपड़े धुलिया-मिटाया करना। २. दबाया या शांत किया हुआ (झगड़ा, बखेड़ा आदि)। ३. नष्ट, बरबाद या मटियामेट किया हुआ।
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धुलियापीर  : पुं०=धूलिया-पीर।
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धुलेंडी  : स्त्री० [हिं० धूल+उड़ाना] १. हिंदुओं का एक त्योहार जो होली के जलने के दूसरे दिन चैत बदी १ को होता है और जिसमें सबेरे के समय लोगों पर कीचड़, धूल आदि और सन्ध्या को अबीर, गुलाल आदि डालते हैं। २. उक्त त्योहार का दिन।
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धुव  : पुं० [?] कोप। क्रोध। गुस्सा। (डिं०) पुं०=ध्रुव।a
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धुवका  : पुं० [सं० धुवक] गीत का पहला पद। टेक।
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धुवन  : वि० [सं०√धु+क्युन्—अन] १. चलानेवाला। २. कँपाने या हिलानेवाला। पुं० अग्नि। आग।
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धुंवाँ  : पुं०=धूआँ।a
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धुवाँ  : पुं०= धूआँ।a
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धुंवाँकश  : पुं०=धूआँकश।a
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धुवाँकश  : पुं०=धूआँकश।a
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धुँवाँदान  : पुं०=धूआँदान।a
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धुवाँधज  : पुं० [सं० धूमध्वज] अग्नि। (डिं०)
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धुँवाधार  : वि०, क्रि० वि०=धूआँधार।
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धुवाँधार  : वि० क्रि०, वि०=धूआँधार।
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धुवाना  : स०=धुलाना।
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धुवाँरा  : पुं० [हिं० धूआँ] छत में बना हुआ वह छेद जिसमें से रसोईघर का धूआँ बाहर निकलता है। वि०=धुआँरा।
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धुवाँस  : स्त्री० [हिं० धूर+माष; या धूमसी] उरद का आटा जिसके पापड़, कचौड़ी आदि पकवान बनाते हैं।
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धुवित्र  : पुं० [सं०√धु+इत्र] प्राचीन काल का एक प्रकार का पंखा जो हिरन के चमड़े आदि से बनाया जाता था और जिसका व्यवहार यज्ञ की आग को सुलगाने में होता था।
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धुस्तूर  : पुं० [सं०√धु+स्तुट् आगम] धतूरा।
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धुस्स  : पुं० [सं० ध्वंस] १. गिरे हुए मकान की मिट्टी, ईंटों, पत्थरों आदि का ढेर। ऊँचा ढेर। टीला। २. जलाशय पर बाँधा हुआ बाँध। ३. मिट्टी की ऊँची और मोटी दीवार, जो किले की पक्की दीवारों के आगे सुरक्षा के लिए खड़ी की जाती थी।
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धुस्सा  : पुं० [सं० दूष्यम, प्रा० दुस्स=कपड़ा, पाली०, दूस्स] घटिया किस्म के ऊन की बुनी हुई मोटी लोई।
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धू  : वि० [सं० ध्रुव] स्थिर। अचल।a पुं० १. ध्रुव तारा। २. राजा उत्तानपाद का पुत्र जो प्रसिद्ध ईश्वर-भक्त था। ३. गाड़ी का धुरा।
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धूँआँ  : पुं०=धूआँ।
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धूआँ-कश  : पुं० [हिं० धूआँ+फा० कश=खींचना] भाप के जोर से चलनेवाली नाव या जहाज। अगिनबोट। (स्टीमर)
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धूआँदान  : पुं० [हिं० धूआँ+फा०+दान] छत आदि में बना हुआ वह छेद या नल जिसमें से होकर घर के अन्दर का धूआँ बाहर निकलता है। चिमनी।
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धूआँधार  : वि० [हिं० धूआँ+धार] १. धूएँ से भरा हुआ। २. धूएँ की तरह के गहरे काले रंगवाला। ३. तड़क-भड़क वाला। ४. खूब जोरों का। घोर। प्रचंड। ५. मान, मात्रा आदि में बहुत अधिक। क्रि० वि० निरंतर और जोरों से। जैसे—धूआँधार गोले या पानी बरसना।
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धूक  : पुं० [सं०] १. वायु। २. काल। वि० चालाक। धूर्त। पुं० [फा० दूक=तकला] कलाबत्तू बटने की लोहे की गोल पतली सीख।
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धूकना  : अ० [हिं० ढुकना] १. किसी ओर बढ़ना या झुकना। २. दे० ‘ढुकना’।b
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धूँका  : पुं०=धोखा।a
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धूजट  : पुं०=धूर्जटि (शिव)।b
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धूजना  : अ० [सं० धूत] १. हिलना। २. काँपना।
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धूत  : वि० [सं०√धू (कंपन)+क्त] १. काँपता, थरथराता या हिलता हुआ। कंपित। २. जिसे डाँटा-डँपटा या धमकाया गया हो। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। त्यक्त। वि०=धौत। उदा०—धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत।—निराला।a वि०=धूर्त।a
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धूत-पाप  : वि० [ब० स०] जिसके पाप धुलकर दूर या नष्ट हो चुके हों।
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धूत-पाया  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] काशी की एक प्राचीन नदी, जो पंचगंगा घाट के समीप गंगा में मिली थी।
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धूतना  : स० [सं० धूर्त] १. किसी के साथ धूर्त्तता करना। २. किसी को ठगना। ३. धूर्ततावश किसी की कोई चीज नष्ट करना। उदा०—अवधू ह्वै कै या तन धूतौं, बधिका ह्वै मन मारूं।—कबीर।
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धूता  : स्त्री० [सं० धूत+टाप्] पत्नी। भार्या।
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धूताई  : स्त्री०=धूर्तता।a
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धूतार  : वि०=धूर्त।
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धूति  : स्त्री० [सं०√धू+क्तिन्] १. हिलते रहने या हिलने देने की अवस्था या भाव। २. हठयोग में शरीर शुद्ध करने की क्रिया।
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धूती  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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धूतुक  : पुं०=धूतू।
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धूतू  : पुं० [अनु०] १. कल-कारखाने आदि की सीटी का शब्द। २. तुरही। ३. नरसिंहा।
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धूँध  : स्त्री० १. =धुँध। २. =धोखा।a
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धूँधना  : स० [हिं० धूंध] धोखा देना।
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धूँधर  : स्त्री० [हिं० धुंध] १. धुंध। २. उक्त के फलस्वरूप होनेवाला अँधेरा।a वि०=धुँधला।
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धूँधला  : वि०=धुँधला।a
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धूधू  : पुं० [अनु०] वस्तुओं के जलने के समय होनेवाला धू-धू शब्द।
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धून  : वि० [सं०√धू+क्त, नत्व] कंपित। पुं०=दून।a
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धूनक  : वि० [सं०√धू+णिच्, नुक्+ण्वुल्—अक] १. हिलाने-डुलानेवाला। २. चालाक। धूर्त। पुं० सरल या साल का गोंद। राल।
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धूनन  : पुं० [सं०√धू+णिच्, नुक्+ल्युट्—अन] १. हवा। २. कंपन। ३. क्षोभ।
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धूनना  : स० [हिं० धूनी] १. आग में कोई ऐसी वस्तु छोड़ना जिसके जलने से सुगंधित धूआँ निकले। २. उक्त प्रकार के धूएँ से कमरा, घर आदि सुवासित करना। धूनी देना। स० दे० ‘धुनना’।
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धूना  : पुं० [हिं० धूनी] आसाम आदि की पहाड़ियों पर होनेवाला एक तरह का गुग्गुल की जाति का बड़ा पेड़। इसकी छाल आदि से वारनिश बनाई जाती है।
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धूनी  : स्त्री० [सं०√धू+क्तिन्, नत्व] हिलने की क्रिया। कंपन।
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धूनी  : स्त्री० [हिं० धूआँ या धूईं] १. वह आग जो साधु लोग या तो ठंढ से बचने के लिए शरीर को तपाकर कष्ट पहुँचाने के लिए अपने सामने जलाए रखते हैं। मुहा०—धूनी जगाना, रमाना या लगाना=(क) साधुओं का अपने सामने धूनी जलाकर तपस्या करना। (ख) अपना शरीर तपाने या अपना वैराग्य प्रकट करने के लिए साधु होकर या साधुओं की तरह अपने सामने धूनी जलाये रखना। २. सुगंधित धुआँ उठाने के लिए गूगल, धूप, लोबान आदि गंध दृव्य जलाने की क्रिया। जैसे—ठाकुर जी की मूर्ति के आगे की धूनी। क्रि० प्र०—जलाना।—देना। ३. धूआँ उठाने के लिए कोई चीज जलाने की क्रिया। जैसे—मिरचों की धूनी देकर किसी के सिर पर चढ़ा हुआ भूत भगाना। क्रि० प्र०—देना।
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धूनी-नाथ  : पुं० [ष० त०] धुनी (नदी) के स्वामी, सागर।
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धूप  : पुं० [सं०√धूप (तपाना)+अच्] १. कोई ऐसा गंध द्रव्य या सुगंधित पदार्थ जलने पर सुगंधित धूआँ निकलता हो। जैसे—अगर, चन्दन का चूरा, लोबान आदि। २. देव-पूजन, वायु-शुद्धि, सुगंध-प्राप्ति आदि के लिए उक्त प्रकार के पदार्थों को जलाने पर उनमें से निकलने वाला सुगंधित धूआँ। मुहा०—धूप देना=उक्त उद्देश्यों की सिद्धि के लिए सुगंधित पदार्थ जलाना। ३. कई प्रकार के सुगंधित द्रव्यों को कूटकर कड़ी लेई के रूप में बनाया हुआ वह पदार्थ जो सुगंधित धुआँ उत्पन्न करने के लिए जलाने के काम आता है। पद—धूप-बत्ती। (देखें) क्रि० प्र०—जलाना। ४. चीड़ या धूप-सरल नामक वृक्ष जिसमें से गंधाबिरोजा निकलता है। स्त्री० [सं० धूपः, प्रा० धुप्पा,पा० पं० धुप्प] दिन के समय होनेवाला सूर्य का वह प्रकाश जिसमें गरमी या ताप भी होता है। आतप। घाम। मुहा०—धूप खाना या लेना=ऐसी स्थिति में होना कि शरीर पर धूप पड़े। शरीर में गरमाहट लाने के लिए धूप में बैठना। (किसी चीज को) धूप खिलाना, दिखाना या लगाना=कोई चीज ऐसी स्थिति में रखना कि उस पर धूप पड़े या लगे। जैसे—बरसात के बाद गरम कपड़ों को धूप खिलानी या दिखानी पड़ती है। धूप चढ़ना या निकलना=सूर्योदय होने पर प्रकाश का बढ़ना और फैलना। घाम निकलना। (किसी चीज पर) धूप पड़ना या लगना=सूर्य के प्रकाश में पहुँचने पर धूप के प्रभाव से युक्त होना। धूप में बाल या चूंड़ा सफेद करना=बिना कुछ अनुभव या जानकारी प्राप्त किये जीवन का बहुत-सा भाग बिता देना। (प्रायः नहिक या निषेधात्मक रूप में प्रयुक्त) जैसे—हमने धूप में बाल नहीं सफेद किये हैं, जो तुम्हारी इन बातों में आ जायँ।
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धूप-घड़ी  : स्त्री० [हिं० धूप+घड़ी] एक प्रकार का यंत्र, जिसमें बने हुए गोल चक्कर के बीच में गड़ी हुई कील की परछाईं से समय जाना जाता है।
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धूप-छाँह  : स्त्री० [हिं० धूप+छाँह] वह रंगीन कपड़ा, जिसमें एक ही स्थान पर कभी एक रंग और कभी दूसरा रंग दिखाई देता है। विशेष—जब किसी कपड़े का ताना एक रंग का और बाना दूसरे रंग का होता है, तब उसमें यह बात आ जाती है।
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धूप-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. धूप रखने का बरतन। २. दे० ‘धूप-दान’।
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धूप-बत्ती  : स्त्री० [हिं० धूप+बत्ती] मसाला लगी हुई सींक या बत्ती जिसे जलाने से सुगंधित धुआँ उठकर फैलता है।
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धूप-वास  : पुं० [तृ० त०] [भू० कृ० धूप-वासित] स्नान कर चुकने के बाद सुगंधित धुएँ से शरीर, बाल आदि बासने का कार्य।
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धूप-वासित  : भू० कृ० [तृ० त०] धूप आदि सुगंधित दृव्यों के धूएँ से बासा अर्थात सुगंधित किया हुआ।
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धूप-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] सलई या गुग्गुल का पेड़ जिसके गोंद से धूप आदि सुगंधित द्रव्य आदि बनाये जाते हैं।
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धूपक  : पुं० [सं०] धूप, अगरबत्ती आदि बनाने तथा बेचनेवाला।
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धूपदान  : पुं० [सं० धूप-आधान] [स्त्री० अल्पा० धूपदानी] १. धूप नामक सुगंधित द्रव्य रखने का डिब्बा या बरतन। २. वह पात्र जिसमें धूप, राल आदि सुगंधित द्रव्य रखकर सुगंधित धूएँ के लिए जलाए जाते हैं। ३. वह पात्र जिसमें जलाने के लिए धूप-बत्ती खोंसी, रखी या लगाई जाती है।
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धूपदानी  : स्त्री० [हिं० धूपदान] छोटा धूपदान।
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धूपन  : पुं० सं०√धूप+ल्युट्—अन] [वि० धूपित] धूप आदि के धुएँ से सुवासित करने की क्रिया या भाव।
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धूपना  : अ० [सं० धूप्=गरम होना] किसी काम के लिए इधर-उधर आने-जाने में परेशान होना। जैसे—दौड़ना-धूपना। स० [सं० धूपन] सुगंधित धुएँ के लिए धूप या और कोई गंधद्रव्य जलाना।
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धूपायित  : वि० [सं०√धूप+आय्+क्त]=धूपित।
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धूपित  : वि० [सं०√धूप+क्त] १. धूप के सुगंधित धुएँ से सुवासित किया हुआ। धूप के धूएँ में बासा हुआ। २. दौड़ने-धूपने के कारण थका हुआ। शिथिल और श्रांत।
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धूम  : पुं० [सं०√धू (कंपन)+मक्] १. आग का धुआँ। २. कुछ विशिष्ट औषधियों आदि को जलाकर उत्पन्न किया हुआ वह धूआँ, जो कुछ रोगों में रोगियों के शरीर या पीड़ित अंग पर पहुँचाया जाता है। ३. अजीर्ण या अपच में आनेवाला धुँआयँध डकार। ४. धूमकेतु। पुच्छलतारा। ५. उल्कापात। ६. एक प्राचीन ऋषी का नाम। स्त्री० [अनु०] १. वह स्थिति, जिसमें बहुत से लोग उत्साहपूर्वक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए इधर-उधर आते-जाते, दौड़ते-फिरते और हो-हल्ला मचाते हों। उत्सवों, त्योहारों आदि के समय जन-समूह की उल्लासपूर्ण चहल-पहल। जैसे—आज सारे भारत में स्वराज्य दिवस की धूम है। २. उत्सवों, मेलों, समारोहों आदि के संबंध में पहले से होनेवाला उत्साहपूर्ण आयोजन, ठाठ-बाट और तैयारी। जैसे—शहर में अभी से राष्ट्रपति के आने की धूम है। पद—धूम-धाम। ३. उक्त प्रकार के कामों या बातों के संबंध में लोगों में चारों ओर होनेवाली चर्चा। जैसे—आज शहर में उनकी बारात की सबेरे से ही धूम है। मुहा०—(किसी बात की) धूम मचना=किसी बात की चर्चा चारों ओर फैल जाना। ४. ऐसा उत्पात, उपद्रव, उछल-कूद या धींगा-मस्ती, जिसमें हो-हल्ला भी हो। जैसे—लड़के दिनभर गलियों में धूम मचाते रहते हैं। ५. कोलाहल। शोर। हो-हल्ला। जैसे—निम्न कक्षाओं के लड़के बहुत धूम करते हैं। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। विशेष—पुरानी हिन्दी तथा स्थानिक बोलियों में कहीं कहीं इस शब्द के साथ ‘डालना’ क्रिया का भी प्रयोग होता है। स्त्री० [देश०] तालों में होनेवाली एक प्रकार की घास।
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धूम-केतन  : पुं० [ब० स०] १. अग्नि। आग। २. धूमकेतु। पुच्छलतारा।
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धूम-केतु  : पुं० [ब० स०] अग्नि, जिसका पताका धूआँ है २. शिव का एक नाम। ३. रावण की सेना का एक राक्षस। ४. ऐसा घोड़ा जिसकी दुम पर भौंरी हो। (ऐसा घोड़ा ऐबी या दूषित समझा जाता है)। ५. एक प्रकार का केतु या तारा, जिसमें पीछे की ओर दूर तक झाड़ू की तरह बहुत लंबी दुम लगी होती है। पुच्छलतारा। (कामेट)
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धूम-गंधिक  : पुं० [धूम-गंध, ब० स०, इत्व, धूमगन्धि+कन] रोहिष तृण। रूसा घास।
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धूम-ग्रह  : पुं० [मध्य० स०] राहू नामक ग्रह।
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धूम-जांगज  : पुं० [सं० धूमज-अंग ष० त०, धूमजांग+जन्√ड] नौसादर।
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धूम-दर्शी (र्शिन्)  : पुं० [सं० धूम√दृश (देखना)+णिनि] वह व्यक्ति जिसे आँखों के दोष के कारण सब चीजें धुँधली दिखाई देती हैं।
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धूम-धड़क्का  : पुं० [हिं० धूम+अनु० धड़क्का] आनंद, प्रसन्नता, हर्ष आदि के कारण होनेवाली चहल-पहल और हो-हल्ला।
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धूम-धर  : पुं० [ष० त०] अग्नि। आग।
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धूम-धाम  : स्त्री० [हिं० धूम+धाम (अनु०)] उत्साह तथा उल्लास से युक्त होनेवाला ऐसा आयोजन या तैयारी, जिसमें खूब चहल-पहल और ठाठ-बाट हो। पद—धूम-धाम से=ठाठ-बाट और सज-धज के साथ। जैसे—धूम-धाम से जलूस, बरात या सवारी निकलना।
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धूम-ध्वज  : पुं० [ब० स०] अग्नि। आग।
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धूम-नेत्र  : पुं०=धूम्र-नेत्र।
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धूम-पट  : पुं० [ष० त०] १. धूएँ की वह दीवार, जो युद्ध क्षेत्र में विपक्षियों की नजर से अपनी तोपें आदि छिपाने के निमित्त खड़ी हो जाती थी। २. वास्तविक स्थिति या तथ्य छिपाने के लिए उसके सामने खड़ी की जानेवाली कोई आड़ या परदा। (स्मोक स्क्रीन)
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धूम-पथ  : पुं० [मध्य० स०] १. वह रास्ता जिससे किसी स्थान का धूआँ बाहर निकलता हो। धुआँरा। २. दे० ‘पितृयान’।
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धूम-पान  : पुं० [ष० त०] १. साधुओं आदि का आग के कुएँ में पड़े रहना। २. सुश्रुत के अनुसार कुछ विशिष्ट प्रकार की औषधियों का धुआँ जो नल द्वारा रोगी को सेवन कराया जाता था। ३. तमाकू, सुरती आदि को सुलगाकर (नशे आदि के लिए) बार-बार खींचकर मुँह में लेना और बाहर निकालना। तमाकू, बीड़ी, सिगरेट आदि पीना।
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धूम-पोत  : पुं० [मध्य० स०] धूएँ या भाप की सहायता से समुद्र में चलनेवाला आधुनिक ढंग का जहाज। धूआँ-कश
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धूम-प्रभा  : स्त्री० [ब० स०] नरक, जो सदा धुएँ से भरा रहता है।
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धूम-यान  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार,पृथ्वी के नीचे की ओर का वह मार्ग जिससे होकर पापियों की आत्माएँ नीचे या अधःलोक की ओर जाती हैं।
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धूम-योनि  : पुं० [ब० स०] बादल, जिसकी उत्पत्ति धूएँ से मानी गई है।
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धूम-रज (स्)  : पुं० [ष० त०] १. घर का धुआँ। २. छतों और दीवारों में लगनेवाली धूएँ की कालिख।
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धूमक  : पुं० [सं० धूम+कन्] १. धूआँ। २. एक प्रकार का साग।
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धूमक-धैया  : स्त्री० [हिं० धूम] १. ऐसी उछल-कूद और उपद्रव या हो-हल्ला जो अशिष्टतापूर्ण हो और इसी लिए अच्छा न लगे। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। २. दे० ‘धूम-धाम’।
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धूमज  : वि० [सं० धूम√जन् उत्पत्ति+ड] धूएँ से उत्पन्न। पुं० १. बादल या मेघ जो धुएँ से उत्पन्न माना गया है। २. मुस्तक। मोथा।
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धूमधामी  : वि० [हिं० धूमधाम] १. धूम-धाम से काम करनेवाला। २. धूम-धाम या आडम्बर से युक्त। जैसे—धूमधामी आयोजन या समारोह। ३. नटखट। उपद्रवी।
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धूमर  : वि०=धूमिल।
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धूमरा  : वि०=धूमर (धूमिल)।
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धूमरी  : स्त्री० १. धूम। २. =धूम्र।a
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धूमल  : वि० [सं० धूम√ला (लेना)+क] धूएँ के रंग का। लाली लिये काले रंग का। वि०=धूमिल।a
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धूमला  : वि०=धूमिल।a
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धूमवान (वत्)  : वि० [सं० धूमवत्] [स्त्री० धूमवती] जिसमें या जहाँ धूआँ हो। धूएँ से युक्त।
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धूमसार  : पुं० [ष० त०] घर का धूआँ।
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धूमसी  : स्त्री० [सं०] उरद का आटा या चूर्ण। धुआँस।
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धूमाक्ष  : वि० [धूम-अक्षि ब० स०, अच्] [स्त्री० धूमाक्षी] जिसकी आँखें धुएँ के रंग जैसी हों।
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धूमांग  : वि० [धूम-अंग ब० स०] धुएँ के रंग के-से अंगोंवाला। पुं० शीशम का पेड़।
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धूमाग्नि  : स्त्री० [धूम-अग्नि मध्य० स०] ऐसी आग जिसमें धूआँ ही निकलता हो, लपट न उठती हो।
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धूमाभ  : वि० [धूम-आभा ब० स०] धूएँ के रंग जैसा।
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धूमायन  : पुं० [सं० धूम+क्यङ+ल्युट्—अन] १. धूआँ उठाना या उत्पन्न करना। २. किसी चीज को ऐसा रूप देना कि वह भाप बनकर उड़ने लगे। ३. गरमी। ताप।
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धूमायमान  : वि० [सं० धूम+क्यङ+शानच्, मुक्] १. जो धूएँ के रूप में हो। २. धूएँ से भरा हुआ। धूएँ से युक्त या व्याप्त।a
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धूमाली  : स्त्री० [सं० धूम+आली] आकाश में चारों ओर छाया हुआ धूआँ। उदा०—माली की मड़ई से उठ नभ के नीचे नभ सी धूमाली।
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धूमावती  : स्त्री० [सं० धूम+मतुप्—ङीप्-वत्व, दीर्घ] दस महाविद्याओं में से एक।
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धूमि (मिन्)  : वि० [सं० धूम+इनि] धूएँ से भरा हुआ। स्त्री० १. अजमीढ़ की एक पत्नी का नाम। २. अग्नि की एक जिह्वा का नाम।
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धूमिका  : स्त्री० [सं० धूम+ठन—इक्, टाप्] कोहरा।
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धूमित  : वि० [सं० धूम+इतच्] १. धूएँ से ढका हुआ। २. जिसमें धूआँ लगा हो। पुं० तंत्र-शास्त्र में, सादे अक्षरों का मंत्र जो दूषित समझा जाता है।
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धूमिता  : स्त्री० [सं० धूमित+टाप्] वह दिशा जिसमें सूर्य पहले-पहल उन्मुख या प्रवृत्त होता हो।
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धूमिनी  : स्त्री० [सं० धूमिन्+ङीप्]=धूमी।
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धूमिल  : वि० [सं० धूम+इलच्] १. धूएँ के रंग का। लाली लिए काले रंग का। २. जिसमें इतना कम प्रकाश हो कि साफ दिखाई न पड़े। धुँधला। ३. मलिन। गंदा।
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धूमोत्थ  : वि० [सं० धूम-उद√स्था (ठहरना)+क] धूएँ से निकला हुआ। पुं० नौसादर। वज्रक्षार।
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धूमोद्गार  : पुं० [धूम-उद्गार ष० त०] अजीर्ण या अपच के कारण आनेवाला धूएँ का-सा खट्टा डकार।
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धूमोपहत  : भू० कृ० [धूम-उपहत तृ० त०] धूएँ के फलस्वरूप जिसका गला घुट गया हो। पुं० एक तरह का रोग।
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धूमोर्णा  : स्त्री० [सं०] १. यम की पत्नी का नाम। २. मार्कण्डेय की पत्नी का नाम।
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धूम्या  : स्त्री० [सं० धूम+य—टाप्] १. धूम-पुंज। २. धूएँ का गहरा और घना बादल।
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धूम्याट  : पुं० [सं० धूम्या√अट (गति)+अच] एक पक्षी। भृंग।
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धूम्र  : वि० [सं० धूम√रा (देना)+क, पृषो० सिद्धि] धूएँ के रंग का। लाली लिए काले रंग का। पुं० १. धूएँ का या धूएँ का-सा रंग। लाली लिए काला रंग। २. मानिक लाल या धुँधलापन जो एक दोष माना गया है। ३. महादेव। शिव। ४. कार्तिकेय का एक अनुचर। ५. राम की सेना का एक भालू। ६. फलित ज्योतिष में एक प्रकार का योग। ७. मेढ़ा। 8.शिलारस नामक गंध द्रव्य।
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धूम्र-काँत  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का रत्न या नग।
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धूम्र-केतु  : पुं० [ब० स०] राजा भरत के एक पुत्र का नाम। (भागवत)
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धूम्र-केश  : पुं० [ब० स०] १. राजा पृथु का एक पुत्र। २. कृष्णाश्व का एक पुत्र, जो उसकी अर्चि नाम की स्त्री से उत्पन्न हुआ था। (भागवत)
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धूम्र-नेत्र  : पुं० [ब० स०] छत या दीवार में से धूआँ निकलने का छेद। धुआँरा। धूआँदान।
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धूम्र-पट  : पुं०=धूमपट।
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धूम्र-पत्रा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] एक प्रकार का पौधा जो आयुर्वेद में तीता, रुचिकारक, गरम, अग्निदीपक तथा शोथ, कृमि और खाँसी को दूर करनेवाला माना गया है। सुलभा। गृध्रपत्रा।
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धूम्र-पान  : कुं०=धूम-पान।
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धूम्र-मूलिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] शूली नामक तृण।
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धूम्र-लोचन  : पुं० [ब० स०] १. कबूतर। २. शुंभ दानव का एक सेनापति।
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धूम्र-वर्ण  : वि० [ब० स०] धूएँ के रंग का। ललाईपन लिए काला। धूमिल। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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धूम्रक  : पुं० [सं० धूम्र√कै (प्रकाशित होना)+क] ऊँट।
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धूम्रवर्णा  : स्त्री० [सं० धूभ्रवर्ण+टाप्] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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धूम्रा  : स्त्री० [धूभ्र+अच्—टाप्] एक प्रकार की ककड़ी।
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धूम्राक्ष  : वि० [धूभ्र-अक्षि ब० स०, अच] जिसकी आँखें धूएँ के रंग की हों। पुं० रावण का एक सेनापति।
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धूम्राट  : पुं० [सं० धूभ्र√अट् (गति)+अच्] धूम्याट पक्षी। भिंगराज।
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धूम्राभ  : पुं० [धूम्र-आभा ब० स०] १. वायु २. वायुमंडल।
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धूम्रार्चि (स्)  : स्त्री० [धूम्र-अर्चिस ब० स०] अग्नि की दस कलाओं में से एक।
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धूम्राश्व  : पुं० [धूम्र-अश्व ब० स०] इक्ष्वाकु वंशीय एक राजा।
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धूम्रिका  : स्त्री० [सं०धूम्रा+कन्—टाप्, हृस्व, इत्म] शीशम की तरह का एक प्रकार का पेड़।
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धूम्रीकरण  : पुं० [सं० धूम्र+च्वि; ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्—अन] (रोग के कीटाणुओं से मुक्त करने के लिए या हवा की गंदगी दूर करने के लिए) कमरे आदि में सुगंधित धूप, संक्रमणनाशक वाष्प आदि प्रसारित करना। (फ्यूमिगेशन)
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धूर  : स्त्री० [सं० धुर] जमीन की एक नाप जो एक बिस्वांसी के बराबर होती है। बिस्वे का बीसवाँ भाग। स्त्री० [?] एक प्रकार की घास। स्त्री०=धूल।a अव्य०=धुर। पुं० [?] बादल।
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धूर-डाँगर  : पुं० [देश०] पशु, विशेषतः सींगोवाला पशु।
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धूर-धान  : पुं०=धूल-धानी।
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धूर-धानी  : स्त्री०=धूल-धानी।a
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धूर-यात्रा  : स्त्री०=धूलियात्रा।a
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धूर-संझा  : स्त्री० [सं० धूलि+संध्या] गोधूलि का समय।
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धूरकट  : पुं० दे० ‘धुरकुट’।
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धूरजटी  : पुं०=धूर्जटि।
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धूरत  : वि०=धूर्त।a
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धूरा  : पुं० [हिं० धूर] १. धूल। गर्द। २. महीन चूर्ण। बुकनी। ३. रोगी के हाथ-पैर ठंढे हो जाने पर गरम राख या सोंठ आदि के चूर्ण से वे अंग धीरे-धीरे मलने की क्रिया, जिससे हाथ-पैर में फिर से गरमाहट आ जाती है। क्रि० प्र०—करना—देना। ४. अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए की जाने वाली चापलूसी या मीठी-मीठी बातों से दिया जाने वाला भुलावा। क्रि० प्र०—करना।—देना।
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धूरि  : स्त्री०=धूल। उदा०—जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान।—तुलसी।
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धूरि-क्षेत्र  : पुं० [सं० धूलि+क्षेत्र] जगत। संसार। उदा०—धूरि क्षेत्र में आइ कर्म करि हरिपद पावै।—नन्ददास।b
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धूरिया बेला  : पुं० [हिं० धूर+बेला] एक प्रकार का बेला (पौधा और फूल)।
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धूरिया-मलार  : पुं० [धूरिया ?+सं० मल्लार] सम्पूर्ण जाति का एक प्रकार का मल्लार जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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धूरे  : अव्य० १. धौरे। २. धीरे।
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धूर्जटि  : पुं० [सं० धूर्-जटि ब० स०] शिव। महादेव।
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धूर्त  : वि० [सं०√धूर्व् (हिंसा)+तन्] [भाव० धूर्तता] १. जो कपट या छलपूर्ण आचरण करके अथवा चालाकी या दाँव-पेंच के द्वारा अपना काम इस प्रकार निकाल लेता हो कि लोगों को सहसा उसके वास्तविक स्वरूप का पता तक न चलने पाता हो। बहुत बड़ा चालाक। २. कपटी। छली। धोखेबाज। ३. दुष्ट। पाजी। पुं० १. साहित्य में, शठ नायक का एक भेद। २. जुआरी जो तरह-तरह के दाँव-पेंच करता है। ३. चोर नामक गंध-द्रव्य। ४. लोहे की मैल या मोरचा। ५. धतूरा। ६. विट् लवण।
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धूर्त-चरित  : पुं० [ष० त०] १. धूर्तों का चरित्र। २. [ब० स०] संकीर्ण नाटक का एक भेद।
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धूर्त-मानुषा  : स्त्री० [धूर्त=हिंसित-मानुष ब० स०, टाप्] रास्ना लता।
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धूर्त-रचना  : स्त्री० [ष० त०] छल-कपट।
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धूर्तक  : पुं० [सं० धूर्त+कन] १. जुआरी। २. गीदड़। ३. कौरव्य कुल का एक नाग।
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धूर्तता  : स्त्री० [सं० धूर्त+तल्—टाप्]धूर्त होने की अवस्था, गुण या भाव। दुष्ट उद्देश्य से की जाने वाली चालाकी।
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धूर्धर  : वि० [सं० धूर्-धर ष० त०] १. बोझा ढोनेवाला। भारवाही। २. दे० ‘धुरंधर’।
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धूर्य  : पुं० [सं०=धूर्य पृषो० सिद्धि] विष्णु।
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धूर्वह  : वि० [सं० धूर्—वह ष० त०, पृषो० दीर्घ ] १. भार वहन करनेवाला। २. कार्य का दायित्व अपने ऊपर लेनेवाला। पुं० बोझ ढोनेवाला पशु।
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धूर्वी  : स्त्री० [सं० धूर्√अज् (गति)+क्विप्, वी आदेश] रथ का अग्रभाग।
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धूल  : स्त्री० [सं० धूलि] १. सूखी मिट्टी के वे सूक्ष्म कण जो हवा या आँधी के समय वातावरण में उड़ते रहते हैं। गर्द। रज। जैसे—लड़के धूल उड़ाते हैं। क्रि० प्र०—उड़ना। मुहा०—(किसी जगह) धूल उड़ना या बरसना=ध्वस्त या नष्ट हो जाने के कारण या चहल-पहल न रहने के कारण बहुत उदासी छाना। तबाही या बरबादी के लक्षण स्पष्ट दिखाई देना। (किसी व्यक्ति की) धूल उड़ाना=(क) किसी की त्रुटियों, दोषों, बुराइयों आदि की खूब चर्चा करके उसे परम तुच्छ ठहराना। (ख) खूब उपहास करना। दिल्लगी उड़ाना। (किसी का) धूल उड़ाते या फाँकते फिरना=दुर्दशा भोगते हूए इधर-उधर मारे-मारे फिरना। धूल की रस्सी बटना=(क) बिना किसी आधार या तत्व के कोई बड़ा काम करने का प्रयत्न करना। (ख) अनहोनी या व्यर्थ की बात के लिए परिश्रम या प्रयत्न करना। (किसी के आगे) धूल चाटना=बहुत गिड़गिड़ाकर अपनी अधीनता या दीनता प्रकट करना। (जगह-जगह की) धूल छानना=किसी काम के लिए जगह-जगह दुर्दशा भोगते हुए या मारे-मारे फिरना। (किसी की) धूल झड़ना=मारे-पीटे जाने पर भी इस प्रकार ज्यों का त्यों रहना कि मानों कुछ हुआ ही न हो। (परिहास और व्यंग्य) जैसे—अच्छा जाने दो; तुम्हारे शरीर की धूल-झड़ गई। २. किसी वस्तु पर पड़े हुए उक्त कण। जैसे—कपड़े पर बहुत धूल पड़ी है। क्रि० प्र०—पड़ना। मुहा०—धूल झाड़कर अलग य चलता होना=अपमान, आघात आदि सहकर भी उसकी उपेक्षा करना। (किसी की) धूल झाड़ना= (क) (किसी को) मारना-पीटना। (विनोद) (ख) बहुत ही तुच्छ या हीनभाव से किसी की चापलूसी और सेवा-शुश्रूषा करना। (किसी बात पर) धूल डालना=(क) उपेक्ष्य या तुच्छ समझकर जाने देना। ध्यान न देना। (ख) अनुचित और निंदनीय समझकर किसी बुरी बात की चर्चा फैलने न देना जान—बूझकर छिपाने या दबाने का प्रयत्न करना। धूल फाँकना=(क) दुर्दशा भोगते हुए व्यर्थ का प्रयत्न करना। (ख) जान-बूझकर सरासर झूठ बोलना। (अपने) सिर पर धूल डालना=कोई अनुचित काम हो जाने पर बहुत पछताना और सिर धुनना। (किसी के) सिर पर धूल डालना=बहुत ही तुच्छ या हीन समझकर उपेक्षा करना या दूर हटाना। पद—पैरों की धूल=अत्यंत तूच्छ या हीन। परम उपेक्ष्य। जैसे—वह तो आपके पैरों की धूल है। ३. मिट्टी मुहा०—धूल में मिलना=(क) पूर्णतया नष्ट हो जाना कि नाम-निशान तक न रहे। (ख) चौपट हो जाना। ४. धूल के समान तुच्छ वस्तु। जैसे—इस कपड़े के सामने वह धूल है। क्रि० प्र०—समझना।
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धूल-कूप  : पुं० [सं०] हिम-नदी के तल पर कहीं-कहीं दिखाई देनेवाले वे गहरे गड्ढे जो कड़ी धूप पड़ने से बनते हैं और जिनमें ऊपर पड़ी हुई धूल समाकर नीचे बैठ जीती है। (डस्ट वेल)
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धूल-धक्कड़  : पुं० [हिं० धूल+धक्का] १. चारों ओर उड़नेवाली घूल। २. चारों ओर मचनेवाला निंदनीय उत्पात या उपद्रव। जैसे—चुनाव के समय हर जगह एक-सा धूल-धक्कड़ दिखाई देता था।
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धूल-धान  : पुं०=धूल-धानी।
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धूल-धानी  : स्त्री० [हिं० धूल+धान ?] १. गर्द या धूल का ढेर। २. चूर-चूर करके धूल की तरह बनाने की क्रिया या भाव। ३. ध्वंस। विनाश। ४. सर्वनाश।
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धूल-यात्रा  : स्त्री०=धूलि-यात्रा।
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धूलक  : पुं० [सं०√धू (काँपना)+लक] जहर। विष।
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धूला  : [देश०] टुकड़ा। खंड। कतरा।a पुं०=धूल।a
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धूलि  : स्त्री० [सं०√धू+लि] धूल। गर्द।
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धूलि-कदंब  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का कदंब का वृक्ष और उसका फल।
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धूलि-गुच्छक  : पुं० [ष० त०] अबीर-गुलाल आदि, जो होली में एक दूसरे पर डाले जाते हैं।
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धूलि-चित्र  : पुं० [मध्य० स०] वे आकृतियाँ या कोष्ठक, जो रंगों के चूर्ण जमीन पर भुरक कर बनाये जाते हैं। साँझी। (देखें)
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धूलि-धूसर  : वि०=धूलि-धूसरित।
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धूलि-धूसरित  : वि० [तृ० त०] धूल पड़ने के कारण जिसका रंग धूसर या मटमैला हो गया हो।
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धूलि-ध्वज  : पुं० [ब० स०] वायु। हवा।
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धूलि-पुष्पिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्—टाप्, इत्व] केतकी।
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धूलि-यात्रा  : स्त्री० [मध्य० स० ?] किसी देवता के धाम में पहुँचने पर उसके मन्दिर में जाकर किया जानेवाला वह दर्शन जो रास्ते में पैरों पर पड़ी हुई धूल बिना धोये अर्थात् सीधे मन्दिर में पहुँचकर किया जाता है। (पैदल यात्री)
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धूलिका  : स्त्री० [सं० धूलि+कन्—टाप्] १. महीन जल-कणों की झड़ी। फुहार। २. कोहरा।
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धूलिया-पीर  : पुं० [हिं० धूल+पा० पीर] एक कल्पित पीर जिसका नाम बच्चे खेलों आदि में लिया करते हैं। जैसे—तुम्हें धूलिया-पीर की कसम है, वहाँ मत जाना।
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धूवाँ  : पुं०=धूआँ।
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धूँसना  : अ० [?] जोर का शब्द करना। उदा०—प्रबल वेग सों धमकि धूँसि दसहूँ दिसि दूसहि।—रत्नाकर।b स० [सं० ध्वंसन] १. नष्ट या बरबाद करना। २. मारना-पीटना।
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धूसना  : स० [सं० ध्वंसन] १. खराब या निकम्मा करने के लिए कुचलना, दबाना या मलना-दलन या मर्दन करना। २. दे० ‘ठूसना’।
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धूसर  : वि० [सं०√धू+सरन्] १. धूल के रंग का। भूरे या मटमैले रंग का। खाकी। २. जिसमें धूल लगी या लिपटी हो। पुं० १. पीलापन लिये सफेद अर्थात भूरा या मटमैला रंग। २. गधा। ३. ऊँट। ४. कबूतर। ५. एक व्यापारिक जाति, जिसे कुछ लोग वैश्यों में और कुछ लोग ब्राह्मणों में मानते हैं। ढूसर।
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धूसर-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्+कन्, टाप् ह्रस्व] हाथीसूँड़ का पौधा।
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धूसरच्छदा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] एक प्रकार का पौधा, जिसे बुहना या बोहना भी कहते हैं।
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धूसरा  : वि० [सं० धूसर] [स्त्री० धूसरी] १. धूल के रंग का। मटमैला। खाकी। २. जिस पर धूल पड़ी या लगी हो। धूल से सना हुआ। स्त्री० [सं०] पांडुफली।
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धूसरित  : वि० [सं० धूसर+इतच्] १. धूल लगने के कारण जो मैला-कुचैला हो गया हो। धूल से लिपटा हुआ। २. भूरे या मटमैले रंग का।
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धूसरी  : स्त्री० [सं०] किन्नरियों का एक वर्ग।
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धूसला  : वि०=धूसरा।a
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धूँसा  : पुं०=धौंसा।a
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धूस्तूर  : पुं० [सं०√धूस् (कान्ति)+क्विप्, √तूर् (शीघ्रता)+क, धूस्-तूर कर्म० स०] धतूरा।
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धूहा  : पुं० [हिं० ढूह] १. ढूह। २. बाँस पर टाँगी जानेवाली काली हाँड़ी या पुतला, जो खेतों में पक्षीयों को डराकर दूर रखने के लिये खड़ा किया जाता है।
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धू्म्र-शूक  : पुं० [ब० स०] ऊँट।
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धृक  : अव्य०=धिक्।
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धृग  : अव्य=धृक।
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धृत  : वि० [सं०√धृ (धारण)+क्त] १. हाथ से धरा या पकड़ा हुआ। २. गिरफ्तार किया हुआ। ३. धारण किया हुआ। ४. निश्चित या स्थिर किया हुआ। ५. पतित। पुं० १. ग्रहण या धारण करने का भाव। २. कुश्ती लड़ने का एक ढंग। ३. तेरहवें मनु रौच्य के पुत्र का नाम। ४. पुराणानुसार द्रुह्य-वंशीय धर्म का एक पुत्र।
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धृत-दंड  : वि० [ब० स०] १. जिसे दंड मिला है। दंडित। २. दंड देनेवाला।
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धृत-राष्ट्र  : पुं० [ब० स०] १. ऐसा देश जिसे कोई अच्छा और योग्य राजा धारण करता अर्थात अपने शासन में रखता है। २. ऐसा राजा जिसका राज्य और शासन दृढ़ हो; अर्थात जो देश को पूर्णतः अपने अधिकार या वश में रखता हो। ३. महाभारत काल के एक प्रसिद्ध राजा, जो विचित्रवीर्य के पुत्र और दुर्योधन के पिता थे। ये अन्धे थे। ४. एक नाग का नाम। ५. बौद्धों के अनुसार एक गंधर्व राजा। ६. जनमेजय के एक पुत्र। ७. एक प्रकार का हंस, जिसकी चोंच और पैर काले होते हैं।
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धृत-वर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] जिसने वर्म अर्थात् कवच धारण किया हो। पुं० त्रिगर्त्त का राजकुमार, जिसके साथ अर्जुन को उस समय युद्ध करना पड़ा था जब वे अश्वमेध के घोड़े की रक्षा के लिए उसके साथ गये थे।
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धृत-विकय  : पुं० [मध्य० स०] तौलकर चीजें बेचने का ढंग या प्रकार (कौ०)
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धृतकेतु  : पुं० [सं०] वसुदेव के बहनोई का नाम। (गर्ग संहिता)
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धृतदेवा  : स्त्री० [सं०] देवक की एक कन्या।
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धृतमाली  : पुं० [सं०] अस्त्रों को निष्फल करनेवाला एक प्रकार का अस्त्र। अस्त्रों का एक संहार। (रामायण)
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धृतराष्ट्री  : स्त्री० [सं० धृतराष्ट्र+ङीष्] १. कश्यप ऋषि की पत्नी ताम्रा से उत्पन्न 5 कन्याओं में से एक, जो हंसों की आदि माता थी। २. धृतराष्ट्र की पत्नी।
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धृतव्रत  : वि० [ब० स०] जिसने कोई व्रत धारण किया हो। पुं० पुरुवेशीय जयद्रथ के पुत्र विजय का पौत्र।
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धृतात्मा (त्मन्)  : वि० [धृत-आत्मन् ब० स०] १. जो अपनी आत्मा या मन को अच्छी तरह वश में और स्थिर रखता है। २. धीर। पुं० विष्णु।
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धृति  : स्त्री० [सं०√धृ+क्तितन्] १. धारण करने की क्रिया या भाव। २. धारण करने का गुण या शक्ति। धारणा-शक्ति। ३. चित्त या मन की अविचलता, दृढ़ता या स्थिरता। ४. धीर होने की अवस्था या भाव। धैर्य। ५. साहित्य में, एक संचारी भाव जिसमें इष्टप्राप्ति के कारण इच्छाओं की पूर्ति होती है। ६. दक्ष की एक कन्या, जो धर्म की पत्नी थी। ७. अश्वमेध की एक आहुति। ८. सोलह मातृकाओं में से एक। ९. अठारह अक्षरोंवाले वृत्तों की संज्ञा। १॰.. चंद्रमा की सोलह कलाओं में से एक कला का नाम। ११. फलित ज्योतिष में, एक प्रकार का योग। पुं० १. जयद्रथ राज के पौत्र का नाम। २. एक विश्वेदेव का नाम। ३. यदुवंशी वभ्र का पुत्र।
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धृतिमान (मत्)  : वि० [सं० धृति+मतुप्][स्त्री०]धृतिमती १. धैर्यवान् २. तुष्ट। तप्त।
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धृत्वरी  : स्त्री० [सं०√धृ+क्वनिप्+ङीप्, र आदेश] पृथ्वी।
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धृत्वा (त्वन्)  : पुं० [सं०√धृ+क्वनिप्] १. विष्णु। २. ब्रह्मा। ३. धर्म। ४. आकाश। ५. समुद्र। ६. चतुर आदमी।
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धृषित  : वि० [सं०]=धृषु।s
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धृषु  : वि० [सं०√धृष+कु] १. पराजित करनेवाला। वीर। २. आक्रमण करनेवाला। पुं० राशि। समूह।
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धृष्ट  : वि० [सं०√धृष्+क्त] [भाव० धृष्टता] १. बड़ों के समक्ष लज्जा या संकोच त्यागकर ओछा या बेहूदा काम करनेवाला। २. ऐसा काम करनेवाला जिससे बड़ों के सम्मान को कुछ धक्का लगता हो। ३. जो अनुचित काम करने से भयभीत या संकुचित न होता हो दुस्साहसी। पुं० १. साहित्य में, वह नायक जो बार-बार वही काम करता हो। जिससे प्रेमिका खिन्न होती हो और मना किये जाने पर भी न मानता हो। २. चेदिवंशीय कुंति का पुत्र। (हरिवंश) ३. सातवें मनु का एक पुत्र। ४. अस्त्रों का एक प्रकार का प्रतिकार या संहार।
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धृष्टकेतु  : पुं० [सं०] १. चेदि देश के राजा शिशुपाल का एक पुत्र जिसका वध द्रोणाचार्य ने महाभारत के युद्ध में किया था। २. नवें मनु रोहित के पुत्र। ३. जनक सुध्वति वंशीय के पुत्र।
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धृष्टता  : स्त्री० [सं० धृष्ट+तल्—टाप्] १. धृष्ट होने की अवस्था या भाव। २. स्वभाव की ऐसी उद्दंडता जो शील—शंकोच के अभाव के कारण होती है। ३. धृष्ट बनकर किया जानेवाला आचरण या व्यवहार। ४. बड़ों के सामने किया जानेवाला ओछा या बेहूदा आचरण गुस्ताखी।
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धृष्टद्युम्न  : पुं० [सं०] राजा द्रुपद का एक पुत्र, जिसने पिता का बदला चुकाने के लिए महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य का वध किया था।
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धृष्टा  : स्त्री० [सं० धृष्ट+टाप्] दुश्चरित्रा स्त्री। वि० ‘धृष्ट’ का स्त्री०।
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धृष्टि  : पुं० [सं०√धृष्+क्तिच्] १. एक प्रकार का यज्ञ-पात्र। २. हिरण्याक्ष का एक पुत्र। ३. दशरथ का एक मंत्री।
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धृष्णक्  : वि० [सं०√धृष्+नजिङ्]=धृष्ट।
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धृष्णि  : पुं० [सं०√धृष्+नि] प्रकाश की रेखा। किरण।
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धृष्णु  : वि० [सं०√धृष्+क्नु]=धृष्ट। पुं० १. वैवस्वत मनु के एक पुत्र। २. सावर्णि मनु के एक पुत्र। ३. एक रुद्र का नाम।
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धृष्ण्वोजा (जस्)  : पुं० [सं०] कार्तवीर्य के एक पुत्र।
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धृष्य  : वि० [सं०√धृष्+क्यप्] १. जिसका धर्षण हो सके या होना उचित हो। धर्षणीय। २. जिस पर आक्रमण किये जाने के योग्य। ३. जीते जाने के योग्य।
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धेड़ी कौआ  : पुं० [धेड़ी?+हिं० कौआ] बड़ा काला कौआ। डोम कौआ।
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धेन  : पुं० [सं०√धे(पान)+नन्] १. समुद्र। २. नद। स्त्री०=धेनु।a
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धेना  : स्त्री० [सं० धेन+टाप्] १. नदी। २. वाणी। ३. दुधारू गाय।
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धेनिका  : स्त्री० [सं० धेन+कन्—टाप्, इत्व] धनिया।
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धेनु  : स्त्री० [सं० √धे+नु] १. दुधारू गाय। सवत्सा गौ। २. दुधारू गाय। गौ। ३. पृथ्वी। ४. भेंट।
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धेनु-दुग्ध  : पुं० [ष० त०] १. गाय का दूध। २. [ब० स०] चिर्भिटा नामक वनस्पति।
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धेनु-दुग्ध-कर  : पुं [ष० त०] गाजर, जिसे खाने से गौओं का दूध बढ़ता है।
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धेनु-धूलि  : स्त्री० दे० ‘गो-धूलि’।
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धेनु-मक्षिका  : स्त्री० [मध्य० स०] बड़े मच्छड़, जो चौपायों को काटते हैं। डाँस। डंस।
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धेनु-मुख  : पुं० [ब० स०] गोमुख नाम का बाजा। नरसिंहा।
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धेनुक  : पुं० [सं०√धेनु+कन्] १. एक प्राचीन तीर्थ। २. वह राक्षस जिसे बलदेव जी ने मारा था। ३. दे० ‘धैनुक’(आसन)।
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धेनुका  : स्त्री० [सं० धेनुक+टाप्] १. धेनु। गौ। २. कोई मादा पशु। ३. कामशास्त्र में, हस्तिनी स्त्री। ४. पार्वती। ५. छोटी तलवार। कटार।
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धेनुमति  : स्त्री० [सं० धेनु+मतुप्—ङीप्] गोमती नदी।
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धेनुष्या  : स्त्री० [सं० धेनु+यत्, षुक्, टाप्] वह गाय जो बंधक या रेहन रखी गई हो।
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धेय  : विं० [सं०√धा (धारण)+यत्, ईत्व] १. जो धारण किये जाने के योग्य हो। जिसे धारण कर सकें। धार्य। २. जो पीया जा सके। पेय। ३. जिसका पालन-पोषण किया जा सके या किया जाने को हो। पाल्य। प्रत्य० एक प्रत्यय जो संज्ञाओं के अन्त में लगकर अधिकारी, पात्र, वाला आदि का अर्थ देता है। जैसे—नामधेय, भागधेय।
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धेयना  : अ०=ध्यान करना।b
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धेर  : पुं० [देश०] एक अनार्य्य जाति; जो मरे हुए जानवरों का मांस खाती है।
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धेरा  : वि० [हिं० डेरा=भेंगा] भेंगा। पुं० [हिं० धेरी] १. पुत्र। २. लड़की का पुत्र। नाती।
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धेरी  : स्त्री। [सं० दुहिता] पुत्री।
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धेलचा  : पुं० [हिं० अधेला] आधा पैसा। अधेला। धेला।a वि० एक अधेले अथवा धेले के मूल्य का उदा०—मानों कोई धेलचा कनकौआ गंडेवाले कनकौवे को काट गया हो।—प्रेमचन्द।
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धेला  : पुं०=अधेला। (पश्चिम)
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धेली  : स्त्री० [हिं० आधा] आधा रुपया या उसका सिक्का। अठन्नी।
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धेवता  : पुं० [स्त्री० धेवती] दोहता (नाती)।a
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धै  : अव्य० [हिं० दुहाई] दुहाई। जैसे—राम-धै।a
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धैताल  : वि०=धौताल।a
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धैनव  : वि० [सं० धेनु+अञ्] १. धेनु अर्थात् गौ से संबंध रखनेवाला। २. गौ से उत्पन्न या प्राप्त होनेवाला। जैसे—धैनव दुग्ध। पुं० धेनु अर्थात गौ का बच्चा। बछड़ा।
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धैना  : पुं० [हिं० धरना=पकड़ना] १. पकड़ा या ग्रहण किया हुआ काम। २. पकड़ी या ग्रहण की हुई आदत। टेव। ३. जिद। हठ।a स०=धरना (पकड़ना)।a
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धैनुक  : पुं० [सं० धेनु +ठक्—क] गौओं का दल। २. काम शास्त्र में, एक प्रकार का आसन या रति-बंध।
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धैर्य  : पुं० [सं० धीर+ष्यञ्] १. मन का वह गुण या शक्ति जिसकी सहायता से मनुष्य कष्ट या विपत्ति पड़ने पर भी विचलित या व्यग्र नहीं होता और शान्त रहता है। संकट के समय भी उद्विग्नता, घबराहट, विकलता आदि से रहित होने की अवस्था या भाव। धीरज। सब्र। क्रि० प्र०—धरना।
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धैवत  : पुं० [सं० धीमत्+अण्, पृषो० म को व] संगीत में, सात स्वरों में से छठा स्वर जो मदंती, रोहिणी और रम्या नाम की तीन श्रुतियों के योग से बनता है। पंचम और निषाद के बीच का स्वर। इसका संकेत-चिह्न ‘ध’ है। विशेष—कहते हैं कि इस स्तर का उच्चारण मूलतः नाभी से होता है; और किसी के मत से घोड़े के हिनहिनाने और किसी के मत से मेढक के टरटराने के समान होता है। यह षाड़व जाति का, क्षत्रिय वर्ण का और पीले रंग का माना गया है और भयानक तथा वीभत्स रस के लिए उपयुक्त कहा गया है।
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धैवत्य  : पुं० [सं० धीवन्+ष्यञ्, न को त] चतुराई। चालाकी।
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धो  : पुं० [हिं० धोना] एक बार किसी वस्त्र के धुलने या धोये जाने का भाव। धोव। जैसे—दो धो में धोती फट गई।a
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धोई  : स्त्री० [हिं० धोना] १. वह दाल जो भिगो और धोकर छिलके से अलग कर ली गई हो। २. अफीम बनाने के बरतन की धोवन।
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धोकड़  : वि० [देश०] मोटा-ताजा। हट्टा-कट्टा।a
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धोंकना  : अ० [?] काँपना, थरथराना या बार-बार हिलना।a सं०=धौंकना।
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धोका  : पुं०=धोखा।a
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धोख  : पुं०=धोखा।a
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धोखा  : पुं० [सं० द्रोधः प्रा० दोह] १. किसी को बहला या बहकाकर उसके स्वार्थ और अपने वचन के विरुद्ध किया जानेवाला अनैतिक आचरण। जैसे—आज भी वे समय पर धोखा देंगे। मुहा०—धोखा खाना=ठगा जाना। धोखा देना=किसी के साथ छलपूर्ण व्यवहार करना। २. पहचानने, समझने आदि में होनेवाली भूल। भ्रम। जैसे—आँखें धोखा खा गईं और रस्सी को साँप समझ बैठीं। क्रि० प्र०—खाना। ३. भ्रम उत्पन्न करनेवाली कोई बात ऐसी चीज जिसे देखकर धोखा होता हो। पद—धोखे की टट्टी=(क)वह टट्टी या आवरण जिसकी आड़ से शिकारी शिकार करते हैं। (ख) दूसरों को भ्रम में डालनेवाली चीज या बात। मुहा०—धोखा खड़ा करना=आडंबर रचना। ४. अनजान या अज्ञान से होनेवाली भूल। पद—धोखे में या धोखे से=भूल से। जैसे—यह प्रश्न धोखे से छूट गया। ५. अनिष्ट की संभावना। जैसे—इस काम में धोखा है। ६. आशा या विश्वास के विरुद्ध होनेवाला कार्य या फल। मुहा०—(किसी व्यक्ति का) धोखा दे जाना=असमय में ही मर जाना। जैसे—भाई साहब बहुत बुरे समय में धोखा दे गये। ७. बेसन, मैदे आदि का एक पकवान, जिसमें रूई आदि मिलाकर दूसरों को छकाने या बेवकूफ बनाने के लिए खिलाया जाता है। ८. दे० ‘विजूखा’। ९. ‘खट-खटा’
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धोखेबाज  : वि० [हिं० धोखा+फा० बाज] [भाव० धोखेबाजी] जो प्रायः लोगों को धोखा देता रहता है। छली। धूर्त।
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धोखेबाजी  : स्त्री० [हिं० धोखेबाज] धोखेबाज होने की अवस्था, गुण या भाव। छल। धूर्तता।
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धोटा  : पुं० [स्त्री० धोटी]=ढोटा (पुत्र या बालक)।a
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धोड़  : पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप।
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धोंडाल  : वि० [हिं०] (जमीन या मिट्टी) जिसमें कंकड़-पत्थर आदि मिले हों।
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धोतर  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मोटा कपड़ा जो गाढ़े की तरह का होता है। अधोतर। २. पहनने की धोती। (महाराष्ट्र)
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धोतरा  : पुं० [?] १. =धोतर। २. =धतूरा।a
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धोती  : स्त्री० [सं० अधोवस्त्र] प्रायः नौ-दस हाथ लम्बा और दो-ढाई हाथ चौड़ा कपड़ा, जो कमर और उसके नीचे के अंग ढकने के लिए पहना जाता है। विशेष—स्त्रियाँ इससे कमर के नीचे के अंग ढकने के सिवा ऊपर के अंग भी ढक लेती हैं। मुहा०—धोती ढीली होना=साहस छूट जाना। स्त्री० दे० ‘धौति’।
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धोंधवा  : पुं० [हिं० धुआँ] [स्त्री० अल्पा० धोंधकी] वह मार्ग जो घर का धुआँ बाहर निकालने के लिये छत या दीवार पर बनाया जाता है।a
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धोंधा  : पुं० [अनु०] १. मिट्टी आदि का बे-डौल पिंड। लोंदा। २. भद्दी और बे-डौल। आकृति, पिंड या शरीर। वि० १. बे-डौल। बे-ढंगा। २. मूर्ख। मूढ़। पद—धोंधा बसंत=बहुत मोटा और वज्र मूर्ख। (व्यंग्य)
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धोना  : सं० [सं० धावन=धोना] १. जल या कोई तरल पदार्थ डालकर गंदगी, धूल, मैल आदि दूर करना। जल की सहायता से साफ या स्वच्छ करना। विशेष—इस क्रिया का प्रयोग उस आधार के संबंध में भी होता है जिस पर कोई अवांछित तत्त्व या पदार्थ पड़ा हो; जैसे—कपड़ा, बरतन, या हाथ-पैर धोना; और उस अवांछित तत्त्व या पदार्थ के संबंध में भी होता है, जिसे किसी आधार या चीज पर से हटाना अभीष्ट होता है; जैसे—कालिख, मैल या रंग धोना। पद—धोया-धाया=(क) धोकर बिलकुल साफ या स्वच्छ किया हुआ। (ख) सब प्रकार के दोषों आदि से रहित। २. कपड़ों आदि के संबंध में, खार, सज्जी, साबुन आदि की सहायता से अच्छी तरह मल या रगड़कर गंदगी, दाग, मैल आदि दूर करना। जैसे—यह धोबी कपड़े ठीक नहीं धोता। ३. जल या किसी तरल पदार्थ का किसी तल पर होते हुए चलना या बहना अथवा उसे स्पर्श करते हुए इधर-उधर होना। जैसे—(क) समुद्र हमारे देश के चरण धोता है। (ख) वह दिन-रात आँसुओं से मुँह धोती रहती थी। ४. इस प्रकार दूर करना या हटाना कि मानों जल से अच्छी तरह रगड़कर नष्ट या समाप्त कर दिया गया हो। जैसे—आपके अनुग्रह ने मेरे सब पाप धो दिये। मुहा०—धो बहाना=पूरी तरह से दूर, नष्ट या समाप्त करना। नाम को भी न रहने देना। जैसे—आपने तो उनके सारे उपकार धो बहाये (किसी चीज से) हाथ धोना या धो बैठना=सदा के लिए या स्थायी रुप से किसी चीज से रहित या वंचित होना। बिलकुल गवाँ देना। जैसे—अपनी जरा सी भूल से वे इतनी बड़ी संपत्ति से हाथ धो बैठे। हाथ धोकर (किसी काम या बात के) पीछे पड़ना=और काम या बातें छोड़कर पूरी तरह से एक ही काम या बात में लग जाना। जैसे—आज-कल वह हाथ धोकर मुकदमे के पीछे पड़े हैं। हाथ धोकर (किसी आदमी के) पीछे पड़ना=किसी को पूरी तरह से अपमानित, दुःखी या पीड़ित करने के प्रयत्न में लग जाना। जैसे—तुम तो जिससे नाराज होते हो, हाथ धोकर उसी के पीछे पड़ जाते हो।
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धोप  : स्त्री० [?] तलवार। खंग। पुं०=धो (धोव)।
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धोपा  : पुं० १=धोखा। २. =धोपेबाजी।
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धोपेबाजी  : स्त्री० [हिं० धोपा+फा० बाजी] किसी की आँख में धूल झोंककर या उसे मूर्ख बनाकर धोखा देने की क्रिया या भाव।
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धोब  : पुं०=धो या धोव।a
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धोबइन  : स्त्री०=धोबिन।a
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धोबन  : स्त्री=धोबिन।
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धोबिन  : स्त्री० [हिं० धोबी का स्त्री०] १. कपड़े धोने का व्यवसाय करनेवाली अथवा धोबी जाति की स्त्री। २. दस-बारह अंगुल लंबी एक प्रकार की सुन्दर चिड़िया, जो जलाशयों के किनारे रहती है। इसकी बोली बहुत मीठी होती ३. बीर-बहूटी नाम का कीड़ा। ४. शीशम की जाति का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी परतदार होती और इमारत के काम में आती है।
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धोबिया-पाट  : पुं०=धोबीपाट।
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धोबी  : पुं० [हिं० धोना] [स्त्री० धोबिन] १. एक जाति जो मैले कपड़े धोकर साफ करने का काम करती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। पद—धोबी का कुत्ता=ऐसा तुच्छ, निकम्मा और व्यर्थ का व्यक्ति, जिसका कहीं ठौर-ठीकाना न हो। (धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का, वाली कहावत के आधार पर)
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धोबी पछाड़  : पुं०=धोबीपाट।
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धोबी-घाट  : पुं० [हिं० धोबी+घाट] वह घाट जहाँ धोबी कपड़े धोते हैं।
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धोबी-घास  : स्त्री० [हिं०] बड़ी दूब। दूबा।
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धोबी-पाट  : पुं० [हिं०] कुश्ती का एक पेंच जिसमें जोड़ का हाथ पकड़कर अपने कंधे की ओर खींचते हैं। और उसे कमर पर लाद कर उसी तरह जमीन पर पटकते हैं जिस प्रकार धोबी कपड़े पछाड़ने के समय उन्हें पत्थर पर पटकता है।
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धोम  : पुं०=धूम (धूआँ)।a
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धोमय  : वि० [सं० धूममय] १. धूसर। धूमिल। २. गंदा। मैला।a
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धोर  : पुं० [?] किनारा। तट। उदा०—अंड को धोर ह्याँ ते रहाई।—कबीर। अव्य०=धौरे (पास)।
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धोर  : वि० [स्त्री० धोरी]=धौरी (धवल या सफेद)।a
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धोरण  : पुं० [सं०√धोर् (गति)+ल्युट्—अन] १. सवारी। २. घोड़े की सरपट चाल। ३. दौड़। ४. कार्य करने का ढंग या नीति। (महाराष्ट्र)
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धोरणि  : स्त्री० [सं०√धोर्+नि]१. श्रृंखला। २. श्रेणी। ३. परंपरा।
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धोरित  : पुं० [सं०√सं० धोर्+क्त] १. गमन। चाल। २. घोड़े की दुलकी चाल।
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धोरी  : वि० [हिं० धुरा ?] धुरा अर्थात मूल भार सँभालनेवाला। २. प्रधान। मुख्य। पुं० १. वह जो स्वामी के रुप में पूरी तरह से देख-भाल, रक्षण आदि करता हो। जैसे—इस मकान का कोई धनी-धोरी नहीं है। उदा०—काहू को सरन है, कुबेर ऐसे धोरी को।—हठी। २. वह जो निरंतर कोई विशेष काम करता रहता हो। जैसे—धंधक-धोरी। ३. श्रेष्ठ व्यक्ति। ४. नेता। ५. बैल।
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धोरे  : अव्य० [सं० धार=किनारा] निकट। पास। समीप।
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धोला  : पुं० [सं० दुरालभा] जवासा। धमासा।
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धोलाना  : सं०=धुलाना।a
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धोव  : पुं० [हिं० धोना] कपड़ा साफ करने के लिए होनेवाली उसकी प्रत्येक बार की धुलाई। वस्त्र के एक बार धुलाने का भाव। धो। जैसे—इस धोती पर अभी चार धोव भी नहीं पड़े कि यह फट गई। क्रि० प्र०—पड़ना।
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धोवत  : पुं०=धोबी।a
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धोवती  : स्त्री०=धोती।a
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धोवन  : स्त्री० [हिं० धोवना=धोना] १. धोने की क्रिया या भाव। २. वह पानी जो कोई चीज धोने पर निकला हो। जैसे—चावलों की धोवन।
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धोवना  : सं०=धोना।b
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धोवा  : पुं० [हिं० धोवना=धोना]१. कोई चीज धोने पर निकला हुआ गंदा या मैला पानी। धोवन। २. जल। पानी। ३. अरक।
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धोवाना  : स०=धुलना।a अ०=धुलना।
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धोसा  : पुं० [?] गुड़ आदि का सूखा हुआ पिंड। भेली।a
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धौ  : अव्य० [सं० अथवा] अवधी, ब्रज आदि बोलियों का एक अव्यय, जिसका प्रयोग नीचे लिखे अर्थों और रूपों में होता है—१. विकल्पात्मक कथन में, अनिश्चय या संशय के साथ किंचित् कुतूहल का भाव सूचित करने के लिए ठीक कहा नहीं जा सकता कि ऐसा है या वैसा, अथवा यह है या वह। उदा०—गुनत सुदामा जात मनहिं मन चीन्हैंगे धौं नाहीं।—सूर। २. न जाने। पता नहीं। मालूम नहीं। उदा०—(क) अब धौं कहा करिहि करतारा।—तुलसी। ३. ‘तो’ ‘भला’ आदि की तरह किसी बात या शब्द पर केवल जोर देने के लिए। उदा०—जड़ पंच मिलै जेहि देह करी, करनी लखु धौं धरनी धर की।—तुलसी। (ख) तुम कौन धौं पाठ पढ़े हौ लला।—घनानंद। ४. तुम्हीं कहो या बताओ तो सही। उदा०—(क) अब धौं कहाँ कौन दर जाऊँ।—सुर (ख) कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।—तुलसी। ५. संयोजक अव्यय ‘कि’ की तरह या उसके स्थान पर। उदा०—हमहुँ न जानै धौं सो कहाँ।—जायसी। ६. खाली ‘तो’ की तरह या उसके स्थान पर। जैसे—कि धौ या की धौं। ७. निश्चित या स्पष्ट रूप से। अच्छी तरह। उदा०—तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियाँ भामिनी।—तुलसी।
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धौ  : पुं० [सं० धव] एक ऊँचा झाड़ या सदाबहार पेड़, जिसकी पत्तियाँ और छाल चमडा सिझाने के काम में आती हैं और फूलों से लाल रंग बनाया जाता है। धव। पुं० [सं० धव] समस्त पदों के अंत में, पति। उदा०—गिराधौ, रमाधौ, उमाधौ अनंता।—केशव।
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धौ-काँदव  : पुं० [सं० धान्य-कर्दम] एक प्रकार का धान और उसका चावल।
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धौं-धौ-मार  : स्त्री० [अनु० धम-धम+हिं० मार] उतावली। जल्दी। शीघ्रता। क्रि० प्र०—मचाना
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धौंक  : स्त्री० [हिं० धौंकना] धौंकना की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० धधकना] आग की लपट। लौ।a
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धौंकना  : सं० [सं० धमन या धम्?] १. आग दहकाने के लिए पंखे, भाथी आदि की सहायता से, उस पर निरन्तर जोर की हवा पहुँचाते रहना। (ब्लोइंग) २. उग्रता या कठोरतापूर्वक किसी पर कोई भार रखना या लादना। जैसे—तुमने भी तो छोटे-से लड़के पर मन भर का भार धौंक दिया। ३. दंड के संबंध में उग्रता या कठोरतापूर्वक आदेश देना। जैसे—किसी पर जुरमाना धौंकना।
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धौकना  : सं०=धौंकना।
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धौंकनी  : स्त्री० [हिं० धौंकना, सं० धमनिका] १. प्रायः चमड़े की थैली का बना हुआ एक उपकरण, जिसे बार-बार खोलकर बन्द करने और दबाने से उसके अंदर भरी हुई हवा नीचे लगी हुई नली के रास्ते आग तक पहुँचकर उसे दहकाने या उसे सुलगाने में सहायक होती है। भाथी। विशेष—प्रायः लोहार, सुनार आदि अपनी भट्ठी सुलगाने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। २. धातु, बाँस आदि की वह पतली नली जिससे मुँह से हवा फूँककर आग आदि सुलगाई जाति है। फुकनी।
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धौकनी  : स्त्री०=धौंकनी।
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धौकरा  : पुं०=धौरा (बाकली की तरह का वृक्ष)।a
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धौंका  : पुं० [हिं० धौंकना] गरमी में चलनेवाली तेज गरम हवा का झोंका।
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धौकिया  : पुं० [हिं० धौंकना] १. धौंकनी चलाने अर्थात् धौंकनेवाला आदमी। २. वह कारीगर जो बरतनों की मरम्मत या उन पर कलई करने के लिए धौकनी साथ लेकर जगह-जगह घूमता हो।
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धौंकी  : पुं०=धौंकिया। स्त्री०=धौंकनी।
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धौंज  : स्त्री० [हिं० धावना=धाना या दौड़ना] १. दौड़-धूप। २. दौड़-धूप करने के लिए होनेवाली घबराहट या परेशानी।
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धौजन  : स्त्री०=धौंज।
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धौंजना  : अ० [हिं० धौज] १. दौड़—धूप करना। २. परेशान या हैरान होना। सं० १. पैरों से कुचलना। रौंदना। २. परेशान या हैरान करना।
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धौंटा  : पुं० [?] नटखट पशुओं की आँखों पर बाँधा जानेवाला आवरण या पट्टी। अंधियारी। पुं०=धोटा (पुत्र या बालक)।a
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धौत  : वि० [सं०√धाव् (शुद्धि)+क्त] १. जो धोया या धोकर साफ किया जा चुका हो। २. उजला। सफेद। ३. जो नहा-धो चुका हो। स्नात। पुं० चाँदी। रूपा।
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धौत-शिला  : स्त्री० [कर्म० स०] बिल्लौर। स्फटिक।
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धौतय  : पुं० [सं० धौत√या (गति)+क] सेंधा नमक।
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धौतात्मा (त्मन्)  : वि० [धौत-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा पापों के धुल जाने के कारण पवित्र और शुद्ध हो गई हो। पवित्रात्मा।
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धौंताल  : वि० [हिं० धुन?] १. जो काम करने में अपनी धुन का पक्का हो। २. चतुर चालाक। ३. चंचल। चपल। ४. निपुण। पटु। ५. साहसी। ६. उजड्ड। गँवार। ७. उपद्रवी। शरारती। (संभवतः व्यंग्यात्मक)
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धौताल  : वि०=धौताल।
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धौति  : स्त्री० [सं०√धाव्+क्तिन्] १. धोकर साफ करने की क्रिया। धुलाई। २. योग की एक क्रिया जिसमें दो अंगुल चौड़ी और आठ-दस हाथ लंबी कपड़े की धज्जी मुँह से पेट के नीचे उतारते हैं, और फिर पानी पीकर उसे धीरे-धीरे बाहर निकालते हैं। इस क्रिया से पेट और आतें धुलकर साफ हो जाती है। ३. उक्त क्रिया के लिए काम में लाई जानेवीली कपड़े की धज्जी या पट्टी।
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धौम्य  : पुं० [सं० धूम+यभ्] १. एक ऋषि, जो देवल के भाई और पांडवों के पुरोहित थे। और जो अब पश्चिमी आकाश में स्थित एक तारे के रूप में माने जाते हैं। २. एक ऋषि जो महाभारत के अनुसार व्यघ्रपद नामक ऋषि के पुत्र और बहुत बड़े शिव-भक्त थे। और शिव के प्रसाद से अजर, अमर और दिव्य ज्ञान संपन्न हो गये थे। ३. एक ऋषि का नाम जिन्हें आयोद भी कहते थे। इनके आरुणि, उपमन्यु और वेद नामक तीन शिष्य थे। ४. एक ऋषि, जो पश्चिम दिशा में तारे के रूप में स्थित माने जाते हैं।
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धौम्र  : वि० [सं० धूम्र+अण्] धूएँ के रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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धौंर  : स्त्री० [सं० धवल] एक प्रकार की सफेद ईख।a
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धौर  : पुं० [हिं० धौरा=सफेद] सफेद परेवा।
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धौरहर  : पुं० [सं० धवलगृह] १. मकान का वह ऊपरी भाग, जो खंभे की तरह बहुत ऊँचा गया हो और जिस पर चढ़ने के लिए अन्दर-अन्दर सीढ़ियाँ बनी हों। धरहरा। २. उक्त में बना हुआ कमरा। ३. दे० ‘धरहरा’।
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धौरा  : वि० [सं० धवल] [स्त्री० धौरी] १. श्वेत। सफेद। २. उजला। साफ। पुं० १. सफेद रंग का बाल। २. धौ का पेड़। ३. पंडुक की तरह की एक चिड़िया, जो उससे कुछ बड़ी और खुलते रंग की होती है। पुं० [सं० धव] बाकली की तरह का एक प्रकार का वृक्ष जो मध्यभारत में अधिकता से होता है।a
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धौरादित्य  : पुं० [सं०] शिवपुराण के अनुसार एक तीर्थ।
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धौराहर  : पुं०=धौरहर।
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धौरितक  : पुं० [सं० धोरित+अण्+कन्] घोड़े की पाँच प्रकार की चालों में से एक।
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धौरिय  : पुं० [सं० धौरेय] बैल।
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धौरी  : स्त्री० [हिं० धौरा] १. सफेद रंग की गाय। कपिला। २. एक प्रकार की चिड़िया। स्त्री०=बाकली।
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धौरे  : अव्य०=धोरे (निकट या पास)। उदा०—धरि रहै। हाथ माथ के धौरे।—नन्ददास।
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धौरेय  : वि० [सं० धुरा+ढक्—एय] धुर (रथ आदि) खींचनेवाला। पुं० रथ में जोता जानेवाला। बैल।
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धौर्तक  : पुं० [सं० धुर्त+बुञ्—अक]=धूर्तता।
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धौर्त्य  : पुं० [सं० धुर्त+ष्यञ्] धूर्तता।
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धौर्य  : पुं० [सं० धुर+ण्यत्] घोड़े की एक प्रकार की चाल।
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धौल  : स्त्री० [अनु०] १. हाथ के पंजे या हथेली से सिर पर किया जानेवाला आघात। क्रि० प्र०—जड़ना।—जमाना।—देना।—पड़ना।—मारना।—लगाना। पद—धौल-धप्पा या धौल-धप्पड़=परस्पर धौल और धप्पड़ मारना। २. आर्थिक आघात या धक्का। जैसे—दस रुपये की धौल तुम्हें भी लगी। क्रि० प्र०—पड़ना।—लगना। स्त्री० [सं० धवल] कानपुर, बरेली आदि में होनेवाली एक प्रकार की ईख। पुं० [सं० धवल] धौ का पेड़। धव। वि० १. उजला। सफेद। २. बहुत बड़ा। जैसे—धौल धूर्त=बहुत बड़ा धूर्त। पुं०=धवलगृह (धौरहर)।a
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धौलाई  : स्त्री०=धवलता।
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धौंस  : स्त्री० [सं० दंश या हिं० धौंकना] १. किसी को असमंजस में पड़ा हुआ या दुर्बल समझकर उसके साथ किया जानेवाला ऐसा आचरण या व्यवहार अथवा उससे कही जानेवाली ऐसी बात जिससे वह डरकर धोखे में पड़ जाय और प्रतिकूल या विरुद्ध आचरण न कर सके। (प्रायः बराबरवालों के लिए प्रयुक्त) जैसे—तुम भी उनकी धौंस में आकर सौ रुपए गँवा बैठे। विशेष—यह शब्द धमकी का बहुत-कुछ समानक होने पर भी भाव-व्यंजन की दृष्टि से कुछ हलका तथा धोखेबाजी के भाव से युक्त है। २. इस प्रकार दिखाया जानेवाला भय तथा जमाया जानेवाला आतंक। जैसे—अच्छा, अब आप बहुत धौंस मत दिखाइए। क्रि० प्र०—दिखाना।—देना।—में आना। ३. स्वार्थ-साधन के लिए किसी को दिया जानेवाला चकमा झाँसा-पट्टी। भुलावा। ४. अधिकार, प्रभुत्व आदि का आतंक। धाक। क्रि० प्र०—जमना।—जमाना।—बँधना।—बाँधना। मुहा०—धौंस की चलना=अपना आतंक जमाते या भय दिखाते हुए धूर्ततापूर्ण आचरण या व्यवहार करना अथवा गहरी चाल चलना। ५. ब्रिटिश भारत में वह रुपया जो लगान या मालगुजारी ठीक समय पर न देने के कारण दंड-स्वरूप असामी या जमींदार से वसूली के खर्च के रूप में लिया जाता था। मुहा०—धौंस बाँधना=दंड आदि के रूप में किसी के जिम्मे कोई खर्च लगाना या उससे वसूल करना। स्त्री०=धुवाँस।a
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धौंस-पट्टी  : स्त्री० [हिं० धौस+पट्टी] १. ऐसी बात-चीत जिसमें कुछ धमकी भी हो और कुछ भुलावा भी दिया जाय। २. झाँसा-पट्टी। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—(किसी की) धौंस-पट्टी में आना= किसी की धमकी से डरकर या बहकावे में आकर कोई काम कर बैठना।
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धौंसना  : सं० [सं०, दंशन, हिं० धौंस] १. दंड आदि के रूप में कोई काम, खरच या भार किसी के जिम्मे लगाना। धौंकना। २. अपना काम निकालने के लिए किसी तरह की जबरदस्ती या बल-प्रयोग करना। ३. डराना-धमकाना। ४. डाँटना-डपटना। ५. मारना-पीटना।
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धौंसा  : पुं० [हिं० धौंसना] १. बड़ा नगारा। डंका। मुहा०—धौंसा देना=सेना का आक्रमण या कूच करने के लिए डंका या नगाड़ा बजाना। २. शक्ति। सामर्थ्य। जैसे—किसी का क्या धौंसा है जो इस काम में हाथ डाले।
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धौंसिया  : पुं० [हिं० धौंस] १. दूसरों पर केवल धौंस जमाकर अपना काम निकालनेवाला। २. चालाक। धूर्त। ३. मध्ययुग में, वह व्यक्ति जो कुछ पारिश्रमिक लेकर जमींदारों की बाकी मालगुजारी असामियों से वसूल करने का काम करता था। पुं० [हिं० धौंसा] वह जो धौंसा बजाने का काम करता था।
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ध्मात  : वि० [सं०√ध्या (शब्द)+क्त] १. बजाया हुआ। २. क्षुब्ध किया हुआ।
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ध्मान  : पुं० [सं०√ध्या+ल्युट्—अन्] बजाने की क्रिया।
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ध्मापन  : पुं० [सं०√ध्मा+णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० ध्मापित] १. फूँककर कोई चीज फुलाने का कार्य। २. जलाकर राख करना।
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ध्यात  : भू० कृ० [सं०√ध्यै (चिंतन)+क्त] १. जिसका ध्यान किया गया हो। २. जो ध्यान में लाया गया हो विचारा या सोचा हुआ।
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ध्यान  : पुं० [सं०√ध्यै+ल्युट्—अन] १. अंतःकरण या मन की वह वृत्ति या स्थिति जिसमें वह किसी चीज या बात के संबंध में चिंतन, मनन या विचार करने में अग्रसर या प्रवृत्त होता। किसी विषय को मानस-क्षेत्र में लाने या प्रत्यक्ष करने की अवस्था या भाव। मन का किसी विशिष्ट काम या बात की ओर लगना या होना। खयाल। जैसे—(क) हमारी बात ध्यान से सुनो। (ख) अभी वे किसी और ध्यान में हैं, उन्हें मत छेड़ो। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—दिलना।—देना।—लगना।—लगाना। विशेष—मानसिक और शारीरिक क्षेत्रों के अधिकतर कामों में हम मुख्यतः ध्यान की प्रेरणा और बल से ही प्रवृत्त होते हैं। कभी तो बाह्य इंद्रियों का कोई व्यापार हमारा ध्यान किसी ओर लगाता है,(जैसे—कोई चीज दिखाई पड़ने पर उसकी ओर ध्यान जाना) और कभी मन स्वतः किसी प्रकार के ध्यान में लग जाता है;(जैसे—कोई बात याद आने पर उसकी ओर ध्यान जाना या लगना)। यह हमारे अंतःकरण या चेतना की जाग्रत अवस्था का ऐसा व्यापार है जिससे कोई बात, भाव या रूप हमारे विचार का केन्द्र बन जाता या हमारे मन में सर्वोपरि हो जाता है। मुहा०—(किसी चीज या बात पर) ध्यान जमना=चित्त का एकाग्र होकर किसी ओर उन्मुख होना। किसी काम या बात में मन का समुचित रूप से प्रवृत्त होकर स्थित होना। ध्यान बँटना=जब ध्यान एक ओर लगा हो, तब कोई दूसरा काम या बात सामने आने पर उसमें बाधा या विध्न होना। ध्यान बँधना या लगना=(क) दे० ऊपर ‘ध्यान जमना’। (ख) किसी प्रकार के मानसिक चिंतन का क्रम बराबर चलता रहना। जैसे—जब से उनकी बीमारी का समाचार मिला है, तब से हमारा ध्यान उन्हीं की तरफ बँधा (या लगा) है। (किसी के) ध्यान में डूबना, मग्न होना या लगना=किसी के चिंतन, मनन या विचार में इस प्रकार प्रवृत्त या लीन होना कि दूसरी बातों की चिंता, विचार या स्मरण ही न रह जाय। उदा०—कब की ध्यान-लगी लखैं, यह घरु लगिहै काहि।—बिहारी। (किसी को) ध्यान में लाना=(क) किसी को अपने मानस-क्षेत्र में स्थान देना या स्थापित करना। बराबर मन में बनाये रखना। उदा०—(क) ध्यान आनि ढिग प्रान—पति रहति मुदित दिन राति।—बिहारी। (ख) किसी का कुछ महत्त्व समझाते या सम्मान करते हुए उसके संबंध में कुछ विचार करना या सोचना। चिंता या परवाह करना। जैसे—वह तुम्हारे भाई साहब को तो ध्यान में लाता ही नहीं, तुम्हें वह क्या समझेगा! (किसी काम, चीज या बात का) ध्यान रखना=इस प्रकार सतर्क या सावधान रहना कि कोई अनुचित या अवांछनीय काम या बात न होने पावे अथवा कोई क्रम इष्ट और यथोचित रूप में चलता रहे। जैसे—(क) ध्यान रखना; यहाँ से कोई चीज गुम न होने पावे। (ख) हमारी अनुपस्थित में रोगी का ध्यान रखना। पद—ध्यान से=तत्पर, दत्तचित्त या सावधान होकर। जैसे—चिट्ठी जरा ध्यान से पढ़ो। २. अंतःकरण या मन की वह वृति या शक्ति जो उसे किसी चीज या बात का बोध कराती, उसमें कोई धारणा उत्पन्न करती अथवा कोई स्मृति जाग्रत करती है। जैसे—हमने उन्हें एक बार देखा तो है, पर उनकी आकृति हमारे ध्यान में नहीं आ रही। मुहा०—ध्यान पर चढ़ना= किसी बात का चित्त या मन में कुछ समय के लिए अपना स्थान बना लेना। जैसे—अब तक वही दृश्य हमारे ध्यान पर चढ़ा है। ध्यान से उतरना=ध्यान के क्षेत्र से बाहर हो जाना। याद न रह जाना। जैसे—आपकी पुस्तक लाना मेरे ध्यान से उतर गया। ३. धार्मिक क्षेत्र में उपासना, पूजा आदि के समय अपने इष्टदेव अथवा अध्यात्म-संबंधी तत्वों या विषयों के संबंध में भक्ति और श्रद्धा से मन में शांतिपूर्वक किया जानेवाला चिंतन, मनन या विचार। उदा०—बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू।—तुलसी। क्रि० प्र०—करना।—छूटना।—टूटना।—लगना।—लगाना। विशेष—उसका मुख्य उद्देश्य यही होता है कि ध्याता अपने ध्येय के विचार में तन्मय और लीन होकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित करने का प्रयत्न करे। श्रृंगारिक क्षेत्र में प्रिय का किया जानेवाला ध्यान भी बहुत-कुछ इसी प्रकार का होता है। यथा—पिय कै ध्यान गही गही, रही वही ह्वै नारी।—बिहारी। मुहा०—(किसी का) ध्यान करना=अपने मन के सामने किसी की मूर्ति या रूप रखकर उसके चिंतन या मनन में लीन होना। परमात्माचिंतन के लिए मन एकाग्र करके बैठना। जैसे—अपने इष्टदेव या ईश्वर का ध्यान करना। ४. योगशास्त्र में, आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करने के लिए चित्त या मन पूरी तरह से एकाग्र और स्थिर करने की क्रिया या भाव। विशेष—योग के आठ अंगों में ‘ध्यान’ सातवाँ अंग कहा गया है। यह ‘धारणा’ नामक अंग के बाद आनेवाली वह स्थिति है जिसमें धारणीय तत्व के साथ चित्त एक-रस हो जाता है। इसी की चरम तथा पूर्ण अवस्था ‘समाधि’ कहलाती है। जैन और बौध में भी इस प्रकार के ‘ध्यान’का विशेष महत्व है। ५. किसी अमूर्त तत्त्व को व्यक्ति के रूप में मानकर उसके कल्पित गुण, मुद्रा, स्थिति आदि के आधार पर स्थिर की हुई वह प्रतिकृति या मूर्ति जो हम अपने मानस-क्षेत्र में उसके प्रत्यक्ष दर्शन या साक्षातकार के लिए कल्पित या निरूपित करते हैं। विशेष—धार्मिक ग्रंथों में देवी-देवताओं, तांत्रिक ग्रंथों में मंत्र-यंत्रों, संगीतशास्त्र के ग्रंथों में राग रागिनियों और साहित्यिक ग्रंथों में ऋतुओं, रसों आदि के इस प्रकार के विशिष्ट ध्यान छंदोबद्ध रूप में निरूपित हैं। जिनके आधार पर उनके चित्र, मूर्तियाँ आदि बनाई जाती हैं।
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ध्यान-योग  : पुं० [मध्य० स०] योग अर्थात् कार्य—साधन का वह प्रकार जिसमें ध्यान की प्राधानता हो।
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ध्यानस्थ  : वि० [सं० ध्यान√स्था (ठहरना)+क] जो ध्यान करने में मग्न या लगा हुआ हो। ध्यान में लीन।
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ध्याना  : सं० [सं० ध्यान] १. किसी विषय, व्यक्ति आदि का ध्यान करना। २. ईश्वर का चिंतन करना।
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ध्यानावस्थित  : वि० [ध्यान-अवस्थित, स० त०]=ध्यानस्थ।
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ध्यानिक  : वि० [सं० ध्यान+ठक्—इक] १. ध्यान-संबंधी। ध्यान का। २. जो ध्यान के द्वारा प्राप्त या सिद्ध हो सके। ध्यान-साध्य।
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ध्यानिक बुद्ध  : पुं० [सं०] एक प्रकार के अशरीरी बुद्ध जिनकी संख्या १0 कही गई है।
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ध्यानी (निन्)  : वि० [सं० ध्यान+इनि] १. ध्यान करनेवाला। २. जो ध्यान लगाकर बैठता या बैठा हो। ३. समाधि लगानेवाला (योगी)।
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ध्येय  : वि० [सं०√ध्यै+यत्] १. जिसे ध्यान में लाया जा सके। २. जो ध्यान का विषय हो। जिसका ध्यान किया जा रहा हो। पुं० वह तत्व, कार्य या बात जिसे ध्यान में रखकर उसकी सिद्धि के लिए प्रयत्न किया जाय।
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ध्रगध्रगी  : स्त्री०=धगधगी (धुकधुकी)।a
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ध्रम,ध्रम्म  : पुं०=धर्म।b
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ध्रिग  : स्त्री०=धिक्कार।
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ध्रु  : पुं० [सं० धुर] मस्तक। सिर। उदा०—ध्रु माला संकर धरी।—प्रिथीराज।
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ध्रुपद  : पुं० [सं० ध्रुवपद] राग-रागिनियाँ गाने की एक विशिष्ट शैली या प्राकर जिसमें लय और स्वर बिलकुल बँधे हुए होते हैं और जिसमें नियत रूप से कुछ भी विचलन नहीं हो सकता। इसका प्रचलन ई० १5 वीं शती के अंत में ग्वालियर के राजा मान तोमर ने किया था।
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ध्रुपदिया  : पुं० [हिं० ध्रुपद+ईया (प्रत्य०)] वह गवैया जो ध्रुपद में गाने गाता हो।
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ध्रुव  : वि० [सं०√ध्रु (स्थिर होना)+क] [भाव० ध्रुवता] १. सदा एक स्थान पर अथवा ज्यों का त्यों बना रहनेवाला। अचल। अटल। २. सदा एक ही अवस्था या रूप में बना रहनेवाला। नित्य। शाश्वत। ३. जिसमें किसी प्रकार का अंतर न पड़ सके या परिवर्तन न हो सके। बिलकुल निश्चिंत और दृढ़ या पक्का। पुं० १. आकाश। २. शंकु। ३. पर्वत। ४. खंभा। ५. वट वृक्ष। ६. आठ वसुओं में से एक। ७. विष्णु। ८. ध्रुपद नामक गीत। ९. नाक का अगला भाग। १॰..फलित ज्योतिष में एक प्रकार का शुभ योग, जिसमें जन्म लेनेवाला बालक ज्योतिषियों के मत से बहुत ही बुद्धिमान, विद्वान् और यशस्वी होता है। ११. भूगोल में पृथ्वी के वे दोनों नुकीले सिरे जिनके बीच की सीधी रेखा अक्ष-रेखा कहलाती है। विशेष—ये दोनों सिरे उत्तरी ध्रुव या सुमेरु और दक्षिणी ध्रुव या कुमेरु कहलाते हैं। इन ध्रुवों के आस-पास के प्रदेश बहुत अधिक ठंढे हैं। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब उत्तरी ध्रुव में छः महीने तक दिन रहता है, और दक्षिणी ध्रुव में रात रहती है। सूर्य के दक्षिणायन होने पर दक्षिणी ध्रुव में छः महीने तक दिन रहता है; और उत्तरी ध्रुव में रात होती है। १२. एक प्रसिद्ध तारा जो सदा उत्तरी ध्रुव या सुमेरु के ठीक ऊपर रहता है। विशेष—वास्तव में यह तारा शिंशुमार नामक तारकपुंज के सातों तारों में से एक है। इस तारक-पुंज का जो तारा पृथ्वी के अक्ष-विन्दु की सीध से परम निकट होता है। वही पृथ्वी के निवासियों की दृष्टि में ध्रुव (अर्थात अचल और अटल) होता है। परंतु ज्योतिषियों का कहना है कि अयन वृत के चारों ओर नाड़ी मंडल के मेरु की जो गति होती है उसके फलस्वरूप बारह हजार वर्ष बीतने पर आज-कल का ध्रुव तारा मेरु की सीध से दूर हट जायगा और तब शिंशुमार तारक-पुंज का अभिजित् नामक दूसरा तारा हम लोगों का ध्रुव तारा हो जायगा। आज-कल हमारे मेरु से वर्तमान ध्रुव का व्यवधान-अंतर केवल १ अंश ३ कला है; पर आज से दो हजार वर्ष पहले यह अंतर १२ अंश था। इसी आधार पर यह पता चलता है कि आज से 5 हजार वर्ष पहले कोई दूसरा तारा हमारा ध्रुव था। यह भी कहा जाता है कि उत्तरी ध्रुव तारे की तरह एक दक्षिणी ध्रुव तारा भी है जो कुमेरू की ठीक सीध में है। १३. पुराणानुसार राजा उत्तानपाद के एक पुत्र, जो उनकी सुनीति नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विशेष—कहते हैं कि इनकी एक विमाता भी थी, जिसका नाम सुरुचि था; और जिसके पुत्र का नाम उत्तम था। एक दिन जब उत्तम अपने पिता की गोद में बैठ खेल रहा था तब ध्रुव भी पिता की गोद में जा बैठा। इस पर सुरुचि ने अवज्ञापूर्वक ध्रुव को वहाँ से हटा दिया। इससे खिन्न होकर ध्रुव घर से निकल गये और वन में जाकर तपस्या करने लगे। विष्णु ने इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर इन्हें वरदान दिया था कि तुम सब ग्रह-नक्षत्रों तथा लोकों के ऊपर और उनके आधार बनकर एक जगह अचल भाव से रहोगे और तुम्हारे रहने का स्थान ध्रुवलोक कहलायेगा। तभी से पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के ऊपर ये ध्रुव तारे के रूप में अचल और अटल भाव से स्थित हैं। १४. फलित ज्योतिष में नक्षत्रों का एक गण, जिसमें उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तरभाद्रपद और रोहिणी नामक नक्षत्र है। १५. सोम रस का वह भाग जो सबेरे से सन्ध्या तक किसी देवता को अर्पित हुए बिना यों ही पड़ा रहे। १६. एक प्रकार का यज्ञ-पात्र। १७. मुँह का एक रोग, जिसमें तालू में पीड़ा, लाली और सूजन होती है। १८. छंदशास्त्र में, रगण का अठारहवाँ भेद, जिसमें पहले एक लघु, तब एक गुरु और तब फिर तीन लघु होते हैं। १९. घोड़ों के शरीर के कुछ विशिष्ट स्थानों के होनेवाली भौंरी या चक्र। दे० ‘ध्रुवावर्त्त’।
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ध्रुव धेनु  : स्त्री० [कर्म० स०] बहुत ही सीधी गाय, जो दूहे जाने के समय हिले तक नहीं।
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ध्रुव-दर्शक  : पुं० [ष० त०] १. सप्तर्षि मंडल। २. कुतुबनुमा।
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ध्रुव-दर्शन  : पुं० [ष० त०] १. वर-वधू को विवाह-संस्कार के उपरान्त ध्रुव तारे का कराया जानेवाला दर्शन। २. उक्त प्रथा या रीति।
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ध्रुव-लोक  : पुं० [मध्य० स०] सत्यलोक के अंतर्गत एक प्रदेश जिसमें ध्रुव स्थित है। (पुराण)
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ध्रुवण  : पुं० [सं०] १. किसी वस्तु की ध्रुवता का पता लगाना या उसकी ध्रुवता स्थिर करना। २. वैज्ञानिक प्रक्रियाओं में, विद्युत, सूर्य आदि का प्रकाश ऐसी स्थिति में लाना कि क्षैतिज या बेड़े बल में फैलनेवाली किरणें भिन्न-भिन्न तत्त्वों में भिन्न-भिन्न प्रकार के निश्चित रूप धारण करें (पोलराइजेशन) विशेष—साधारणतः प्रकाश कि किरणें सब ओर समान रूप से पड़ती हैं परंतु जब उन्हें एक निश्चित रूप में लाना अभीष्ट होता है। तब उनका ध्रुवण किया जाता है।
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ध्रुवता  : स्त्री० [सं० ध्रुव+तल्—टाप्] १. ध्रुव होने की अवस्था, गुण या भाव। २. वैज्ञानिक क्षेत्रों में, पदार्थों, पिंडों आदि का वह गुण या स्थिति, जो उनके दो परस्पर-विरोधी अंगों या दिशाओं के बीच एक सीध में वर्तमान रहती और परस्पर विरोधी तत्त्वों, शक्तियों आदि से मुक्त रहती है। (पोलेरिटी)
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ध्रुवनंद  : [सं०] राजा नंद का एक भाई।
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ध्रुवपद  : पुं०=ध्रुपद।
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ध्रुवमत्स्य  : पुं० [कर्म० स०] दिशाओं का बोध करानेवाला यंत्र। कुतुबनुमा।
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ध्रुवरत्ना  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका।
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ध्रुवा  : स्त्री० [सं० ध्रुव+टाप्] १. एक प्रकार का यज्ञ-पात्र। २. मूर्वा। मरोड़फली। ३. शालपर्णी। सरिवन। ४. ध्रुपद नामक गीत। ५. सती और साध्वी स्त्री।
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ध्रुवाक्ष  : पुं० [ध्रुव-अक्ष, मध्य० स०] ज्योतिष्क यंत्रों का वह अक्ष जो आकाशस्थ ध्रुव की सीध में पड़ता अथवा उसकी ओर अभिमुख रहता है। (पोलर एक्सिस)
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ध्रुवाक्षर  : पुं० [ध्रुव-अक्षर, कर्म० स०] विष्णु।
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ध्रुवावर्त्त  : पुं० [ध्रुव-आवर्त्त, मध्य० स०] १. घोड़ों के शरीर के कुछ विशिष्ट अंगों में होनेवाली भौरी या चक्र। विशेष—घोड़ों के अपान, भाल, मस्तक, रंध्र या वक्षःस्थल पर होनेवाली भौरियाँ ‘ध्रुवावर्त’ कहलाती हैं। २. वह घोड़ा जिसके शरीर पर उक्त भौंरी हो।
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ध्रुवीय  : वि० [सं० ध्रुव+छ—ईय] [भाव० ध्रुवीयता] १. ध्रुव (तारा) संबंधी। २. ध्रुव-प्रदेश का। (पोलर)
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ध्रुवीयक  : पुं० [सं० ध्रुव से] वह उपकरण या तत्त्व जो ध्रुवीयण करता हो। (पोलराइजर)
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ध्रुवीयण  : पुं० [सं० ध्रुव से] ऐसी प्रक्रिया करना जिससे कहीं से आनेवाले ताप या प्रकाश का किसी लंब के दोनों सिरों पर भिन्न-भिन्न तत्त्वों का सूचक अलग-अलग प्रकार का प्रभाव या रूप दिखाई पड़े। (पोलराइजेशन)
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ध्रौव्य  : पुं० [सं० ध्रुव+ष्यञ्]=ध्रुवता।
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ध्वज  : पुं० [सं०√ध्वज् (गति)+अच्] १. बाँस आदि की तरह की कोई लंबी, सीधी लकड़ी। डंडा। २. वह डंडा जिसके सिरे पर कपड़ा लगाकर झंडा बनाया जाता है। ३. झंडा। ध्वजा। पताका। ४. किसी वस्तु या व्यक्ति का चिह्न या निशान। जैसे—देव-ध्वज, मकर-ध्वज् सीम-ध्वज आदि। ५. व्यापारियों आदि का परिचायक वह चिह्न या निशान, जो उनकी वस्तुओं आदि पर अंकित हो। (ट्रेड मार्क) ६. सन्तान उत्पन्न करने की इंद्रियाँ—भग और लिंग। ७. अपने कुल या वर्ग का ऐसा प्रधान या श्रेष्ठ व्यक्ति जो उसका भूषण अथवा मान-मर्यादा बढ़ानेवाला हो। (यौ० पदों के अन्त में) जैसे—वंशध्वज। ८. वह जो ध्वजा या पताका लेकर राजा, सेना आदि के आगे-आगे चलता हो। ९. मद्य बनाने और बेचनेवाला व्यक्ति। शौंडिक। १॰.. वह घर या मकान जो किसी विशिष्ट पदार्थ या स्थान के पूर्व में स्थित हो। ११. वह डंडा जिस पर साधु आदि प्राचीन काल में खोपड़ी टाँग कर अपने साथ ले चलते थे। १२. खाट या चारपाई की पाटी १३. आडंबर। ढोंग। १४. मिथ्या अभिमान।
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ध्वज-दंड  : पुं० [ष० त०] वह डंडा जिसके सिरे पर पताका का कपड़ा लगा रहता है।
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ध्वज-पट  : पुं० [ष० त०] झंडा। पताका।
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ध्वज-पात  : पुं० [ष० त०]=ध्वज-भंग।
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ध्वज-पोत  : पुं० [मध्य० स०] बेड़े का वह जहाज जिस पर उसका नौ-सेनापति यात्रा करता है और जिस पर उसका झंडा फहराता है। (फ्लैगशिप)
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ध्वज-भंग  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थिति जिसमें पुरुष में स्त्री-संभोग की शक्ति नहीं रह जाती। २. क्लीवता। नपुंसकता। हिजड़ापन।
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ध्वज-मूल  : पुं० [ष० त०] चुंगीधर की सीमा। (कौ०)
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ध्वज-यष्टि  : स्त्री० [ष० त०]=ध्वज-दंड।
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ध्वजक  : पुं० [सं० ध्वज+कन्] सैनिक या नौ-सैनिक झंडा। (स्टैंडर्ड)
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ध्वजा  : स्त्री० [सं० ध्वज] १. झंडा। पताका। २. मालखंभ की एक प्रकार की कसरत। ३. छन्दशास्त्र में ठगण का पहला भेद, जिसमें पहले लघु और तब गुरु होता है।
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ध्वजादि  : पुं० [ध्वज-आदि, ब० स०] फलित ज्योतिष में, एक प्रकार की गणना, जिसमें नौ कोष्ठकों का ध्वजा के आकार का एक चक्र बनाया जाता है और तब उसके आधार पर प्रश्नों के उत्तर या फल कहे जाते हैं।
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ध्वजारोपण  : पुं० [ध्वज-आरोपण, ष० त०] झंड़ा गाड़ना या लगाना।
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ध्वजांशुक  : पुं० [ध्वज-अंशुक, ष० त०] दे ‘ध्वज-पट’।
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ध्वजाहृत  : पुं० [ध्वज-आहृत, तृ० त०] १. वह धन जो शत्रु को युद्ध में जीतकर प्राप्त किया गया हो। २. पंद्रह प्रकार के दासों में से वह दास जो लड़ाई में जीतकर प्राप्त किया या लाया गया हो।
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ध्वजिक  : पुं० [सं० ध्वज+ठन्—इक] ढोंगी। पाखंड़ी।
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ध्वजिनि  : स्त्री० [सं० ध्वजिन्+ङीप्] १. सेना की एक टुकड़ी जिसका परिमाण कुछ लोग ‘वाहिनी’ का दूना बताते हैं। २. पांच प्रकार की सीमाओं में से वह सीमा, जिस पर वृक्षों आदि के रूप में चिह्न या निशान लगे हों।
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ध्वजी (जिन्)  : वि० [सं० ध्वज+इनि] [स्त्री० ध्वजिनी] १. जो हाथ में ध्वजा या पताका लिये हुए हो। २. जिस पर कोई चिह्न या निशान हो। पुं० १. वह जो सेना के आगे ध्वजा लेकर चलता हो। २. युद्ध। लड़ाई। संग्राम। ३. ब्राह्मण। ४. घोड़ा। ५. मोर। ६. साँप। ७. पर्वत। पहाड़।
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ध्वजोत्थान  : पुं० [ध्वज-उत्थान, ष० त०] १. ध्वजा उठाना या फहराना। २. प्राचीन भारत का इन्द्रध्वज नामक महोत्सव।
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ध्वन  : पुं० [सं०√ध्वन् (शब्द)+अप्] १. शब्द। २. गुंजार।
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ध्वनन  : पुं० [सं० ध्वन्+ल्युट्—अन] १. ध्वनि या शब्द करना। २. ध्वनि के रूप में कुछ अभिव्यक्ति करने की क्रिया या भाव। ३. व्यंग्यार्थ के बोध कराने की क्रिया या भाव। ४. अस्पष्ट शब्द।
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ध्वनि  : स्त्री० [सं०√ध्वन्+इ] १. वह जो कानों से सुनाई पड़े या सुना जा सके। श्रवणेंद्रिय का विषय। आवाज। शब्द। विशेष—किसी प्रकार का आघात होने से जो स्वर-लहरी उत्पन्न होकर वायु, जल आदि में से होती हुई हमारे कानों तक पहुँचती है, वही ध्वनि कहलाती है। कुछ आचार्य तो उसी को ध्वनि कहते हैं जो केवल अवर्णात्मक हो, अथवा जिसके वर्ण अलग-अलग और स्पष्ट न सुनाई पड़ते हों; और कुछ लोग वर्णात्मक तथा अवर्णात्मक दोनों प्रकार के शब्दों को ध्वनि कहते हैं। जो लोग केवल अवर्णात्मक शब्दों को ध्वनि मानते हैं, वे वर्णात्मक शब्दों से उत्पन्न होनेवाले परिणाम को ‘स्फोट’ कहते हैं। २. ऐसी आवाज, नाद या शब्द जिसका कुछ भी अर्थ या आशय न हो। जैसे—पशु-पक्षियों के कंठ की ध्वनि; बादल गरजने से होनेवाली ध्वनि। ३. बाजे आदि बजने से उत्पन्न होनेवाले शब्द। जैसे—घंटे या घड़ियाल की ध्वनि। ४. किसी उक्ति या कथन का वह गूढ़ और व्यंग्यपूर्ण आशय, जो उसके वाच्यार्थ से भिन्न तथा स्वतंत्र हो और वक्ता का कोई विशिष्ट अभिप्राय या मनोभाव ऐसे रूप में व्यक्त करता हो। जो सहज में और साधारणतः सब लोगों की समझ में न आवे। विशेष—कथन का जो आशय व्यंजना नामक शब्द-शक्ति से निकलता है वही साहित्य के क्षेत्र में ‘ध्वनि’ कहलाता है। जैसे—यदि किसी झूठे या बाहनेबाज आदमी से कहा जाय, ‘आप बहुत सत्यवादी हैं’ तो इस वाक्य का व्यंग्यार्थ यही होगा कि ‘आप बहुत झूठे हैं।’ और इस प्रकार निकलनेवाला व्यंगयार्थ ही ‘ध्वनि’ कहलाता है। साहित्य में इस प्रकार का व्यंग्यार्थवाला काव्य, बहुत ही चमत्कारपूर्ण होने के कारण, परम उत्कृष्ट और प्रथम श्रेणी का माना जाता है।
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ध्वनि-क्षेपक  : वि० [ष० त०] ध्वनि को चारों ओर फैलानेवाला।
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ध्वनि-क्षेपक-यंत्र  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रसिद्ध यंत्र जिसके माध्यम से वक्ता की ध्वनि दूर स्थित लोगों को सुनाई जाती है। (माइक्रोफोन)
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ध्वनि-क्षेपण  : पुं० [ष० त०] किसी स्थान पर उत्पन्न होनेवाली ध्वनि का एक विशेष प्रकार के वैद्युत्यंत्र की सहायता से चारों ओर बहुत दूर तक फैलाना या पहुँचाना।
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ध्वनि-ग्राम  : पुं० [ष० त०] ध्वनि-विज्ञान में, मनुष्य के गले से निकलनेवाली ध्वनि के भिन्न-भिन्न रूप जो कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में बनते हैं। (फोनीम) जैसे—का, की, कू, के आदि के उच्चारण में ‘क’ की ध्वनि के रूप कुछ अलग-अलग होते हैं।
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ध्वनि-तरंग  : स्त्री० [ष० त०] हवा की वह लहर जिसमें किसी स्थान में होनेवाली ध्वनि के फलस्वरूप एक विशेष प्रकार का कंपन होता है तथा जो कानों को उस ध्वनि का ज्ञान कराती है। (साउंड वेव)।
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ध्वनि-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि बोलते समय मनुष्य के स्वर-यंत्र से किस प्रकार ध्वनियाँ या शब्द उत्पन्न होते हैं उनके कैसे और कितने भेद-प्रभेद होते हैं। (फोनो-टिक्स)
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ध्वनिक  : वि० [सं० ध्वनि से] ध्वनि-संबंधी। (फोनेटिक)
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ध्वनित  : वि० [सं०√ध्वन्+क्त] १. जो ध्वनि के रूप में प्रकट हुआ हो। २. किसी वाक्य आदि में झलकता हुआ (कोई गूढ़ आशय)।
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ध्वन्यात्मक  : वि० [सं० ध्वनि-आत्मन्, ब० स०, कप्] ध्वनि से युक्त।
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ध्वन्यार्थ  : वि० [सं० धवन्यर्थ] किसी शब्द या पद का व्यंग्यार्थ।
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ध्वन्यालेख  : पुं० [सं० ध्वनि-आलेख, ष० त०] वह उपकरण जिसमें किसी की वक्तृता, गीत आदि अभिलिखित होता है और विशेष प्रक्रिया से उसी स्वर में फिर से बजाया जा सकता है। (रिकार्ड)
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ध्वन्यालेखन  : पुं० [सं० ध्वनि-आलेखन, ष० त०] किसी की ध्वनि को इस प्रकार किसी विशेष प्रक्रिया से सुरक्षित करना कि फिर उसकी पुनरावृति की जा सके। (रिकार्डिग)
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ध्वंस  : पुं० [सं०√ध्वंस् (नष्ट होना)+घञ्] १. इमारत, भवन आदि का गिर तथा ढहकर खंड-खंड हो जाना। मिट्टी में मिल जाना। २. पूरी तरह से होनेवाला विनाश। ३. न्याय में, अभाव का एक प्रकार का भेद।
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ध्वंसक  : वि० [सं०√ध्वंस्+ण्वूल्—क०] ध्वंस या विनाश करनेवाला। विध्वंसक।
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ध्वंसन  : पुं० [सं०√ध्वंस्+ल्युट्—अन्] १. ध्वंस करने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज को दुष्ट उद्देश्य से इस प्रकार गिराना कि वह नष्टप्राय हो जाय। तोड़-फोड़। (सेबोटेज)
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ध्वंसावशेष  : पुं० [सं० ध्वंस-अवशेष, ष० त०] १. किसी चीज के टूट-फूट जाने पर उसके बचे हुए रद्दी टुकड़े या अंश। (रेकेज) २. इमारतों के वे अंश जो उनके टूटने या ढह जाने पर बच रहते हैं। खँडहर।
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ध्वंसी (सिन्)  : वि० [सं०√ध्वंस्+णिनि]=ध्वंसक।
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ध्वांत  : पुं० [सं०√ध्वन्+क्त] अंधकार।
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ध्वांत-धाम  : पुं० [ष० त०] नरक।
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ध्वांताराति  : पुं० [ध्वांत-अराति, ष० त०] १. सूर्य। २. चन्द्रमा। ३. अग्नि। ४. श्वेत वर्ण।
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ध्वांतोन्मेष  : पुं० [ध्वांत-उन्मेष, ब० स०] खद्योत। जुगनूँ।
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ध्वान  : पुं० [सं०√ध्वन्+धञ्] १. शब्द। आवाज। नाद। २. गुंजन।
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