शब्द का अर्थ
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कलाँ :
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वि० [फा०] १. आकार, विस्तार आदि में बड़ा। दीर्घाकार। २. वय में बड़ा। |
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समानार्थी शब्द-
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कला :
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स्त्री० [सं०√कल्+अच्, टाप्] १. किसी चीज का बहुत छोटा अथवा सबसे छोटा अंश या संयोजक भाग। २. चन्द्रमा के प्रकाश और विंब के घटते-बढ़ते रहने के विचार से उसका सोलहवाँ अंश या भाग। विशेष—हमारे यहाँ चन्द्रमा की सोलह कलाएँ मानी गई हैं जिनके अलग अलग नाम हैं और जिनके क्रमशः बढ़ते रहने से पूर्णिमा और घटते चलने से अमावस्या होती है। ३. उक्त के आधार पर १६ की संख्या या वाचक शब्द। ४. सूर्य के परिभ्रमण मार्ग और उसमें पड़नेवाली राशियों के विचार से उसका बारहवाँ अंश या भाग जो प्रायः एक महीने में पूरा होता है। ५. राशि चक्र के प्रत्येक अंश का साठवाँ भाग। (डिग्री) ६. काल या समय का एक बहुत छोटा मान विभाग जो किसी के मत से एक मिनट से कुछ कम बहुत छोटा मान या विभाग जो किसी के मत से एक मिनट से कुछ कम का, किसी के मत से डेढ़ मिनट से कुछ अधिक का और किसी के मत से दो मिनट से भी अधिक का माना गया है। ७. मूल-धन का ब्याज या सूद जो (चन्द्रमा की कला की तरह) बराबर बढ़ता चलता है। ८. छंदशास्त्र में गणना के विचार से प्रत्येक अक्षर या मात्रा। जैसे—द्विकल या त्रिकल पद। ९. वैद्यक में शरीर के अन्तर्गत सात धातुओं में किसी या हर धातु की संज्ञा। (देखें ‘धातु’) जैसे—मांस, भेद, रक्त आदि कलाएँ (या धातुएँ) १॰. गर्भ का वह रूप जो कलम (देखें) कहलाता है। ११. शरीर के अन्दर की वह झिल्ली जो भिन्न-भिन्न अंगों के बीच में रहकर उन्हें एक दूसरे से पृथक् रखती है। (मेम्ब्रेन) १२. आज-कल अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर अच्छी तरह, नियम तथा व्यवस्थापूर्वक और संबद्ध सिद्धान्तों का ध्यान रखते हुए कोई काम ठीक तरह से करने या कोई कृति प्रस्तुत करने का कौशल या चतुरता। ऐसा कर्तृत्व जिसमें उद्भावना के सहारे कोई कार्य प्रशंसनीय तथा आकर्षक या मनोहर रूप में संपन्न या संपादित किया जाय। हुनर। (आर्ट) विशेष—व्यापक दृष्टि से देखने पर मनुष्य के प्रत्येक कार्य में कला अपेक्षित होती है। इसीलिए हमारे यहाँ शैव तंत्र में ६४ कलाओं का निरूपण किया गया है। जैसे—गाना, नाचना, बाजे बजाना, अभिनय करना, कविता करना, चित्र बनाना, फूलों आदि से सुन्दर आकृतियाँ बनाना, अंग, वस्त्र आदि रँगना और उनके रँगने के लिए उपकरण बनाना, ऋतुओं आदि के अनुसार सजावट करना, कपड़े, गहने और सुगंधित द्रव्य बनाना, जादू या हाथ की सफाई के अथवा शारीरिक व्यायाम के खेल दिखाना, सीना-पिरोना, कपड़ों पर बेल-बूटे बनाना, धातु, पत्थर, लोहे आदि की चीजें बनाना, तर्क-वितर्क और बात-चीत करना, चारपाई, पलंग आदि बुनना, चाँदी, सोना, रत्न आदि परखना, पशु-पक्षियों आदि की चिकित्सा और पालन-पोषण करना और उन्हें तरह-तरह के काम सिखाना, अनेक प्रकार की बोलियाँ और भाषाएँ समझना तथा बोलना, प्राकृतिक घटनाओं आदि के आधार पर और उनके संबंध में भविष्यवाणी करना, आदि-आदि सभी प्रकार के कौशल-जन्य तथा सुरुचिपूर्ण काम और बातें कला के क्षेत्र में आती हैं। इसी आधार पर आज-कल काव्य-कला, चित्र-कला, लेखन-कला, वास्तु-कला आदि सैकड़ों पद प्रचलित हो गये हैं। १३. अध्ययन और अनुशीलन का वह अंग या क्षेत्र जो मनुष्य को अपने जीवन-निर्वाह तथा उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त करने के योग्य तथा समर्थ बनाता है। (आर्ट्स) १४. नटों या बाजीगरों के अथवा और लोगों के सभी प्रकार के अनोखे करतब या कार्य। मुहा०—कला करना=नटों आदि का अनेक प्रकार के करतब और कौशल दिखाना। उदा०—ज्यों बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कै। १५. सभा-समितियों आदि में होनेवाले कार्यों का पूरा या यथा-तथ्य विवरण। (मिनट) १६. शिव का नाम। १७. अक्षक या वर्ण। १८. लगाव। संबंध। १९. जीभ। जिह्वा। २॰० नाव। नौका। २१. स्त्री० का रज। २२. महत्त्व या श्रेष्ठता का सूचक तेज। विभूति। २३. छटा। शोभा। २४. ज्योति। प्रभा। २५. एक प्रकार का नृत्य। २६. मनुष्य की पाँचों कर्मेन्द्रियों, पांचों ज्ञानेंद्रियों, प्राण और बुद्धि या मन का समूह। (भिन्न-भिन्न आचार्यों या शास्त्रों के मत से इन सोलहों संयोजक अंशों या तत्त्वों के नामों, रूपों आदि में कुछ अंतर भी है। |
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कला-कुशल :
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वि० [स० त०] किसी कला में बहुत ही चतुर या होशियार (व्यक्ति)। |
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कला-कृति :
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स्त्री० [मध्य० स०] कलापूर्ण कृति या रचना। |
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कला-केलि :
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पुं० [ब० स० कामदेव। |
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कला-कौशल :
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पुं० [ष० त०] १. किसी कला में कुशल होने की अवस्था या भाव। २. कारीगरी। ३. दस्तकारी। शिल्प। |
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कला-क्षय :
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पुं० [ष० त०] १. कृष्णपक्ष में चन्द्रमा की कलाओं का धीरे-धीरे घटना। २. क्रमशः या धीरे-धीरे होनेवाला क्षय या ह्रास। |
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कला-क्षेत्र :
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पुं० [ष० त०] कामरूप देश का एक प्राचीन तीर्थ। |
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कला-चिकित्सा :
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स्त्री० [तृ० त०] एक नवीन चिकित्सा-प्रणाली जिसमें रोगियों के मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य के सुधार के लिए उन्हें किसी कला-संबंधी काम में लगाया जाता है (आर्टथैरैपी)। |
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कला-नाथ :
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पुं० [ष० त०] १. किसी कला या कई कलाओं का ज्ञाता। २. चन्द्रमा। |
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कला-निधि :
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पुं० [ष० त०] १. अनेक कलाओं का पूर्ण ज्ञाता या पंडित। २. चन्द्रमा। |
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कला-न्यास :
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पुं० [ष० त०] तंत्र में शिष्य के शरीर पर किया जाने वाला एक प्रकार का न्यास। |
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कला-पंजी :
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स्त्री० [ष० त०] सभा-समितियों आदि की बैठकों के कार्यविवरण लिखने की पंजी या रजिस्टर (मिनिट बुक)। |
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कला-शाला :
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स्त्री० [ष० त०] वह भवन जिसमें प्रदर्शन के लिए कलासंबंधी अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुएँ और मुख्यतः चित्रकला की आकृतियाँ रखी रहती हों। (आर्टगैलरी)। |
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कलाई :
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स्त्री० [सं० कलाची] १. हथेली और कोहनी के बीच का उतना भाग जहाँ कड़े, चूड़ियाँ आदि पहनी जाती हैं। गट्टा। मणिबंध। २. सिले हुए कपड़े का उतना भाग जितना कलाई पर पड़ता है। स्त्री० [सं० कलापी] १. सूत आदि का लच्छा। २. घास आदि का पूला। ३. नई फसल के तैयार होने पर कुल-देवताओं की की जाने वाली पूजा। ४. दे० ‘कलावा’। स्त्री० [सं० कुलत्थ] उरद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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कलाकंद :
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पुं० [फा०] खोये की एक प्रकार की बड़ी बरफी। |
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कलाकर :
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पुं० [सं० कला-आकर, ष० त० ?] अशोक की तरह का एक पेड़। देवदारी। |
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कलाकार :
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पुं० [सं० कला√कृ+अण्] [भाव० कलाकारिहा, कलाकारी] १. वह जो किसी कला का ज्ञाता हो। २. कोई कलापूर्ण कृति बनानेवाला। (आर्टिस्ट) ३. अभिनेता। नट। |
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कलाकारिता :
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स्त्री० [सं० कलाकार+इनि+तल्—टाप्] कलाकार का काम या भाव। |
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कलाकारी :
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स्त्री०=कलाकारिता। |
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कलांकुर :
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पुं० [?] १. कराकुल पक्षी। २. चौर्य-शास्त्र के रचयिता एक प्राचीन आचार्य। |
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कलाकुल :
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पुं० [सं० कला आ√कुल् [इकट्ठा होना)+अच् ?] हलाहल विष। |
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कलाँच :
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पुं० [तु० कल्लाश] दरिद्र। निर्धन। |
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कलाची :
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स्त्री० [सं० कला√अच् (गति)+अण्, ङीष् (गौरा०)] १. हाथ की कलाई। २. कलछी। |
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कलाजंग :
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पुं० [हिं कला+जंग] कुश्ती में एक प्रकार का पेंट या दाँव। |
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कलाजाजी :
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स्त्री० [सं० कला√जन्+उ-कलाज,+आ√जन्+ड, ङीष् (गौरा०)] मँगरैला। |
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कलाटीन :
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पुं० [सं० कलाट+ख=ईन्] खंजन की तरह का एक पक्षी। |
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कलांतर :
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पुं० [सं० अन्या-कला=अंश, सुप्सुपा स०] सूद। ब्याज। |
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कलातीत :
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वि० [सं० कला-अतीत, द्वि० त०] जो सब प्रकार की कलाओं से ऊपर या परे हो। पुं० ईश्वर का एक नाम। |
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कलात्मक :
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वि० [कला-आत्मन्, ब० स०, कप्] १. कला-संबंधी। कला से युक्त। २. (ऐसी कृति या रचना) जो बहुत ही सुन्दर हो तथा कलापूर्ण ढंग से बनाई गई हो। (आर्टिस्टिक)। |
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कलादक :
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पुं० [सं० कला-आ√दा (देना)+क, कलाद+कन्] सुनार। |
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कलादा :
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पुं० [सं० कलाप, हिं० कलावा] हाथी के कंधे और गले के बीच का वह स्थान जिस पर महावत बैठता है। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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कलाधर :
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पुं० [सं० कला√धृ (धारण करना)+अच्] १. वह जो अनेक कलाओं या विद्याओं का ज्ञाता हो अथवा किसी कला में विशेष रूप से प्रवीण हो। २. चन्द्रमा। ३. शिव। ४. दंडक छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में एक गुरु और एक लघु के क्रम से १५ गुरु और १५ लघु वर्ण होते हैं और तब अन्त में एक गुरु होता है। |
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कलाप :
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पुं० [सं० कला√आप् (पाना)+अण्] १. एक ही प्रकार की बहुत-सी चीजों या बातों का समूह। जैस—कार्य-कलाप। केश-कलाप। २. किसी चीज को या बहुत-सी चीजों को एक में बाँधनेवाली चीज। ३. घास-फूस आदि का गट्ठा या पूला। ४. कमरबंद। पेटी। ५. करधनी। ६. कलाई पर बाँधा जानेवाला सूत का लच्छा। कलावा। ७. किसी प्रकार का कार्य या व्यापार। ८. आभूषण। गहना। जेवर। ९. शोभा या सौंदर्य बढ़ानेवाली कोई चीज या बात। १॰. वेद की एक शाखा। ११. कातंत्र व्याकरण का एक नाम। १२. एक प्रकार का पुराना अस्त्र। १३. चन्द्रमा। १४. मोर की पूँछ। १५. तरकश। तूण। १६. एक प्रकार का संकर राग। (संगीत) |
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कलापक :
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पुं० [सं० कलाप+कन्] १. हाथी के गले या पैर में बाँधा जानेवाला रस्सा। २. ऐसे चार श्लोकों का वर्ग या समूह जिनका अन्वय एक साथ होता हो। ३. प्राचीन भारत में ऐसा ऋण जो यह कहकर लिया जाता था कि यह कलाप अर्थात् मोर के नाचने के समय अर्थात् वर्षा ऋतु में चुकाया जायगा। ४. दे० ‘कलाप’। |
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कलापट्टी :
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स्त्री० [पुर्त० कलफेटर] जहाजों की पटरियों को दरजों या संधियों में सन आदि भरने का काम। (लश०) |
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कलापिनी :
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स्त्री० [सं० कलाप+इनि, ङीष्] १. रात्रि। २. मोर की मादा। मोरनी। ३. नागरमोथा। |
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कलापी (पिन्) :
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वि० [सं० कलाप+इनि] १. जिसके पास तूणोर या तरकश हो। २. गिरोह या झुंड में रहनेवाला (जीव या प्राणी)। पुं० १. मोर। २. कोयल। ३. बरगद का पेड़। |
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कलाबत्तू :
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पुं० [तु० कलाबतून] [वि० कलाबतूनी] १. रेशम पर चढ़ाया या लपेटा जानेवाला पतला, महीन, सुनहला तार। २. रेशम पर सुनहले तार लपेटकर बनाया हुआ डोरा या फीता। |
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कलाबाज :
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वि० [हिं० कला+फा० बाज] कलापूर्ण ढंग से अद्भुत शारीरिक खेल खिलानेवाला व्यक्ति। |
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कलाबाजी :
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स्त्री० [हिं० कला+फा० बाजी] १. कलाबाज की कोई क्रिया या खेल। २. सिर नीचे तथा पैर ऊपर करके उलट जाने की क्रिया या खेल। क्रि० प्र०—खाना। |
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कलाबीन :
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पुं० [देश०] असम देश का एक बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके फल चाल मुँगरा या मुँगरा चाल कहलाते हैं। (इसके फूलों का तेल चर्म रोग का नाशक माना गया है।) |
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कलाभृत् :
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पुं० [सं० कला√भृ (धारण करना)+क्विप्] चन्द्रमा। |
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कलाम :
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पुं० [अ०] १. वाक्य। २. उक्ति। कथन। ३. बात-चीत। वार्त्तालाप। ४. किसी काम या बात के लिए दिया जानेवाला वचन। वादा। ५. आपत्ति। एतराज। |
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कलाम-मजीद :
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पुं० [अ०] कुरान शरीफ। (मुसलमानों का धर्मग्रंथ) |
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कलामोचा :
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पुं० [देश०] बंगाल में होनेवाला एक प्रकार का धान। |
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कलाय :
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पुं० [सं० कला√अय् (गति)+अण्] मटर। |
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कलाय-खंज :
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पुं० [ब० स०] एक रोग जिसमें जोड़ों की नसें ढीली पड़ जाती हैं और जिसके फलस्वरूप अंग सदा हिलते-डुलते रहते हैं। |
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कलायन :
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पुं० [कला-अयन, ब० स०] नर्तक। |
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कलार :
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पुं०=कलाल (कलवार)। |
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कलारी :
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स्त्री० [हिं० कलवार] १. कलवार जाति की स्त्री। २. वह स्थान जहाँ शराब बनाई या बेची जाती है। कलवरिया। |
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कलाल :
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पुं० [सं० कल्यपाल] [स्त्री० कलालिन] शराब बनाने और बेचनेवाली एक प्रसिद्ध जाति। कलवार। |
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कलालखाना :
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पुं० [हिं०+फा०] वह स्थान जहाँ शराब बनाई तथा बेची जाती है। मद्यशाला। |
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कलाव :
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पुं०=कलावा। |
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कलावंत :
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पुं० [सं० कलावान्] १. वह व्यक्ति जो किसी कला का अच्छा ज्ञाता या विशेषज्ञ हो। २. वह व्यक्ति जो कोई काम बहुत ही कलापूर्ण ढंग से करता हो। ३. मध्य युग के बहुत बड़े तथा प्रसिद्ध गवैये अथवा उनके वंशज। ४. कलाबाज। |
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कलावती :
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स्त्री० [सं० कला+मतुप्, ङीष्, वत्व] १. तुंबरु नामक गंधर्व की वीणा का नाम। २. तंत्र में एक प्रकार की दीक्षा। ३. गंगा का एक नाम। स्त्री० [हिं० कल (पानी की)] पानी की कल या उसमें से आनेवाली जलराशि। (परिहास) जैसे—कलावती में होनेवाला स्नान। |
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कलावा :
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पुं० [सं० कलापक, प्रा० कलावअ] [स्त्री० अल्पा० कलाई] १. सूत का लपेटा हुआ लच्छा। २. लाल, पीले आदि रंगों से रँगा हुआ सूत का डोरा या लच्छा जो मांगलिक अवसरों पर हाथ की कलाई में तथा घड़े आदि कुछ वस्तुओं पर बाँधा जाता है। ३. वह रस्सी जो हाथी के गले में पड़ी रहती है और जिसमें पैर फँसा कर महावत उसे हाँकते हैं। |
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कलावान (वत्) :
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वि० [सं० कला+मतुप्] [स्त्री० कलावती] किसी अथवा कई कलाओं का अच्छा ज्ञाता (व्यक्ति)। |
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कलाविक :
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पुं० [सं० कल-आ-वि√कै (शब्द)+क] मुर्गा। |
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कलास :
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पुं० [सं० कल√आस् (उपवेशन)+घञ्] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल। |
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कलासी :
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पुं० [सं० कला] १. दो वस्तुओं को सटाने अथवा सटाकर जोड़ने से बननेवाली रेखा जो उस जोड़ की सूचक होती है। २. जोड़-तोड़ या साट-गाँठ बैठाने की युक्ति। जैसे—यहाँ तुम्हारी कोई कलासी नहीं लगेगी। |
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कलाहक :
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पुं०=काहल (बड़ा ढोल)। |
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