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शब्द का अर्थ

अप  : उप० [सं०√पा (रक्षण)+ड, न० त०] एक उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है- (क) अलग या दूर, जैसे—अपक्षेप, अपगमन। (ख) अनुचित, निदंनीय या बुरा, जैसे—अपजात, अपव्यय। (ग) नीचे या पीछे,जैसे—अपकर्ष, अपभ्रंश। (घ) रहित या हीन, जैसे—अपकरूण, अपभय। (च) आकस्मिक, जैसे—अपमृत्यु। (छ) गुप्त, छिपा या दबा हुआ, जैसे—अपद्वार। (ज) दिशा, प्रकार आदि का उल्लेख या निर्देश, जैसे—अपदेश। पुं० [सं० आप] जल। पानी। +वि० हिं ‘आप’ या ‘अपना’ का वह संक्षिप्त रूप जो प्रायः यौगिक शब्दों के आरंभ में आने पर होता है। जैसे-अप-काजी, अप-स्वार्थी आदि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप रव  : पुं० [सं० प्रा० स०] धन या संपत्ति के संबंध में होनेवाला झगड़ा या विवाद।
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अप विघ्न  : वि० [सं० ब० स०] बाधा या विघ्न से रहित।
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अप-गुण  : पुं० [सं० प्रा० स०] बुरे गुण।
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अप-घन  : वि० [सं० प्रा० ब०] आकाश, जिसमें घन या बादल न हों। मेघरहित। पुं० [सं० अप√हन् (हिंसा, गति)+अप्-घ आदेश] १. शरीर का कोई अंग। जैसे—हाथ-पैर इत्यादि। २. शरीर।
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अप-दव  : वि० [प्रा० ब०] (वन) जिसमें आग न लगी हो। दावाग्नि से रहित।
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अप-देवता  : पुं० [सं० , प्रा० स०] १. बुरे देवता। २. असुर। राक्षस। ३. भूत-प्रेत।
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अप-द्रव्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] अनुचित, निकृष्ट, या बुरा द्रव्य या धन।
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अप-द्वार  : पुं० [सं० प्रा० स०] चोर-दरवाजा।
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अप-धावन  : पुं० [सं० प्रा० सं० ] १. वाक्छल। २. वक्रोक्ति।
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अप-धूम  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें धुआँ न हो। धूम-रहित।
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अप-ध्यान  : पुं० [सं० प्रा० स०] अनिष्ट, बुरा, चिंतन।
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अप-ध्वांत  : वि० [सं० प्रा० स०] (स्वर) जो सुनने में मधुर न हो। कर्कश। पुं० कर्कश या बे-सुरा शब्द या स्वर।
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अप-रत (ा)  : वि० [हिं० आप+रत] १. जो अपने ही आप में रत या लीन हो। २. मतलबी। स्वार्थी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपक  : पुं० [सं० अप=जल] पानी (डि०)
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अपकरण  : पुं० [सं० अप√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. अपकार करने की क्रिया या भाव। २. खराबी या बुराई करना।
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अपकरुण  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें करुणा न हो अर्थात् निर्दय।
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अपकर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० अप√कृ (करना)+तृच्] १. अपकार करने या हानि पहुँचानेवाला। २. दुष्कर्म करनेवाला। दुष्कर्मी।
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अपकर्म (न्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा काम। २. पाप।
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अपकर्मा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] बुरे कर्मों वाला। आचरण-भ्रष्ट। २. दूसरे की बुराई करनेवाला।
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अपकर्ष  : पुं० [सं० अप√कृ (खींचना)+घञ्ग्] १. नीचे या पीछे की ओर खींचना। २. घटाव या उतार होना। ३. पद, महत्त्व, मान-मर्यादा आदि में कमी होना। (डेरोगेशन) ४. पतन होना।
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अपकर्षक  : पुं० [सं० अप√कृष्+ण्युल्-अक] १. अपकर्ष करनेवाला। २. जिससे अपकर्ष होता हो।
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अपकर्षण  : पुं० [सं० अप√कृष्+ल्युट्-अन] १. अपकर्ष करने या होने की क्रिया या भाव। २. नीचे या पीछे की ओर खींचा जाना। ३. कमी या ह्वास करना। घटाना।
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अपकर्षित  : भू० कृ०=अपकृष्ट।
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अपकलंक  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा कलंक जो मिट न सके।
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अपकल्मव  : वि० [सं० ब० स०] १. पापरहित। २. निष्कलंक।
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अपकषाय  : दे० ‘अपकल्मष’।
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अपकाजी  : वि० [हिं० आप+काज] मुख्य रूप से अपने ही काम का ध्यान रखनेवाला। स्वार्थी।
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अपकार  : पुं० [सं० अप√कृ (करना)+घञ्] १. अहित करने या हानि पहुँचाने वाला कार्य या बात। उपकार का विपर्याय। २. अनुचित आचरण या व्यवहार।
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अपकारक  : वि० [सं० अप√कृ+ण्युल्-अक] [स्त्री० अपकारिका] अपकार करनेवाला।
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अपकारिता  : स्त्री० [सं० अपकारिन्+तल्-टाप्] १. अपकारी होने की अवस्था या भाव। २. अपकार।
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अपकारी (रिन्)  : वि० [सं० अपकार+इनि] [स्त्री० अपकारिनी] अपकार (खराबी या बुराई) करनेवाला।
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अपंकिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो पंकिल या गंदा न हो। २. निर्मल। साफ।
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अपकीरति  : स्त्री०=अपकीर्ति।
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अपकीर्ण  : वि० =अवकीर्ण।
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अपकीर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] कोई अनुचित काम करने पर होने वाला ऐसा अपयश या बदनामी जो पहले की अर्जित कीर्ति या यश के लिए घातक हो। अपयश। बदनामी। (इन्फेमी)
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अपकृत  : भू० कृ० [सं० अप√कृ (करना)+क्त] जिसका अपकार हुआ हो। ‘उपकृत’ का उल्टा।
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अपकृत-आश्रित-श्लेष  : पुं० [कर्म० स०] श्लेष शब्दालंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों में श्लेष होता है।
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अपकृति  : स्त्री० [सं० अप√कृ+क्तिन्] १.=अपकीर्ति। २.=अपकार।
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अपकृत्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा काम। २. अपकार।
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अपकृष्ट  : वि० [सं० अप√कृष् (खींचना)+क्त] १. जिसका अपकर्षण हुआ हो। २. जिसका महत्त्व या मान घट गया हो। ३. अधम। नीच। ४. घृणित। ५. बुरा। पुं० कौआ।
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अपकृष्टता  : स्त्री० [सं० अपकृष्ट+तल्-टाप्] १. अपकृष्ट अथवा पतित होने का गुण या भाव। २. अधमता। नीचता। ३. दोष। बुराई।
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अपकेंद्री (द्रिन्)  : वि० [सं० अप-केन्द्र, प्रा० स०+इनि] १. केंद्र से निकलकर अलग या दूर हटनेवाला। २. जिसीक क्रिया या शक्ति अपने केन्द्र या मूल से हटकर बाहर या किसी विपरीत दिशा की ओर प्रवृत्त हो। (सेन्ट्रीफ्यूगल)
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अपक्रम  : पुं० [सं० अप√क्रम (गति)+घञ्] १. बदला, बिगड़ा या उलटा क्रम। २. उचित, उपयुक्त या ठीक क्रम का अभाव। वि० [प्रा० ब०] जिसका क्रम बिगड़ा हुआ हो।
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अपक्रमण  : पुं० [सं० अप√क्रम+ल्युट्-अन] १. अपक्रम करने की क्रिया या भाव। २. अपना असंतोष, रोष या विरोध प्रकट करते हुए सभा, समिति आदि का बहिष्कार करना। (वाक आउट)
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अपक्रमी (मिन्)  : वि० [सं० अप√क्रम+णिनि] १. अपक्रमण करनेवाला। २. पीछे लौटनेवाला। ३. भाग जानेवाला। भगोड़ा।
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अपक्रिया  : स्त्री० [सं० अप√कृ+श-इयङ-टाप्] १. दूषित या बुरी क्रिया या कर्म। २. अनुचित या हानिकारक व्यवहार। ३. ऋण-परिशोध।
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अपक्रोश  : पुं० [सं० अप√क्रुश् (बुलाना, रोना)+घञ्] १. बहुत अधिक चीखना चिल्लाना। २. कटु वचन कहना। ३. गाली देना। निंदा करना।
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अपक्व  : वि० [सं० न० त०] १. (अनाज, फल आदि) जो पका या पकाया न हो। कच्चा। २. जिसेक पकने, पूरे या ठीक होने में अभी कुछ करस या विलंब हो। (इम्मेच्योर) ३. जिसका पूर्ण विकास न हुआ हो। जैसे—अपक्व बुद्धि। ४. अकुशल।
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अपक्व-कलुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. शैव दर्शन के अनुसार सकल के दो भेदों में से एक। २. [ब० स०] ऐसा बद्वजीव जो संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करता हो।
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अपक्वता  : स्त्री० [सं० अपक्व+तल्-टाप्] अपक्व होने की अवस्था या भाव। कच्चापन।
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अपक्ष  : वि० [सं० न० ब०] १. जो किसी के पक्ष या दल में न हो। जो समाज में औरों के साथ मिलकर न रहता हो। २. जिसके पक्ष (पंख या पर) न हों।
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अपक्षपात  : पुं० [सं० न० त०] पक्षपात न करने का भाव। निष्पक्षता।
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अपक्षपाती (तिन्)  : वि० [सं० न० त०] पक्षपात न करनेवाला। निष्पक्ष।
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अपक्षय  : पुं० [सं० अप√क्षि (क्षय)+अच्] १. छीजना। ह्रास। २. नाश।
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अपक्षिप्त  : वि० [सं० अप√क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. गिराया, फेंका या पलटा हुआ। २. अवक्षिप्त।
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अपक्षेप  : पुं० [अप√क्षिप्+घञ्] १. गिराना, दूर हटाना या फेंकना। २. पीछे हटाना। पलटना।
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अपक्षेपण  : पुं० [सं० अप√क्षिप्+ल्युट्-अन] आक्षेप करने की क्रिया या भाव।
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अपखंड  : पुं० [सं० प्रा० स०]=विखंड।
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अपखोरा  : पुं० [फा० आबखोरा] पुरानी चाल का एक प्रकार का गोड़ेवाला गिलास।
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अपंग  : वि० दे० ‘अपांग’।
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अपग  : वि० [सं० अप√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० अपगा] १. दूर हटनेवाला। २. नीचे या पीछे जानेवाला। ३. बुरे मार्ग पर जानेवाला। वि० [सं० अ+पग] जिसके पग या पैर न हों।
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अपगंड  : वि० [सं० प्रा० स०] दे० ‘अपोगंड’।
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अपगत  : वि० [सं० अप√गम्+क्त] १. जो अपने ठीक मार्ग से इधर-उधर हो गया हो। २. दूर हटा हुआ। ३. आँखों से ओझल। ४. मरा हुआ। मृत। ५. नष्ट।
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अपगति  : स्त्री० [सं० अप√गम्+क्तिन्] १. निकृष्ट या बुरी गति। दुर्गति। २. नीचे की ओर अर्थात् अनुचित या बुरे मार्ग पर होना। ३. पतन। ४. दूर भागना या हटना। ५. नाश।
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अपगम  : पुं० [सं० अप√गम्+घञ्] =अपगमन।
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अपगमन  : पुं० [अप√गम्+ल्युट्-अन] १. नीचे की ओर या बुरे मार्ग पर जाना। २. छिप या भाग जाना। ३. अलग होना। ४. प्रस्थान।
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अपगर  : वि० [सं० √गृ (शब्द)+अप्] १. निंदा या शिकायत करनेवाला। २. गाली देनेवाला।
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अपगर्जित  : वि० [सं० अप√गर्ज् (शब्द)+क्त] न गरजनेवाला। गर्जन-रहित (बादल)।
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अपगा  : स्त्री० [सं० अप√गम् (जाना)+ड-टाप्] =आपगा (नदी)।
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अपघात  : पुं० [सं० अप√हन्+घञ्] १. अनुचित या बुरा आघात। २. हत्या। हिंसा। ३. विश्वासघात। ४. आत्महत्या।
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अपघातक  : वि० [सं० अप√हन्+ण्वुल्-अक] अपघात करनेवाला।
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अपघाती (तिन्)  : वि० [अप√हन्+णिनि] =अपघातक।
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अपच  : वि० [सं० √पच् (पाक)+अच्, न० त०] न पचनेवाला। पुं० १. अन्न के न पचने की दशा या भाव। २. भोजन न पचने का रोग। (इनडाइजेशन)
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अपचय  : पुं० [सं० अप√चि (इकट्ठा करना)+अच्] १. कमी, क्षति, क्षय, घाटा, हानि या ह्रास होने की क्रिया या भाव। २. लेन या प्राप्य के संबंध में होनेवाली रिआयत या कमी। छूट। (अबेटमेन्ट) ३. व्यय। ४. विफलता। पुं० [सं० अपचाय] आदर। सम्मान।
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अपचरण  : पुं० [अप√चर् (गति)+ल्युट्-अन] =अपचार।
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अपचरित  : भूं० कृ० [सं० अप√चर्+क्त] जिसके प्रति अपचरण हुआ हो।
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अपचायित  : वि० [सं० अप√चाय् (पूजा)+क्त] पूजित। सम्मानित।
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अपचार  : पुं० [सं० अप√चर्+घञ्] १. अनुचित, बुरा या निकृष्ट आचरण। दुर्व्यवहार। २. अनिष्ट। बुराई। ३. अनादर। ४. निंदा। ५. अपयश। ६. स्वास्थ्यनाशक व्यवहार। कुपथ्य। ७. अभावहीनता। ८. भूल। ९. दोष। १. भ्रम। ११. अपने अधि-क्षेत्र या सीमा से बाहर जाने अथवा दूसरे के अधिक्षेत्र या सीमा में अनाधिकार प्रवेश करने की क्रिया या भाव। (ट्रेसपास)
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अपचारक  : वि० [सं० अप√चर्+ण्वुल्-अक] अपचार करनेवाला।
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अपचारित  : वि० [सं० अप√चर्+णिच्+क्त] दूसरों के प्रति किया हुआ अनुचित व्यवहार।
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अपचारी (रिन्)  : वि० [सं० अप√चर्+घिनण्] अपचार करनेवाला।
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अपचाल  : पुं० [सं० अप+हिं० चाल] १. अनुचित आचरण। बुरी चाल। २. अनुचित आचरण। बुरी चाल। २. अनुचित या बुरा बरताव या व्यवहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपचित  : वि० [सं० अप√चाय् (पुजा) या चि (इकट्ठा करना)+क्त] १. जिसका अपचय हुआ हो। २. सम्मानित। ३. दुर्बल। ४. व्यय किया हुआ।
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अपचिति  : स्त्री० [सं० अप√चाय्+क्तिन्] १. हानि। २. नाश। ३. व्यय। ४. प्रायश्चित्त। ५. अलगाव। ६. सम्मान।
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अपची  : स्त्री० [सं० √पच् (पाक)+अच्—डीष्, न० त०] कंठमाला या गंडमाला नामक रोग।
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अपचेता (तृ)  : वि० [सं० अप√चि+तृच्] १. किसी का बुरा सोचनेवाला। २. कंजूस।
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अपच्छाय  : वि० [सं० ब० स०] १. छाया रहित। २. बुरी छायावाला। ३. कांति या प्रभा-रहित। ४. धुँधला। पुं० देवता।
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अपच्छाया  : स्त्री० [सं० प्राय स०] १. बुरी छाया। २. प्रेत।
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अपच्छी  : पुं० =अपक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपच्छेद  : पुं० [सं० अप√छिद् (काटना)+घञ्] १. काटकर अलग करना। २. हानि। ३. विघ्न-बाधा।
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अपच्छेदन  : पुं० [सं० अप√छिद्+ल्युट्-अन] अपच्छेद करने की क्रिया या भाव।
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अपच्युत  : वि० [सं० अप√च्यु (ह्रास, सहन)+क्त] १. गिरा हुआ। २. गया हुआ। ३. मृत। ४. पिघलकर बहा हुआ। ५. नष्टप्राय।
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अपछरा  : स्त्री० [सं० अप्सरा, पा० अच्छरा] १. अप्सरा। २. परम सुंदरी स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपजय  : स्त्री० [सं० अप√जि (जीतना)+अच्] पराजय। हार।
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अपजस  : पुं० =अपयश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपजात  : वि० [सं० अप√जन् (प्रादुर्भाव)+क्त] जिसमें अपने उत्पादक या मूल वर्ग के पूरे-पूरे गुण न आये हों। अपेक्षाकृत कम गुणवाला। (डी-जेनरेटेड) पुं० १. वह पुत्र जो कुमार्गी हो गया हो। २. वह पुत्र जो अपने माता-पिता से गुणादि के विचार से घटकर हो। कपूत।
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अपज्जत  : वि० [सं० अपर्याप्त] जो पर्याप्त, यथेष्ट या पूरा न हो। आवश्यक या उचित से कम। थोड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपटन  : पुं० =उबटन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपटा  : वि० [स्त्री० अपटी] =अटपटा।
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अपटी  : स्त्री० [सं० न० त०] १. यवनिका। परदा। २. कपड़े की दीवार। कनात। ३. वस्त्रावरण। ४. आच्छादन।
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अपटीक्षेप  : पुं० [ब० स०] (शीघ्रता अथवा मानसिक व्याकुलता के कारण) परदे को हटाकर किसी पात्र का रंगमंच पर होनेवाला सहसा प्रवेश। (नाट्य)
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अपटु  : वि० [सं० न० त०] [संज्ञा अपटुता] १. जो पटु या कुशल न हो। २. मंद प्रकाशवाला (ग्रह)। (ज्यो०)
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अपटुता  : स्त्री० [सं० न० त०] पटु न होने की अवस्था या भाव।
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अपट्ठयमान  : वि० [सं० अपठ्यमान] जो पढ़ा न जाय। २. न पढ़ने योग्य। उदा०—अपट्ठमान पापग्रंथ पट्ठमान वेद हैं।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपठ  : वि० [सं०√पठ् (पढ़ना)+अच्, न० त०] १. (व्यक्ति) जो पढ़ा-लिखा या शिक्षित न हो। अशिक्षित। २. मूर्ख।
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अपठित  : वि० [सं० न० त०] (पाठ या लेख) जो पढ़ा न गया हो।
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अपड़ना  : अ० [सं० आ+पत्] पहुँचना। (पंजाब और राजस्थान) उदा०—छोटी वीख न आपड़ाँ, लाँबो लाज मरेहि।—ढोला मारू।
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अपडर  : पुं०=डर (भय)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपडरना  : अ० [हिं० अपडर] डरना। भयभीत होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपड़ाना  : अ० [सं० अपर] १. पहुँचना। २. खींच-तान करना। ३. लड़ाई-झगड़ा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपड़ाव  : पुं० [सं० अपर, हिं० ‘परावा’=पराया] १. लड़ाई-झगड़ा। हुज्जत। २. खींचा-तानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपढ़  : वि० [सं० अपठ] १. जो पढ़ा-लिखा न हो। २. मूर्ख।
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अपढार  : वि० दे० ‘अवढर’।
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अपणी  : स्त्री० [सं० क्षपण+ङीप्] १. नाव खेने का डाँडा। २. चिड़ियाँ, मछलियाँ आदि फँसाने का जाल।
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अपण्य  : वि० [सं० न० त०] १. (वस्तु) जो बेचने के लिए न बनी हो। २. (वस्तु) जिसे धार्मिक या विधिक दृष्टि से बेचना निषिद्ध या वर्जित हो।
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अपत  : वि० [सं० अ=नहीं+पत्=पत्ता] (पौधा, बेल, वृक्ष आदि) जिसमें पत्ते न हों अथवा जिसके पत्ते झड़ गये हों। पत्र-विहीन। वि० [हिं० अ+पत=प्रतिष्ठा] १. जिसकी प्रतिष्ठा न हो। अप्रतिष्ठित। २. निर्लज्ज। वे-हया। उदा०—तौ मेरी अपत करत कौरव-सुत होत पंडवनि ओते।—सूर। वि० [सं० अपात्र] [स्त्री० अप्रतिष्ठा। बे-इज्जती।] अधम। नीच। उदा०—पावन किये रावन रिपु तुलसिंहु से अपत।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतई  : स्त्री० [सं० अपात्र, पा० अपत्त+हिं० ई (प्रत्य०)] १. ‘अपत’ होने की अवस्था या भाव। २. धृष्टता। ३. उत्पात। उपद्रव। ४. झंझट। बखेड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतंत्र  : पुं० [सं० ब० स०] =अपतंत्रक।
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अपतंत्रक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] प्रायः स्त्रियों को होनेवाला एक वात रोग जिसमें रोगी के हाथ-पैर ऐंठते हैं, मुँह से फेन निकलता है और प्रायः बेहोशी आती है। वातोन्माद। (हिस्टीरिया)
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अपतानक  : पुं० [सं० अप√तनु (विस्तार)+ण्वुल्] एक वात रोग जो स्त्रियों को गर्भपात होने तथा पुरुषों को विशेष रुधिर निकलने या भारी चोट लगने से हो जाता है।
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अपताना  : पुं० [हिं० अप=अपना+तानना] झंझट। बखेड़ा। जंजाल। अ० [हिं० अपत] १. धृष्टता या ढिठाई करना। २. चंचलता या चपलता दिखाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपति  : वि० [सं० न० ब०] १. (स्त्री) जिसका पति मर गया हो। विधवा। २. जिसका कोई स्वामी न हो। बिना मालिक का। स्त्री० कुमारी कन्या। वि० [सं० अ०=बुरा+पति=गति] १. पापी। दुराचारी। २. निर्लज्ज। स्त्री० [सं० अ+पत=प्रतिष्ठा, पति=गति] १. दुर्गति। दुर्दशा। २. अपमान। अप्रतिष्ठा। ३. दे० ‘अपतई’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतिक  : वि० [सं० न० ब०, कप्] १. (स्त्री) जिसका पति या स्वामी न हो। २. जिसका पति मर चुका हो। विधवा। ३. जिसका विवाह न हुआ हो। कुमारी।
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अपती  : स्त्री० [देश०] नाव के सिरे पर लगाई जानेवाली एक छोटी लकड़ी। स्त्री० [हिं० अ+पत=प्रतिष्ठा] १. वह जिसकी कुछ भी प्रतिष्ठा न हो। २. उपद्रवी। शरारती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी के अपकार, आक्रमण, विरोध आदि करने पर लड़ाई-झगड़े से बचने के लिए उसकी कुछ बातें मान कर और उससे कुछ दबकर उसे तुष्ट या प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। (एपीजमेन्ट)
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अपतोस  : पुं० दे० ‘अफसोस’।
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अपत्त  : स्त्री० [सं० आपत्ति] १. उपद्रव। उत्पात। २. अन्यायपूर्ण आचरण। धींगा-धींगी।
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अपत्तव्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. ‘सव्य’ का उलटा। दाहिना। २. उलटा। विपरीत। ३. जिसने पितृ-कर्म करने के लिए जनेऊ अपने दाहिने कंधे पर रखा हो।
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अपत्नी  : वि० स्त्री० [सं० न० त०] १. जो किसी की पत्नी न हो। अविवाहिता। कुमारी। २. विधवा।
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अपत्नीक  : वि० [सं० न० ब०, कप्] (पुरुष) जिसकी पत्नी न हो अथवा मर चुकी हो।
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अपत्य  : पुं० [सं० √पत् (गिरना)+पत्, न० त०] औलाद। संतान।
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अपत्य-विक्रयी (यिन्)  : वि० [ष० त०] अपनी संतान बेचनेवाला।
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अपत्य-शत्रु  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका शत्रु उसकी अपत्य या संतान हो। २. जो अपने अंडे या बच्चे स्वयं खा जाय। पुं० [ष० त०] १. केकड़ा। २. साँप।
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अपत्र  : वि० [सं० न० ब०] १. (वृक्ष) जिसमें पत्ते न हों। २. (पक्षी) जिसके पंख या पर न हों।
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अपत्रप  : वि० [सं० प्रा० ब०] १. निर्लज्ज। २. धृष्ट। ढीठ।
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अपत्रस्त  : वि० [सं० अप√त्रस् (उद्वेग)+क्त] जो डर से त्रस्त हो। बहुत भयभीत।
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अपथ  : पुं० [सं० न० त०] १. वह मार्ग जो चलने के योग्य न हो। बीहड़ या विकट मार्ग। २. अनुचित या बुरा मार्ग। कुमार्ग।
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अपथगामी (मिन्)  : वि० [सं० अपथ√गम् (जाना)+णिनि] १. अनुचित या बुरे रास्ते पर चलनेवाला। २. चरित्र-हीन।
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अपथ्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो पथ्य न हो। स्वास्थ्य-नाशक। २. दे० ‘कुपथ्य’।
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अपद  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके पैर न हों। बिना पैर का। जैसे—मछली, साँप आदि। २. जो किसी पद या ओहदे पर न हो। पुं० [न० त०] १. अनुचित या अनुपयुक्त पद या स्थान। २. अनुपयुक्त समय।
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अपदस्थ  : वि० [सं० पत√स्था (ठहरना)+क, न० त०] जो अपने पद, स्थान या सेवा से हटा दिया गया हो। पदच्युत।
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अपदांतर  : वि० [सं० न० ब०] १. संयुक्त। मिला-जुला। २. अति निकट। समीप। ३. समान। बराबर। क्रि० वि० शीघ्र। तत्क्षण।
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अपदान  : पुं० [सं० अप√देप् (शोधन)+ल्युट्—अन; पा० अवदान] १. अच्छा और प्रशंसनीय कार्य। २. वह कथानक जिसमें लोगों के पूर्व और भावी जन्मों के अच्छे और बुरे कर्मों का उल्लेख हो।
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अपदार्थ  : वि [सं० न० त०] १. जो पदार्थ न हो। (नॉन-मैटर) २. जिसमें तत्त्व या सार न हो। ३. तुच्छ। नगण्य। पुं० तुच्छ वस्तु।
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अपदिष्ट  : वि० [सं० अप√दिश् (बताना)+क्त] १. अपदेश के रूप में किया या कराया हुआ। २. कहा हुआ। ३. प्रयुक्त।
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अपदेखा  : वि० [हिं० अप=अपने को+देखा=देखनेवाला] १. अपने को अधिक या बड़ा माननेवाला। घमंडी। २. स्वार्थी। मतलबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपदेश  : पुं० [सं० अप√दिश्+घञ्] १. कोई कार्य करने की आज्ञा देना अथवा ढंग, प्रकार, स्वरूप या विधि बतलाना। निर्देश। २. लक्ष्य। उद्देश्य। ३. बुरा देश या स्थान। ४. कारण या हेतु। ५ बहाना। ६. प्रसिद्धि। ७ छिपाना। ८ इनकार।
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अपध्वंस  : पुं० [सं० अप√ध्वंस् (नष्ट करना)+घञ्] १. नीचे की ओर गिरना। अधःपतन। २. नाश। ३. अपमान। ४. हार।
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अपध्वंसी (सिन्)  : वि० [सं० अप√ध्वंस्+णिनि] अपध्वंस करनेवाला।
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अपध्वस्त  : भू० कृ० [सं० अप√ध्वंस+क्त] १. जिसका अपध्वंस हुआ हो। विनष्ट। २. निंदित। ३. अपमानित।
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अपन  : सर्व० १. दे० ‘अपना’। २. दे० ‘हम’। (मुहा०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपनपौ  : पुं० [हिं० अपना+पौ या पा (प्रत्य०)] १. अपनापन। निजस्व। मुहा०
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अपनय  : पुं० [सं० अप√नी (ले जाना)+अच्] १. अनीति। २. संधि आदि उचित रीति से न करना जिससे विपत्ति की संभावना होती है। (कौ०) ३. दे० ‘अपनयन’।
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अपनयन  : पुं० [सं० अप√नी (ले जाना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपनीत, कर्ता अपनेता] १. अलग, जुदा या दूर करना। हटाना। २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना या पहुँचाना। जैसे—गणित में किसी अंक या परिमाण का अपनयन। ३. किसी स्त्री या बालक को उसके पति या पिता के घर से छिपा या बहकाकर कहीं और ले जाना। अभिहरण। ४. खंडन। ५. ऋण चुकाना।
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अपना  : सर्व० [सं० आत्मन्, प्रा० अप्पण, पुं० हिं० अप्पना] एक संबंधवाचक सर्वनाम जिसका प्रयोग (प्रायः विशेषण रूप में) निम्नलिखित आशय सूचित करने के लिए होता है। (क) (वक्ता की दृष्टि से) शरीर, मन या अधिक्षेत्र से संबंध रखनेवाला, जैसे—अपना हाथ, अपना विचार या अपना काम। (ख) हरएक की दृष्टि से उसका। जैसे—आप लोग अपना अपना मत प्रकट करें। (ग) (विधिक दृष्टि से) जिस पर किसी का अधिकार, प्रभुत्व या स्वामित्व हो। जैसे—यह उनका अपना मकान है (अर्थात् किराये या मँगनी का नहीं है)। और (घ) सामाजिक दृष्टि से) जिसका संबंध किसी वर्ग या समाज के सब लोगों से हो। जैसे—अपना देश, अपनी भाषा, अपना शासन।मुहा०
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अपनाइयत  : स्त्री० =अपनायत।
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अपनाना  : स० [हिं० अपना] १. अपना बनाना। अपना कर लेना। २. ग्रहण या स्वीकार करना। ३. अपने अधिकार या वश में करना। ४. किसी को अपनी शरण में लेना। ५. गले लगाना।
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अपनापन  : पुं० [हिं० अपना] १. अपना होने की स्थिति या भाव। आत्मीयता। २. आत्माभिमान।
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अपनापा  : पुं० [हिं० अपना+आपा (प्रत्य०)] अपनापन।
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अपनाम (न्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] नाम या प्रसिद्धि में लगनेवाला कलंक। बदनामी।
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अपनायत  : स्त्री० [हिं० अपना+यत (प्रत्य०)] १. अपना होने का भाव। आत्मीयता। २. आपसदारी का संबंध। बहुत पास का वैसा व्यवहार या संबंध जैसा सगे-संबंधियों से होता है।
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अपनाव  : पुं० [हिं० अपना] अपनाने की क्रिया या भाव।
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अपनाश  : पुं० [हिं० आप+नाश] अपना नाश स्वयं करने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपनीत  : भू, कृ० [सं० अप√नों (ले जाना)+क्त] १. दूर किया या हटाया हुआ। २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाया हुआ। ३. जिसे कोई भगा या हर ले गया हो। (एब्डक्टेड) विशेष दे० ‘अपनयन’
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अपनेता  : वि० [सं० अप√नो+तृच्] अपनयन करने, किसी को भगाने या हरनेवाला। (ऐब्डक्टर)
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अपनोद  : पुं० [सं० अप√नुद् (प्रेरणा+घञ्] १. दूर करना। हटाना। २. प्रायश्चित करना।
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अपनोदन  : पुं० [सं० अप√नुद्+ल्युट्-अन]=अपनोद।
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अपन्हव  : पुं० दे० ‘अपह्नव’।
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अपन्हुति  : स्त्री० दे० ‘अपह्नुति’।
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अपपाठ  : पुं० [सं० प्रा० सं० ] १. ग्रंथ या लेख का अशुद्ध पाठ। २. पढ़ने में होनेवाली अशुद्धि।
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अपपात्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. अनधिकारी या अनुपयुक्त पात्र। २. नीच या निम्न जाति का व्यक्ति।
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अपप्रजाता  : स्त्री० [सं० अप—प्र√जन् (उत्पत्ति)+क्त, टाप्] वह स्त्री जिसका गर्भ गिर गया हो।
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अपप्रदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित रूप से धन देना। २. वह धन या पदार्थ जो अनुचित रूप से किसी को दिया गया हो। घूस। रिश्वत।
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अपबरग  : पुं० दे० ‘अपवर्ग’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपबस  : वि० [हिं० आप+वश] १. जो अपने वश में हो। २. स्वतंत्र। ३. स्वेच्छाचारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपबाहुक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] एक वातजन्य रोग जिसमें बाहु की नसें सूखकर बेकाम हो जाती हैं। भुजस्तंभ रोग।
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अपभय  : वि० [सं० ब० स०] १. जो भयरहित हो। निर्भय। निडर। २. बहादुर। वीर। पुं० [प्रा० स०] अकारण, अनुचित या व्यर्थ का भय।
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अपभाषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ऐसी अश्लील और गंदी बातें कहना जो शिष्ट समाज के लिए अनुचित हों। २. गालियाँ देना या दुर्वचन कहना। (स्कर्रिलिटी)
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अपभाषा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरी भाषा। २. अश्लील या गंदी बातें या भाषा।
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अपभुक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] (धन या पदार्थ) जिसका अपभोग हुआ हो।
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अपभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी विषय या वस्तु का बुरी तरह या अनुचित रूप से किया जानेवाला भोग या उससे उठाया जानेवाला लाभ।
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अपभ्रंश  : पुं० [सं० अप√भ्रंश (अधःपतन)+घञ्] १. नीचे की ओर गिरना। पतन। २. बिगाड़। विकृति। ३. किसी शब्द का बिगड़ा हुआ वह रूप जो उसे इसलिए प्राप्त होता है कि लोग उसका मूल उच्चारण ठीक तरह से और शुद्ध रूप से नहीं कर सकते। स्त्री० प्राचीन मध्यदेश को वह भाषा जो प्राकृत भाषाओं के उपरांत प्रचलित हुई थी और जिसमें आधुनिक देश-भाषाओं का विकास हुआ है।
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अपभ्रंशित  : भू० कृ० [सं० अपभ्रंश+इतच्] १. गिरा हुआ। २. पतित। ३. बिगड़ा हुआ। विकृत।
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अपभ्रष्ट  : वि० [सं० अप√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। पतित। २. बिगड़ा हुआ। विकृत। ३. (शब्द) जो किसी तत्सम शब्द से निकलकर अपने विकृत रूप में प्रचलित हो।
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अपमर्द  : पुं० [सं० अप√मृद् (कुचलना)+घञ्] गर्द। धूल।
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अपमर्दन  : पुं० [सं० अप√ मृद् ल्युट-अन] बुरी तरह से कुचलना या रौंदना।
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अपमर्श  : पुं० [सं० अप√मृश् (छूना)+घञ्] १. निंदा। २. स्पर्श। ३. अपहरण। ४. चरना (पशुओं का)।
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अपमान  : पुं० [सं० अप√मा (शब्द, मान)+ल्युट्-अन] १. अभिमान और उद्दंडतापूर्वक किया जानेवाला वह काम या कही जानेवाली वह बात जिससे अपनी या किसी की प्रतिष्ठा या सम्मान कम होता हो अथवा वह उपेक्ष्य या तुच्छ ठहरता हो। किसी का आदर या इज्जत घटानेवाला काम या बात। (डिसग्रेस, इंसल्ट) २. तिरस्कार। ३. दुत्कार।
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अपमान-लेख  : पुं० [ष० त०] ऐसा लेख या वक्तव्य जिससे किसी का अपमान होता हो। (लाइबुल्)
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अपमानकारी (रिन्)  : वि० [सं० अपमान√कृ (करना)+णिनि] जिससे अपमान हो। अपमान करनेवाला।
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अपमानजनक  : वि० [सं० ष० त०] (काम या बात) जिसके फलस्वरूप अपमान होता हो।
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अपमानना  : स० [सं० अपमान] किसी का अपमान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपमानिक  : वि० [सं० अपमान+ठन्-इक] अपमान-सूचक (शब्द या बात)।
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अपमानित  : भू० कृ० [सं० अपमान+इतच्] जिसका अपमान किया गया हो।
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अपमानी (निन्)  : वि० [सं० अप√मन् (जानना)+णिनि] अपमान करनेवाला।
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अपमान्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जिसका अपमान किया जा सकता हो या करना उचित हो। अपमानित होने के योग्य। २. निंदनीय।
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अपमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] बुरा मार्ग। कुपथ।
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अपमार्गी (र्गिन)  : वि० [सं० अपमार्ग+इन] बुरे मार्ग या रास्ते पर चलनेवाला। कुमार्गी।
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अपमार्जन  : पुं० [सं० अप√मार्ज् (शुद्ध) ल्युट्-अन, वृद्धि] [भू० कृ० अपमार्जित] १. शुद्धि, संशोधन या सफाई करने की क्रिया या भाव। २. रद्द करने, मिटा देने या निकाल देने की क्रिया या भाव।
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अपमार्जित  : भू० कृ० [सं० अप√मार्ज्+क्त] जिसका अपमार्जन किया गया हो।
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अपमिश्रण  : पुं० [अप√मिश्र (मिलना+ल्युट-अन] किसी अच्छी या बढ़िया चीज में बुरी या घटिया चीज मिलाने की क्रिया या भाव।
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अपमुख  : वि० [सं० ब० स०] टेढ़े मुँहवाला।
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अपमृत्यु  : पुं० [सं० प्रा० स०] असामयिक या आकस्मिक मृत्यु। अकाल मृत्यु।
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अपमृषित  : वि० [सं० अप√मृष् (तितिक्षा)]+क्त (कथन या वाक्य) जो स्पष्ट या समझने-योग्य न हो।
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अपयश (स्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई अनुचित या बुरा काम करने पर होनेवाला यश का नाश। अपकीर्ति। बदनामी। (इग्नामिनी)
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अपयशस्कर  : वि० [सं० अपयशस्√कृ (करना)+ट] (ऐसा कार्य या बात) जिससे कर्ता या अपयश हो।
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अपयान  : पुं० [सं० अप√या (जाना)+ल्युट्-अन] १. चले जाना या हट जाना। २. भाग जाना। पलायन।
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अपयोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा समय। २. बुरा योग। ३. नियमित मात्रा से अधिक या न्यून औषध पदार्थों का योग। ४. दे० ‘अपयोजन’।
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अपयोजन  : पुं० [सं० अप√युज् (जोड़ना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपयोजित] किसी का धन या संपत्ति अनुचित रूप से अपने उपयोग या काम में लाना। (मिसएप्रोप्रियेशन)
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अपर  : वि० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+अप्, न० त०] [स्त्री० अपरा, भाव० अपरत्व] १. जो पर या बाद का न हो। पहला। २. जिसके बाद या उपरांत कुछ या कोई न हो। ३. जिससे बढ़कर और कोई न हो। ४. प्रस्तुत से भिन्न। और कोई। दूसरा। ५. क्रम, श्रेष्ठता आदि के विचार से किसी के उपरांत या बाद में पड़नेवाला। परवर्ती। ६. जितना हो या हो चुका हो, उससे और अधिक या आगे का। (फर्दर) जैसे—अपर उपशम। ७. पीछे की ओर का। पिछला। जैसे—अपर काय=शरीर का पिछला भाग। ८. किसी दूसरी जाति या वर्ग का। विजातीय। ९. अधम। नीच। पु० हाथी का पिछला आधा भाग। २. बैरी। शत्रु।
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अपर बल  : वि० [सं० प्रबल] १. बलवान। २. उद्धत। ३. बहुत अधिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपर-दक्षिण  : पुं० [अव्य० स०] दक्षिण और पश्चिम का कोना। नैऋत्य कोण।
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अपर-दिशा  : स्त्री० [कर्म० स०] पश्चिम दिशा।
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अपर-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. सौर मास का कृष्ण पक्ष। २. प्रतिवादी। मुद्दालेह।
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अपर-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] वंशज।
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अपर-प्रणेय  : वि० [तृ० त०] सहज में दूसरों से प्रभावित होनेवाला।
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अपर-भाव  : पुं० [कर्म० स०] १. भिन्न होने का भाव। २. अन्तर। भेद।
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अपर-रात्र  : पुं० [एकदेशि त० स०] रात का अंतिम या पिछला पहर। तड़का। प्रभात।
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अपर-लोक  : पुं० [कर्म० स०] १. अन्य या दूसरा लोक। २. स्वर्ग।
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अपर-वस्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके विषम चरणों में दो नगण, एक रगण और लघु गुरु तथा सम चरणों में एक नगण, दो जगण और रगण होता है।
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अपरक्त  : वि० [सं० अप√रञ्ज (राग)+क्त] अपरक्ति या अपराग से युक्त। २. जिसमें कोई रंग या रंगत न हो। ३. असंतुष्ट और खिन्न। ४. जिसमें रक्त न हो। रक्तहीन।
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अपरंच  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. और भी। २. फिर भी। ३. इसके पीछे या बाद। उपरांत।
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अपरछन  : वि० [सं० अप्रच्छन] जो प्रच्छन (छिपा या ढका हुआ) न हो। खुला हुआ। स्पष्ट। वि०=प्रच्छन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरज  : वि० [अपर√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो बाद में उत्पन्न हुआ हो। पुं० प्रलयाग्नि।
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अपरता  : स्त्री० [सं० अपर+तल्—टाप्] अपर होने की अवस्था या भाव। परायापन। स्त्री० [सं० अ=नहीं+परता=परायापन] भेद-भाव—शून्यता। अपनापन।
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अपरति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अनुराग, प्रेम या रति का अभाव। २. असंतोष। ३. अलगाव। विच्छेद।
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अपरती  : स्त्री० [हिं० आप+सं० रति=लीनता] केवल अपना ध्यान रखना। स्वार्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरत्र  : अव्य० [सं० अपर+त्रल्] और कहीं। अन्यत्र।
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अपरत्व  : पुं० [सं० अपर+त्व] १. ‘अपर’ होने का भाव। २. न्यायशास्त्रानुसार चौबीस गुणों में से एक।
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अपरना  : स्त्री० [सं० अ=नहीं+पर्ण=पता] पार्वती का एक नाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरंपार  : वि० [सं० अपर=दूसरा+हिं० पार=छोर] १. जिसका पारावार या कूल-किनारा न हो। अपार। २. बहुत अधिक। बेहद। असीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरमपार  : वि० =अपरंपार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपररूप  : पुं० [कर्म० स०] [भाव० अपर-रूपता] रसायन शास्त्र में किसी तत्त्व का कोई ऐसा दूसरा रूप जो कुछ दूसरे विशिष्ट गुणों से युक्त हो या कुछ भिन्न प्रकार का हो। (एल्लोट्रोप) जैसे—कार्बन नामक तत्त्व काजल, कोयले, सीसे और हीरे में रहता तो है, पर अपने अपर रूपों में रहता है।
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अपररूपता  : स्त्री० [सं० अपररूप+तल्-टाप्] अपररूप होने की अवस्था, गुण या भाव। (एल्लोट्रोपी)
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अपरवश  : वि० [सं० न० त०] जो परवश न हो।
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अपरस  : वि० [सं० अ०+हिं० परस=स्पर्श] १. जिसे किसी ने छुआ न हो। २. अस्पृश्य। ३. अनासक्त। पुं० हथेली या तलुए में होनेवाला एक चर्म रोग।
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अपरा  : स्त्री० [सं० अपर+टाप्] १. अध्यात्म या ब्रह्मविद्या को छोड़कर अन्य विद्या। २. लौकिक या पदार्थ-विद्या। ३. पश्चिम दिशा। ४. ज्येष्ठ के कृष्ण पक्ष की एकादशी।
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अपरांग  : पुं० [सं० अपर—अंग, ष० त०] गुणीभूत व्यंग्य का एक भेद। (साहित्य)
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अपराग  : पुं० [सं० अप√रञ्ज्+घञ्] १. प्रेम या राग का विरोधी भाव। २. वैर। शत्रुता। ३. अरुचि। ४. दे० ‘अपरक्ति’।
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अपराग्नि  : स्त्री० [सं० अपर-अग्नि, कर्म० स०] १. गार्हपत्य अग्नि। २. चिता की आग।
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अपराजित  : वि० [सं० न० त०] जो पराजित न हुआ हो। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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अपराजिता  : स्त्री० [सं० अपराजित+टाप्] १. विष्णुक्रांता लता। कौवाठोठी। २. कोयल। ३. दुर्गा। ४. शंखिनी आदि पौधे। ५. अयोध्या का एक नाम। ६ उत्तर-पूर्व विदिशा। ७. एक योगिनी। ८. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक रगण, एक सगण, एक लघु और एक गुरु होता है।
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अपराजेय  : वि० [सं० न० त०] जो पराजित न किया जा सके। स्त्री० पराजित न होने का भाव। अपराजय।
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अपरांत  : पुं० [सं० अपरा-अंत, ष० त०] पश्चिम का देश या प्रांत।
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अपरांतक  : पुं० [सं० अपरांत+कन्] पश्चिम दिशा में स्थित एक पर्वत। (पुरा०)
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अपरांतिका  : स्त्री० [सं० अपरांत+कन्—टप्, इत्व] वैताल छंद का वह भेद जिसमें चौथी और पाँचवीं मात्राएँ मिलकर दीर्घ अक्षर बन जाती हैं।
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अपराद्ध  : वि० [सं० अप√राध् (सिद्धि)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसने अपराध किया हो। २. (कार्य) जिसका आचरण कानून की दृष्टि में अपराध माना जाय।
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अपराध  : पुं० [सं० अप√राध्+घञ्] १. ऐसा अनुचित कार्य जिसने किसी का अपमान या हानि हो। (आफेन्स) २. कोई ऐसा अनुचित फलतः दंडनीय काम जो किसी विधि या विधान के विरुद्ध हो। ३. कोई अनुचित या बुरा काम। ४. दोष। ५. पाप। ६. भूल-चूक।
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अपराध-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि लोग अपराध क्यों करते हैं और उनकी यह प्रवृत्ति कैसे ठीक हो सकती है। (क्रिमिनालजी)
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अपराध-स्वीकरण  : पुं० [ष० त०] न्यायाधीश अथवा किसी उच्च अधिकारी के सामने अपना किया हुआ अपराध स्वीकार करना। (कन्फेशन)
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अपराधशील  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो प्रायः और स्वभावतः अपराध करता रहता हो। (क्रिमिनल)
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अपराधि-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘भेद-साक्षी’।
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अपराधिक  : वि० दे० ‘अपराधिक’।
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अपराधी (धिन्)  : वि० , पुं० [सं० अप√राध्+णिनि] १. वह जिसने अपराध किया हो। २. कानून की दृष्टि में ऐसा व्यक्ति जिसने अपराध किया हो।
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अपरामृष्ट  : वि० [सं० न० त०] १. जिसको किसी ने छुआ न हो। अछूता। २. अव्यवहृत। कोरा।
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अपरार्क  : वि० [सं० अपर—अर्क, कर्म० स०] सूर्य के समान तेजस्वी।
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अपरांर्द्ध  : पुं० [सं० अपर—अर्द्ध, कर्म स०] दूसरा या बादवाला आधा अंश। उत्तरार्द्ध।
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अपरावर्त्ती (तिन्)  : वि० [सं० परा√वृत् (बरतना)+णिनि, न० त०] १. न लौटनेवाला। २. पीछे न हटनेवाला। ३. किसी काम से मुँह न मोड़नेवाला। मुस्तैद।
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अपराह्ल  : पुं० [सं० अपर—अहन्, एकदेशि त० स०] १. दिन का वह भाग जो दोपहर या मध्याह्न के बाद आरंभ होता है। (पी०एम०) २. साधारण बोलचाल में तीसरा पहर।
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अपराह्ल  : पुं०=अपराह्ल।
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अपरिक्त  : स्त्री० [सं० अप√रञ्ज+क्तिन्] १. अपरक्त होने की अवस्था या भाव। अपराग। २. अनुराग, प्रेम, सद्भावना आदि का अभाव। (डिस-एफेक्शन)
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अपरिक्रम  : वि० [सं० न० ब०] १. जो चल न सके । २. जिसमें परिक्रम का अभाव हो। उद्योगहीन। ३. कार्य अथवा परिश्रम करने में असमर्थ।
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अपरिगत  : वि० [सं० न० त०] १. जो पहचाना हुआ न हो। अपरिचित। २. जो जाना हुआ न हो। अज्ञात।
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अपरिगृहीत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिग्रहण न हुआ हो। २. जो गृहीत न हुआ हो। ३. अस्वीकृत। ४. त्यक्त।
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अपरिगृहीतागमन  : पुं० [सं० अपरिगृहीता, न० त०, अपरिगृहीता-गमन, तृ० त०] जैन शास्त्रानुसार कुमारी या विधवा के साथ गमन करना जो अतिचार माना गया है।
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अपरिग्रह  : पुं० [सं० न० त०] १. दान न लेना। २. जीवन निर्वाह के लिए जो अति आवश्यक हो उसे छोड़कर और कुछ ग्रहण न करना। ३. मोह, राग-द्वेष, हिंसा आदि का त्याग। ४. योगशास्त्र में पाँचवाँ यम। संगत्याग। ५. ब्रह्मचर्य।
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अपरिग्राह्य  : वि० [सं० न० त०] जो ग्रहण या स्वीकृत किये जाने के योग्य न हो।
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अपरिचय  : पुं० [सं० न० त०] [वि० अपरिचित] परिचय का अभाव। जान-पहिचान न होना।
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अपरिचयिता  : स्त्री० [सं० अपरिचयिन्+तल्—टाप्] अपरिचित होने की अवस्था या भाव।
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अपरिचयी (यिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिचय औरों से न हो। २. जो अधिक लोगों से परिचय या मेल-जोल न रखता हो।
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अपरिचित  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिससे परिचय न हो। २. (विषय) जिसका पहले से परिज्ञान न हो।
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अपरिच्छद  : वि० [सं० न० ब०] १. आच्छादन या आवरण से रहित। खुला हुआ। २. नंगा। नग्न। ३. दरिद्र। (क्व०)
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अपरिच्छन्न  : वि [सं० न० त०] १. जो ढका न हो। आवरण-रहित। २. जिसका विभाग न हो सके। अभेद्य। मिला हुआ। ४. असीम। ५. सर्वव्यापक।
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अपरिच्छेद  : पुं० [सं० न० त०] १. बिलगाव, भेद, विभाग आदि का अभाव। २. निर्णय, न्याय या विवेक का अभाव।
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अपरिणत  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिणित न हुआ हो। २. जिसमें कोई परिवर्तन या विकार न हुआ हो। ज्यों का त्यों।
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अपरिणय  : पुं० [सं० न० त०] १. परिणय न होने का भाव। २. विवाहित न होने की अवस्था। जैसे—कौमार्य, ब्रह्मचर्य आदि।
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अपरिणामी (मिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें परिणाम या विकार न हो। २. जिसका दशा में कोई परिवर्त्तन न हो, फलतः एक रूप या एकरस।
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अपरिणीत  : वि० [सं० न० त०] जिसका परिणय या विवाह न हुआ हो। अविवाहित।
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अपरिपक्व  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिपक्व न हो। कच्चा। २. जो अच्छी तरह पका या पूरा न हुआ हो। अध-कचरा। अधूरा।
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अपरिपणित संधि  : स्त्री० [सं० परि√पण् (व्यवहार करना) +क्त, न० त०, अपरिणित—संधि, कर्म० स०] दूसरे को धोखा देने के लिए की जानेवाली कपट-संधि।
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अपरिमाण  : वि० [सं० न० ब०] जिसका परिमाण या माप न हो। अपरिमित। पुं० परिमाण का अभाव।
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अपरिमित  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिमित न हो। २. जिसकी कोई सीमा न हो। असीम। बेहद। (अनलिमिटेड) ३. असंख्य। अनगिनत।
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अपरिमेय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिमाण जाना न जा सके। जिसकी नाप-जोख न हो सके। २. जो कूता न जा सके। ३. बहुत अधिक।
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अपरिवर्त  : वि० [सं० परि√वृत्+घञ्, न—परिवर्त, न० ब०] जिसमें किसी प्रकार का परिवर्त्तन या फेर-बदल न हो सकता हो या न होता हो।
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अपरिवर्तनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें परिवर्त्तन न हो सके। जो बदला न जा सके। २. जो बदले में न दिया जा सके। ३. जिसमें परिवर्त्तन न होता हो। सदा एक-रस रहनेवाला। नित्य।
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अपरिवर्तित  : वि० [सं० न० त०] जिसमें कोई परिवर्त्तन या फेर-बदल न हुआ हो। ज्यों का त्यों।
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अपरिवृत  : वि० [सं० न० त०] जो ढका या घिरा न हो, अपरिच्छन्न।
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अपरिशेष  : वि० [सं० न० ब०] जिसका परिशेष न होता हो। अविनाशी। नित्य।
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अपरिष्कृत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिष्करण या संस्कार न हुआ हो। असंस्कृत। ३. जो ठीक या साफ न किया गया हो। ३. मैला-कुचैला या गंदा। ४. अनगढ़। बेडौल।
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अपरिसर  : वि० [सं० न० ब०] १. जो निकट न हो। दूर। २. जिसमें विस्तार का अभाव हो। विस्तार-रहित। ३. अप्रशस्त। पुं० [न० त०] विस्तार का अभाव।
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अपरिहरणीय  : वि० [सं० न० त०] जिसका परिहरण करना अनुचित या निषिद्ध हो।
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अपरिहार  : वि० [न० ब०]=अपरिहार्य। पुं० [न० त०] दूर करने के उपाय का अभाव।
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अपरिहारित  : भू० कृ० [सं० न० त०] जिसका परिहार न किया गया हो।
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अपरिहार्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिहार या त्याग न हो सके। अत्याज्य। २. जिसके बिना काम न चल सके। अनिवार्य। ३. न छीनने योग्य।
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अपरीक्षित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी परीक्षा न की गई हो अथवा न ली गई हो। २. जिसके रूप, गुण, वर्ण आदि का अनुसंधान न हुआ हो। ३. अप्रमाणित।
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अपरुष  : वि० [सं० न० त०] जो परुष या कठोर न हो। कोमल। मृदुल।
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अपरूप  : वि० [सं ब० स०] १. बुरे रूपवाला। कुरूप। बदशकल। २. भद्दा। वि० [सं० आत्म-रूप] परम सुंदर। (बँगला से गृहीत) उदा०—मनु निरखने लगे ज्यों ज्यों कामिनी का रूप, वह अनंत प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप।—प्रसाद।
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अपरेण  : क्रि० वि० [सं अपर शब्द का तृतीयांत रूप] किसी की आड़ में या पीछे। किसी ओर हटकर। पुं० १. गणित ज्योतिष में, किसी आकाशस्थ पिंड का (पृथ्वी की गति और प्रकाश-किरण के विचलन के कारण) अपने स्थान से कुछ हटा हुआ या इधर-उधर दिखाई देना। २. नियत मार्ग या स्थान से इधर-उधर होना। (एबरेशन)
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अपरोक्ष  : वि० [सं० न० त०] १. जो परोक्ष न हो। प्रत्यक्ष। २. जिसे अपने सामने देख, समझ या सुन सकें।
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अपरोध  : पुं० [सं० अप√रुध् (रोकना)+घञ्] १. रुकावट। २. मनाही। वर्जन।
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अपरोप  : पुं० [सं० अप√रुह् (जनमना)+णिच्+घञ्] १. उन्मूलन। २. विध्वंस। ३. राज्यच्युति।
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अपर्ण  : वि० [सं० न० ब०] (वृक्ष) जिसमें पर्ण या पत्ते न हों।
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अपर्णा  : स्त्री० [सं० अपर्ण+टाप्] १. पार्वती जी का उस समय का नाम जब शिव के लिए तपस्या करते समय उन्होंने पत्ते तक खाना छोड़ दिया था। २. दुर्गा।
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अपर्तु  : वि० [सं० अप-ऋतु, प्रा० ब०] १. उचित समय पर न होनेवाला। बे-मौसम। २. (स्त्री) जिसकी ऋतु का समय बीत चुका हो।
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अपर्यंत  : वि० [सं० न० ब०] जिसका पर्यंत (सीमा) न हो। असीम।
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अपर्याप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो पर्याप्त (पूरा या यथेष्ट) न हो। २. (न० ब०) असीम।
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अपर्याप्त-कर्म (न)  : पुं० [कर्म० स०] जैन-शास्त्रानुसार वह पाप-कर्म जिसके उदय से जीव के पूर्णता प्राप्त करने में बाधा होती है।
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अपर्याप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. अपर्याप्त होने की अवस्था या भाव। २. पूर्णता का अभाव। कमी। त्रुटि। ३. अक्षमता। अयोग्यता।
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अपर्याय  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें या जिसका कोई क्रम न हो। क्रम-हीन।
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अपर्व (न्)  : पुं० [सं० न० ब०] वह दिन जिसमें कोई पर्व न हो। वि० जिसमें पर्व या संधि न हो।
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अपर्वक  : वि० [सं० न० ब०, कप्] जिसके बीच में पर्व (जोड़ या संधि) न हो।
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अपल  : वि० [सं० न० ब०] १. पल-रहित। २. मांस-रहित। निरामिष। वि० दे० ‘अपलक’। पुं० [अप√ला (लेना)+क] अर्गल।
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अपलक  : वि० [सं० अ=नहीं+फलक] जिसकी पलकें न गिरें। जो टक लगाकर देख रहा हो। क्रि० वि० बिना पलकें गिराये या झपकाये। एकटक।
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अपलक्षण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अशुभ या बुरा लक्षण या चिन्ह। २. दोष। ३. साहित्य में, किसी चीज का बतलाया जानेवाला ऐसा लक्षण जिसमें अतिव्याप्ति या अव्याप्ति दोष हो। दूषित या त्रुटिपूर्ण लक्षण।
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अपलाप  : पुं० [सं० अप√लप् (कहना)+घञ्] १. व्यर्थ की बकबक। बकवाद। २. प्रसंग टालने के लिए इधर-उधर की बातें कहना। बात बनाना। ३. जान-बूझकर कोई बात न कहना। बात का छिपाव या दुराव।
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अपलापिका  : स्त्री० [सं० अप√लप् (इच्छा)+ण्वुच्-अक] [वि० अपलापी, अपलापुक] १. बहुत अधिक तृष्णा या लालसा। २. पिपासा। प्यास।
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अपलापी (पिन्)  : वि० [सं० अप√लप्+णिनि] १. अपलाप करनेवाला। २. बकवादी। बक्की।
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अपलाभ  : पुं० [सं० प्रा० स०] अनुचित या अनैतिक रूप से प्राप्त किया हुआ अत्यधिक लाभ। (प्रॉफिटियरिंग)
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अपलाभन  : पुं० [सं० अपलाभ+णिच्+ल्युट्-अन] अपलाभ प्राप्त करने की क्रिया या भाव।
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अपलेखन  : पुं० [सं० अप√लिख् (लिखना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपलिखित] पावने की ऐसी रकम रद्द करना जो वसूल न हो सकती हो। बट्टेखाते लिखना।
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अपलोक  : पुं० [सं० प्रा० स०] लोक में होनेवाली निंदा या बदनामी। उदा०—लोक में लोक बड़ो अपलोक सुकेशव दास जु होउ सो होऊ।—केशव।
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अपवचन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अपशब्द। गाली। २. निंदा।
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अपवन  : वि० [सं० अ—पवन, न० ब०] (ऐसा स्थान) जहाँ वायु का प्रवेश न हो। पुं० [सं० अप-वन, प्रा० स०] १. छोटा वन। २. उद्यान। बगीचा। पुं० [न० त०] पवन का अभाव।
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अपवरक  : पुं० [सं० अप√वृ (आच्छादन)+ण्वुल्-अक] १. अंतःपुर। २. सोने की जगह। शयनागार। ३. झरोखा।
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अपवरण  : पुं० [सं० अप√वृ+ल्युट्-अन] आवरण दूर करना। परदा हटाना।
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अपवर्ग  : पुं० [सं० अप√वृज् (वर्जन)+घञ्] १. सब प्रकार के दुःखों से होनेवाला छुटकारा। २. मोक्ष। ३. त्याग। ४. दान। ५. कार्य की समाप्ति या सिद्धि। ६. किये हुए कर्मों का फल।
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अपवर्जन  : पुं० [सं० अप√वृज्+ल्युट्—अन] १. त्यागने की क्रिया या भाव। २. मुक्त करने या होने की अवस्था या भाव।
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अपवर्जित  : भू० कृ० [सं० अप√वृज् (त्याग)+णिच्+क्त] १. जिसका अपवर्जन हुआ हो। २. छूटा हुआ। मुक्त।
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अपवर्त्त  : पुं० [सं० अप√वृत् (बरतना)+णिच्+घञ्] १. अलग या दूर करना। हटाना। २. दे० ‘समापवर्त्तक’।
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अपवर्त्तक  : वि० [अप√वृत् +णिच्+ण्वुल्-अक] अपवर्त्तन करनेवाला। पुं० गणित में, ऐसी राशि या राशियाँ जिनसे किसी बड़ी राशि को भाग देने पर शेष कुछ न बचे। सामान्य विभाजक। (फैक्टर) जैसे—१२ को २, ३, ४, या ६ से भाग देने पर शेष कुछ नहीं बचता। अतः २, ३, ४ और ६ सभी १२ के अपवर्त्तक हैं।
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अपवर्त्तन  : पुं० [सं० अप√वृत्+णिच्+ ल्युट्-अन] १. किसी में से कुछ निकाल या ले लेना। २. कहीं से हटाना। अलग या दूर करना। ३. न होने के समान करना। रद्द करना। ४. गणित में, राशियों या संख्याओं का अपवर्त्त या समापवर्त्तक निकालना। जैसे—३६/२४ में के ३६ और २४ दोनों को १२ से भाग देकर ३/२ रूप में लाना। (कैन्सलेशन ऑफ कॉमन फैक्टर)
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अपवर्त्तित  : भू० कृ० [सं० अप√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसका अपवर्तन हुआ हो या किया गया हो। २. अंदर की ओर घूमा, बढ़ा या मुड़ा हुआ। (इन्वर्टेड)
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अपवर्त्य  : वि० [सं० अप√वृत्+ण्यत्] जिसका अपवर्त्तन हो सकता हो या होने को हो। पुं० गणित में, वह राशि जो किसी एक संख्या को दूसरी संख्या से गुणा करने पर प्राप्त हो। (मल्टिपुल) जैसे—६×६=३६ होता है। अतः ६ का ३६ अपवर्त्य है।
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अपवश  : वि० [हिं० अप=अपना+सं० वश] अपने वश या अधिकार में लाया हुआ। जो अपने अधीन कर लिया गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपवहन  : पुं [सं० अप√वह् (बहना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपवहित] किसी चलती या जाती हुई चीज का अपने उचित या नियत स्थान पर न पहुँचकर इधर-उधर चला जाना। (मिसकैरिज)
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अपवहित  : भू० कृ० [सं० अपवहन] जिसका अपवहन हुआ हो।
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अपवाचा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित कथन या बात। २. गाली। ३. निंदा। अपवाद।
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अपवाद  : पुं० [सं० अप√वद् (बोलना)+घञ्] १. किसी बात के विरुद्ध कही हुई बात। विरोध या खंडन। २. ऐसी लोक-निंदा जिससे किसी के सम्मान को आघात पहुँचे। बदनामी। (ऑब्लोकी) ३. दोष। बुराई। ४. वह बात जो किसी व्यापक या सामान्य नियम के अंतर्गत आकर उसके विरुद्ध या उसके अतिरिक्त पड़ती हो। ५. राय। विचार। ६. विश्वास। प्रणय। ७. मिथ्या बात। ८. आदेश। आज्ञा। ९. वेदांत शास्त्र के अनुसार अध्यारोप का निराकरण। जैसे—रज्जु में सर्प का ज्ञान यह अध्यारोप है, रज्जु के वास्तविक ज्ञान से उसका जो निराकरण हुआ वह अपवाद है।
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अपवादक  : पुं० [सं० अप√वद्+ण्वुल्—अक] वह जो दूसरों का अपवाद या बदनामी करे। पर-निंदक। वि० १. अपवाद रूप में होनेवाला। २. विरोधी। ३. बाधक।
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अपवादिक  : वि० [सं० आपवादिक] १. अपवाद संबंधी। २. सामान्य नियम के विरुद्ध अथवा अपवाद के रूप में होनेवाला। (एक्सेप्शनल) ३. दे० ‘अपवादक’।
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अपवादित  : भू० कृ० [सं० अप√वद्+णिच्+क्त] १. जिसका विरोध किया गया हो। २. निंदित।
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अपवादी (दिन्)  : वि० [सं० अप√वद्+णिच्+णिनि] दे० ‘अपवादक’।
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अपवारण  : पुं० [सं० अप√वृ (आच्छादन+णिच्+ल्युट्—अन] १. दूर करना। हटाना। २. आड़। व्यवधान।
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अपवारित  : भू० कृ, [सं० अप√वृ+णिच्+क्त] जिसका अपवारण किया गया हो।
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अपवाह  : पुं० [सं० अप√वह् (बहना, पहुँचाना)+घञ्] १. पानी बहने की नाली। २. एक प्रकार का छंद। ३. कम करना। घटाना। ४. किसी उद्देश्य से नियत मार्ग से हटकर इधर-उधर होना। (ड्रिफ्ट) ६. दे० ‘अपवाहन’।
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अपवाहक  : विं० [सं० अप√वह्+णिच्+ण्वुल्—अक] अपवाहन करनेवाला।
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अपवाहन  : पुं० [अप√वह्+णिच्+ल्युट्—अन] किसी चीज को उचित या नियत स्थान पर न ले जाकर भूल से कहीं इधर-उधर ले जाना या पहुँचाना। (मिसकैरी)
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अपवाहित  : भू० कृ० [सं० अप√वह्+णिच्+क्त] जिसका अपवाहन हुआ हो। (मिसकैरिड)
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अपवित्र  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अपवित्रता] जो पवित्र न हो, फलतः न छूने योग्य या मलिन।
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अपविद्ध  : वि० [सं० अप√व्यध् (बेधना)+क्त] १. छोड़ा या त्यागा हुआ। २. बेधा हुआ। विद्ध। पुं० वह पुत्र जिसको उसके माता-पिता ने त्याग दिया हो और किसी दूसरे ने पाला हो।
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अपविद्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. ऐसी खराब या निषिद्ध विद्या जिसका अध्ययन करना उचित न हो। २. दे० ‘अविद्या’।
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अपविष  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें विष न हो, विष-रहित।
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अपविषा  : स्त्री० [सं० अपविष+टाप्] निर्विषी नामक पौधा।
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अपवृक्त  : वि० [अप√वृज् (त्याग)+क्त] पूरा या समाप्त किया हुआ।
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अपवृति  : स्त्री० [सं० अप√वृ (छेदन)+क्तिन्] १. छेद। सूराख। २. त्रुटि। दोष।
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अपवृत्त  : वि० [सं० अप√वृत् (बरतना)+क्त] १. क्रम, संबंध, स्थिति आदि के विचार से जो उलटा या विपरीत हो। २. अंदर की ओर उलटा, घूमा या मुड़ा हुआ। (इन्वर्टेड)
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अपवृत्ति  : स्त्री० [सं० अप√वृत्+क्तिन्] १. अपवृत होने की अवस्था या भाव। २. अंत। समाप्ति।
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अपव्यय  : पूं० [सं० प्रा० स०] १. घन का आवश्यकता या उचित मात्रा से अधिक व्यय करना। २. व्यर्थ किया जानेवाला व्यय। ३. बुरे कर्मों में होनेवाला व्यय।
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अपव्ययी (यिन्)  : वि० [सं० अपव्यय+इनि] अपव्यय करनेवाला। व्यर्थ अधिक खर्च करनेवाला।
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अपव्रत  : वि० [सं० बं० स०] १. व्रत का पालन न करनेवाला। २. आज्ञा न माननेवाला। पुं० [प्रा० स०] अनुचित या निंदनीय व्रत।
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अपशंक  : वि० [सं० ब० स०] १. शंकारहित। २. निर्भीक। निडर।
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अपशकुन  : पुं० [सं० प्रा० स०] अशुभ या बुरा शकुन अथवा लक्षण। असगुन।
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अपशद  : पुं० [सं० अप√शद् (तीक्ष्ण करना)+अच्] दे० ‘अपसद’।
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अपशब्द  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनर्गल, अशुद्ध, या निरर्थक। २. गाली। दुर्वचन।
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अपशम  : पुं० [सं० अप√शम् (शान्ति)+घञ्] १. अंत। समाप्ति। २. ठहराव। विराम।
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अपशु  : वि० [सं० न० त०] १. जो पशु न हो। २. [न० ब०] जिसके पास पशु न हों। पुं० [न० त०] बुरा पशु।
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अपशोक  : वि० [सं० ब० स०] शोक-रहित। पुं० अशोक वृक्ष।
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अपश्चिम  : वि० [सं० न० त०] १. जो पश्चिम या बाद में न हो। २. जिसके पश्चिम या बाद में और कोई न हो।
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अपश्रय  : पुं० [सं० अप√श्रि (सेवा)+अच्] तकिया।
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अपश्री  : वि० [सं० प्रा० ब०] जिसकी श्री नष्ट हो चुकी हो। शोभा, सौंदर्य आदि से रहित।
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अपश्रुति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] भाषा विज्ञान में, एक ही धातु से बने शब्दों में दिखाई देनेवाला वह विकार जो व्यंजनों के प्रायः ज्यों के त्यों बने रहने पर भी केवल उनके स्वरों के स्थान परिवर्त्तन से होता है। अक्षरावस्थान। जैसे—बढ़ना से बढ़ाव और बढ़िया रूप अपश्रुति के उदाहरण हैं।
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अपश्वास  : पुं० [सं० अप० स०] अपानवायु।
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अपष्ठु  : वि० [सं० अप√स्था (ठहरना)+कु] उलटा। विपरीत।
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अपसगुन  : पुं० दे० ‘अपशकुन’।
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अपसंचय  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अपसंचित] अनियमित रूप से और अधिक मूल्य पर बेचने के उद्देश्य से माल इकट्ठा करके और छिपाकर अपने पास रखना। (होर्डिंग)
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अपसद  : पुं० [सं० अप√सद् (विशीर्ण होना)+अच्] उच्च जाति के पुरुष और नीच जाति की स्त्री से उत्पन्न संतान।
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अपसना  : अ० [सं० अपसरण =खिसकना] १. दूर हटना। सरकना। २. भाग जाना। ३. पहुँचना। प्राप्त होना।
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अपसर  : पुं० [सं० अप√सृ (गति)+अच्] १. पीछे हटना। अपसरण। २. प्रस्थान ३. पलायन। भागना। ४. उचित कारण। ५. अंतर। दूरी। (ज्या०) ६. वाष्प-कण।
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अपसरक  : वि० [सं० अपसारक] १. भाग जानेवाला। २. जो अपना उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य, पद आदि छोड़कर भाग गया हो। (डिजर्टर)
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अपसरण  : पुं० [सं० अप√सृ (गति+ल्युट्—अन] १. दूर होना। हटना। २. अपने केंद्र अथवा ठीक मार्ग से हटकर दूर जाना या इधर-उधर होना। ३. अपने प्रसम या मानक से हटकर आगे-पीछे या इधर-उधर होना। ४. उचित स्थिति से भिन्न या विपरीत होना। (डाइवर्जेन्स, उक्त सभी अर्थों के लिए) ५. उत्तरदायित्व, कार्य, पद आदि छोड़कर अलग होना या भाग जाना। (डिजर्शन) ६. तरल पदार्थ का गाढ़ापन या घनत्व कम होना। ७ उक्त प्रकारों से दूर होने या हटने का मार्ग।
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अपसर्जक  : वि० [सं० अप√सृज् (सिरजना)+ण्वुल्—अक] अपसर्जन करनेवाला।
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अपसर्जन  : पुं० [सं० अप√सृज्+ल्युट्—अन] १. छोड़ना। त्याग। मोक्ष। ३. अपने आश्रित (कार्य, पद, व्यक्ति आदि) को इस प्रकार छोड़ देना कि फिर उसकी चिंता न रहे। (एबैन्डनिंग)
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अपसर्प  : पुं० [सं० अप√सृप् (गति)+अच्] गुप्तचर। जासूस।
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अपसर्पक  : पुं० [सं० अपसर्प+कन्] दे० ‘अपसर्प’।
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अपसर्पण  : पुं० [सं० अप√सृप्+ल्युट्—अन] १. पीछे हटना या खिसकना। २. पलायन। भागना। ३. गुप्तचर का काम। जासूसी।
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अपसर्पित  : वि० [सं० अप√सृप्+क्त] पीछे की ओर हटा हुआ।
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अपसवना  : अ० [सं० अपस्रवण] खिसक, भाग या हट जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसव्य ग्रहण  : पुं० [कर्म० स०] ग्रहण का वह प्रकार जिसमें राहु अथवा सूर्य दाहिनी ओर से आकर छाया डालता है। दाहिनी ओर से लगनेवाला ग्रहण।
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अपसव्य तीर्थ  : पुं० [कर्म० स०] =पितृ तीर्थ।
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अपसव्य परिक्रमा  : स्त्री [कर्म० स०] देवता आदि की परिक्रमा का वह प्रकार जिसमें देवता को दाहिनी ओर रखकर उसके चारों ओर घूमते हैं। दक्षिणावर्त्त परिक्रमा।
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अपसार  : पुं० [सं० अप्सार] १. पानी का छींटा। २. [सं० अप√सृ (गति)√घञ्] दूर हटने या निकल भागने की क्रिया।
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अपसारक  : वि० [अप√सृ+णिच्+ण्वुल्—अक] भगा ले जानेवाला।
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अपसारण  : पुं० [सं० अप√सृ+णिच्+ण्वुल्—अक] १. दूर करना। २. अंदर से निकालकर बाहर करना या दूर हटाना। (इंजेक्शन) ३. किसी पद या स्थान से निकाल देना। (एक्सपल्शन) ४. देश निकाला।
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अपसारित  : वि० [सं० अप√णिच्+क्त] १. दूर हटाया हुआ। २. भगाया हुआ।
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अपसारी (रिन्)  : वि० [सं० अप√सृ+णिच्+णिनि] अपसारण करने-(दूर करने या हटाने) वाला।
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अपसिद्धांत  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह विचार जो निश्चित सिद्धांत के विरुद्ध हो, अयुक्त सिद्धांत। २. न्याय में वह निग्रह स्थान जहाँ पहले कोई सिद्धांत मान कर फिर उसके विरुद्ध कुछ कहा जाय।
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अपसृत  : वि० [स० अप√सृ+क्त] १. जो अपना अधिकार, उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य अथवा पद छोड़ कर चला गया हो। २. जिसे बलपूर्वक किसी पद या स्थान से हटा दिया गया हो। (एक्सपैल्ड) ३. जिसे किसी ने छोड़ दिया हो। परित्यक्त। (डिजर्टेड)
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अपसृति  : स्त्री० [सं० अप√सृ+क्तिन्] दे० ‘अपसरण’।
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अपसोस  : पुं० [फा० अफसोस] १. चिंता। २. दुःख। ३. पश्चात्ताप। पछतावा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसोसना  : अ० [हिं० अपसोस] १. अफसोस करना। पछताना। २. चिंतित और दुःखी होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसौन  : पुं० [सं० अपसगुन] असगुन। बुरा सगुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसौना  : अं० [?] १. कहीं जाना या पहुँचना। २. प्राप्त होना। मिलना। उदा०—जीव काढ़ि लै तुम अपसई। वह भा क्या जीव तुम भई।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपस्कर  : पुं० [सं० अप√कृ (करना) +अप्, नि० सुट्] १. गाड़ी का कोई हिस्सा। जैसे—पहिया, धुरी, जुआ आदि। २. विष्ठा। ३. योनि। ४. गुदा।
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अपस्कार  : पुं० [सं० अप√कृ+घञ्, नि० सुट्] घुटनों के नीचे का भाग।
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अपस्तंब  : पुं० [सं० अप√स्था (ठहरना)+अम्ब, पृषी० सिद्धि] छाती के पास की वह नस जिसमें प्राण-वायु का निवास माना गया है।
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अपस्तंभ  : पुं० [सं० अप√स्तम्भ् (रोकना)+अच्] दे० ‘अपस्तंब’।
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अपस्तुति  : स्त्री० [सं० प्रा० सं० ] १. निंदा। २. शिकायत।
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अपस्नात  : वि० [सं० अप√स्ना (स्नान करना)+क्त] जिसने अपस्नान किया हो।
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अपस्नान  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह स्नान जो कुटुंबी या संबंधी के मरने पर उदक क्रिया के समय किया जाता है।
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अपस्पर्श  : वि० [सं० अत्या० स०] स्पर्श की अनुभूति न करनेवाला अर्थात् संज्ञा-शून्य।
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अपस्फीति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=विस्फीति।
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अपस्मार  : पुं० [अप√स्मृ (स्मरण करना)+णिच्+अच्] १. एक रोग जिसमें रोगी का कलेजा धड़कता है और वह बेहोश होकर गिर पड़ता है। मिरगी। (एपाप्लेकसी) २. साहित्य में प्रेमी या प्रेमिका की वह अवस्था जिसमें विरह का बहुत कष्ट सहने के कारण वह मिरगी के रोगियों की तरह काँपकर या मूर्छित होकर गिर पड़े। (इसकी गणना संचारी भावों में है)।
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अपस्मारी (रिन्)  : वि० [सं० अपस्मार+इनि] जो अपस्मार रोग से पीड़ित हो।
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अपस्मृति  : वि० [सं० ब० स०] १. क्षीण स्मृतिवाला। भुलक्कड़। २. घबराया हुआ।
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अपस्वर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित, बुरा, बेसुरा या गलत स्वर। (संगीत) २. तीव्र अथवा कर्णकटु स्वर। उदा०—आओ मेरे स्वर में गाओ जीवन के कर्कश अपस्वर।—पंत।
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अपस्वार्थी  : वि० [हिं० अप अपना+सं० स्वार्थी] स्वार्थी। मतलबी। वि० [सं० अप—स्वार्थ, प्रा० स०,+इनि] निकृष्ट स्वार्थवाला।
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अपह  : वि० [सं० अप√हन् (मारना)+ड] नाश करनेवाला। नाशक।
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अपहत  : वि० [सं० अप√हन्+क्त] १. नष्ट किया हुआ। मारा हुआ। २. दूर किया या हटाया हुआ।
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अपहरण  : पुं० [सं० अप√हृ (हरण करना)+ल्युट् अन] १. किसी की कोई चीज बलपूर्वक छीनकर ले जाना। २. रुपये वसूल करने या कोई स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को बल-पूर्वक कहीं से उठा ले जाना। (किडनैपिंग) ३. छिपाव। दुराव। ४. चुंगी, महसूल आदि बचाने के लिए छिपाकर माल ले जाना। (कौ०)
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अपहरणीय  : वि० [सं० अप√हृ+अनीयर] १. (वस्तु या व्यक्ति) जिसका अपहरण किया जा सकता हो अथवा जिसका अपहरण होने को हो। २. गोपनीय।
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अपहरना  : स० [सं० अपहरण] १. अपहरण करना। छीनना। २. लूटना। ३.चुराना। ४.कम करना। घटाना। ५.दूर या नष्ट करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपहर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० अप√ह्र+तृच्] अपहरण करने या छीनने या हर लेनेवाला। २. लूटनेवाला। ३. छिपानेवाला।
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अपहसित  : वि० [सं० अप√हस् (हँसना)+क्त] १. अकारण हँसनेवाला। २. जिसका अपहास या उपहास हुआ हो।
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अपहस्त  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. दूर फेंकना। २. हटाना। ३.लूटना। ४.अर्द्धचंद्र।
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अपहस्तित  : वि० [सं० अपहस्त+णिच् क्त] १. गर्दन में हाथ देकर निकाला हुआ। अर्द्धचंद्रित। २. फेंका हुआ। ३.परित्यक्त।
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अपहान  : पुं० [सं० अप√हा (त्याग)+क्त] १. परित्याग। २. कम होना। ३.गायब होना।
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अपहानि  : स्त्री० [अप√हा+क्तिन्] दे० ‘अपहान’।
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अपहार  : पुं० [सं० अप√हृ (हरण करना)+घञ्] [कर्ता अपहारक, भू० कृ० अपहृत] १. दूसरे की चीज छीनना। अपहरण करना। २. विधिक क्षेत्र में धोखे या बेईमानी से किसी के धन या संपत्ति पर अधिकार करना और उसे भोगना। (एम्बेजल्मेंट) ३.छिपाव। दुराव।
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अपहारक  : वि० [सं० अप√हृ+ण्वुल्-अक] अपहरण करने, छीनने या लूटनेवाला। पुं० १. चोर। २. डाकू। ३. लुटेरा।
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अपहारित  : भू० कृ० [सं० अप√हृ+णिच् क्त]=अपहृत।
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अपहारी (रिन्)  : पुं० [सं० अप√हृ+णिनि] १. अपहरण करने या छीननेवाला। २. नाश करनेवाला।
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अपहार्य  : वि० [सं० अप√ह्र+ण्यत्] १. (पदार्थ) जिसका अपहरण हो सके। जो छीना या लूटा जा सके। २. (व्यक्ति) जिसकी चीज छीनी या लूटी जा सके।
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अपहास  : पुं० [अप√हस् (हँसना)+घञ्] १. अनुचित रूप से या अनुपयुक्त समय पर होने वाला हास्य। २. अनुचित या बुरी हँसी। उपहास।
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अपहृत  : भू० कृ० [अप√हृ+क्त] १. (पदार्थ) जो छीना अथवा जिस पर जबरदस्ती अधिकार किया गया हो। २. (व्यक्ति) जिसकी चीज छीनी या लूटी गई हो।
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अपहेला  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. तिरस्कार। २. डाँट-फटकार। ३. घुड़की और झिड़की।
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अपह्रव  : पुं० [सं० अप√ह्र (हटाना)+अप] १. कोई बात किसी से छिपाना। २. सच बात छिपाना। ३. टाल-मटोल। बहाना। ४. तृप्त या संतुष्ट करना। ५. प्रेम। ६. दे० ‘अपह्रति’।
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अपह्रुति  : स्त्री० [सं० अप√ह्र+क्तिन्] १. दुराव। छिपाव। २. टाल-मटोल। बहानेबाजी। ३.एक काव्यालंकार जिसमें उपमेय का निषेध करके उपमान का स्थापन किया जाए। (कन्सीलमेंट) जैसे—(क) यह मुख नहीं चंद्रमा ही है। (ख) इन्हें मनुष्य मत समझो यह साक्षात् देवता ही हैं। इसके हेत्वापह्रति, कैतवापह्रति, परिहासापह्रुति, छेकापह्रति, भ्रांतापह्रुति, पर्यस्तापह्रति आदि अनेक भेद हैं।
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अपा  : स्त्री० [हिं० आपा] अभिमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपाइ  : स्त्री० [हिं० अपाय] १. अनरीति। २. अत्याचार। उदाहरण—तजि कै अपाइ तीर बसैं सुख पाइ गंगा।—सेनापति।
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अपाउ  : पुं० -अपाय। उदाहरण—जोगवत अनट अपाउ।—तुलसी। वि० [हिं० अ+पाँव] बिना पैर का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपाक  : वि० [सं० न० ब०] जो अभी अच्छी तरह या पूरा पका न हो। अपक्व। कच्चा। पुं० [न० त०] १. कच्चे होने की अवस्था या भाव। कच्चापन। २. अजीर्ण रोग। वि० नापाक।
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अपाकरण  : पुं० [सं० अप-आ√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. दूर करना। २. हटाना। ३.ऋण, देन आदि चुकाना। (लिक्विडेशन आँफ डेट)
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अपाकर्म (न्)  : पुं० [सं० अप-आ√कृ (करना)+मनिन्] १. ऋण आदि का परिशोधन। अदायगी। २. वह कार्य जिसमें किसी व्यापारिक संस्था का देना-पावना चुकाकर उसका सारा व्यापार अधिकार में ले लिया जाता है या बंद किया जाता है। (लिक्विडेशन आँफ कम्पनी)
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अपाकृति  : स्त्री० [अप-आ√कृ+क्तिन्]—अपाकरण।
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अपांक्त  : वि० [सं० न० त०] (व्यक्ति) जो बिरादरी या समाज की पंक्ति में बैठकर सबके साथ खानपान का अधिकारी न हो। जातिबहिष्कृत।
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अपांग  : पुं० [सं० अप√अंग्(गति)+घञ्] १. आँख का कोना। २. चिरछी नजर। कटाक्ष। ३.संप्रदायसूचक तिलक। ४. कामदेव। ५. अपामार्ग। वि० [सं० अप-अंग,ब० स०] १. शरीर रहित। अशरीरी। २. जिसे कोई अंग न हो। अथवा टूटा-फूटा या बेकाम हो। ३. अपाहिज। पंगु।
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अपाची  : स्त्री० [सं० अप√अञ्च् (गति)+क्विप्-ङीष्] [वि० अपाचीन, अपाच्य] दक्षिण या पश्चिम की दिशा।
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अपाच्य  : वि० [सं० अफ्च् (पकाना)+ण्यत् न० त०] १. जो पकाया न जा सके। २. जो पचता न हो अथवा जो पच न सके। ३. [अपाची+यत्] दक्षिणी या पश्चिमी दिशा का।
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अपाटव  : पुं० [सं० न० त०] १. पटुता न होने का भाव। फूहड़पन। अनाड़ीपन। २. भद्दापन। ३. कुरूपता। ४. बीमारी। रोग। ५. मद्य। शराब। वि० [न० ब०] १. अपुट। अनाड़ी। २. मंद। सुस्त। ३. कुरूप। भद्दा। ४. रोग-ग्रस्त। बीमार।
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अपाठय  : वि० [सं० न० त०] १. जो पढ़ने योग्य न हो। २. जो पढ़ा न जा सके।
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अपात्र  : वि० [सं० न० त०] जो ठीक या उपयुक्त पात्र अथवा अधिकारी न हो। पुं० अनुपयुक्त या बुरा पात्र।
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अपात्रीकरण  : पुं० [सं० अपात्र+च्वि√कृ+ल्युट्-अन] १. अशोभनीय कार्य करना। २. वह कर्म जिसे करने से ब्राह्मण अपात्र हो जाता है।
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अपादक  : वि० [सं० न० ब० कप्] जिसमें या जिसे पद न हों। पद—हीन।
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अपादान  : पुं० [सं० अप-आ√दा+ल्युट्-अन] १. किसी चीज में से कुछ निकालना, लेना या हटाना। २. अलग करना। ३. वह चीज जिसमें से कोई दूसरी चीज निकाली या हटाई जाए। ४. व्याकरण में, वह कारक। विशेष—दे० ‘अपादान कारक’।
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अपादान कारक  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में, छः कारकों मे से पाँचवाँ कारक जो वाक्य में उस स्थिति का सूचक होता है, जिससे किसी वस्तु या वास्तविक या कल्पित विश्लेष होता अथवा किसी क्रिया के आरंभ होने का अधिष्ठान या आधार सूचित होता है। इसका चिन्ह ‘से’ विभक्ति है (एब्लेटिव केस) जैसे—‘घर से चलना’ में ‘घर’ अपादान कारक में है।
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अपान  : पुं० [सं० अप-आ√नी (ले जाना)+ड] १. पाँच प्राणों में से एक जिसकी गति नीचे की ओर होती है। २. गुदा के ऊपरी भाग में स्थित वह वायु जो मल-मूत्र बाहर निकालती है। ३. गुदा-मार्ग से बाहर निकलने वाली वायु। पाद। गुदा। वि० दुःख दूर करनेवाला। पुं० ईश्वर। पुं० [हिं० अपना] १. अपनापन। आत्मभाव। २. आत्म-ज्ञान। सुधि। उदाहरण—जनक समान अपान बिसारे।—तुलसी। ३. आत्म-गौरव। सर्व०=अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपान-द्वार  : पुं० [ष० त०] गुदा।
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अपान-वायु  : पुं० [ष० त०] गुदा में से निकलने वाली वायु जो शरीर की पाँच वायुओं मे से एक कही गई है। पाद।
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अपानन  : पुं० [सं० अप्√अन् (साँस लेना)+ल्युट्-अन] १. प्राण-वायु को अंदर ले जाना। साँस खीचना। २. मल-मूत्र आदि का त्याग। वि० [सं० अप+आनन, ब० स०] जिसका आनन या मुँह न हो। मुख-रहित।
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अपाना  : सर्व०=अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपांनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण। ३. विष्णु।
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अपांनिधि  : पुं० [सं० ष० त०] अपांनाथ।
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अपानृत  : वि० [सं० अप-अनृत, ब० स०] अनृत या मिथ्या से भिन्न, अर्थात् सत्य।
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अपाप  : वि० [न० ब०] [स्त्री० अपापा] निष्पाप। पाप-रहित। पुं० [सं० न० त०] वह जो पाप न हो अर्थात् पुण्य।
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अपांपति  : पुं० [सं० ष० त०] अपांनाथ।
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अपामार्ग  : पुं० [सं० अप√मृज् (शुद्धि)+घञ्] चिचड़ा। लटजीरा।
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अपामार्जन  : पुं० [सं० अप-आ√मृज्+णिच्+ल्युट्-अन] १. सफाई। शुद्धि। २. दूर करना। (रोग आदि)।
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अपामृत्यु  : स्त्री०=अपमृत्यु।
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अपाय  : पुं० [सं० अप√इ(गति)+अच्] १. दूर या पीछे हटना। अपगमन। २. अलगाव। पार्थक्य। ३. नाश। ४. नीति विरुद्ध आचरण। ५. किसी के प्रति किया जाने वाला अनुचित या हानिकारक कार्य। ६. उत्पात। उपद्रव। ७. अंत। ८. लोप। ९. विपत्ति या भय की आशंका। वि० [सं० अ०=नहीं+पाद, प्रा० पाय=पैर] बिना पैर का। लँगड़ा। वि० [सं० अनुप्राय] जिसके पास कोई उपाय न रह गया हो। निरुपाय।
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अपायी (यिन्)  : वि० [सं० अप√इ+णिनि] [स्त्री० अपायिनी] १. नष्ट होनेवाला। नस्वर। २. अस्थिर। अनित्य। ३. अलग रहने या होनेवाला। ४. हानिकारक।
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अपार  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका पार न हो। सीमा-रहित। अनंत। २. बहुत अधिक। ३. उग्र। तीव्र। प्रचंड। पुं० १. समुद्र। सागर। २. नदी का सामनेवाला किनारा। ३. असहमति। ४. सांख्य के अनुसार वह तुष्टि जो अपमान, परिश्रम आदि से बचने पर होती है।
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अपारग  : वि० [सं० न० त०] १. जो पार जानेवाला न हो। २. अयोग्य। ३. असमर्थ।
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अपारदर्शक  : वि०=अपार-दर्शी।
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अपारदर्शिता  : स्त्री० [सं० अपरदर्शिन्+तल्-टाप्] अपारदर्शी होने की अवस्था, गुण या भाव। (ओपैसिटी)
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अपारदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० न० त०] जो पारदर्शी न हो। जिसके उस पार की चीज दिखाई न दे। (ओपेक)
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अपारा  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] धरती या पृथ्वी, जिसका कहीं पार नहीं है।
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अपार्थ  : वि० [सं० अप-अर्थ, ब० स०] १. अर्थ से रहित या हीन, फलतः निरर्थक। व्यर्थ। २. अनुचित, अशुद्ध या दूषित अर्थवाला। ३. जिसका कोई उद्देश्य फल या प्रभाव न हो। निष्फल। ४. विनष्ट। पुं० साहित्य में, पद या वाक्य का अर्थ स्पष्ट न होने का दोष।
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अपार्थक  : पुं० [सं० अपार्थ+कन्] न्याय में एक निग्रह स्थान जो ऐसे वाक्यों के प्रयोग से होता है जिनमें पूर्वापर का विचार या संबंध न हो। वि० =अपार्थ।
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अपाल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई पालक अथवा रक्षक न हो। २. जिसकी रक्षा न की गई हो। अरक्षित। ३. जो सुरक्षित न हो। असुरक्षित।
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अपालंक  : पुं० [सं० ] पालक नाम का साग।
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अपाव  : पुं० [सं० अपाय=नाश] १. अन्याय। २. उत्पात। उपद्रव। ३. खराबी। बुराई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपांवत्स  : पुं० [सं० ष० त०] चित्रा नक्षत्र से पाँच अंश उत्तर का एक तारा।
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अपावन  : वि० [सं० न० त०] जो पावन या पवित्र न हो। अपवित्र।
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अपावरण  : पुं० [सं० अप-आ√व्(ढँकना)+ल्युट्-अन] १. आवरण हटाना। २. फिर से प्रकाश में या सामने लाना।
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अपावर्तन  : पुं० [सं० अप-आ√वृत् (बरतना)+ल्युट्-अन] १. पीछे की ओर आना या हटना। २. कथन, वचन आदि का पालन न करना या उसके पालन से पीछे हटना। (रिट्रीट) ३. लौटना। वापस आना। ४. भागना। ५. चक्कर लगाना। घूमना।
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अपावृत  : वि० [सं० अप-आ√वृ (आच्छादन)+क्त] १. जिस पर से आवरण हटा दिया गया हो। २. जो फिर से प्रकाश में लाया गया हो। ३. जो नियंत्रण में न हो। अनियंत्रित।
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अपावृति  : स्त्री० [सं० अप-आ√वृ+क्तिन्] १. अपावर्तन। २. छिपने का स्थान।
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अपावृत्त  : भू० कृ० [सं० अप-आ√वृत् (बरतना)+क्त] १. लौटाया या पीछे हटाया हुआ। २. तिरस्कार पूर्वक अस्वीकृत किया हुआ।
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अपांशुला  : वि० ,स्त्री० [सं० पाशु+लच्-टाप्+न० त०] पतिव्रता।
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अपाश्रय  : वि० [सं० अप-आ√श्रि (सेवा)+अच्] जिसे कोई आश्रय या सहारा न हो। निराश्रय। पुं० १. आँगन के बीच का मंडप। २. शामियाना। ३. बिस्तर या पलंग का सिरहाना। ४. वह जिसका आश्रय लिया जाए।
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अपाश्रित  : वि० [सं० अप-आ√श्रि(सेवा)+क्त] १. जो एक ही आश्रय या स्थान में रहकर समय बिताता हो। एकांत-सेवी। २. संसार-त्यागी। विरक्त।
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अपासरण  : पुं० [सं० अप-आ√सृ(गति)+ल्युट्-अन] १. दूर हटने या हटाने की क्रिया या भाव। २. भागना।
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अपाहज  : वि० [सं० अपाथेय=जो चल न सके, प्रा० अपाहेज्य] १. अंगहीन। २. लूला-लँगड़ा। ३. काम करने के अयोग्य। ४. आलसी।
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अपाहिज  : वि०=अपाहज।
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अपि  : अव्य० [सं०√पि(जाना)+क्विप्, न० त०] १. भी। २. ही। ३. निश्चित रूप से। अवश्य।
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अपिच  : अव्य० [द्व० स०] १. और भी। पुनश्च। २. बल्कि। वरन्।
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अपिंडी (डिन्)  : वि० [सं० पिण्ड+इनि, न० त०] पिंड-रहित। बिना शरीर का।
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अपितु  : अव्य० [द्व० स०] १. किंतु। लेकिन। २. बल्कि। ३. तो भी। तथापि।
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अपितृक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसका पिता न हो। २. दे० अपैतृक।
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अपिधान  : पुं० [सं० अपि√धा (धारण)+ल्युट्-अन] १. ढकनेवाली चीज। ढक्कन। २. ढकने की क्रिया या भाव।
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अपिहित  : भू० कृ० [सं० अपि√धा+क्त] [स्त्री० अपिहिता] आच्छादित। आवृत्त। ढका हुआ।
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अपीच  : वि० [सं० अपीच्य] १. सुन्दर। मनोहर। २. अच्छा। बढिया। उदाहरण—फहर गई धौं कबे रंग के फुहारन में, कैधों तराबोर भई अतर-अपीच मैं।—पद्माकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपीच्य  : वि० [सं० अपि√च्यु (गति)+ड,दीर्घ] १. अति सुन्दर। २. गुप्त। ३. छिपा हुआ।
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अपीत  : वि० [सं० न० त०] १. जो पीले वर्ण का न हो। २. (पदार्थ) जो पिया न गया हो। ३.(व्यक्ति) जिसने पिया न हो।
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अपीति  : स्त्री० [सं० अपि√इ (गति)+क्तिन्] १. प्रवेश करना या पहुँचना। २. मृत्यु। ३. प्रलय।
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अपीनस  : पुं०=पीनस (रोग)।
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अपील  : स्त्री० [अ०] १. विचार, स्वीकृति, न्याय या सहायता के लिए विनय-पूर्वक किसी से की जानेवाली प्रार्थना या निवेदन। २. छोटे न्यायालय का निर्णय बदलवाने अथवा उसपर फिर से विचार करने के लिए उससे बड़े न्यायालय के सामने उपस्थित किया जानेवाला आवेदन या प्रार्थना।
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अपीली  : वि० [सं० अपील] अपील संबंधी। जैसे—अपीली काररवाई।
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अपीव  : वि०=अपेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपीह  : अव्य० [सं० अपि+इह] यह भी।
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अपु  : अव्य० [हिं० अपना<सं० आत्मनः] १. आप। स्वयं। २. आपस में। उदाहरण—रचि महाभारत कहूँ लरावत अपु में मैया-भैया।—सत्यनारायण। पुं० -दे० ‘आपस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुट्ठना  : अ० [सं० आपृष्ठ] पीछे लौटना। वापस आना।
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अपुण्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुण्य या पवित्र न हो। अपवित्र। २. बुरा। पुं० १. पुण्य का अभाव या विरोधी भाव। २. पाप।
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अपुत्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे पुत्र न हो। निःसंतान। २. =कुपुत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुत्रक  : वि० [न० ब० कप्] [स्त्री० अपुत्री]=अपुत्र।
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अपुत्रिक  : पुं० [सं० न० ब०कप्, ह्रस्व ?] वह व्यक्ति जिसे पुत्र न हो, केवल ऐसी पुत्री हो जिसको लड़का न हो। विशेष—धर्म-शास्त्र के अनुसार ऐसी लड़की इसी लिए पुत्र के स्थान पर ग्रहण नहीं की जा सकती है। (दे० ‘पुत्रिका’)
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अपुत्रिका  : स्त्री० [सं० न० ब०कप्-टाप्, इत्व] अपुत्रक पिता की ऐसी पुत्री जिसके आगे लड़का न हो और इसी लिए जो पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारिणी न हो सकती हो।
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अपुनपौ  : पुं०=अपनपौ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुब्ब  : वि०=अपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुराण  : वि० [सं० न० त०] जो पुराना न हो। फलतः आधुनिक या नया।
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अपुरुष  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुरुष न हो। २. (कार्य या बात) जो मानव धर्म के अनुरूप या उपयुक्त न हो। ३. अमानुषिक।
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अपुवै  : अव्य० [हिं० अपु+वै (प्रत्यय)] १. आप ही। स्वयं। २. आप ही आप। स्वतः।
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अपुष्कल  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुष्कल या बहुत न हो। छोड़ा। २. श्रेष्ठ न हो। ३. नीचा। निम्न।
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अपुष्ट  : वि० [न० त०] १. जो पुष्ट न हो। २. जिसका पालन-पोषण अच्छी तरह से न हुआ हो। ३. मंद। (स्वर)। ४. (कथन या तथ्य) जिसकी पुष्टि न हुई हो।
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अपुष्पफल  : वि० [सं० अपुष्य, न० ब०अपुष्प-फल,ब० स०] (वृक्ष) जो बिना फूले ही फल देता हो। जैसे—कटहल, गूलर आदि। पुं० उक्त प्रकार का वृक्ष या उसका फल।
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अपूजा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. आदर, भक्ति, श्रद्धा आदि का अभाव। २. अनादर या अपमान करने की क्रिया या भाव।
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अपूठना  : स० [सं० आपोथन] १. नष्ट या बरबाद करना। २. चीरना-फाड़ना। ३. उलटना-पलटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूठा  : वि० [सं० अपुष्ट, प्रा० अपुठ] १. जो पुष्ट या प्रौढ़ न हो। कच्चा। २. जिसे ठीक और पूरा ज्ञान न हो। ३. जो पूर्णता तक न पहुँचा हो। ४. जिसमें अभी कुछ काम करना बाकी हो। अधूरा। जैसे—रावन हति लै चलौ साथ ही लंका धरौं अपूठी।—सूर। ५. अदभुत। विलक्षण। ६. उलटा। विपरीत। क्रि० वि० [सं० आ+पृष्ठ] पीछे की ओर। उलटी दिशा में। उदाहरण—सजि अपूठा बाहुड़उ मालवणी मुई।—ढोला मारू। वि० [सं० अस्फुट] १. जो विकसित न हुआ हो। २. जो खिला न हो।
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अपूत  : वि० [सं० न० त०] १. जो पूत या पवित्र न हो। अपवित्र। २. जो परिष्कृत या स्वच्छ न हो, फलतः गंदा या मैला। वि० [हिं० अ+पूत=पुत्र] जिसे पुत्र या बेटा न हो। निस्संतान। पुं० दे० ‘कपूत’।
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अपूता  : वि० [सं० अपुत्रक] जिसे कोई लड़का-लड़की न हो। निस्संतान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूप  : पुं० [सं० √पू (फटकना)+प०न० त०] १. गेहूँ। २. पूआ या मालपूआ (पकवान)। ३. शहद का छत्ता।
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अपूब्ब  : वि० =अपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूर  : वि० [सं० आपूर्ण] १. अच्छी तरह से भरा हुआ। भर-पूर। २. पूर्ण। पूरा। ३. बहुत अधिक। वि०=अपूर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूरना  : स० [सं० आपूर्णन] १. पूर्ण करना। भरना। २. (फूँक कर बजाया जानेवाला बाजा) फूँकना। बजाना। जैसे—शंख अपूरना।
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अपूरब  : वि०=अपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूरा  : वि० [सं० आ+पूर्ण] [स्त्री० अपूरी] १. भरा हुआ। २. फैला हुआ। व्याप्त। वि० १. अपूर्ण। २. अधूरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूर्ण  : वि० [सं० न० त०] १. जो पूर्ण या भरा हुआ न हो। खाली। रिक्त। २. जिसमें किसी प्रकार की कमी, त्रुटि या दोष न हो। (इम्परफेक्ट) ३. (कार्य या वस्तु) जो अभी पूर्ण या समाप्त न हुई हो। जिसका कुछ अंश या भाग अभी पूरा होने को हो। अधूरा। (इन्कम्प्लीट) ४. जिसमें किसी बात की अपेक्षा हो। ५. अयथेष्ट।
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अपूर्णता  : स्त्री० [सं० अपूर्ण+तल्-टाप्] अपूर्ण होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अपूर्णभूत  : पुं० [सं० न० त०] क्रिया का वह भूतकालिक रूप जिसमें क्रिया की समाप्ति न सूचित होती हो। जैसे—वह खाता था। (व्या०)
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अपूर्व  : वि० [सं० न० त०] १. जैसा कभी पहले न रहा हो या न हुआ हो। २. बिलकुल नये ढंग का। नवीन। ३. अद्वितीय। अनुपम। ४. अद्भुत। विलक्षण। पुं० ऐसी चीज जिसकी सत्ता अनुमान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध न हो।
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अपूर्व-रूप  : पुं० [सं० न० ब०] एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें पूर्व गुण की प्राप्ति न होने का उल्लेख होता है। (पूर्वरूप नामक अलंकार का विपरीत रूप)
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अपूर्व-वाद  : पुं० [मध्य० स०] ब्रह्म अथवा तत्त्व ज्ञान के संबंध में होनेवाला वाद-विवाद। तर्क-वितर्क।
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अपूर्व-विधि  : स्त्री० [सं० स० त०] ऐसी वस्तु या स्थिति प्राप्त करने का आशा-मूलक विधान जिसकी सत्ता अनुमान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध न हो सके। जैसे—मोक्ष या स्वर्ग की प्राप्ति के लिए आराधना या यज्ञ करना चाहिए।
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अपूर्वता  : स्त्री० [सं० अपूर्व+तल्-टाप्] अपूर्व होने की अवस्था गुण या भाव।
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अपृक्त  : वि० [सं०√पृच्(संपर्क)+क्त, न० त०] १. जिसका किसी से संबंध या सम्पर्क न हो। असंबद्ध। २. जिसमें कोई मिलावट न हो। खालिस। विशुद्ध। पुं० पाणिनी के अनुसार एक अक्षरवाला प्रत्यय।
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अपेक्षक  : वि० [सं० अप√ईक्ष्(देखना)+ण्वुल्-अक] १. अपेक्षण करने या देखनेवाला। २. किसी की अपेक्षा करने या रखनेवाला।
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अपेक्षण  : पुं० [सं० अपि√ईक्ष्+ल्युट्-अन] १. चारों ओर देखना। २. किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए कुछ आकांक्षा करना। चाहना। ३. आसरा देखना। प्रतीक्षा करना। ४. पालन-पोषण रक्षा आदि करना। ५. दे० ‘अपेक्षा’।
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अपेक्षणीय  : वि० [सं० अप√ईक्ष्+अनीयर] जिसकी अपेक्षा की जा सके या करना आवश्यक हो। चाहा हुआ। वांछनीय।
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अपेक्षया  : क्रि० वि० [सं० तृ०विभक्ति का रूप] किसी की अपेक्षा या तुलना में। अपेक्षाकृत।
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अपेक्षा  : स्त्री० [सं० अप√ईक्ष्+अ-टाप्] [वि० आपेक्षिक] १. इधर-उधर या चारों ओर देखना। २. कुछ पाने के लिए उस पर दृष्टि रखना। ३. अस्तित्व, क्रम, विकास, स्थिति आदि के विचार से बातों या वस्तुओं में रहने वाला आवश्यक या स्वाभाविक संबंध। जैसे—ऐसी थोथी बात तो वहीं मानेगा जिसमें अपेक्षा बुद्धि न होगी। ४. किसी कमी की बात की सूचक ऐसी स्थिति जिसमें उस बात के हुए बिना पूर्णता न आती हो। (रिक्वायरमेंट) जैसे—(क) इस संसार में आने के लिए जीव को भौतिक शरीर की अपेक्षा होती है। (ख) अभी इस पुस्तक में थोड़े विशद विवेचन और कुछ उदाहरणों की अपेक्षा है। ५. आवश्यकता। जरूरत। ६. आसरा। प्रतीक्षा। जैसे—वहाँ कुछ लोग आप की अपेक्षा में खड़े है। ७. दे० ‘अपेक्षण’।
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अपेक्षा-बुद्धि  : स्त्री० [मध्य० स०] कार्य-कारण का संबंध, पारस्परिक घटना-क्रम आदि ठीक तरह से समझने की मानसिक शक्ति।
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अपेक्षाकृत  : क्रि० वि० [तृ०त०] (किसी की) तुलना या मुकाबले में। अपेक्षा का ध्यान रखते हुए। अपेक्षया।
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अपेक्षित  : वि० [सं० अप√ईक्ष्+क्त] जिसकी अपेक्षा (आकांक्षा या आवश्यकता) हो।
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अपेक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० अपेक्षा+इनि] किसी की अपेक्षा करने या रखनेवाला। जिसे किसी की अपेक्षा हो।
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अपेक्ष्य  : वि० [सं० अप√ईक्ष्+ण्यत्]=अपेक्षणीय।
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अपेख  : स्त्री० [सं० अपेक्षा] १. आवश्यकता। अपेक्षा। २. आकांक्षा। चाह। उदाहरण—स्याम-सुंदर संग मिलि खेलन को आवत हिये अपेखैं।—कुंभनदास। वि० [हिं० अ+पेखना=देखना] जो देखा न गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपेच्छा  : स्त्री०=अपेक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपेत  : वि० [सं० अप√इ(गति)+क्त] १. दूर गया या हटा हुआ। २. भागा हुआ। ३. ठगा हुआ। वंचित। ४. खुला हुआ। मुक्त।
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अपेय  : वि० [सं० न० त०] १. (तरल पदार्थ) जो पेय या पिये जाने के योग्य न हो जिसे पीना उचित न हो। जैसे—भले आदमियों के लिए मदिरा अपेय है। २. जो पिया न जा सकता हो।
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अपेल  : वि० [हिं० अ-नहीं+पेलना=दबाना] १. जिसे टाल, ठेल या हटा न सके। २. जिसका खंडन या विरोध न किया जा सके। ३. अटल। सुनिश्चित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपैठ  : वि० [सं० अप्रविष्ट, पा० अपविट्ठ, प्रा० अपइट्ठ] १. (स्थान) जहाँ तक पहुँचा न जा सके। अगम्य। २. जिसकी पहुँच न हो सके।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपैतृक  : वि० [सं० न० त०] जो पैतृक न हो। जो पूर्वजों से प्राप्त न हुआ हो।
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अपोगंड  : वि० [सं० न० त०] १. जो पोगंड न हो, अर्थात् १६ वर्ष से अधिक अवस्थावाला। २. वयस्क। बालिग। ३. [अपस्-गंड० स० त०] लँगड़ा। लुंजा। ४. डरपोक।
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अपोड  : वि० [सं० अप√वह् (ढोना)+क्त] जो कहीं और ले जाया गया हो। उठाया या हटाया-बढ़ाया हुआ। वि० [सं० अ+हिं० पोढ़ा-प्रौढ़] जो प्रौढ़ या पुष्ट न हो।
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अपोह  : पुं० [सं० अप√ऊह् (गति आदि)+क] १. दूर करना। हटाना। २. कोई बात अच्छी तरह समझ-बूझकर अपना संदेह दूर करना। ३. तर्क-वितर्क समझने बूझने की शक्ति। ४. किसी तर्क या खंडन करने के लिए उसके विपरीत तर्क करना, जो बुद्धि का एक गुण माना गया है। ऊह का विपर्याय। ५. बौद्ध तर्क और दर्शन में जो कुछ अपना या अपने काम का हो, उसके अतिरिक्त अन्य सब चीजों या बातों का त्याग।
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अपौतिक  : वि० [सं० न० त०] (घाव या फोड़ा) जिसमें अभी विषाक्त कीटाणुओं के प्रवेश या सृष्टि न हुई हो। जिसमें सड़ाअँध न आई हो। पौतिक का विपर्याय। (ए-सेप्टिक)
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अपौरुष  : पुं० [सं० न० त०] १. पौरुष अर्थात् मनुष्यता या वीरता आदि का अभाव। २. ऐसा लोकोत्तर गुण या शक्ति जो साधारण मुनुष्यों में न होती हो। वि० [न० ब०] १. जो मनुष्यों का सा न हो। २. लोकोत्तर गुणों से युक्त।
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अपौरुषेय  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अपौरुषेयता] १. जो पौरुषेय या मनुष्य का बनाया हुआ न हो, बल्कि ईश्वर या देवताओं का बनाया हुआ हो। २. (कार्य) जो मनुष्य की शक्ति से बाहर हो।
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अप्प  : सर्व० [सं० आत्मन्] १. आत्म। अपना। २. आप। स्वयं। वि० =अल्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्पन  : सर्व० [सं० आत्मन्] अपना। सर्व० बहु० हम लोग। (महाराष्ट्र) पुं० -अर्पण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्पना  : स० [सं० अर्पण] १. अर्पण करना। २. देना। उदाहरण—कहे मुज्झ गुन तै भले मो अप्पो उपदेस।—चंदवरदाई। सर्व०=अपना।
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अप्यय  : पुं० [सं० अपि√इ+अच्] १. अपगमन। २. प्रस्थान। रवानगी। ३. नाश। ४. शरीर के अंगों का जोड़।
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अप्ययन  : पुं० [सं० अपि√इ+ल्युट्-अन] १. संभोग। २. दे० ‘अप्यय’।
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अप्रकट  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रकट या स्पष्ट न हो। २. छिपा हुआ। गुप्त।
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अप्रकंप  : वि० [सं० न० ब०] १. कंप-हीन। २. जिसे हिलाया न जा सके। स्थिर। ३. टिकाऊ। मजबूत। ४. जिसका उत्तर न दिया गया हो। ५. जिसका खंडन न किया गया हो।
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अप्रकर  : वि० [सं० प्र√कृ (करना)+अप्, न० त०] जो अच्छी तरह काम करना न जानता हो। अपुट।
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अप्रकारणिक  : वि० [सं० न० त०] जिसका प्रकरण या विषय से संबंद न हो। प्रकरण से भिन्न या विरुद्ध।
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अप्रकाश  : पुं० [सं० न० त०] प्रकाश का अभाव। अंधकार।
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अप्रकाशित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रकाश में न आया हो या न लाया गया हो। छिपा हुआ। गुप्त। २. जिसमें प्रकाश न हो। अँधेरा। अँधकारपूर्ण। ३. (पुस्तक या लेख) जिसका प्रकाशन न हुआ हो। जो छपकर (या और किसी प्रकार से) सबके सामने न आया हो।
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अप्रकाश्य  : वि० [सं० न० त०] जो प्रकाश में लाने या प्रकट करने के योग्य न हो अथवा जिसे किसी प्रकार प्रकाश में लाया न जा सकता हो।
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अप्रकृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रकृत या स्वाभाविक न हो। (अनुनैचुरल) २. जो ठीक या वास्तविक न हो। ३. गढ़ा या बनाया हुआ। ४. नकली। ५. आनुषंगिक या गौण। अप्रधान। ६. आकस्मिक। ७. दे० ‘अप्रसम’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्रकृति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रकृति का अभाव। २. सांख्य में वह जो कार्य-कारण से परे हो अर्थात् पुरुष (प्रकृति से भिन्न) ३. आत्मा। वि० [न० ब०] जो प्रकृति या स्वभाव से भिन्न या विपरीत हो।
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अप्रकृतिस्थ  : वि० [सं० प्रकृति√स्था (ठहरना)+क, न० त०] १. जो प्राकृतिक, प्रसम या सामान्य स्थिति में न हो। २. अस्वस्थ। ३. विकल। व्याकुल।
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अप्रकृष्ट  : वि० [सं० न० त०] नीच। बुरा। पं० काक। कौआ।
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अप्रकेत  : वि० [सं० न० ब०] १. अविवेकी। २. अव्यवस्थित। पुं० [सं० न० त०] १. प्रकेत या ज्ञान का विरोधी भाव। अज्ञान। अविवेक। २. बिगड़ा हुआ क्रम। अव्यवस्था।
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अप्रगल्भ  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रगल्भ न हो, फलतः विनीत और सहनशील। २. अपरिपक्व या अप्रौढ़। ३. उत्साह-हीन। ४. मंद। सुस्त।
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अप्रचलित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रचलित या चलनसार न हो। २. जो प्रयोग या व्यवहार में न आता या न होता हो। (अन-करेंट)।
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अप्रचारित  : वि० [सं० प्र√चर्(गति+क्त,न० त०] जिसका प्रचार न किया गया हो।
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अप्रच्छन्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रच्छन्न न हो। अनावृत। २. खुला हुआ। स्पष्ट।
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अप्रज  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे संतान न हो। २. बाँझ (स्त्री)। ३.जिसने जन्म न लिया हो। ४. (स्थान) जहाँ कोई निवास न करता हो। उजाड़।
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अप्रति  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी तुलना, बराबरी या मुकाबले का कोई न हो। २. जिसे रोका न जा सके।
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अप्रतिकर  : वि० [सं० न० ब०] १. विश्वास-पात्र। २. विश्रंभी।
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अप्रतिकार  : पुं० [सं० न० ब०] प्रतिकार का अभाव। वि० १. जिसका प्रतिकार या बदला न हो सके०। २. जिसका कोई प्रतिकार या उपाय न हो सके।
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अप्रतिकारी (रिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रतिकार न करे। बदला न लेनेवाला। २. किसी के विरुद्ध उपाय या प्रयत्न न करनेवाला।
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अप्रतिघ  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे रोका या पकड़ा न जा सके। २. जिसे जिता न जा सके।
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अप्रतिदेय  : वि० [सं० न० त०] (ऐसा ऋण या दान) जो सदा के लिए दे दिया गया हो और लौटाया जाने को न हो। जैसे—अप्रतिदेय ऋण (परमानेन्ट एडवांस)
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अप्रतिपत्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रकृत अर्थ समझने की योग्यता का अभाव। २. कर्तव्य-संबंधी निश्चय का अभाव।
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अप्रतिपन्न  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे अपने कर्तव्य का ज्ञान न हो। २. (बात या विषय) जो ज्ञात या निश्चित न हो।
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अप्रतिबद्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जिसपर किसी प्रकार का प्रतिबंध या रोक-टोक न हो। २. स्वच्छंद। ३. मन-माना।
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अप्रतिबंध  : वि० [सं० न० ब०] १. जिस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध या रोक न हो या न लगाई गई हो। प्रतिबंध-हीन। २. स्वतंत्र। ३. पूर्ण। परम। (एब्सोल्यूट) पुं० [न० त०] प्रतिबंध का अभाव।
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अप्रतिबल  : वि० [सं० न० ब०] बल या शक्ति के विचार से जिसकी बराबरी का दूसरा न हो अर्थात् बहुत प्रबल या बलवान्।
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अप्रतिभ  : वि० [सं० न-प्रतिभा० न० ब०] १. जिसमें प्रतिभा न हो, फलतः चेष्टा, बुद्धि, स्फूति आदि से रहित। २. जो लज्जित करनेवाली घटना या बात के कारण उदास या निरुत्तर हो गया हो। ३. विनम्र। ४. लज्जाशील।
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अप्रतिभा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रतिभा का अभाव। २. न्याय में एक निग्रह स्थान जिसमें किसी पक्ष या बात का खंडन नहीं किया जा सकता। ३. लज्जा। ४. कायरता।
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अप्रतिभाव्य  : वि० [सं० प्रअति√भू०(होना)+णिच्+यत्,न० त०] १. जो प्रतिभाव्य न हो। २. (अपराध) जिसमें जमानत न ली जा सकती हो। (नॉन-बेलेबुल)
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अप्रतिम  : वि० [सं० न-प्रतिमा, न० ब०] जिसकी तुलना या बराबरी का दूसरा न हो। बेजोड़। अनुपम।
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अप्रतिमान  : वि० [सं० न० ब०]=अप्रतिम।
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अप्रतिरथ  : वि० [सं० न० ब०] वीरता में, जिसकी बराबरी या मुकाबले का कोई न हो।
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अप्रतिरूप  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई प्रतिरूप न हो। २. जो अनुरूप या सटीक न हो। ३. अरुचिकर।
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अप्रतिवार्य  : वि० [सं० प्रति√वृ+णिच्+यत्, न० त०] जिसका प्रतिवारण न हो सके।
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अप्रतिष्ठ  : वि० [सं० न-प्रतिष्ठा० न० ब०] १. जिसकी प्रतिष्ठा न हो। २. तिरस्कृत।
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अप्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं० न० त०] [वि० अप्रतिष्ठित०] १. प्रतिष्ठा या सम्मान का अभाव। २. अनादर। अपमान। ३. अपयश। अपकीर्ति।
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अप्रतिष्ठित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रतिष्ठित या सम्मानित न हो। २. [अप्रतिष्ठा+इतच्] जिसकी अप्रतिष्ठा या अपमान किया गया हो।
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अप्रतिसंबद्ध  : वि० [सं० न० त०] जिनका परस्पर कोई लगाव या संबंध न हो।
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अप्रतिहत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे आघात या ठोकर न लगी हो। जो प्रतिहत न हो। २. जो हारा न हो। ३. जिसके लिए कोई रोक-टोक न हो। ४. जिसेक बीच में बाधा या विघ्न न पड़ा हो। जैसे—अप्रतिहत गति। पुं० अंकुश।
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अप्रतिहार्य  : वि० [सं० न० त०] जो प्रतिहार्य के योग्य न हो। जिसका प्रतिहार्य न हो सके।
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अप्रतीकार  : पुं० [सं० न० त०]=अप्रतिकार।
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अप्रतीत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी प्रतीति न हो सके। जिस तक पहुँचा न जा सके। २. जिसे प्रतीति न हुई हो। ३. असामान्य। ४. अस्पष्ट।
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अप्रतुल  : वि० [सं० प्र-तुला, प्रा० स० न-प्रतुला, न० ब०] १. जिसकी तुलना या मान न हो सके। बेहद। २. अनुपम। बेजोड़।
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अप्रत्त  : वि० =अप्रदत्त।
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अप्रत्ता  : स्त्री० [सं० अप्रत्त-टाप्]=अप्रदत्ता।
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अप्रत्यक्ष  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रत्यक्ष न हो। (दे० ‘प्रत्यक्ष’) २. जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सीधा मार्ग न अपनाये। ३. उलटा या टेड़ा। (उपाय या मार्ग) ४. अप्रकट या गुप्त। (उद्देश्य या लक्ष्य)।
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अप्रत्यक्ष-कर  : पुं० [सं० कर्म०स०] वह कर जो उपभोक्ताओं या जनता से प्रत्यक्ष रूप से नहीं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से तथा किसी दूसरे माध्यम (जैसे—कारखानों आदि) के द्वारा लिया जाता हो। (इनडाइरेक्ट टैक्स) जैसे—कपड़े या चीनी पर का उत्पादन कर।
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अप्रत्यनीक  : पुं० [सं० न० त०] एक काव्यालंकार जिसमें शत्रु को जीतने की सामर्थ्य के कारण उससे संबंध रखनेवाली वस्तुओं का तिरस्कार न करने का वर्णन होता है।
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अप्रत्यय  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना विभक्ति या प्रत्यय का। विभक्ति रहित। २. विश्वासरहित। ३. अनभिज्ञ। पुं० [न० त०] १. प्रत्यय या विश्वास का अभाव। २. प्रतीति या ज्ञान का अभाव।
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अप्रत्याशित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रत्याशित न हो। जिसकी प्रत्याशा न की गई हो। २. असंभावित। ३. आकस्मिक या अचानक होनेवाला।
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अप्रदत्त  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अप्रदत्ता] जो दिया न गया हो।
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अप्रदत्ता  : स्त्री० [सं० न० त०] वह कन्या जो अभी तक किसी को दी या ब्याही न गई हो।
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अप्रधान  : वि० [सं० न० त०] जो प्रधान न हो, फलतः गौण या साधारण। पुं० प्रधान न होने का भाव।
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अप्रभ  : वि० [सं० न-प्रभा, न० ब०] १. जिसमें प्रभा का अभाव हो। प्रभा-रहित। २. धुँधला। ३. आलसी। ४. जिसमें तत्त्व न हो। तुच्छ। ५. जिसकी प्रभा नष्ट हो चुकी हो। हत-प्रभ।
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अप्रभूति  : स्त्री० [सं० न० त०] प्रभूत न होने की अवस्था गुण या भाव।
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अप्रमा  : स्त्री० [सं० न० ब०] ऐसा नियम जो आधारिक न हो। स्त्री० [सं० न० त०] भ्रममूलक ज्ञान। गलत जानकारी।
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अप्रमाण  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रमाण या प्रमाणित न हो। २. जो आधिकारिक न हो। ३. [न० ब०] बिना सबूत का। ४. अनधिकृत। ५. असीम। अपरिमित।
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अप्रमाद  : वि० [सं० न० ब०] जिसे प्रमाद न हो। पु० [सं० न० त०] प्रमाद का अभाव।
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अप्रमित  : वि० [सं० न० त०] १. जो मापा न गया हो। २. विस्तृत। असीम। ३. जो सिद्धि या आधिकारिक न हो।
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अप्रमेय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका माप या नाप न हो सकता हो। असीम। अनंत। २. जो प्रमाणित या सिद्ध न किया जा सके। ३. जो जाना या समझा न जा सके। अज्ञेय।
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अप्रयुक्त  : वि० [सं० न० त०] १. (वस्तु आदि) जिसका प्रयोग न हुआ हो अथवा जो काम में न लाया गया हो। अव्यवहृत। २. (व्यक्ति) जिसकी नियुक्ति न हुई हो।
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अप्रयुक्तत्व  : पुं० [सं० अप्रयुक्त+त्व] काव्य में एक पद—दोष जो ऐसे शब्दों के प्रयोग से होता है जो शुद्ध होने पर भी कवियों द्वारा कभी प्रयुक्त न हुआ हो।
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अप्रलंब  : वि० [सं० न० ब०] देर न लगानेवाला। फुरतीला। पुं० [न० त०] प्रलंब का अभाव। शीघ्रता। फुरती।
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अप्रवर्तक  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रवर्त्तक न हो। २. उत्साहहीन या निष्क्रिय।
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अप्रवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० न० त०] जो क्रियमाण या प्रवर्ती न हो। (इन्आपरेटिव)
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अप्रवृति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रवृत्ति या मन का झुकाव न होना। २. किसी पद, वाक्य या सिद्धान्त का आशय समझ में न आना।
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अप्रवृत्त  : वि० [सं० न० त०] जो प्रवृत्त न हो। काम में न लगा हुआ।
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अप्रशंसनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रशंसा के योग्य न हो। २. जिसकी प्रशंसा न हो सकती हो।
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अप्रशस्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रशस्त न हो। २. जो सभ्य समाज में चलने या प्रयुक्त होने योग्य न हो।
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अप्रशिक्षित  : वि० [सं० न० त०] जिसे कोई विशेष प्रकार की प्रशिक्षा न मिली हो। जो प्रशिक्षित न हो। (अनट्रेंड)
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अप्रसक्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] [वि० अप्रसक्त] १. लगाव या संबंध का अभाव। २. अनासक्ति।
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अप्रसंग  : वि० [सं० न० त०] जो अवसर या समय के उपयुक्त न हो। अप्रासंगिक। पुं० [सं० न० त०] संबंध या लगाव का अभाव।
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अप्रसन्न  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अप्रसन्नता] १. जो प्रसन्न न हो। असंतुष्ट। नाराज। २. उदास। खिन्न। दुःखी। ३. नाराज।
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अप्रसम  : वि० [सं० न० त०] जो प्रसम न हो, बल्कि उससे कुछ आगे बढ़ा या ऊपर उठा हो। (एबनाँर्मल) विशेष दे० ‘प्रसम’।
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अप्रसमतः  : क्रि० वि० [सं० अप्रसम+तस्] अप्रसम रूप में। (एबनॉर्मली)
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अप्रसूता  : स्त्री० [सं० न० त०] वह स्त्री जिसे प्रसव न होता हो। वंध्या। बाँझ।
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अप्रस्तुत  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रस्तुत या सामने न हो। अनुपस्थित। २. जो उद्यत या तैयार न हो। ३. जिसका वर्तमान या वर्ण्य विषय से कोई प्रत्यक्ष संबंध न हो। ४. अप्रासंगिक। पुं० साहित्य में कोई अलग या दूर का ऐसा विषय या व्यक्ति जिसकी चर्चा किसी प्रस्तुत मुख्य वर्ण्यविषय या व्यक्ति को चरचा के समय उपमा तुलना आदि के रूप में अथवा यों हि प्रसंग-वश या गौण रूप से होती है। ‘प्रस्तुत’ का विपर्याय।
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अप्रस्तुत-प्रशंसा  : स्त्री० [ष० त०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें कोई उद्देश्य सिद्धि करने या किसी की प्रशंसा आदि करने के लिए प्रस्तुत की चर्चा न करके अप्रस्तुत की चर्चा की जाती है और उसी से प्रस्तुत का ज्ञान कराया जाता है। (इन्डाइरेक्ट डिस्क्रिप्शन) जैसे—(क) उसके मुख के सामने चंद्रमा पानी भरता है। (ख) यह कहना कि कमलों से कोमलता, चंद्रमा से प्रकाश, सोने से रंग और अमृत से माधुर्य लेकर यह मुख बनाया गया है। (साहित्यकारों ने इसके पाँच भेद माने है।) यथा कारण-निबंधता, कार्य-निबंधना, विशेष—निबंधना, सामान्य-निबंधना और सारूप्य-निबंधना।
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अप्रहत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे चोट न लगी हो। २. (वस्त्र) जो अभी तक पहना न गया हो। कोरा। ३. (भूमि) जिसपर अभी तक हल न चला हो। ४. बंजर (भूमि)।
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अप्राकृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्राकृतिक न हो। २. जो मौलिक न हो। ३. विशिष्ट। ४. असाधारण।
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अप्राकृतिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो मनुष्य या पशु की भौतिक प्रकृत्ति से भिन्न हो। २. जो प्रकृति के प्रायिक क्रमक से भिन्न हो। ३. जो प्राकृतिक न हो। (अननैचुरल)
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अप्राचीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुराना या प्राचीन न हो, फलतः नया या आधुनिक। २. अर्वाचीन। ३. जो पूर्वीय न हो। पश्चिमीय।
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अप्राज्ञ  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें प्रज्ञा न हो। २. जो विज्ञ या विद्वान न हो, फलतः अनभिज्ञ। ३. अशिक्षित।
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अप्राण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें जीवन, जीवनी शक्ति या प्राण न हो, फलतः निर्जीव। २. मृत। ३. संज्ञा-हीन। पुं० १. वह जिसमें जीवन शक्ति न हो। २. ईश्वर।
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अप्राप्त  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अप्राप्ति] १. (पदार्थ) जो प्राप्त या हस्तगत न हुआ हो। २. (व्यक्ति) जिसे कोई विशिष्ट चीज प्राप्त न हुई हो। जैसे—अप्राप्त-यौवना, अप्राप्त-व्यस्क। ३. जो उपस्थित या प्रस्तुत न हुई हो। ४. जो सामने न आया हो।
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अप्राप्त-काल  : पुं० [कर्म० स०] १. आनेवाला काल या समय। भविष्य। २. उपयुक्त समय से पहले का समय।
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अप्राप्तयौवना  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] साहित्य में वह नायिका जिसे यौवन की प्राप्ति अभी न हुई हो।
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अप्राप्तवय (स्)  : वि० [न० ब०] कम उम्र का। अल्प-वयस्क। बालिग।
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अप्राप्तव्यवहार  : वि० [सं० न० ब०] ऐसा बालक जिसकी अवस्था सोलह वर्ष से कम हो तथा जिसे धर्म-शास्त्र के अनुसार पैतृक-संपत्ति पर पूरा अधिकार प्राप्त न हुआ हो।
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अप्राप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्राप्त न होने की अवस्था या भाव। २. मुनाफा या लाभ का न होना। (विशेष दे० ‘प्राप्ति’)
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अप्राप्तिसम  : पुं० [सं० प्राप्ति-सम, तृ० त० न-प्राप्तिसम न० त०] तर्क में जाति या असत् उत्तर के चौबीस भेदों में से एक।
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अप्राप्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी प्राप्ति न हो सके। जो मिल न सके। २. जो मिल न सका हो। बाकी।
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अप्रामाणिक  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अप्रामाणिकता] १. जो प्रामाणिक या प्रमाण से सिद्ध न हो, फलतः ऊट-पटांग या अविश्वसनीय। २. जो आधिकारिक या प्राधिकृत न हो। ३. जो मानने योग्य न हो।
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अप्रामाण्य  : पुं० [सं० न० त०] प्रमाण का अभाव।
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अप्रायिक  : वि० [सं० न० त०] जो प्रायिक न हो। (अनयूजुअल)
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अप्रावृत  : वि० [सं० न० त०] जो ढका न हो, फलतः अनावृत्त।
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अप्राशन  : पुं० [सं० न० त०] १. भोजन न करना। २. अनशन।
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अप्रासंगिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रासंगिक (प्रसंग के अनुकूल या अनुसार) न हो। २. जिसका प्रस्तुत विषय का कार्य से कोई सीधा संबंद न हो। दूर का या विभिन्न।
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अप्रिय  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रिय न हो। जिसके प्रति अनुराग या चाह न हो। २. जो न रुचे। अरुचिकर। ३. दूषित या बुरा। जैसे—अप्रिय-वचन। पुं० १. वैरी। शत्रु। २. बेंत।
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अप्रीति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रीति का अभाव। २. अरुचि। ३. वैर-विरोध। शत्रुता।
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अप्रेत  : वि० [सं० प्र√इ (गति+क्त, न० त०] १. जो मरकर प्रेत न हुआ हो। २. जो कहीं गया या भेजा न गया हो।
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अप्रैल  : पुं० [अ० एप्रिल] पाश्चात्य पंचांग का चौथा महीना।
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अप्रौढ़  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रौढ़ या पुष्ट न हो। अशक्त या कमजोर। २. जो (अवस्था के विचार से) प्रौढ़ या वयस्क न हो। नाबालिग। ३. जिसमें पूर्णता या परिपक्वता न आई हो। जैसे—अप्रौढ़ विचार। ४. (व्यक्ति) जो सुलझे हुए मस्तिष्क का न हो।
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अप्रौढ़ा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. कुमारी कन्या। २. वह कन्या जिसका अभी हाल में विवाह हुआ हो, पर जो अभी रजस्वला न हुई हो।
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अप्लव  : वि० [सं० न० ब०] १. जो तैरता न हो या तैर न सकता हो। २. जिसके पास तैरने का साधन (नाव आदि) न हो।
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अप्सर  : पुं० [सं० अप्√सृ(गति)+अच्] जल में रहने वाला प्राणी। जलचर। स्त्री० =अप्सरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्सरा  : स्त्री० [सं० अप्स-रूप+र-टाप्] १. उन कल्पित चिर-यौवना सुंदरियों में से हर एक जो स्वर्ग की गायिकाएँ और वैश्याएँ मानी गई हैं। परी। २. परम सुंदरी स्त्री। ३. जल का कण।
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अप्सरी  : स्त्री०=अप्सरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्सु  : वि० [सं० न-प्सु-रूप, न० ब०] जिसका रूप न हो। रूप-रहित।
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अप्सु-प्रवेशन  : पुं० [सं० अलुक्, स०] प्राचीन भारत में, अपराधी को जल में डुबाकर उसके प्राण लेने की क्रिया या प्रणाली (कौ०)।
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अप्सुचर  : वि०=जलचर।
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