आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
पार्वती का जन्म और तपस्या
सतीं मरत हरि सन बरु मागा।
जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई ।
जनमी पारबती तनु पाई॥
जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई ।
जनमी पारबती तनु पाई॥
सतीने मरते समय भगवान हरिसे यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्ममें शिवजीके चरणोंमें अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचलके घर जाकर पार्वतीके शरीरसे जन्म लिया ॥३॥
जब तें उमा सैल गृह जाई ।
सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं।
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे ।
उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥
सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं।
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे ।
उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥
जबसे उमाजी हिमाचलके घर जन्मीं तबसे वहाँ सारी सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ छा गयीं। मुनियोंने जहाँ-तहाँ सुन्दर आश्रम बना लिये और हिमाचलने उनको उचित स्थान दिये॥४॥
दो०- सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥६५॥
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥६५॥
उस सुन्दर पर्वतपर बहुत प्रकारके सब नये नये वृक्ष सदा पुष्प फलयुक्त हो गये और वहाँ बहुत तरहकी मणियोंकी खाने प्रकट हो गयीं ।। ६५ ।।
सरिता सब पुनीत जलु बहहीं ।
खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं।
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा ।
गिरि पर सकल करहिं अनुरागा।
खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं।
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा ।
गिरि पर सकल करहिं अनुरागा।
सारी नदियोंमें पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवोंने अपना स्वाभाविक वैर छोड़ दिया और पर्वतपर सभी परस्पर प्रेम करते हैं।॥ १॥
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ ।
जिमि जनु रामभगति के पाएँ।
नित नूतन मंगल गृह तासू ।
ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू।।
जिमि जनु रामभगति के पाएँ।
नित नूतन मंगल गृह तासू ।
ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू।।
पार्वतीजीके घर आ जाने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्तिको पाकर भक्त शोभायमान होता है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नये-नये मङ्गलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं ॥ २॥
नारद समाचार सब पाए ।
कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए।
सैलराज बड़ आदर कीन्हा ।
पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥
कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए।
सैलराज बड़ आदर कीन्हा ।
पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥
जब नारदजी ने ये सब समाचार सुने तो वे कौतुकही से हिमाचल के घर पधारे। पर्वतराज ने उनका बड़ा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया॥३॥
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा ।
चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा।
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना॥
चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा।
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना॥
फिर अपनी स्त्रीसहित मुनिके चरणोंमें सिर नवाया और उनके चरणोदकको सारे घरमें छिड़काया। हिमाचलने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्रीको बुलाकर मुनिके चरणोंपर डाल दिया ॥ ४॥
दो०-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदय बिचारि ॥६६॥
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदय बिचारि ॥६६॥
[और कहा-] हे मुनिवर ! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदयमें विचारकर कन्याके दोष-गुण कहिये॥६६॥
कह मुनि बिहसि गूढ मृदु बानी।
सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर सहज सुसील सयानी ।
नाम उमा अंबिका भवानी॥
सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर सहज सुसील सयानी ।
नाम उमा अंबिका भवानी॥
नारद मुनिने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणीसे कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणोंकी खान है। यह स्वभावसे ही सुन्दर, सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका और भवानी इसके नाम हैं ॥१॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी ।
होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता ।
एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥
होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता ।
एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥
कन्या सब सुलक्षणोंसे सम्पन है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसके माता-पिता यश पावेंगे।॥२॥
होइहि पूज्य सकल जग माहीं ।
एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा ।
त्रिय चढ़िहहिं पतिव्रत असिधारा॥
एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा ।
त्रिय चढ़िहहिं पतिव्रत असिधारा॥
यह सारे जगतमें पूज्य होगी और इसकी सेवा करनेसे कुछ भी दुर्लभ न होगा। संसारमें स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रतरूपी तलवारको धारपर चढ़ जायगी॥३॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी ।
सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना ।
उदासीन सब संसय छीना॥
सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना ।
उदासीन सब संसय छीना॥
हे पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन. माता-पिता-विहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह),॥४॥
दो०--जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥६७॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥६७॥
योगी, जटाधारी, निष्कामहृदय, नंगा और अमङ्गल वेषवाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथमें ऐसी ही रेखा पड़ी है॥६७॥
सुनि मुनि गिरा सत्य जिय जानी ।
दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना ।
दसा एक समुझब बिलगाना॥
दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना ।
दसा एक समुझब बिलगाना॥
नारद मुनिकी वाणी सुनकर और उसको हदयमें सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान और मैना)को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजीने भी इस रहस्यको नहीं जाना, क्योंकि सबकी बाहरी दशा एक-सी होनेपर भी भीतरी समझ भिन्न भिन्न थी॥१॥
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना ।
पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा ।
उमा सो बचनु हृदय धरि राखा॥
पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा ।
उमा सो बचनु हृदय धरि राखा॥
सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान और मैना सभीके शरीर पुलकित थे और सभीके नेत्रोंमें जल भरा था। देवर्षिके वचन असत्य नहीं हो सकते, [यह विचारकर] पार्वतीने उन वचनोंको हृदयमें धारण कर लिया॥२॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू ।
मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई ।
सखी उछंग बैठी पुनि जाई॥
मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई ।
सखी उछंग बैठी पुनि जाई॥
उन्हें शिवजीके चरणकमलोंमें स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मनमें यह सन्देह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमाने अपने प्रेमको छिपा लिया और फिर वे सखीकी गोदमें जाकर बैठ गयीं ॥३॥
झूठ न होइ देवरिषि बानी ।
सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ।
कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥
सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ।
कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥
देवर्षिकी वाणी झूठी न होगी, यह विचारकर हिमवान, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगी। फिर हृदयमें धीरज धरकर पर्वतराजने कहा- हे नाथ ! कहिये, अब क्या उपाय किया जाय? ।। ४ ।।
दो०-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥६८॥
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥६८॥
मुनीश्वर ने कहा-हे हिमवान ! सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते ॥ ६८ ॥
तदपि एक मैं कहउँ उपाई।
होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनउँ तुम्ह पाहीं ।
मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं।।
होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनउँ तुम्ह पाहीं ।
मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं।।
तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमाको वर तो नि:सन्देह वैसा ही मिलेगा जैसा मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया है ॥ १ ॥
जे जे बर के दोष बखाने ।
ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने।
जौं बिबाहु संकर सन होई।
दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥
ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने।
जौं बिबाहु संकर सन होई।
दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥
परन्तु मैंने वरके जो-जो दोष बतलाये हैं, मेरे अनुमानसे वे सभी शिवजीमें हैं। यदि शिवजीके साथ विवाह हो जाय तो दोषोंको भी सब लोग गुणोंके समान ही कहेंगे॥२॥
जौ अहि सेज सयन हरि करहीं।
बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं।
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं ।
तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं।।
बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं।
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं ।
तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं।।
जैसे विष्णुभगवान शेषनाग की शय्यापर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसोंका भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता ॥३॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई ।
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं ।
रबि पावक सुरसरि की नाई॥
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं ।
रबि पावक सुरसरि की नाई॥
गङ्गाजीमें शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गङ्गाजीकी भाँति समर्थको कुछ दोष नहीं लगता ॥ ४॥
दो०-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥६९॥
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥६९॥
यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञानके अभिमानसे इस प्रकार होड़ करते हैं तो वे कल्पभरके लिये नरकमें पड़ते हैं। भला, कहीं जीव भी ईश्वरके समान (सर्वथा स्वतन्त्र) हो सकता है ? ॥ ६९ ॥
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना ।
कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें ।
ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥
कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें ।
ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥
गङ्गाजलसे भी बनायी हुई मदिराको जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गङ्गाजीमें मिल जानेपर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीवमें भी वैसा ही भेद है॥१॥
संभु सहज समरथ भगवाना । एहि बिबाह सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥
शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं। इसलिये इस विवाहमें सब प्रकार कल्याण है। परन्तु महादेवजीकी आराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करनेसे वे बहुत जल्द सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥२॥
जौं तप करै कुमारि तुम्हारी ।
भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं।
एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥
भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं।
एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥
यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहारको मिटा सकते हैं। यद्यपि संसारमें वर अनेक हैं, पर इसके लिये शिवजीको छोड़कर दूसरा वर नहीं है ॥३॥
बर दायक प्रनतारति भंजन ।
कृपासिंधु सेवक मन रंजन।
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे ।
लहिअ न कोटि जोग जप साधे ।।
कृपासिंधु सेवक मन रंजन।
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे ।
लहिअ न कोटि जोग जप साधे ।।
शिवजी वर देनेवाले, शरणागतोंके दुःखोंका नाश करनेवाले, कृपाके समुद्र और सेवकोंके मनको प्रसन्न करनेवाले हैं। शिवजीको आराधना किये बिना करोड़ों योग और जप करनेपर भी वाञ्छित फल नहीं मिलता ॥४॥
दो०-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥७०॥
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥७०॥
ऐसा कहकर भगवानका स्मरण करके नारदजीने पार्वतीको आशीर्वाद दिया। [और कहा कि-] हे पर्वतराज! तुम सन्देहका त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा॥७० ॥
कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ ।
आगिल चरित सुनहु जस भयऊ।
पतिहि एकांत पाइ कह मैना ।
नाथ न मैं समुझे मुनि बैना।
आगिल चरित सुनहु जस भयऊ।
पतिहि एकांत पाइ कह मैना ।
नाथ न मैं समुझे मुनि बैना।
यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोकको चले गये। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पतिको एकान्तमें पाकर मैनाने कहा-हे नाथ ! मैंने मुनिके वचनोंका अर्थ नहीं समझा ॥१॥
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा ।
करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी ।
कंत उमा मम प्रानपिआरी॥
करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी ।
कंत उमा मम प्रानपिआरी॥
जो हमारी कन्याके अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिये। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे (मैं अयोग्य वरके साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती); क्योंकि हे स्वामिन् ! पार्वती मुझको प्राणोंके समान प्यारी है॥२॥
जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू।
गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू ।
जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥
गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू ।
जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥
यदि पार्वतीके योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभावसे ही जड (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी! इस बातको विचारकर ही विवाह कीजियेगा, जिसमें फिर पीछे हृदयमें सन्ताप न हो। ३ ।।
अस कहि परी चरन धरि सीसा ।
बोले सहित सनेह गिरीसा ।।
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं ।
नारद बचनु अन्यथा नाहीं।।
बोले सहित सनेह गिरीसा ।।
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं ।
नारद बचनु अन्यथा नाहीं।।
इस प्रकार कहकर मैना पतिके चरणोंपर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवानने प्रेमसे कहा-चाहे चन्द्रमामें अग्नि प्रकट हो जाय, पर नारदजीके वचन झूठे नहीं हो सकते ॥ ४॥
दो०-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥७१॥
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥७१॥
हे प्रिये ! सब सोच छोड़कर श्रीभगवानका स्मरण करो। जिन्होंने पार्वतीको रचा है, वे ही कल्याण करेंगे। ७१ ॥ ।
अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू ।
तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू ।
आन उपायँ न मिटिहि कलेसू।।
तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू ।
आन उपायँ न मिटिहि कलेसू।।
अव यदि तुम्हें कन्यापर प्रेम है तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे जिससे शिवजी मिल जायँ। दूसरे उपायसे यह क्लेश नहीं मिटेगा ॥१॥
नारद बचन सगर्भ सहेतू ।
सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका ।
सबहि भाँति संकरु अकलंका॥
सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका ।
सबहि भाँति संकरु अकलंका॥
नारदजीके वचन रहस्यसे युक्त और सकारण हैं और शिवजी समस्त सुन्दर गुणोंके भण्डार हैं। यह विचारकर तुम [मिथ्या] सन्देहको छोड़ दो। शिवजी सभी तरहसे निष्कलङ्क हैं ।। २॥
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं ।
गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी ।
सहित सनेह गोद बैठारी॥
गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी ।
सहित सनेह गोद बैठारी॥
पतिके वचन सुन मनमें प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वतीके पास गयीं । पार्वतीको देखकर उनकी आँखोंमें आँसू भर आये। उसे स्नेहके साथ गोदमें बैठा लिया॥३॥
बारहिं बार लेति उर लाई ।
गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी ।
मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥
गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी ।
मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥
फिर बार-बार उसे हृदयसे लगाने लगी। प्रेमसे मैनाका गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। [माताके मनकी दशाको जानकर] वे माताको सुख देनेवाली कोमल वाणीसे बोली- ॥४॥
दो०-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥७२॥
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥७२॥
माँ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ; मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुन्दर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मणने ऐसा उपदेश दिया है—॥७२॥
करहि जाइ तपु सैलकुमारी ।
नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा ।
तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा।
नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा ।
तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा।
हे पार्वती ! नारदजीने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिताको भी अच्छी लगी है। तप सुख देनेवाला और दुःख-दोषका नाश करनेवाला है ॥१॥
तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता ।
तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा ।
तपबल सेषु धरइ महिभारा॥
तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा ।
तपबल सेषु धरइ महिभारा॥
तपके बलसे ही ब्रह्मा संसारको रचते हैं और तपके बलसे ही विष्णु सारे जगतका पालन करते हैं. तपके बलसे ही शम्भु [रुद्ररूपसे जगतका ] संहार करते हैं और तपके बलसे ही शेषजी पृथ्वीका भार धारण करते हैं ॥२॥
तप अधार सब सृष्टि भवानी ।
करहि जाइ तपु अस जियें जानी॥
सुनत बचन बिसमित महतारी ।
सपन सुनायउ गिरिहि हंकारी॥
करहि जाइ तपु अस जियें जानी॥
सुनत बचन बिसमित महतारी ।
सपन सुनायउ गिरिहि हंकारी॥
हे भवानी! सारी सृष्टि तप के ही आधारपर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर माताको बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवानको बुलाकर वह स्वप्न सुनाया ॥३॥
मातु पितहि बहुबिधि समुझाई।
चली उमा तप हित हरषाई।।
प्रिय परिवार पिता अरु माता ।
भए बिकल मुख आव न बाता॥
चली उमा तप हित हरषाई।।
प्रिय परिवार पिता अरु माता ।
भए बिकल मुख आव न बाता॥
माता-पिताको बहुत तरहसे समझाकर बड़े हर्षके साथ पार्वतीजी तप करनेके लिये चलीं। प्यारे कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल हो गये। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती॥४॥
दो०- बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥७३॥
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥७३॥
तब वेदशिरा मुनिने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वतीजीकी महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया॥७३॥ ।
उर धरि उमा प्रानपति चरना । ज
ाइ बिपिन लागी तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू ।
पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥
ाइ बिपिन लागी तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू ।
पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥
प्राणपति (शिवजी) के चरणों को हृदयमें धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगी। पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तपके योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज दिया ॥१॥
नित नव चरन उपज अनुरागा।
बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए ।
सागु खाइ सत बरष गवाँए।
बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए ।
सागु खाइ सत बरष गवाँए।
स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गयी। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाये, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताये ॥२॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा ।
किए कठिन कछु दिन उपवासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई।
तीनि सहस संबत सोइ खाई॥
किए कठिन कछु दिन उपवासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई।
तीनि सहस संबत सोइ खाई॥
कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किये। जो बेलपत्र सृखकर पृथ्वीपर गिरते थे. तीन हजार वर्ष तक उन्हींको खाया ॥३॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना ।
उमहि नामु तब भयउ अपरना ।।
देखि उमहि तप खीन सरीरा ।
ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥
उमहि नामु तब भयउ अपरना ।।
देखि उमहि तप खीन सरीरा ।
ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥
फिर सृख पर्ण (पने) भी छोड़ दिये, तभी पार्वतीका नाम 'अपर्णा' हुआ। तपसे उमाका शरीर क्षीण देखकर आकाशसे गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई- ॥ ४ ॥
दो०- भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥७४।।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥७४।।
हे पर्वतराजकी कुमारी ! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशोंको (कठिन तपको) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे ॥७४॥
अस तप काहुँ न कीन्ह भवानी ।
भए अनेक धीर मुनि ग्यानी।।
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी ।
सत्य सदा संतत सुचि जानी॥
भए अनेक धीर मुनि ग्यानी।।
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी ।
सत्य सदा संतत सुचि जानी॥
हे भवानी ! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसीने नहीं किया। अब तृ इस श्रेष्ठ ब्रह्माकी वाणीको सदा सत्य और निरन्तर पवित्र जानकर अपने हृदयमें धारण कर ॥ १ ॥
आवै पिता बोलावन जबहीं।
हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं।
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा ।
जानेहु तब प्रमान बागीसा॥
हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं।
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा ।
जानेहु तब प्रमान बागीसा॥
जब तेरे पिता बुलानेको आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणीको ठीक समझना ।। २ ॥
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी ।
पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा ।
सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥
पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा ।
सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥
[इस प्रकार ] आकाशसे कही हुई ब्रह्माकी वाणीको सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गयीं और [हर्षके मारे] उनका शरीर पुलकित हो गया। [याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजीसे बोले कि] मैंने पार्वतीका सुन्दर चरित्र सुनाया, अब शिवजीका सुहावना चरित्र सुनो।।३।।
जब तें सती जाइ तनु त्यागा ।
तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा ।
जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥
तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा ।
जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥
जबसे सतीने जाकर शरीरत्याग किया, तबसे शिवजीके मनमें वैराग्य हो गया। वे सदा श्रीरघुनाथजीका नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी कथाएँ सुनने लगे॥४॥
दो०- चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥७५॥
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥७५॥
चिदानन्द, सुखक धाम, मोह, मद और कामसे रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकोंको आनन्द देनेवाले भगवान श्रीहरि (श्रीरामचन्द्रजी) को हृदयमें धारण कर (भगवानके ध्यानमें मस्त हुए) पृथ्वीपर विचरने लगे॥७५ ॥
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