Sri RamCharitManas Tulsi Ramayan (Lankakand) - Hindi book by - Goswami Tulsidas - श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (लंकाकाण्ड) - गोस्वामी तुलसीदास

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श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (लंकाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 14
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। षष्ठम सोपान लंकाकाण्ड

श्रीरामजी के बाण से रावणके मुकुट-छत्रादि का गिरना


देखु बिभीषन दच्छिन आसा।
घन घमंड दामिनी बिलासा॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा।
होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥

हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हलके-हलके) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो!॥१॥

कहत बिभीषन सुनहु कृपाला।
होइ न तड़ित न बारिद माला॥
लंका सिखर उपर आगारा।
तहँ दसकंधर देख अखारा॥

विभीषण बोले-हे कृपालु! सुनिये, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लंका की चोटीपर एक महल है। दशग्रीव रावण वहाँ [नाच-गानका अखाड़ा देख रहा है॥२॥

छत्र मेघडंबर सिर धारी।
सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥
मंदोदरी श्रवन ताटंका।
सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका॥

रावण ने सिर पर मेघडंबर (बादलोंके डंबर-जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो बादलों की अत्यन्त काली घटा है। मन्दोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है॥३॥

बाजहिं ताल मृदंग अनूपा।
सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा॥
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना।
चाप चढ़ाइ बान संधाना॥

हे देवताओं के सम्राट! सुनिये, अनुपम ताल और मृदंग बज रहे हैं। वही मधुर [गर्जन] ध्वनि है। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुसकराये। उन्होंने धनुष चढ़ाकर उसपर बाण का सन्धान किया,॥४॥

दो०- छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान॥१३ (क)॥

और एक ही बाण से [रावण के] छत्र-मुकुट और [मन्दोदरी के] कर्णफूल काट गिराये। सबके देखते-देखते वे जमीन पर आ पड़े, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥१३ (क)।

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग॥१३ (ख)।

ऐसा चमत्कार करके श्रीरामजी का बाण [वापस] आकर [फिर] तरकस में जा घुसा। यह महान् रस-भंग (रंग में भंग) देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गयी।। १३ (ख)।

कंप न भूमि न मरुत बिसेषा।
अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी।
असगुन भयउ भयंकर भारी॥

न भूकम्प हआ, न बहत जोर की हवा (आधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। [फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल कैसे कटकर गिर पड़े?] सभी अपने अपने हृदयमें सोच रहे हैं कि यह बड़ा भयङ्कर अपशकुन हुआ !॥१॥

दसमुख देखि सभा भय पाई।
बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही।
मुकुट परे कस असगुन ताही॥

सभा को भयभीत देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे-सिरों का गिरना भी जिसके लिये निरन्तर शुभ होता रहा है, उसके लिये मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा?॥ २॥

सयन करहु निज निज गृह जाई।
गवने भवन सकल सिर नाई॥
मंदोदरी सोच उर बसेऊ।
जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥

अपने-अपने घर जाकर सो रहो [डरने की कोई बात नहीं है ] तब सब लोग सिर नवाकर घर गये। जबसे कर्णफूल पृथ्वीपर गिरा, तबसे मन्दोदरी के हृदय में सोच बस गया॥ ३॥

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