आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (लंकाकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (लंकाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। षष्ठम सोपान लंकाकाण्ड
हनुमानजी का सुषेण वैद्य को लाना एवं संजीवनी के लिए जाना, कालनेमि-रावण-संवाद, मकरी-उद्धार, कालनेमि-उद्धार
जामवंत कह बैद सुषेना।
लंकाँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता।
आनेउ भवन समेत तुरंता॥
लंकाँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता।
आनेउ भवन समेत तुरंता॥
जाम्बवानने कहा-लङ्कामें सुषेण वैद्य रहता है, उसे ले आनेके लिये किसको भेजा जाय? हनुमानजी छोटा रूप धरकर गये और सुषेणको उसके घरसमेत तुरंत ही उठा लाये॥ ४॥
दो०- राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन॥५५॥
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन॥५५॥
सुषेणने आकर श्रीरामजीके चरणारविन्दोंमें सिर नवाया। उसने पर्वत और औषधका नाम बताया, (और कहा कि) हे पवनपुत्र! ओषधि लेने जाओ॥५५॥
राम चरन सरसिज उर राखी।
चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥
उहाँ दूत एक मरमु जनावा।
रावनु कालनेमि गृह आवा॥
चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥
उहाँ दूत एक मरमु जनावा।
रावनु कालनेमि गृह आवा॥
श्रीरामजीके चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमानजी अपना बल बखानकर (अर्थात् मैं अभी लिये आता हूँ, ऐसा कहकर) चले। उधर एक गुप्तचरने रावणको इस रहस्यकी खबर दी। तब रावण कालनेमिके घर आया॥१॥
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना।
पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा।
तासु पंथ को रोकन पारा।।
पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा।
तासु पंथ को रोकन पारा।।
रावणने उसको सारा मर्म (हाल) बतलाया। कालनेमि ने सुना और बार-बार सिर पीटा (खेद प्रकट किया)। [उसने कहा-] तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला डाला, उसका मार्ग कौन रोक सकता है?॥२॥
भजि रघुपति करु हित आपना।
छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥
नील कंज तनु सुंदर स्यामा।
हृदयँ राखु लोचनाभिरामा।
छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥
नील कंज तनु सुंदर स्यामा।
हृदयँ राखु लोचनाभिरामा।
श्रीरघुनाथजीका भजन करके तुम अपना कल्याण करो। हे नाथ! झूठी बकवाद छोड़ दो। नेत्रोंको आनन्द देनेवाले नीलकमलके समान सुन्दर श्याम शरीरको अपने हृदयमें रखो।॥३॥
मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू।
महा मोह निसि सूतत जागू॥
काल ब्याल कर भच्छक जोई।
सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई।।
महा मोह निसि सूतत जागू॥
काल ब्याल कर भच्छक जोई।
सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई।।
मैं-तू (भेद-भाव) और ममतारूपी मूढ़ताको त्याग दो। महामोह (अज्ञान) रूपी रात्रिमें सो रहे हो, सो जाग उठो। जो कालरूपी सर्पका भी भक्षक है, कहीं स्वप्नमें भी वह रणमें जीता जा सकता है ?॥४॥
दो०- सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥५६॥
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥५६॥
उसकी ये बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ। तब कालनेमिने मनमें विचार किया कि [इसके हाथसे मरनेकी अपेक्षा] श्रीरामजीके दूतके हाथसे ही मरूँ तो अच्छा है। यह दुष्ट तो पापसमूहमें रत है।। ५६।।
अस कहि चला रचिसि मग माया।
सर मंदिर बर बाग बनाया।
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम।
मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥
सर मंदिर बर बाग बनाया।
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम।
मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥
वह मन-ही-मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्गमें माया रची। तालाब, मन्दिर और सुन्दर बाग बनाया। हनुमानजीने सुन्दर आश्रम देखकर सोचा कि मुनिसे पूछकर जल पी लूँ, जिससे थकावट दूर हो जाय॥१॥
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा।
मायापति दूतहि चह मोहा॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा।
लाग सो कहै राम गुन गाथा॥
मायापति दूतहि चह मोहा॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा।
लाग सो कहै राम गुन गाथा॥
राक्षस वहाँ कपट [से मुनि का वेष बनाये विराजमान था। वह मूर्ख अपनी मायासे मायापतिके दूतको मोहित करना चाहता था। मारुतिने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह श्रीरामजीके गुणोंकी कथा कहने लगा॥२॥
होत महा रन रावन रामहिं।
जितिहहिं राम न संसय या महिं।
इहाँ भएँ मैं देखउँ भाई।
ग्यानदृष्टि बल मोहि अधिकाई॥
जितिहहिं राम न संसय या महिं।
इहाँ भएँ मैं देखउँ भाई।
ग्यानदृष्टि बल मोहि अधिकाई॥
[वह बोला---] रावण और राममें महान् युद्ध हो रहा है। रामजी जीतेंगे इसमें सन्देह नहीं है। हे भाई! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख रहा हूँ। मुझे ज्ञानदृष्टिका बहुत बड़ा बल है॥ ३॥
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल।
कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥
सर मजन करि आतुर आवहु।
दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥
कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥
सर मजन करि आतुर आवहु।
दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥
हनुमानजीने उससे जल माँगा, तो उसने कमण्डलु दे दिया। हनुमानजीने कहा थोड़े जलसे मैं तृप्त नहीं होनेका। तब वह बोला-तालाबमें स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हें दीक्षा दूं, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो।।४।।
दो०- सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढ़ि जान॥५७॥
मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढ़ि जान॥५७॥
तालाबमें प्रवेश करते ही एक मगरीने अकुलाकर उसी समय हनुमानजीका पैर पकड़ लिया। हनुमानजीने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमानपर चढ़कर आकाशको चली॥ ५७॥
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा।
मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा।
मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥
मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा।
मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥
[उसने कहा--] हे वानर ! मैं तुम्हारे दर्शनसे पापरहित हो गयी। हे तात! श्रेष्ठ मुनिका शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है। मेरा वचन सत्य मानो॥१॥
अस कहि गई अपछरा जबहीं।
निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू।
पाछे हमहिं मंत्र तुम्ह देहू॥
निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू।
पाछे हमहिं मंत्र तुम्ह देहू॥
ऐसा कहकर ज्यों ही वह अप्सरा गयी, त्यों ही हनुमानजी निशाचरके पास गये। हनुमानजीने कहा-हे मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिये। पीछे आप मुझे मन्त्र दीजियेगा॥२॥
सिर लंगूर लपेटि पछारा।
निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना।
सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥
निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना।
सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥
हनुमानजीने उसके सिरको पूँछमें लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। यह (उसके मुँहसे राम-नामका उच्चारण) सुनकर हनुमानजी मनमें हर्षित होकर चले॥३॥
देखा सैल न औषध चीन्हा।
सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ।
अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ।
सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ।
अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ।
उन्होंने पर्वतको देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमानजीने एकदमसे पर्वतको ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमानजी रातहीमें आकाशमार्गसे दौड़ चले और अयोध्यापुरीके ऊपर पहुँच गये॥४॥
दो०- देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥५८॥
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥५८॥
भरतजीने आकाशमें अत्यन्त विशाल स्वरूप देखा, तब मनमें अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कानतक धनुषको खींचकर बिना फलका एक बाण मारा॥ ५८॥
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लोगों की राय
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