आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। चतुर्थ सोपान अरण्यकाण्ड
दो०- सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥९॥
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥९॥
[बालिने कहा-] हे श्रीरामजी ! सुनिये, स्वामी (आप) से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो! अन्तकाल में आपकी गति (शरण) पाकर मैं अब भी पापी ही रहा?॥१॥
सुनत राम अति कोमल बानी।
बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना।
बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥
बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना।
बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥
बालि की अत्यन्त कोमल वाणी सुनकर श्रीरामजी ने उसके सिर को अपने हाथसे स्पर्श किया [और कहा-] मैं तुम्हारे शरीरको अचल कर दूँ, तुम प्राणोंको रखो। बालि ने कहा-हे कृपानिधान! सुनिये-॥१॥
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी।
देत सबहि सम गति अबिनासी॥
अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी।
देत सबहि सम गति अबिनासी॥
मुनिगण जन्म-जन्म में (प्रत्येक जन्ममें)[अनेकों प्रकारका] साधन करते रहते हैं। फिर भी अन्तकालमें उन्हें 'राम' नहीं कह जाता (उनके मुखसे रामनाम नहीं निकलता)। जिनके नामके बलसे शङ्करजी काशी में सबको समानरूपसे अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं॥२॥
मम लोचन गोचर सोइ आवा।
बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥
बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥
वह श्रीरामजी स्वयं मेरे नेत्रोंके सामने आ गये हैं। हे प्रभो! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा?॥३॥
छं०-सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही।
श्रुतियाँ 'नेति-नेति' कहकर निरन्तर जिनका गुणगान करती रहती हैं, तथा प्राण और मनको जीतकर एवं इन्द्रियोंको [विषयोंके रससे सर्वथा] नीरस बनाकर मुनिगण ध्यानमें जिनकी कभी क्वचित् ही झलक पाते हैं, वे ही प्रभु (आप) साक्षात् मेरे सामने प्रकट हैं। आपने मुझे अत्यन्त अभिमानवश जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो। परन्तु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्षको काटकर उससे बबूरके बाड़ लगावेगा (अर्थात् पूर्णकाम बना देनेवाले आपको छोड़कर आपसे इस नश्वर शरीरकी रक्षा चाहेगा?)॥१॥
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिए।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिए॥
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिए।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिए॥
हे नाथ! अब मुझपर दयादृष्टि कीजिये और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिये। मैं कर्मवश जिस योनिमें जन्म लूँ, वहीं श्रीरामजी (आप) के चरणोंमें प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बलमें मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिये। और हे देवता और मनुष्योंके नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइये॥२॥
दो०- राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥१०॥
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥१०॥
श्रीरामजीके चरणोंमें दृढ़ प्रीति करके बालिने शरीरको वैसे ही (आसानीसे) त्याग दिया जैसे हाथी अपने गलेसे फूलोंकी मालाका गिरना न जाने॥१०॥
राम बालि निज धाम पठावा।
नगर लोग सब ब्याकुल धावा॥
नाना बिधि बिलाप कर तारा।
छूटे केस न देह सँभारा॥
नगर लोग सब ब्याकुल धावा॥
नाना बिधि बिलाप कर तारा।
छूटे केस न देह सँभारा॥
श्रीरामचन्द्रजी ने बालि को अपने परम धाम भेज दिया। नगरके सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालि की स्त्री तारा अनेकों प्रकारसे विलाप करने लगी। उसके बाल बिखरे हुए हैं और देह की संभाल नहीं है।॥१॥
तारा बिकल देखि रघुराया।
दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥
दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥
ताराको व्याकुल देखकर श्रीरघुनाथजीने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। [उन्होंने कहा-] पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु-इन पाँच तत्त्वोंसे यह अत्यन्त अधम शरीर रचा गया है॥२॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा।
जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी।
लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥
जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी।
लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥
वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिये रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान्के चरणों लगी और उसने परम भक्तिका वर माँग लिया॥३॥
उमा दारु जोषित की नाईं।
सबहि नचावत रामु गोसाईं॥
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा।
मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा॥
सबहि नचावत रामु गोसाईं॥
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा।
मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा॥
[शिवजी कहते हैं-] हे उमा! स्वामी श्रीरामजी सबको कठपुतलीकी तरह नचाते हैं। तदनन्तर श्रीरामजीने सुग्रीवको आज्ञा दी और सुग्रीवने विधिपूर्वक बालिका सब मृतक-कर्म किया॥४॥
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