Sri RamCharitManas Tulsi Ramayan (Kishkindhakand) - Hindi book by - Goswami Tulsidas - श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड) - गोस्वामी तुलसीदास

रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 12
आईएसबीएन :

Like this Hindi book 0

भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। चतुर्थ सोपान अरण्यकाण्ड



सुग्रीव द्वारा सीताजी को देखने की पुष्टि

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा।
लछिमन राम चरित सब भाषा।
कह सुग्रीव नयन भरि बारी।
मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥


दोनोंने [हृदयसे] प्रीति की, कुछ भी अन्तर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजीने श्रीरामचन्द्रजीका सारा इतिहास कहा। सुग्रीवने नेत्रों में जल भरकर कहा- हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जायँगी॥१॥

मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा।
बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥
गगन पंथ देखी मैं जाता।
परबस परी बहुत बिलपाता॥

मैं एक बार यहाँ मन्त्रियोंके साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने पराये (शत्रु) के वशमें पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजीको आकाशमार्गसे जाते देखा था॥ २॥

राम राम हा राम पुकारी।
हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा।
पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥

हमें देखकर उन्होंने 'राम! राम! हा राम!' पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था। श्रीरामजीने उसे माँगा, तब सुग्रीवने तुरंत ही दे दिया। वस्त्रको हृदयसे लगाकर श्रीरामचन्द्रजीने बहुत ही सोच किया॥३॥

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा।
तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई।
जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई।

सुग्रीवने कहा-हे रघुवीर! सुनिये, सोच छोड़ दीजिये और मनमें धीरज लाइये। मैं सब प्रकारसे आपकी सेवा करूँगा, जिस उपायसे जानकीजी आकर आपको मिलें॥४॥

दो०- सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव॥५॥

कृपा के समुद्र और बल की सीमा श्रीरामजी सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए। [और बोले-] हे सुग्रीव! मुझे बताओ, तुम वन में किस कारण रहते हो?॥५॥

नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई।
प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥
मयसुत मायावी तेहि नाऊँ।
आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ।

[सुग्रीवने कहा-] हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं। हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभो! मय दानवका एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था। एक बार वह हमारे गाँव में आया॥१॥

अर्ध राति पुर द्वार पुकारा।
बाली रिपु बल सहै न पारा॥
धावा बालि देखि सो भागा।
मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा॥

उसने आधी रातको नगरके फाटकपर आकर पुकारा (ललकारा)। बालि शत्रुके बल (ललकार) को सह नहीं सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के सङ्ग लगा चला गया॥२॥

गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई।
तब बाली मोहि कहा बुझाई।।
परिखेसु मोहि एक पखवारा।
नहिं आवौं तब जानेसु मारा।

वह मायावी एक पर्वतकी गुफामें जा घुसा। तब बालिने मुझे समझाकर कहा तुम एक पखवाड़े (पंद्रह दिन) तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिनोंमें न आऊँ तो जान लेना कि मैं मारा गया॥३॥

मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी।
निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई।
सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥

हे खरारि! मैं वहाँ महीने भर तक रहा। वहाँ (उस गुफामेंसे) रक्त की बड़ी भारी धारा निकली। तब [मैंने समझा कि] उसने बालि को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा। इसलिये मैं वहाँ (गुफाके द्वारपर) एक शिला लगाकर भाग आया॥४॥

मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं।
दीन्हेउ मोहि राज बरिआईं।
बाली ताहि मारि गृह आवा।
देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा॥

मन्त्रियोंने नगरको बिना स्वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया। बालि उसे मारकर घर आ गया। मुझे [राजसिंहासनपर] देखकर उसने जीमें भेद बढ़ाया (बहुत ही विरोध माना)। [उसने समझा कि यह राज्यके लोभसे ही गुफाके द्वारपर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ; और यहाँ आकर राजा बन बैठा]॥ ५॥

रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी।
हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी॥
ताकें भय रघुबीर कृपाला।
सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला॥

उसने मुझे शत्रुके समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्रीको भी छीन लिया। हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भयसे समस्त लोकोंमें बेहाल होकर फिरता रहा॥६॥

इहाँ साप बस आवत नाहीं।
तदपि सभीत रहउँ मन माहीं॥
सुनि सेवक दुख दीनदयाला।
फरकि उठी द्वै भुजा बिसाला॥

वह शापके कारण यहाँ नहीं आता, तो भी मैं मनमें भयभीत रहता हूँ। सेवकका दुःख सुनकर दीनोंपर दया करनेवाले श्रीरघुनाथजीकी दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं॥७॥

दो०- सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥६॥

[उन्होंने कहा-] हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाण से बालिको मार डालूँगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे॥६॥

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

जो लोग मित्रके दुःखसे दुःखी नहीं होते, उन्हें देखनेसे ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वतके समान दुःखको धूलके समान और मित्रके धूलके समान दु:खको सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥१॥

...पीछे | आगे....

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book