आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०-पितु पद गहि कहि कोटि नति, बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै, तात करिअ जनि मोरि॥९५॥
चिंता कवनिहु बात कै, तात करिअ जनि मोरि॥९५॥
आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही हाथ जोड़कर विनती करियेगा कि हे तात! आप मेरी किसी बात की चिन्ता न करें। ९५॥
तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें।
बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें।
दुख न पाव पितु सोच हमारें।
बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें।
दुख न पाव पितु सोच हमारें।
आप भी पिताके समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकारसे वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हमलोगोंके सोचमें दुःख न पावें॥१॥
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू।
भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी।
प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥
भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी।
प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥
श्रीरघुनाथ जी और सुमन्त्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया॥२॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई।
लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू।
सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥
लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू।
सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥
श्रीरामचन्द्रजी ने सकुचाकर, अपनी सौगंध दिलाकर सुमन्त्रजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह सन्देश न कहियेगा। सुमन्त्र ने फिर राजा का सन्देश कहा कि सीता वनके क्लेश न सह सकेंगी॥३॥
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया।
सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना।
मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥
सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना।
मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥
अतएव जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको और श्रीरामचन्द्रजीको वही उपाय करना चाहिये। नहीं तो मैं बिलकुल ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जीऊँगा जैसे बिना जलके मछली नहीं जीती॥४॥
दो०- मइकें ससुरें सकल सुख, जबहिं जहाँ मनु मान।
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय, जब लगि बिपति बिहान॥९६॥
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय, जब लगि बिपति बिहान॥९६॥
सीता के मायके (पिताके घर) और ससुराल में सब सुख हैं। जबतक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तब तक वे जब जहाँ जी चाहे, वहीं सुख से रहेंगी॥९६।।
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती।
आरति प्रीति न सो कहि जाती।
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना।
सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥
आरति प्रीति न सो कहि जाती।
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना।
सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥
राजा ने जिस तरह (जिस दीनता और प्रेमसे) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने पिता का सन्देश सुनकर सीताजी को करोड़ों (अनेकों) प्रकार से सीख दी॥१॥
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू।
फिरहु त सब कर मिटै खभारू।
सुनि पति बचन कहति बैदेही।
सुनहु प्रानपति परम सनेही॥
फिरहु त सब कर मिटै खभारू।
सुनि पति बचन कहति बैदेही।
सुनहु प्रानपति परम सनेही॥
[उन्होंने कहा-] जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाय। पतिके वचन सुनकर जानकीजी कहती हैं-हे प्राणपति ! हे परम स्नेही! सुनिये॥२॥
प्रभु करुनामय परम बिबेकी।
तनु तजि रहति छाँह किमि छेकी॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई।
कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥
तनु तजि रहति छाँह किमि छेकी॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई।
कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥
हे प्रभो! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं। [कृपा करके विचार तो कीजिये] शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है ? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकती है? और चाँदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहाँ जा सकती है?॥३॥
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई।
कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी।
उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥
कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी।
उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥
इस प्रकार पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मन्त्री से सुहावनी वाणी कहने लगी-आप मेरे पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर देती हूँ, यह बहुत ही अनुचित है॥ ४॥
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