आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- राखिअ अवध जो अवधि लगि, रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु सुंदर सुखद, सील सनेह निधान॥६६॥
दीनबंधु सुंदर सुखद, सील सनेह निधान॥६६॥
हे दीनबन्धु! हे सुन्दर ! हे सुख देनेवाले! हे शील और प्रेमके भण्डार! यदि अवधि (चौदह वर्ष) तक मुझे अयोध्यामें रखते हैं तो जान लीजिये कि मेरे प्राण नहीं रहेंगे॥६६॥
मोहि मग चलत न होइहि हारी।
छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं।
मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।
छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं।
मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।
क्षण-क्षणमें आपके चरणकमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम ! मैं सभी प्रकारसे आपकी सेवा करूँगी और मार्ग चलने से होने वाली सारी थकावट को दूर कर दूंगी॥१॥
पाय पखारि बैठि तरु छाहीं।
करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें।
कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें।
करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें।
कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें।
आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पंखा झलूँगी)। पसीने की बूंदों सहित श्याम शरीर को देखकर-प्राणपति के दर्शन करते हुए दुःखके लिये मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा॥२॥
सम महि तृन तरुपल्लव डासी।
पाय पलोटिहि सब निसि दासी।।
बार बार मृदु मूरति जोही।
लागिहि तात बयारि न मोही।
पाय पलोटिहि सब निसि दासी।।
बार बार मृदु मूरति जोही।
लागिहि तात बयारि न मोही।
समतल भूमि पर घास और पेड़ों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी कोमल मूर्तिको देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी॥३॥
को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा।
सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥
सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥
प्रभुके साथ [रहते] मेरी ओर [आँख उठाकर] देखनेवाला कौन है (अर्थात् कोई नहीं देख सकता)! जैसे सिंहकी स्त्री (सिंहनी) को खरगोश और सियार नहीं देख सकते। मैं सुकुमारी हूँ और नाथ वनके योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय-भोग?॥४॥
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- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
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- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
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- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
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- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
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- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
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- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
अनुक्रम
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