आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- मागु मागु पै कहहु पिय, कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ, तेउ पावत संदेहु॥२७॥
देन कहेहु बरदान दुइ, तेउ पावत संदेहु॥२७॥
हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी
कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देनेको कहा था, उनके भी मिलने में सन्देह है।।
२७॥
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई।
तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।
थाती राखि न मागिहु काऊ।
बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।
थाती राखि न मागिहु काऊ।
बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
राजाने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान
करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरोंको थाती (धरोहर) रखकर फिर कभी माँगा
ही नहीं और मेरा भूलनेका स्वभाव होनेसे मुझे भी वह प्रसङ्ग याद नहीं रहा॥१॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू।
दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दोके बदले चार माँग लो। रघुकुलमें
सदासे यही रीति चली आयी है कि प्राण भले ही चले जायें, पर वचन नहीं जाता॥२॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा।
गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए।
बेद पुरान बिदित मनु गाए।
गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए।
बेद पुरान बिदित मनु गाए।
असत्यके समान पापोंका समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों धुंधचियाँ
मिलकर भी कहीं पहाड़के समान हो सकती हैं। 'सत्य' ही समस्त उत्तम सुकृतों
(पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणोंमें प्रसिद्ध है और मनुजीने भी यही
कहा है॥३॥
तेहि पर राम सपथ करि आई।
सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली।
कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।
सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली।
कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।
उसपर मेरे द्वारा श्रीरामजीकी शपथ करने में आ गयी (मुँहसे निकल
पड़ी)। श्रीरघुनाथजी मेरे सुकृत (पुण्य) और स्नेहकी सीमा हैं। इस प्रकार बात
पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने कुमत (बुरे विचार) रूपी
दुष्ट पक्षी (बाज) [को छोड़नेके लिये उस] की कुलही (आँखोंपरकी टोपी) खोल
दी॥४॥
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- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
- अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
- अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
- अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
- अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी पर स्वामिभक्ति दिखाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का निश्चय दृढृ करवाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
अनुक्रम
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